Thursday, March 4, 2021

मेरा गाँव ,मेरा देस

 


यह  गाँव सुल्तानपुर जिले के लम्भुआ ब्लाक में  है. गाँव पंहुचने के लिए जिला मुख्यालय से करीब २२ किलोमीटर सुलतानपुर जौनपुर रोड पर चलने के बाद धोपाप रोड पर बाएं मुड़ना पड़ता है . लम्भुआ  से तीन किलोमीटर दूरी पर यह गाँव स्थित है . मेरा गाँव शोभीपुर अपेक्षाकृत नया गाँव है . यह मामपुर नाम की गाँव सभा का हिस्सा है .माम्पुर गाँव सभा में चार हिस्से हैं . झलिया ,पुरवा ,माम्पुर और शोभीपुर .मामपुर  सरयूपारीण ब्राह्मणों का गाँव है जो पुरवा और मामपुर में बसे हुए हैं. शायद उनका कोई पूर्वज  देवरिया से प्रयाग की यात्रा के दौरान यहीं बस गया होगा . हन्या तिवारी हैं यह लोग . इनके रिश्तेदार कुछ पाण्डेय ,दूबे और मिश्र  भी अब गाँव में बस गए हैं . झलिया में मूल रूप से गौतम ठाकुरों का निवास है . यह लोग  भी पड़ोस के मकसूदन गांव से जुड़े हुए लोग हैं . मकसूदन में गौतम ठाकुरों की बड़ी आबादी है जो डेरवा, बगिया और झलिया में  फैली हुई है . यही झलिया सरकारी  कागज़ात में मामपुर का हिस्सा बन गया  है . गौतम लोग मकसूदन के राजकुमार ज़मींदारों के रिश्तेदार थे . उनको पूर्वजों से सम्मान से लाकर यहाँ बसाया था . शोभीपुर में करीब १२० साल पहले मकसूदन के ज़मींदारों की एक पट्टी के लोगों ने घर बना लिया था . मकसूदन के १८६१ के ज़मींदार बाबू दुनियापति सिंह के चार बेटों में से एक की औलादों ने शोभीपुर में घर बना लिया था . उसके पहले उनके साथ कुछ परजा पवन भी आ गए थे . इसलिए कुम्हार ,कहार, नाई भी गाँव में हैं . बस यही गाँव था . कुछ साल बाद पड़ोस के गाँव नरिन्दापुर से परिहार ठाकुरों के एक परिवार को गाँव के बाबू साहेब ने गाँव निकाला दे दिया था . शोभीपुर वालों ने उनको रोक लिया और कुछ ज़मीन उनके हवाले करके यहीं बसा दिया . इन्हीं पर्हारों के रिश्तेदार कुछ चौहान ठाकुर भी आ गए . राजकुमारों के रिश्तेदार बैस भी आ गए . मकसूदन के गौतम ठाकरों का एक हिस्सा भी इस गाँव में है. एक परिवार  नाऊ और एक परिवार दलित बिरादरी का भी है . मुस्लिम फकीरों का भी एक परिवार है  जो गाँव से थोड़ी दूरी पर बसा हुआ है . भुडकुल्ली साईं की औलादें हैं सब लेकिन अब कई परिवार बन गए हैं .

गाँव में पुरानी सोच हावी रही  है .  पढाई लिखाई के कोई ख़ास परम्परा नहीं रही  है . झलिया के कुछ लोग  आज से करीब सत्तर साल पहले मुम्बई गए थे . वहां छोटे मोटे काम ही करते रहे . मजदूर रहे या किसी कपडे की मिल में कुछ काम किया . झलिया के लिए लगभग हर घर से लोग मुम्बई में हैं . मामपुर के लोग भी हैं. लेकिन ऐसा कोई  नहीं है जिसको खोली के आसपास के बाहर कोई जानता हो . पुरवा के एक पाण्डेय जी मुंबई में  पुरोहिती का काम करते हैं. उनकी पैठ कई उद्योगपति परिवारों में भी है.  शोभीपुर से पहली बार मुम्बई ठाकुर रामसुख सिंह गए थे. कल्याण के नैशनल रेयान  कारपोरेशन  में उनको काम मिल गया था. उन्हीं के हवाले से उनके परिवार के लोग भी गए . सभी छोटे मोटे काम करते हैं . मूलत कल्याण  के आसपास ही रहते हैं. इन लोगों के बच्चों ने ठीक ठाक पढाई कर ली है . कुछ वकील हैं , कुछ डाक्टर हैं ,कुछ ने अपना कारोबार कर लिया है . २००२ में गाँव के एक लड़के ने आई आई एम से एम बी ए करने के बाद मुंबई में एक विदेशी बैंक में मैनेजर की नौकरी कर ली थी अब वह एक अमरीकी बैंक का प्रेसीडेंट है .उसकी पत्नी पहले बीबीसी में थीं अब मुंबई के प्रतिष्ठित एस पी जैन  इंस्टीटयूट ऑफ़ मैनेजमेंट एंड रिसर्च में प्रोफ़ेसर है .

मामपुर ग्रामसभा में कोई मंदिर नहीं है . शोभीपुर में एक नीम के पेड़ में विराजमान काली माई ही गाँव की सामूहिक आस्था का केंद्र हैं . चारों ही गाँवों में  काली माई हैं . कुछ पीपल के पेड़ों में शंकर जी का स्थान मान लिया गया है . मंदिर तो गाँव से  करीब पांच किलोमीटर दूर गोमती के किनारे धोपाप में था मकसूदन में भी एक हनुमान जी का मंदिर था ,नरेंदापुर में भी एक मंदिर था जिसमें वहां के बाबू साहेब ने एक पुजारी रख दिया था जिसको वे कुछ तनखाह देते थे और वह सुबह शाम वहां पूजा कर देता था .धोपाप के मंदिर में तो जेठ के दशहरा और  कार्तिक की पूर्णिमा जैसे अवसरों पर भारी भीड़ होती थी लेकिन ज़्यादातर लोग गोमती में स्नान करके अपने घर चले जाते थे. मंदिर में जाने वालों की संख्या बहुत कम होती थी .दर असल इलाके में लोग मंदिरों में जाकर पूजा पाठ नहीं करतेवहां केवल दर्शन करते हैं और अयोध्याबिजेथुआजनवारी नाथ जैसे मंदिरों में जाकर चढ़ावा चढाते हैं ,जहां वहां के मुक़ामी पंडित जी खुली तोंद के साथ विद्यमान रहते हैं और पूजा कर रहे होते हैं .

तीन चार साल पहले गाँव में सड़क की ज़मीन पर अपने घर के सामने एक बाबू साहब ने एक बहुत ही छोटा मंदिर बनवा दिया है लेकिन उसमें भी ताला बंद रहता है .  चर्चा है कि गाँव के बीच में जाने वाली प्रयागराज-अकबरपुर का  चौडीकरण होना है और गाँव में जिन लोगों ने सड़क की ज़मीन पर अपनी दीवारें बनवा रखी हैं,उसी से बचने के लिए यह मंदिर बनवाया गया है. पूरी ग्रामसभा में एक सरकारी प्राइमरी स्कूल है जो १९६२ में खुला था. एक उद्यमी ने एक नर्सरी स्कूल भी खोल दिया है . गाँव मुख्य मार्ग पर है इसलिए वहां यातायात की सुविधा है .करीब तीन किलोमीटर दूर स्थित लम्भुआ बाज़ार अब नागर पंचायत बन गया है . तहसील ,ब्लाक आदि सरकारी दफतर सब वहीं हैं . गाँव में सरकार के नाम पर बस प्राइमरी स्कूल ही है .

गाँव में खेती ही आजीविका का साधन है लेकिन कोई भी खेती नहीं करना चाहता . चीन से लड़ाई के बाद साठ के  दशक में गाँव से तीन चार लोग फ़ौज में भर्ती हो गए थे . उनमें से एकाध कोई नायब सूबेदार तक पंहुचकर रिटायर हुआ . उसके पहले चीन की लड़ाई में भी गाँव के एक व्यक्ति शामिल हुए थे लेकिन वी आर एस लेकर आ गए . गाँव के सबसे पुराने फौजी दूसरे विश्वयुद्ध के बाद जो भर्ती शुरू हुई उसमें भी  फ़ौज में  गए थे  . गाँव में सबसे पहले उच्च शिक्षा पाने वालों में डॉ श्रीराज सिंह हैं . उन्होंने १९५५ में बी एच यू से बी एस-सी कर लिया था . बाद में पी एच डी तक की पढाई की और पोस्ट ग्रेजुएट कालेज में रीडर पद से रिटायर हुए . अब वे ९० साल के हैं और गाँव में सबसे अधिक उम्र के वे ही हैं . गाँव में उनका शानदार घर है लेकिन वे  शहर में सुलतानपुर में घर बनवाकर रहते हैं .बहुत सारे जूनियर इंजीनियर ( जे ई ) गाँव में हैं. सरकारी विभागों में जे ई को  तनख्वाह के अलावा जो गिजा मिलती है उसके  कारण उन जे ई लोगों के परिवार में सम्पन्नता भी है . सरकारी नौकरी का मोह गाँव में बहुत प्रबल है इसलिए आर पी ऍफ़ में कुछ सिपाही भी भर्ती हो गए हैं . एकाध लड़के सब इंस्पेक्टर भी हैं.  गाँव की एक लडकी विश्व बैंक में भी काम कर चुकी है . विदेश में तो कोई नहीं बसा है एक परिवार ऐसा है जिसका विदेशों में आना जाना लगा रहता है . जो अमरीकी बैंक में प्रेसीडेंट हैं उनकी बहन आई आई एम बंगलौर में अर्थशास्त्र के प्रोफ़ेसर है.  उनके ही परिवार का एक लड़का पिछले साल इलाहाबाद  के  ग्रामीण इंजीनियरिंग कालेज से बी ई करने के बाद सहायक इंजीनियर बना है . उनके यहाँ कभी हलवाही करने वाले दलित पारिवार का एक लड़का भी उनके साथ ही पढाई करके सहायक इंजीनियर बना है. इसको सामाजिक तरक्की का एक बड़ा उदहारण माना जा सकता है  

 

गाँव में कोई हाट  बाज़ार या मेला नहीं लगता . पड़ोस के गाँव  रामपुर के चौराहे पर कुछ लोगों ने दूकान खोल ली थी ,अब वहीं एक बाज़ार  विकसित होता नज़र आ रहा है . इस गाँव में  सरकार में उच्च पद पर कोई नहीं है . मुंबई आदि शहरों में जो लोग गए हैं उनमें उद्योगपति कोई नहीं है. सब मेहनत मजूरी करके ही पेट पाल रहे हैं. गाँव  में गरीबी सबसे बड़ी समस्या है . कोरोना के दौर में इस गाँव में एक आदमी मुंबई से आया था लेकिन कोरोना का कोई भी असर गाँव पर नहीं पड़ा

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