Thursday, January 25, 2018

क्या करणी सेना के पास भूख से तड़पते और लेबर चौक पर खड़े राजपूतों के लिए भी कोई योजना है ?

  
शेष नारायण सिंह

राजस्थान की  करणी माता के नाम पर बनी एक सेना के हवाले से एक फिल्म का विरोध आजकल राजनीतिक चर्चा के केंद्र में है.बिना फिल्म देखे लाखों नौजवान सड़क पर आ गए और तोड़ फोड़ शुरू कर दी. कुछ नेता भी पैदा हो गए और फिल्म पर प्रतिबन्ध लगाने की मांग शुरू कर दी . मैंने कई बार इन नेताओं से राजपूत हित की बात करने की  कोशिश की लेकिन वे फिल्म पर पाबंदी के अलावा कोई भी बात सुनने को तैयार नहीं थे.  अब फिल्म बहुत सारे लोगों ने देख लिया है और आम तौर  लोगों की राय यही है कि फिल्म में रानी पद्मिनी का कोई अपमान नहीं हुआ है और राजपूत  गौरव को पूरी तरह से सम्मान दिया गया है .सवाल उठता है कि बिना फिल्म देखे और उसके बारे में बिना जानकारी हासिल किये इतनी बड़ी संख्या में नौजवान  राजपूत लड़कों  को सड़क पर लाने वाले अब अपने आप को क्या जवाब देंगें . अब यह सवाल पूच्छे जायेंगे कि आप ने इतने बड़े पैमाने पर तोड़फोड़ का जो आयोजन किया  उसके पीछे आपकी मंशा क्या थी. कहीं कोई गुप्त एजेंडा तो नहीं था. के वास्तव में आपको राजपूतों के गौरव का उतना ही ध्यान रहता है जितना उन बेरोजगार नौजवानों को इकठ्ठा करने के समय आपने दिखाई थी. रानी पद्मिनी की ऐतिहासिकता पर चर्चा करने की ज़रूरत नहीं है. उनको ऐतिहासिक चरित्र माना जा सकता है और राजपूतों के एक बड़े वर्ग में उनको सम्मान का  मुकाम हासिल है. अब उनके सम्मान से समझौता करने वाली फिल्म का विवाद ख़त्म हो  जाएगा . क्या मौजूदा आन्दोलन के नेता अब भी  उनके आवाहन पर मरने मारने के लिए सड़क पर आये लोगों के कल्याण के बारे में कुछ सोचेंगे .
आन्दोलन के दौरान राजपूतों के कई नेताओं से  मुलाक़ाते होती रही थीं.उनसे जब  ज़िक्र किया गया कि इन बेरोजगार लड़कों के लिए उनके दिमाग में क्या कोई योजना है . तो कई लोगों ने बताया कि सरकारी नौकरियों के रिज़र्वेशन के लिए आन्दोलन चलाया जाएगा . उनको भी मालूम है कि इस तरह की बात का कोई नतीजा  नहीं निकलने वाला है . लड़कों को किसी बेमतलब के झगडे में फंसाए रखना ही उद्देश्य है . ऐतिहासिक रूप से राजपूतों को शोषक और  उत्पीड़क के रूप में चित्रित किया  जाता रहा है . उनके तथाकथित उत्पीडन से मुक्ति के लिए ही दलितों और पिछड़ी जातियों  के लोगों को आरक्षण दिया गया था .  ज़ाहिर है उनके आरक्षण की मांग को  बिना विचार किये ही खारिज कर दिया जाएगा . इसलिए बेरोजगार राजपूत नौजवानों को सरकारी नौकरी के अलावा किसी और तरह का रोज़गार दिलाने के बारे में सोचना होगा. इन नेताओं के पास अवसर है कि राजपूतों को सामान्य इंसान के रूप में  भी पेश करने के लिए  प्रयास करें और उनकी जो शोषक की छवि बनी हुयी है उसको तोड़ें और पूर्व ज़मींदारों से गरीब राजपूतों  को अलग करके प्रस्तुत करें . आज की सच्चाई यह है कि दिल्ली और  नोयडा के किसी लेबर चौक पर सुबह पांच बजे चले जाइए ,वहां, उत्तर प्रदेश ,बिहार,मध्य प्रदेश और राजस्थान से दिल्ली आये राजपूत लड़के काम के इंतज़ार में खड़े मिल जायेगें . और अगर उसी चौक पर  ग्यारह बजे जाकर देहें तो क्चुह्ह नौजवान निराश खड़े मिले जायेगें क्योंकि मजदूरों की  मंडी में उस दिन उनको काम नहीं मिल पाया.

मेरा भी जन्म एक राजपूत परिवार में हुआ  है लेकिन  अपनी बिरादरी की पक्षधरता की बात करने से मैं बचता रहा हूँ. उत्तर प्रदेश में ज़मींदारी उन्मूलन के आस पास जन्मे राजपूत बच्चों ने अपने घरों के आस पास ऐसा कुछ नहीं देखा है जिस पर बहुत गर्व किया जा सके. अपने इतिहास में ही गौरव तलाश रही इस पीढी के लिए यह अजूबा ही रहा है कि राजपूतों पर शोषक होने का आरोप लगता रहा है . हालांकि शोषण राजपूत तालुकेदारों और राजओंने किया होगा लेकिन शोषक का तमगा सब पर थोप दिया जाता रहा है . आम राजपूत तो अन्य जातियों के लोगों की तरह गरीब ही है . मैंने अपने बचपन में देखा है कि मेरे अपने गांव में राजपूत बच्चे भूख से तडपते थे. मेरे अपने घर में भी मेरे बचपन में भोजन की बहुत किल्लत रहती थी. इसलिए राजपूतों को एक वर्ग के रूप में शोषक मानना मेरी समझ में कभी नहीं आया.. मेरे बचपन में मेरे गाँव में राजपूतों के करीब १६ परिवार रहते थे .अब वही लोग अलग विलग होकर करीब ४० परिवारों में बँट गए हैं . मेरे परिवार के अलावा कोई भी ज़मींदार नहीं था . सब के पास बहुत मामूली ज़मीन थी. कई लोगों के हिस्से में तो एक एकड़ से भी कम ज़मीन थी. तालाब और कुओं से सिचाई होती थी और किसी भी किसान के घर साल भर का खाना नहीं पूरा पड़ता था . पूस और माघ के महीने आम तौर पर भूख से तड़पने के महीने माने जाते थे. जिसके घर पूरा भी पड़ता था उसके यहाँ चने के साग और भात को मुख्य भोजन के रूप में स्वीकार कर लिया गया था. मेरे गांव में कुछ लोग सरकारी नौकरी भी करते थे हालांकि अपने अपने महकमों में सबसे छोटे पद पर ही थे. रेलवे में एक स्टेशन मास्टर ,तहसील में एक लेखपाल और ग्राम सेवक और एक गाँव पंचायत के सेक्रेटरी . तीन चार परिवारों के लोग फौज में सिपाही थे . सरकार में बहुत मामूली नौकरी करने वाले इन लोगों के घर से भूखे सो जाने की बातें नहीं सुनी जाती थीं . बाकी लोग जो खेती पर ही निर्भर थे उनकी हालत खस्ता रहती थी .
.उत्तर प्रदेश के अवध इलाके में स्थित अपने गांव के हवाले से हमेशा बात को समझने की कोशिश करने वाले मुझ जैसे इंसान के लिए यह बात हमेशा पहेली बनी रही कि सबसे गरीब लोगों की जमात में खड़ा हुआ मेरे गाँव का राजपूत शोषक क्यों करार दिया जाता रहा है . मेरे गाँव के राजपूत परिवारों में कई ऐसे थे जो पड़ोस के गाँव के कुछ दलित परिवारों से पूस माघ में खाने का अनाज भी उधार लाते थे . लेकिन शोषक वही माने जाते थे. बाद में समझ में आया कि मेरे गाँव के राजपूतों के पिछड़ेपन का सबसे बड़ा कारण शिक्षा की उपेक्षा रही है . जिन घरों के लोग पढ़ लिख गए वे आराम से रहने लगे थे . वरना पिछड़ेपन का आलम तो यह है कि २०१० में उत्तर प्रदेश सरकार ने जब सफाईकर्मी भर्ती करने का फैसला किया तो मेरे गाँव के कुछ राजपूत लड़कों ने दरखास्त दिया था. जबकि सफाई कर्मी का काम ग्रामीण राजपूती पहचान के लिए बहुत ही अपमानजनक माना जाता  था. लेकिन गरीबी की मार ऐसी ज़बरदस्त होती  है कि कोई भी अहंकार उसके सामने ज़मींदोज़ हो जाता  है . जब गाँव से बाहर निकल कर देखा तो एक और बात नज़र आई कि हमारे इलाके में जिन परिवारों के लोग ,कलकत्ता,जबलपुर ,अहमदाबाद,सूरत या मुंबई में रहते थे उनके यहाँ सम्पन्नता थी. मेरे गाँव के भी एकाध लोग मुंबई में कमाने गए थे .वे भी काम तो मजूरी का ही करते थे लेकिन मनी आर्डर के सहारे घर के लोग दो जून की रोटी खाते थे . जौनपुर में मेरे ननिहाल के आस पास लगभग  सभी संपन्न राजपूतों के परिवार मुंबई की ही कमाई से आराम का जीवन बिताते थे. २००४ में जब मुझे मुंबई जाकर नौकरी करने का प्रस्ताव आया तो जौनपुर में पैदा हुई मेरी माँ ने खुशी जताई और कहा कि भइया चले जाओ बम्बई लक्ष्मी का नइहर है . बात समझ में नहीं आई . जब मुंबई में आकर एक अधेड़ पत्रकार के रूप में अपने आपको संगठित करने की कोशिश शुरू की तो देखा कि यहाँ बहुत सारे सम्पन्न राजपूत रहते हैं . देश के सभी अरबपति ठाकुरों की लिस्ट बनायी जाय तो पता लगेगा कि सबसे ज्यादा संख्या मुंबई में ही है . दिलचस्प बात यह है कि इनमें ज्यादातर लोगों के गाँव तत्कालीन बनारस और गोरखपुर कमिश्नरियों में ही हैं .कभी इस मसले पर गौर नहीं किया था. २०१२ में मुंबई यात्रा के दौरान कांदिवली के ठाकुर विलेज में एक कालेज के समारोह में जाने का मौक़ा मिला . वहां राष्ट्रीय राजपूत संघ के तत्वावधान में उन बच्चों के सम्मान में एक कार्यक्रम आयोजित किया गया था जिनको २०११ की परीक्षाओं में बहुत अच्छे नंबर मिले थे. बहुत बड़ी संख्या में ७० प्रतिशत से ज्यादा नंबर पाने वाले बच्चों की लाइन लगी हुई थी और राजपूत समाज के ही सफल,संपन्न और वारिष्ठ लोगों के हाथों बच्चों को सम्मानित किया जा रहा था. उस सभा में मुंबई में राजपूतों के सबसे आदरणीय और संपन्न लोग मौजूद थे.उस कार्यक्रम में जो भाषण दिए गए उनसे मेरी समझ में आया कि माजरा क्या है . मुम्बई में आने वाले शुरुआती राजपूतों ने देखा कि मुंबई में काम करने के अवसर खूब हैं . उन्होंने बिना किसी संकोच के हर वह काम शुरू कर दिया जिसमें मेहनत की अधिकतम कीमत मिल सकती थी. और मेहनत की इज्ज़त थी .शुरुआत में तबेले का काम करने वाले यह लोग अपने समाज के अगुवा साबित हुए. उन दिनों माहिम तक सिमटी मुंबई के लोगों को दूध पंहुचाने काम इन लोगों ने हाथ में ले लिया . जो भी गाँव जवार से आया सबको इसी काम में लगाते गए. आज उन्हीं शुरुआती उद्यमियों के वंशज मुंबई की सम्पन्नता में महत्वपूर्ण हस्ताक्षर है . साठ और सत्तर के दशक में जो लोग मुंबई किसी मामूली नौकरी की तलाश में आये ,उन्होंने भी सही वक़्त पर अवसर को पकड़ा और अपनी दिशा में बुलंदियों की तरफ आगे चल पड़े,. आज शिक्षा का ज़माना है . बारम्बार कहा जा रहा  है कि भारत को शिक्षा के एक केंद्र के रूप में विकसित किया जाएगा. मुंबई के राजपूत नेताओं ने इस बयान के आतंरिक तत्व को पहचान लिया और आज उत्तर प्रदेश से आने वाले राजपूतों ने शिक्षा के काम में अपनी उद्यमिता को केन्द्रित कर रखा है .उत्तरी मुंबई में कांदिवली के ठाकुर ग्रुप आफ इंस्टीट्यूशनस की गिनती भारत के शीर्ष समूहों में होती है . इसके अलावा भी बहुत सारे ऐसे राजपूत नेताओं को मैं जानता हूँ जिन्होंने शिक्षा को अपने उद्योग के केंद्र में रखने का फैसला कर लिया है . लगता है कि अब यह लोग शिक्षा के माध्यम से उद्यम के क्षेत्र में भी सफलता हासिल करेगें और आने वाली पीढ़ियों को भी आगे ले जायेगें .
फिर सवाल वहीं आकर बैठ जाता है कि श्री राजपूत करणी सेना के नेता लोग क्या  राजपूत लड़कों को अगले किसी काल्पनिक संघर्ष में फंसाने के लिए तैयार करेंगे  या उनके लिये उद्यमिता  के विकल्पों पर  विचार करने का अवसर उपलब्ध करायेंगें . मुंबई का जो उदाहरण दिया  गया  है उसमें कहीं भी किसी सरकार की कोई भूमिका नहीं है . अगर इन नौजवानों को सरकार से मिलने वाले  किसी लालीपाप का लालच देकर अपने की चंगुल में फंसाए रखना उद्देश्य है तो उसमें दीर्घकालिक सफलता नहीं मिलेगी लेकिन अगर इतने बड़े पैमाने पर मोबिलाइज़ किये गए बेरोजगार नौजवानों की ज़िंदगी में कुछ  अच्छा करने की कोशिश की जाए तो समाज का भला होगा .

मानव संसाधन विकास मंत्रालय में जूनियर मंत्री सत्यपाल सिंह टिके रहने पर सवालिया निशान



शेष नारायण सिंह

बीजेपी के  टिकट पर बागपत से चुनाव जीतकर आये पूर्व पुलिस अफसर सत्यपाल सिंह केंद्र सरकार में जूनियर मंत्री हो गए और उनको महत्वपूर्ण शिक्षा विभाग में कैबिनेट मंत्री प्रकाश जावडेकर के अधीन काम करने का मौक़ा भी मिल गया . लेकिन वे भूल गए कि उनको कुछ भी कह देने का अधिकार नहीं मिल गया है . अपनी धुन में आई आई टी गौहाटी में बोल गए कि मनुष्य के विकास का डार्विन का सिद्धांत वैज्ञानिक  नहीं है . उन्होंने  दावा किया कि डार्विन गलत थेकिसी ने बंदर को इंसान में बदलते नहीं देखा। मानव विकास संबंधी चार्ल्स डार्विन के विकासवाद के सिद्धांत वैज्ञानिक तौर पर गलत है।उन्होंने स्कूल और कॉलेज के पाठ्यक्रम में इसमें बदलाव की भी हिमायत  कर डाली . डार्विन के सिद्धांत पर सत्यपाल सिंह ने कहा कि जब से इस धरती पर इंसान आया हैतब से वह मानव रूप में ही है। यानी इंसान मानव के रूप में ही इस धरती पर आया है. उन्होंने और भी ज्ञान बघारा कि उनके किसी भी पूर्वज ने कभी भी किसी बंदर को इंसान बनते नहीं देखा . उन्होंने साथ साथ यह भी घोषणा कर दी कि सरकार एक  सेमीनार बुलाकर डार्विन के सिद्धांत की कमियों को उजागर करेगी. हो सकता है कि इस तरह के बयान  सत्यपाल सिंह पहले भी देते रहे हों . ज़ाहिर है उनको किसी ने गंभीरता से नहीं लिया होगा / लेकिन जब इस बार उन्होंने स्कूलों में पाठ्यक्रम बदलने की बात कर दी तो सरकार को  चिंता हो गयी और उनके बॉस प्रकाश जावडेकर ने उनको डांट दिया कि इस तरह के उल जलूल बयान न दिया करें .
 सत्यपाल सिंह के  बयान के बाद बीजेपी और सरकार के लिए मुश्किल बढ़ गयी थी. दुनिया भर में मजाक उड़ाया जा रहा  था . शायद इसी नुक्सान को कंट्रोल करने के लिए केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री प्रकाश जावडेकर ने अपने जूनियर मंत्री के बयान  पर सख्त हिदायत दी और कहा कि उनको ऐसे बयान देने से बाज़ आना चाहिए .  जावडेकर ने यह भी कहा कि डार्विन के सिद्धांत को गलत साबित करने के लिए किसी भी सेमिनार के  आयोजन की बात भी गलत  है . सरकार की  ऐसी कोई योजना नहीं है . सरकार की तरफ से ऐसे किसी भी आयोजन के लिए न तो कोई धन दिया जाएगा और न ही सरकार किसी भी सेमीनार का आयोजन करेगी .
राज्यमंत्री सत्यपाल सिंह के बयान पर वैज्ञानिकों में भी तीखी प्रतिक्रिया हुई थी .देश  भर के  करीब  दो हज़ार वैज्ञानिकों ने केंद्र सरकार को एक ज्ञापन दिया जिसमें लिखा है कि ," यह कहना गलत है कि  डार्विन के विकास के सिद्धांत को वैज्ञानिकों ने रिजेक्ट कर दिया है .इसके विपरीत सच्चाई यह  है कि हर नई खोज डार्विन के सिद्धान्त को और मजबूती देती है .इस बात के बहुत सारे अकाट्य सबूत हैं कि बंदरों और मनुष्यों के पूर्वज एक ही थे. " इस ज्ञापन पर हस्ताक्षर करने वालों में  देश के सबसे  महान संस्थानों के वैज्ञानिक शामिल हैं . टाटा  इंस्टीट्यूट आफ फंडामेंटल रिसर्च, मुंबई, नैशनल सेंटर फार रेडियो एस्ट्रोफिजिक्स ,पुणे, नैशनल सेंटर फार सेलुलर एंड मालिकुलर बायोलाजी ,हैदराबाद जैसे संस्थानों के वैज्ञानिकों के सत्यपाल सिंह के बयान से असहमति  जताई और नाराज़गी भी ज़ाहिर की .
अपने बॉस की परेशानी की चिंता किये  बगैर सत्यपाल सिंह अभी भी अपने बयान पर कायम हैं और कहते पाए गए हैं कि डार्विन का विकास का सिद्धांत वैज्ञानिक नहीं है . अब यह देखना दिलचस्प होगा कि अपनी इस जिद के बाद सत्यपाल सिंह कब  तक मंत्रिमंडल में टिके रह पायेगें . दिल्ली के सत्ता के गलियारों में तो यह   पक्का ही माना जा  रहा है कि उनका प्रकाश जावडेकर के मंत्रालय में काम कार पाना तो असंभव ही हो गया है . हाँ यह संभव है कि किसी अन्य विभाग में कोई काम देकर उनको मंत्री बना रहने दिया जाए 

१९८४ में सिखों के संहार के दिन दिल्ली में इंसानी मूल्यों की भी हत्या हुयी थी .



शेष नारायण सिंह

३१ अक्टूबर १९८४ के सिखों के नर संहार से सम्बंधित जांच को दोबारा खोले जाने की मांग को सुप्रीम कोर्ट ने आंशिक मंजूरी दे दी  है. करीब पौने दो सौ मामलों की फिर से जांच की जायेगी . वह दिन मेरी स्मृति में एक खौफनाक दिन के रूप में दर्ज है . ३१ अक्टूबर को सुबह अखबार देख रहां था कि मेरे दोस्त राम चन्द्र सिंह का फोन आया कि इंदिरा जी को किसी ने गोली मार दी हैं . जिंदा हैं  और आल इण्डिया मेडिकल इंस्टीटयूट  ले जाई गयी हैं .  इसके पांच महीने पहले आपरेशन ब्ल्यू स्टार हो चुका था.  पंजाब में आतंकवाद शिखर पर था . तुरंत शक हो गया कि  कोई खालिस्तानी आतंकवादी होगा. उन दिनों हम सफदरजंग इन्क्लेव में किराए के मकान में रहते थे. मैं १० मिनट के अन्दर आल इण्डिया मेडिकल इंस्टीटयूट अस्पताल के इमरजेंसी में हाज़िर . सीधे अन्दर चले गए. बहुत कम लोग थे .अरुण नेहरु आये, गौतम कौल आये. फिर मंत्री नेता आने लगे. उस इलाके में कांग्रेस के सबसे बड़े दादा अर्जुनदास हुआ करते थे. मैं जानता था उनको. उनका चेला गोस्वामी आया . उसने अरुण नेहरू को किसी से बात करते सुन लिया था . उसने ही बताया कि मैडम की मौत हो चुकी है लेकिन अभी पब्लिक को बताया नहीं जाएगा.
करीब ४५ मिनट बाद ओ टी के बाहर जमा फालतू लोगों को भगा दिया गया . हम बाहर आ गए. बाहर बहुत सारे कांग्रेसी जमा थे. जगदीश  टाइटलर, सज्जन कुमार , ललित माकन , अर्जुन दास , एच के एल भगत, धर्मदास शास्त्री  सब अन्दर बाहर हो रहे थे. आल इण्डिया मेडिकल इंस्टीटयूट का चौराहा उन दिनों इतनी भीड़ वाला इलाका नहीं था लेकिन ११ बजे तक बहुत ज़्यादा लोगों की भीड़ जमा हो चुकी थी. तरह तरह के कयास चल रहे  थे . लेकिन किसी को नहीं मालूम था कि इंदिरा गांधी की मौत हो चुकी थी . हम भीड़ के बीच में घूमते रहे. करीब २ बजे अर्जुनदास बाहर आये  और अपने लोगों को कुछ समझाने लगे.  मिंटो रोड इलाके का एक  कांग्रेसी रमेश दत्ता भी वहीं अपने चेलों के साथ जमा  हुआ था . रमेश दत्ता की खासियत यह थी कि अगर किसी कांग्रेसी नेता के यहाँ कहीं भी कोई भी खुशी का माहौल होता तो वह ढोल बजाने वालों को लेकर वहां पंहुंच जाता. उसने एक संस्था नेहरू ब्रिगेड बना रखी  थी. अगर कहीं दुःख का माहौल होता तो वह रोने वालों को लेकर पंहुंच जाता . यहाँ  भी वह अपने रोने वालों के साथ आया था लेकिन सब को चुप करा रखा था क्योंकि  इंदिरा गांधी की मृत्यु की सूचना को अभी घोषित नहीं किया गया था. करीब दो बजे भीड़ में हरकत शुरू हुयी और ज़्यादातर लोग कहने लगे कि प्रधानमंत्री अब  जीवित नहीं हैं . इस बीच बीबीसी रेडियो पर उनकी मृत्यु की खबर आ चुकी थी. बीबीसी संवाददाता सतीश जैकब ने  इंदिरा जी की लाश देख ली थी और बीबीसी बहुत ही भरोसे के साथ खबर चला रहा था. अब तक सबको पता चल चुका था कि इंदिरा  गांधी की सुरक्षा में तैनात सिख पुलिसकर्मियों ने  ही उनको मारा था. लेकिन अस्पताल के बाहर जुटी भीड़ में सिखों की संख्या भी खासी थी . किसी को इमकान ही  नहीं था कि  अगले चार पांच घंटो के अन्दर सिखों पर कहर बरपा होने वाला है .
उन दिनों २४ घंटे का टेलिविज़न होता नहीं था. ताज़ा ख़बरों का मुख्य स्रोत टेलीफोन ही होता था. ब्राउन विश्वविद्यालय के प्रोफ़ेसर आशुतोष वार्ष्णेय उन दिनों हमारे घर के पड़ोस में ही रहते थे . वे तब एम आई टी के रोसर्च स्कालर थे , फील्ड स्टडी के लिए दिल्ली में रह रहे थे . एक स्कूटर था उनके पास . उसी स्कूटर से हम लोग  राजनीतिक दिल्ली में घूमते रहे. उन दिनों आकाशवाणी पर छः बजे हिंदी और अंग्रेज़ी समाचारों की बुलेटिन आती थी. पांच मिनट हिंदी में और पांच मिनट अंग्रेज़ी में . उसी बुलेटिन में खबर आ गयी कि  राजीव गांधी को प्रधानमंत्री पद की शपथ  दिला दी गयी है .अब सारे देश को मालूम था कि इंदिरा गांधी की मृत्यु हो चुकी है.
करीब साढ़े छः बजे हमने सफदरजंग इन्केल्व और  भीकाजी कामा प्लेस के बीच वाली सड़क पर एक सिख को पिटते देखा . आदत से मजबूर बीच बचाव करने पंहुंचा . उन लोगो ने उस सिख को गाली दी और मुझे बताया कि इसने इंदिरा जी को मार डाला . अब इस तर्क का कोई मतलब नहीं था . भागकर मैं सरोजनी नगर थाने गया . वहां का दरोगा हरमीत सिंह था . यह इमरजेंसी में हौज़ ख़ास का दरोगा रह चुका था. जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय का इलाका उन दिनों हौज़ ख़ास थाने में ही पड़ता था. इन श्रीमानजी ने हमारे कई साथियों को गिरफ्तार किया था. हरमीत सिंह ने बताया कि पूरे इलाके में सिखों को मारा  जा रहा है .फ़ोर्स भेज दी गयी है .  हम वहां से जब वापस लौट रहे थे तो हुमायूं पुर के पास एक सिख को पकड़कर लोग मार रहे थे . देखते ही देखते उसके ऊपर एक बोतल से शायद शराब या पेट्रोल फेंका और उसको जला दिया . मैं अब घबडा गया था .
रात हो चुकी थी .हम घर आ गए . समझ में आ गया था कि सब कुछ योजनाबद्ध तरीके से हो रहा है . घर के रास्ते में भी देखा कि कुछ न कुछ  हो रहा  है . सिखों के घर पहचान करके जलाए जा रहे थे .सबके मुंह पर एक ही नाम कि अर्जुन दास के लोग हैं . इंदिराजी की मौत का बदला ले  रहे हैं . मेरे घर से  थोड़ी दूर डी एल टी ए के  सामने बख्शी लिखा हुआ एक बहुत बड़ा मकान था.  उसको जलाने भी कुछ लोग पंहुचे थे लेकिन सुरक्षा वालों ने भगा दिया . शायद बाद में जला दिया क्योंकि जब हम सुबह उधर से निकले तो घर जल रहा था . हमने देखा कि उन दिनों सिखों के बारे में ज़्यादातर गैर सिख लोगों में अजीब बातें होती थीं. सिख आम तौर पर मेहनती और संपन्न होते थे लेकिन उन दिनों  उनको खालिस्तानियों के हमदर्द के रूप में देखा जाता था. एक अजीब बात यह भी थी कि मेरे मोहल्ले में ज्यादातर लोग सिखों के घरों के जलने से खुश थे . बहरहाल , सुबह मैं और आशुतोष स्कूटर पर बैठकर लाजपत नगर के विक्रम होटल के पीछे लाजपत भवन पंहुचे . वहां सर्वेन्ट्स आफ इण्डिया सोसाइटी के दफ्तर में रोमेश थापर, कुलदीप नय्यर , धर्मा कुमार , आई आई टी के प्रोफ़ेसर दिनेश मोहन ,जस्टिस राजिंदर सच्चर आदि सिख पीड़ितों को मदद पंहुचाने के काम में लगे हुए थे .पता लगा कि  जमुनापार त्रिलोक पुरी में बहुत बड़े पैमाने पर क़त्लो गारद हो रहा  है . एक टेम्पो पर कुछ राहत सामग्री रखी गयी . उसी में कुछ वालंटियर भी बैठे. वहां जाकर देखा कि सिखों के घर एक ही गली में एक तरफ हैं . कुछ घर जल चुके थे. कुछ घरों  में से  धीरे धीरे धुंआ निकल रहा था.घर भी क्या , बहुत छोटे छोटे दड़बानुमा  मकान .  वहां भी मोहल्ले के लोगों में पीड़ित लोगों के प्रति कोई ख़ास आत्मीयता नहीं थी. हमारे साथ जो सीनियर लोग थे उन्होंने  लूटमार कर रहे लोगों से बात करने की कोशिश की लेकिन ठग जैसे दिख रहे बदमाशों ने सब को डांट दिया. सड़क पर एक बुज़ुर्ग मिल  गए उन्होंने बताया कि इन लोगों को अगर रोकना है तो  केंद्रीय मंत्री एच के एल  भागत से बात करो. यह सब उनके ही आदमी हैं . यह इलाका पूर्वी दिल्ली संसदीय क्षेत्र में पड़ता है और वहां के एम पी उन दिनों भगत जी ही थे. उसके बाद क्या हुआ मुझे नहीं मालूम . एक स्कूल में पुलिस की सुरक्षा में छुपे हुए लोगों तक हमारे टेम्पो में गए लोग सहायता के लिए  लाये कपडे  , ब्रेड , दूध, दवाइयां आदि देकर बाहर आ गए.  पता लगा कि कीर्ति नगर में सबसे ज़्यादा नुक्सान हुआ है . जमुनापार से  कीर्तिनगर के रास्ते में हमने देखा  कि जनपथ होटल के पास वाले  टैक्सी स्टैंड पर  खड़ी सभी गाड़ियां जल गयी हैं . पूछने पर पता  लगा कि टैक्सी स्टैंड का लाइसेंस किसी सिख के पास था. सबसे हैरान कर देने वाला सीन रीगल बिल्डिंग में देखा.  ऊनी कपडे बनाने वाली किसी बड़ी कम्पनी की दुकान थी , वह जला दी गयी थी. लेकिन उसी बिल्डिंग में उसी कंपनी की एक दूसरी दुकान थी , उसमें कुछ नहीं हुआ था. पता लगा कि उसी दुकान वाले ने दूसरी दुकान जलवाई थी ,दूसरी दूकान का मालिक सिख था  और उनमें आपसी दुश्मनी थी.
पूरे शहर में दिन भर घूमते रहे . एक बात जो सबसे ज्यादा परेशानी पैदा कर रही थी , वह यह थी कि पुलिस कहीं भी किसी को रोक नहीं रही थी. जितनी दुकाने जला सको ,जलाओ . दूसरी बात जो हैरानी पैदा कर रही थी वह यह कि कांग्रेसी नेता इसको एक ज़रूरी काम बता रहे थे . आर एस एस वालों ने भी कहीं भी किसी को रोकने का काम नहीं किया . दिल्ली में बाद में चाहे जो हुआ हो लेकिन उस वक़्त आम तौर पर दिल्ली शहर में गैर सिख लोग इससे खुश थे . इंदिरा गांधी की मृत्यु  के बाद जो चुनाव हुआ , उसमें तो लगभग सभी पार्टियों का सफाया  हो  गया था . १९८४-८५ के लोक  सभा चुनाव में दिल्ली में कांग्रेस के अलावा अन्य पार्टियों का पूरी तरह से  सफाया हो गया . सिखों पर हुए अत्याचार को इंदिरा गांधी की उस छवि से जोड़कर देखा जा रहा था जिसके तहत वे  हिन्दुओं की पक्षधर के रूप में अपनी ख्याति बना चुकी थीं. शायद इसलिए दिल्ली के शहरी हिन्दुओं में सिखों के क़त्ले आम की वह निंदा नहीं हुयी जो होनी चाहिए थी. लोग  बेपरवाह थे .यह वही आबादी थी जिसने आपरेशन ब्ल्यू स्टार के तहत हुए अमृतसर में सेना के काम को सही ठहराया था और जरनैल सिंह भिंडरावाले से नफरत करते थे.

दिल्ली शहर में नवम्बर १९८४ में पीड़ित सिखों के साथ वही लोग खड़े थे जिनको आम तौर पर लिबरल  बुद्धिजीवी माना जाता  है . यह अलग बात  है बाद में सत्तासीन सभी वर्गों ने उनको सम्मान  से नहीं देखा  . कांग्रेस नेताओं ने लिबरल बुद्धिजीवियों को अपना दुश्मन माना . सत्ताधारी वर्गों ने सज्जन कुमार, लालित माकन, एच के एल भगत ,अर्जुन दास आदि  को ही सही माना . लिबरल पत्रकारों और बुद्धिजीवियों ने राजीव राजीव गांधी की घोर निंदा की थी क्योंकि उन्होंने कह दिया था  कि जब कोई बड़ा पेड़ गिरता है तो कुछ प्रतिक्रिया तो होती ही है.  बाद में सिख वोटों के चक्कर में बहुत सारे लोग १९८४ के निंदक बन गए लेकिन उस वक़्त यही लिबरल लोग ही नज़र आते थे. यह वही लोग हैं  जो देश पर आये हर नैतिक संकट में न्याय के साथ खड़े होते हैं लेकिन हर दौर का शासक वर्ग इनको अपना दुश्मन मानता है .
आज भी यही लिबरल लोग सत्ताधीशों की नफरत का शिकार बन रहे हैं . उनको कम्युनिस्ट कहकर गाली दी जाती है . इनकी संख्या भी धीरे धीरे कम हो रही है . जो हैं भी वे सत्ता के आतंक से डर के मारे चुप रहते हैं . देश के बड़े शिक्षा केन्द्रों पर एक तरह के लोगों का क़ब्ज़ा हो रहा है. ज़ाहिर है सोच विचार पर भी इसका असर पडेगा लेकिन यह दुआ तो की ही जा सकती है कि फिर किसी पर  वैसा कहर न टूटे जैसा दिल्ली के सिखों पर नवम्बर १९८४ में बरपा हुआ था .

Sunday, January 21, 2018

शुक्रिया एन डी टी वी , आपने मुझे नौकरी से निकाल दिया था .


शेष नारायण सिंह 

आजकल एन डी टी वी से नौकरी से हटाये गए लोगों के बारे में चर्चा है . खबर है कि कंपनी की हालत खस्ता है .करीब पंद्रह साल पहले हम भी एन डी टी वी से हटाये गए थे .जब हम हटाये गए थे तो पैसे की कमी नहीं थी. खूब पैसा था . वहां खूब विस्तार हो रहा था, स्टार न्यूज़ से समझौता ख़त्म हो गया था और नए चैनल शुरू हो रहे थे. रोज़ ही दस पांच लोग भर्ती हो रहे थे, लेकिन हमको अलविदा कह दिया गया था . मेरी बेटी की शादी तय थी ,मैंने निवेदन किया कि तीन महीने बाद शादी है , तब तक पड़ा रहने दीजिये . श्री प्रणय राय ने बात तक नहीं की. हाँ उनकी पत्नी और एन डी टी वी की असली प्रमोटर राधिका रॉय ने मुझे नार्मल से ज़्यादा कई महीने की तनखाह दिलवा दी थी. उस वक़्त समझ में नहीं आया कि क्यों हटाया गया .प्रबंधन के लोग मेरे काम से बहुत खुश थे . जिस दिन हटाया गया उसके ठीक बीस दिन पहले वाहवाही की चिट्ठी मिली थी, तनखाह में बीस प्रतिशत की बढ़ोतरी मिली थी .
बाद में पता चला कि कुछ लोगों को मुझसे निजी तौर पर दिक्क़त थी. हालांकि उन लोगों को अपने आप को मुझसे बड़ा बना लेना चाहिए था. मैं छोटा ही रह जाता लेकिन अब समझ में आ रहा है कि जिन लोगों ने मुझे हटवाया था उनकी क्षमता ही नहीं थी कि अपने को बड़ा कर सकें . नतीजा यह हुआ कि आज वहां बौनों की जमात इकट्ठा है .
शुक्रिया एन डी टी वी के मालिकों की चापलूसी करके रोटी कमाने वाले देवियों और सज्जनों , आपने मुझे वहां की नौकरी से निकलवाया . आपकी कृपा से ही मैंने और रास्ते चुने , फिर से लिखना शुरू किया , उर्दू और हिंदी में खूब छपा , लिखने के कारण ही टेलिविज़न वालों ने अपने पैनल पर बुलाना शुरू किया. आज मन में संतोष है . यह भी संतोष है कि जिन लोगों ने मुझे अपनी असुरक्षा के कारण साज़िश करके बाहर करवाया था ,उनके खिलाफ आजतक कुछ नहीं कहा .आज पहली बार अपने उस अपमान को याद करके दर्द साझा कर रहा हूँ.
अपने बच्चों की शिक्षा के लिए मैं एन डी टी वी के अज्ञानी मूर्खों और मूर्खाओं की मूर्खता को विद्वत्ता कहने के लिए अभिशप्त था ,वे अभी उसी तरह की मूर्खताओं से एन डी टी वी की टी आर पी को रसातल पर ले जा रहे हैं और अपमान की ज़िन्दगी जी रहे हैं . मेरे वही बच्चे अब अपनी अपनी रोटी कमा रहे हैं , उनको अपने माता पिता की वह ज़िंदगी याद है इसलिए वे हमें अपने घर अक्सर बुलाते हैं . उनके बच्चे जब हमको टी वी पर देखते हैं तो उनको खुशी होती है . और हमें खुशी होती है कि हमको एन डी टी वी ने नौकरी से निकाल दिया था . शुक्रिया, न्यूज़ 18इण्डिया, शुक्रिया सी एन बी सी-आवाज़ ,शुक्रिया, एबीपी न्यूज़, शुक्रिया, लोकसभा टीवी , शुक्रिया टाइम्स नाउ , शुक्रिया सैयदेन ज़ैदी ,शुक्रिया न्यूज़ नेशन ,आपने मुझे इस लायक समझा कि मैं आपके पैनल पर आ सकूं ,आपने मुझे इज्ज़त बख्शी और एक नई पहचान और आत्मविश्वास दिया .आपकी वजह से आज मैं सडक चलते पहचाना जाता हूँ.शुक्रिया देश बन्धु,  इन्कलाब, उर्दू सहाफत,उर्दू सहारा रोजनामा ,आपने  काम करने का मौक़ा दिया . 

Wednesday, January 17, 2018

जाति का विनाश,सामाजिक बराबरी का लक्ष्य और जिग्नेश मेवानी की राजनीति



शेष नारायण सिंह

भारत की राजनीतिक यात्रा में शोषित पीड़ित जनता को इज्ज़त की ज़िंदगी देने की बार बार कोशिश होती रही है. देश जातियों के खांचे में  बंटा हुआ है .जाति की संस्था इस देश को हज़ारों वर्षों से अलग अलग सांचों में बांधे हुए है . शुरू में तो वर्ण व्यवस्था थी और उसमें जन्म से जाति को तय करने की बात कहीं नहीं कही गयी थी लेकिन बाद  की सदियों में जन्म से ही जाति का निर्धरण होने लगा .उसके बाद से जाति इंसानी तरक्की के  रास्ते में बाधा बनती रही . करीब आठ सौ साल पहले जब एक आधुनिक धर्म, इस्लाम का भारत में प्रचार प्रसार हुआ तो भी यहाँ जाति का बंधन टूटा नहीं बल्कि इस्लाम अपनाने वाले भी अपनी जातियां साथ लेकर गए . मुसलमानों में भी बहुत सारी  जातियां बन गईं. दुनिया के विद्वानों का मानना  है कि इस्लाम और सिख मजहब  अपेक्षाकृत  नए धर्म हैं इसलिए इनको आधुनिक मान्यताओं को जगह देनी चाहिए थी लेकिन जाति के मसले पर यह नए धर्म  भी  भारतीय समाज की कमजोरियों को साथ लेकर ही चले  , जाति का शिकंजा  हमारे समाज के  विकास और एकजुटता में सबसे बड़ी बाधा बना रहा . जाति की सबसे बड़ी बुराइयों में छुआछूत को माना जाता है . महात्मा  गांधी ने छुआछूत को अपने आन्दोलन के प्रमुख आधारों में एक बनाया . उनके अस्सी साल पहले शुरू हुए प्रयासों को अब आंशिक सफलता मिलने लगी है . उनके समकालीन डॉ बी आर आम्बेडकर ने भी जाति के मुद्दे पर गंभीर चिंतन किया और जाति संस्था के विनाश को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक  विकास की पहली शर्त माना .  लेकिन राजनीतिक धरातल पर कहीं कुछ हुआ नहीं . डॉ  आंबेडकर के नाम पर राजनीति का धंधा करने वालों ने जाति के  विनाश की बात तो दूर उसको संभालकर बनाये रखने में ही सारा ध्यान दिया .  डॉ आंबेडकर के नाम पर वोट मांगने वाले नेताओं ने उनकी राजनीति के सबसे बुनियादी पक्ष का हमेशा विरोध किया. सवर्ण जातियों के विरोध की राजनीति से शुरुआत करके नेता लोग दलित जातियों को एकजुट करके वोट बैंक बना लेते हैं और उसके बाद उसी वोट बैंक की संख्या के आधार पर राजनीतिक सौदेबाजी करने लगते हैं . रिपब्लिकन पार्टी के विभिन्न गुटों, कांशी राम और मायावती की राजनीतिक यात्रा को देखने से तस्वीर साफ़ हो जाती है . 
आधुनिक राजनीतिक धरातल पर  दलित जाति में जन्मा एक नया राजनीतिक नेता उभर रहा  है . जिग्नेश मेवानी ने गुजरात के ऊना में दलितों पर हुए अत्याचार के बाद राजनीतिक शक्तियों को एकजुट करने का अभियान शुरू किया था. आज देश के राजनीतिक क्षितिज पर जिग्नेश मेवानी को शोषित पीड़ित जातियों की एकजुटता का केंद्र माना जाने  लगा  है . अभी  उत्तराखंड से खबर आई है कि जिग्नेश मेवानी के हल्द्वानी जाने की खबर उड़ गयी थी. जिले की पूरी पुलिस फ़ोर्स उनको तलाशने में जुट गयी . उधर जाने वाली हर गाडी की तलाश होने लगी .   दिल्ली के जन्तर मन्तर पर जिग्नेश की सभा  को तोड़ने के लिये सारी ताक़त लगा दी गयी .  ऐसा लगता है कि जाति की राजनीति को ज़बरदस्त झटका देने की किसी योजना पर काम चल  रहा है. जिस तरह से दलितों के उत्पीडन के केन्द्रों से जिग्नेश मेवानी की लोकप्रियता की ख़बरें आ रही हैं उससे लगता  है कि जाति के विनाश की राजनीति एक बार फिर राजनीतिक विमर्श के केंद्र में आने वाली  है . दलितों के नाम पर राजनीतिक लाभ लेने वाले अन्य नेता तो  जाति को बनाए रखने की ही बात करते हैं   लेकिन जिग्नेश की बातचीत में दूसरी बात निकलकर आ रही है . नैशनल दस्तक  पत्रिका को दिए गए एक इंटरव्यू में जिग्नेश मेवानी ने कहा कि," जाति के विनाश के बिनावर्ग संघर्ष एक वास्तविक वास्तविकता नहीं बन जाएगा और वर्ग संघर्ष के बिना जाति का विनाश नहीं किया जा सकता है। "  इसका मतलब यह हुआ कि जाति और वर्ण आधारित शोषण का विरोध करने वाली सभी सियासी जमातों को एकजुट करने की कोशिश इस नौजवान नेता की तरफ से की जा रही है . जिससे  जाति के विनाश की संभावना एक बार फिर बनना शुरू हो गयी है .
दुनिया भर के आधुनिक राजनीतिक और सामाजिक विचारक  मानते हैं कि जाति भारतीय समाज के विकास में सबसे बड़ी बाधा है . पिछली सदी के सामाजिक और राजनीतिक दर्शन के जानकारों में डा. बी आर आंबेडकर का नाम बहुत ही सम्मान के साथ लिया जाता है। महात्मा गांधी के समकालीन रहे डॉ आंबेडकर  ने अपने दर्शन की बुनियादी सोच का आधार जाति प्रथा के विनाश  को माना था उनको विश्वास था कि जाति के विनाश होने तक न तो राजनीतिक सुधार लाया जा सकता है और न ही आर्थिक सुधार लाया जा सकता है। The Annihilation of caste में डा.अंबेडकर ने बहुत ही साफ शब्दों में कह दिया है कि जब तक जाति प्रथा का विनाश नहीं हो जाता समतान्याय और भाईचारे की शासन व्यवस्था नहीं कायम हो सकती। जाहिर है कि जाति व्यवस्था का विनाश हर उस आदमी का लक्ष्य होना चाहिए जो अंबेडकर के दर्शन में विश्वास रखता हो। अंबेडकर के जीवन काल में किसी ने नहीं सोचा होगा कि उनके दर्शन को आधार बनाकर राजनीतिक सत्ता हासिल की जा सकती है। लेकिन कांशीराम ने अपनी राजनीति के विकास के लिए अंबेडकर का सहारा लिया और अपनी पार्टी को  उत्तर प्रदेश की सत्ता तक पंहुचाया .लेकिन डॉ अंबेडकर के नाम पर सत्ता का सुख भोगने वाली उनकी पार्टी की सरकार ने बाबासाहेब के सबसे प्रिय सिद्धांत को आगे बढ़ाने के लिए कोई क़दम नहीं उठाया .

कांशी राम और मायावती की  पिछले पचीस वर्षों की राजनीति पर नज़र डालने से समझ में आ जाता है कि उन्होंने जाति प्रथा के विनाश के लिए कोई काम नहीं किया . बल्कि इसके उलट वे जातियों के आधार पर पहचान बनाए रखने की पक्षधर बने रहे . दलित जाति की अस्मिता को तो बनाये ही रखा अन्य जातियों को भी उनकी जाति सीमाओं में बांधे रखने के लिए बड़े पैमाने पर काम किया .जब उत्तर प्रदेश में मायावती की सरकार थी तो हर जाति का भाईचारा कमेटियाँ बना दी गई थीं .डाक्टर आंबेडकर ने साफ कहा था कि जब तक जातियों के बाहर शादी ब्याह की स्थितियां नहीं पैदा होती तब तक जाति का इस्पाती सांचा तोड़ा नहीं जा सकता। चार बार मुख्यमंत्री की कुर्सी पर विराजने वाली मायावती जी ने एक बार भी सरकारी स्तर पर ऐसी कोई पहल नहीं की जिसकी वजह से जाति प्रथा पर कोई मामूली सी भी चोट लग सके.मायावती के मुख्यमंत्री रहते कई मंत्रियों से बात करने का  मौक़ा मिलता था .एक अजीब बात देखने को मिलती थी  कि मायावती सरकार के कई मंत्रियों को यह भी नहीं मालूम है कि अंबेडकर के मुख्य राजनीतिक विचार क्या हैं उनकी सबसे महत्वपूर्ण किताब का नाम क्या है। यह ठीक वैसा ही है जैसे कम्युनिस्ट पार्टी का कोई नेता मार्क्स के सिद्धांतों को न जानता होया दास कैपिटल नाम की किताब के बारे में जानकारी न रखता हो। या बीजेपी का कोई नेता सावरकर की किताब," हिंदुत्व" का नाम न जानता हो .

डॉ बी आर आंबेडकर की सबसे महत्वपूर्ण किताब The Annihilation of caste के बारे में यह जानना दिलचस्प होगा कि वह एक ऐसा भाषण है जिसको पढ़ने का मौका उन्हें नहीं मिला . लाहौर के जात पात तोड़क मंडल की और से उनको मुख्य भाषण करने के लिए न्यौता मिला। जब डाक्टर साहब ने अपने प्रस्तावित भाषण को लिखकर भेजा तो ब्राहमणों के प्रभुत्व वाले जात-पात तोड़क मंडल के कर्ताधर्ताकाफी बहस मुबाहसे के बाद भी इतना क्रांतिकारी भाषण सुनने कौ तैयार नहीं हुए। शर्त लगा दी कि अगर भाषण में आयोजकों की मर्जी के हिसाब से बदलाव न किया गया तो भाषण हो नहीं पायेगा। अंबेडकर ने भाषण बदलने से मना कर दिया। और उस सामग्री को पुस्तक के रूप में छपवा दिया जो आज हमारी ऐतिहासिक धरोहर का हिस्सा है। इस पुस्तक में अंबेडकर ने अपने आदर्शों का जिक्र किया है। उन्होंने कहा कि जातिवाद के विनाश के बाद जो स्थिति पैदा होगी उसमें स्वतंत्रताबराबरी और भाईचारा होगा। एक आदर्श समाज के लिए अंबेडकर का यही सपना था। एक आदर्श समाज को गतिशील रहना चाहिए और बेहतरी के लिए होने वाले किसी भी परिवर्तन का हमेशा स्वागत करना चाहिए। एक आदर्श समाज में विचारों का आदान-प्रदान होता रहना चाहिए।
जिग्नेश मेवानी की राजनीतिक यात्रा पर नज़र रखने की  ज़रूरत है . यह मुकम्मल तरीके से नहीं कहा जा सकता कि वे राजनीतिक विमर्श को वह दिशा दे सकेंगे जो जाति के विनाश और सामाजिक बराबरी की बुनियादी शर्त है  लेकिन उम्मीद तो फिलहाल बन  रही  है .

Thursday, January 4, 2018

अगर औद्योगिक विकास और रोज़गार नहीं बढे तो बेरोज़गार नौजवानों का असंतोष बढेगा


शेष नारायण सिंह

प्रधानमंत्री ने देश में औद्योगिकीकरण के ज़रिये रोज़गार बढ़ाने और सम्पन्नता की बात अपने २०१३-१४ के चुनावी अभियान में की थी . सरकार में आने के बाद उन्होने इस काम को पूरा करने के लिए कई तरह की पहल भी की . मेक इन इण्डियास्टार्ट अप इण्डिया ,कौशल विकासमुद्रा ,सौ स्मार्ट शहर आदि योजनायें  इसी लक्ष्य को हासिल  करने के लिए घोषित की गईं थीं .  लेकिन संबंधित विभागों विभागों के मंत्री ऐसे मिले कि कहीं कुछ  शुरू ही नहीं हो सका  . कौशल विकास के मंत्री को हटाया भी लेकिन उसके बाद भी कहीं कुछ नज़र नहीं आया. वास्तव में औद्योगिक विकास में केंद्र सरकार की भूमिका नीतियों तक ही  होती है. ज़मीन पर उनको लागू करने का काम राज्य सरकारों का होता है . ऐसा लगता  है कि या तो राज्य  सरकारों ने प्रधानमंत्री की घोषणाओं को ज़रूरी अहमियत नहीं दी या उनको पता ही नहीं था कि उद्योगों को ही विकास का इंजन बनाने से सम्पन्नता आती है और उसके लिए करना क्या है . दिल्ली से लगे हुए फरीदाबादगुरुग्रामसोनीपतगाज़ियाबादगौतमबुद्ध नगर जिलों में जो गतिविधियाँ चल रही थींवे भी लगभग ठप्प ही पड़ी हैं . नए उद्योग न लगने से माहौल में निराशा बढ़ रही  है और देश के अलग अलग क्षेत्रों से नौजवानों के असंतोष की ख़बरें आ रही हैं . गुजरात का आन्दोलन सबने देखा और अब महाराष्ट्र से भी युवकों में बड़े पैमाने पर असंतोष की ख़बरें आ रही हैं . इन घटनाओं का तात्कालिक कारण जो भी हो सबके मूल में मुख्य कारण एक ही है. बहुत बड़े पैमाने पर बेरोजगार नौजवान किसी भी विरोध प्रदर्शन के आवाहन पर मैदान ले रहे हैं . एक बार चिंगारी लग जाने के बाद आन्दोलन तरह तरह के रूप लेने लगते हैं. इनका हल समस्या की जड़ में जाकर ही पाया जा सकता है .इस संतोष को कानून और व्यवस्था की बात मानना बिलकुल गलत होता है . नौजवानों को किसी काम से लगाया जाना चाहिये  . इसके लिए राज्यों में औद्योगिक  विकास को बढ़ावा देना ज़रूरी  है .
संतोष की बात यह है कि राज्य सरकारों को यह बात समझ में आना शुरू हो गयी है .पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने बंगाल ग्लोबल समिट  २०१८ का आयोजन किया है . जनवरी के तीसरे हफ्ते में कोलकता में पूरी दुनिया के  उद्योगपतियों को आमंत्रित किया गया है . जहां उनको बंगाल में उद्योग लगाने के लिए प्रेरित किया जाएगा और स्थिर विकास और रोज़गार के अधिक से अधिक अवसर उपलब्ध करवाने के लिए प्रयास किया जाएगा . बंगाल के बाद असम में भी पहली बार ग्लोबल इन्वेस्टर समिट  का आयोजन किया जा रहा है .३ फरवरी को होने वाले इस शिखर सम्मलेन का उदघाटन ,प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी करेंगे .असम में हर १६० किलोमीटर पर एक  बड़ा आद्योगिक क्षेत्र स्थापित करने की योजना है . राज्य सरकार ने निवेश बढाने के लिए उद्योग नीति में भी ज़रूरी बदलाव कर दिया है . राज्य की चीनी नीति में भी बदलाव कर दिया गया है और उम्मीद की जा रही है कि शिखर सम्मलेन के बाद राज्य में चीनी मिलें लगेंगी और गन्ना की खेती को भी प्रोत्साहन मिलेगा .
बंगाल कभी देश की औद्योगिक गतिविधियों का केंद्र  हुआ करता था. राज्य सरकार अपनी पुरानी विरासत को फिर से  पाने की कोशिश कर रही है लेकिन असम में चाय  बागानों के अलावा और कोई ख़ास गतिविधि थी ही नहींवह नए सिरे से देश के औद्योगिक विकास के नक्शे पर नज़र आने की कोशिश कर रहा है . उत्तर प्रदेश में भी २१-२२ फरवरी को लखनऊ में इन्वेस्टर समिट होने जा रही है . दिल्ली से सटे हुए उत्तर प्रदेश सरकार के गाजियाबाद और गौतमबुद्ध नगर जिले हैं . यहाँ बहुत बड़े पैमाने पर औद्यगिक विकास के लिए बुनियादी ढांचे लगाए गए हैं .लेकिन कानून व्यवस्था और सरकारों के अल्गर्ज़ रुख के कारण कुछ ख़ास  हो नहीं पा रहा है . ज्यादातर सरकारें यही सोचती रहीं कि उद्योग लगाने वाले अपने आप दौड़े चले  आयेगें . लेकिन यह गलत सोच थी . गुजरात जैसे राज्य दुनिया भर के उद्योगपतियों को अपनी तरफ खींचने के लिए तरह तरह की सुविधाएं देते थे . लोग उन्हीं राज्यों में  जाते रहे . अपने कार्यकाल के अंतिम दो वर्षों में अखिलेश यादव ने राज्य में उद्योग लगवाने और बुनियादी ढाँचे के विकास के लिए गंभीर प्रयास किया था . करीब पचास हज़ार करोड़ के औद्योगिक निवेश के समझौते भी हुए थे लेकिन असली निवेश पांच सौ करोड़ से कम ही हुआ . उनके पास समय कम था और  उनके परिवार के लोग भी उनकी टांग पूरी तरह से खींचते रहे . अपने कार्यकाल के अंतिम  दो वर्षों में उन्होंने खुद फैसले लेने का फैसला किया . नतीजा या हुआ कि बुनियादी ढाँचे और निवेश की दिशा में कुछ अहम क़दम उठाये गए लेकिन तब तक देर हो चुकी थी.आगरा-लखनऊ सडक एक प्रमुख उदाहरण है . विधान सभा चुनाव आये और निजाम बदल गया .
उतर प्रदेश के नए मुख्यमंत्री ने राज्य में औद्योगिक विकास के लिए कुछ  क़दम उठाया है .. इसी सिलसिले में वे हैदराबादबंगलूरू और मुंबई गए थे . मुंबई में उन्होंने बाकायदा रोड शो किया . देश के बहुत बड़े उद्यमियों से मुलाक़ात की . रतन टाटामुकेश अंबानीएचडीएफसी के दीपक पारेख के अलावा कुमारमंगलम बिड़ला ग्रुपमहिंद्राएलएंडटीटोरंट ग्रुप,बजाज ग्रुप के प्रतिनिधियों ने उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से मुलाकात की और प्रदेश में निवेश में रूचि दिखाई .सभी उद्यमियों ने कानून व्यवस्था की बात को गंभीरता से उठाया क्योंकि जैसी कानून व्यवस्था गाज़ियाबाद,नोयडा और ग्रेटर नोयडा में हैं उसके सहारे तो कोई भी उद्योगपति यहाँ उद्योग नहीं लगाना चाहेगा .मुख्यमंत्री ने भरोसा दिलाया कि कानून व्यवस्था की स्थति सुधर रही है. उसको और भी मज़बूत किया जायेगा .
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आम तौर पर इस तरह के रोड शो के बाद मान लिया जाता  है कि सब ठीक   हो गया है लेकिन इस बार उत्तर प्रदेश में ऐसा नहीं हो रहा है.जो भी बातें योगी की मुंबई यात्रा के दौरान हुयी हैं उनके फालो अप के लिए एक कोर कमेटी बनाई गयी  है. इस कमेटी में उद्योग मंत्री सतीश महाना के अलावा इंडस्ट्रियल डेवलपमेंट के कमिश्नर अनूप पाण्डेय औद्योगिक विकास के प्रमुख सचिव आलोक सिन्हा और  खादी एवं  हैंडलूम के प्रमुख सचिव नवनीत सहगल को शामिल किया गया है .मुख्यमंत्री के सूचना सलाहकार मृत्युंजय कुमार ने बताया कि हर बड़े औद्योगिक केंद्र के लिए बिलकुल अलग नीतियाँ रहेंगी. उसमें किसी तरह की दुविधा नहीं है .  मुख्यमंत्री फरवरी में होने वाली इन्वेस्टर सम्मिट के लिए निजी तौर पर हर काम की निगरानी कर रहे हैं . अधिकारियों को ज़िम्मा दिया गया है कि मुख्यमंत्री से बातचीत में उद्योगपतियों ने जो वायदे किये हैं उनका सही फालो अप किया जाए .

यह सारी बातें तो पिछली सरकारों में भी होती रही हैं लेकिन ज़रूरी है कि बुंदेलखंड और पूर्वांचल के पिछड़े जिलों में बड़े पैमाने पर औद्योगिक निवेश की हालात पैदा किये जाएँ .अगर बुन्देलखंड और पूर्वांचल को प्राथमिकता दी गयी तो फर्क पडेगा और यही योगी सरकार की परीक्षा भी है . यह दोनों ही इलाके राज्य में सबसे पिछड़े और पीड़ित हैं . ग्रामीण नौजवानों की बहुत बड़ी संख्या इन्हीं इलाकों से बड़े शहरों के लिए पलायन करती है . सरकार को प्रयास करना चाहिए  कि इन क्षेत्रों में उद्योग लगाये और उसके  साथ साथ ऐसे नए शहरों की स्थापना की जाए जहां उद्योगों में काम करने वाले लोगों को शिक्षा,इलाज और यातायात की सुविधा मिल सके. खेती से सम्बंधित उद्योगों की भी बड़े पैमाने पर स्थापना होनी चाहिए जिससे किसान को खेती छोड़ कर  मजदूरी करने के लिए मजबूर  न होना पड़े. इन कार्यों के  लिए राजनीतिक इच्छा शक्ति सबसे ज़रूरी शर्त है लेकिन उनको लागू करने के लिए सक्षम नौकरशाही भी बहुत ज़रूरी है . यह देखना दिलचस्प होगा कि योगी सरकार पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर क्या राज्य के विकास के लिए ज़रूरी राजनीतिक इच्छाशक्ति जुटाकर राज्य के हित में मज़बूत फैसले ले सकती है कि नहीं . हालांकि सरकार की तरफ से यह दावा किया गया कि सब को मिलाजुला कर काम किया जा रहा है .
उत्तर प्रदेश में पिछले पचीस वर्षों में विकास की सारी योजनायें मुकामी विधायकों और सांसदों की लालच की भेंट चढ़ जाती रही हैं . गौतमबुद्ध नगर जिले में देखा गया है कि हर विकास कार्य  राजनीतिक नेताओं और दलालों की स्वार्थ की भेंट चढ़ जाता है . तर्क यह भी दिया जाता रहा है कि मायावती और अखिलेश यादव के अलावा सभी सरकारें गठबंधन सरकारें थीं इसलिए सहयोगी पार्टियों और नेताओं की मनमानी को रोकना संभव नहीं था .वर्तमान सरकार में भी पुरानी सरकारों के बहुत सारे कार्यकर्ता हिन्दू युवा वाहिनी के सदस्य के रूप में अपना धंधा शुरू करने की कोशिश कर रहे हैं . योगी सरकार को इन तत्वों पर लगाम लगाना होगा . कुछ  मंत्री और नेता अभी भी वसूली के काम में पहले की तरह की लग गए हैं .इन लोगों को भी काबू में करना पडेगा .अगर सही औद्योगिक विकास का इंजन मुख्यमंत्री की निजी निगरानी में चल पडेगा तो राज्य में आर्थिक विकास  की संभावना बढ़ेगी और छोटे मोटे दलाल और नेता खुद ही शांत हो जायेगें . राज्य सरकार को यह समझना पडेगा कि तेज़ औद्योगिक विकास के बिना न तो बेरोजगारी की समस्या ख़त्म होगी और न ही आम नागरिक का जीवन सुगम होगा .और अगर  नौजवानों में बेरोजगारी की समस्या ख़त्म न हुयी तो असंतोष की जो ज्वाला महाराष्ट्र में देखने को मिली है वह उत्तर प्रदेश में भी देखी जायेगी . शिक्षा माफिया , नक़ल माफिया आदि से भी राज्य को मुक्त कराना पडेगा . इस तरह के ज़्यादातर अपराधी देश के भविष्य के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं . इनको हर हाल में नेस्तनाबूद करना पड़ेगा . यह  आसान नहीं है क्योंकि शिक्षा माफिया तो ज्यादातर सत्ताधारी पार्टी और विपक्षी पार्टी के नेता ही हैं . इनकी गतिविधियों के कारण जो बच्चे यहाँ से शिक्षा लेकर काम की तलाश में निकलते हैं , उनको कहीं काम नहीं मिलता. इसलिए औद्योगिक विकास से रोज़गार पैदा करने के साथ साथ समाज में शिक्षा के नाम पर हो रही ठगी को भी रोकना होगा .

उत्तर कर्नाटक में किसानों का आन्दोलन ९०० दिन से लगातार जारी


शेष नारायण सिंह

बंगलूरू ,२ जनवरी . उत्तर कर्नाटक के गदग जिले के नारगुंड में चल रहे किसानों का संघर्ष ९०० दिन से अधिक से लगातार जारी है. महादायी नदी के पानी में  कर्नाटक के अधिकार को लेकर चल रहा आन्दोलन राज्य के इतिहास में सबसे अधिक समय तक चलने वाला किसान आन्दोलन है .किसानों ने नए साल पर संकल्प लिया है कि जब तक मामले का संतोषजनक हल नहीं हो जाता ,संघर्ष जारी रहेगा .
कर्नाटक रैयत सेना के अध्यक्ष वीरेश सोबरदमथ का कहना है कि किसानों की एक ही मांग है कि गोवा और महाराष्ट्र की ओर से कलसा-बन्दूरी नहर प्रोजेक्ट में पड़ रहे अड़ंगे का हल निकाल लिया जाए . जिससे ७.५ टी एम सी पानी  मलप्रभा नदी में डाला जा सके .कई दशक से सूखा पड़ रहा है और सरकार से किसी तरह की मदद नहीं मिल रही है  . कर्नाटक रैयत सेना इस आन्दोलन की अगुवाई कार रही  है . वीरेश सोबरदमथ का कहना है कि २००९ की बाढ़ के बाद उत्तर कर्नाटक में जो सूखा  पड़ा उसने किसानों को तबाह कर दिया . पानी के बंटवारे को लेकर नेताओं की बेरुखी ने  किसानों को कहीं का नहीं छोड़ा है .उनका दावा है कि उनको संघर्ष का रास्ता  मजबूरी में अपनाना पड़ा है .  किसानों का दावा है कि अगर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने किसानों की मांग पर सकारात्मक रुख अपनाया होता और गोवा ,महारष्ट्र और कर्नाटक के मुख्यमंत्रियों के बीच एक सर्वमान्य हल निकलवाया होता तो समस्या कभी की हल हो चुकी होती .

कर्नाटक विधानसभा चुनाव में नदी जल बंटवारा भी एक मुद्दा


शेष नारायण सिंह 

बंगलूरू, ३० दिसंबर. कर्णाटक में चुनाव में जातियां प्रमुख भूमिका निभाती हैं ,लेकिन इस बार  गोवा और कर्नाटक के बीच में महादायी नदी के पानी के बंटवारे को मुख्यमंत्री सिद्दिरमैया ने बड़ा मुद्दा बना दिया है . राज्य के पांच उत्तरी  जिलों में यह विवाद राजनीति का मुख्य मुद्दा है . गदग,धारवाड़ बेलगावी ,हावेरी,और बागलकोट जिलों की पानी की ज़रूरत को पूरा करने में महादायी नदी का बड़ा योगदान है .इन राज्यों में बाक़ायदा बंद का नारा दिया गया ज बहुत ही सफल रहा . गोवा सरकार और उसके मुख्यमंत्री मनोहर पर्रीकर के खिलाफ हुए इस बंद में किसान संगठनों की मुख्य भूमिका थी लेकिन फिल्म उद्योग सहित और भी कई संगठनों ने बंद का समर्थन किया .

महादायी नदी को  गोवा में मंडोवी नदी कहते हैं . दोनों राज्यों के बीच तीस साल से पानी के बंटवारे के बारे में विवाद चल रहा है . बात बहुत बढ़ गयी जब २००२ में कर्नाटक के तत्कालीन मुख्यमंत्री एस एम कृष्णा ने महादायी की दो सहायक  नदियों पर बाँध बना कर सूखा प्रभावित उत्तर कर्नाटक के जिलों के लिए पानी का इंतज़ाम करने के लिए बाँध बनाने का फैसला किया . केंद्र की अटल बिहारी बाजपेयी सरकार ने मंजूरी भी दे दी लेकिन गोवा के मुख्यमंत्री ने अडंगा लगा दिया . मनोहर पर्रीकर ही तब भी मुख्यमंत्री थे.

कर्णाटक के मुख्यमंत्री सिद्दिरमैया ने आरोप लगाया है कि गोवा के भाजपाई मुख्यमंत्री पानी नहीं दे रहे हैं और राज्य के बीजेपी नेता कुछ भी नहीं कर रहे हैं . उनका आरोप  है कि पानी की कमी के लिए बीजेपी ही ज़िम्मेदार है. उत्तर कर्णाटक में चल  रहे आन्दोलन के नेता भी मुख्यमंत्री की बात को सही मान रहे  हैं .वे भी बीजेपी के कर्णाटक अध्यक्ष बी एस येदुरप्पा को ही सारी मुसीबत के लिए ज़िम्मेदार साबित करने की कोशिश का रहे हैं .येदुरप्पा के नाम गोवा के मुख्यमंत्री ने एक चिट्ठी भी लिख दी है लेकिन आन्दोलन कारी कहते हैं कि किसी पार्टी नहीं राज्य सरकार के पास चिट्ठी आनी चाहिए थी. चुनाव नतीजों पर महादायी नदी का पानी एक अहम भूमिका निभाने वाला है . आज बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह बेंगलूरू पंहुच रहे हैं उनका राज्य के नेताओं से बेंगलूरू में मिलकर चुनाव की तैयारी की समीक्षा की योजना है. दस जनवरी से वे यहाँ सघन अभियान चलाने वाले हैं.  अमित शाह चुनाव जीतने की कला  के ज्ञाता हैं . चर्चा यह भी है कि क्या वे गुजरात की तरह वे कर्णाटक में भी जीत दर्ज कर  पाते हैं कि नहीं .

कर्नाटक विधानसभा चुनाव येदुरप्पा और सिद्दिरमैया की हैसियत का पैमाना होगा



शेष नारायण सिंह  


गुजरात के बाद अगला बड़ा चुनाव कर्णाटक विधान सभा का होगा . चुनाव की तैयारी
  पूरी शिद्दत से शुरू ही गयी है . बीजेपी ने भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों के बाद  तत्कालीन मुख्यमंत्री येदुरप्पा को हटा दिया था  लेकिन अब उनके पास ही राज्य में पार्टी की कमान थमा है . पार्टी में भारी मतभेद हैं  लेकिन  पार्टी अध्यक्ष अमित शाह ने उम्मीद का दिया जला दिया है . अमित शाह मूल रूप से आशावादी हैं . उन्होंने आशा की किरण तो  त्रिपुरा और केरल में भी दिखाना शुरू कर दिया है कर्नाटक में तो खैर उनकी अपनी सरकार रह चुकी है .अब  बीजेपी को राजनीतिक जीवन में शुचिता भी बहुत ज़्यादा नहीं चाहिए क्योंकि हाल के यू पी और उत्तराखंड के  विधानसभा चुनावों में पार्टी ने कांग्रेस सहित विपक्षी पार्टियों के उन नेताओं को टिकट दिया और मंत्री बनाया जिनके खिलाफ बीजेपी के ही प्रवक्ता  गंभीर भ्रष्टाचार के आरोप लगाते रहते तह. गोवा और मणिपुर में भी जिस स्टाइल में सरकारें बनायी  गयींवह भी बीजेपी की पुरानी वाली शुचिता की राजनीति से बहुत दूर माना जा रहा है . इस पृष्ठभूमि में जब दोबारा येदुरप्पा को कर्नाटक की पार्टी सौंपने का  फैसला आया तो कोई ख़ास चर्चा नहीं हुयी.कर्नाटक की प्रभावशाली जाति लिंगायत से आने वाले  येदुरप्पा का प्रभाव राज्य में है .पार्टी को उम्मीद है कि लिंगायत समूह का साथ तो मिल ही जाएगा और अगर पार्टी के अन्य बड़े नेता ईश्वरप्पा का जातिगत असर चल गया तो अच्छी संख्या में समर्थन मिल जाएगा  . यह देखना दिलचस्प कि कुरुबा जाति के ईश्वरप्पा  की ही बिरादरी के मुख्यमंत्री सिद्दिरमैया भी हैं . उनकी जाति की संख्या खासी है .जाति के दोनों नेता आमने सामने हैं ,नतीजों पर इस का भी असर पडेगा .

विधान सभा चुनावों की तैयारी सिद्दिरमैया ने बहुत पहले से शुरू कर दी थी  . उन्होंने दलितों को अपने कार्यकाल की शुरुआत से ही साधना शुरू कर दिया था. दलितों के लाभ के लिए मुख्यमंत्री ने २०१७ के बजट में  ही  बहुत सारी योजनायें लागू कर दी थीं .बजट के बाद भी ऐसी योजनाओं की घोषणा की जिसके तहत जून २०१७ में ही दलितों के लिए बहुत सारी योजनायें तुरंत प्रभाव से लागू की कर दी गईं . सरकारी संस्थाओं में उच्च शिक्षा प्राप्त कर रहे दलित छात्रों को मुफ्त में लैपटाप तो पहले से ही था अब  निजी स्कूल कालेजों में पढने वाले  दलित छात्रों को भी यह सुविधा दी जा रही है .दलित छात्रों को   बस पास बिलकुल मुफ्त में मिलता है.  . दलित जाति के लोगों को ट्रैक्टर या टैक्सी खरीदने पर  दो लाख रूपये की सब्सिडी  मिलती थी ,उसको अब  तीन लाख कर दिया गया है . ठेके  पर काम करने वाले गरीब मजदूरों पौरकार्मिकोंको अब तक रहने लायक घर बनाने के लिए  दो लाख रूपये का अनुदान मिलता था,अब उसे चार लाख कर दिया गया है .  यह सब काम डेढ़ साल पहले से ही योजनाबद्ध तरीके से किया जा रहा है .

कर्णाटक में  माना जाता था कि वोक्कालिगा और लिंगायतसंख्या के हिसाब से  प्रभावशाली जातियां हैं . सत्ता में आने के बाद मुख्यमंत्री सिद्दिरमैया  ने जाति के आधार पर जनगणना करवाई . इस जनगणना के नतीजे सार्वजनिक नहीं किये जाने थे लेकिन करीब दो साल पहले  कुछ पत्रकारों के मार्फ़त यह जानकारी सार्वजनिक कर दी गयी  . सिद्दिरामैया की जाति के लोगों की संख्या ४३ लाख यानी करीब ७ प्रतिशत बतायी गयी . यह जानकारी अब पब्लिक डोमेन में आ गयी है जिसको सही माना जा रहा है. इस नई जानकारी के  बाद कर्णाटक की चुनावी राजनीति का हिसाब किताब बिलकुल नए सिरे से शुरू हो गया है .नई जानकारी के बाद लिंगायत ९.८ प्रतिशत और वोक्कालिगा ८.१६ प्रतिशत रह गए हैं .  कुरुबा ७.१ प्रतिशत मुसलमान १२.५ प्रतिशत ,  दलित २५ प्रतिशत ( अनुसूचित  जाती १८ प्रतिशत और अनुसूचित जन जाति ७ प्रतिशत ) और ब्राह्मण २.१ प्रतिशत की संख्या में राज्य में रहते हैं .
अब तक कर्नाटक में माना जाता था कि लिंगायतों की संख्या १७ प्रतिशत है और वोक्कालिगा १२ प्रतिशत हैं . इन आंकड़ों को कहाँ से निकाला गया ,यह किसी को पता नहीं था लेकिन यही आंकड़े चल रहे थे और सारा चुनावी विमर्श इसी पर केन्द्रित हुआ करता था  . नए आंकड़ों के आने के बाद सारे समीकरण बदल गए हैं .  इन आंकड़ों की विश्वसनीयता पर भी सवाल राज्य की प्रभावशाली जातियों ने सवाल उठाये हैं लेकिन यह भी सच है कि दलित  नेता इस बाद को बहुत पहले से कहते  हैं . दावा किया जाता रहा है कि अहिन्दा ( अल्पसंख्यक,हिन्दुलिदा यानी ओबीसी  और दलित )  वर्ग एक ज़बरदस्त समूह है . जानकार मानते हैं  कि  समाजवादी सिद्दिरामैया ने चुनावी फायदे के लिए अहिन्दा का गठन गुप्त रूप से करवाया  है . मुसलमान दलित और सिद्दिरामैया की अपनी जाति कुरुबा मिलकर करीब ४४ प्रतिशत की आबादी बनते हैं .  जोकि मुख्यमंत्री के लिए बहुत उत्साह का कारण हो सकता है .इसीलिये दलितों को साथ लेने के लिए मुख्यमंत्री ने अपने कार्यकाल के शुरू से ही कई योजनाओं को लागू किया था .

जातियों के आधार पर चुनाव के गणित को उत्तर प्रदेश विधानसभा के लिए हुए चुनावों में बुरी तरह से चुनौती मिल चुकी है .वहां नरेंद्र मोदी की लहर में सभी जातियों के कुछ लोगों ने बीजेपी को  वोट दिया लेकिन  कर्नाटक में ऐसी कोई लहर नहीं दिख रही है . ज़ाहिर है यहाँ विकास और राज्य स्तर के मुद्दे चुनाव को प्रभावित करेंगे .

जातियों के इस भ्रम जाल में एक और मुद्दा पूरी गंभीरता से चुनाव में शामिल हो गया है . गोवा और कर्नाटक के बीच में महादायी नदी के पानी के बंटवारे पर आजकल राज्य में ज़बरदस्त राजनीति चल रही है . राज्य के पांच उत्तरी  जिलों में यह विवाद राजनीति का मुख्य मुद्दा है . गदग,धारवाड़ बेलगावी ,हावेरी,और बागलकोट जिलों की पानी की ज़रूरत को पूरा करने में महादायी नदी का बड़ा योगदान है .इन राज्यों में बाक़ायदा बंद का नारा दिया गया ज बहुत ही सफल रहा . गोवा सरकार और उसके मुख्यमंत्री मनोहर पर्रीकर के खिलाफ हुए इस बंद में किसान संगठनों की मुख्य भूमिका थी लेकिन फिल्म उद्योग सहित और भी कई संगठनों ने बंद का समर्थन किया .

महादायी नदी को  गोवा में मंडोवी नदी कहते हैं . दोनों राज्यों के बीच तीस साल से पानी के बंटवारे के बारे में विवाद चल रहा है . बात बहुत बढ़ गयी जब २००२ में कर्नाटक के तत्कालीन मुख्यमंत्री एस एम कृष्णा ने महादायी की दो सहायक  नदियों पर बाँध बना कर सूखा प्रभावित उत्तर कर्नाटक के जिलों के लिए पानी का इंतज़ाम करने के लिए बाँध बनाने का फैसला किया . केंद्र की अटल बिहारी बाजपेयी सरकार ने मंजूरी भी दे दी लेकिन गोवा के मुख्यमंत्री ने अडंगा लगा दिया . मनोहर पर्रीकर ही तब भी मुख्यमंत्री थे.

कर्णाटक के मुख्यमंत्री सिद्दिरमैया ने आरोप लगाया है कि गोवा के भाजपाई मुख्यमंत्री पानी नहीं दे रहे हैं और राज्य के बीजेपी नेता कुछ भी नहीं कर रहे हैं . उनका आरोप  है कि पानी की कमी के लिए बीजेपी ही ज़िम्मेदार है. उत्तर कर्णाटक में चल  रहे आन्दोलन के नेता भी मुख्यमंत्री की बात को सही मान रहे  हैं .वे भी बीजेपी के कर्णाटक अध्यक्ष बी एस येदुरप्पा को ही सारी मुसीबत के लिए ज़िम्मेदार साबित करने की कोशिश का रहे हैं .येदुरप्पा के नाम गोवा के मुख्यमंत्री ने एक चिट्ठी भी लिख दी है लेकिन आन्दोलन कारी कहते हैं कि किसी पार्टी नहीं राज्य सरकार के पास चिट्ठी आनी चाहिए थी. चुनाव नतीजों पर महादायी नदी का पानी एक अहम भूमिका निभाने वाला है . दिसम्बर के अंतिम दिन बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह का राज्य के नेताओं से बेंगलूरू में मिलकर चुनाव की तैयारी की समीक्षा की योजना है. दस जनवरी से वे यहाँ सघन अभियान चलाने वाले हैं.  अमित शाह चुनाव जीतने की कला  के ज्ञाता हैं . देखना होगा कि गुजरात की तरह वे कर्णाटक में भी जीत दर्ज कर  पाते हैं कि नहीं .

चुनाव अभियान शुरू हो गया है लेकिन अभी चर्चा में पूर्व प्रधानमंत्री एच डी देवेगौडा की पार्टी का ज़िक्र बहुत कम आ रहा है . उनके बेटे एच डी कुमारस्वामी मज़बूत नेता रहे हैं मुख्यमंत्री भी रह चुके हैं लेकिन अब लगता है कि अमित शाह के पूरे समर्थन से मैदान में आये येदुरप्पा और कांग्रेस की अकेली उम्मीद सिद्दिरमैया के बीच होने जा रहे चुनाव में वे या तो वोटकटवा साबित होंगें या किसी के साथ मिल जायेगें .