Sunday, March 7, 2021

महिला सशक्तीकरण के लिए महिलाओं को शिक्षा और राजनीतिक अधिकार देने पड़ेंगे

 शेष नारायण सिंह 

 

मेरे  बचपन में मेरे गाँव में अठारह साल के पहले सभी लड़कों लड़कियों की शादी हो जाती थी . आम तौर पर शादी के एक या तीन साल बाद लडकी की विदाई होती थी .उस विदाई के समय लडकियां बिलख बिलख कर रोती थीं, उनकी माँ सबसे ज़्यादा रोती थी. शुरू में तो समझ में नहीं आता था कि रोने की क्या ज़रूरत है . थोडा बड़े होने पर पता चला कि रोने का कारण यह होता था कि एकदम अंजान लोगों के साथ जाकर रहना होता था और ज्यादातर लड़कियों  को ससुराल में कष्ट सहना पड़ता था.  अवधी लोकगीतों में सुसराल में अकेली पड़ गयी लडकी की व्यथा की कहानियाँ भरी  पड़ी हैं .जो लड़की अपने घर में अपने  माँ बाप के साथ पूरी तरह स्वतंत्र रहती थी ,ससुराल में जाकर उसे तरह तरह के बंधन में बाँध दिया जाता था . सबसे बड़ी बात तो उसको घूंघट में रहना पड़ता था. अपने मायके में वह किसी भी बाग़ में जा सकती थी या किसी भी खेत में जा सकती थी लेकिन ससुराल में बहू के रूप में उसका कहीं भी जाना प्रतिबंधित हो जाता था . अति सामंती परिवारों में तो यह भी शेखी बघारी जाती थी कि हमारे यहाँ औरत दुलहन के रूप में डोली में आती है  और मौत के बाद ही घर से बाहर निकलती है .जो लडकी अपने घर में भाई बहन और माँ बाप की लाडली होती थी वही सुसराल में जाकर रसोई का सारा काम करने के लिए मजबूर थी . गरीब परिवारों में नई नई  बहू की ड्यूटी में घर में झाडू  बुहारू करना, बर्तन मांजना , सास के पाँव दाबना, उनके नहाने के लिए पानी रखना , उनके सर में तेल डालना ,  घर भर के कपडे धोना सब कुछ शामिल  होता था. सबके खाने के बाद उसको खाना  मिलता था .  ज़िंदगी एकदम से बदल जाती थी लेकिन अजीब बात है कि वही लड़की जब वापस अपने माँ बाप के पास विदा होकर कुछ हफ्ते या महीने के लिए आती थी तो खुशी ज़ाहिर करती थी. ऐसा शायद इसलिए होता था कि उसको बचपन से ही यह समझ में आता रहता  था कि बेटी और बहू का  प्रोटोकाल अलग अलग  होता है . जो औरत अपनी बेटी की विदाई के समय बिलख बिलख कर  रोती थी ,वही अपने बेटे की पत्नी के प्रति तानाशाही पूर्ण रवैय्या अपनाती थी .वास्तव में यह मानसिकता ही औरतों के सम्मान के जीवन में सबसे बड़ी बाधा है . मेरे मामा की बेटी की शादी एक ऐसे परिवार में कर दी गयी थी जहां सास बहुत ही खूंखार महिला थी . उसके बेटे ने पढाई लिखाई भी नहीं पूरी की और  मामा की फूल से बच्ची को ज़िंदगी में बहुत ही तकलीफ उठानी पडी. उसकी अकाल मृत्यु हो गयी. बाद में पता चला कि उसकी सास ने उसको जलाकर मार डाला था. ऐसे बहुत सारे किस्से हैं.

 

यह हालात आज से कम से कम चालीस साल पहले के हैं. अब स्थितियां बदल गयी हैं लेकिन आदर्श स्थिति अभी नहीं आई है .जो भी थोडा बहुत  बदलाव आया है उसका कारण शिक्षा है . अब  शादियाँ भी देर से होने लगी हैं. आम तौर पर लडकियां पढाई लिखाई कर रही हैं और परिवारों में भी बदलाव हो रहे  हैं . संयुक्त परिवार की अवधारणा  अंतिम सांस ले रही है . शादी के बाद ज्यादातर लड़के अपना अलग घर बसा रहे हैं .  मेरे पहले की पीढी में अपनी पत्नी या अपने बच्चों की खैरियत की चिंता करना पुरुष के लिए बहुत अजूबा माना जाता था . यह मानकर चला जाता था कि परिवार  सबका ख्याल रख लेगा लेकिन अब  ऐसा नहीं है . हालात तेज़ी से बदल रहे हैं लेकिन बदलाव की रफ़्तार कम है .उसे और तेज़ करना पडेगा .परिवर्तन की गति को दिशा देने के लिए महिलाओं की शिक्षा और राजनीतिक फैसलों में उनके दखल की ज़रूरत सबसे ज़्यादा है .लड़कियों की तरक्की और बदलाव के विचार तो जागरूक तबकों में हमेशा से ही रहा  है लेकिन शिक्षा के अभाव में उसको हासिल नहीं किया जा सका.

महिलाओं को सही सम्मान मिल पाए उसके लिए मर्दवादी या पुरुष की उच्चता की भावना को हमेशा के लिए खतम करना पडेगा . समाज के हर स्तर पर मौजूद यह मानसिकता ही असली  दुश्मन है . जब यह मानसिकता  बदलेगी उसके बाद ही देश की आधी आबादी की बराबरी की बात सोची जा सकती है .लेकिन पुरुष प्रधान  समाज में यह मानसिकता हावी  है . संसद और विधानमंडलों में महिलाओं के ३३ प्रतिशत आरक्षण के लिये कानून बनाने की बात को उदहारण के तौर पर रखा जा सकता है .  यह  राजनीतिक मांग बहुत  समय से चल रही है .देश की अधिकतर राजनीतिक पार्टियों में आम राय है कि ऐसा कानून बनना चाहिए लेकिन कानून संसद में पास नहीं हो रहा  है . इसके पीछे भी वही तर्क है कि पुरुष प्रधान समाज से आने वाले राजनेता महिलाओं के बराबरी के हक को स्वीकार नहीं करते .इसीलिये सामाजिक, आर्थिक राजनीतिक और नैतिक  विकास को बहुत तेज़ गति दे सकने वाला यह कानून अभी पास नहीं हो रहा है . अपने को पिछड़ी जातियों के राजनीतिक हित की निगहबान बताने वाली राजनीतिक पार्टियां महिलाओं के आरक्षण में अलग से पिछड़ी जातियों के लिए आरक्षण की बात कर रही हैं .

 

अपने देश में महिला अधिकारों की लड़ाई कोई नई नहीं है . भारत की आज़ादी  की लड़ाई के साथ  साथ महिलाओं की आज़ादी की लड़ाई का आन्दोलन भी चलता रहा है .१८५७ में ही मुल्क की खुद मुख्तारी की लड़ाई शुरू हो गयी थी लेकिन अँगरेज़ भारत का साम्राज्य छोड़ने को तैयार नहीं था. उसने इंतज़ाम बदल दिया. ईस्ट इण्डिया कंपनी से छीनकर ब्रितानी सम्राट ने हुकूमत अपने हाथ में ले ली. उसके बाद भी  शोषण का सिलसिला जारी रहा. दूसरी बार अँगरेज़ को बड़ी चुनौती महात्मा गाँधी ने दी . १९२० में उन्होंने जब आज़ादी की लड़ाई का नेतृत्व करना शुरू किया तो बहुत शुरुआती दौर में साफ़ कर दिया था कि उनके अभियान का मकसद केवल राजनीतिक आज़ादी नहीं हैवे सामाजिक परिवर्तन की लड़ाई लड़ रहे हैं , उनके साथ पूरा मुल्क खड़ा हो गया . . हिन्दू ,मुसलमानसिखईसाईबूढ़े ,बच्चे नौजवान , औरतें और मर्द सभी गाँधी के साथ थे. सामाजिक बराबरी के उनके आह्वान ने भरोसा जगा दिया था कि अब असली आज़ादी मिल जायेगी. लेकिन अँगरेज़ ने उनकी मुहिम में हर तरह के अड़ंगे डाले . १९२० की हिन्दू मुस्लिम एकता को खंडित करने की कोशिश की . अंग्रेजों ने पैसे देकर अपने वफादार हिन्दुओं और मुसलमानों के साम्प्रदायिक संगठन बनवाये और देशवासियों की एकता को तबाह करने की पूरी कोशिश की . लेकिन राजनीतिक आज़ादी हासिल कर ली गयी. आज़ादी के लड़ाई का स्थायी भाव सामाजिक इन्साफ और बराबरी पर आधारित समाज की स्थापना भी थी . लेकिन १९५० के दशक में जब गांधी नहीं रहे तो कांग्रेस के अन्दर सक्रिय हिन्दू और मुस्लिम पोंगापंथियों ने बराबरी के सपने को चकनाचूर कर दिया . इनकी पुरातनपंथी सोच का सबसे बड़ा शिकार महिलायें हुईं. इस बात का अनुमान  इसी बात से लगाया जा सकता है कि जब महात्मा गाँधी की इच्छा का आदर करने के उद्देश्य से जवाहरलाल नेहरू ने हिन्दू विवाह अधिनियम पास करवाने की कोशिश की तो उसमें कांग्रेस के बड़े बड़े नेता टूट पड़े और नेहरू का हर तरफ से विरोध किया. यहाँ तक कि उस वक़्त के राष्ट्रपति ने भी अडंगा लगाने की कोशिश की. हिन्दू विवाह अधिनियम कोई क्रांतिकारी दस्तावेज़ नहीं था . इसके ज़रिये हिन्दू औरतों को कुछ अधिकार देने की कोशिश की गयी थी. लेकिन मर्दवादी सोच के कांग्रेसी नेताओं ने उसका विरोध किया. नेहरू बहुत बड़े नेता थे , उनका विरोध कर पाना पुरातनपंथियों के लिए भारी पड़ा और बिल पास हो गया.

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महिलाओं को उनके अधिकार देने का विरोध करने वाली पुरुष मानसिकता के चलते आज़ादी के बाद सत्ता में औरतों को उचित हिस्सेदारी नहीं मिल सकी. संसद ने संविधान में संशोधन करके पंचायतों में तो सीटें रिज़र्व कर दीं लेकिन बहुत दिन तक पुरुषों ने वहां भी उनको अपने अधिकारों से वंचित रखा . ग्राम  पंचायतों में  माहिलाओं के आरक्षण के बाद प्रधानपति प्रजाति के मर्द भी देखे जाने लगे थे .अब यह बीमारी कम हो रही है लेकिन सब कुछ बहुत  धीरे धीरे हो रहा है . इसी सोच के कारण संसद और विधान मंडलों में महिलाओं को आरक्षण देने की बात में अड़ंगेबाजी का सिलसिला जारी है . किसी न किसी बहाने से पिछले पचीस वर्षों से महिला आरक्षण बिल राजनीतिक अड़ंगे का शिकार हुआ पड़ा है . देश का दुर्भाग्य है कि महिला आरक्षण बिल का सबसे ज्यादा विरोध वे नेता कर रहे हैं जो डॉ राम मनोहर लोहिया की राजनीतिक सोच को बुनियाद बना कर राजनीति आचरण करने का दावा करते हैं . डॉ लोहिया ने महिलाओं के राजनीतिक भागीदारी का सबसे ज्यादा समर्थन किया था और पूरा जीवन उसके लिए कोशिश करते रहे थे. भारतीय जनता पार्टी जब विपक्ष में थी तो संसद और विधान मंडलों में महिलाओं के आरक्षण की बात का समर्थन उनके कार्यक्रमों में शामिल था . अब केंद्र में उनकी स्पष्ट बहुमत की सरकार है . संविधान में संशोधन करने की स्थिति में पार्टी है . दो तिहाई से ज्यादा राज्य सरकारें उनकी या उनके सहयोगियों की हैं लेकिन  अब बीजेपी की तरफ से उस दिशा में कोई काम नहीं हो रहा है. अपनी राजनीतिक विचारधारा को सत्ता में स्थाई बनाने के लिए सारी कोशिश चल रही है और सत्ता के हर संस्थान पर  विचारधारा की पकड मज़बूत की जा रही है. ऐसी हालत में यह बात समझ से परे हैं कि  विपक्ष में रहने के दौरान महिलाओं के आरक्षण का जो एजेंडा बीजेपी ने चलाया था उसको लागू क्यों नहीं किया जा रहा है . महिला दिवस के मौके पर  महिलाओं के सशक्तीकरण के बहुत सारे भाषण होते हैं . सबको मालूम है कि सशक्तीकरण तभी होगा जब महिलाएं शिक्षित होंगी और उनको राजनीतिक अधिकार मिलेंगे . इस दिशा में सरकार को क़दम उठाना चाहिए .

 

 

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