Saturday, July 29, 2017

हेपेटाइटिस एक जानलेवा बीमारी है लेकिन बचाव संभव है



शेष नारायण सिंह 

2जुलाई विश्व हेपेटाइटिस दिवस है . लीवर की यह बीमारी पूरी दुनिया में बहुत ही खतरनाक रूप ले चुकी है . दुनिया में ऐसे ११ देश हैं जहां हेपेटाइटिस के मरीज़ सबसे ज़्यादा हैं . हेपेटाइटिस के मरीजों का ५० प्रतिशत ब्राजील,चीनमिस्रभारत इंडोनेशिया मंगोलिया,म्यांमारनाइजीरियापाकिस्तानउगांडा और वियतनाम में रहते हैं . ज़ाहिर है इन मुल्कों पर इस बीमारी से दुनिया  को मुक्त करने की बड़ी जिम्मेवारी है. २०१५ के आंकडे मौजूद हैं. करीब ३३ करोड़ लोग हेपेटाइटिस की बीमारी से पीड़ित थे. हेपेटाइटिस बी सबसे ज़्यादा खतरनाक है और इससे पीड़ित लोगों की संख्या भी २५ करोड़ के पार थी. ज़ाहिर है अब यह संख्या  और अधिक हो गयी होगी. २०१५ में हेपेटाइटिस से मरने वालों की संख्या १४ लाख  से  अधिक थी .चुपचाप आने वाली यह बीमारी टी बी और एड्स से ज्यादा लोगों की जान ले रही है . ज़ाहिर है कि इस बीमारी से युद्ध स्तर पर मुकाबला  करने की ज़रूरत  है और इस अभियान में जानकारी ही  सबसे बड़ा हथियार है . विज्ञान  को अभी तक पांच तरह के पीलिया हेपेटाइटिस के बारे में जानकारी है .  अभी  के बारे जानकारी 
हेपेटाइटिस एबी ,सी ,डी और ई . सभी खतरनाक हैं लेकिन बी से  खतरा बहुत ही ज्यादा   बताया जाता है .  विश्व स्वास्थ्य संगठन , हेपेटाइटिस को २०३० तक ख़त्म करने की योजना पर  काम भी कर रहा  है . भारत भी उन देशों में शुमार है जो इस  भयानक बीमारी के अधिक मरीजों वाली लिस्ट में  हैं इसलिए भारत की स्वास्थय प्रबंध व्यवस्था की ज़िम्मेदारी बहुत बढ़ जाती है .

इस वर्ग की बीमारियों में हेपेटाइटिस  बी का प्रकोप सबसे ज्यादा है और इसको ख़त्म करना सबसे अहम चुनौती है .इस बारे में जो सबसे अधिक चिंता की बात है वह यह है एक्यूट हेपेटाइटिस बी का कोई इलाज़ नहीं है .सावधानी ही सबसे बड़ा इलाज़ है .  विश्व बैंक का सुझाव है कि संक्रमण हो जाने के बाद आरामखाने की ठीक व्यवस्था और  शरीर में ज़रूरी तरल पदार्थों का स्तर बनाये रखना ही बीमारी से बचने  का सही तरीका है .क्रानिक हेपेटाइटिस बी   का इलाज़ दवाइयों से संभव  है . ध्यान देने की बात यह है कि हेपेटाइटिस बी की बीमारी पूरी तरह से ख़त्म नहीं की जा सकती इसे केवल   दबाया जा सकता है .इसलिए जिसको एक बार संक्रामण हो गया उसको जीवन भर दवा लेनी चहिये . हेपेटाइटिस बी  से बचने का सबसे  सही तरीका टीकाकरण है .  विश्व स्वास्थ्य  संगठन का सुझाव है कि सभी बच्चों को जन्म के साथ ही हेपेटाइटिस बी का टीका दे दिया जाना  चाहिए .अगर सही तरीके से टीकाकरण  कर दिया जाय तो बच्चों में  ९५ प्रतिशत बीमारी की   संभावना ख़त्म हो जाती है  . बड़ों को भी  टीकाकरण से फायदा होता है .
पूरी दुनिया में हेपेटाइटिस को खत्म करने का अभियान चल रहा है .मई २०१६ में वर्ल्ड हेल्थ असेम्बली ने ग्लोबल हेल्थ सेक्टर स्ट्रेटेजी आन वाइरल हेपेटाइटिस २०१६-२०२०  का प्रस्ताव  पास किया  था. संयुक्त  राष्ट्र ने २५ सितम्बर को अपने प्रस्ताव संख्या  A/RES/70/1  में  इस प्रस्ताव को सस्टेनेबल डेवलपमेंट गोल्स को शामिल किया था . वर्ल्ड हेल्थ असेम्बली का यह प्रस्ताव उन उद्देश्यों को शामिल करता है .इस प्रस्ताव का संकल्प यह  है कि हेपेटाइटिस को ख़त्म करना है . अब चूंकि भारत इन ग्यारह देशो में हैं जहां हेपेटाइटिस के आधे मरीज़ रहते हैं इसलिए भारत की ज़िम्मेदारी सबसे  ज़्यादा  है . जिन देशों का नाम है उनमें भारत और चीन अपेक्षाकृत संपन्न  देश माने जाते हैं इसलिए यह ज़िम्मेदारी और बढ़ जाती   है . सरकार को चाहिए कि जो भी संसाधन उपलब्ध हैं उनका सही तरीके से इस्तेमाल करने की संस्कृति विकसित करें. बीमारी को बढ़ने से रोकें.रोक के बारे में इतनी  जानकारी फैलाएं कि लोग खुद ही  जांच आदि  के कार्य को प्राथमिकता दें और हेपेटाइटिस  को समाप्त करने को एक मिशन के रूप में अपनाएँ .
अपने देश में इस दिशा में  अहम कार्य हो रहा है . देश के लगभग सभी बड़े  मेडिकल शिक्षा  के संस्थानोंमेडिकल  कालेजों और बड़े अस्पतालों में लीवर की बीमारियों के इलाज और नियंत्रण के साथ साथ रिसर्च  का काम भी हो रहा   है . सरकार का रुख  इस सम्बन्ध में बहुत ही प्रो एक्टिव है . नई दिल्ली में लीवर और पित्त रोग के  बारे में रिसर्च के लिए एक संस्था की स्थापना ही कर दी गयी है. २००३ में शुरू हुयी इंस्टीटयूट आफ लीवर एंड  बिलियरी साइंसेस नाम की यह संस्था विश्व स्तर की है.  जब संस्था शुरू की गयी तो इसका मिशन लीवर की एक विश्व संस्था बनाना था  और वह लगभग पूरा कर लिया गया है .

इस संस्थान की प्रगती के पीछे इसके संस्थापक निदेशक डॉ शिव कुमार सरीन की शख्सियत को माना जाता  है . शान्ति स्वरुप भटनागर और पद्मम भूषण से   सम्मानित डॉ सरीन को विश्व में लीवर की बीमारियों के इलाज़ का सरताज माना जाता है . बताते हैं कि दिल्ली के जी बी पन्त अस्पताल में कार्यरत डॉ शिव  कुमार सरीन ने  जब उच्च शोध के लिए विदेश जाने का मन बनाया  तो तत्कालीन मुख्यमंत्री ने उनसे पूछा  कि क्यों  विदेश जाना चाहते हैं उनका जवाब था कि  लीवर से   सम्बंधित बीमारियाँ देश में बहुत बढ़ रही हैं  और उनको कंट्रोल करने के लिए बहुत ज़रूरी है कि आधुनिक संस्थान में  रिसर्च किया जाए. तत्कालीन मुख्यमंत्री ने प्रस्ताव दिया  कि विश्वस्तर का शोध संस्थान  दिल्ली में ही स्थापित कर लिया जाए. वे तुरंत तैयार हो गए और आज उसी   फैसले के कारण  दिल्ली में लीवर की बीमारियों के लिए  दुनिया भर में  सम्मानित एक संस्थान मौजूद है  . इस संस्थान को  विश्वस्तर का बनाने में इसके संस्थापक  डॉ एस के सरीन का बहुत योगदान है . वे स्वयं भी बहुत ही उच्चकोटि के वैज्ञानिक हैं .  लीवर से सम्बंधित बीमारियों के इलाज के लिए १७ ऐसे प्रोटोकल  हैं जो दुनिया भर में उनके नाम से जाने जाते हैं . सरीन्स क्लासिफिकेशन आफ गैस्ट्रिक वैराइसेस को सारे विश्व के मेडिकल कालेजों और अस्पतालों में इस्तेमाल किया जाता  है . उनके प्रयास से ही सरकारी स्तर पर दिल्ली में जो इलाज उपलब्ध है वह निजी क्षेत्र के  बड़े  से बड़े अस्पतालों में नहीं है . अच्छी बात यह है कि सरकारी संस्था होने के कारण  आई एल बी एस अस्पताल में गैर ज़रूरी खर्च बिलकुल नहीं होता .

इस साल भी   वर्ल्ड हेपेटाइटिस दिवस  के लिए पूरी  दुनिया के साथ साथ भारत में भी  पूरी तैयारी  है . खबर आई है कि पटना समेत देश के  सभी बड़े शहरों में सम्मलेन आदि आयोजित करके जानकारी बढ़ाई जा रही  है

विश्व स्वास्थ्य  संगठन की तरफ से हर साल २८ जुलाई को वर्ल्ड हेपेटाइटिस दिवस  मनाये जाने का एक मकसद है . इस जानलेवा बीमारी के बारे में पूरी दुनिया में जानकारी बढाने और उन सभी लोगों को एक मंच देने के उद्देश्य से यह आयोजनं  किया जाता है जो किसी न किसी तरह से इससे प्रभावित होते हैं . हर साल करेब १३ लाख लोग इस बीमारी से मरते हैं . इस लिहास से यह टीबी ,मलेरिया और एड्स से कम खतरनाक नहीं  है. हेपेटाइटिस के ९० प्रतिशत लोगों को पता भी नहीं होता कि उनके शरीर में यह जानलेवा विषाणु पल रहा  है . नतीजा  यह होता है कि वे किसी को बीमारी दे सकते हैं या लीवर की भयानक बीमारियों से खुद ही ग्रस्त हो सकते हैं , अगर लोगों को जानकारी हो तो इन बीमारियों से समय रहते मुक्ति पाई जा सकती है .

भ्रष्टाचार किसी भी नेता का अधिकार नहीं है


शेष नारायण सिंह

बंगलूरू की एक जेल में भ्रष्टाचार के आरोप  में सज़ा काट रही अन्नाद्रमुक  नेता वीके शशिकला को जेल में बहुत ही संपन्न जीवन जीने का अवसर मिल रहा है . जेल विभाग की एक बड़ी अफसर ने आरोप लगाया है कि जेल में शशिकला को  जेल मैनुअल के खिलाफ जाकर सुविधाएं दी जा रही हैं . अफसर का  आरोप है कि सुविधा पाने के लिए जेल विभाग के महानिदेशक को शशिकला ने एक करोड़ रूपया दिया है और बाकी कर्मचारियों ने भी एक करोड़ रूपये में बाँट लिया है . आरोप बहुत ही गंभीर  है लेकिन महानिदेशक महोदय  का कहना  है कि कि वो जांच के लिए तैयार हैं. हालांकि उन्होंने भ्रष्टाचार के आरोपों को सिरे से खारिज कर दिया है. उनको मालूम है कि जब जांच होगी तो कोई भी आरोप सिद्ध नहीं होगा क्योंकि जिस तरह से भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप में जेल में बंद अन्नाद्रमुक नेता  शशिकला भ्रष्टाचार के रास्ते ही सज़ा को आरामदेह बनाने में सफल रही हैं , उसी तरह से जेल महकमे के महानिदेशक साहेब भी अपने खिलाफ जांच करने वाले अधिकारियों को संतुष्ट करने में सफल हो  जायेगें . 
देश की जेलों सज़ा काट रहे लोगों को आरामदेह ज़िंदगी बिताने के लिए जेल के अन्दर बहुत  खर्च करना  पड़ता है और वह सारा खर्च रिश्वत के रास्ते ही अफसरों  की जेब तक पंहुचता  है . वी के शशिकला के बहाने भ्रष्टाचार के मुद्दे पर पूरे देश में चर्चा फिर शुरू हो गयी है लेकिन यह चर्चा ही रहेगी  क्योंकि भ्रष्टाचार के नियंताओं के हाथ बहुत बड़े हैं . बिहार के सबसे बड़े राजनीतिक परिवार के खिलाफ आजकल भ्रष्टाचार के कारनामे मीडिया के फोकस में हैं . उनके बेटे बेटियों की  अरबों की संपत्ति , राजनीतिक चर्चा की मुख्य धारा में आ गयी है .  सवाल उठ रहे हैं कि  इनके पास यह संपत्ति आयी किस तरीके से लेकिन लालू प्रसाद यादव विपक्ष की राजनीतिक एकता के नाम  पर मुद्दे को भटकाने की कोशिश  में लगे हुए हैं.  उत्तर प्रदेश में भी आजकल भ्रष्टाचार के खिलाफ  मुहिम चल रही है लेकिन भ्रष्टाचार के मामलों में कहीं कोई ढील नहीं है . आजकल नोयडा में एक कालोनी में आस पास की झुग्गियों में रहने वाले लोगों की तरफ से पत्थरबाजी की घटना ख़बरों में  है . नोयडा जैसे महंगी ज़मीन  वाले इलाकों में भूमाफिया वाले  , इलाके के प्रशासन और पुलिस वालों की मदद से सरकारी ज़मीन पर क़ब्ज़ा  करते हैं . सरकारी ज़मीन पर बहुत ही गरीब लोगों को गैरकानूनी तरीके  से बसाते हैं. ज़ाहिर है इन लोगों के वोट बहुत ज्यादा होते हैं और राजनीतिक नेता वोट की लालच में अपने मुकामी लोगों के ज़रिये इन झुग्गियों को संरक्षण देते हैं . सरकारी जुगाड़ से इन झुग्गियों को  मंजूरी दिला दी जाती है जिसमें नेता, अफसर और अपराधी शामिल होते हैं . इसके बाद जो भूमाफिया इस ज़मीन का करता धरता होता है वह इस मान्यता प्राप्त ज़मीन को बहुत ही महंगे  दामों में बेचता है और वहां रहने वाले झुग्गी वालों को कुछ दे लेकर किसी और सरकारी ज़मीन पर बसा देता  है . नोयडा की मौजूदा घटना इसी बड़े   साजिशतंत्र का हिस्सा है . दिलचस्प बात यह है कि उत्तर प्रदेश सरकार का सरकारी ज़मीन से गैरकानूनी क़ब्ज़ा हटाने  का  बड़ा अभियान चल रहा  है और उस सबके बीच में इतना बड़ा घोटाला सामने आ  गया है . बताते है कि जब कानून व्यवस्था की हालत  को सामान्य बनाने  की कोशिश कर रहे नोयडा और जिले के आला अधिकारियों का ध्यान सरकारी ज़मीन पर अनधिकृत कब्जे की ओर दिलाया गया तो बड़े हाकिम लोग नाराज़ हो गए और कहा कि एक अलग मुद्दा उठाने की ज़रुरत नहीं  है . जब उनको ध्यान दिलाया गया कि मुख्य मंत्री जी के आदेश से राज्य में सरकारी ज़मीन को मुक्त कराने  का अभियान चल रहा है तो अफसरों ने कहा कानून-व्यवस्था प्राथमिकता है और अन्य किसी भी विषय पर बात नहीं की जायेगी .
नोयडा की घटना तो केवल एक घटना है . पूरे देश में इसी पैटर्न पर भ्रष्टाचार चल रहा  है , कई राज्यों में मुख्यमंत्री निजी तौर पर बहुत ईमानदार  हैं लेकिन भ्रष्टाचार का तंत्र चलाने वाले अधिकारियों का अपना एक सिस्टम है और उसको कोई भी नेता आम तौर पर तोड़ नहीं सकता . उत्तर प्रदेश के  मुख्यमंत्री के बारे में भी यही कहा जाता है . व्यक्तिगत रूप से उनकी इमानदारी  को सभी स्वीकार करते हैं और उनका उदाहरण दिया जाता है . लेकिन राज्य के भ्रष्टाचार को रोकने में वे नाकामयाब रहे हैं. सरकार के हर विभाग में भ्रष्टाचार   कम करने के दावे के साथ सरकार बनी थी लेकिन आजकल भ्रष्टाचार बढ़ा है .
यही हाल केंद्र में भी है .प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने २००१ में गुजरात के मुख्यमंत्री पद की शपथ ली थी . उनके खिलाफ किसी तरह के आर्थिक भ्रष्टाचार की शिकायत उनके विरोधी भी नहीं करते लेकिन क्या गुजरात में या अब  केंद्र में आर्थिक भ्रष्टाचार ख़त्म हो गया है .  भ्रष्टाचार है और वह प्रधानमंत्री को मालूम है इसीलिये उन्होंने भ्रष्टाचार की जांच करने वाले सरकारी विभागों को हिदायत दी है कि ऊंचे पदों पर बैठे भ्रष्ट अधिकारियों और जिम्मेदार लोगों के भ्रष्टाचार के मामलों की जांच करें और समाज में व्याप्त भ्रष्टाचार को खत्म करने में मदद करें। प्रधानमंत्री ने सरकारी अधिकारियों को बता दिया  कि छोटे पदों पर बैठे लोगों के भ्रष्टाचार के कारनामों को पकड़कर कोई वाहवाही नहीं लूटी जा सकतीहालांकि उस भ्रष्टाचार को रोकना भी ज़रूरी है लेकिन उससे समाज और राष्ट्र का कोई भला नहीं होगा। प्रधानमंत्री ने जो बात कही है वह बावन तोले पाव रत्ती सही है और ऐसा ही होना चाहिए।लेकिन भ्रष्टाचार के इस राज में यह कर पाना संभव नहीं है। अगर यह मान भी लिया जाय कि इस देश में भ्रष्टाचार की जांच करने वाले सभी अधिकारी ईमानदार हैं तो क्या बेईमान अफसरों की जांच करने के मामले में उन्हें पूरी छूट दी जायेगी लेकिन सरकारी अफसर ,नेता, अपराधी और भूमाफिया के बीच जो सांठ गाँठ है क्या उसको तोडा जा सकता है .

अक्सर देखा  गया है कि राजनीति में आने के पहले जो लोग मांग जांच कर अपना खर्च चलाते थेएक बार विधायक या सांसद बन जाने के बाद जब वे अपनी नंबर एक की  संपत्ति का ब्यौरा देते हैं तो वह करोड़ों में होती है। उनके द्वारा घोषित संपत्ति , उनकी सारी अधिकारिक कमाई के कुल जोड़ से बहुत ज्यादा होती है . इसके लिए जरूरी है बड़े पदों के स्तर पर ईमानदारी की बात की जाय . आज अपने  देश में भ्रष्टाचार और घूस की कमाई को आमदनी मानने की परंपरा शुरू हो चुकी हैवहां भ्रष्टाचार के खिलाफ क्या कोई अभियान चलाया जा सकेगा? और यह बंगलूरू में भी सच है और नोयडा में भी. 
इसको  दुरुस्त करना पड़ेगा और इसके  लिए आन्दोलन की ज़रुरत है . इस बात में कोई शक नहीं है कि किसी भी पूंजीवादी अर्थव्यवस्था पर आधारित लोकतांत्रिक देश में अगर भ्रष्टाचार पर पूरी तरह से नकेल न लगाई जाये तो देश तबाह हो जाते हैं। पूंजीवादी व्यवस्था में आर्थिक खुशहाली की पहली शर्त है कि देश में एक मजबूत उपभोक्ता आंदोलन हो और भ्रष्टाचार पर पूरी तरह से नियंत्रण हो। मीडिया की विश्वसनीयता पर कोई सवालिया निशान न लगा हो। अमरीकी और विकसित यूरोपीय देशों के समाज इसके प्रमुख उदाहरण हैं। यह मान लेना कि अमरीकी पूंजीपति वर्ग बहुत ईमानदार होते हैं,बिलकुल गलत होगा।लेकिन भ्रष्टाचार के खिलाफ वहां मौजूद तंत्र ऐसा है कि बड़े-बड़े सूरमा कानून के इकबाल के सामने बौने हो जाते हैं। और इसलिए पूंजीवादी निजाम चलता है।
इसलिए राष्ट्रहित ,जनहित और  और  अर्थव्यवस्था के हित में यह ज़रूरी है कि भ्रष्टाचार को समूल नष्ट किया जाए .लेकिन यह इतना आसान नहीं है .सही बात यह है कि जब तक केवल बातों बातों में भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई लड़ी जायेगी तब तक कुछ नहीं होगा . इस आन्दोलन को अगर तेज़ करना है कि तो घूस के पैसे को तिरस्कार की नज़र से देखना पड़ेगा . क्योंकि सारी मुसीबत की जड़ यही है कि चोरबे-ईमान और घूसखोर अफसर और नेता रिश्वत के बल पर समाज में सम्मान पाते रहते हैं . 
अपने देश में पिछले कुछ  दशकों में घूसखोरी को सम्मान का दर्जा मिल गया है . वरना यहाँ पर दस हज़ार रूपये का घूस लेने के अपराध में जवाहर लाल नेहरू ने अपने एक मंत्री को बर्खास्त कर दिया था . लेकिन इस तरह के उदाहरण बहुत कम हैं . इसी देश में जैन हवाला काण्ड हुआ था जिसमें मुख्य  धरा की सभी पार्टियों के नेता शामिल थे .आर्थिक उदारीकरण के बाद सरकारी कंपनियों में विनिवेश के नाम पर जो घूसखोरी इस देश में हुई है उसे पूरा देश जानता है . इस तरह के हज़ारों मामले हैं जिन पर लगाम लगाए बिना भ्रष्टाचार को खत्म कर सकना असंभव है . लेकिन भ्रष्टाचार के खिलाफ र्राष्ट्रीय स्तर पर  जनांदोलन की ज़रुरत है और मीडिया समेत सभी ऐसे लोगों को सामने आना चाहिए जो पब्लिक ओपीनियन को दिशा देते हैं ताकि अपने देश और अपने लोक तंत्र को बचाया जा सके. हालांकि बहुत देर हो चुकी  है और शशिकला और  लालू यादव जैसे लोग राजनीति के नाम पर कुछ भी करके सफल हो रहे हैं . इसको रोका जाना चाहिए .

मेरी पहली मुहब्बत : मेरी नीम का पेड़



शेष नारायण सिंह

नीम की चर्चा होते ही पता नहीं क्या होता  है कि  मैं अपने  गांव पंहुंच जाता हूँ.  बचपन  की पहली यादें ही नीम से जुडी हुयी हैं . मेरे  गाँव में नीम  एक देवी  के रूप में स्थापित हैंगाँव के पूरब में अमिलिया तर वाले बाबू साहेब की ज़मीन में जो नीम  का पेड़ है ,वही काली माई का स्थान है . गाँव के बाकी नीम के पेड़ बस पेड़ हैं .   लेकिन उन पेड़ों में भी मेरे बचपन की बहुत सारी मीठी यादें हैं . मेरे दरवाज़े पर जो नीम का  पेड़ था वह गाँव  की बहुत सारी गतिविधियों का केंद्र था . सन २००० के सावन में जब  बहुत तेज़ बारिश हो रही थीतो चिर्री पड़ी ,  लोग बताते हैं कि पूरे गाँव में अजोर हो गया था  , बहुत तेज़ आवाज़ आई थी और सुबह  जब लोगों ने देखा तो मेरे दरवाज़े की नीम का एक  ठासा टूट कर नीचे गिर गया था. मेरे बाबू वहीं पास में बने मड़हे में रात में सो  रहे थे. उस आवाज़ को सबसे क़रीब से  उन्होंने ही सुना था. कान फाड़ देने वाली आवाज़ थी वह . चिर्री वाले हादसे के बाद नीम का  पेड़ सूखने लगा था. अजीब इत्तिफाक है कि उसके बाद ही मेरे बाबू  की जिजीविषा  भी कम होने लगी थी. फरवरी आते आते नीम के पेड सूख  गया . और उसी  २००१ की फरवरी में बाबू भी चले गए थे . जहां वह नीम का पेड़ था , उसी जगह के आस पास मेरे भाई ने नीम के तीन पेड़ लगा दिए है , यह नीम भी तेज़ी से बड़े हो  रहे हैं .
 इस नीम के पेड़ की मेरे गाँव के सामाजिक जीवन में बहुत महत्व है .इसी पेड़ के नीचे मैंने और मेरे अज़ीज़ दोस्त बाबू बद्दू सिंह ने शरारतें  सीखीं और उनका अभ्यास भी किया . जाड़ों में धूप सबसे पहले इसी पेड़ के नीचे बैठ कर सेंकी जाती थी. पड़ोस के कई बुज़ुर्ग वहां मिल जाते थे . टिबिल साहेब और पौदरिहा बाबा तो  धूप निकलते  ही आ जाते थे. बाकी लोग भी आते जाते रहते थे. मेरे बाबू के काका थे यह दोनों लोग . बहुत आदरणीय इंसान थे. हुक्का भर भर के नीम के पेड़ के नीचे पंहुचाया जाता रहता था. घर के तपता में आग जलती रहती थी.    इन दोनों ही बुजुर्गों का असली नाम कुछ और था लेकिन  सभी इनको इसी नाम से जानते थे. टिबिल साहेब कभी उत्तर प्रदेश पुलिस में कांस्टेबिल रहे थे १९४४ में रिटायर हो गए थे और मेरे पहले की पीढी भी उनको इसी नाम से जानती थी.  पौदरिहा का नाम इस लिए पड़ा था कि वे  गाँव से किसी की बरात में गए थे तो इनारे की पौदर के पास ही खटिया  डाल कर वहीं सो गए थे . किसी घराती ने उनको पौदरिहा कह दिया और जब बरात लौटी तो भाइयों ने उनका यही नाम कर दिया . इन्हीं  मानिंद  बुजुर्गों की छाया में हमने शिष्टाचार  की बुनियादी  बातें सीखीं थीं.
मेरी नीम की मज़बूत डाल पर ही सावन में झूला पड़ता था. रात में गाँव की लडकियां और बहुएं उस  पर झूलती थीं और कजरी गाती थीं.  मानसून के  समय चारों तरफ झींगुर की आवाज़ के बीच में ऊपर नीचे जाते झूले पर बैठी  हुयी कजरी गाती मेरे गाँव की लडकियां  हम लोगों को किसी भी महान संगीतकार से कम नहीं लगती थीं.  जब १९६२ में मेरे गाँव  में स्कूल खुला तो सरकारी बिल्डिंग बनने के पहले इसी नीम के पेड़ के नीचे ही  शुरुआती कक्षाएं चली थीं.   धोपाप जाने वाले नहवनिया लोग जेठ की दशमी को थक कर इसी नीम  के नीचे आराम करते  थे. उन दिनों सड़क कच्ची थी और ज़्यादातर लोग धोपाप पैदल ही जाते थे .

 मेरे गाँव में सबके घर के आस पास नीम के पेड़ हैं और किसी भी बीमारी में उसकी  पत्तियां , बीज, तेल , खली आदि का इस्तेमाल बड़े पैमाने पर  होता था लेकिन आब नहीं होता. निमकौड़ी बीनने और बटोर कर रखने का रिवाज ही खत्म हो गया है . लेकिन नीम के पेड़ के प्रति श्रद्धा कम नहीं  हो रही है .
 एक दिलचस्प वाकया है  . मेरे बचपन में   मुझसे छः साल बड़ी मेरी   बहिन  ने घर के ठीक  सामने  नीम का एक पौधा  लगा दिया   था. उसका विचार था कि जब भाइयों की दुलहिन आयेगी  तब तक नीम  का पौधा पेड़ बन जाएगा  और उसी  पर उसकी  भौजाइयां झूला डालकर झूलेंगी.  अब वह पेड़ बड़ा हो गया  है , बहुत ही घना और शानदार .  बहिन के भाइयों की दुलहिनें  जब आई थीं तो पेड़ बहुत छोटा था . झूला नहीं पड़ सका . अब उनकी भौजाइयों के  बेटों की दुलहिनें आ गयी हैं लेकिन अब गाँव  में लड़कियों का झूला झूलने की परम्परा  ही ख़त्म हो गयी है .इस साल  मेरे छोटे भाई ने ऐलान कर दिया कि बहिन   वाले  नीम के पेड़ से घर को ख़तरा है ,लिहाज़ा उसको कटवा दिया जाएगा . हम लोगों ने कुछ बताया  नहीं लेकिन बहुत तकलीफ हुयी  . हम  चार भाई  बहनों के   बच्चों को हमारी तकलीफ  का अंदाज़ लग गया और उन लोगों ने ऐसी  रणनीति बनाई   कि नीम का  पेड़ बच गया .जब नीम के उस पेड़ पर हमले का खतरा मंडरा रहा   था तब मुझे अंदाज़ लगा कि मैं नीम से कितना मुहब्बत करता हूँ . 

Saturday, July 8, 2017

अमरीका अगर चूका तो जर्मनी विश्व नेता बन सकता है


शेष नारायण सिंह 

इजरायल की ऐतिहासिक यात्रा के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी २० के शिखर सम्मलेन में भाग लेने  हैम्बर्ग  पंहुंच गए हैं. दुनिया के औद्यिगिक देशों और आर्थिक  क्षेत्र की उभरती हुयी शक्तियों का यह क्लब मूल रूप से आर्थिक प्रशासन के एजेंडा के साथ स्थापित किया है . लेकिन अन्य मुद्दे  भी इस का विषयवस्तु समय की तात्कालिक आवश्यकता के हिसाब से  बन जाते हैं .इसके सदस्यों में अमरीका तो है ही उसके अलावा  भारत ,चीन, रूस , अर्जेंटीना , आस्ट्रेलिया, ब्राजील, ब्रिटेन, कनाडा , फ्रांस , जर्मनी , इंडोनेशिया ,इटली, जापान ,मेक्सिको,साउदी अरब, दक्षिण अफ्रीका, दक्षिण कोरिया और तुर्की हैं . यूरोपियन यूनियन को भी एक राष्ट्र सदस्य का दर्ज़ा दिया  गया है . जी २० में दुनिया  की आबादी का करीब दो तिहाई हिस्सा शामिल है और विश्व की अर्थव्यवस्था का ८० प्रतिशत इसके सदस्य देशों  में केन्द्रित है . १९९९ में शुरू हुए इस संगठन की ताक़त बहुत अधिक मानी जाती है . २००८ में पहली बार सदस्य देशों के नेताओं का शिखर सम्मलेन अमरीका की राजधानी वाशिंटन डी सी में हुआ था तब से अलग अलग देशों में यह सम्मलेन होता  रहा  है . जर्मनी में हो रहा मौजूदा सम्मलेन बहुत ही महत्वपूर्ण इस लिहाज़ से भी है कि मई में इटली में हुए जी ७ सम्मलेन के दौरान अमरीकी  राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने पेरिस समझौते से अपने आपको अलग कर लिया था. उस सम्मलेन में उन्होंने भारत और चीन की आलोचना करके एक नया विवाद खड़ा कर दिया  था  जबकि जर्मनी की चांसलर एंजेला मर्केल ने उनसे सार्वजनिक रूप से असहमति जताई थी.
.जी २० सम्मेलन में भी जर्मन चांसलर एंजेला मर्केल और अमरीकी राष्ट्रपति  डोनाल्ड ट्रंप के बीच बड़े मतभेद की पूरी सम्भावना है क्योंकि जर्मनी ने साफ संकेत दे दिया है कि  वह जलवायु परिवर्तन,मुक्त व्यापार और  शरणार्थियों की समस्या को मुद्दा  बाने के लिए प्रतिबद्ध है जबकि अमरीका के नए नेतृत्व ने कह दिया है कि  वह अमरीकी तात्कालिक हित से पर ही ध्यान देने वाला है . वैश्विक मद्दे फिलहाल अमरीकी राष्ट्रपति की  प्राथमिकता सूची से बाहर  हैं. इस बात की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता कि इस सम्मेलन में अमरीका अलग थलग पड़  सकता है जबकि बाकी देशों में एकता के मज़बूत होने की सम्भावना है . अमरीका का राष्ट्रपति बनने के बाद डोनाल्ड ट्रंप पहली बार रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन से आमने सामने मिल रहे हैं . यह देखना दिलचस्प होगा कि बराक ओबामा जैसे सुलझे हुए राष्ट्रपति के बाद नए अमरिकी राष्ट्रपति का रूसी नेता के साथ आचरण किस तरह से दुनिया के सामने आता  है. अभी पिछले हफ्ते संयुक्त राष्ट्र के नए महासचिव अंतोनियो गुतरेस ने अमरीकी प्रशासन के नेताओं को चेतावनी दे दी थी कि अगर अमरीका अंतर्राष्ट्रीय बिरादरी की समस्याओं में उपयुक्त रूचि नहीं दिखाता तो इस बात की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता कि वह विश्व के नेता के रूप  अपना मुकाम गंवा देगा . कूटनीतिक   हलकों में माना जा रहा है कि इस सम्मलेन के बाद एंजेला मर्केल का विश्व नेता के रूप में क़द बढ़ने वाला है क्योंकि शिखर सम्मलेन के  कुछ दिन पहले ही वे दो उभरती हुयी मज़बूत ताक़तों के नेताओं ,  भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और चीन के प्रधानमंत्री ली केकियांग से वे जर्मनी में मिल चुकी हैं और जी ७ के वक़्त अमरीकी राष्ट्रपति ने भारत और चीन का नाम लेकर इन देशों को  जो तकलीफ दी थी उसपर मरहम लगाने  की अपनी मंशा का इज़हार भी कर दिया है . हालांकि यह सच है कि कार्बन के उत्सर्जन के मामले में चीन का नंबर एक है और भारत भी तीसरे नंबर पर  है लेकिन इनमे से किसी को भी डोनाल्ड ट्रंप हडका कर लाइन पर लाने की हैसियत नहीं रखते . ऐसी हालत में ट्रंप की अलोकप्रियता के मद्दे नज़र एंजेला मर्केल की पोजीशन बहुत ही मज़बूत है और पेरिस समझौते के  हैम्बर्ग में स्थाई भाव बन जाने से अमरीकी नेतृत्व शुरू से ही  रक्षात्मक खेल खेलने के लिए अभिशप्त है .

ऐसा लगता है कि ट्रंप के राष्ट्रपति काल के दौरान अमरीका लिबरल स्पेस को रोज़ ही गँवा रहा है और यूरोप के नेता यूरोपीय गौरव को स्थापित करने के लिए तैयार लग रहे हैं . पेरिस समझौते से अमरीका के अलग होने  की जी ७  शिखर बैठक में उठाई गई बात को यूरोप में बहुत ही नाराजगी से लिया गया है .  आज के माहौल में यूरोप में लिबरल स्पेस में एंजेला मेकेल सबसे बड़ी  नेता हैं . जी २० के इस शिखर सम्मेलन में जर्मनी का उद्देश्य   है  कि वैश्वीकरण की अर्थव्यवस्था को सबके हित में इस्तेमाल किया जाय. इस सम्मलेन में विकास को प्रभावी और सम्भव बनाने के तरीकों पर  गंभीर चर्चा होगी. अफ्रीका की गरीबी को खत्म करने के लिए किये जाने वाले कार्यों से जो अवसर उपलब्ध  हैं,  उन  पर यूरोपीय देशों की नजर  है . महिलाओं के आर्थिक सशक्तीकरण और दुनिया भर में बढ़ रही बेकार नौजवानों की फौज के लिए रोज़गार के अवसर पैदा करना बड़ी प्राथमिकता है . बुनियादी ढाँचे के सुधार में पूंजी निवेश का बहुत ही संजीदगी से  यूरोप के देश उठा रहे हैं शिक्षा और कौशल विकास में बड़े लक्ष्य निर्धारित करना और उनको हासिल   करने की दिशा में  भी अहम चर्चा होगी .
हालांकि जर्मनी के नेता  इस बात से बार बार इनकार कर रहे हैं कि जर्मन नेता  अमरीकी  आधिपत्य  को चुनौती देना चाहती हैं लेकिन कूटनीति की दुनिया में इन बयानों का  शाब्दिक अर्थ न लेने की परम्परा है  और आने वाले समय में ही तय होगा कि ट्रंप के आने के बाद अमरीका की हैसियत में जो कमी आना शुरू हुयी थी वह और कहाँ तक गिरती है. जी२० का सम्मलेन अंतर्राष्ट्रीय संबंधों के गतिशास्त्र में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाने जा रहा है . हैम्बर्ग के लिए जिस  तरह का एजेंडा तय करने में जर्मनी ने सफलता पाई है वह उनको पूंजीवादी दुनिया का नेतृत्व   करने के बड़े अवसर दे रहा है . अगर अमरीका विश्व नेता के अपने मुकाम से खिसकता है तो निश्चित रूप से जर्मनी ही स्वाभाविक नेता बनेगा . यह संकेत साफ दिख रहा है .
जलवायु परिवर्तन के अलावा मुक्त व्यापार भी इस सम्मेलन का बड़ा मुद्दा है .एंजेला मर्केल ने दावा किया है कि हैम्बर्ग में कोशिश की जायेगी कि मुक्त व्यापार के क्षेत्र में विस्तार से चर्चा हो और अधिकतम देशों के अधिकतम  हित में कोई फैसला लिया जाए. उन्होंने साफ़ कहा कि नए अमरीकी प्रसाशन के रवैय्ये के चलते यह बहुत कठिन काम होगा लेकिन जर्मनी  की तरफ से कोशिश पूरी की जाएगी .
 ऐसा लगता है कि अमरीका से रिश्तों  के बारे में पूंजीवादी देशों में बड़े पैमाने पर विचार विमर्श चल रहा है . पिछले अस्सी वर्षों से अमरीका और पूंजीवादी यूरोप के हित आपस में जुड़े हुए थे लेकिन अब उनकी फिर से व्याख्या की जा रही है . यूरोप के बाहर भी अमरीकी राष्ट्रपति की क्षणे रुष्टा, क्षणे तुष्टा की प्रवृत्ति अमरीका को  अलग थलग करने में भूमिका अदा कर रही  है . अमरीका का हर दृष्टि से सबसे करीबी देश  कनाडा भी अब नए अमरीकी नेतृत्व से खिंचता दिख रहा है . अभी पिछले हफ्ते वहां की संसद में विदेशमंत्री  क्रिस्टिया फ्रीलैंड ने बयान दिया कि अमरीका जिस तरह से खुद ही अपने विश्व नेता के कद को कम करने पर आमादा  है उस से तो साफ़ लगता है कि हमको ( कनाडा ) भी अपना स्पष्ट और संप्रभुता का रास्ता खुद ही तय करना होगा
. भारत का जी२० देशों में  बहुत महत्व  है . इसकी विकासमान अर्थव्यवस्था को दुनिया विकसित देशों की राजधानियों में पूंजीनिवेश के अच्छे मुकाम के रूप में देखा जाता है .पिछले साल सितम्बर  के शिखर सम्मलेन में भारत ने चीन को लगभग हर मुद्दे पर  समर्थन दिया था और यह उम्मीद  जताई थी कि चीन  भी उसी तरह से भारत को महत्व देगा लेकिन पिछले दस महीने की घटनाओं को देखा जाए तो  स्पष्ट हो जाएगा कि भारत ने भविष्य का जो  भी आकलन किया  था , वह  गड़बड़ा गया है . चीन का रुख भारत के प्रति दोस्ताना नहीं है. जबकि भारत के प्रधानमंत्री ने पूरी कोशिश की . चीन के सबसे बड़े नेता को भारत बुलाया, बहुत ही गर्मजोशी से उनका अतिथि सत्कार किया , हर तरह के व्यापारिक संबंधों को विकसित करने की कोशिश की लेकिन चीन की तरफ से वह गर्मजोशी देखने को नहीं मिली . बल्कि उलटा ही काम हो रहा है . पाकिस्तान स्थित आतंकवादी मसूद अजहर को जब संयुक्त राष्ट्र में अंतर राष्ट्रीय आतंकी घोषित करने का अवसर आया तो चीन ने वीटो कर दिया . भारत के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण कैलाश मानसरोवर यात्रा को बहुत ही असभ्य तरीके  से बंद करवाया, सिक्किम और भूटान के मुद्दों को लगभग रोज़ ही उठा रहा है. हिन्द महासागर में अपने विमान वाहक जहाज़ों को स्थापित करके  चीन ने स्पष्ट कर दिया है कि भारत चाहे जितना अपनापन दिखाए उसकी  कूटनीति उसके राष्ट्रीय हितों को ध्यान में रख कर ही  की जायेगी ,उसमें  व्यक्तिगत संबंधों की कोई भूमिका नहीं होती . इस हालत में भारत को हैम्बर्ग में अपने एजेंडे को नए   सिरे से तैयार करना पड़ा है ..जी २० के इस सम्मलेन में भारत की नई प्राथमिकता बिल्कुल स्पष्ट है . भारत चाहता है कि  बुनियादी ढांचे में बड़े पैमाने पर पूंजी निवेश हो , सबके विकास के अवसर उपलब्ध कराये जाएँ, ऊर्जा कके विकास में बड़ा कार्यक्रम चले , आतंकवाद और काले धन पर लगाम लगाई जा सके. भारतीय टैक्स व्यवस्था में भारी सुधार की घोषणा करने के बाद भारत में विदेशी  निवेश के अवसर बढे हैं. उद्योग लगाने में अब यहाँ ज्यादा सहूलियत रहेगी , ऐसा भारत का दावा है लेकिन देश में जिस तरह से कानून को बार बार हाथ में  लेने और राज्य सरकारों की अपराधियों को न पकड़ पाने की घटनाएं दुनिया भर में चर्चा का विषय बन गयीं हैं  , वह  चिंता का विषय है . गौरक्षा के नाम पर देश में फ़ैल रहे आतंक से  बाकी दुनिया में देश की छवि कोई बहुत  अच्छी नहीं बन रही  है . ज़ाहिर है  प्रधानमंत्री सारी दिक्क़तों को दरकिनार कर देश की एक बेहतरीन छवि पेश करने की कोशिश  करेंगें 

Thursday, July 6, 2017

मेरी पहली मुहब्बत : मेरी नीम का पेड़



शेष नारायण सिंह

नीम की चर्चा होते ही पता नहीं क्या होता  है कि  मैं अपने  गांव पंहुंच जाता हूँ.  बचपन  की पहली यादें ही नीम से जुडी हुयी हैं . मेरे  गाँव में नीम  एक देवी  के रूप में स्थापित हैंगाँव के पूरब में अमिलिया तर वाले बाबू साहेब की ज़मीन में जो नीम  का पेड़ है ,वही काली माई का स्थान है . गाँव के बाकी नीम के पेड़ बस पेड़ हैं .   लेकिन उन पेड़ों में भी मेरे बचपन की बहुत सारी मीठी यादें हैं . मेरे दरवाज़े पर जो नीम का  पेड़ था वह गाँव  की बहुत सारी गतिविधियों का केंद्र था . सन २००० के सावन में जब  बहुत तेज़ बारिश हो रही थीतो चिर्री पड़ी ,  लोग बताते हैं कि पूरे गाँव में अजोर हो गया था  , बहुत तेज़ आवाज़ आई थी और सुबह  जब लोगों ने देखा तो मेरे दरवाज़े की नीम का एक  ठासा टूट कर नीचे गिर गया था. मेरे बाबू वहीं पास में बने मड़हे में रात में सो  रहे थे. उस आवाज़ को सबसे क़रीब से  उन्होंने ही सुना था. कान फाड़ देने वाली आवाज़ थी वह . चिर्री वाले हादसे के बाद नीम का  पेड़ सूखने लगा था. अजीब इत्तिफाक है कि उसके बाद ही मेरे बाबू  की जिजीविषा  भी कम होने लगी थी. फरवरी आते आते नीम के पेड सूख  गया . और उसी  २००१ की फरवरी में बाबू भी चले गए थे . जहां वह नीम का पेड़ था , उसी जगह के आस पास मेरे भाई ने नीम के तीन पेड़ लगा दिए है , यह नीम भी तेज़ी से बड़े हो  रहे हैं .
 इस नीम के पेड़ की मेरे गाँव के सामाजिक जीवन में बहुत महत्व है .इसी पेड़ के नीचे मैंने और मेरे अज़ीज़ दोस्त बाबू बद्दू सिंह ने शरारतें  सीखीं और उनका अभ्यास भी किया . जाड़ों में धूप सबसे पहले इसी पेड़ के नीचे बैठ कर सेंकी जाती थी. पड़ोस के कई बुज़ुर्ग वहां मिल जाते थे . टिबिल साहेब और पौदरिहा बाबा तो  धूप निकलते  ही आ जाते थे. बाकी लोग भी आते जाते रहते थे. मेरे बाबू के काका थे यह दोनों लोग . बहुत आदरणीय इंसान थे. हुक्का भर भर के नीम के पेड़ के नीचे पंहुचाया जाता रहता था. घर के तपता में आग जलती रहती थी.    इन दोनों ही बुजुर्गों का असली नाम कुछ और था लेकिन  सभी इनको इसी नाम से जानते थे. टिबिल साहेब कभी उत्तर प्रदेश पुलिस में कांस्टेबिल रहे थे १९४४ में रिटायर हो गए थे और मेरे पहले की पीढी भी उनको इसी नाम से जानती थी.  पौदरिहा का नाम इस लिए पड़ा था कि वे  गाँव से किसी की बरात में गए थे तो इनारे की पौदर के पास ही खटिया  डाल कर वहीं सो गए थे . किसी घराती ने उनको पौदरिहा कह दिया और जब बरात लौटी तो भाइयों ने उनका यही नाम कर दिया . इन्हीं  मानिंद  बुजुर्गों की छाया में हमने शिष्टाचार  की बुनियादी  बातें सीखीं थीं.
मेरी नीम की मज़बूत डाल पर ही सावन में झूला पड़ता था. रात में गाँव की लडकियां और बहुएं उस  पर झूलती थीं और कजरी गाती थीं.  मानसून के  समय चारों तरफ झींगुर की आवाज़ के बीच में ऊपर नीचे जाते झूले पर बैठी  हुयी कजरी गाती मेरे गाँव की लडकियां  हम लोगों को किसी भी महान संगीतकार से कम नहीं लगती थीं.  जब १९६२ में मेरे गाँव  में स्कूल खुला तो सरकारी बिल्डिंग बनने के पहले इसी नीम के पेड़ के नीचे ही  शुरुआती कक्षाएं चली थीं.   धोपाप जाने वाले नहवनिया लोग जेठ की दशमी को थक कर इसी नीम  के नीचे आराम करते  थे. उन दिनों सड़क कच्ची थी और ज़्यादातर लोग धोपाप पैदल ही जाते थे .

 मेरे गाँव में सबके घर के आस पास नीम के पेड़ हैं और किसी भी बीमारी में उसकी  पत्तियां , बीज, तेल , खली आदि का इस्तेमाल बड़े पैमाने पर  होता था लेकिन आब नहीं होता. निमकौड़ी बीनने और बटोर कर रखने का रिवाज ही खत्म हो गया है . लेकिन नीम के पेड़ के प्रति श्रद्धा कम नहीं  हो रही है .
 एक दिलचस्प वाकया है  . मेरे बचपन में   मुझसे छः साल बड़ी मेरी   बहिन  ने घर के ठीक  सामने  नीम का एक पौधा  लगा दिया   था. उसका विचार था कि जब भाइयों की दुलहिन आयेगी  तब तक नीम  का पौधा पेड़ बन जाएगा  और उसी  पर उसकी  भौजाइयां झूला डालकर झूलेंगी.  अब वह पेड़ बड़ा हो गया  है , बहुत ही घना और शानदार .  बहिन के भाइयों की दुलहिनें  जब आई थीं तो पेड़ बहुत छोटा था . झूला नहीं पड़ सका . अब उनकी भौजाइयों के  बेटों की दुलहिनें आ गयी हैं लेकिन अब गाँव  में लड़कियों का झूला झूलने की परम्परा  ही ख़त्म हो गयी है .इस साल  मेरे छोटे भाई ने ऐलान कर दिया कि बहिन   वाले  नीम के पेड़ से घर को ख़तरा है ,लिहाज़ा उसको कटवा दिया जाएगा . हम लोगों ने कुछ बताया  नहीं लेकिन बहुत तकलीफ हुयी  . हम  चार भाई  बहनों के   बच्चों को हमारी तकलीफ  का अंदाज़ लग गया और उन लोगों ने ऐसी  रणनीति बनाई   कि नीम का  पेड़ बच गया .जब नीम के उस पेड़ पर हमले का खतरा मंडरा रहा   था तब मुझे अंदाज़ लगा कि मैं नीम से कितना मुहब्बत करता हूँ . 

Wednesday, July 5, 2017

दास्तान-ए-पाकिस्तान : अमरीका से गिरा ,चीन पर अंटका



शेष नारायण सिंह  
प्रधानमंत्री नरेंद्र  मोदी की ताज़ा अमरीका यात्रा को भारत में आम तौर पर एक ऐसी यात्रा के रूप में देखा जा रहा है  जिसके बाद अमरीकी अर्थव्यवस्था को तो तो फायदा हुआ  है लेकिन भारत को उम्मीद से बहुत कम मिला है .  लेकिन सरहद के पर पाकिस्तान में उनकी यात्रा से पाकिस्तानी नीति निर्धारकों में घबडाहट है .व्हाइट हाउस में मोदी-ट्रंप मुलाक़ात के दौरान जिस तरह से  प्रधानमंत्री ने अमरीकी राष्ट्रपति को गले लगाया उसके बाद पाकिस्तानी विदेश नीति के हलकों में खासी चिंता देखी जा रही है . हिजबुल मुजाहिदीन के मुखिया सैयद सलाहुद्दीन को  अंतर राष्ट्रीय आतंकी घोषित किये जाने से भी पाकिस्तान को परेशानी हो रही है क्योंकि वहां सलाहुद्दीन को सरकारी तबकों में इज्ज़त की निगाह से देखा जाता है . पूर्व राष्ट्रपति परवेज़ मुशर्रफ तो उसको पीर साहेब कहते थे .भारत और अमरीका की बढ़ती दोस्ती का एक नतीजा यह भी है कि अब  पाकिस्तान लगभग पूरी तरह से चीन की  भारत नीति का एक पुर्जा होता जा रहा है . जिस तरह से  पहले ज़माने में वह दक्षिण एशिया में अमरीकी  विदेश नीति के लक्ष्यों को पूरा करने  का मुख्य एजेंट हुआ करता था  ,उतनी ही वफादारी से अब पाकिस्तान चीन की हित साधना का यंत्र बन गया है . साथ ही  पाकिस्तान में इस बात पर भी चिंता जताई जा रही है कि अमरीका अब भारत की तरफ  ज़्यादा खिंच रहा है . जिसका भावार्थ यह  है कि अब वह पाकिस्तान  से पहले से अधिक दूरी बना लेगा. जो पाकिस्तान अपने अस्तित्व में आने के साथ से ही  अमरीका का बहुत ही प्रिय देश रहा हो और  भारत  के खिलाफ अमरीका से  मदद भी लेता रहा हो उसको भारत का दोस्त बनते देख पाकिस्तान सरकार में चिंता बढ़ रही है  और वह मीडिया के ज़रिये साफ़ नज़र आ  रही है और पाकिस्तान की राजनीति पैर नज़र रखने वाले किसी भी व्यक्ति को बिलकुल साफ़ तौर पर दिख रही  है ..
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अमरीका यात्रा और उसके बाद जारी हुए संयुक्त बयान के बाद स्पष्ट हो गया है कि   राष्ट्रपति ट्रंप भारत-पाक संबंधों के मामले में भारतीय  पक्ष को महत्व दे रहे हैं . पिछले सत्तर वर्षों में पाकिस्तानी हुक्मरान ने ऐसा माहौल बना रखा है कि जैसे कश्मीर पर पाकिस्तान का अधिकार स्थापित करना ही पाकिस्तानी राजनीति का प्रमुख आधार हो . उनके इस अभियान में अमरीका की  मदद भी मिलती रही है . लेकिन पिछले कुछ वर्षों से अमरीका की भारत से  दोस्ती बढना शुरू हो गयी है  और जब  मोदी-ट्रंप बातचीत के बाद तस्वीर  सामने आयी तो ऐसा लगने लगा कि अब अमरीका   क्षेत्रीय आतंकवाद के मुद्दे पर भारत की बात को ज़्यादा सही मान रहा है .
पाकिस्तान की सरकार की वह उम्मीद भी अब ख़त्म हो गयी है जिसके तहत वह अपने लोगों को यह बताता रहता था  कि कश्मीर के मामले में  अमरीका बिचौलिए की भूमिका निभाएगा . यहाँ  तक कि जब अमरीका ने पाकिस्तानी  कश्मीर नीति के ख़ास हिस्सा बन चुके ,सैयद सलाहुद्दीन को अंतर राष्ट्रीय आतंकी घोषित किया तो कुछ पाकिस्तानी पत्रकारों ने कहना शुरू कर दिया कि इसी बहाने अमरीका  भारत और कश्मीर के बीच सुलह कराने के लिए बिचौलिया बनना चाहता है. लेकिन  वक़्त बीत रहा है और  तस्वीर और ज्यादा साफ़ होती जा रही  है . पाकिस्तानी अखबारों में अब अमरीका की बात बहुत ही साफ़ शब्दों  में छपने लगी है . अमरीकी विदेश विभाग के प्रवक्ता  का वह बयान भी प्रमुखता से छपा है जिसमें कहा गया  है कि  "  कश्मीर पर किसी भी बातचीत की रफ़्तार स्कोप और उसका चरित्र दोनों  ही पक्षों को तय करना है लेकिन हम ( अमरीका ) हर उस सकारात्मक क़दम का समर्थन करते हैं जो दोनों पक्ष अच्छे रिश्ते बनाने की दिशा में बढाते हैं " . यह बयान पाकिस्तानी पत्रकारों के सवाल के उस सवाल के जवाब में मिला है जो उन्होंने अमरीकी प्रवक्ता से पूछा था . ज़ाहिर है कि अमरीका या  किसी भी देश  को कश्मीर मामले में दखल देने  के लिए तैयार करने की पाकिस्तानी कोशिश को ज़बरदस्त झटका  एक बार फिर लग गया   है और दुनिया भर में भारत  के  दृष्टिकोण को ही मान्यता मिल रही है क्योंकि भारत मानता  है कि कश्मीर समस्या  के हल के लिए किसी की भी मध्यस्थता को स्वीकार नहीं किया जा सकता है . हालांकि शिमला समझौते में पाकिस्तान ने भी माना था कि आपसी बातचीत से ही द्विपक्षीय  समस्याओं का हल निकला जाएगा लेकिन उसके बाद से उसकी सभी   सरकारों ने शिमला समझौते का उल्लंघन किया  है .
अमरीका के भारत की तरफ झुक जाने का नतीजा  है कि पाकिस्तानी सरकार अब चीन पर पूरी तरह से निर्भर होती जा रही है . विदेश नीति का  बहुत पुराना मंडल सिद्धांत है  कि दुश्मन का दुश्मन दोस्त होता है.  पाकिस्तान की मौजूदा विदेश नीति भारत और चीन के बीच कथित दुश्मनी की बुनियाद पर ही टिकी है . शायद इसीलिये चीन के विदेश मंत्री के स्वागत के मौके पर पाकिस्तान के विदेशी मामलों के मुख्य सलाहकार सरताज अज़ीज़ ने कहा कि " पाकिस्तान का चीन  से जो सम्बन्ध  है वह हमारी विदेशनीति का मुख्य स्तम्भ है ." उनके इस बयान के बाद अमरीकी मीडिया ने इस बात को मुकम्मल तरीके से घोषित कर दिया है  कि एशिया में पाकिस्तान की नीतियों में बहुत बड़ा बदलाव  आ चुका है .
अब पाकिस्तान के नेता  चीन की हर बात मानने के लिए अभिशप्त नज़र आते हैं लेकिन उनको  भारत के खिलाफ अपने अभियान में चीन से बहुत उम्मीद नहीं करना चाहिए .इसलिए पाकिस्तानी हुक्मरान ,खासकर फौज को वह बेवकूफी नहीं करनी चाहिए जो१९६५ में जनरल अयूब ने की थी . १९६५ के भारत-पाकिस्तान युद्ध के पहले उनको लगता था कि जब वे भारत पर हमला कर देगें तो चीन भी भारत पर हमला कर देगा क्योंकि तीन साल पहले ही भारत और चीन केबीच सीमा पर संघर्ष हो चुका था. जनरल को उम्मीद थी कि उसके बाद  भारत कश्मीर उन्हें दे देगा. ऐसा कुछ भी नहीं हुआ और पाकिस्तानी फौज़ लगभग तबाह हो गयी. भारत के खिलाफ किसी भी देश से मदद मिलने की उम्मीद करना पाकिस्तानी फौज की बहुत बड़ी भूल होगी. लेकिन सच्चाई यह है कि पाकिस्तानी फौज़ के सन इकहत्तर की लड़ाई के हारे हुए अफसर बदले की आग में जल रहे हैं वहां की तथाकथित सिविलियन सरकार पूरी तरह से फौज के सामने नतमस्तक है . कश्मीर में आई एस आई ने हालात को बहुत खराब कर दिया है .  हालांकि यह भी सच है कि चीन अपने व्यापारिक हितों के लिए  पाकिस्तान का इस्स्तेमाल कर रहा  है . हिन्द महासागर में अपनी सीधी पंहुंच बनाना चीन का  हमेशा से सपना रहा है और अब पाकिस्तान ने  पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर के रास्ते ,अपने कब्जे वाले बलोचिस्तान तक सड़क बनाने और समुद्र पर बंदरगाह बनाने की अनुमति दे कर उसका वह सपना पूरा कर   दिया  है . जानकार बताते हैं कि अब पाकिस्तान के लिए चीन से पिंड छुड़ाना बहुत मुश्किल होगा क्योंकि पश्चिम एशिया और हिन्द महासागर क्षेत्र में में चीनी मंसूबों को पूरा करने के लिए इस बंदरगाह का बहुत ही अधिक महत्व है .
चीन की तरफ इस्लामाबाद की बढ़ती मुहब्बत से किसी को कोई ताज्जुब नहीं हो रहा  है. पाकिस्तान सरकार में कई महीनों से इस बात की चिंता बढ़ रही थी कि अमरीका कहीं उसको आतंक का प्रायोजक देश न घोषित कर दे क्योंकि अफगानिस्तान  की तरफ से इस तरह की मांग लगातार उठ रही है . इस डर का कारण यह है कि अफगानिस्तान में मौजूद अमरीकी सेना के बड़े अफसर ,  पाकिस्तान में रूचि लेने वाले अमरीकी नेता और अफगान सरकार इस बात को जोर देकर कहते रहे हैं कि पाकिस्तान सरकार की  ओर से  अफगानिस्तान विरोधी आतंकवादियों को बढ़ावा दिया जा रहा  है  और उनको पाकिस्तान के अन्दर मौजूद आतंकी कैम्पों में ट्रेनिंग भी दी जा रही है.
इस बात में दो राय नहीं है कि पाकिस्तान  सरकार  अब चीन की विदेश नीति  में एक महत्वपूर्ण भूमिका रखती है . प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और राष्ट्रपति ट्रंप की मुलाक़ात से जो दोस्ती के संकेत निकल रहे थे उससे  पाकिस्तानी   हुकूमत में  जो  चिंता थी उसको कम करके पेश करने की लगातार कोशिश चल रही  है . चीन के विदेशमंत्री की  पाकिस्तान यात्रा और उनकी सेवा में पूरी सरकार का लग जाना  भारत-अमरीका  दोस्ती  के असर से मुक्त होने की कोशिश भी है .  पाकिस्तानी विदेश विभाग ने साफ़ कहा है कि अगर अमरीका भारत से दोस्ती बढाता  है तो दक्षिण एशिया में शान्ति की कोशिशों को नुक्सान होगा .. पाकिस्तान इस बात से बहुत  नाराज़  है कि नरेंद्र मोदी और दोंल्ड ट्रंप ने  क्षेत्रीय आतंकवाद पर काबू करने की बात पर जोर दिया . दक्षिण एशिया में  क्षेत्रीय आतंकवाद को पाकिस्तानी  संरक्षण में  पल रहे आतंकवाद को ही कहा जाता है . पाकिस्तान में यह भी माना जा रहा है कि सलाहुद्दीन को आतंकी घोषित करना  भी भारत को खुश करने के लिए किया जा रहा है . पाकिस्तान के आतंरिक   मालों के मंत्री  चौधरी निसार अली खान ने कहा है कि संयुक्त राज्य ने " भारत की ज़बान बोलना शुरू कर दिया है ." पाकिस्तान ने अपनी नाराजगी को अमरीकी अधिकारियों के सामने जता भी दिया है . उसको शिकायत है कि १९६० से अब तक अमरीका ने भारत पर हुए हर आक्रमण में पाकिस्तानी सेना की मदद की है लेकिन इस  बार उसने भारत को ड्रोन और अन्य हाथियार दे दिया है जो हर हाल में पाकिस्तान के  खिलाफ ही इस्तेमाल होगा.
पाकिस्तानी अखबारों में इस बात पर भी चिंता  जताई जा रही है कि पाकिस्तान आर्थिक  मामलों में चीन पर बहुत ही अधिक निर्भर होता जा रहा है और उससे बहुत जयादा उम्मीदें पाल रखी  हैं . जबकि चीन पाकिस्तान में केवल लाभकारी  पूंजी निवेश कर रहा है और विश्व में अपने को ताक़तवर दिखाने के लिए पाकिस्तान की भौगोलिक स्थिति   का फायदा ले रहा है . अफगानिस्तान में पाकिस्तान की हनक को  बढ़ाने की पाकिस्तानी फौज की कोशिश को चीन कोई तवज्जो नहीं दे रहा है  . कुल मिलाकर  कभी अमरीका का कारिन्दा रहा पाकिस्तान अब चीन की तरफ बहुत तेज़ी से बढ़ रहा है लेकिन उसको वहां भी कोई महत्व नहीं  मिल रहा है जबकि  अमरीका अब भारत का करीबी होता जा रहा है .

Sunday, July 2, 2017

सलाहुद्दीन के बहाने अमरीका कश्मीर में बिचौलिया बनने की फ़िराक में तो नहीं है .



शेष नारायण सिंह


पाकिस्तान में आतंकवाद  पूरी दुनिया में चर्चा का विषय बना हुआ   है . यूरोप में   हुए आतंकी हमलों में ज्यादातर के सूत्र पाकिस्तान से जुड़े हुए होते हैं . इस  हफ्ते पाकिस्तान और आतंक के हवाले से दो बड़ी घटनाएं हुईं . एक  तो अमरीका ने पाकिस्तान से चलने वाले आतंकवादी संगठन , हिजबुल मुजाहिदीन के मुखिया सैयद  सलाहुद्दीन को अंतरराष्ट्रीय आतंकी घोषित कर दिया.  अपने मुल्क में इसके बाद बड़ी खुशियाँ मनाई जा रही हैं . लेकिन इसमें बहुत खुश होने की बात नहीं है क्योंकि यह भी संभव है कि अमरीका इसी बहाने कश्मीर के मामले में बिचौलिया बनने के अपने सपने को  साकार करने की कोशिश करना चाह  रहा हो . इस अनुमान का आधार यह है कि सैयद सलाहुद्दीन पाकिस्तान में अमरीकी प्रशासन का बहुत ही लाड़ला रह  चुका है .  अमरीकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन के दबाव में तत्कालीन पाकिस्तानी राष्ट्रपति जनरल परवेज़ मुशर्रफ ने एक बार सलाहुद्दीन को भारत  के खिलाफ आतंकी  हमले बंद करने के लिए तैयार भी कर लिया था . वैसे भी  सलाहुद्दीन को अंतरराष्ट्रीय आतंकी घोषित करके अमरीका ने केवल भारत को लालीपाप ही थमाया है . इस  घोषणा का मतलब यह है कि अब सलाहुद्दीन अमरीका की यात्रा नहीं कर सकता और अमरीका में कोई बैंक अकाउंट या कोई अन्य संपत्ति नहीं रख सकता . अगर ऐसी कोई संपत्ति वहां होगी तो वह ज़ब्त कर ली जायेगी  .  पाकिस्तान और कश्मीर में रूचि रकने वाले सभी लोगों  को मालूम है कि सलाहुद्दीन का आतंक का धंधा अमरीकी की मदद के बिना भी चलता रहेगा .   

दूसरी घटना यह है कि चीन पाकिस्तान के साथ एक बार फिर खड़ा हो  गया है .. एक सरकारी बयान में चीन की तरफ से कहा गया है कि ' चीन का विचार है कि आतंकवाद  के  खिलाफ सहयोग को बढाया जाना चाहिए . अंतरराष्ट्रीय बिरादरी को इस  सम्बन्ध में पाकिस्तान की कोशिशों को मान्यता देना चाहिए और उसको समर्थन करना चाहिए. चीन मानता है कि अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद के खिलाफ चल रहे युद्ध में पकिस्तान अगले दस्ते में खडा है और इस दिशा में प्रयास कर रहा है '. चीन के बयान का लुब्बो लुबाब यह है कि पाकिस्तान आतंकवाद का समर्थक नहीं बल्कि वह आतंकवाद से पीड़ित है.

 चीन का यह बयान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमरीकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के साझा बयान के बाद या यों कहें कि उसको बेअसर करने के लिए आया है . साझा बयान में कहा गया था कि ' आतंकवाद को ख़त्म करना हमारी ( भारत और अमरीका की  ) सबसे  बड़ी प्राथमिकता है . हमने आतंकवाद , अतिवाद और बुनियादी धार्मिक  ध्रुवीकरण के बारे में बात की . हमारे सहयोग का  प्रमुख उद्देश्य आतंकवाद से युद्ध ,  आतंकियों के सुरक्षित ठिकानों  और आतंकी अभयारण्यों को ख़त्म करना  भी है .' यह  संयुक्त बयान आतंकवाद और पाकिस्तान को जोड़ता हुआ दिखता है . ज़ाहिर है अब अमरीका भी  पाकिस्तान में पल रहे आतंकवाद का शिकार है , वरना एक दौर वह भी था जब पाकिस्तान में आतंकवाद  को पालना अमरीकी विदेश नीति का हिस्सा हुआ  करता था और पाकिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति  जिया उल हक १९८० के दशक में आतंकवाद को हवा देने के अमरीकी प्रोजक्ट के  मुख्य एजेंट हुआ करते थे .
 आतंकवाद को पाकिस्तान में सरकारी नीति के रूप में इस्तेमाल करने के सिलसिला १९८० के दशक में फौजी तानाशाह और चीफ  मार्शल लॉ प्रशासक ज़नरल जिया उल हक ने शुरू  किया था. उसने आतंकियों की एक बड़ी फौज बनाई थी जो अमरीकी  पैसे से तैयार की गयी थी .  अमरीका को अफगानिस्तान में मौजूद रूसी सैनकों  से लड़ाई के लिए बन्दे चाहिए थे . पाकिस्तान  ने अपनी सेना की शाखा आई  एस आई के ज़रिये बड़ी संख्या में पाकिस्तानी बेरोजगार नौजवानों को  ट्रेनिंग दे कर अफगानिस्तान में  भेज दिया था . जब अफगानिस्तान में  अमरीका की रूचि नहीं रही तो  पाकिस्तान  की आई एस आई ने इनको ही भारत  में आतंक फैलाने के लिए लगा दिया .  सोवियत रूस के विघटन के बाद आतंकवादियों की यह फौज कश्मीर में लग गयी . सलाहुद्दीन उसी दौर की पैदाइश  है .कश्मीर में युसूफ शाह नाम से  चुनाव लड़कर हारने के  बाद वह पाकिस्तान चला गया था और वहां उसको अफगान आतंकी गुलबुद्दीन हिकमतयार ने ट्रेनिंग दी थी. हिकमतयार अल  कायदा वाले ओसामा बिन लादेन का ख़ास आदमी हुआ करता था. शुरू में इसका संगठन जमाते इस्लामी का सहयोगी हुआ करता था लेकिन बाद में सलाहुद्दीन ने अपना  स्वतंत्र संगठन बना लिया.  

 चीन के  ताज़ा बयान को अगर इस पृष्ठभूमि में देखा जाए तो बात समझ में आती है क्योंकि आज पाकिस्तान  में भी खूब आतंकी हमले  हो  रहे हैं . लेकिन यह भी सच है  कि जब अमरीका की मदद से पाकिस्तानी तानाशाहजिया उल हक आतंकवाद को अपनी सरकार की नीति के रूप में विकसित कर रहे थे तभी दुनिया भर के समझदार लोगों ने उन्हें चेतावनी दी थी. लेकिन उन्होंने किसी की नहीं सुनी . जनरल जिया ने धार्मिक उन्मादियों और फौज के जिद्दी जनरलों की सलाह से देश के बेकार फिर रहे नौजवानों की एक जमात बनायी थी जिसकी मदद से उन्होंने अफगानिस्तान और भारत में आतंकवाद की खेती की थी .उसी खेती का ज़हर आज पाकिस्तान के अस्तित्व पर सवालिया निशान बन कर खडा हो गया है.. अमरीका की सुरक्षा पर भी उसी आतंकवाद का साया मंडरा रहा है जिसके तामझाम को अमरीका ने ही पाकिस्तानी हुक्मरानों की मदद से स्थापित किया गया था . दुनिया जानती है कि अमरीका का सबसे बड़ा दुश्मनअल कायदा अमरीकी पैसे से ही बनाया गया था और उसके संस्थापक ओसामा बिन लादेन अमरीका के ख़ास चेला हुआ करते थे .आज बात बदल गयी है . आज अमरीका में पाकिस्तान को आतंक के मुख्य क्षेत्र के रूप में पहचाना जाता है . जो अमरीका कभी  पाकिस्तानी आतंकवाद का फाइनेंसर हुआ करता था  वही आज उसके एक सरगना को अंतरराष्ट्रीय आतंकवादी घोषित कर चुका है .और भारत सरकार के प्रधानमंत्री को यह बताने की  कोशिश कर रहा है कि वह कश्मीर के मामले में भारत का सहयोगी बनने को तैयार है .

अब कश्मीर का मसला बहुत जटिल हो गया  है . पाकिस्तान कभी नहीं चाहेगा  कि वहां की समस्या हल हो.  कश्मीर के मसले को जिंदा रखना पाकिस्तानी शासकों की मजबूरी है क्योंकि १९४८ में जब जिनाह की सरपरस्ती में कश्मीर पर कबायली हमला हुआ था उसके बाद से ही भारत के प्रति नफरत के पाकिस्तानी अभियान में कश्मीर विवाद का  भारी योगदान रहा है अगर पाकिस्तान के हुक्मरान उसको ही ख़त्म कर देंगें तो उनके लिए बहुत मुश्किल हो जायेगी.

पाकिस्तान की एक देश में स्थापना ही एक तिकड़म का परिणाम है. वहां की एक बड़ी आबादी के रिश्तेदार और आधा परिवार भारत में है .उनकी सांस्कृतिक जड़ें भारत में हैं लेकिन धर्म  के आधार पर बने पाकिस्तान में रहने को अभिशप्त हैं .  शुरू से ही पाकिस्तानी शासकों ने धर्म के सहारे अवाम को इकठ्ठा रखने की कोशिश की . अब उनको पता चल गया है कि ऐसा सोचना उनकी बहुत बड़ी गलती थी. जब भी धर्म को राज काज में दखल देने की आज़ादी दी जायेगी राष्ट्र का वही हाल होगा जो आज पाकिस्तान का हो रहा है .इसलिए धर्म और गाय के नाम पर  चल रहे खूनी खेल की अनदेखी  करने वाले भारतीय नेताओं को  भी सावधान होने की ज़रूरत  है क्योंकि जब अर्धशिक्षित और लोकतंत्र से अनभिज्ञ धार्मिक नेता  राजसत्ता को अपने इशारे पर नचाने लगते हैं  तो वही होता है जो पाकिस्तान का हाल हो रहा है.   धर्म को राजकाज का मुख्य आधार बनाकर चलने वालों में १९८९ के बाद के इरान  को भी  देखा जा सकता है . ईरान जो कभी आधुनिकता की दौड़ में बहुत आगे हुआ करता था , धार्मिक कठमुल्लों की  ताक़त बढ़ने के बाद आज दुनिया में अलग थलग पड़ गया है .

 आजकल पाकिस्तान की  दोस्ती चीन से बहुत ज़्यादा है लेकिन अभी कुछ वर्ष पहले तक पाकिस्तान में रहने वाला आम आदमी अमरीकी और साउदी  अरब की  खैरात पर जिंदा था.  उन दिनों पाकिस्तान पर अमरीका की ख़ास मेहरबानी हुआ करती थी. आज अमरीकी दोस्ती का  हाथ भारत की तरफ बढ़ चुका है  और चीन के बढ़ते क़दम को रोकने के  लिए अमरीका भारत से अच्छे   सम्बन्ध बनाने की फ़िराक में है .आज पाकिस्तान पूरी तरह  से अस्थिरता के कगार पर खड़ा है . कभी भारत और  बाद  में अफगानिस्तान के खिलाफ आतंकवादियों की   जमातें तैयार करने वाला पाकिस्तान   आज अपनी एकता को बनाये रखने के लिए संघर्ष कर रहा है . अमरीका से दोस्ती और धार्मिक उन्माद को राजनीति की मुख्य धारा में लाकर पाकिस्तान का यह हाल हुआ है . भारत को भी  समकालीन इतिहास के इस पक्ष पर नज़र रखनी चाहिए कि कहीं अपने महान देश की हालत अपने शासकों की अदूरदर्शिता के कारण पाकिस्तान जैसी न  हो जाए. पाकिस्तान को अमरीका ने   इस इलाके में अपने प्रभाव को बनाए रखने के लिये इस्तेमाल किया  था , कहीं भारत उसी जाल में न फंस जाए. पाकिस्तान जिस तरह से अपने ही बनाए दलदल में फंस चुका है.और उस दलदल से निकलना पाकिस्तान के अब बहुत मुश्किल है .  उसकी मजबूरी का फायदा अब  चीन उठा रहा है . पाकिस्तान में चीन भारी विनिवेश कर रहा है . ज़ाहिर है वह पाकिस्तान को उसी तरह की कूटनीतिक मदद कर रहा  है जैसी कभी अमरीका किया करता था. १९७१ की बांग्लादेश  की लड़ाई  में पाकिस्तान ने भारत की सेना को धमकाने के लिए बंगाल की खाड़ी में अपने सातवें बेड़े  के युद्धक विमान वाहक जहाज़ ,इंटरप्राइज़ को भेज  दिया  था. भारत के इतिहास के सबसे मुश्किल दौर ,१९७१ में वह  पाकिस्तान को भारत के खिलाफ इस्तेमाल होने के  लिए हथियार दे रहा था . एक बड़ा सवाल है कि क्या भारत को अमरीका उसी तरह का सहायक बनना चाहिए जैसा कभी पाकिस्तान हुआ करता था. भारत के राजनयिकों को इस बात को गंभीरता से समझना पडेगा कि कहीं अमरीका  सलाहुद्दीन को   अंतर राष्ट्रीय आतंकी घोषित करके कश्मीर में हस्तक्षेप  करने की भूमिका तो नहीं बना रहा है . सलाहुद्दीन  के बहाने अमरीका कश्मीर में बिचौलिया बनने की फ़िराक में तो नहीं है .

शेष नारायण सिंह


पाकिस्तान में आतंकवाद  पूरी दुनिया में चर्चा का विषय बना हुआ   है . यूरोप में   हुए आतंकी हमलों में ज्यादातर के सूत्र पाकिस्तान से जुड़े हुए होते हैं . इस  हफ्ते पाकिस्तान और आतंक के हवाले से दो बड़ी घटनाएं हुईं . एक  तो अमरीका ने पाकिस्तान से चलने वाले आतंकवादी संगठन , हिजबुल मुजाहिदीन के मुखिया सैयद  सलाहुद्दीन को अंतरराष्ट्रीय आतंकी घोषित कर दिया.  अपने मुल्क में इसके बाद बड़ी खुशियाँ मनाई जा रही हैं . लेकिन इसमें बहुत खुश होने की बात नहीं है क्योंकि यह भी संभव है कि अमरीका इसी बहाने कश्मीर के मामले में बिचौलिया बनने के अपने सपने को  साकार करने की कोशिश करना चाह  रहा हो . इस अनुमान का आधार यह है कि सैयद सलाहुद्दीन पाकिस्तान में अमरीकी प्रशासन का बहुत ही लाड़ला रह  चुका है .  अमरीकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन के दबाव में तत्कालीन पाकिस्तानी राष्ट्रपति जनरल परवेज़ मुशर्रफ ने एक बार सलाहुद्दीन को भारत  के खिलाफ आतंकी  हमले बंद करने के लिए तैयार भी कर लिया था . वैसे भी  सलाहुद्दीन को अंतरराष्ट्रीय आतंकी घोषित करके अमरीका ने केवल भारत को लालीपाप ही थमाया है . इस  घोषणा का मतलब यह है कि अब सलाहुद्दीन अमरीका की यात्रा नहीं कर सकता और अमरीका में कोई बैंक अकाउंट या कोई अन्य संपत्ति नहीं रख सकता . अगर ऐसी कोई संपत्ति वहां होगी तो वह ज़ब्त कर ली जायेगी  .  पाकिस्तान और कश्मीर में रूचि रकने वाले सभी लोगों  को मालूम है कि सलाहुद्दीन का आतंक का धंधा अमरीकी की मदद के बिना भी चलता रहेगा .   

दूसरी घटना यह है कि चीन पाकिस्तान के साथ एक बार फिर खड़ा हो  गया है .. एक सरकारी बयान में चीन की तरफ से कहा गया है कि ' चीन का विचार है कि आतंकवाद  के  खिलाफ सहयोग को बढाया जाना चाहिए . अंतरराष्ट्रीय बिरादरी को इस  सम्बन्ध में पाकिस्तान की कोशिशों को मान्यता देना चाहिए और उसको समर्थन करना चाहिए. चीन मानता है कि अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद के खिलाफ चल रहे युद्ध में पकिस्तान अगले दस्ते में खडा है और इस दिशा में प्रयास कर रहा है '. चीन के बयान का लुब्बो लुबाब यह है कि पाकिस्तान आतंकवाद का समर्थक नहीं बल्कि वह आतंकवाद से पीड़ित है.

 चीन का यह बयान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमरीकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के साझा बयान के बाद या यों कहें कि उसको बेअसर करने के लिए आया है . साझा बयान में कहा गया था कि ' आतंकवाद को ख़त्म करना हमारी ( भारत और अमरीका की  ) सबसे  बड़ी प्राथमिकता है . हमने आतंकवाद , अतिवाद और बुनियादी धार्मिक  ध्रुवीकरण के बारे में बात की . हमारे सहयोग का  प्रमुख उद्देश्य आतंकवाद से युद्ध ,  आतंकियों के सुरक्षित ठिकानों  और आतंकी अभयारण्यों को ख़त्म करना  भी है .' यह  संयुक्त बयान आतंकवाद और पाकिस्तान को जोड़ता हुआ दिखता है . ज़ाहिर है अब अमरीका भी  पाकिस्तान में पल रहे आतंकवाद का शिकार है , वरना एक दौर वह भी था जब पाकिस्तान में आतंकवाद  को पालना अमरीकी विदेश नीति का हिस्सा हुआ  करता था और पाकिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति  जिया उल हक १९८० के दशक में आतंकवाद को हवा देने के अमरीकी प्रोजक्ट के  मुख्य एजेंट हुआ करते थे .
 आतंकवाद को पाकिस्तान में सरकारी नीति के रूप में इस्तेमाल करने के सिलसिला १९८० के दशक में फौजी तानाशाह और चीफ  मार्शल लॉ प्रशासक ज़नरल जिया उल हक ने शुरू  किया था. उसने आतंकियों की एक बड़ी फौज बनाई थी जो अमरीकी  पैसे से तैयार की गयी थी .  अमरीका को अफगानिस्तान में मौजूद रूसी सैनकों  से लड़ाई के लिए बन्दे चाहिए थे . पाकिस्तान  ने अपनी सेना की शाखा आई  एस आई के ज़रिये बड़ी संख्या में पाकिस्तानी बेरोजगार नौजवानों को  ट्रेनिंग दे कर अफगानिस्तान में  भेज दिया था . जब अफगानिस्तान में  अमरीका की रूचि नहीं रही तो  पाकिस्तान  की आई एस आई ने इनको ही भारत  में आतंक फैलाने के लिए लगा दिया .  सोवियत रूस के विघटन के बाद आतंकवादियों की यह फौज कश्मीर में लग गयी . सलाहुद्दीन उसी दौर की पैदाइश  है .कश्मीर में युसूफ शाह नाम से  चुनाव लड़कर हारने के  बाद वह पाकिस्तान चला गया था और वहां उसको अफगान आतंकी गुलबुद्दीन हिकमतयार ने ट्रेनिंग दी थी. हिकमतयार अल  कायदा वाले ओसामा बिन लादेन का ख़ास आदमी हुआ करता था. शुरू में इसका संगठन जमाते इस्लामी का सहयोगी हुआ करता था लेकिन बाद में सलाहुद्दीन ने अपना  स्वतंत्र संगठन बना लिया.  

 चीन के  ताज़ा बयान को अगर इस पृष्ठभूमि में देखा जाए तो बात समझ में आती है क्योंकि आज पाकिस्तान  में भी खूब आतंकी हमले  हो  रहे हैं . लेकिन यह भी सच है  कि जब अमरीका की मदद से पाकिस्तानी तानाशाहजिया उल हक आतंकवाद को अपनी सरकार की नीति के रूप में विकसित कर रहे थे तभी दुनिया भर के समझदार लोगों ने उन्हें चेतावनी दी थी. लेकिन उन्होंने किसी की नहीं सुनी . जनरल जिया ने धार्मिक उन्मादियों और फौज के जिद्दी जनरलों की सलाह से देश के बेकार फिर रहे नौजवानों की एक जमात बनायी थी जिसकी मदद से उन्होंने अफगानिस्तान और भारत में आतंकवाद की खेती की थी .उसी खेती का ज़हर आज पाकिस्तान के अस्तित्व पर सवालिया निशान बन कर खडा हो गया है.. अमरीका की सुरक्षा पर भी उसी आतंकवाद का साया मंडरा रहा है जिसके तामझाम को अमरीका ने ही पाकिस्तानी हुक्मरानों की मदद से स्थापित किया गया था . दुनिया जानती है कि अमरीका का सबसे बड़ा दुश्मनअल कायदा अमरीकी पैसे से ही बनाया गया था और उसके संस्थापक ओसामा बिन लादेन अमरीका के ख़ास चेला हुआ करते थे .आज बात बदल गयी है . आज अमरीका में पाकिस्तान को आतंक के मुख्य क्षेत्र के रूप में पहचाना जाता है . जो अमरीका कभी  पाकिस्तानी आतंकवाद का फाइनेंसर हुआ करता था  वही आज उसके एक सरगना को अंतरराष्ट्रीय आतंकवादी घोषित कर चुका है .और भारत सरकार के प्रधानमंत्री को यह बताने की  कोशिश कर रहा है कि वह कश्मीर के मामले में भारत का सहयोगी बनने को तैयार है .

अब कश्मीर का मसला बहुत जटिल हो गया  है . पाकिस्तान कभी नहीं चाहेगा  कि वहां की समस्या हल हो.  कश्मीर के मसले को जिंदा रखना पाकिस्तानी शासकों की मजबूरी है क्योंकि १९४८ में जब जिनाह की सरपरस्ती में कश्मीर पर कबायली हमला हुआ था उसके बाद से ही भारत के प्रति नफरत के पाकिस्तानी अभियान में कश्मीर विवाद का  भारी योगदान रहा है अगर पाकिस्तान के हुक्मरान उसको ही ख़त्म कर देंगें तो उनके लिए बहुत मुश्किल हो जायेगी.

पाकिस्तान की एक देश में स्थापना ही एक तिकड़म का परिणाम है. वहां की एक बड़ी आबादी के रिश्तेदार और आधा परिवार भारत में है .उनकी सांस्कृतिक जड़ें भारत में हैं लेकिन धर्म  के आधार पर बने पाकिस्तान में रहने को अभिशप्त हैं .  शुरू से ही पाकिस्तानी शासकों ने धर्म के सहारे अवाम को इकठ्ठा रखने की कोशिश की . अब उनको पता चल गया है कि ऐसा सोचना उनकी बहुत बड़ी गलती थी. जब भी धर्म को राज काज में दखल देने की आज़ादी दी जायेगी राष्ट्र का वही हाल होगा जो आज पाकिस्तान का हो रहा है .इसलिए धर्म और गाय के नाम पर  चल रहे खूनी खेल की अनदेखी  करने वाले भारतीय नेताओं को  भी सावधान होने की ज़रूरत  है क्योंकि जब अर्धशिक्षित और लोकतंत्र से अनभिज्ञ धार्मिक नेता  राजसत्ता को अपने इशारे पर नचाने लगते हैं  तो वही होता है जो पाकिस्तान का हाल हो रहा है.   धर्म को राजकाज का मुख्य आधार बनाकर चलने वालों में १९८९ के बाद के इरान  को भी  देखा जा सकता है . ईरान जो कभी आधुनिकता की दौड़ में बहुत आगे हुआ करता था , धार्मिक कठमुल्लों की  ताक़त बढ़ने के बाद आज दुनिया में अलग थलग पड़ गया है .

 आजकल पाकिस्तान की  दोस्ती चीन से बहुत ज़्यादा है लेकिन अभी कुछ वर्ष पहले तक पाकिस्तान में रहने वाला आम आदमी अमरीकी और साउदी  अरब की  खैरात पर जिंदा था.  उन दिनों पाकिस्तान पर अमरीका की ख़ास मेहरबानी हुआ करती थी. आज अमरीकी दोस्ती का  हाथ भारत की तरफ बढ़ चुका है  और चीन के बढ़ते क़दम को रोकने के  लिए अमरीका भारत से अच्छे   सम्बन्ध बनाने की फ़िराक में है .आज पाकिस्तान पूरी तरह  से अस्थिरता के कगार पर खड़ा है . कभी भारत और  बाद  में अफगानिस्तान के खिलाफ आतंकवादियों की   जमातें तैयार करने वाला पाकिस्तान   आज अपनी एकता को बनाये रखने के लिए संघर्ष कर रहा है . अमरीका से दोस्ती और धार्मिक उन्माद को राजनीति की मुख्य धारा में लाकर पाकिस्तान का यह हाल हुआ है . भारत को भी  समकालीन इतिहास के इस पक्ष पर नज़र रखनी चाहिए कि कहीं अपने महान देश की हालत अपने शासकों की अदूरदर्शिता के कारण पाकिस्तान जैसी न  हो जाए. पाकिस्तान को अमरीका ने   इस इलाके में अपने प्रभाव को बनाए रखने के लिये इस्तेमाल किया  था , कहीं भारत उसी जाल में न फंस जाए. पाकिस्तान जिस तरह से अपने ही बनाए दलदल में फंस चुका है.और उस दलदल से निकलना पाकिस्तान के अब बहुत मुश्किल है .  उसकी मजबूरी का फायदा अब  चीन उठा रहा है . पाकिस्तान में चीन भारी विनिवेश कर रहा है . ज़ाहिर है वह पाकिस्तान को उसी तरह की कूटनीतिक मदद कर रहा  है जैसी कभी अमरीका किया करता था. १९७१ की बांग्लादेश  की लड़ाई  में पाकिस्तान ने भारत की सेना को धमकाने के लिए बंगाल की खाड़ी में अपने सातवें बेड़े  के युद्धक विमान वाहक जहाज़ ,इंटरप्राइज़ को भेज  दिया  था. भारत के इतिहास के सबसे मुश्किल दौर ,१९७१ में वह  पाकिस्तान को भारत के खिलाफ इस्तेमाल होने के  लिए हथियार दे रहा था . एक बड़ा सवाल है कि क्या भारत को अमरीका उसी तरह का सहायक बनना चाहिए जैसा कभी पाकिस्तान हुआ करता था. भारत के राजनयिकों को इस बात को गंभीरता से समझना पडेगा कि कहीं अमरीका  सलाहुद्दीन को   अंतर राष्ट्रीय आतंकी घोषित करके कश्मीर में हस्तक्षेप  करने की भूमिका तो नहीं बना रहा है .