Sunday, March 21, 2021

वाणी की युद्ध-यात्रा ,हमने ढाका पर भारतीय सेना की विजय को देखा है –डॉ धर्मवीर भारती की आँखों से

 

 


शेष नारायण सिंह

 

बंगलादेश की आज़ादी की लड़ाई एक हथियारबंद लड़ाई थी जिसमें  पहले के पूर्वी पाकिस्तान की जनता के हर वर्ग ने हिस्सा लिया था . शेरपुर ,जमालपुर, टंगाइल होते हुए जो सेना ढाका पंहुची थी उसकी अगुवाई मेजर जनरल गन्धर्व नागरा कर रहे थे. उनके साथ सहयोगी ब्रिगेडियर क्लेर भी थी . उन दिनों टीवी नहीं था .  रेडियो और अखबार से ही ख़बरें मिलती थीं. उस लड़ाई का आँखों देखा हाल हमने उस दौर की सबसे लोकप्रिय हिंदी पत्रिका धर्मयुग में पढ़ा था. धर्मयुग के संपादक डॉ धर्मवीर भारती एक युद्ध संवाददता के रूप में जनरल गंधर्व नागरा की सेना के साथ साथ चल रहे थे. डॉ भारती को हिंदी भाषा  का  दुनिया का पहला युद्ध संवाददाता होने का गौरव प्राप्त  है .उनके फोटोग्राफर बालकृष्ण भी  साथ थे. धर्मयुग में छपे डॉ धर्मवीर भारती के  डिस्पैच  १९७१ के दिसंबर और १९७२ की जनवरी  में भारत के कोने कोने में  पढ़े जाते थे.  एम ए  प्रीवियस के छात्र के रूप में हमने उन ख़बरों को पढ़ा था , बार बार पढ़ा था. हिंदी में गद्य लेखन के जो श्रेष्ठतम मानदंड हैं, वह रिपोर्टें उन्हीं में शुमार की जायेंगी . वैसे भी डॉ  धर्मवीर भारती की गद्य लेखन का सम्मान चंहुओर है  लेकिन मुक्तिवाहिनी और मित्रवाहिनी के साथ उनकी वह यात्रा ऐतिहासिक है .कल ( २० मार्च )  वाणी प्रकाशन के अरुण माहेश्वरी से डॉ भारती की  क़लम की ताकत और उस लडाई की  रिपोर्टिंग की चर्चा  हो रही थी , तो मैंने डॉ  भारती की रिपोर्ट के कुछ अंश सुनाना शुरू कर दिया .बहुत सारे अंश हमको जबानी याद हैं ..  कुछ क्षण बाद ही अरुण जी भी कुछ अंश  सुनाने लगे. मैंने कहा ,भाई आप तो उस समय १०-११ साल के  रहे होंगे, आप तो शायद धर्मयुग न पढ़ते रहे  हों  तो उन्होंने ११८ पृष्ठों की एक किताब दिखाई जिसमें वह सारी रिपोर्ट छपी हुयी है . “ युद्ध-यात्रा “  नाम की यह किताब  वाणी प्रकाशन ने ही छापी है . मैं गदगद हो गया . उन्होंने वह किताब मुझे दी और  कहा कि यह आपके लिए  है. अपन भी सख्त याचक हैं . कभी मुफ्त में मिली किताब पढ़ते नहीं . मुझे मालूम है कि वे  मुझसे किताब का दाम नहीं लेंगे इसलिए मैंने कहा कि आप किताब पर कुछ लिख कर दीजिये. उन्होंने कहा कि लिखना तो आदरणीय पुष्पा भारती जी का अधिकार है लेकिन चलिए कुछ लिखता हूं. उन्होंने पुष्पा जी और स्व डॉ भारती के हवाले से वह किताब मुझे दे दी  .

घर पंहुचकर  किताब   पढ़ना शुरू किया . आधी तो रात में ही पढ़ गया और जो  बची उसे सुबह पूरी कर लिया . उस किताब में मेरे लिए नया कुछ भी नहीं था. सारा कुछ हमने आज के पचास साल पहले पढ़ रखा था ,इसलिए डॉ भारती की वह रिपोर्टें ऐसी लगती हैं कि जैसे हम भी  उनमें कहीं   मौजूद हैं . उन्हीं रिपोर्टों को पढ़कर अपने मित्रों को  सुनाते हुए मेरे जीवन के कुछ स्मरणीय क्षण  जुड़े हुए हैं , बहुत ही अच्छी यादें हैं .हमारे सैन्य विज्ञान के प्राध्यापक एस सी श्रीवास्तव साहब तो मेजर जनरल गन्धर्व नागरा और ब्रिगेडियर क्लेर को राम-लक्षमण कहा करते थे . भारतीय सेना ढाका की तरफ पूरब पश्चिम उत्तर दक्षिण की तरफ से बढ़ रही थी और सबकी बाकायदा दुनिया भर में रिपोर्टिंग हुयी लेकिन हिंदी क्षेत्र की जनता को उत्तर की तरफ से आती हुयी मेजर जनरल गंधर्व नागरा की सेना के बारे में ही ज्यादा जानकारी  थी. हम लोगों को मालूम है कि जमालपुर से बढ़ते हुए जब ढाका शहर के ठीक बाहर जनरल नागरा की फ़ौज पंहुच गयी तो वे मीरपुर पुल पर गए और उन्होंने ही अपने दो अफसरों को वह चिट्ठी लेकर भेजी थी जिसमें पाकिस्तानी सेना का आला अफसर लेफ्टीनेंट जनरल ए ए के नियाजी को समझाया गया था कि,” मैं अपनी फ़ौज के साथ यहाँ तक आ पंहुचा हूँ. यदि आप अपनी कुशल चाहते  हैं तो आत्मसमर्पण कर दें .आत्मसमर्पण के बाद आपकी और आपकी सेना की पूरी सुरक्षा की गारंटी मैं लेता हूँ. : उसके बाद जनरल नियाजी ने आत्मसमर्पण करने का फैसला किया . जनरल नागरा और जनरल  नियाजी एक  दूसरे से पूर्व परचित थे . दोनों गले मिले . उसके बाद कलकत्ता से पूर्वी कमान के कमांडर जनरल जे एस  अरोड़ा ढाका गए और समर्पण की कार्यवाही विधिवत पूरी की गयी .

लेफ्टिनेंट जनरल नियाजी ४/७ राजपूत रेजिमेंट में कमीशन किये गए थे इसलिए भारत की सेना में उनके बहुत सारे दोस्त थे . उनको जनरल नागरा के वचन के अनुसार राजपूत  रेजिमेंटल सेंटर और गढ़वाल राइफल्स सेंटर में युद्धबंदी के रूप में रखा गया . डॉ भारती की रिपोर्ट में तो यह नहीं लिखा है लेकिन जब जनरल अरोड़ा के सामने जनरल नियाजी समर्पण करने आये तो उनको अपनी पिस्तौल समर्पण करना  था. जनरल अरोड़ा ने कहा कि बेल्ट भी खोल दो . बेल्ट  खोलने के बाद नियाजी ने कहा कि   पतलून भी ? इस बात  ठहाका लगा और जब नियाजी को बताया गया कि उनकी सेना ने किस तरह से अत्याचार किये हैं तो उनको अफ़सोस भी हुआ.  दरअसल उनको तो बलि का बकरा बनाया गया था .उनके पहले तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान में पाकिस्तानी सेना का कमांडर लेफ्टिनेट जनरल टिक्का खान था और उसने जब देखा कि है हार  निश्चित है तो वह भाग कर वापस रावलपिंडी चला गया था. बाग्लादेश में उसी के तैनात किये गए अफसर  तैनात थे जो सब कके सब बूचर थे . इसके पहले वह बलोचिस्तान में अपने खूंखार तरीकों से बूचर ऑफ़ बलोचिस्तान का तमगा  हासिल कर चुका था. उसी जनरल टिक्का खान का रिश्तेदार वह बदतमीज लेफ्टिनेंट जैदी भी था जिसको जमालपुर कीलड़ाई में युद्धबंदी बनाया गया था .

डॉ भारती की रिपोर्ट  पढ़कर ही हमको  पता था कि मुक्तिबाहिनी के कमांडर कर्नल उस्मानी कितने बहादुर थे .मां काली की कसम खाकर अपने सैनिकों को भेजते मुस्लिम मुक्तिबाहिनी अफसरों की कहानी भी वहीं दर्ज है . मुक्तिबाहिनी के सेक्टर कमांडर मेजर जलील को ,भारतीय सेना के कर्नल बरार और मेजर महेंद्र , फ़्लाइंग ऑफिसर वर्मा के कटाक्ष का बेहतरीन  वर्णन भी धर्मयुग रिपोर्टों में  पढ़ा था . उस पूरी रिपोर्ट को छापकर अरुण माहेश्वरी और उनकी यशस्वी बेटी अदिति ने बहुत ही आला और नफीस काम किया है. मन तो कह रहा  है कि सारी कथा लिख दूं  लेकिन लिखूंगा नहीं क्योंकि आप में से अगर कोई ‘युद्ध-यात्रा ‘ को पढ़ना चाहेगा तो उसका मज़ा किरकिरा हो जायेगा

 

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