Saturday, September 8, 2018

जन्मदिन मुबारक प्रीति शेखर




आज प्रीति शेखर का जन्मदिन है . एबीपी न्यूज़ के पी सी आर में विराजती हैं . विद्वत्ता और भलमनसी के क्षेत्र एक आला मुकाम हासिल कर चुके बुलंद इंसान की बेटी हैं. प्रीति के स्व पिताजी मेरे भी हीरो थे . प्रीति के हवाले से मैंने एक बार एक कुढ़मगज़ टीवी न्यूज़ पैनलिस्ट को दुनियादारी की शिक्षा दी थी. हुआ यह कि वे पैनल पर अक्सर होते थे . एंकर पर नाराज़ होते रहते थे कि उनकी बात को बीच में कट कर देती है . मैंने समझाया कि बाबू , उस एंकर की कोई गलती नहीं है . उसके कान में पी सी आर की बॉस का कमांड आता रहता है कि इस उल्लू के पट्ठे को कट करो. इसकी बकवास को टालो . उनको मैंने समझाया कि आपको और भी आलंकारिक विश्लेषण उच्चरित होते रहते हैं .आप अपनी बात को कम से कम शब्दों में कह दिया करिए . कोशिश करिए कि तीन वाक्य में बात पूरी हो जाए . लेकिन उनको लगता था कि उनको विद्वत्ता का अजीर्ण है . जल्दी में कैसे बात ख़त्म कर सकते हैं .वे पत्रकार के रूप में अपने करियर के शुरू में अपनी बहादुरी की चर्चा से बात शुरू करते थे. और जब तक मुख्य बात पर आते थे एंकर उनको बीच में ही निपटा कर आगे बढ़ चुकी होती थी.
बहरहाल एक दिन मैंने उनको पी सी आर की भाषा से अवगत कराने का फैसला किया . एबीपी न्यूज़ के किसी डिबेट में हम दोनों साथ साथ थे . ब्रेक में कुछ देर के लिए बाहर निकले लेकिन चुपचाप पी सी आर के पैनल के पीछे खड़े हो गए. पी सी आर में सामने मशीनें होती हैं . कई लोग उस पर काम करते हैं , साउंड, पिक्चर सब पर अलग अलग लोग नज़र रखते हैं. हम पीछे चुपचाप जम गए किसी को पता नहीं लगा कि हम वहां नौजूद थे .पी सी आर ने एंकर के कान में लगे टाकबैक में पूछा कि यार वह ब्लडी शेषजी कहाँ गया . कुछ जवाब आया होगा . उसने कमांड दिया आगे से उसको बांधकर रख, . अब हमारे मित्र के बारे में सवाल हुआ . उसका भी जवाब आया होगा . पीसीआर ने उनके बारे में जो कहा उसको सुनकर उनका चेहरा गुस्से से लाल हो गया . मैं उनको पकड़ कर न्यूज़ रूम की तरफ ले गया . गुस्सा शांत हो गया लेकिन उसके बाद अच्छी बात यह हुई कि उन्होंने एंकर के ऊपर उनकी बात पूरी न करने का आरोप लगाना बंद कर दिया .अच्छी बात यह भी रही कि प्रीति को भी इस बात का पता नहीं चला क्योंकि पता चलने पर नाराज़ हो सकती थी. प्रीति की बेहतरीन शख्सियत की बहुत सारी बातें हैं . ईश्वर उस जैसी ही बेटी सबको दे.
Priti Shekhar is well read, well informed and she has a great sense of humour , Happy birthday beta , very happy birthday

Wednesday, September 5, 2018

जातियों के संघर्ष को न रोका गया तो बात बहुत बिगड़ सकती है .



शेष नारायण सिंह

आज देश जातियों के मध्य बुरी तरह से बंटा हुआ  है . सवर्ण और  अनुसूचित जातियों के भंवर में देश पड़ा हुआ है . ताज़ा विवाद सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले के इर्द गिर्द मंडरा रहा है . इसी साल मार्च में सुभाष काशीनाथ महाजन के केस में सुप्रीम कोर्ट ने जब  अनुसूचित जातियों  पर होने वाले अत्याचार पर काबू पाने के लिए बनाए गए कानून  में  कुछ परिवर्तन  कर दिया तो २ अप्रैल को  अनुसूचित जातियों के संगठनों ने बंद का आयोजन किया जो कई जगह हिंसक हो गया था . उसके बाद केंद्र सरकार दबाव  में आ गयी और  सुप्रीमकोर्ट द्वारा लाये गए कुछ सुधारों को मौजूदा सरकार ने  जल्दी जल्दी में बदल दिया . गैर अनुसूचित  जातियों का आरोप रहा है कि एस सी /एस टी एक्ट के नाम पर उनको परेशान किया जाता रहा है .उसी के सन्दर्भ में सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दी गयी थी . सुप्रीम कोर्ट ने अपना फैसला सुना दिया था  .अपने आदेश में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि एससी/एसटी ऐक्ट  में केस दर्ज होते ही जो गिरफ्तारी का प्रावधान है वह सही नहीं है . गिरफ्तारी के पहले जाँच कर लेनी चाहिए . ऐसे मामलों में अग्रिम जमानत को भी मंजूरी दे दी गयी थी . कोर्ट ने कहा था कि एससी/एसटी ऐक्ट  में दर्ज एफ आई आर के बाद पुलिस को चाहिये कि शुरुआती जांच करके  अगर केस में दम हो तो सात दिन के अन्दर गिरफ्तारी करे . मूल एससी/एसटी ऐक्ट में अग्रिम जमानत का प्रावधान नहीं था . अपने फैसले में सुप्रीम कोर्ट की जस्टिस ए के गोयल और यू यू ललित की बेंच ने अग्रिम जमानत का प्रावधान जोड़ने का आदेश दे दिया था । इस ऐक्ट के सेक्शन 18 के मुताबिक इसके तहत दर्ज केसों में अग्रिम जमानत का प्रावधान नहीं था. फैसले में लिखा था कि बेगुनाह लोगों के सम्मान और उनके हितों की रक्षा के लिए यह  व्यवस्था जरूरी थी. एससी/एसटी ऐक्ट के दुरुपयोग के मामलों को देखते हुए यह जरूरी है कि सक्षम अधिकारी से मंजूरी लेकर ही किसी सरकारी कर्मचारी को गिरफ्तार किया जाए। इसके अलावा गैर-सरकारी कर्मी को अरेस्ट करने के लिए जिले के सक्षम पुलिस अधिकारी से मंजूरी ली जाए . एससी/एसटी ऐक्ट के तहत दर्ज कराए गए मामलों में उप पुलिस अधीक्षक स्तर के अधिकारी से जाँच के बाद ही आगे की कारर्वाई हो. . हुआ यह  था  कि एससी/एसटी ऐक्ट  का बड़े पैमाने पर  दुरुपयोग हो रहा था. किसी एससी/एसटी के व्यक्ति को आगे करके गाँवों में लोग अपने पड़ोसी से निजी दुश्मनी का बदला ले रहे थे . दफ्तरों में भी एससी/एसटी ऐक्ट  का ब्लैकमेल के हथियार के रूप में इस्तेमाल किया जा जा रहा  था. सुप्रीम कोर्ट ने अपने आदेश में कहा था  कि अब यह पता लगा कर कि आरोप की सच्चाई क्या है , जांच को आगे बढाया  जाएगा .
लेकिन जब सरकार ने संसद में नया कानून पास कर दिया तो सवर्ण जातियों में बहुत नाराजगी देखी गयी .कुछ मामले  भी ऐसे  मीडिया में आये जिससे साफ़ पता चलता है कि एस सी एक्ट का दुरुपयोग हुआ . नोयडा में एक दलित ए डी एम  ने एक रिटायर्ड फौजी कर्नल को मारा पीटा और उसके खिलाफ  नए एक्ट के तहत कार्रवाई भी करवा दिया . हल्ला गुल्ला हुआ और  सरकार के हस्तक्षेप के बाद कर्नल को रिहा किया गया लेकिन अगर यह मामला हाई प्रोफाइल कर्नल का न होता तो वह  निर्दोष कर्नल कम से कम दस महीने के लिए जेल जा चुका था . बहरहाल सवर्ण वार्गों में नाराज़गी  है , सभी पार्टियां वोट बैंक की राजनीति खेल रही हैं और छहः सितम्बर को सवर्णों का भारत बंद कर दिया गया है .
दलित एक्ट में सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप के मामले की भूमिका में जाना ज़रूरी है . एससी समुदाय के एक व्यक्ति ने महाराष्ट्र में सरकारी अफसर सुभाष काशीनाथ महाजन के खिलाफ एफ आई आर कराया दर्ज था . आरोप था कि महाजन ने  अपने अधीन काम करने वाले एस सी कर्मचारियों के ऊपर जातिसूचक टिप्पणी की थी. लेकिन सुभाष काशीनाथ महाजन का कहना  था  कि ऐसा नहीं था . वास्तव में ड्यूटी पर  सही काम न करने के कारण कार्रवाई की गयी थी. उन्होंने कोर्ट से कहा कि अगर किसी अनुसूचित जाति के व्यक्ति के खिलाफ ईमानदार टिप्पणी करना अपराध हो जाएगा तो इससे काम करना मुश्किल हो जाएगा। उन्होंने  एफआईआर खारिज कराने के लिए हाई कोर्ट में अर्जी दी लेकिन मुंबई हाई कोर्ट ने इससे इनकार कर दिया था। हाई कोर्ट के इसी फैसले को सुभाष काशीनाथ महाजन ने सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी थी।महाजन की अर्जी पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला आया था जिस पर बहुत बड़ा विवाद खड़ा हो गया  है. माननीय सुप्रीम कोर्ट ने महाजन के खिलाफ लिखी गयी एफ आई आर को तो खारिज कर ही दिया  एस सी /एस  टी ऐक्ट के तहत तत्काल गिरफ्तारी पर रोक का आदेश दे दिया था। सुप्रीम कोर्ट ने ऐसे मामलों में अग्रिम जमानत को भी मंजूरी दे दी थी। इस फैसले के खिलाफ  प्रदर्शन शुरू हो गए। अनुसूचित जाति के संगठनों  और  राजनीतिक दलों की ओर से केंद्र सरकार से इस मसले पर अपना रुख स्पष्ट करने की मांग की गई।  सरकार ने इस केस में  पुनर्विचार याचिका दाखिल किया लेकिन दो अप्रैल के बंद से डरी हुयी सरकार ने संसद के  मानसून सत्र में  एक नया एक्ट पारित करवा लिया . नए एक्ट में पुराने कानून से भी सख्त प्रावधान कर दिए गए .अब  नए कानून के खिलाफ  सवर्ण जातियों के लोग मैदान में हैं . उनक आरोप है कि सरकार एस सी /एस टी समुदाय के वोटों की लालच में इस तरह का का काम कर रही है . छः  सितम्बर का भारत बंद  सरकार पर दबाव बनाने के लिए ही बुलाया गया .
अपने देश में जाति से सम्बंधित झगड़े अब बहुत ही अधिक होने लगे हैं .  कहीं किसी के घोडी पर चढ़ने पर विवाद हो जाता  है तो  कहीं किसी की मूंछ पर  झगड़ा हो जाता है. शादी ब्याह में जाति के आधार पर झगड़े और क़त्ल की ख़बरें तो अक्सर ही आती रहती हैं. इस समस्या में रोज़ ही वृद्धि हो रही . लगता  है कि इसको कानून व्यवस्था की समस्या मानकर चलने वाली सरकारें  अंधेरे में टामकटोइयां मार रही हैं . यह समस्या कानून व्यवस्था की समस्या नहीं है . यह वास्तव में सामाजिक समस्या  है और इसका हल राजनीतिक तरीके ही  निकलेगा . जिसके लिए कहीं जाने की ज़रूरत भी नहीं है . संविधान की ड्राफ्टिंग कमेटी का अध्यक्ष डॉ बी आर आंबेडकर की महत्वपूर्ण किताब The Annihilation of caste में  बहुत ही साफ शब्दों में कह दिया है कि जब तक जाति प्रथा का विनाश नहीं हो जाता समतान्याय और भाईचारे की शासन व्यवस्था नहीं कायम हो सकती। जाहिर है कि जाति व्यवस्था का विनाश हर उस आदमी का लक्ष्य होना चाहिए जो डॉ अंबेडकर के दर्शन में विश्वास रखता हो। The Annihilation of caste के बारे में यह जानना दिलचस्प होगा कि वह एक ऐसा भाषण है जिसको पढ़ने का मौका उन्हें नहीं मिला था लाहौर के जात पात तोड़क मंडल की और से उनको मुख्य भाषण करने के लिए न्यौता मिला था . जब डाक्टर साहब ने अपने प्रस्तावित भाषण को लिखकर भेजा तो ब्राहमणों के प्रभुत्व वाले जात-पात तोड़क मंडल के कर्ताधर्ताकाफी बहस मुबाहसे के बाद भी इतना क्रांतिकारी भाषण सुनने कौ तैयार नहीं हुए। शर्त लगा दी कि अगर भाषण में आयोजकों की मर्जी के हिसाब से बदलाव न किया गया तो भाषण हो नहीं पायेगा। डॉ अंबेडकर ने भाषण बदलने से मना कर दिया। और उस सामग्री को पुस्तक के रूप में छपवा दिया जो आज हमारी ऐतिहासिक धरोहर का हिस्सा है।  पुस्तक में जाति के विनाश की राजनीति और दर्शन के बारे में गंभीर चिंतन है. इस देश का दुर्भाग्य है कि आर्थिकसामाजिक और राजनीतिक विकास का इतना नायाब तरीका हमारे पास हैलेकिन उसका इस्तेमाल नहीं किया जा रहा है। डा अंबेडकर के समर्थन का दम ठोंकने वाले लोग ही जाति प्रथा को बनाए रखने में रूचि रखते  हैं और उसको बनाए रखने के लिए एड़ी चोटी का जोर लगा रहे हैं। जाति के विनाश के लिए डाक्टर अंबेडकर ने सबसे कारगर तरीका जो बताया था वह अंर्तजातीय विवाह का थालेकिन उसके लिए राजनीतिक स्तर पर कोई कोशिश नहीं की जा रही हैलोग स्वयं ही जाति के बाहर निकल कर शादी ब्याह कर रहे हैयह अलग बात है।

इस पुस्तक में डॉ अंबेडकर ने अपने आदर्शों का जिक्र किया है। उन्होंने कहा कि जातिवाद के विनाश के बाद जो स्थिति पैदा होगी उसमें स्वतंत्रताबराबरी और भाईचारा होगा। एक आदर्श समाज के लिए दे आबेडकर का यही सपना था। एक आदर्श समाज को गतिशील रहना चाहिए और बेहतरी के लिए होने वाले किसी भी परिवर्तन का हमेशा स्वागत करना चाहिए। एक आदर्श समाज में विचारों का आदान-प्रदान होता रहना चाहिए।डॉ अंबेडकर का कहना था कि स्वतंत्रता की अवधारणा भी जाति प्रथा को नकारती है। उनका कहना है कि जाति प्रथा को जारी रखने के पक्षधर लोग राजनीतिक आजादी की बात तो करते हैं लेकिन वे लोगों को अपना पेशा चुनने की आजादी नहीं देना चाहते . इस अधिकार को अंबेडकर की कृपा से ही संविधान के मौलिक अधिकारों में शुमार कर लिया गया है और आज इसकी मांग करना उतना अजीब नहीं लगेगा लेकिन जब उन्होंने  यह बात कही थी तो उसका महत्व बहुत अधिक था। अंबेडकर के आदर्श समाज में सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा हैबराबरी ब्राहमणों के आधिपत्य वाले समाज ने उनके इस विचार के कारण उन्हें बार-बार अपमानित किया लेकिन अंबेडकर ने अपने विचारों में कहीं भी ढील नहीं होने दी।
एससी/एसटी ऐक्ट  और उससे जुड़े विवाद को हल करना सरकार का कर्तव्य है लेकिन सरकार का यह भी कर्तव्य है कि वह  जाति के संघर्ष का स्थाई हल निकालने की कोशिश भी करे . संविधान लागू होने के अडसठ साल बाद भी हम देखते हैं कि हमारा समाज जातियों के बंटवारे में पूरी तरह से जकड़ा हुआ है . अगर जाति के विनाश की दिशा में प्रभावी क़दम उठाये  गए होते तो आज यह दुर्दशा न हो रही होती . इसलिए ज़रूरी है कि मौजूदा संघर्ष की स्थिति को तो फौरान काबू किया ही जाये लेकिन दूरगामी हल के  लिए भी प्रयास किया जाय.  यह दूरगामी समाधान तभी संभव होगा जब  जाति की संस्था का  विनाश  सुनिश्चित किया जा सकेगा . 




Tuesday, September 4, 2018

डॉ राही मासूम रज़ा 01-09-2018

जिस गली ने मुझे सिखलाए थे आदाबे-जुनूं
उस गली में मेरे पैरों के निशां कैसे हैं-डॉ राही मासूम रज़ा
१ सितम्बर ,डॉ राही मासूम रज़ा का जन्मदिन . राही को गए पचीस साल से ज़्यादा हो गए लेकिन उनके चरित्रों के ज़रिये उनकी याद हमेशा आती रहती है . चाहे फुन्नन मियाँ हों , या नीले तेल वाला शुक्ला , या ठा वज़ीर हसन हों ,राही के चरित्र मेरा पीछा कभी नहीं छोड़ते .
डॉ राही मासूम रज़ा ने महाभारत सीरियल को ज़बान दी थी और उसके लिए उनको बहुत लोग याद करते हैं . लेकिन मैं उनको इसलिए याद करता हूँ कि उस आदमी के दिल में मुहब्बत का स्थाई पता था, वे अपने गाँव गंगौली से बहुत मुहब्बत करते थे, वे गाजीपुर के दीवाने थे और वहां बहने वाली नदी गंगा को अपनी मां मानते थे . अलीगढ मुस्लिम यूनिवर्सिटी को भी वे अपनी मां मानते थे .अलीगढ़ को उन्होंने अपने उपन्यास 'टोपी शुक्ला' में अमर कर दिया था .. आज राही के जन्मदिन पर उनकी दो नज्में शेयर करना चाहता हूँ , पहली अलीगढ़ के बारे में जिसको वे शहरे तमन्ना कहते थे ., इस नज़म में अपने उसी शहरे तमन्ना को उन्होने याद किया है .
कुछ उस शहरे-तमन्ना की कहो
ओस की बूंद से क्या करती है अब सुबह सुलूक
वह मेरे साथ के सब तश्ना दहां कैसे हैं
उड़ती-पड़ती ये सुनी थी कि परेशान हैं लोग
अपने ख्वाबों से परेशान हैं लोग
****

जिस गली ने मुझे सिखलाए थे आदाबे-जुनूं
उस गली में मेरे पैरों के निशां कैसे हैं
शहरे रुसवाई में चलती हैं हवायें कैसी
इन दिनों मश्गलए-जुल्फे परीशां क्या है
साख कैसी है जुनूं वालों की
कीमते चाके गरीबां क्या है
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कौन आया है मियां खां की जगह
चाय में कौन मिलाता है मुहब्बत का नमक
सुबह के बाल में कंघी करने
कौन आता है वहां
सुबह होती है कहां
शाम कहां ढ़लती है
शोबए-उर्दू में अब किसकी ग़ज़ल चलती है
****
चांद तो अब भी निकलता होगा
मार्च की चांदनी अब लेती है किन लोगों के नाम
किनके सर लगता है अब इश्क का संगीन इल्जाम
सुबह है किनके बगल की जीनत
किनके पहलू में है शाम
किन पे जीना है हराम
जो भी हों वह
तो हैं मेरे ही कबीले वाले
उस तरफ हो जो गुजर
उनसे ये कहना
कि मैंने उन्हें भेजा है सलाम
बाद के दिनों में मुसलमानों के प्रति नफ़रत जब एक कारोबार की शक्ल ले चुका तो राही मासूम रज़ा को बहुत तकलीफ हुयी थी . उनको इस बात पर बहुत फख्र होता था कि उनकी रगों में गंगा का पानी भी खून में मिलाकर बहता था . अपनी गंगा के बारे में उनका दर्द देखिए:
मेरा नाम मुसलमानों जैसा है
मुझ को कत्ल करो और मेरे घर में आग लगा दो।
मेरे उस कमरे को लूटो
जिस में मेरी बयाज़ें जाग रही हैं
और मैं जिस में तुलसी की रामायण से सरगोशी कर के
कालिदास के मेघदूत से ये कहता हूँ
मेरा भी एक सन्देशा है
मेरा नाम मुसलमानों जैसा है
मुझ को कत्ल करो और मेरे घर में आग लगा दो।
लेकिन मेरी रग रग में गंगा का पानी दौड़ रहा है,
मेरे लहु से चुल्लु भर कर
महादेव के मूँह पर फ़ैंको,
और उस जोगी से ये कह दो
महादेव! अपनी इस गंगा को वापस ले लो,
ये हम ज़लील तुर्कों के बदन में
गाढा, गर्म लहु बन बन के दौड़ रही है।
राही मासूम रज़ा की किताब ' दिल एक सादा कागज़ ' मेरे हाथ में है. मुझे ठेकमा नहीं गंगौली के उस दीवाने को पढ़ना बहुत अच्छा लगता है 

Sunday, September 2, 2018

डॉ राही मासूम रज़ा की याद


शेष नारायण सिंह  

डॉ राही मासूम रज़ा ने जो कुछ भी लिखा है ,बहुत ही  आला दर्जे का लिखा है . उनके उपन्यास आधा गाँव,टोपी शुक्ला, हिम्मत जौनपुरी,ओस की बूँद,दिल एक सादा कागज़, कटरा बी आर्ज़ू, और नीम का पेड़ मैंने पढ़ा है . ख़ुदा हाफ़िज़ कहने का मोड़ भी पढ़ा है. उनके ज़रिये ही उनके गाँव के लोगों को जानता हूँ. राही की शैली मुझे अपनी लगती है . उनके उपन्यासों में बहुत सारे असली चरित्र होते हैं . दिल एक सादा कागज़ एक बार  फिर पढ़ा उनके जन्मदिन पर .उनका  यह उपन्यास बार बार हार जाने के बाद भी जिंदा रहने की जिद की कहानी है , समझौतों की कहानी है . आज़ादी के पहले और उसके बाद के नकलीपन को रेखांकित करने की कहानी है . सिस्टम का हिस्सा बनकर  जिंदा रहने की कोशिश की कहानी है . मुझे  इस उपन्यास में  कहीं  कोने अंतरे में मेरा   ," मैं " झांकता नज़र आता है . आज  के कई दशक पहले जब इसको पहली बार पढ़ा था तो सोचा था कि अपनी शर्तों पर ज़िंदगी जियूँगा , मैं रफ्फन की तरह समझौते नहीं करूंगा . मैं भी डिग्री कालेज की मास्टरी छोड़कर आया था . तय यह किया था कि जिस औरत से शादी की है उसके बच्चों को उसी की मर्जी की बुलंदी पर ले जाऊँगा .   चार  दशक के बाद जब इस किताब को फिर पढ़ा तो लगा कि केवल शिक्षा की पूंजी लेकर ,दिमाग की पूंजी लेकर चल रहे लोगों को समझौते करने पड़ते हैं . रफ्फन  जितने तो नहीं लेकिन काफ़ी  समझौते मैंने भी किये . लेकिन  जब उस औरत को संतुष्ट  देखता हूँ तो लगता है कि ठीक ही किया .दिल एक सादा कागज़ की कुछ पंक्तियाँ मुझे आज बहुत अच्छी लग रही हैं . राही लिखते हैं ," रफ्फन उस पल इस नतीजे  पर पंहुचा कि जन्नत ( उसकी बीवी ) दुनिया की सबसे ज़्यादा खूबसूरत  औरत है और उसी पल वह अपनी जन्नत और जन्नत बाजी को अलग-अलग करके देखने में पहली बार सफल भी  हुआ .और उसने अपने आपको बेच देने के जुर्म पर अपने आपको क्षमा कर दिया "
अलीगढ से नौकरी से निकाले जाने के  बाद जब कोई भी  डॉ राही मासूम रज़ा के साथ खड़ा होने को तैयार नहीं था ,तब राजकमल प्रकाशन की मालकिन और स्वनामधन्य बुद्धिजीवी , स्व.शीला संधू ने उनको मानसिक सहारा दिया था .   यह उपन्यास  राही ने उनको ही समर्पित किया  है. समर्पण करते हुए लिखते हैं ,


" शीला जी ,आपने मुझे एक ख़त में लिखा है : " फिल्मों में ज्यादा मत फंसियेगा.यह भूल भुलैया है .इसमें लोग खो जाते हैं .......आशा है ,आप खैरियत से होंगे."

मैं खैरियत से नहीं हूँ

' दिल एल सादा कागज़ मेरी जीवनी भी हो सकता था .पर यह मेरी जीवनी नहीं है . इसके पन्नों में उदासी-सी जो कोई चीज़ है ,उसे स्वीकार कीजिये . इसलिए स्वीकार कीजिये कि मेरी नई ज़िंदगी की दस्तावेज़ पर पहला दस्तखत आप ही का है .

सात साल के  बाद आपको वह दोपहर याद दिलवा रहा हूँ जिसमें मेरा साथ देने वाला कोई नहीं था . मैं नय्यर के साथ बिलकुल अकेला था और तब आपने कहा था : " फ़िक्र क्यों करते हो . मैं तुम लोगों के साथ हूँ ."उसी बेदर्द और बेमुरव्वत दोपहर की याद में यह उपन्यास आपकी नज़र है .

राही मासूम रजा
१५-९-७३



क्या अखिलेश-मायावती गठबंधन की काट बनेगा बीजेपी का शिवपाल मिसाइल ?

Written on September 2 ,2018
शेष नारायण सिंह

उत्तर प्रदेश की राजनीति बहुत ही दिलचस्प मुकाम पर पंहुच चुकी है .२०१४ में  दिल्ली में बीजेपी के प्रधानमंत्री की शपथ के पीछे वैसे तो देश की बड़ी  आबादी ( 31 %) का समर्थन था लेकिन उत्तर प्रदेश से चुनकर गए 73 सांसदों का समर्थन बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा था.  2014 के चुनाव में बीजेपी के अलावा  बाकी पार्टियां शून्य और पांच के बीच सिमट गयी थीं . लेकिन बाद में राज्य में जब लोकसभा के लिए उपचुनाव हुए तो  राज्य की तीन महत्वपूर्ण सीटों पर बीजेपी के उम्मीदवार चुनाव हार गए . बीजेपी के समर्थन में कोई कमी नहीं आयी थी लेकिन उनके  उम्मीदवारों के विरोध में खंडित विपक्ष नहीं था. मायावती और अखिलेश यादव की सारी ताक़त एकजुट हो गयी थी नतीजतन बीजेपी की तीन सीटें कम  हो गयीं . यह तीन सीटें कोई मामूली सीटें नहीं थीं . राज्य के मुख्यमंत्री  और उपमुख्यमंत्री  की सीटें थीं , कैराना की सीट थी जहां  हुए २०१३ के दंगों  के बाद ऐसी स्थिति बन गयी थी जिससे पूरे देश में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण  की राजनीति उफान पर थी और बीजेपी के पक्ष में माहौल बन गया था. उसके बाद  २०१७ में हुए विधान सभा के चुनाव में भी बीजेपी को तीन चौथाई बहुमत मिला था लेकिन फूलपुरकैराना और गोरखपुर के चुनावों ने उस सारे तूफ़ान के आगे ब्रेक लगा दिया था.
२०१७ के विधानसभा चुनावों में  एक और फैक्टर काम कर रहा था. समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष के परिवार में भारी फूट पड़ गयी थी ,शिवपाल यादव बहुत नाराज़ थे और उनके साथी संगी , पार्टी अध्यक्ष अखिलेश यादव के खिलाफ पूरी  मेहनत से काम कर रहे थे . शायद यही वजह थी इटावा के आस पास के जिलों में शिवपाल यादव के प्रभाव के इलाकों में  बीजेपी को बड़ी सफलता हाथ लगी . उसके बाद अखिलेश यादव की समझ  में आ गया कि बीजेपी उत्तर प्रदेश में भी  बड़ी पार्टी है और उनकी पार्टी मुलायम सिंह यादवशिवपाल यादव ,  राम गोपाल यादव आदि के वफादार कार्यकर्ताओं का समागम है .  केवल निजी वफादारी की पूंजी के साथ राजनीतिक  लडाइयां नहीं लड़ी  जातीं. उसी समझदारी का नतीजा है अखिलेश यादव ने ऐसा क़दम उठाया जिसकी उम्मीद किसी को नहीं थी . उन्होंने फूलपुर और गोरखपुर उपचुनावों में मायावती से मदद की अपील की और मायावती ने अपना  उम्मीदवार नहीं खड़ा किया .इतना ही नहीं  अखिलेश यादव के उम्मीदवार  को समर्थन दे दिया .बाकी तो इतिहास  है. बीजेपी  चुनाव हार गयी . लोकसभा में तीन सीटें कम हो जाने से सत्ताधारी पार्टी की सरकार को कोई फर्क नहीं पड़ने वाला था लेकिन एक सन्देश बहुत ही मजबूती से समकालीन राजनीति के पन्नों पर दर्ज हो गया कि अगर उत्तर प्रदेश में मायावती और अखिलेश यादव एकजुट  हो जाते हैं तो बीजेपी के लिए बहुत ही मुश्किल होगी .
अखिलेश यादव और मायावती की एकता से संभावित नुकसान को कम करने के लिए बीजेपी की सरकार और पार्टी नेतृत्व की कोशिशें जारी हैं . अमित शाह को एक ऐसे राजनेता के रूप में माना  जाता है जो चुनाव जीतने के विशेषज्ञ हैं. . समय ने देखा है कि उन्होंने गुजरात  विधान सभा के चुनाव को किस तरह से हार के मुंह से घसीट कर अपनी पार्टी को जीत दिलवा दी थी .  कर्णाटक चुनाव कवर करने वाले रिपोर्टरों को पता है कि किस तरह से उन्होंने गाँव गाँव ,शहर शहर घूमकर उन्होंने अपनी पार्टी को सबसे बड़ी पार्टी बना दिया था.  लोकसभा २०१९ में भी  वे उत्तर प्रदेश में अपनी सारी क्षमता को लगा देंगें और अखिलेश यादव-मायावती टीम को सफल होने से रोकने की हर कोशिश करेंगे .
मायावती -अखिलेश के गठबंधन को कमज़ोर करने की दिशा में बीजेपी ने  सारी राजनीति को दलित और पिछड़ा केन्द्रित करने की कोशिश शुरू कर दी है . पिछड़ा वर्ग आयोग को संवैधानिक दर्ज़ा देना उसमें प्रमुख  है . दलितों को अपने पक्ष में करने के लिए बीजेपी की केंद्र सरकार ने  एस सी एस टी एक्ट  में बदलाव करने वाले सुप्रीम कोर्ट के फैसले को नया कानून लाकर सुप्रीम कोर्ट की मंशा को बदल दिया है. दलित वोट को अपनी तरफ करने के लिए नरेंद्र मोदी सरकार ने बड़ा खतरा लिया है . उत्तर प्रदेश की राजनीति का मामूली जानकार भी बता देगा कि सवर्ण जातियां  बीजेपी की मुख्य शक्ति हैं . एस सी एस टी एक्ट  में बदलाव करके बीजेपी ने  सवर्ण जातियों को नाराज़ कर दिया है लेकिन दलितों पर  उनकी नज़र है . दिल्ली के सत्ता के गलियारों की राजनीति के जानकार बता रहे हैं कि शिवपाल यादव का सेकुलर मोर्चा भी बीजेपी की उसी रणनीति का हिस्सा  है जिसके तहत समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव को उनके घर में ही कमज़ोर करके घेर दिया जाना है . शिवपाल यादव  की नाराज़गी का फायदा बीजेपी २०१७ के विधानसभा चुनावों में  ले चुकी है . इसलिए प्रोजेक्ट शिवपाल  भी बीजेपी के २०१९ की रणनीति का ही हिस्सा  माना जाएगा .लखनऊ में एक टीवी चैनल के कार्यक्रम को अखिलेश यादव से जब शिवपाल यादव की नाराज़गी के बारे में पूछा गया तो उन्होंने बात को मामूली बताकर टाल दिया और कहा कि चुनाव करीब आने पर इस तरह की मिसाइलें दागी जायेंगी .इसका आशय यह हो सकता है कि   उनके दिमाग  में कोई योजना  है कि शिवपाल से होने वाले नुकसान कैसे कंट्रोल किया जाएगा . वैसे शिवपाल यादव ने इलाहाबाद के नेता अतीक अहमद को साथ लेने की पेशकश करके अपनी योजना का संकेत दे दिया है . साफ़ संकेत है कि बाहुबली वर्ग उनके साथ है और  अखिलेश यादव से नाराज़  सपाइयों के लिए शिवपाल का दरबार कोपभवन का काम करेगा . उस कोपभवन में बाहुबलियों की एक जमात दस्ताक दे रही है.
अखिलेश यादव की समस्या यह  है कि वे शिवपाल यादव को  बहुत महत्व  नहीं दे सकते . उनकी रणनीति में बहुजन समाज पार्टी की अध्यक्ष मायावती का साथ  सबसे महत्वपूर्ण है . शिवपाल यादव से मायावती को बहुत ही ज़्यादा गुस्सा है . वे लखनऊ का  गेस्ट हाउस काण्ड कभी नहीं भूल सकतीं  . उस काण्ड के बारे में कहा  जाता  है कि शिवपाल यादव के साथ आये कुछ गुंडों ने मायावती को अपमानित किया था. जब मायावाती और अखिलेश  यादव की राजनीतिक निकटता  बढ़ी तो मायावती  से गेस्ट हाउस काण्ड के बारे में पूछा गया था . उन्होंने कहा कि उसका विलेन कोई और था अखिलेश यादव तो उन दिनों बच्चे थे . यानी वे अखिलेश यादव के साथ राजनीतिक रिश्ता रखने को तो तैयार हो  सकती   हैं लेकिन गेस्ट हाउस काण्ड के  कर्ता धर्ता को स्वीकार नहीं करेंगी . शिवपाल यादव से दूरी बनाकर अखिलेश यादव ने स्पष्ट कर दिया है कि वे  मायावती को  नाराज़ नहीं करना चाहते और शिवपाल यादव से अब उनका राजनीतिक वैमनस्य शुरू हो चुका है . इसी वैमनस्य की बुनियाद पर सपा-बसपा गठबंधन बनाने की योजना क्या रंग लाती है ,यह वक़्त ही बताएगा

वामपंथ और दक्षिणपंथ के बीच में ग्रे के बहुत शेड्स होते हैं .

Witten on September 1, 2018
शेष नारायण सिंह

हमारे मित्र शीतल सिंह एक जागरूक इंसान हैं .राजनीति की बारीकियों को सही तरह  से समझने की उनकी ट्रेनिंग है . एक पत्रकार के रूप में उन्होंने राजनीति को बहुत ही करीब से देखा   है. समकालीन राजनीति की परतों को अच्छी तरह से नेर देते हैं . मैं उनकी बातों को  अक्सर  सही मानता हूँ .  शीतल लिखते हैं कि ," बीच का रास्ता नहीं होता  .अरुण शौरी जो आज अपने ही लिखे पढ़े गढ़े के विलोम पर आ खड़े हुए हैं इसे बेहतर समझ सकते हैं एक समय रजनीश ने भी यह ऐसे ही समझा था जिसे मेरे मित्र और अग्रज Chanchal Bhu हमेशा नकारते आये हैं कि ,विचारधारा या तो वाम होगी या दक्षिण वह बीच में ठहरी नहीं रह सकती ।"
इस बार मैं शीतल सिंह की बात से सहमत नहीं हूँ . सारी राजनीतिक समझ को केवल वाम और दक्षिण के दो खांचों में लपेट देने का मतलब यह है कि हमने वह स्वीकार कर लिया है जो अति दक्षिणपंथी हुक्मरान चाहते हैं या अपना सब कुछ गँवा चुके वामपंथी राजनेता सत्ता से नाराज़ लोगों को अपने खरके में हांक लेने के लिए कंगूरों पर चढ़कर बांग दे  रहे होते हैं.  अगर सारी राजनीति को केवल दो खेमों में बाँट दिया गया तो अन्य बातों के अलावा यह तर्क पद्धति अति साधारणीकरण के दोष का शिकार हो जायेगी . अमरीका के एक उदहारण से बात को सही सन्दर्भ में रखने की कोशिश की जायेगी . वहां के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप को अमरीकी पत्रकार बिरादरी कई बार  फासिस्ट कह देती है और बराक ओबामा को सोशलिस्ट.  लेकिन ट्रंप फासिस्ट नहीं है . हाँ अगर उनको आज़ादी मिली तो अपनी मूर्खता के  स्तर के हिसाब से वह फासिस्ट हो सकते हैं . सच्चाई यह  है कि वे अमरीकी राष्ट्रवाद के लठैत  हैं और यथास्थितिवादी पूंजीवाद की वकालत करते रहते हैं . जबकि ओबामा  सोशलिस्ट तो बिलकुल नहीं हैं. उनको नव उदारवादी कहा जा सकता है . दोनों ही दक्षिणपंथी और पूंजीवादी  हैं और अपनी राजनीतिक सुविधा के हिसाब से अमरीका की  पूंजीवादी विचारधारा को राजनीतिक सोच का रंग देते रहते हैं . जो लोग  ट्रंप को फासिस्ट कहते हैं उनको डर  है कि यह  राष्ट्रपति चूंकि मूलतः बकलोल है और राष्टपति के रूप में उसके पास अकूत पावर है तो यह कहीं फासिस्ट न हो जाये . उसको फासिस्ट कहने वाले एक तरह से पेशबंदी कर रहे होते हैं  कि कहीं वह वास्तव में फासिस्ट हो न जाए . उसी तरह से ओबामा को सोशलिस्ट कहने वाले उनके उन कामों को रेखांकित कर रहे होते हैं जो उन्होंने अमरीकी समाज के निचले वर्गों के लिए किया . लेकिन यह तय है कि ओबामा अमरीकी पूंजीवादी व्यवस्था को मज़बूत करने के लिए अमरीकी गरीबों या मध्यवर्ग को केवल को-आप्ट कर रहे होते थे . हमारे देश में भी जब किसानों गरीबों और शोषित पीड़ित लोगों के हित के लिए कहीं रसोई गैस , कहीं फसल बीमा की बात की जा रही  होती है तो वह गरीबों को इम्पावर करने की दिशा में कोई क़दम नहीं होता . पूंजीवादी अर्थशास्त्र के लाभार्थियों के लिए गरीब जनता  का होना बहुत ज़रूरी शर्त है और उन लोगों को गरीब बनाए रखने के  लिए ओबामा या भारत सरकार की स्कीमों को केवल लालीपाप का बंदोबस्त ही माना  जाएगा . क्योंकि अगर  सोशलिस्ट नीतियों की बात की जाए तो शोषित पीड़ित जनता के हाथ में सत्ता की चाभी देने की बात भी आयेगी और वह न तो ओबामा कर रहे  थे और  न ही इंदिरा गांधी और न मौजूदा बीजेपी  . वामपंथी राजनीति की सबसे ज़रूरी शर्त  है कि वह सत्ताहीन वर्गों को सत्ता पर नियंत्रण की दिशा में क़दम उठाये . भारत में  सोशलिस्ट नाम पर राजनीति करने वाले सभी वर्गों ने ऐतिहासिक रूप से सत्ताधारी वर्गों और उनको  संचालित  करने वाले थैलीशाहों को ही मज़बूत किया है . हालांकि पी सी जोशी, राम मनोहर लोहिया , आचार्य  नरेंद्र देव   आदि ने शोषित पीड़ित लोगों के हाथ में वास्तविक सत्ता देने की बात की थी लेकिन उनके उत्तरवर्ती नेताओं ने  हमेशा ही  स्थापित सत्ता के चाकर के रूप में ही काम किया .
 शीतल सिंह की बात को आगे बढाते हुए यह कहना ज़रूरी है कि आज  भारत की राजनीति में सत्ताधारी वर्ग अपने को ऐलानियाँ दक्षिणपंथी पूंजीवादी अर्थशास्त्र का पोषक बताता है .उनकी कोशिश  है  कि जो उनके साथ पूरे समर्पण भाव से  नहीं लगा हुआ है , उसको  वामपंथी घोषित करके अपना वर्गशत्रु घोषित कर दें . और उनपर वही कार्रवाई करें जो मैकार्थी ने  किया था .उधर वामपंथी राजनीति की रोटी तोड़ रहे सियासी दल इस चक्कर में हैं कि जिन लोगों को भी  सत्ताधारी दक्षिणपंथी आका वामपंथी घोषित  करें उनको वे अपना बन्दा बना कर राजनीतिक गोलबंदी शुरू कर दें . यह स्थिति बहुत ही भयावह  है . इस देश में एक बहुत बड़ा वर्ग है जो सत्ताधारी वर्ग की राजनीति  को सही नहीं मानता लेकिन वह किसी कीमत पर भारत की वामपंथी  पार्टियों  को समर्थन नहीं करेगा. मैं खुद अपने को उसी श्रेणी में रखता हूँ . हम जैसे लोगों के  लिए वह स्पेस बहुत ज़रूरी है , जिसको डेमोक्रेटिक और लिबरल स्पेस कहा  जा सकता है . यह भी सच है कि इस तरह के लोग या तो मौके की तलाश में बिलरिया नेप लगाए बैठे लोग होते हैं जो कहीं भी चले जाने के अवसर टपास  रहे होते हैं और ऊंची ऊंची बातें सेमिनार सर्किट के ज़रिये टार्गेट श्रोता वर्ग तक पंहुचा रहे होते हैं .लेकिन बहुत बड़ी संख्या ऐसे लोगों की भी होती है  जो  दक्षिण और वामपंथी  राजनीति की खामियों के प्रति साहुचेत होते हैं और उनमें से किसी में नहीं शामिल नहीं होना चाहते . क्योंकि राजनीति में सब कुछ सफ़ेद या काला नहीं होता , बहुत सारे ग्रे शेड्स भी होते हैं .इसलिए इस बात को मानने को मन नहीं मान रहा है कि  वामपंथ और दक्षिण पंथ के अलावा कोई और रास्ता नहीं है . मेरा अपना भरोसा है कि वह रास्ता है और उसकी दिशा कबीर  साहब की सोच मुक़म्मल तरीके से दे सकती है . हाँ यह भी सच है कि उस सोच के लिए मगहर जाना पड़ सकता है क्योंकि लुटियन की दिल्ली में तो उस सोच को हलाल  कर देने वालों की फौजें तैनात हैं और वे कभी भी लूट मार कर सकती हैं .

मौलिक अधिकारों की हिफाज़त में खड़ा है सुप्रीम कोर्ट

Written on 30 August ,2018
शेष नारायण सिंह

जब भी संविधान पर  संकट आता  है ,सुप्रीम कोर्ट की सुरक्षा इस देश को मिलती रही है . रोमिला थापर की  याचिका पर अभी कोई फैसला तो नहीं आया है लेकिन सुनवाई के दौरान एक टिप्पणी करते हुए माननीय सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि ," मतभेद लोकतंत्र का सेफ्टी वाल्व है " इसी सेफ्टी वाल्व को सुरक्षित रखने के लिए संविधान में अनुच्छेद ३२ की व्यवस्था की गयी है . उसी प्रावधान के तहत कुछ मानवाधिकार कार्यकर्ताओं की गिरफ्तारी को मौलिक अधिकारों का हनन मानते हुए रोमिला थापर और अन्य ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दाखिल की है. मामला अभी  सुप्रीम कोर्ट में  विचाराधीन है लेकिन महाराष्ट्र की सरकार को गिरफ्तार लोगों के साथ मनमानी करने की छूट देने से सुप्रीम कोर्ट  ने इनकार कर दिया है . सुप्रीम कोर्ट की जिस बेंच में यह  मामला विचाराधीन है उसमें मुख्य न्यायाधीश  ,जस्टिस दीपक मिश्र के अलावा जस्टिस डी वाई चंद्रचूड़ और जस्टिस ए एम खानविलकर भी हैं . हुआ यह था कि पुणे में जनवरी २०१८ में हुए एल्गार परिषद के सम्मलेन में कथित रूप से उत्तेजना और समाज में वैमनस्य फ़ैलाने  वाले काम करने के लिए गौतम नवलखा, सुधा भारद्वाज ,वरवर राव  और कुछ अन्य लोगों को  पुलिस ने पकड लिया था. आरोप है कि सरकार के खिलाफ आवाज़ बुलंद करने से रोकने के लिए  इन लोगों को महाराष्ट्र पुलिस ने गिरफ्तार करने की योजना बनाई थी. ऐसा लगता है कि योजना यह थी कि पूरे देश में  मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को पकड लिया जाए और उनको रातों रात पुणे लाकर उनपर मनमानी पुलिस कार्रवाई की जाए . उन लोगों  को पुलिस ने छापा मारकर इस तरह  पकड़ा था जैसे वे लोग फरार हों या बहुत बड़ा ख़तरा पैदा कर रहे हों. लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने  दखल देकर पुलिस की मंशा पर पानी फेर दिया . अब मामला सुप्रीम कोर्ट की शरण में हैं जो इस बात की गारंटी  है कि  संविधान में के अनुच्छेद २१ में मिले हुए नागरिकों के मौलिक अधिकारों का दुरुपयोग नहीं होने दिया जाएगा . सुनवाई के दौरान की गयी कोर्ट की टिप्पणी देश की लोकशाही  की हिफाज़त की दिशा में अहम मुकाम हो सकती है . कोर्ट ने सरकार को चेतावनी दी कि असहमति या मतभेद लोकतंत्र का सेफ्टी वाल्व है .अगर सेफ्टी वाल्व को बंद किया गया तो वैसा ही धमाका हो सकता है जैसे प्रेशर कुकर का सेफ्टी वाल्व बंद कर देने से होता है .
जिस एल्गार परिषद के मामले में पुणे की पुलिस जांच कर रही है उसमें दलित संगठन ईस्ट इण्डिया कम्पनी की महार   रेजिमेंट की दो  सौ साल पहले हुयी जीत का जश्न मनाने के लिए इकठ्ठा हुए थे . वह जीत वास्तव में  पेशवा की सेना पर हुयी थी . यानी अंग्रेजों ने भारतीयों का प्रयोग करके ही भारतीय शासक की सेना को हरा दिया था . इसी के आधार पर मामले क राष्ट्रवादी रंग दे दिया गया था और दलित संगठनों  के साथ खड़े होने वालों को राष्ट्रद्रोही करार दे दिया गया था. अखबारों में तो यह खबर भी प्लांट कर दी गयी कि जिन लोगों को हिरासत में लेने की कोशिश की जा रही है उन्होंने ऐसी साज़िश बनाई थी कि प्रधानमंत्री पर उसी तरह का हमला किया जाए जैसा राजीव गांधी के ऊपर किया  गया था . लेकिन सुप्रीम कोर्ट में सरकार ने इस बात को नहीं उठाया इससे लगता है कि कुछ वफादार चैनलों और कुछ  अखबारों में यह खबर प्लांट ही की गयी थी.  सच्चाई नहीं थी.

महाराष्ट्र सरकार हर हाल में गौतम नवलखा आदि को गिरफ्तार करके पुणे ले जाने पर आमादा थी. उनके वकील तुषार मेहता ने बार बार यह  तर्क दिया कि कोई अजनबी किसी अन्य इंसान की गिरफ्तारी पर रोक की बात कैसे कर सकता है . रोमिला थापर , प्रभात पटनायक आदि के पास वह अधिकार नहीं है कि वे  किसी अन्य की गिरफ्तारी पर रोक की बात करें .अभिषेक मनु सिंघवी ने तर्क  दिया कि मामला संविधान के अनुच्छेद ३२ का है , यह कोई साधारण मामला नहीं  है . लगता है कि कोर्ट ने इस तर्क पर विचार किया और सुनवाई की तारीख तय कर दी . याचिकाकर्ताओं की और से वकील दुष्यंत दवे भी पेश हुए .उन्होंने कहा कि जिन लोगों को  गिरफ्तार करने की कोशिश की जा रही है उनको कोई आपराधिक रिकार्ड कहीं नहीं है .. अगर ऐसा हुआ तो कोई भी सुरक्षित नहीं महसूस करेगा .

 यह देखना दिलचस्प होगा कि संविधान के अनुच्छेद ३२ का लोकतंत्र के सुचारु रूप से संचालन में कितना महत्व है . यह अनुच्छेद  नागरिकों के मौलिक अधिकारों का हनन होने की सूरत में उनकी हिफाज़त का सबसे बड़ा तरीका है . संविधान में नागरिकों को बहुत सारे मौलिक अधिकार दिए गए हैं . कई बार ऐसा होता है कि सरकारें उन अधिकारों को दबा कर देश के नागरिकों को सरकारी तंत्र का शिकार बनाती  हैं . उसी को रोकने के लिए  अनुच्छेद  ३२ की व्यवस्था की गयी है . इसके चार भाग हैं. पहला, मौलिक अधिकारों की स्थापना के लिए सुप्रीम कोर्ट जाने का अधिकार  ,दूसरा सुप्रीम कोर्ट  सम्बंधित पक्ष को निर्देश या आर्डर के ज़रिये मौलिक अधिकार की रक्षा सुनिश्चित कर सकती है.  सुप्रीम कोर्ट के यह अधिकार हमेशा ही बने रहते हैं . केवल एक सूरत में इन अधिकारों को समाप्त माना  जाता है जब केंद्र सरकार अनुच्छेद ३५२ का प्रयोग करके आपातकाल की घोषणा कर दे और मौलिक अधिकारों को ही मुल्तवी कर दे .  आपातकाल लगाने पर अनुच्छेद ३५९ में प्रदत्त अधिकारों का प्रयोग करके राष्ट्रपति महोदय मौलिक अधिकारों को ही  निलंबित कर सकते हैं . सबको मालूम है कि जनाक्रोश का सामना कर रही सरकारें इस प्रावधान का दुरुपयोग कर सकती हैं . अपनी सरकार के खिलाफ बढ़ रहे जनाक्रोश को  कुचलने के लिए १९७५ में केंद्र सरकार ने ३५२ के तहत आपातकाल लगा दिया था और मौलिक अधिकारों को समाप्त कर दिया था.
संविधान सभा की ड्राफ्टिंग कमेटी के अध्यक्ष डॉ बी आर आंबेडकर ने कहा था कि," अनुच्छेद ३२ संविधान की आत्मा है ." सुप्रीम कोर्ट में मौजूदा सुनवाई इसी अनुच्छेद ३२ के तहत हो रही  है. महाराष्ट्र सरकार की तरफ से  इस केस में अतिरिक्त  सालिसिटर जनरल ,तुषार मेहता वकील  हैं . उन्होंने इस मामले को आपराधिक  मामला बनाने की पूरी कोशिश की लेकिन रोमिला थापर आदि के वकील अभिषेक मनु सिंघवी आदि ने पूरी तरह से मामले को मौलिक अधिकारों का मुद्दा  बनाने की  कोशिश की और कोर्ट की शुरुआती टिप्पणी से साफ़ है कि  अभिषेक सिंघवी आंशिक रूप से सफल हैं.
संविधान में सुप्रीम कोर्ट को संविधान में प्रदत्त अधिकारों की रक्षा का ज़िम्मा दिया गया है . संविधान के अनुच्छेद १३१ में सुप्रीम कोर्ट के अधिकार क्षेत्र का वर्णन है उसके बाद अनुच्छेद १४७ तक सुप्रीम कोर्ट के अधिकारों , जिम्मेदारियों और कर्तव्यों की व्यवस्था की गयी है,  इन्हीं प्रावधानों का प्रयोग करके सुप्रीम कोर्ट हमारे संविधान और राष्ट्र की रक्षा करता है , . सुप्रीम कोर्ट में ऐसे मामले अवश्य आते हैं जिसमें व्याख्या की ज़रूरत है| सबको मालूम है कि सरकारें नागरिकों के अधिकारों को दबा कर मनमानी करने के लिए हमेशा ही उद्यत रहती  हैं .  नागरिक आजादी कई बार सरकार की इच्छा को लागू करने में बाधा बनती है और उसको कमज़ोर करने की कोशिश सरकारें करती ही रहती हैं . आम तौर पर सरकारें प्रेस की आज़ादी को भी कुचलने के चक्कर  में रहती हैं . ऐसी दर्जनों घटनाएं हैं जब राज्य या केंद्र सरकार ने प्रेस को भी काबू में करने की कोशिश की लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने मीडिया को बचाने का काम किया .अपने देश में प्रेस की आज़ादी की  व्यवस्था  संविधान में ही निहित है . संविधान के अनुच्छेद 19(1)(a) में अभिव्यक्ति की स्वत्रंत्रता की व्यवस्था दी गयी हैप्रेस की आज़ादी उसी से निकलती  है . इस आज़ादी को सुप्रीम कोर्ट ने अपने बहुत से फैसलों में सही ठहराया है . १९५० के  बृज भूषण बनाम दिल्ली राज्य  और १९६२ के सकाळ पेपर्स  प्राइवेट लिमिटेड बनाम यूनियन आफ इण्डिया के फैसलों में  प्रेस की अभिव्यक्ति की आज़ादी को मौलिक अधिकार के  श्रेणी में रख दिया  गया है . प्रेस की यह आज़ादी निर्बाध ( अब्सोल्युट ) नहीं है . संविधान के मौलिक अधिकारों वाले अनुच्छेद 19(2) में ही उसकी सीमाएं तय कर दी गई हैं.  संविधान में लिखा है  कि  अभिव्यक्ति की आज़ादी के "अधिकार के प्रयोग पर भारत की प्रभुता और अखंडताराज्य की सुरक्षाविदेशी राज्यों के साथ मैत्रीपूर्ण संबंधोंलोक व्यवस्थाशिष्टाचार या सदाचार के हितों में अथवा न्यायालय-अवमानमानहानि या अपराध-उद्दीपन के संबंध में युक्तियुक्त निर्बंधन जहां तक कोई विद्यमान विधि अधिरोपित करती है वहां तक उसके प्रवर्तन पर प्रभाव नहीं डालेगी या वैसे निर्बंधन अधिरोपित करने वाली कोई विधि बनाने से राज्य को निवारित नहीं करेगी"  यानी प्रेस की आज़ादी तो मौलिक अधिकारों के तहत कुछ भी लिखने की आज़ादी  नहीं है . उसी तरह से अन्य मौलिक अधिकार भी निर्बाध नहीं है लेकिन जब कोर्ट को काग जाएगा कि किसी  व्यक्ति को अन्य कारणों से पकड़ा जा रहा है तो कोर्ट दखल भी देगी और पुलिस और सरकार की मनमानी पर रोक भी लगाएगी .  एल्गार परिषद वाले मामले में भी संविधान के अनुच्छेद १९(१) में प्रदत्त अभिव्यक्ति की आजादी का सन्दर्भ आया है .यानी सारकार विरोधी बातों को राष्ट्रद्रोह की श्रेणी में रखने की कोशिश की जा रही है जो उचित नहीं  है .  अब सारा मामला सुप्रीम कोर्ट की नज़र में है. ज़ाहिर है संविधान का उन्ल्लंघन तो नहीं ही होने दिया  जाएगा .