शेष नारायण सिंह
नई कृषिनीति के लिए केंद्र सरकार की तरफ से लाये गए कानूनों के बाद पंजाब सहित देश के कई हिस्सों में किसानों की अगुवाई में विरोध हो रहा है जिसको किसान आंदोलन का नाम दिया गया है . दिल्ली राज्य के तीन प्रवेश द्वारों पर किसानों ने अपने खेमे लगा दिए हैं . किसान आन्दोलन शुरू होने के बाद जब पहली बार कोई राजनीतिक चुनाव हुआ तो साफ़ समझ में आ गया कि किसानों का आन्दोलन बीजेपी को राजनीतिक नुकसान पंहुचा सकता है . पंजाब में नगर पंचायतों के चुनाव के नतीजे आये वे केंद्र की बीजेपी सरकार के लिए बुरी खबर के रूप में आये. हालांकि यह भी सच है कि जहां बीजेपी के खिलाफ खडी पार्टी का मुकामी नेता मज़बूत है ,वहां बीजेपी को नुक्सान होता है लेकिन अगर विपक्ष लुंजपुंज है तो बीजेपी का कुछ नहीं बिगड़ेगा . पंजाब के बाद ही गुजरात में बड़े नगर निगमों के चुनाव हुए जहां बीजेपी को भारी फ़ायदा हुआ. यह नतीजे यह भी ऐलान कर रहे हैं कि अगर विपक्ष में कोई मज़बूत पार्टी या नेता खड़ा होगा तो बीजेपी के खिलाफ जनता वोट देने के लिए तैयार हो जायेगी . कांग्रेस पार्टी की पंजाब में सरकार है और पिछले चार साल से अमरिंदर सिंह की सरकार ने बहुत सारे ऐसे काम किये हैं जिनके कारण उनका विरोध भी है लेकिन नगर पंचायतों के चुनाव के नतीजे बताते हैं कि अकाली दल और बीजेपी से नाराज़ लोगों ने टूट कर कांग्रेस को समर्थन दिया है . कांग्रेस का लगभग सभी नगर पंचायतों पर क़ब्ज़ा हो गया है . इन नतीजों से बीजेपी की उन उम्मीदों को झटका लगा है जिसके तहत उसके नेता सोच रहे थे कि यह चुनाव मूल रूप से शहरी इलाकों में हुए हैं . कृषि कानूनों का विरोध करने वाले ज्यादातर किसान गाँवों में रहते हैं. बीजेपी वाले सोच रहे थे कि शहरी इलाकों में अगर अच्छा समर्थन मिल गया तो किसान आन्दोलन को अलोकप्रिय बताने में मदद मिलेगी ज्यादातर विरोध प्रदर्शन जारी है .
बंगाल में भी बीजेपी को अपनी चुनावी रणनीति में बदलाव करना पड़ा है . वहां इसी साल विधानसभा के चुनाव होने हैं. सबको मालूम है कि नंदीग्राम में किसानों की समस्याओं को मुद्दा बना कर बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने २०११ का चुनाव लड़ा था और दशकों से जमी हुई वाम मोर्चे की सरकार को उखाड़ फेंका था. उस आन्दोलन का प्रमुख नौजवान चेहरा था शुवेंदु अधिकारी . शुवेंदु को बाद में ममता बनर्जी ने मंत्री बनाया . उनके पूरे परिवार को राजनीति से जो भी लाभ संभव है , मिलता रहा लेकिन बीजेपी ने उनको तोड़ लिया . कोशिश यह थी कि किसानों के नेता के रूप में बनी उनकी छवि का लाभ लिया जाएगा .बहुत ही बाजे गाजे के साथ उनको बीजेपी में भर्ती किया गया . लेकिन जब किसान आन्दोलन से उपजी नाराज़गी की आंच बंगाल में भी दिखने लगी तो पार्टी ने चुनावी रणनीति में बदलाव किया . अब मुस्लिम नेता ,असदुद्दीन ओवैसी को मैदान में आ गए हैं .बीजेपी के सभी नेता अपने भाषणों में ममता सरकारी की तुष्टीकरण की नीति की आलोचना कर रहे हैं, जय श्रीराम के नारे लगा रहे हैं और ममता को हिंदुत्व की पिच पर खेलने के लिए मजबूर कर रहे हैं .
बीजेपी को नई कृषि नीति की वजह से चुनावी नुक्सान हो रहा है . यह भी संभव है कि राजनीतिक नुक्सान का आकलन करने के बाद बीजेपी और उनकी सरकार किसानों की मांग को मान भी ले और तीनों क़ानून वापस ले ले लेकिन लेकिन वह देश के लिए ठीक नहीं होगा . आन्दोलन का असर गावों में किसानों की नाराजगी के रूप में साफ नज़र आ रहा है . बीजेपी को अगर इस बात का सही अंदाजा लग गया तो खेती के औद्योगीकरण और पूंजीवादीकरण पर रोक लग जायेगी और किसानी उसी हरित क्रान्ति के दौर में बनी रह जायेगी . पूंजीवादी आर्थिक विकास की दिशा कोई बहुत अच्छी चीज नहीं है लेकिन जब पूरी की पूरी अर्थव्यवस्था उसी ढर्रे पर जा रही हो तो खेती को उससे बाहर रखने से उन्हीं लोगों का नुक्सान होगा जो खेती पर ही निर्भर हैं . यह भी सच है कि जिस रूप में नए कानूनों को लाया गया है उसमें बहुत कमियाँ हैं . पूरा कानून वापस लेने की जिद पर अड़े किसानों को चाहिए कि उसमें जो खामियां हैं उनको दुरुस्त करने की बात करें और पूरे के पूरे कानून को वापस लेने की बात छोड़ दें . वरना डर यह है कि कहीं नई कृषि नीति का भी वही हाल न हो जाए जो इंदिरा गांधी के पहले कार्यकाल में परिवार नियोजन का हुआ था . दो बच्चों तक परिवार को सीमित रखने की योजना बहुत ही अच्छी थी. उसको लागू करने की तरकीब भी बहुत अच्छी थी . स्वैच्छिक नीति थी, उत्साहित करने के लिए धन आदि की भी व्यवस्था थी लेकिन संजय गांधी ने जिस तरह से उसको लागू करने की योजना बनाई उससे कांग्रेस की सरकार जनमानस में बहुत अलोकप्रिय हो गयी और नतीजा हुआ कि १९७७ में इंदिरा गांधी चुनाव हार गयीं . उनकी हार में परिवार नियोजन की नीति को आक्रामक तरीके से लागू करने की बात भी थी .उसी का नतीजा है कि बाद की किसी सरकार ने परिवार नियोजन को ठीक से लागू करके राजनीतिक हानि झेलने का जोखिम नहीं लिया और आज देश की आबादी सवा सौ करोड़ से ज़्यादा हो चुकी है . सभी संसाधनों पर भारी असर पड़ रहा है .
नई कृषि नीति लागू करने के लिए देश के सभी गुनी जन मिलकर बैठकर कृषि नीति में ज़रूरी सुधारों की बात करें . सरकार भी जिद छोड़कर कृषि नीति में जो किसान विरोधी धाराएं हैं उनको सही कर दे और किसान भी सभी कानूनों को वापस लेने की जिद छोड़कर किसानों के फायदे वाला कानून बनवाने की बात करें . कृषि क़ानून में बदलाव ज़रूरी है ,क्योंकि हरित क्रान्ति के बाद कोई भी बड़ा बदलाव नहीं किया गया है . 1991 में जब डॉ मनमोहन सिंह ने जवाहरलाल देश की अर्थव्यवस्था को पूंजीवादी विकास के रास्ते पर डाला था तो उन्होंने कृषि में बड़े सुधारों की बात की थी . मौजूदा क़ानून उसी बात को आगे बढाने की कोशिश है लेकिन उसमें बहुत सारी कमियाँ हैं . इसीलिये नए कानून का विरोध हो रहा है . खेती को अगर विकास का औजार और ग्रामीण गरीबी को घटाने के वाहक रूप में रखना है तो कृषि सुधारों के का पूरी तरह से विरोध नहीं किया जाना चाहिए . १९९१-९२ में जो होना चाहिए था अगर उसमें और देर की गयी तो ग्रामीण क्षेत्रों में गरीबी और बढ़ेगी . डॉ मनमोहन सिंह ने गरीबों की रक्षा करने वाली कृषि नीति के आधार पर बात करते हुए खुले बाज़ार की सुविधा नहीं दी . खेती की पैदावार पर निर्यात के कंट्रोल लागू रहे , उपज की आवाजाही पर भी सरकारी सख्ती थी. नतीजा यह हुआ कि खेती से प्रति एकड़ कम कीमत मिलती रही . किसान के पास आमदनी ही नहीं थी तो मजदूरी भी कम रही. आज भारतीय खेती में खेत मजदूर की संख्या ,ज़मीन के मालिक से ज्यादा है . पंजाब और हरियाणा के अलावा बाकी देश में किसानों के पास बहुत कम क्षेत्रफल की ज़मीन खेती लायक है . पंजाब सहित बाकी देश में ज़मीन के नीचे पानी का स्तर लगातार नीचे जा रहा है . धान और गेहूं की खेती में बहुत पानी लगता है . धान से निकलने वाले चावल का तो देश के बाहर भी बाज़ार है लेकिन गेहूं को निर्यात करना असंभव है .ऐसी खेती की ज़रूरत है जिससे जलस्तर का संतुलन भी बना रहे और खेती से प्रति एकड़ आर्थिक उपज भी ऐसी हो जिससे किसान के परिवार की देखभाल भी हो सके. साथ साथ औद्योगीकरण को भी रफ्तार दी जाए जिससे खेती से बाहर निकलने वाले कामगारों को उद्योगों में खपाया जा सके .
सबसे ज़रूरी बात तो कम पानी वाली खेती को देश की आदत बनाने की ज़रूरत है क्योंकि अगर ज्यादा पानी वाली गेहूं और धान जैसी फसलें ही पैदा की जाती रहीं तो देश में पानी की भारी कमी हो जायेगी . इजरायल में इसी तरह के प्रयोग किये गए और अब बहुत बड़े पैमाने पर सफलता मिल चुकी है . रेगिस्तान में महंगी निर्यात होने लायक फसल पैदा करके उन्होंने अपने यहाँ के ज़मीन मालिकों की संपन्नता को कई गुना बढ़ा दिया है. कीनू, नींबू, खजूर और जैतून की खेती को बढ़ावा दिया गया जिसमें कम से कम पानी लगता है और सभी उत्पादन निर्यात किये जाते हैं . ज़रूरत इस बात की है एक एक बूँद पानी बचाया जाय और सीमित ज़मीन से ज़्यादा आर्थिक लाभ लिया जाए. नई कृषि नीति को इस दिशा में जाना चाहिए था. एक प्रसिद्ध कहावत है कि “ हमको ज़मीन अपने पूर्वजों से विरासत में नहीं मिलती ,हम उसे अपने बच्चों से उधार लेते हैं . “ यानी हमें इस ज़मीन को उनके मालिकों तक उसी तरह से पंहुंचाना है जैसी हमको मिली थी . साफ़ मतलब है कि ज़मीन का जलस्तर घटाए बिना खेती करने की ज़रूरत है . उसके लिए धान और गेहूं से खेती को हटाकर कम पानी वाली खेती करनी पड़ेगी . नए कृषि क़ानून में इस व्यवस्था को लागू करने की कोशिश की गयी है लेकिन कुछ कमियाँ हैं उनको ठीक किये जाने की ज़रूरत है .
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