Tuesday, September 4, 2018

डॉ राही मासूम रज़ा 01-09-2018

जिस गली ने मुझे सिखलाए थे आदाबे-जुनूं
उस गली में मेरे पैरों के निशां कैसे हैं-डॉ राही मासूम रज़ा
१ सितम्बर ,डॉ राही मासूम रज़ा का जन्मदिन . राही को गए पचीस साल से ज़्यादा हो गए लेकिन उनके चरित्रों के ज़रिये उनकी याद हमेशा आती रहती है . चाहे फुन्नन मियाँ हों , या नीले तेल वाला शुक्ला , या ठा वज़ीर हसन हों ,राही के चरित्र मेरा पीछा कभी नहीं छोड़ते .
डॉ राही मासूम रज़ा ने महाभारत सीरियल को ज़बान दी थी और उसके लिए उनको बहुत लोग याद करते हैं . लेकिन मैं उनको इसलिए याद करता हूँ कि उस आदमी के दिल में मुहब्बत का स्थाई पता था, वे अपने गाँव गंगौली से बहुत मुहब्बत करते थे, वे गाजीपुर के दीवाने थे और वहां बहने वाली नदी गंगा को अपनी मां मानते थे . अलीगढ मुस्लिम यूनिवर्सिटी को भी वे अपनी मां मानते थे .अलीगढ़ को उन्होंने अपने उपन्यास 'टोपी शुक्ला' में अमर कर दिया था .. आज राही के जन्मदिन पर उनकी दो नज्में शेयर करना चाहता हूँ , पहली अलीगढ़ के बारे में जिसको वे शहरे तमन्ना कहते थे ., इस नज़म में अपने उसी शहरे तमन्ना को उन्होने याद किया है .
कुछ उस शहरे-तमन्ना की कहो
ओस की बूंद से क्या करती है अब सुबह सुलूक
वह मेरे साथ के सब तश्ना दहां कैसे हैं
उड़ती-पड़ती ये सुनी थी कि परेशान हैं लोग
अपने ख्वाबों से परेशान हैं लोग
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जिस गली ने मुझे सिखलाए थे आदाबे-जुनूं
उस गली में मेरे पैरों के निशां कैसे हैं
शहरे रुसवाई में चलती हैं हवायें कैसी
इन दिनों मश्गलए-जुल्फे परीशां क्या है
साख कैसी है जुनूं वालों की
कीमते चाके गरीबां क्या है
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कौन आया है मियां खां की जगह
चाय में कौन मिलाता है मुहब्बत का नमक
सुबह के बाल में कंघी करने
कौन आता है वहां
सुबह होती है कहां
शाम कहां ढ़लती है
शोबए-उर्दू में अब किसकी ग़ज़ल चलती है
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चांद तो अब भी निकलता होगा
मार्च की चांदनी अब लेती है किन लोगों के नाम
किनके सर लगता है अब इश्क का संगीन इल्जाम
सुबह है किनके बगल की जीनत
किनके पहलू में है शाम
किन पे जीना है हराम
जो भी हों वह
तो हैं मेरे ही कबीले वाले
उस तरफ हो जो गुजर
उनसे ये कहना
कि मैंने उन्हें भेजा है सलाम
बाद के दिनों में मुसलमानों के प्रति नफ़रत जब एक कारोबार की शक्ल ले चुका तो राही मासूम रज़ा को बहुत तकलीफ हुयी थी . उनको इस बात पर बहुत फख्र होता था कि उनकी रगों में गंगा का पानी भी खून में मिलाकर बहता था . अपनी गंगा के बारे में उनका दर्द देखिए:
मेरा नाम मुसलमानों जैसा है
मुझ को कत्ल करो और मेरे घर में आग लगा दो।
मेरे उस कमरे को लूटो
जिस में मेरी बयाज़ें जाग रही हैं
और मैं जिस में तुलसी की रामायण से सरगोशी कर के
कालिदास के मेघदूत से ये कहता हूँ
मेरा भी एक सन्देशा है
मेरा नाम मुसलमानों जैसा है
मुझ को कत्ल करो और मेरे घर में आग लगा दो।
लेकिन मेरी रग रग में गंगा का पानी दौड़ रहा है,
मेरे लहु से चुल्लु भर कर
महादेव के मूँह पर फ़ैंको,
और उस जोगी से ये कह दो
महादेव! अपनी इस गंगा को वापस ले लो,
ये हम ज़लील तुर्कों के बदन में
गाढा, गर्म लहु बन बन के दौड़ रही है।
राही मासूम रज़ा की किताब ' दिल एक सादा कागज़ ' मेरे हाथ में है. मुझे ठेकमा नहीं गंगौली के उस दीवाने को पढ़ना बहुत अच्छा लगता है 

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