Saturday, November 28, 2015

ज्योतिबा फुले की किताब ,' गुलामगीरी ' शोषित पीड़ित आबादी का हथियार



शेष नारायण सिंह 


दरअसल हिंद स्वराज एक ऐसी किताब है, जिसने भारत के सामाजिक राजनीतिक जीवन को बहुत गहराई तक प्रभावित किया। बीसवीं सदी के उथल पुथल भरे भारत के इतिहास में जिन पांच किताबों का सबसे ज़्यादा योगदान है, हिंद स्वराज का नाम उसमें सर्वोपरि है। इसके अलावा जिन चार किताबों ने भारत के राजनीतिक सामाजिक चिंतन को प्रभावित किया उनके नाम हैं, भीमराव अंबेडकर की जाति का विनाश मार्क्‍स और एंगेल्स की कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो, ज्योतिराव फुले की गुलामगिरी और वीडी सावरकर की हिंदुत्व। अंबेडकर, मार्क्‍स और सावरकर के बारे में तो उनकी राजनीतिक विचारधारा के उत्तराधिकारियों की वजह से हिंदी क्षेत्रों में जानकारी है। क्योंकि मार्क्‍स का दर्शन कम्युनिस्ट पार्टी का, सावरकर का दर्शन बीजेपी का और अंबेडकर का दर्शन बहुजन समाज पार्टी का आधार है लेकिन 19 वीं सदी के क्रांतिकारी चितंक और वर्णव्यवस्था को गंभीर चुनौती देने वाले ज्योतिराव फुले के बारे में जानकारी की कमी है। ज्योतिराव गोविंदराव फुले का जन्म पुणे में हुआ था और उनके पिता पेशवा के राज्य में बहुत सम्माननीय व्यक्ति थे। लेकिन ज्योतिराव फुले अलग किस्म के इंसान थे। उन्होंने दलितों के उत्थान के लिए जो काम किया उसकी तुलना किसी से नहीं की जा सकती। उनका जन्म 1827 में पुणे में हुआ था, माता पिता संपन्न थे लेकिन महात्मा फुले हमेशा ही गरीबों के पक्षधर बने रहे। उनकी महानता के कुछ खास कार्यों का ज़‍िक्र करना ज़रूरी है।
1848 में शूद्रातिशूद्र लड़कियों के लिए एक स्कूल की स्थापना कर दी थी। आजकल जिन्हें दलित कहा जाता है, महात्मा फुले के लेखन में उन्हें शूद्रातिशूद्र कहा गया है। 1848 में दलित लड़कियों के लिए स्कूल खोलना अपने आप में एक क्रांतिकारी कदम है। क्योंकि इसके 9 साल बाद बंबई विश्वविद्यालय की स्थापना हुई। उन्होंने 1848 में ही मार्क्‍स और एंगेल्स ने कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो का प्रकाशन किया था। 1848 में यह स्कूल खोलकर महात्मा फुले ने उस वक्त के समाज के ठेकेदारों को नाराज़ कर दिया था। उनके अपने पिता गोविंदराव जी भी उस वक्त के सामंती समाज के बहुत ही महत्वपूर्ण व्यक्ति थे। दलित लड़कियों के स्कूल के मुद्दे पर बहुत झगड़ा हुआ लेकिन ज्योतिराव फुले ने किसी की न सुनी। नतीजतन उन्हें 1849 में घर से निकाल दिया गया। सामाजिक बहिष्कार का जवाब महात्मा फुले ने 1851 में दो और स्कूल खोलकर दिया। जब 1868 में उनके पिताजी की मृत्यु हो गयी तो उन्होंने अपने परिवार के पीने के पानी वाले तालाब को अछूतों के लिए खोल दिया। 1873 में महात्मा फुले ने सत्यशोधक समाज की स्थापना की और इसी साल उनकी पुस्तक गुलामगिरी का प्रकाशन हुआ। दोनों ही घटनाओं ने पश्चिमी और दक्षिण भारत के भावी इतिहास और चिंतन को बहुत प्रभावित किया।
महात्मा फुले के चिंतन के केंद्र में मुख्य रूप से धर्म और जाति की अवधारणा है। वे कभी भी हिंदू धर्म शब्द का प्रयोग नहीं करते। वे उसे ब्राह्मणवाद के नाम से ही संबोधित करते हैं। उनका विश्वास था कि अपने एकाधिकार को स्थापित किये रहने के उद्देश्य से ही ब्राह्मणों ने श्रुति और स्मृति का आविष्कार किया था। इन्हीं ग्रंथों के जरिये ब्राह्मणों ने वर्ण व्यवस्था को दैवी रूप देने की कोशिश की। महात्मा फुले ने इस विचारधारा को पूरी तरह ख़ारिज़ कर दिया। फुले को विश्वास था कि ब्राह्मणवाद एक ऐसी धार्मिक व्यवस्था थी जो ब्राह्मणों की प्रभुता की उच्चता को बौद्घिक और तार्किक आधार देने के लिए बनायी गयी थी। उनका हमला ब्राह्मण वर्चस्ववादी दर्शन पर होता था। उनका कहना था कि ब्राह्मणवाद के इतिहास पर गौर करें तो समझ में आ जाएगा कि यह शोषण करने के उद्देश्य से हजारों वर्षों में विकसित की गयी व्यवस्था है। इसमें कुछ भी पवित्र या दैवी नहीं है। न्याय शास्त्र में सत की जानकारी के लिए जिन 16 तरकीबों का वर्णन किया गया है, वितंडा उसमें से एक है। महात्मा फुले ने इसी वितंडा का सहारा लेकर ब्राह्मणवादी वर्चस्व को समाप्त करने की लड़ाई लड़ी। उन्होंने अवतार कल्पना का भी विरोध किया। उन्होंने विष्णु के विभिन्न अवतारों का बहुत ही ज़ोरदार विरोध किया। कई बार उनका विरोध ऐतिहासिक या तार्किक कसौटी पर खरा नहीं उतरता लेकिन उनकी कोशिश थी कि ब्राह्मणवाद ने जो कुछ भी पवित्र या दैवी कह कर प्रचारित कर रखा है उसका विनाश किया जाना चाहिए। उनकी धारणा थी कि उसके बाद ही न्याय पर आधारित व्यवस्था कायम की जा सकेगी। ब्राह्मणवादी धर्म के ईश्वर और आर्यों की उत्पत्ति के बारे में उनके विचार को समझने के लिए ज़रूरी है कि यह ध्यान में रखा जाए कि महात्मा फुले इतिहास नहीं लिख रहे थे। वे सामाजिक न्याय और समरसता के युद्घ की भावी सेनाओं के लिए बीजक लिख रहे थे।
महात्मा फुले ने कर्म विपाक के सिद्धांत को भी ख़ारिज़ कर दिया था, जिसमें जन्म जन्मांतर के पाप पुण्य का हिसाब रखा जाता है। उनका कहना था कि यह सोच जातिव्यवस्था को बढ़ावा देती है इसलिए इसे फौरन ख़ारिज़ किया जाना चाहिए। फुले के लेखन में कहीं भी पुनर्जन्म की बात का खंडन या मंडन नहीं किया गया है। यह अजीब लगता है क्योंकि पुनर्जन्म का आधार तो कर्म विपाक ही है।
महात्मा फुले ने जाति को उत्पादन के एक औज़ार के रूप में इस्तेमाल करने और ब्राह्मणों के आधिपत्य को स्थापित करने की एक विधा के रूप में देखा। उनके हिसाब से जाति भारतीय समाज की बुनियाद का काम भी करती थी और उसके ऊपर बने ढांचे का भी। उन्होंने शूद्रातिशूद्र राजा, बालिराज और विष्णु के वामनावतार के संघर्ष का बार-बार ज़‍िक्र किया है। ऐसा लगता है कि उनके अंदर यह क्षमता थी कि वह सारे इतिहास की व्याख्या बालि राज-वामन संघर्ष के संदर्भ में कर सकते थे।
स्थापित व्यवस्था के खिलाफ महात्मा फुले के हमले बहुत ही ज़बरदस्त थे। वे एक मिशन को ध्यान में रखकर काम कर रहे थे। उन्होंने इस बात के भी सूत्र दिये, जिसके आधार पर शूद्रातिशूद्रों का अपना धर्म चल सके। वे एक क्रांतिकारी सामाजिक परिवर्तन की बात कर रहे थे। ब्राह्मणवाद के चातुर्वर्ण्‍य व्यवस्था को उन्होंने ख़ारिज़ किया, ऋग्वेद के पुरुष सूक्त का, जिसके आधार पर वर्णव्यवस्था की स्थापना हुई थी, को फर्ज़ी बताया और द्वैवर्णिक व्यवस्था की बात की।
महात्मा फुले एक समतामूलक और न्याय पर आधारित समाज की बात कर रहे थे इसलिए उन्होंने अपनी रचनाओं में किसानों और खेतिहर मजदूरों के लिए विस्तृत योजना का उल्लेख किया है। पशुपालन, खेती, सिंचाई व्यवस्था सबके बारे में उन्होंने विस्तार से लिखा है। गरीबों के बच्चों की शिक्षा पर उन्होंने बहुत ज़ोर दिया। उन्होंने आज के 150 साल पहले कृषि शिक्षा के लिए विद्यालयों की स्थापना की बात की। जानकार बताते हैं कि 1875 में पुणे और अहमदनगर जिलों का जो किसानों का आंदोलन था, वह महात्मा फुले की प्रेरणा से ही हुआ था। इस दौर के समाज सुधारकों में किसानों के बारे में विस्तार से सोच-विचार करने का रिवाज़ नहीं था लेकिन महात्मा फुले ने इस सबको अपने आंदोलन का हिस्सा बनाया।
स्त्रियों के बारे में महात्मा फुले के विचार क्रांतिकारी थे। मनु की व्यवस्था में सभी वर्णों की औरतें शूद्र वाली श्रेणी में गिनी गयी थीं। लेकिन फुले ने स्त्री पुरुष को बराबर समझा। उन्होंने औरतों की आर्य भट्ट यानी ब्राह्मणवादी व्याख्या को ग़लत बताया।
फुले ने विवाह प्रथा में बड़े सुधार की बात की। प्रचलित विवाह प्रथा के कर्मकांड में स्त्री को पुरुष के अधीन माना जाता था लेकिन महात्मा फुले का दर्शन हर स्तर पर गैरबराबरी का विरोध करता था। इसीलिए उन्होंने पंडिता रमाबाई के समर्थन में लोगों को लामबंद किया, जब उन्होंने धर्म परिवर्तन किया और ईसाई बन गयीं। वे धर्म परिवर्तन के समर्थक नहीं थे लेकिन महिला द्वारा अपने फ़ैसले खुद लेने के सैद्घांतिक पक्ष का उन्होंने समर्थन किया।
महात्मा फुले की किताब गुलामगिरी बहुत कम पृष्ठों की एक किताब है, लेकिन इसमें बताये गये विचारों के आधार पर पश्चिमी और दक्षिणी भारत में बहुत सारे आंदोलन चले। उत्तर प्रदेश में चल रही दलित अस्मिता की लड़ाई के बहुत सारे सूत्र गुलामगिरी में ढूंढ़े जा सकते है। आधुनिक भारत महात्मा फुले जैसी क्रांतिकारी विचारक का आभारी है।

Thursday, November 5, 2015

सरदार पटेल ने महात्मा गांधी के आजादी ले सपने को सही रूप दिया था



शेष नारायण सिंह 

आज गोधरा को एक अलग सन्दर्भ में याद किया जाता है लेकिन पंचमहल जिले के इस कस्बे में भारत की आज़ादी के इतिहास की सबसे दिलचस्प कहानी भी शुरू हुयी थी जब १९१७ में यहाँ गुजरात सभा  का राजनीतिक सम्मलेन हुआ था. सरदार तो उनको बाद में कहा  गया लेकिन १९१७ में वे बैरिस्टर वल्लभभाई पटेल थे जो अपने बड़े भाई विट्ठलभाई को वचन दे चुके थे कि वे राजनीति से दूर रहेगें. लेकिन अहमदाबाद में म्युनिसिपल चुनावों की राजनीति में दोस्तों के कहने से थोडा रूचि ले रहे थे .राजनीति से इस क़दर दूर थे कि जब महात्मा गांधी अहमदाबाद के गुजरात क्लब गए तो वल्लभभाई पटेल उनसे मिलने तक नहीं गए. लेकिन १९१७ में सरदार पटेल बिलकुल राजनीति में क़दम रखने के लिए तैयार थे . अहमदाबाद नगरपालिका की राजनीति के अलावा वे महात्मा गांधी की राजनीति से इतना प्रभावित हो चुके थे कि अपनी वकालत के साथ साथ भाषण वगैरह भी देने लगे थे .वे सितंबर १९१७ में महात्मा गांधी के स्वराज अभियान के लिए जनमत तैयार कर रहे थे . यह लग बात हिया कि तब तक वे महात्मा गांधी से मिले नहीं थी. उनकी मुलाक़ात अक्टूबर १९१७ में हुयी जब महात्मा गांधी गुजरात सभा के राजनीतिक सम्मलेन के लिए गोधरा पधारे .यहीं पर सरदार पटेल को गुजरात सभा का सचिव बनाया गया .बाद में इसी गुजरात सभा को भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की गुजरात इकाई यानी गुजरात प्रदेश कांग्रेस कमेटी का नाम दे दिया गया. इसी गोधरा में महात्मा गांधी ने देश की आज़ादी की लड़ाई की कई नई शुरुआतें कीं . इसके पहले  भारत में जितने भी राजनीतिक सम्मलेन होते थे ब्रिटेन के सम्राट के प्रति वफादारी का प्रस्ताव पास किया जाता था . महात्मा गांधी ने उस प्रस्ताव को फाड़कर फेंक दिया  और कहा कि इसकी ज़रूरत नहीं है . इसी गोधरा सम्मलेन में महात्मा गांधी ने कहा कि स्वराज तब तक नहीं आएगा जब तक कि किसानों को साथ नहीं लिया जाएगा इसलिए ज़रूरी है कि सभी लोग भारतीय भाषाओं में भाषण करें . लोकमान्य बाल  गंगाधर तिलक तो मराठी में बोले लेकिन कांग्रेस के बड़े नेता मुहम्मद अली जिन्ना अंग्रेज़ी के अलावा किसी भाषा में बोलने को तैयार नहीं थी. महात्मा गांधी ने उनको  उनकी मातृभाषा  गुजराती में भाषण देने के लिए मजबूर कर दिया . जिन्ना की महात्मा गांधी से बहुत सारी नाराजगियों में एक नाराज़गी यह भी है क्योंकि बिलकुल अंग्रेज़ी परस्त बन चुके जिन्ना गुजराती में ठीक से  बोल नहीं पाते  थे. यह बात १९४४ में महात्मा गांधी ने अपने साथ बैठे लोगों को  बताई थी.  भारत की आज़ादी की लडाई में गोधरा का एक और महत्व है . वल्लभभाई पटेल के अलावा यहीं एक और राजनीतिक स्तम्भ को महात्मा गांधी ने अपने साथ ले लिया . १९१७ में ही एक  बेहतरीन वकील और लेखक महादेव देसाई को भी महात्मा गांधी ने अपने साथ ले लिया . सरदार पटेल और महादेवभाई देसाई की दोस्ती का भारत की आज़ादी में बहुत योगदान है .यह दोस्ती इसी गोधरा में गुजरात सभा के राजनीतिक सम्मेलन में शुरू हुयी थी और महादेव भाई देसाई के अंतिम समय १९४२ तक चली. महादेवभाई  महात्मा गांधी के साथ पूना के आगा खान पैलेस में गिरफ्तार किये गए थे और वहीं महात्मा जी की मौजूद्गी में उनकी मृत्यु हुयी थी . अहमदनगर जेल में बंद सरदार पटेल को जब यह खबर मिली तो  उन्हें बहुत तकलीफ हुयी थी.
गोधरा से महात्मा गांधी का साथ सरदारश्री को मिला और उसके बाद  वे रुके नहीं . जब गुजरात सभा को गुजरात प्रदेश कांग्रेस कमेटी बना दिया गया तो वल्लभभाई उसके पहले अध्यक्ष हुए .सारे देश में उनकी राजनीतिक पहचान महात्मा गांधी के असहयोग आन्दोलन से बनी . इस आन्दोलन के शुरू होते ही वल्लभभाई ने गुजरात के लगभग सभी गाँवों की यात्रा की कांग्रेस के करीब ३ लाख सदस्य भर्ती किया और करीब १५ लाख रूपया इकट्ठा किया . सन १९२० के १५ लाख रूपये का मतलब आज की भाषा में बहुत ज़्यादा होता है. और यह सारा धन गुजरात के किसानों से इकठ्ठा किया गया था.  सरदारश्री के जीवन का वह दौर शुरू हो चुका था जिसके बाद उन्होंने गांधी जी की किसी बात का विरोध नहीं किया . कई मुद्दों पर असहमति ज़रूर दिखाई लेकिन जब फैसला हो गया तो वे महात्मा जी के फैसले के साथ रहे. असहयोग आन्दोलन के दौर में जब  गोरखपुर के चौरी चौरा में  किसानों ने पुलिस थाने में आग लगा दी तो महात्मा गांधी ने आन्दोलन वापस ले लिया. उनको  आशंका थी कि उसके बाद अंग्रेज़ी राज का दमनचक्र उसी तरह से चल पडेगा जैसे १८५७ के समय में हुआ था . कांग्रेस के बाकी बड़े नेता आन्दोलन  वापस लेने का विरोध करते रहे लेकिन वल्लभ भाई पटेल ने महात्मा गांधी का पूरा समर्थन किया. राजनीतिक कार्य के साथ उन्होने अपने एजेंडे में शराब, छुआछूत और जाती प्रथा के खिलाफ भी मोर्चा खोल दिया . गुजरात के तत्कालीन विकास में सरदार पटेल के इस कार्यक्रम का बड़ा योगदान माना जाता है .
१९२८ में गुजरात के कई जिलों में भयानक अकाल पड़ा लेकिन अंग्रेज़ी सरकार किसी तरह की रियायत देने को तैयार नहीं थी.  बारडोली में यह अकाल सबसे अधिक खौफनाक था .महात्मा गांधी का अहिंसा पर आधारित राजनीति का सिद्धांत असहयोग आन्दोलन के दौरान जांचा परखा जा चुका था. सरदार पटेल ने अहिंसा पर आधारित असहयोग आन्दोलन चलाकर अकालग्रस्त बारडोली में  एक स्थानीय असहयोग आन्दोलन शुरू किया . किसानों ने खेत का लगान देने से मना कर दिया . मूल असहयोग बारडोली में हुआ लेकिन गुजरात के कई इलाकों में सहानुभूति में आन्दोलन तैयार हो गया . सरकार भी जनता को कुचल देने पर आमादा थी . गिरफ्तारियां हुईं, ज़ब्ती हुयी लेकिन वल्लभ भाई पटेल के नेतृत्व में आन्दोलन जोर पकड़ता गया . एक मुकाम ऐसा आया जब सरकार को मजबूर कर दिया गया कि वह आन्दोलन को समझौते के आधार पर ख़त्म करे. किसाओं की ज़मीन आदि सब वापस मिल गयी . इसी आन्दोलन में उनके साथियों ने वल्लभ भाई पटेल को  सरदार कहना शुरू कर दिया था . इसी आन्दोलन ने  भारत को  आज़ादी की लडाई का सरदार जिसने जिसने महात्मा गांधी को हमेशा समर्थन किया और जवाहरलाल नेहरू को वह सब करने का मौक़ा दिया जिससे वे महान बने. यहाँ यह ध्यान रखना पडेगा कि सरदार पटेल और जवाहरलाल नेहरु में बहुत अच्छी दोस्ती थी और जवाहरलाल अपने बड़े भाई सरदार पटेल की हर बात मानते थे . केवल एक बार नहीं माना जब नेहरू ने माउंटबेटन के चक्कर में आकर कश्मीर मसला संयुक्त राष्ट्र संघ के हवाले कर दिया . दुनिया जानती है कि नेहरू की वह गलती देश आज तक भोग रहा है .
महात्मा गांधी के सही मायनों में वारिस सरदार पटेल ही थे . १९२० से ३० जनवरी १९४८ तक सरदार पटेल ने महात्मा  गांधी की हर बात को स्वीकार किया था . यहाँ तक कि जब १९४६ में मौलाना आज़ाद के बाद कांग्रेस अध्यक्ष चुनने की बात आयी तो सब की इच्छा थी कि सरदार पटेल ही अध्यक्ष बनें क्योंकि १९४६ का अध्यक्ष ही आज़ाद भारत की सरकार का प्रधान मंत्री होता. कांग्रेस कार्यकारिणी में २६ सदस्य थे जिनमें २३ सरदार पटेल को अध्यक्ष बनाना चाहते थे . केवल जवाहरलाल नेहरू, मौलाना आज़ाद और रफ़ी अहमद किदवई उनके खिलाफ थे . चुनाव होना था .  सरदार पटेल और जवाहरलाल नेहरू के बीच चुनाव होना था . बैठक शुरू हो गयी थी . लेकिन उसी बीच सरदार पटेल की बेटी  मणिबेन ने महात्मा गांधी की एक चिट्ठी लाकर सरदार को दे दी. सरदार ने  चिट्ठी पर एक नज़र डाली और उसको कुरते की जेब डाल लिया. उसके बाद उन्होने जवाहरलाल नेहरू का नाम प्रस्तावित कर दिया,  अपना नाम वापस ले लिया . जवाहरलाल नेहरू कांग्रेस के अध्यक्ष और बाद में वाइसराय के काउन्सिल के उपाध्यक्ष बने . समाजवादी  चिन्तक मधु लिमये अक्सर कहा करते थे कि अगर सरदार पटेल का पूर्ण सहयोग जवाहरलाल को न मिला होता तो  भारत वह न होता जो बन पाया . आज़ादी के बाद सरदार पटेल केवल सवा दो साल जीवित रहे लेकिन जो काम उन्होंने उस कालखंड में कर दिया वह बहुत सारे लोग कई  जिंदगियों में न कर पाते. देशी रियासतों को भारत में मिलाने का काम सरदार पटेल ही के बस की बात  थी , जिसको उन्होंने बखूबी पूरा किया . हैदराबाद के निजाम को दुरुस्त करने की प्रक्रिया में उन्होंने जवाहरलाल नेहरू को कई बार नज़रंदाज़ भी किया लेकिन निजाम को बदमाशी नहीं करने दिया . कश्मीर के मामले में भी सरदार पटेल ने वहां के राजा को साफ़ बता दिया कि जब तक भारत में विलय के दस्तावेज़ पर दस्तखत नहीं करोगे कबायली और पाकिस्तानी फौज के हमले से नहीं बचाएगें . वही हुआ. 
 आज़ादी के बाद से ही नेताओं और बुद्धिजीवियों का एक वर्ग सरदार पटेल मुस्लिम विरोधी और आर एस एस का हमदर्द बताता रहा है . उन लोगों की जानकारी के लिए यह बताना ज़रूरी है कि आर एस एस पर प्रतिबन्ध तो कई बार लगा लेकिन भारत के गृहमंत्री सरदार पटेल ने आर एस एस का संविधान लिखने के लिए उनके नेताओं को मजबूर किया था और उनके  सरसंघचालक को गिरफ्तार किया था . इतिहास सरदार पटेल को मुस्लिम दोस्त के रूप में भी याद रखेगा .जब भी सरदार का आकलन होगा उनको मुसलमानों सहित सभी भारतीयों  के  शुभचिंतक के रूप में याद किया जाएगा . सरदार पटेल महात्मा गांधी की धर्मनिरपेक्षता की समझ के असली वारिस थे .महात्मा गांधी ने अपनी पुस्तक 'हिंद स्वराज' में  देश की आजादी के सवाल को हिंदू-मुस्लिम एकता से जोड़ा है। उन्होंने लिखा है - ''अगर हिंदू माने कि सारा हिंदुस्तान सिर्फ हिंदुओं से भरा होना चाहिए, तो यह एक निरा सपना है। मुसलमान अगर ऐसा मानें कि उसमें सिर्फ मुसलमान ही रहें, तो उसे भी सपना ही समझिए। फिर भी हिंदू, मुसलमान, पारसी, ईसाई जो इस देश को अपना वतन मानकर बस चुके हैं, एक देशी, एक-मुल्की हैं, वे देशी-भाई हैं और उन्हें एक -दूसरे के स्वार्थ के लिए भी एक होकर रहना पड़ेगा।"
महात्मा गांधी ने अपनी बात कह दी और इसी सोच की बुनियाद पर उन्होंने 1920 के आंदोलन में हिंदू-मुस्लिम एकता की जो मिसाल प्रस्तुत की, उससे अंग्रेजी शासकों को भारत के आम आदमी की ताक़त का अंदाज़ लग गया । आज़ादी की पूरी लड़ाई में महात्मा गांधी ने धर्मनिरपेक्षता की इसी धारा को आगे बढ़ाया। लेकिन अंग्रेज़ी सरकार हिंदू मुस्लिम एकता को किसी कीमत पर कायम नहीं होने देना चाहती थी। उसने कांग्रेस से नाराज़ जिन्ना जैसे  लोगों की मदद से आजादी की लड़ाई में अड़ंगे डालने की कोशिश की और सफल भी हुए। बाद में कांग्रेसियों के ही एक वर्ग ने सरदार को हिंदू संप्रदायवादी साबित करने की कई बार कोशिश की लेकिन उन्हें कोई सफलता नहीं मिली. भारत सरकार के गृहमंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल ने 16दिसंबर 1948 को घोषित किया कि सरकार भारत को ''सही अर्थों में धर्मनिरपेक्ष सरकार बनाने के लिए कृत संकल्प है।" (हिंदुस्तान टाइम्स - 17-12-1948)।
सरदार पटेल को इतिहास मुसलमानों के एक रक्षक के रूप में भी याद रखेगा। सितंबर 1947 में सरदार को पता लगा कि अमृतसर से गुजरने वाले मुसलमानों के काफिले पर वहां के सिख हमला करने वाले हैं।सरदार अमृतसर गए और वहां करीब दो लाख लोगों की भीड़ जमा हो गई जिनके रिश्तेदारों को पश्चिमी पंजाब में मार डाला गया था। उनके साथ पूरा सरकारी अमला था और सरदार पटेल की बहन भी थीं। भीड़ बदले के लिए तड़प रही थी और कांग्रेस से नाराज थी। सरदार ने इस भीड़ को संबोधित किया और कहा, "इस शहर से गुजर रहे मुस्लिम शरणार्थियों की सुरक्षा का जिम्मा लीजिए ............ मुस्लिम शरणार्थियों को सुरक्षा दीजिए और अपने लोगों की डयूटी लगाइए कि वे उन्हें सीमा तक पहुंचा कर आएं।" सरदार पटेल की इस अपील के बाद पंजाब में हिंसा नहीं हुई। कहीं किसी शरणार्थी पर हमला नहीं हुआ.

आज उन्हीं सरदार पटेल का जन्म दिन है . सरदार आज होते तो १४० साल के होते.