Wednesday, January 7, 2015

मई से अब तक दुनिया में पेट्रोल की कीमतें आधी हो गयीं लेकिन आम आदमी के हाथ कुछ नहीं आया


शेष नारायण सिंह 
नयी दिल्ली, ६ जनवरी .कच्चे तेल की कीमतों में गिरावट का सिलसिला जारी है . मई में अंतर राष्ट्रीय बाज़ार में पेट्रोलियम के दाम कम होना शुरू हुए थे और अब पचास प्रतिशत से ज़्यादा कमी आ चुकी  है . अमरीका में आम आदमी खुशियाँ मना रहा है . पिछले छः महीनों में अमरीकी उपभोक्ता को नब्बे अरब डालर का  लाभ हो चुका है . चीन ,जर्मनी और फ्रांस में जी डी पी में करीब एक प्रतिशत की वृद्धि हुयी है क्योंकि पेट्रोल और उस से जुडी अन्य चीज़ों की कीमतें घट गयी हैं और अर्थव्यवस्था के हर क्षेत्र में जश्न का माहौल है . भारत में भी आयात बिल का सबसे बड़ा हिस्सा कच्चे तेल के मद में ही जाता है .यहाँ भी तील की कीमतों को बहुत ही कम हो जाना चाहिए था लेकिन कहीं दो चार रूपये पेट्रोल और डीज़ल की कीमतें घटा दी जा रही हैं ,बाकी  पेट्रोल और डीज़ल का कारोबार करने वाली कम्पनियां खूब लाभ कमा रही हैं .यह कंपनियां आम आदमी को जो थोडा बहुत लाभ  दे भी रही  हैं वह  एक्साइज़ टैक्स बढ़ाकर सरकार वापस ले ले रही है . समझ  में नहीं आता कि अच्छे दिन का वादा करके सत्ता में आई सरकार आम आदमी को राहत न देकर तेल कंपनियों की पक्षधरता क्यों कर रही है .
.कच्चे तेल की पिछले छः महीनों में लगातार घट रही कीमतों के कारण पेट्रोलियम का निर्यात करने वाले कुछ छोटे देश तबाही के कगार पर भी आ गए हैं . पश्चिम एशिया और उत्तरी और पश्चिमी अफ्रीका के कुछ देश अपनी सारी अर्थव्यवस्था का संचालन पेट्रोलियम उत्पादनों से करते हैं . उनके सामने बहुत मुश्किल आने वाली है . कांगो रिपब्लिक, गिनी, और अंगोला का सारा जी डी पी और सरकार की सारी आमदनी  कच्चा तेल बेच कर आती है . यह छोटे देश छः महीने में हे एताबाह हो चुके हैं . इनकी अर्थव्यवस्था पूरे इतरह से कमज़ोर पड़ गयी है . रोटी पानी की तकलीफें शुरू हो गयी हैं . लेकिन दुनिया भर में उपभोक्ता खुश है . लेकिन भारत में पता नहीं किस तरह की अर्थव्यवस्था का प्रबंधन चल रहा है कि कच्चे तेल की कीमतों हो रही भारी गिरावट का लाभ आम आदमी तक क्यों नहीं पंहुंच रहा  है . 

बेरोजगारी,महंगाई और काले धन के मुद्दों को नज़र अंदाज़ नहीं कर सकती सरकार



शेष नारायण सिंह

नरेंद्र मोदी सरकार अब अपने अगले साल में प्रवेश कर गयी है .हालांकि अभी साल पूरा नहीं हुआ है लेकिन कैलेण्डर में साल बदल गया है . अब साल चार बाद चुनाव होंगें . नरेंद्र मोदी ने करीब पौने दो साल पहले अपने आपको प्रधानमंत्री के रूप में पेश करने की कोशिश शुरू की थी . उसके बाद का सारा समय उनकी  सफलताओं के नाम दर्ज है . करीब एक साल तक चले चुनाव अभियान के दौरान उन्होंने देश में आर्थिक विकास लाने के बहुत बड़े बड़े वायदे किये थे .बेरोजगारी से जूझ रहे देश के ग्रामीण इलाकों के नौजवानों को उन्होंने रोज़गार का वायदा किया था . नरेंद्र मोदी के अभियान की ताक़त इतनी थी कि उनकी बात देश के दूर दराज़ के गाँवों तक पंहुंची और उनकी बात का विश्वास किया गया . शहरी गरीब और मध्यवर्ग को भी नरेंद्र मोदी ने प्रभावशाली तरीके से संबोधित किया . उन्होने कहा कि वह बेतहाशा बढ़ रही कीमतों पर लगाम लगा देगें .रोज़ रोज़ की महंगाई के कारण मुसीबत का शिकार बन चुके शहरी मध्यवर्ग और गरीब आदमी को भी लगा कि अगर मोदी की राजनीति के चलते महंगाई से निजात पाई जा सकती है  तो इनको भी आजमा लेना चाहिए . पूरे देश के गरीब और मध्यम वर्ग के परिवारों को नरेंद्र मोदी के भाषणों की उस बात पर भी विश्वास हो गया जिसमें वे कहते थे की देश का बहुत सारा धन विदेशों में जमा है जिसको वापस लाया जाना चाहिए. मोदी जी ने बहुत ही भरोसे से लोगों को विश्वास दिला दिया था कि अगर विदेशों में जमा काला धन वापस आ गया तो हर भारतीय के हिस्से १५ से २० लाख रूपये अपने आप आ जायेगें . उनकी इस बात का भी विश्वास जनता ने किया . शुरू के छः महीने तो कहीं से कोई आवाज नहीं आयी लेकिन अब इन तीनों ही मुद्दों पर नरेंद्र मोदी की सरकार से सवाल पूछे जा रहे हैं.

इस बीच केंद्र सरकार ने कुछ ऐसे क़दम  भी उठाये हैं जिनको विवादस्पद कहा जा  सकता है . आर एस एस और उसके सहयोगी संगठनों की जवाहरलाल नेहरू के प्रति दुर्भावना के चलते बहुत सारे ऐसे काम किये जा रहे हैं जो नेहरू से जोड़कर देखे जाते हैं . इनका सबसे ताज़ा उदाहरण योजना आयोग से सम्बंधित है . प्रधानमंत्री ने लाल किले से १५ अगस्त को दिए गए अपने भाषण में योजना आयोग को ख़त्म करने का ऐलान कर दिया था . अब पता लगा है कि केवल उसका नाम बदला जा रहा है . नीति आयोग का नाम धारण कर चुके  योजना आयोग का पुराना तंत्र ही कायम रहने वाला  है . हाँ यह संभव है कि कुछ मामूली फेर बदल उसके संगठन के स्वरुप को में कुछ नया कर दिया जाए. प्रधानमंत्री ने महंगाई ,बेरोजगारी और काले धन के मुद्दों पर अपने चुनावी वायदों को बदलाव की आंच में सेंकना शुरू कर दिया है . लगता है कि उनकी इच्छा है कि उनके चुनावी वायदों को जनता या तो भूल जाए या प्रधानमंत्री पद पर आसीन होने के बाद उन्होने इन वायदों की नई व्याख्या करने की जो योजना बनाई है , उसको स्वीकार कर लिया जाए.  जिस काले धन के मुद्दे पर नरेंद्र मोदी खुद और उनके बहुत बड़े समर्थक बाबा रामदेव ने कांग्रेस विरोधी माहौल को ज़बरदस्त ताकत दी थी , उसी  काले धन के बारे में प्रधान मंत्री का रुख एकदम बदल गया है . चुनाव के पहले वे कहते थे कि विदेशों में कुछ लाख करोड़ रूपये काले धन के रूप में जमा  हैं और अब उन्होंने कहना शुरू कर दिया है कि किसी को नहीं पता कि विदेशों में कितना काला धन है . उनके प्रवक्ताओं और समर्थकों  के बीच भी अगर काले धन का कोई ज़िक्र किया जाए तो वे लोग नाराज़ हो जाते हैं . ऐसा लगता है कि काले धन के मुद्दे पर सरकार निश्चित रूप से प्रधानमंत्री के चुनावी वायदों को भुलाने की कोशिश कर रही है . संसद में भी काले धन पर सरकारी बयान वही है जो कांग्रेस की सरकार का हुआ करता था. ज़ाहिर है कि इस तरह के रुख से प्रधानमंत्री की उस विश्वसनीयता पर आंच आयेगी जो चुनाव अभियान के दौरान बनी थी और जनता ने उनके ऊपर  विश्वास करके उनके हाथ में सत्ता सौंप दी थी.
चुनाव अभियान के दौरान प्रधान मंत्री ने आर्थिक विकास को मुख्य मुद्दा  बनाया था. उसी के सहारे बेरोजगारी ख़त्म करने की बात भी की थी. सरकार में आने पर पता चला कि उनकी आर्थिक विकास की दृष्टि में देश को मैनुफैक्चरिंग हब बनाना बुनियादी कार्यक्रम है . प्रधानमंत्री की योजना यह है कि देश भर में कारखानों और  फैक्टरियों में का जाल बिछा दिया जाए . अर्थशास्त्र का कोई भी विद्यार्थी बता देगा कि यह बिलकुल सही सोच है . प्रधानमंत्री के इस कार्यक्रम का  स्थाई भाव यह है कि विदेशी कम्पनियां भारत में बड़े पैमाने पर  निवेश करेगीं और चीन की तरह अपना देश भी पूरी  दुनिया में कारखानों के देश के रूप में  स्वीकार कर लिया जाएगा . उनकी इस योजना में भी देश में कारखाने लगाने का माहौल बनाने की बात सबसे प्रमुख है .  सभी जानते हैं कि जहां कारखाने लगाए जाने हैं ,उस राज्य की कानून व्यवस्था सबसे अहम् पहलू है .  महाराष्ट्र और गुजरात में तो कानून व्यवस्था ऐसी है जिसके आधार पर कोई विदेशी कंपनी वहां पूंजी निवेश की बात सोच सकती है लेकिन दिल्ली के आसपास के राज्यों की कानून व्यवस्था ऐसी बिलकुल नहीं है कि वहां कोई विदेशी कंपनी चैन से कारोबार कर सके. उसको भी ठीक करना होगा और जल्दी करना होगा क्योंकि नरेंद्र मोदी को केवल पांच साल के लिएही चुना गया है . लेकिन देश के राजनीतिक माहौल के सामने यह कानून व्यवस्था की बात भी गौड़ हो जाती  है . विदेशी पूंजीपति और देशी उद्योगपतियों की एक मांग रही है कि उनको मौजूदा श्रम कानूनों से उनको छुट्टी दिलाई जाए  यानी श्रम कानून ऐसे हों कि वे जब चाहें कारखाने में काम करने वाले मजदूरों को नौकरी से हटा सकें . अभी के कानून ऐसे हैं कि पक्के कर्मचारी को हटा पाना बहुत ही मुश्किल होता  है . किसी भी सरकार के लिए  उद्योग लाबी की इस मांग को पूरा कर पाना बहुत ही मुश्किल होगा  लेकिन स्पष्ट बहुमत की मौजूदा सरकार ने इस दिशा में  काम करना शुरू कर दिया है . इसके इसके नतीजे जो भी होंगें उनका सामना तो कई साल बाद करना होगा . सरकार की योजना है कि तब तक इतनी सम्पन्नता आ चुकी होगी कि लोग पुराने श्रम कानूनों पर बहुत निर्भर नहीं करेगें.  उद्योगपतियों  की दूसरी मांग रहती है कि जहां भी उनके कारखाने लगाए जाएँ वहां उनको ज़मीन सस्ती , बिना  किसी झंझट और इफरात  मात्रा में मिल जाए. अंग्रेजों के ज़माने का पुराना भूमि  अधिग्रहण कानून इसी तरह का था लेकिन राजनीतिक दबाव के चलते डॉ मनमोहन सिंह की सरकार ने उसमें ज़रूरी बदलाव किया था. उस बदलाव में बीजेपी की भी सहमति थी . उद्योगपति लाबी ने इन बदलावों को नापसंद  किया था . आर्थिक विकास को रफ़्तार देने के लिए नरेंद्र मोदी की सरकार ने उसको बदलने के मन बना लिया लेकिन संसद से मंजूरी की संभावना नहीं थी क्योंकि किसी भी  राजनीतिक पार्टी के लिए किसी भी किसान विरोधी कानून को समर्थन दे पाना बिलकुल असंभव है . इसलिए सरकार ने अध्यादेश के ज़रिये पूंजीपति लाबी की यह इच्छा पूरी कर दी है .  यह अलग बात है की संसद के सत्र के पूरा होने के अगले ही हफ्ते में ऐसा कानून अध्यादेश से लाने की ज़रूरत को सरकार की हताशा ही माना जायेगा. इस कानून की  विश्वसनीयता भी सवालों के घेरे में रहेगी . अध्यादेश के ज़रिये बीमा कानून को भी सरकार ने बदल दिया है . उसमें विदेशी कम्पनियों को ज़यादा सुविधा और अधिकार देने का प्रावधान है . सरकार को उम्मीद  है कि इन  कानूनों के बाद सब कुछ बदल जायेगा और विदेशी पूंजीपति भारत में उसी तरह से जुट पडेगा जिस तरह से चीन में जुट पडा है . यह तो वक़्त ही बताएगा कि ऐसा होता है कि नहीं . नरेंद्र मोदी सरकार का आर्थिक विकास  का जो माडल देश के सामने पेश किया गया है उसमें विदेशी पूंजी का बहुत महत्व  है . विदेशी पूंजी  के सहारे देश में आद्योगिक मजबूती लाकर  बेरोजगारी ख़त्म करने का प्रधानमंत्री का चुनावी वायदा इसी बुनियाद पर आधारित है .
कुल मिलाकर यह भरोसे के साथ कहा जा सकता है कि महंगाई, बेरोजगारी और काला धन के बुनियादी नारे को लागू करने की प्रधानमंत्री की इच्छा पर कोई सवाल नहीं उठाया जा सकता लेकिन यह भी सच है कि आठ महीने की नरेंद्र मोदी की सरकार ने अभी ऐसा कोई कदम नहीं उठाया है जिससे याह नज़र आये कि महंगाई और बेरोजगारी को ख़त्म करने की दिशा में कोई ज़रूरी पहल भी हो रही है . बल्कि इसका उलटा हो रहा है . पूरी दुनिया में  कच्चे तेल की कीमत  कम हो रही है . लेकिन भारत में उसका पूरा लाभ आम आदमी तक  नहीं पंहुंच रहा है . डीज़ल की कीमतें इतनी कम हो गयी हैं कि अर्थव्यवस्था और आम आदमी की जेब पर उसका असर साफ़ नज़र आने लगता लेकिन सडक बनवाने के नाम पर सरकार  ने एक्साइज टैक्स बढ़ाकर उसको  वापस लेने  का फैसला कर लिया है. अगर विदेशी बाज़ार में कम हुयी कच्चे तेल को सरकार ने बाज़ार में जाने दिया  होता तो इस से निश्चित रूप से महंगाई पार काबू किया जा सकता था .
सबको मालूम है की सरकारों को वायदा पूरा करने में समय लगता है  लेकिन नरेंद्र मोदी सरकार के काम में अड़ंगा लगाने के लिए उनके अपने सहयोगी ही सक्रिय हो गए हैं . धर्म परिवर्तन और घर वापसी जैसे गैर ज़रूरी मसलों पर आर एस एस के कुछ सहयोगी संगठन पूरी मजबूती से जुट गए हैं . आर एस एस के प्रमुख ने बहुत जल्द हिनूद राष्ट्र की स्थापना की संभावना की बात करके मामले को और तूल दे दिया है .बात यहाँ तह बिगड़ रही है कि  समाज में बिखराव के संकेत साफ़ नज़र आने  लगे हैं . खतरा  यह भी  है कि कहीं दंगों जैसा माहौल न बन जाए .ज़ाहिर है कि अगर समाज  में बिखराव के संकेत दिखने लगे तो केंद्र सरकार को आर्थिक विकास के कार्यक्रम लागू करने में भारी परेशानी आयेगी. और अगर आर्थिक विकास ,बेरोजगारी,महंगाई और काले धन के मुद्दों को सरकार नज़र अंदाज़ करेगी तो उसके सामने अस्तित्व का संकट आ जाएगा .

Thursday, January 1, 2015

जाति की राजनीति को बदलने की बीजेपी की कोशिश को नीतीश की चुनौती



शेष नारायण सिंह

नई दिल्ली ,२९ दिसंबर . झारखण्ड के मुख्यमंत्री की जाति को मुद्दा बनाकर बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने अपनी राजनीति को खुद ही धता बता दिया है. उनके राजनीतिक आदर्श और  विचारक डॉ राम मनोहर लोहिया ने जाति को तोड़ने की राजनीति को सामाजिक और राजनीतिक विकास का स्थाई बाव बताया था और सभी वर्गों की बराबरी के लक्ष्य को हासिल करने का तरीका बताया था . नीतीश कुमार ने जाति को मुद्दा बनाकर डॉ राम मनोहर लोहिया की राजनीति की अनदेखी की है . लेकिन यह भी सच है कि उन्होंने झारखंड में किसी गैर आदिवासी को मुख्यमंत्री बनाए जाने की बीजेपी की राजनीति को मुश्किल में डाल दिया है .सबको मालूम है कि झारखण्ड के गठन के आन्दोलन के पहले ही रांची ,जमशेदपुर और भिलाई के इलाकों की आदिवासी जनता अपने राजनीतिक अधिकारों के प्रति बहुत ही जागरूक है और अगर इस माहौल में राघुबरदास के मुख्यमंत्री बनते ही यह मुद्दा गरमा गया तो बीजेपी के लिए मुश्किल पेश आ सकती है .

  
जब यह स्पष्ट हो गया कि रघुबरदास झारखण्ड के मुख्यमंत्री बनेगें तो नीतीश कुमार ने तुरंत राजनीतिक पहल कर दी. उन्होंने कहा कि झारखंड के स्थापना आदिवासी अवाम की महत्वाकांक्षाओं को ध्यान में रख कर की गयी थी . पिछले १४ वर्षों से यह परम्परा थी कि झारखण्ड के मुख्यमंत्री पद पर आदिवासी को ही नियुक्त किया जाता रहा है  लेकिन बीजेपी ने इस बार वह परम्परा तोड़कर आदिवासी हितों की अनदेखी की है . उन्होंने चेतावनी दी कि बीजेपी के इस फैसले से राज्य की आदिवासी जनता को निराशा होगी. नीतीश कुमार की राजनीतिक पहल की गंभीरता को बीजेपी ने तुरंत नोटिस किया और बिहार के बीजेपी के नेता , सुशील कुमार मोदी ने नीतीश कुमार पर ज़बरदस्त राजनीतिक हमला किया और कहा कि १९३७ से १९७० तक बिहार में सवर्ण जातियों के ही मुख्यमंत्री होते रहे थे. उसको कर्पूरी  ठाकुर के मुख्यमंत्री पद पर बैठने के बाद तोडा जा सका. जाति के मुद्दे को उठाकर नीतीश कुमार ने  जातिवादी राजनीति को  बढ़ावा दिया है . सुशील मोदी ने आदिवासियों के प्रति नीतीश कुमार  की सहानुभूति को शरारतपूर्ण बताया और आरोप लगाया की जातियों के आधार पर राजनीति की बात करके नीतीश कुमार ने भारत के संविधान का भी अपमान किया है .
आदिवासी मुख्यमंत्री के मुद्दे  को उठाकर नीतीश कुमार ने नरेंद्र मोदी और अमित शाह की उस राजनीति पर लगाम  लगाने की  कोशिश की है जिसमें बीजेपी का आलाकमान अब तक मुब्तिला था. महाराष्ट्र में पता नहीं कितने वर्षों से ब्राह्मण मुख्यमंत्री नहीं बना था . राज्य की सभी पार्टियों में गैर ब्राहमण नेताओं का वर्चस्व रहता रहा  है . आबादी में ओबीसी की बड़ी संख्या के कारण बीजेपी वाले भी अब तक इन्हीं जातियों के नेताओं को अहमियत देते  रहे  हैं . गोपीनाथ मुंडे और प्रमोद महाजन इसके उदाहरण हैं . लेकिन देवेन्द्र फडनवीस को मुख्यमंत्री बनाकर नरेंद्र मोदी ने उस  जाति के उस सांचे की राजनीति से महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री पद को बाहर ला दिया . उसी तरह हरियाणा में गैरजाट को मुख्यमंत्री बनाकर बीजेपी आलाकमान ने राजनीति में जाति के बंधन को तोड़ने का  साफ़ संकेत दे दिया था. इन दोनों ही राज्यों के मुद्दे टेलीविज़न की चर्चाओं में तो आये लेकिन उसके बाद स्वीकार कर लिए गए. बीजेपी की चली तो जम्मू-कशमीर में भी लीक से हटकर कुछ होने वाला है . बीजेपी वहां हिन्दू मुख्यमंत्री को शपथ दिलाना चाहती है . अगर ऐसा हुआ तो कश्मीर की राजनीति के हवाले से बीजेपी को पूरे देश में अपने समर्थकों में सम्मान मिलेगा और अन्य राज्यों में वोटों के लाभ की संभावना भी बढ़ेगी . लेकिन यह भी सच्चाई है कि एक झटके में  राज्यों में स्थापित जातीय राजनीति के बैलेंस को तोड़कर नरेंद्र मोदी और अमित शाह की टीम एक ज़रूरी रिस्क ले रही है . यह देखना दिलचस्प होगा की निकट भविष्य में यह राजनीति किस करवट बैठती है . जहां तक झारखंड की बात है सभी जानकरों की राय है कि गैर आदिवासी को मुख्यमंत्री बनाकर नरेंद्र मोदी ने बड़ी राजनीतिक बाज़ी चल दी है और  नीतीश कुमार ने एक खतरनाक चाल की आग में बहुत ही खतरनाक घी डाल दिया है . 

भारत के राजनीतिक इतिहास में साल २०१४ का महत्व


शेष नारायण सिंह
२०१४ भारत के राजनीतिक इतिहास में बहुत बड़े परिवर्तन का वर्ष माना जाएगा. इस एक साल में सब कुछ बदल गया हुई. कभी कभी तो यह बदलाव बिकुल डरावना लगने लगता है .साल की शुरुआत में देश में कांग्रेस का  राज था .विपक्ष और मीडिया ने कांग्रेस को एक भ्रष्ट सरकार  के रूप में पेंट कर रखा था. प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की छवि एक हताश व्यक्ति की बन गयी थी जो कांग्रेस अध्यक्ष के बेटे के सामने मजबूर थे. मुख्य विपक्षी पार्टी बीजेपी ने सत्ता की दावेदारी का आभियान चला रखा था. गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद के दावेदार के रूप में पेश करके बीजेपी ने देश के राजनीतिक माहौल को बहुत गरमा दिया था. राहुल गांधी को जनवरी २०१३ में जयपुर में कांग्रेस पार्टी का उपाध्यक्ष बना दिया गया था और उनसे भी देश की राजनीति को बड़ी उम्मीदें थीं . माहौल ऐसा बन रहा था कि राहुल गांधी अपनी पार्टी के उन सीनियर लोगों को सक्रिय कर देगें जो कांग्रेस की राजनीति की समझ रखते होंगें और नरेंद्र मोदी के प्रचार अभियान की चुनौती को स्वीकार करेगें. लेकिन उन्होने पार्टी के सारे महत्वपूर्ण काम ऐसे लोगों को थमा दिया जो उनकी और उनके करीबी लोगों की गणेश परिक्रमा किया करते थे. जवाहर लाल नेहरू के १२५वी जयंती के दौर में ऐसे लोगों को इंचार्ज बना दिया गया जिनको नेहरू की बिकुल समझ नहीं थी.  दिल्ली में रहकर राजनीतिक तिकड़म करने वालों के हाथ में कांग्रेस का हर महत्वपूर्ण विभाग संभलवा दिया गया था .
जब जनवरी २०१३ में राहुल गांधी ने कांग्रेस का उपाध्यक्ष बनने के बाद भाषण दिया था तो उनसे बहुत उम्मीदें बंधीं थी . उम्मीदों से भरा बाषण दिया था  राहुल गांधी ने . उन्होंने अपने पिता स्व राजीव गांधी के उस भाषण से बात को शुरू किया जो स्व राजीव गांधी ने १९८५ में दिया था .  राजीव गांधी ने कहा था कि केन्द्र से जो कुछ आम आदमी के लिए भेजा जाता है उसका केवल १५ प्रतिशत ही पंहुचता है .उन्होंने दावा किया कि अब आम आदमी को  जितना भेजना है उसका ९९ प्रतिशत सही व्यक्ति तक पंहुचाया जायेगा. इसके लिए उन्होंने वर्तमान सूचना क्रान्ति का धन्यवाद किया . अपने भाषण में राहुल गांधी ने कांग्रेस की सफलताओं का ज़िक्र किया और हरित क्रान्ति से लेकर शिक्षा के अधिकार तक को अपनी पार्टी की सरकार की उपलब्धि बताया ..उन्होंने कहा कि सरकार और राज काज का जो मौजूदा सिस्टम है वह ज़रूरी डिलीवरी नहीं कर पा रहा है .. सत्ता के बहुत सारे केन्द्र बने हुए हैं .बड़े पदों पर जो लोग बैठे हैं उन्हें समझ नहीं है और जिनको समझ और अक्ल है वे लोग बड़े पदों पर पंहुच नहीं पाते ऐसा सिस्टम  बन गया है कि बुद्दिमान व्यक्ति महत्वपूर्ण मुकाम तक पंहुच ही  नहीं पाता.आम आदमी की आवाज़ सुनने वाला कहीं कोई नहीं है .उन्होंने कहा कि  अभी ज्ञान की इज्ज़त नहीं होती बल्कि  पद की इज्ज़त होती है . इस व्यवस्था को बदलना पडेगा.  ज्ञान  पूरे देश में जहां भी होगा उसे आगे लाना पडेगा. उन्होंने कहा कि  यह दुर्भाग्य है कि कांग्रेस में नियम कानून नहीं चलते .  इसे बदलना होगा  नियम क़ानून के हिसाब से कांग्रेस को चलाना पडेगा .. उन्होंने इस बात पर दुःख व्यक्त किया कि हर जगह मीडियाक्रिटी  समझदार लोगों  को दबाने में सफल हो जाती है .. इनीशिएटिव को मार दिया जाता है . सत्ता  में  बैठे लोग मीडियाक्रिटी को ही आगे करते हैं क्योंकि उस से उनको सुरक्षा मिलती है . काबिल  लोगों  की  तारीफ़ करने का फैशन ही नहीं है .भ्रष्ट लोग भ्रष्टाचार हटाने की बात करते हैं औरतों की रोज ही बेइज्ज़त करने  वाले  महिलाओं  के अधिकारों की बात करते हैं .उन्होंने कहा कि इस तरह के पाखण्ड को भारत अनंत काल तक बर्दाश्त नहीं करेगा. 
राहुल गांधी के जयपुर के इस भाषण से बहुत उम्मीदें बंधीं थीं लेकिन बाद में उन्होंने जिस तरह से काम किया उस से साफ़ लग गया था की वे एक लिखा हुआ भाषण दे रहे थे . पूरी २०१३ में उन्होने जितने  भी काम किये उनमे से एक भी ऐसा नहीं था जो उनके जयपुर वाली भावना को कहीं से भी रेखांकित करता . आस पास चापलूसों की फौज बैठा ली और कांग्रेस में भी उस तरह के लोगों को आगे किया जिनकी नई दिल्ली के बाहर कोई हैसियत नहीं थी. उधर सितम्बर आते आते  बीजेपी के तत्कालीन अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने लाल कृष्ण आडवानी और उनके गुट दिल्ली में सक्रिय बड़े नेताओं के विरोध की परवाह नहीं की और नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित कर दिया . नरेंद्र मोदी ने बहुत ही बड़े अभियान की शुरुआत कर दी और राहुल गांधी को बहुत  बाद में पता चला कि अब पहल उनके हाथ से निकल चुकी थी. नरेंद्र मोदी ने गुजरात २००२ , साम्प्रदायिकता आदि के बैगेज को साथ लेकर अपने अभियान की शुरुआत की .. राहुल गांधी उनके सामने बहुत छोटे नज़र आने लगे और २०१४ के शुरू के हफ्तों में ही समझ में आने लगा था की मोदी को चुनौती दे पाना राहुल  गांधी के बस की बात नहीं है . कई चरणों में चुनाव हुए और १६ मई को जब नतीजे आये तो देश की राजनीति में तीस साल बाद स्पष्ट बहुमत की सरकार बनने का रास्ता साफ़  हो चुका था. नरेंद्र  मोदी देश के प्रधान मंत्री बन चुके थे .
नरेंद्र मोदी ने पहले दिन से ही अपनी पार्टी और अपने  मुख्य संगठन आर  एस एस के एक वफादार कार्यकर्ता की तरह काम शुरू कर दिया . शिक्षा के क्षेत्र में सबसे पहला अभियान शुरू हुआ.  बत्रा नाम के एक व्यक्ति के तथाकथित वैज्ञानिक ज्ञान को मुख्य धारा में लाने की कोशिश शुरू हो गयी . इतिहास को फिर से लिखने की आर एस एस वालों की पुरानी योजना पर काम शुरू हो गया . आर एस एस की प्रार्थना में ही हिंदु राष्ट्र की स्थापना का संकल्प है .  उसके लिए हर स्टार पर चर्चा शुरू हो चुकी है . आर एस एस के प्रमुख मोहन भागवत ने खुद आशा जता दी है की नौजवानों की पीढी के नौजवान  रहते रहते हिंदु राष्ट्र की स्थापना हो जायेगी . आर एस एस के कुछ कार्यकर्ता कई संगठन बनाकर मुसलमानों  और ईसाइयों को हिन्दू बनाने के काम में लग गए हैं . सरकार और बीजेपी के नेताओं से इस बारे में बात की जाए तो साफ़ बता दिया जाता है कि जो संगतःन इस तरह के काम कर रहे है ,उनका बीजेपी से कोई सीधा  संपर्क नहीं है . लेकिन सरकार की तरफ से इस तरह के काम को रोक भी नहीं जा रहा है .
जवाहरलाल नेहरू की विरासत को गलत बताकर उसको तबाह करने की योजना पर कई स्तर पर काम हो रहा है . कोई किसी को बताने वाला नहीं है कि इस देश के निर्माण में नेहरू का सबसे बड़ा योगदान है और अगर उसको नकारा गया तो इतिहास को नकारना माना जाएगा .  . उनके जीवनकाल में और उनके बाद उनको बेकार साबित करने की बार बार कोशिश होती रही है लेकिन उनकी दूरदर्शिता के आलोचकों के नाम का उल्लेख करना भी उनको महत्व देना होगा क्योंकि वे लोग  जवाहरलाल नेहरू के साथ अपने नाम को जोड़कर अपने को महान साबित करने की कोशिश करते रहते हैं .
कश्मीर के मसले पर भारत में एक खास विचारधारा के लोग पानी पीकर भारत की आज़ादी के महान नायक को कोसते रहे हैं . उस विचारधारा वालों का नाम लेकर मैं उन लोगों को महत्त्व तो नहीं दे सकता लेकिन यह बताना ज़रूरी है कि जवाहरलाल नेहरू की निंदा करने वाले इन राजनेताओं के पूर्वज आज़ादी की लड़ाई में भारत की जनता के साथ नहीं खड़े थे और इनका एक भी नेता १९२० से १९४७ के बीच भारत की आज़ादी की लड़ाई के लिए जेल नहीं गया था .कश्मीर के मामले में १९४७ में जो सफलता मिली थी वह भारत की कूटनीतिक और राजनीतिक सफलता की एक ज़ोरदार मिसाल है .
कश्मीर के अलावा भी नेहरू ने हर क्षेत्र में सफलता दर्ज की थी. आर्थिक विकास औद्योगीकरण, शिक्षा , मानवाधिकार , संस्थाओं की स्थापना , मुराद यह कि निर्माण के हर मुद्दे पर नेहरू ने सफलता पाई थी. लेकिन उनके वंशजों ने नेहरू के  सम्मान की रक्षा के लिए वह कोशिश नहीं की जो उनको करनी चाहिए थी. और दूसरी तरफ नेहरू की विरासत को तबाह करने वालों की फौज खड़ी है . लगता है २०१४ को एक ऐसे साल के रूप में भी याद किया जाएगा जब नेहरू की विरासत नकारने की सरकारी कोशिश शुरू की गयी थी.

दर असल इस देश की आज़ादी और उसके बाद के इतिहास में मुसलमानों की भौत बड़ी भूमिका रही है . महात्मा गांधी के १९२० के आन्दोलन के बाद हिन्दू-मुसलमान में जो एकता दिखी थे यूसके बाद से अंगेजों को लगने लगा था कि बहुत दिन तक भारत को गुलाम नहीं बनाए रखा जा सकता . उसके बाद से ही अंग्रेजों ने १९२० के दशक में ऐसे बहुत सारे संगठनों की स्थापना को प्रोत्साहन दिया था जिसके बाद से दोनों ही समुदायों में मतभेद पैदा किया जा सके. उन संगठनों ने हमेशा ही हिन्दू मुसलमान के बीच मतभेद पैदा करने की कोशिश की लेकिन उन्हें कोई ख़ास सफलता नहीं मिली . लेकिन लगता  है कि २०१४ में उन लोगों की सफलता की शुरुआत हो चुकी  है . हम जानते हैं कि अगर अपने देश का सेकुलर स्वरुप बर्बाद किया गया तो देश और समाज की तरक्की में बहुत बड़ी बाधा आयेगी . लेकिन अजीब बात है कि मौजूदा हुक्मरान उन प्रवृत्तियों से या तो बेखबर हैं और या उनसे आँखें मूंदे  हुए हैं . जो लोग भारत और भारत के संविधान से मुहब्बत करते है उनके लिए भारी परिक्षा की घड़ी है . आने वाला समय बहुत बड़े बदलाव  की तरफ जाएगा  . उम्मीद की जानी चाहिए की भारत की एकता और अखण्डता के दुश्मन किसी भी हालत में सफल न हों .

विपक्ष के स्पेस पर कब्जे की लड़ाई, मुलायम के नेतृत्व में जनता परिवार की एकजुटता का आगाज़



शेष नारायण सिंह
नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के  बाद महाराष्ट्र और हरियाणा की जिन दो विधान सभाओं के चुनाव हुए हैं , वहां प्रधानमंत्री की पार्टी, बीजेपी की भूमिका हमेशा से ही मामूली रही  हैं . लेकिन इस बार दोनों ही विधान सभाओं में बीजेपी सबसे मज़बूत पार्टी है और दोनों ही राज्यों में  बीजेपी की सरकारें हैं . अब लगने लगा है कि में सत्ताधारी पार्टी का तमगा तो अब लगभग मुकम्मल तरीके से बीजेपी को ही मिलने वाला है .  विधानसभा चुनावों का दूसरा मुख्य सबक यह है कि जहां कांग्रेस की सरकारें थीं वहां अब कांग्रेस बुरी तरह से हार चुकी है और तीसरे मुकाम पर पंहुंच चुकी है . जिन तीन अन्य विधानसभाओं के चुनाव होने हैं ,वहां भी कांग्रेस की हालत खराब है . दिल्ली में वह बहुत ही कमज़ोर तीसरी पार्टी है , जम्मू-कश्मीर में पिछले कई वर्षों से एक ऐसे मुख्यमंत्री को समर्थन देती रही है जिसकी विश्वसनीयता पूरी तरह से समाप्त हो चुकी है और झारखण्ड में भी ऐसे नेताओं के सहारे राजनेति चल रही है जिनकी राज्य और समाज में कोई इज्ज़त नहीं है . ऐसी हालत में लगता  है कि आज़ादी के बाद से अब तक सबसे ज़्यादा समय तक सत्ता में रही पार्टी और जब सत्ता में नहीं रही तो सबसे मज़बूत विपक्षी पार्टी  का रुतबा रखने वाली कांग्रेस और धीरे धीरे मुख्य विपक्षी पार्टी के रोल से भी  बाहर हो  जायेगी . भारत की मौजूदा  राजनीति और भावी संकेतों का कोई भी जानकार बता देगा की संसदीय लोकतंत्र में मज़बूत विपक्ष की भूमिका भी सरकार से कम  नहीं होता  है . देश की राजनीति में बीजेपी वही मुकाम हासिल करने की कोशिश कर रही है जो कभी कांग्रेस के लिए आरक्षित हुआ करता था. और अभी फिलहाल ऐसा नहीं लग रहा है कि कोई नरेंद्र मोदी की पार्टी को चुनौती देकर पार पाने की स्थिति में है .

ज़ाहिर है देश में विपक्ष की राजनीति का जो स्पेस है वह भी कांग्रेस को उपलब्ध होता नज़रनहीं आताकांग्रेस में एक अजीब जड़ता की राजनीति हावी हो रही है .कांग्रेस पार्टी केमहानायकों महात्मा गांधी और सरदार पटेल की विरासत को बीजेपी के नेता और प्रधानमंत्रीनरेंद्र मोदी लगभग अपना चुके हैं . अब तो यह भी लगने लगा है कि सत्ताधारी पार्टी , बीजेपी ,जवाहरलाल नेहरू की भी अच्छी बातों को राष्ट्र की धरोहर बताकर नेहरू की विरासत से भीकांग्रेस को बेदखल कर देगी . वैसे भी  राहुल गांधी की कांग्रेस में जवाहरलाल नेहरू कोसम्मान देने की परम्परा ख़त्म होती नज़र  रही है . कांग्रेस पार्टी ने नेहरू की १२५वीं जयन्ती मनाने के लिए जो कमेटी बनाई है उसको नेहरू की विचारधारा का विरोध करने वालोंसे भर दिया है और नेहरू के वास्तविक समर्थकों और नेहरू की विचारधारा के जानकारोंमणिशंकर अय्यर और दिग्विजय सिंह को उसमें शामिल ही नहीं किया गया है . बहरहाल मुद्दायह है कि कांग्रेस को विपक्षी पार्टी के रूप में सामान मिलना बंद होने वाला है . ऐसी स्थिति मेंमुख्य विपक्षी पार्टी के रूप में राजनीतिक स्पेस घेरने के लिए नए नए गठबंधन और गठजोड़हो रहे हैं .इस पृष्ठभूमि में दिल्ली में उन पुराने नेताओं की बैठक हुयी जो १९८९ में राजीवगांधी को चुनौती देकर इकठ्ठा हुए थे . और अपने आपको जनता दल के नाम से लामबंदकिया था इस बैठक में पूर्वप्रधानमंत्री देवेगौडा, मुलायम सिंह यादव,लालू यादव, शरद यादव ,कमल मोरारका, नीतीश कुमार , ओम प्रकाश चौटाला के पौत्रआदि शामिल हुए . कोशिश एकता की थी लेकिन अभी फिलहाल उन मुद्दों पर चर्चा की गयी जिनके आधार पर संयुक्त संघर्ष चलाया जा सके. कुल मिलाकर कोशिश यही है कि विपक्ष में रहते हुए देश की राजनीति में गैर कांग्रेसी  ,गैर बीजेपी विकल्प की तलाश की जाय और लिए ताथाकथित समाजवादी ताक़तों को एकजुट किया जाए.  इस जनता परिवार के नेताओं को लगता है कि समाजवादी राजनीति के राष्ट्र की मुख्य धारा में सशक्त हस्तक्षेप का समय आ गया है .हर आइडिया का समय होता है समय के पहले कोई भी आइडिया परवान नहीं चढती . भारत की राजनीति में कांग्रेस का उदय भी एक आइडिया ही था . महात्मा गांधी ने १९२० में कांग्रेस को जन संगठन बनाने में अहम भूमिका निभाई . उसके पहले कांग्रेस का काम अंग्रेजों के उदारवाद के एजेंट के रूप में काम करना भर था .बाद में कांग्रेस ने आज़ादी की लड़ाई में देश का नेतृत्व किया. महात्मा गांधी खुद चाहते थे  कि आजादी मिलने के बाद कांग्रेस को चुनावी राजनीति से अलग करके जनान्दोलन  चलाने वाले संगठन के रूप में ही रखा जाए . चुनाव में शामिल होने के इच्छुक राजनेता अपनी अपनी पार्टियां बनाकर चुनाव  लड़ें लेकिन कांग्रेस के उस वक़्त के बड़े नेताओं ने ऐसा नहीं होने दिया .उन्होंने कांग्रेस को जिंदा रखा और आज़ादी के बाद के कई वर्षों तक राज  किया. बाद में जब डॉ राम मनोहर लोहिया ने गैर कांग्रेस वाद की  राजनीति के प्रयोग शुरू किये तो कांग्रेस को बार बार सत्ता से  बेदखल होना पड़ा. १९८९ में  गैर कांग्रेसवाद की भी पोल खुल गयी जब बाबरी मस्जिद के  विध्वंस के लिए चले आंदोलन में कांग्रेस और बीजेपी साथ  साथ खड़े नज़र आये. १९९२ में अशोक सिंहल,कल्याण सिंह और पी वी  नरसिम्हाराव के संयुक्त प्रयास से बाबरी मस्जिद ढहाई गयी लेकिन उसके पहले ही बीजेपी और कांग्रेस  का वर्गचरित्र सामने आ गया था. पूर्व प्रधान मंत्री चन्द्र शेखर ने लोक सभा के अपने ७ नवंबर १९९० के भाषण में इस बात का विधिवत पर्दाफ़ाश कर दिया था. उस भाषण में चन्द्रशेखर जी ने कहा कि धर्म निरपेक्षता मानव संवेदना की पहली परख है .  जिसमें मानव संवेदना नहीं है उसमें धर्मनिरपेक्षता नहीं हो सकती.इसी भाषण में चन्द्र शेखर जी ने बीजेपी की राजनीति को आड़े हाथों लिया था .  उन्होंने कहा कि मैं आडवाणी जी से ग्यारह महीनों से एक सवाल पूछना चाहता हूँ कि   बाबरी मसजिद  के बारे में सुझाव देने  के लिए एक समिति बनायी गयीउस समिति से भारत के गृह मंत्री और उत्तर प्रदेश के मुख्य मंत्री को हटा दिया जाता है . बताते चलें  कि  उस वक़्त गृह मंत्री मुफ्ती मुहम्मद सईद थे और उत्तर प्रदेश के मुख्य मंत्री मुलायम सिंह यादव थे. चन्द्र शेखर जी ने आरोप लगाया कि इन लोगों को इस लिए हटाया गया क्योंकि विश्व हिन्दू परिषद् के कुछ नेता उनकी सूरत नहीं देखना चाहते.क्या इस  तरह से देश को चलाना है . उन्होंने सरकार सहित बीजेपी -आर एस एस की राजनीति को भी घेरे में ले लिया और बुलंद आवाज़ में पूछा कि क्यों हटाये गए मुलायम सिंह क्यों हटाये गए मुफ्ती मुहम्मद सईद ,उस दिन किसने समझौता किया था ? " 


इसी भाषण के बाद से बीजेपी ,कांग्रेस या कांग्रेस से अलग होकर आये लोगों की अपने आपको आम आदमी का पक्षधर बताने की हिम्मत नहीं पडी .बाद में जब १९९६ में गैर कांग्रेस गैर बीजेपी सरकार की बात चली तो एच डी देवे गौड़ा को प्रधान मंत्री बनाने वाली पार्टियों के गठबंधन को तीसरा मोर्चा नाम दे दिया गया था.लेकिन कोई ऐसी राजनीतिक शक्ति नहीं बनी थी जिसे तीसरे मोर्चे के रूप में पहचाना जा सके. लेकिन यह आइडिया भी कोई आकार नहीं ले पा रहा था. बदलते राजनीतिक परिदृश्य में माहौल  बदल रहा है. करीब दो साल पहले स्व मधु लिमये के करीबी सहयोगी  रह चुके  राजनीतिक चिन्तक और लोहिया की राजनीति के मर्मज्ञ ,मस्तराम कपूर के प्रयास से दिल्ली में  गैर कांग्रेस गैर बीजेपी राजनेताओं और जन आंदोलन के कुछ बड़े नेताओं का जमावड़ा हुआ था जिसमें समाजवादी राजनीति की लोहिया की समझ को बुनियाद बनाकर एक   कार्यक्रम  पेश किया गया था. इस सभा की अध्यक्षता लोहिया की राजनीति के सबसे प्रमुख  उत्तराधिकारी मुलायम सिंह यादव ने किया था,.
इस बैठक में ही तीसरे मोर्चे का एजेंडा भी पेश किया गया था. योजना यह थी कि समाजवादी राजनीति की बुनियादी बातों के नाम पर एकजुटता की अपील की जायेगी . अपील की भी गयी .  विदेशी पूंजी का विरोधबिजली ,पानीईंधन और ज़रूरी खाद्य पदार्थों के निजीकरण का विरोधखेती की ज़मीन के अधिग्रहण का विरोध ,अनिवार्य वस्तुओं की कीमतों  के निर्धारण पर सामाजिक नियंत्रण ,कम से कम और अधिक  से अधिक आमदनी में अनुपात  का निर्धारण  आदि शामिल हैं . राजनीतिक सुधार के कार्यक्रम भी एजेंडे में शामिल किये गए थे . मुख्य सतर्कता आयुक्त को लोकपाल की शक्तियां देकर भ्रष्टाचार नियंत्रण में सक्षम बनाना,साम्प्रदायिक दंगों और अल्पसंख्यकों के ऊपर होने वाले अपराधों के निपटारे के लिए विशेष अदालतों का  गठन ,सरकारी फिजूलखर्ची पर पाबंदी विधायक और सांसद निधि का खात्मा,दल बदल विरोधी कानून में परिवर्तन जिस से असहमति के आधिकार की रक्षा की जा सके,ग्राम सभाओं के ज़रिये सविधान के ७३वे और ७४वे संशोधन के रास्ते पंचायती राज को मज़बूत करना ,सरकारी काम में भारतीय भाषाओं के प्रयोग  जैसे अहम मुद्दे शामिल हैं .इसके अलावा चुनाव प्रणाली में सुधार ,शिक्षा और संस्कृति  संबंधी कार्यक्रम और राष्ट्रीय एकता और अखण्डता को मज़बूत  करने वाले कार्यक्रम शामिल किये गए थे.  . 

सम्मलेन की आयोजकों को उम्मीद थी कि तीसरे मोर्चे को एक शक्ल देने की ऐतिहासिक ज़रूरत को यह सम्मलेन  एक दिशा अवश्य देगा . सम्मलेन में कम्युनिस्ट पार्टी के सबसे बड़े  नेता ए बी बर्धन ने साफ़ कहा कि वे गैर कांग्रेस गैर बीजेपी  विकल्प की तैयारी के लिए मुलायम सिंह यादव को नेता  मानने को तैयार भी हैं लेकिन कुछ नहीं हुआ. बात आगे नहीं बढ़ी . यह चुनाव के पहले की बात थी और अगर सब लोग एक ही गए होते तो शायद आज की राजनीतिक परिस्थिति बिलकुल अलग होती . लेकिन अब बीजेपी के अलावा सभी पार्टियां चुनाव हार चुकी हैं . एक बार फिर से नए सिरे से गैर कांग्रेसी राजनीतिक विपक्षे को बनाने की कोशिश तेज़ हो गयी है . देखना यह होगा कि क्या विपक्षी एकता कोई स्वरुप लेती है या पिछले पचास साल से चल रही  विपक्षी एकता जैसी ही कोई घटना होकर नहीं रह जाती .