Saturday, June 28, 2014

साम्प्रदायिक और लक्षित हिंसा से बचाव के लिए सरकार की योजना क्या है ?



शेष नारायण सिंह

साम्प्रदायिक और लक्षित हिंसा अधिनियम २०११ को ठंडे बस्ते में डाल दिया गया है  . एक प्रतिष्ठित अखबार ने केंद्र सरकार के ज़िम्मेदार मंत्रालयों के हवाले से खबर दी है कि नयी सरकार बनने के एक महीने बाद भी इस बिल के बारे में कोई चर्चा नहीं हुयी . सब को मालूम है कि जब  पिछली सरकार के अंतिम दिनों में पंद्रहवीं लोकसभा के अंतिम सत्र में इस बिल को पेश करने की डॉ मनमोहन सिंह सरकार ने कोशिश की थी तो बीजेपी ने बहुत भारी विरोध किया था. उन दिनों प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री थे और उनको बीजेपी की ओर से प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किया जा चुका था . वे पूरी तरह से चुनाव अभियान में लगे हुए थे. आर एस एस के सभी संगठनों ने हर स्तर पर  इस बिल का विरोध किया था . चुनाव प्रचार की गहमागहमी के बीच गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री ने केंद्र सरकार के पास एक चिट्ठी भेजी थी जिसमें इस बिल का घोर विरोध किया था .सोनिया गांधी की अध्यक्षता वाली राष्ट्रीय सलाहकार परिषद ने बिल को तैयार करने में भारी भूमिका निभाई थी . बीजेपी ने तो हर मोड़ पर इस बिल का विरोध किया था ,बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री , नीतीश कुमार और ममता बनर्जी ने भी इस विधेयक पर हमला किया था . उनका आरोप था कि इससे राज्यों के अधिकारों का उल्लंघन होता है.  लेकिन तब भी सवाल उठे थे की क्या बीजेपी और अन्य लोगों के विरोध जायज़ थे . हालांकि तत्कालीन  विपक्षी पार्टी बीजेपी का आरोप था कि इस बिल को अगर कानून बनने दिया गया तो और उसे लागू कर दिया गया तो न्याय  के रास्ते में बाधा पड़ेगी क्योंकि बिल की भाषा ऐसी है कि उसके लागू होने से बहुसंख्यक समुदाय के साथ अन्याय हो सकता है .  
इसके पहले भी कई बार  साम्प्रदायिक हिंसा को रोकने के बारे में बिल लाने की कोशिश हो चुकी है लेकिन यह पहले वाले प्रस्तावों की तुलना में अलग था .सरकार ने प्रस्ताव किया था कि  हमले का शिकार बनने वाले कमजोर समुदाय की रक्षा करने और हिंसा को अंजाम देने वाले लोगों के खिलाफ कार्यवाही करने के लिये नौकरशाही को ज़िम्मेदार ठहराया जाए और उनको सज़ा दी जाए. इसके पहले के सभी साम्प्रदायिकक दंगों में कभी किसी अफसर के खिलाफ कार्रवाई नहीं होती थी . विधेयक में उस पुनर्वास और मुआवज़े के प्रावधानों को भी परिभाषित किया गया था . इसमें साम्प्रदायिक हिंसा की घटनाओं की रोकथाम में सरकारी तौर पर क्या कदम उठाये गयेइसकी निगरानी करने के लिये राज्य और केंद्र के स्तर पर अधिकारियों को नियुक्त करने का भी प्रावधान था .लेकिन यह बिल कानून नहीं बन सका  . उसका मुख्य कारण तो यह था कि सरकार अपने ही विरोधाभासों की शिकार थी , चारों तरफ असमंजस की स्थिति थी  . बीजेपी ने आरोप लगाया था कि  विधेयक विभाजनकारी है .यह केवल बहुसंख्यक समुदाय को हिंसा करनेवालों के बतौर पेश करता है और बहुसंख्यकों के खिलाफ पक्षपातपूर्ण रवैया अपनाता है.
इस बात में दो राय नहीं है कि बीजेपी का विरोध राजनीतिक था. पुनर्वासक्षतिपूर्तिमुआवजाइत्यादि के मामले में विधेयक में अल्पसंख्यकों और बहुसंख्यकों के बीच कोई भेद नहीं किया गया था .हर समुदाय के पीडि़त व्यक्ति के लिये एक ही प्रावधान था  मगर इस विधेयक में साम्प्रदायिक हिंसा के दौरान सरकारी कर्मचारियों के आचरण पर नियंत्रण रखने वाले कड़े प्रावधान थे. लगता  है कि अति उत्साह में बिल को तैयार करने वालों से कहीं चूक तो हुयी थी क्योंकि उन्होंने यह मानकर बिल का मसौदा तैयार किया था कि जिन मामलों में हिंसा को अंजाम देने वाले अल्पसंख्यक सम्प्रदाय से आते हैंया फिर पीडि़त व्यक्ति बहुसंख्यक सम्प्रदाय के सदस्य होते हैंवैसे मामलों में सरकारी अफसर पुलिस आदि कोई पक्षपात नहीं करते और अपने कर्तव्य का सही पालन करते है. मसौदे में यह बात साफ़ नज़र आ रही थी कि आजादी के बाद देश में साम्प्रदायिक हिंसा की अधिकांश संगठित कार्यवाहियों में अल्पसंख्यक समुदाय को ही निशाना बनाया गया है. इसका अर्थ यह कत्तई नहीं है कि मुसलमान या ईसाई कभी हिंदुओं के खिलाफ हिंसा के अपराधी नहीं रहे या अपराधी हो नहीं सकते. लेकिन सबूत इस तथ्य को दिखलाते हैं कि यद्यपि मुसलमान और ईसाई लोगसम्पूर्ण समाज में कुल मिलाकर अल्पसंख्यक हैंलेकिन साम्प्रदायिक हिंसा के शिकारों में वे बहुसंख्यक हैंऔर राजनीतिक नेतृत्वपुलिस और नौकरशाही के अंदर वे तमाम किस्म के पक्षपात का मुख्य शिकार होते हैं. इस तथ्य को स्वीकार करने का मतलब पक्षपात करना या विभाजनकारी भूमिका निभाना नहीं है. अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति कानून और घरेलू हिंसा कानून इस किस्म के कानूनों के उदाहरण हैं जो इस बात को मंजूर करते हैं कि कुछेक समुदाय लक्षित हिंसा के शिकार बनते हैं और उनको सुरक्षा देना जरूरी होता है. उन्हें कारगर ढंग से सुरक्षा देना केवल तभी संभव होगा यदि हम इस तथ्य को स्वीकार कर लें.

मनमोहन सिंह की सरकार के समय में भी , सोनिया गांधी की अध्यक्षता वाली राष्ट्रीय एकता परिषद के अलावा बहुत लोग इस बिल के पक्ष में नज़र नहीं आये . नीतीश कुमार और ममता बनर्जी ने तो विरोध किया ही , समाजवादी पार्टी ने भी इसे विवादास्पद  बिल बताकर इसपर कोई पोजीशन नहीं ली . सच्ची बात यह है कि शासक कांग्रेस और धर्मनिरपेक्षता की कसमें खाने वाली अन्य पार्टियां भी विधेयक के पक्ष में नहीं खड़ी हुईं. अपनी सारी कमियों के बावजूद साम्प्रदायिक हिंसा को रोकने के लिये एक मज़बूत कानून बनाने से उसका असर क्या पड़ेगाउस पर चर्चा की जा सकती है लेकिन यह तय  है कि आजकल जिस तरह से बड़े अधिकारी क़ानून की ज़द में आ रहे हैं उससे साफ़ है कि यह कानून सरकारी अफसरों को अपना  काम न्याय से करने के प्रेरणा ज़रूर देता . लक्षित हिंसा एवं साम्प्रदायिक हिंसा में इन्साफ को किस तरह नकारा जाता हैइसकी एक मिसाल देना यहां काफी होगा। 1969 में तमिलनाडु के किझेवनमनी गांव में हुआ दलितों का कत्लेआम संगठित हिंसा के इतिहास में एक मील का पत्थर है .तमिलनाडु के दलितों को तब हमले का शिकार बनाया गया जब उन्होंने कम्युनिस्ट पार्टी की अगुआई में मजदूरी के लिए हड़ताल की थीहड़ताल को दबाने के लिए इलाके के ज़मींदारों ने गांव पर हमला किया और एक झोपड़े में अपनी जान बचा कर भागे 42 लोगों को मार डाला था। तुर्रा यह कि हमलावरों को सज़ा नहीं हुई . अदालत ने कहा कि इस बात पर विश्वास नहीं किया जा सकता कि हमलावर पैदल उतनी दूर पहुंचे होंगे. और मुक़दमा खारिज हो गया।
 इस बिल के उद्देश्य में इस बात को स्पष्ट तौर पर अंकित किया गया था कि वह अनुसूचित जातिअनुसूचित जनजातियोंकिसी भी राज्य में रहनेवाले धार्मिक या भाषाई अल्पसंख्यकों के खिलाफ लक्षित हिंसा  को निष्पक्ष होकर  बिना किसी भेदभाव के रोकने एवं नियंत्रित के लिए प्रतिबध्द है ताकि कानून की नज़र में सबकी बराबरी के मूल सिद्धांत को मुक़म्मल तरीके से लागू किया जा सके . उम्मीद जताई थी कि संविधान के मूल अधिकारों में बताये गए धर्म का पालन करने के अधिकार , संपत्ति के अधिकार , अभिव्यक्ति के अधिकार आदि की सुरक्षा  सुनिश्चित की जा सके.

 
अगर हम भारत में पिछले कुछ वर्षों की साम्प्रदायिक एवं लक्षित हिंसा की घटनाओं को देखें तो साफ़ समझ में आ जाएगा कि कानून व्यवस्था की हिफाजत में तैनात मशीनरी की सक्रियता संलिप्तता या निष्क्रियता से बहुत कुछ तय होता है। यह भी देखा गया है कि राज्य की सरकार का दंगों के प्रति जैसा भी रूख हो जिला स्तर पर प्रशासन में बैठे अधिकारियों के रूख पर बहुत कुछ निर्भर करता है. दंगों के खिलाफ बड़े पैमाने पर काम करने वाले वरिष्ठ पुलिस अधिकारी और साहित्यकार ,विभूति नारायण राय ने अपनी किताब में साफ लिख दिया है  अगर पुलिस चाहे तो कोई भी दंगा 24 घंटे से अधिक नहीं चल सकता. हालांकि यह भी सरकारी तौर पर बताया जाता है की अफसरों और नेताओं को दण्डित करने की कवायद में छोटे पदों पर तैनात अफसरों को बलि का बकरा बना दिया जाता है और बड़ा अफसर साफ़ बच जाता है . ठंडे  बस्ते में डाले गए बिल में  प्रावधान था कि बड़े अफसर पर भी कार्रवाई होती और कम से कम दस साल की सज़ा उसे काटनी पड़ती .अब तक देखा तह  गया है कि  दंगों में संलिप्त रहे अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई करना अब तक कानून में मुश्किल रहा है क्योंकि उसके लिए राज्य सरकार से अनुमति लेनी पड़ती है। अब तक के कानून के हिसाब से बड़े अफसर पर कार्रवाई के लिए सरकार से यह इजाजत लेनी पड़ती हैजो आम तौर पर मिलती नहीं। इस बिल में इस दिक्क़त को दूर कर दिया गया था . प्रावधान किया गया था कि सरकार ने अगर तीस दिन के अन्दर अनुमति नहीं दी या अनुमति की अर्जी खारिज नहीं कर दिया तो अपने आप यह मान लिया जाएगा कि  अनुमति मिल गयी . तीसरी महत्वपूर्ण बातनुकसान की भरपाई से सम्बधित थी जिसमें मुआवजे एवं पुनर्वास के ठोस नियम बनाए गए थे .इसका मानकीकरण किया गया था . जो अधिकारी की इच्छा पर नहीं बल्कि तार्किक आधार पर तय होता . यह नियम सभी के लिए थे चाहे वह बहुसंख्यक समुदाय का हो या अल्पसंख्यक समुदाय का हो। बिल में यह व्यवस्था कर दी गयी थी कि सरकार  किसी भी हालत में एक महीने के अन्दर मुआवजे का भुगतान करे। चौथी महत्वपूर्ण बातसाम्प्रदायिक या लक्षित हिंसा के बहुत पहले से ही अल्पसंख्यक या कमजोर समुदाय के खिलाफ नफरत भरे भाषणोंबयानबाजी के जरिए माहौल में ज़हर घोला जाता है.   भारतीय दण्ड विधान की धारा 153ए में  ऐसे भड़काऊ बयान के लिए सज़ा तजवीज की गयी हैलेकिन बिल ने नफरत भरे प्रचार को नए सिरे से परिभाषित किया था . इसके अलावा उसने कई अन्य अपराधों को फिर से परिभाषित किया था . यंत्रणालैंगिक हिंसाकर्तव्य न निभानासंगठित एवं लक्षित साम्प्रदायिक हिंसा.
 इस बिल में निश्चित रूप से कुछ कमिया थीं लेकिन यह साम्प्रदायिक हिंसा को रोकने की दिशा में संसद की दखल का एक अहम् हथियार बन सकता था लेकिन जब प्रधानमंत्री ने चुनाव अभियान के दौरान अपने कई भाषणों में और  गुजरात के मुख्यमंत्री पद पर रहते हुए केंद्र को लिखे गए ओने पत्र में इस बिल को जब रेसेपी फार  डिसास्टर की संज्ञा दे दी है तो इस बात की कोई संभावना नहीं है कि यह अपने मौजूदा स्वरुप में संसद के सामने पेश हो सकेगा .हालांकि इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि सरकारी स्तर पर बिना मुक़म्मल इंतज़ाम किये बिना साम्प्रदायिक हिंसा को नहीं रोक जा सकता . यह भी ध्यान में रखना पडेगा कि दंगे कहीं भी हों वे कानून व्यवस्था की श्रेणी में नहीं आते . वे देश की एकता पर सीधा चोट करते  हैं और किसी भी सरकार को देश की एकता को बनाए रखने के लिए साम्प्रदायिक हिंसा की घटनाओं को दबाने के लिए सख्ती से निपटना पडेगा .

Sunday, June 22, 2014

संसद की मंशा को नज़रंदाज़ करती नौकरशाही


शेष नारायण सिंह

सोलहवीं लोकसभा के गठन के साथ देश में नई सरकार बन गयी है . यह सरकार कई मायनों में ऐतिहासिक है . पहली बार केंद्र में ऐसी सरकार बनी है जिसका प्रधानमंत्री सच्चे अर्थों में गैर कांग्रेसी है और उसकी पार्टी को पूर्ण  बहुमत मिला है . इसके पहले अटल बिहारी वाजपेयी इकलौते गैरकांग्रेसी प्रधानमंत्री थे लेकिन उनकी पार्टी को  स्पष्ट बहुमत नहीं मिला था . इस सरकार और संसद के सदस्यों को आगाह रहना चाहिए कि अगर ज़रा सा भी ग़ाफिल पड़े तो  नौकरशाही आम जनता के स्पष्ट जनादेश से चुनकर आयी सरकार की मंशा को भोथरा करने में कोई कसर नहीं छोड़ेगी . संसद द्वारा एक्ट पास करने के बाद इस एक्ट के आधार पर नियमावली बनाने की प्रक्रिया में आने वाली अडचनों से सांसदों और प्रधानमंत्री को सचेत रहना होगा .
 संसद भारत की सर्वोच्च संस्था है . देश की सरकार और अन्य सभी संस्थाएं संसद के प्रति  ही जवाबदेह हैं . देश का राजकाज संसद के नियम कानून से ही चलता हैं . भारतीय सविधान में ऐसी व्यवस्था है कि  देश की सभी संस्थाओं को अपना कार्य नियमानुसार करना पड़ता है . संसद का यह भी ज़िम्मा है कि वन यह सुनिश्चित करे कि  संसद की तरफ से बनाये गए कानून का पालन  होता रहे. संसद द्वारा पारित किसी भी एक्ट के हिसाब से नियम क़ानून बनाने का काम संसद ने सरकार को दे रखा  है .सरकार का ज़िम्मा है कि वह संसद की तरफ से पास हुए सभी कानूनों को लागू करने के लिए नियम बनाए क्योंकि  संसद का कोई भी एक्ट एक अमूर्त अवधारणा है . उसको लागू करने के लिए ज़रूरी नियम होने चाहिए . यही काम सरकार को अपने मंत्रालयों के ज़रिये करवाना होता है . लेकिन देखा यह गया है कि कई बार तो संसद के दोनों सदनों से पास होकर एक्ट दस से भी ज़्यादा साल तक पड़े रहते हैं .सम्बंधित मंत्रालय नियम नहीं बनाता . सरकारें आती जाती रहती हैं लेकिन संसद की गरिमा की अनदेखी होती रहती है . संसद में पारित एक्ट के हिसाब से जो नियम बनते हैं उनको अधीनस्थ विधान कहते हैं. हर मंत्रालय का ज़िम्मा है कि अगर उसके सम्बंधित विभागों के बारे में कोई विधेयक पास होता है तो वह अधीनस्थ विधान बनाए और उसको लेकर संसद के सामने पेश हो . उस विधान को भी संसद की मंजूरी मिलती है . जब अधीनस्थ विधान संसद में पेश किया जाता है तो माना जाता है कि संसद ने उसको देख लिया है और वह नियम संसद की तरफ से मंजूरशुदा मान लिया जाता है . लेकिन साल भर में जो सैकड़ों एक्ट पास होते हैं , उनके आधार पर बने हुए कानून को पूरी  तरह से जांच करने की संसद में ऐसी व्यवस्था नहीं है कि हर नियम का बारीकी से अध्ययन किया जाए और अगर उसमें कोई खामी पाई जाए तो  सरकार को संसद की तरफ से हुक्म दिया जाए कि अधीनस्थ विधान में ज़रूरी बदलाव करके उसको संसद में पारित हुए एक्ट के हिसाब से बनाकर लाया जाए. इसके लिए संसद के दोनों सदनों में अधीनस्थ विधान संबंधी एक  कमेटी होती है जिसकी  ड्यूटी होती है कि वह यह देखे कि जो कानून बन कर आया है ,वह एक्ट के हिसाब से है कि नहीं . आम तौर पर पंद्रह सदस्यों की इस कमेटी के पास इतना समय नहीं होता कि वह सभी नियमों को देखे. इसलिए रैंडम तरीके से कुछ नियमवालियां ले ली जाती हैं, या अगर किसी सूत्र से पता चल जाता है कि मंत्रालय के अधिकारी गड़बड़ कर रहे हैं तो अधीनस्थ  विधान की कमेटी संज्ञान लेती है और जांच के बाद संबन्धित मंत्रालय को आदेश देती है कि अधीनस्थ विधान को  संसद के विधेयक के हिसाब से बनाकर लाओ. लेकिन ऐसा हो बहुत कम पाता है . नतीजा यह  होता  है कि नब्बे प्रतिशत मामलों में ऐसे कानून  बन जाते  हैं जो संसद में पारित एक्ट के अनुसार नहीं होते. इस सारी प्रक्रिया की जानकारी रखने वाले संसद के अन्दर के जानकारों ने बताया है कि अक्सर देखा गया है कि संसद कोई भी एक्ट पास कर ले मंत्रालय के अधिकारी लोग ऐसा नियम बना देते हैं जो एक्ट के हिसाब से बिलकुल  नहीं होता .कई बार तो यह नियम वास्तव में एक्ट के खिलाफ होते हैं .
यह कोई नई बात नहीं है . यह करीब पचास साल से चल रहा है . राज्य सभा में २४ मार्च १९७१ के दिन  पेश की गयी अपनी नौवीं रिपोर्ट में राज्यसभा की अधीनस्थ विधान की कमेटी ने लिखा था कि संसद से एक्ट पास होने केबाद जल्द से जल्द नियमावली बन जानी चाहिए लेकिन किसी भी हाल में यह समय सीमा छः महीने से ज़्यादा नहीं होनी चाहिए . अपनी दसवीं रिपोर्ट में कमेटी ने कहा कि अगर ऐसी हालात पैदा हो जाएँ कि छः महीने में नियम नहीं बन पा रहे हैं तो मंत्रालय के सेक्रेटरी को चाहिए की वह संसद को अवगत करा दे और स्पष्ट तौर पर देरी  के कारणों की जानकारी दे. लेकिन सरकार के मंत्रियों और सचिवों के रवैय्ये के कारण अधीनस्थ विधान बनाने में देरी की बातों  को कम नहीं किया जा सका. १९८१ , २००१ और २०११ में दी गयी रिपोर्टों से भी साफ़ जाहिर है कि सरकारें संसद की गरिमा को वह महत्व नहीं देतीं जो उनको देना चाहिए . सवाल यह उठता  है कि अगर संसद में पारित हुए  कानून के हिसाब से देश का राजकाज इस लिए नहीं चल पा रहा  है कि मंत्री या उनके विभाग के सेक्रेटरी अपनी ड्यूटी सही तरीके से नहीं कर रहे हों तो यह बहुत ही दुर्भाग्य की बात है .
राज्यसभा की ताज़ा रिपोर्ट से भी इस तरह की बहुत सारी घटनाओं की जानकारी  मिलती है कई मामलों में तो  विलम्ब दस साल से भी ज्यादा का है .एन डी सरकार के वक़्त २००१ में एक एक्ट पास हुआ था . प्रोटेक्शन आफ फ़ार्म वराईटीज़ एंड फार्मर्स राइट्स एक्ट २००१ . रिपोर्ट लिखे जाने तक नियमावली नहीं बनी थी . कृषि मंत्रालय की तरफ से सात बार समय बढ़ाने की प्रार्थना की गयी लेकिन २०१२ में जब मंत्रालय का  अफसर तलब किया गया तो उन्होने बताया कि ज्यादातर नियम बन चुके हैं , कुछ नहीं बने हैं क्योंकि यह बहुत ही विशेष जानकारी पर आधारित एक्ट है इसलिए समय लग रहा है. कमेटी ने रिपोर्ट में लिखा है कि इसके बावजूद भी एक दशक का समय बहुत ज़्यादा है . यानी सरकार के कृषि मंत्रालय के गैरजिम्मेदार रुख के कारण इतना ज़रूरी एक्ट पास हो जाने के बार भी ठन्डे  बस्ते में पडा रहा .इस दौर में अजित सिंह , राजनाथ सिंह और शरद पवार कृषि मंत्री रहे लेकिन संसद के इस एक्ट की परवाह किसी को नहीं थी. यह तो कुछ नहीं है .अधीनस्थ  विधान की कमेटी ने अपनी ९९वीं रिपोर्ट में पर्यावरण और वन मंत्रालय से पूछा था कि खतरनाक केमिकल्स की पैकेजिंग के बारे में जो १९८९ में नियम बनाए  गए थे, उनके बारे में कमेटी की रपोर्ट में सुझाए गए आदेशों को क्यों नहीं ठीक किया गया .यानी बीस बीस साल तक सरकार के मंत्रालय कुछ करते  ही नहीं . यह विभाग संविधान में संशोधन करके केंद्र सरकार के पास विशेष अधिकार लेकर बनाया  गया था . इसका मकसद देश के पर्यावरण की रक्षा के साथ साथ आम आदमी  की ज़िंदगी को भी बेहतर बनाना था. चौथी पंचवर्षीय योजना में पर्यावरण के मुद्दों को ध्यान में रखकर समग्र विकास की बात की गयी थी. १९७६ में संविधान में संशोधन करके अनुच्छेद ४८ ए जोड़ा गया  . संविधान में लिखा है कि " सरकार का प्रयास होगा कि पर्यावरण की रक्षा करे और उसमें सुधार करे  तथा देश के पर्यावरण और वन्यजीवन की रक्षा करे " इसी के तहत वन्यजीवन और वन विभाग को केंद्र सरकार के अधीन संविधान की कान्करेंट लिस्ट में लिया गया और राज्यों के कार्यक्षेत्र के ऊपर अधिकार दिए गए . उसके बाद १९८० में पर्यावरण और वन मंत्रालय बना . तब से अब तक की सभी सरकारों ने पर्यावरण को बहुत महत्व दिया .सभी पर्यावरण मंत्री पूरी दुनिया में घुमते रहे . पर्यावरण दुरुस्त करने की बहसों में शामिल होते रहे लेकिन अपनी संसद की इच्छा को सम्मान देने की जहां बात आयी  वहां ज़रूरी नियम कानून तक  नहीं बना सके. संसद की लाइब्रेरी में ऐसी बहुत सारी रिपोर्टें रखी हैं जिनमें संसद की भावना का सम्मान न करने की बहुत सारी जानकारियाँ है .मौजूदा सरकार अगर अपने मंत्रालय के अधिकारियों से यही काम करवा सके तो बड़ी बात होगी. 

इराक के गृहयुद्ध में अमरीका के साथ साथ भारत की भी अग्निपरीक्षा हो रही है .



शेष नारायण सिंह

इराक में जारी गृह युद्ध से भारत के लिए बहुत बुरी ख़बरें आ रही हैं . अभी जो बुरी खबर  आयी है ,वह भारत की पूरी सरकार का ध्यान खींच चुकी है . इराकी शहर मोसुल में ४० भारतीयों को अगवा कर लिया गया है . यह सभी भारतीय किसी प्रोजेक्ट पर काम करते थे, मोसुल पर अल कायदा के सहयोगी संगठन की अगुवाई वाले इस्लामिक रिपब्लिक आफ इराक एंड सीरिया के लड़ाकुओं के कब्जे के बाद इन मजदूरों को सुरक्षित जगहों पर ले जाया जा  रहा था . लेकिन उनको किसी गिरोह ने अगवा कर लिया . भारत की पूरी सरकार इन मजदूरों की सुरक्षित वापसी के काम में लग गयी है . प्रधानमंत्री खुद घटनाक्रम पर नज़र रखे हुए हैं ,. उन्होंने साफ़ कह दिया है कि चाहे जो करना पड़े भारतीयों को सुरक्षित लाना सर्वोच्च प्राथमिकता है . राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित  डोभाल हर मिनट की घटनाओं को देख रहे हैं , आसियान के लिए नियुक्त विशेष दूत सुरेश रेड्डी को इराक भेज दिया गया है क्योंकि मोसुल में उनके कुछ संपर्क सूत्र बताये जाते हैं . सबसे बड़ी परेशानी यह है कि इन मजदूरों को रिहा करवाने के लिए सरकार के अधिकारियों की समझ में नहीं आ रहा है कि किससे बात की जाए. इस इलाके में इराकी सरकार की अपनी कोई हैसियत नहीं हैं , इस्लामिक रिपब्लिक आफ इराक एंड सीरिया  के लड़ाकुओं के नेता से किसी का सम्पर्क नहीं है, उनसे कूटनीतिक चैनल से बात की भी नहीं  जा सकती . अजीब बात है कि नई सरकार की सभी चुनौतियां उसी सरज़मीन से आ रही हैं जहां से अमरीकी राष्ट्रपतियों की आती रही हैं.भारत के लिए  चिंता की बात यह है कि उत्तरी इराक के उसी इलाके में भारत से जाकर काम करने वाले लोग बड़ी संख्या में रहते हैं  . मोसुल के पास ही पूर्व राष्ट्रपति , सद्दाम हुसेन का शहर तिरकित है जहां काम करने वाली कुछ  नर्सों के बारे में बताया जा रहा है की उनको भी भारी परेशानी का सामना करना पड़ रहा  है.  

तेल से जुड़ी राजनीति, कूटनीति और अर्थशास्त्र से भारत बहुत  अधिक प्रभावित  होने वाला  है . इराकी गृहयुद्ध के चलते भारत के नवनिर्वाचित प्रधानमंत्री के वे सपने भी प्रभावित होने वाले हैं जो उन्होंने चुनाव अभियान के दौरान देखा था. उनके सपने  थे कि देश की अर्थव्यवस्था को  फिर से पटरी पर ला देगें , विकास की गति तेज़ कर देगें , बेकार नौजवानों को नौकरियाँ देगें और मंहगाई कम कर देगें .यह सारे सपने तेल की नियमित सप्लाई पर निर्भर हैं . पश्चिम एशिया के जो देश इराक के गृहयुद्ध से सीधे तौर पर प्रभावित हैं ,उनमें प्रमुख हैं---- साउदी अरब, इरान, इराक ,सीरिया संयुक्त अरब अमीरात और कुवैत . इन देशों से भारत के कुल पेट्रोलियम आयात का ५७ प्रतिशत हिस्सा आता है . ज़ाहिर है यहाँ की अस्थिरता भारत की सम्पन्नता के सपनों पर सबसे बड़ा हमला माना जायेगा.


भारत के साथ साथ अमरीका पश्चिम एशिया की हुयी राजनीति में बुरी तरह से उलझ गया है . इराक और सीरिया में वहां की सरकारों के खिलाफ हथियारबंद विद्रोहियों का हमला चल रहा है . दोनों ही देशों में शासक शिया मत के मानने वाले हैं जबकि विद्रोही पूरी तरह से सुन्नी मतावलंबी हैं . दुनिया जानती है की इराक में फर्जी  कारणों से हमला करना अमरीकी विदेशनीति की बहुत बड़ी असफलताओं में शुमार है .जब तक अमरीकी फौजें इराक में रहीं अमरीकी कृपा से राज कर रहे शिया प्रधानमंत्री की मौज थी लेकिन करीब ढाई साल पहले जब सभी अमरीकी सैनिक इराक से विदा हो गए तो अब वहां जिस संगठन को इराकी अलकायदा कहा जाता था उसने अपने आपको रिग्रूप  कर लिया है . वहीं संगठन अब इस्लामिक स्टेट आफ इराक़ एंड सीरिया  के नाम से जाना जाता है .
इस्लामिक स्टेट आफ इराक एंड सीरिया कोई  सरकार नहीं है लेकिन जब इराक के सबसे बड़े शहर मोसुल पर इनका कब्जा हुआ और इराकी सेना वहां से भागी तो इन लोगों ने मोसुल में शरिया कानून लागू कर दिया . इनके  हथियारबंद लड़ाकुओं ने बहुत सारे कैदियों को जेल से छुडा दिया बैंक में लूटपाट किया और फरमान जारी कर दिया कि कोई भी लड़की तब तक घर से बाहर नहीं निकलेगी जब तक कि उसके साथ कोई मर्द न हो .चोरी करने वालों का हाथ काटने का नियम लागू कर दिया .गया . ऐलान किया गया की मोसुल में निजाम-ए -मुस्तफा कायम हो गया है . मोसुल के नए हुक्मरान कह रहे हैं कि यह अमरीका के उस हमले का बदला है जो उसने नैटो के साथ मिलकर इराक पर किया था .ज़ाहिर है कि अमरीका विरोधी भावना उफान पर है और अमरीका यहाँ सब कुछ गँवा चुका है .
अमरीका की विदेशनीति की धज्जियां तो बार बार उडी हैं लेकिन जो पश्चिम एशिया में हो रहा है वह अमरीकी शासकों के लिए बहुत ही  दुखद है . जिस अलकायदा के विरोध के लिए अमरीका ने अफगानिस्तान पर हमला किया था , उसी की सहयोगी संस्था ,इस्लामिक रिपब्लिक आफ इराक एंड सीरिया को सीरिया के शिया शासक बसहर अल असद के खिलाफ हथियार दिए जा रहे हैं . और इराक में उसी अलकायदा संगठन की सामरिक उफान को देख कर अमरीका चुप है और अपने प्रिय इराकी शासक  राष्ट्रपति मलिकी की तबाही देखने के लिए अभिशप्त है . अमरीकी नीतियों के लालबुझक्कड़  स्वरुप का नतीजा है की आज अमरीका ऐसी दुविधा में है जिसके सामने सांप छंछूदर की दुविधा भी शर्म से लाल हो जाए. बहरहाल अमरीकी विदेशनीति की तो वह परवाह करेगा , भारत के चालीस मजदूरों के अगवा होने के बाद यह लड़ाई भारत के लिए भी  बहुत ही महत्वपूर्ण  हो गयी है . प्रार्थना की जानी चाहिए कि गलत अमरीकी विदेशनीति के नतीजों से भारत के राष्ट्रीय हितों का नुक्सान नहीं होगा .

Tuesday, June 17, 2014

जातिप्रथा के विनाश के बुनियादी सवाल उठाने का वक़्त


शेष नारायण सिंह


 
बदायूं में पिछड़ी जाति की बच्चियों के साथ जो हुआ है उसकी चर्चा ज़बरदस्त तरीके से हो रही है . सारी चर्चा में वंचित तबके की  बच्चियों के साथ हुए अन्याय पर किसी की नज़र नहीं है . सभी राजनीतिक पार्टियां अपने  वोट बैंक को ध्यान में रख कर प्रतिक्रिया दे रही  हैं . समाजवादी पार्टी के नौजवान  मुख्यमंत्री ने किसी महिला पत्रकार के सवाल के जवाब में एक बार फिर गैरजिम्मेदार बयान दे दिया है . केंद्र में अब बीजेपी की सरकार है और उसको समाजवादी पार्टी से किसी राजनीतिक समर्थन की दरकार नहीं है . उत्तर प्रदेश के बीजेपी नेताओं की इच्छा साफ़ नज़र आती है कि लोकसभा चुनाव में बेहतरीन जीत  के बाद अगर राज्य में विधान सभा के चुनाव हो जाएँ तो लखनऊ में भी बीजेपी की सरकार बन सकती है . समाजवादी पार्टी के नेता इस विश्वास के साथ काम कर रहे हैं की २०१७ तक उनकी सरकार है और उनको स्पष्ट बहुमत हासिल है लिहाज़ा उनको कोई हटा नहीं सकता . लगता है कि समाजवादी पार्टी के नेता मुगालते में हैं . केंद्र की सरकार अगर चाहे तो राज्य सरकार को गिरा सकती है . इसका सबसे बड़ा उदाहरण तो १९७७ में जनता पार्टी की जीत के बाद का है . कई राज्यों की कांग्रेस सरकारें तत्कालीन गृह मंत्री चौधरी चरण सिंह ने यह कह कर   बर्खास्त करने की नीति चल दी थी कि  उन राज्यों में कांग्रेस पार्टी लोकसभा चुनाव में बुरी तरह से हार गयी थी और उसको विधानसभा में मिला जनादेश भी  बेमतलब हो गया था .  उसके बाद चुनाव हुआ और मौजूदा मुख्यमंत्री के पिताजी मुलायम सिंह यादव राज्य में कैबिनेट मंत्री के रूप में शपथ लेने में सफल रहे थे . उत्तर प्रदेश  का ही दूसरा उदाहरण है जब १९८० में बाबू बनारसी दास की सरकार को संजय गांधी ने पडरौना के पास के एक गाँव नारायण पुर में दलितों पर हुए  अत्याचार के बाद केंद्र में नई नई सत्ता पाकर राज कर रही इंदिरा गांधी की सरकार ने बर्खास्त कर दिया था . नारायणपुर में दलितों के घर जला दिए गए थे और उन पर भारी अत्याचार हुआ था. दलितों के पक्षधर के रूप में उन दिनों पडरौना के नेता और दून स्कूल के पूर्व छात्र सी पी एन सिंह बहुत सक्रिय थे . अमेठी के तत्कालीन एम पी संजय गांधी की प्रेरणा से  नारायण पुर के काण्ड को इंदिरा गांधी की सरकार ने संविधान के ब्रेकडाउन की घटना माना था और सरकार को बर्खास्त कर दिया था . उसके बाद ही वी पी सिंह को संजय गांधी ने मुख्यमंत्री बनाया था . बदायूं की  बर्बरता की घटना को मीडिया ने उत्तर प्रदेश की कानून व्यवस्था से जोड़कर बहुत बड़ा बना दिया है . और खबर को सनसनीखेज़ बनाने के चक्कर में  सच्चाई की जांच जैसी आवश्यक कार्यवाही को नज़रंदाज़ कर दिया . बदायूं की  बच्चियों को दलित  जाति के रूप में पेश किया जा रहा  है जबकि वास्तव में वे पिछड़ी मौर्या जाति की लडकियां है . हालांकि इस जानकारी के बाद भी बर्बरता की घटना पर कोई फर्क नहीं पड़ता लेकिन  मीडिया को सच्चाई की जांच किये बिना खबरों को चलाना नहीं चाहिए . इसी से जुड़ा हुआ जाति के विमर्श का बड़ा सवाल भी  है . 
उत्तर प्रदेश में पिछले २५ वर्षों से ऐसी सरकारें हैं  जो डॉ राम मनोहर लोहिया और डॉ भीमराव आंबेडकर के  अनुयायियों की हैं . बीच में दो तीन बार कुछ महीनों के लिए बीजेपी की सरकारें आयीं लेकिन वे भी  मायावती के समर्थन से ही चल रही थीं . भारत में जाति प्रथा का सबसे अधिक विरोध डॉ लोहिया और डॉ आंबेडकर ने किया था . दोनों ही मनीषी चाहते थे की जाति प्रथा का विनाश हो जाए . लेकिन  डॉ लोहिया के अनुयायी मुलायम सिंह यादव और डॉ आंबेडकर की अनुयायी मायावती की पार्टियां जातियों को बनाए रखने में सबसे ज़्यादा रूचि लेती हैं क्योंकि वे कुछ जातियों को अपना वोटबैंक मानती हैं . अगर जातिप्रथा को ख़त्म करने की दिशा में काम हो रहा होता तो  जाति पर आधारित इस तरह की  अराजकता न होती . देश का दुर्भाग्य है कि महान राजनीतिक चिंतकों के  नाम पर सत्ता पर काबिज़ हुए लोग अपने ही आदर्शों की बात नहीं मानते . बदायूं की घटना के सन्दर्भ  में एक बार फिर जाति प्रथा के सवालों को सन्दर्भ में लेने की ज़रूरत है . ज़रूरी यह है कि उन किताबों को एक बार फिर झाड पोंछ कर बाहर लाया जाय जिन्होंने भारत के राजनीतिक इतिहास में  सबसे ज़्यादा योगदान दिया है .
पिछली सदी के भारत के इतिहास में पांच किताबों का सबसे ज़्यादा योगदान है . इन किताबों में बताये गए  राजनीतिक दर्शन के आधार पर ही बीसवीं शताब्दी की राजनीति तय हुयी थी. इन किताबों में महात्मा गाँधी  की हिंद स्वराज तो है हीइसके अलावा जिन चार किताबों ने भारत के राजनीतिक सामाजिक चिंतन को प्रभावित किया उनके नाम हैंभीमराव अंबेडकर की जाति का विनाश मार्क्‍स और एंगेल्स की कम्युनिस्ट मैनिफेस्टोज्योतिराव फुले की गुलामगिरी और वीडी सावरकर की हिंदुत्व। अंबेडकरमार्क्‍स और सावरकर के बारे में तो उनकी राजनीतिक विचारधारा के उत्तराधिकारियों की वजह से हिंदी क्षेत्रों में जानकारी है। क्योंकि मार्क्‍स का दर्शन कम्युनिस्ट पार्टी कासावरकर का दर्शन बीजेपी का और अंबेडकर का दर्शन बहुजन समाज पार्टी का आधार है लेकिन19 वीं सदी के क्रांतिकारी चितंक और वर्णव्यवस्था को गंभीर चुनौती देने वाले ज्योतिराव फुले के बारे में जानकारी की कमी है। ज्योतिराव गोविंदराव फुले का जन्म पुणे में हुआ था और उनके पिता पेशवा के राज्य में बहुत सम्माननीय व्यक्ति थे। लेकिन ज्योतिराव फुले अलग किस्म के इंसान थे। उन्होंने दलितों के उत्थान के लिए जो काम किया उसकी तुलना किसी से नहीं की जा सकती। उनका जन्म 1827 में पुणे में हुआ थामाता पिता संपन्न थे लेकिन महात्मा फुले हमेशा ही गरीबों के पक्षधर बने रहे। उनकी महानता के कुछ खास कार्यों का ज़िक्र करना ज़रूरी है।
1848 में शूद्रातिशूद्र लड़कियों के लिए एक स्कूल की स्थापना कर दी थी। आजकल जिन्हें दलित कहा जाता हैमहात्मा फुले के लेखन में उन्हें शूद्रातिशूद्र कहा गया है। 1848 में दलित लड़कियों के लिए स्कूल खोलना अपने आप में एक क्रांतिकारी कदम है। क्योंकि इसके 9 साल बाद बंबई विश्वविद्यालय की स्थापना हुई। उन्होंने 1848 में ही मार्क्‍स और एंगेल्स ने कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो का प्रकाशन किया था। 1848 में यह स्कूल खोलकर महात्मा फुले ने उस वक्त के समाज के ठेकेदारों को नाराज़ कर दिया था। उनके अपने पिता गोविंदराव जी भी उस वक्त के सामंती समाज के बहुत ही महत्वपूर्ण व्यक्ति थे। दलित लड़कियों के स्कूल के मुद्दे पर बहुत झगड़ा हुआ लेकिन ज्योतिराव फुले ने किसी की न सुनी। नतीजतन उन्हें 1849 में घर से निकाल दिया गया। सामाजिक बहिष्कार का जवाब महात्मा फुले ने 1851 में दो और स्कूल खोलकर दिया। जब 1868में उनके पिताजी की मृत्यु हो गयी तो उन्होंने अपने परिवार के पीने के पानी वाले तालाब को अछूतों के लिए खोल दिया। 1873 में महात्मा फुले ने सत्यशोधक समाज की स्थापना की और इसी साल उनकी पुस्तक गुलामगिरी का प्रकाशन हुआ। दोनों ही घटनाओं ने पश्चिमी और दक्षिण भारत के भावी इतिहास और चिंतन को बहुत प्रभावित किया।


 पिछली सदी के सामाजिक और राजनीतिक दर्शन के जानकारों में डा. बीआर अंबेडकर का नाम बहुत ही सम्मान के साथ लिया जाता है। डॉ आंबेडकर के राजनीतिक दर्शनशास्त्र में महात्मा फुले के चिंतन का साफ़ असर देखा जा सकता है .महात्मा गांधी के समकालीन रहे अंबेडकर ने अपने दर्शन की बुनियादी सोच का आधार जाति प्रथा के विनाश को माना था उनको विश्वास था कि तब तक न तो राजनीतिक सुधार लाया जा सकता है और न ही आर्थिक सुधार लाया जा सकता है।  जाति के विनाश के सिद्धांत को प्रतिपादित करने वाली उनकी किताब,जाती का विनाश ने   हर तरह की राजनीतिक सोच  को प्रभावित किया. है..आज सभी पार्टियां डॉ अंबेडकर के नाम की रट लगाती हैं लेकिन उनकी बुनियादी सोच से बहुत बड़ी संख्या में लोग अनभिज्ञ हैं.सच्चाई यह है कि पश्चिम और दक्षिण भारत में सामाजिक परिवर्तन के जो भी आन्दोलन चले हैं उसमें इस किताब का बड़ा  योगदान  है. यह  काम महाराष्ट्र में उन्नीसवीं सदी में ज्योतिबा फुले ने शुरू किया था . उनके बाद के क्रांतिकारी सोच के नेताओं ने उनसे बहुत कुछ सीखा .. डॉ अंबेडकर ने महात्मा फुले की शिक्षा संबंधी  सोच को परिवर्तन की राजनीति के केंद्र में रख कर काम किया और आने वाली नस्लों को जाति के विनाश के रूप में एक ऐसा गुरु मन्त्र दिया जो सही मायनों  में परिवर्तन का वाहक बनेगा.  डॉ अंबेडकर ने ब्राह्मणवाद के खिलाफ शुरू किये गए ज्योतिबा फुले के अभियान को एक अंतर राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य दिया.

अपनी इस किताब में डा.अंबेडकर ने बहुत ही साफ शब्दों में कह दिया है कि जब तक जाति प्रथा का विनाश नहीं हो जाता समतान्याय और भाईचारे की शासन व्यवस्था नहीं कायम हो सकती। जाहिर है कि जाति व्यवस्था का विनाश हर उस आदमी का लक्ष्य होना चाहिए जो अंबेडकर के दर्शन में विश्वास रखता हो। अंबेडकर के जीवन काल में किसी ने नहीं सोचा होगा कि उनके दर्शन को आधार बनाकर राजनीतिक सत्ता हासिल की जा सकती है। लेकिन ऐसा हुआ और मायावती उत्तर प्रदेश की एक मज़बूत नेता के रूप में  उभरीं .मायावती और उनके राजनीतिक गुरू कांशीराम ने अपनी राजनीति के विकास के लिए अंबेडकर का सहारा लिया और सत्ता भी पायी लेकिन अंबेडकर के नाम पर सत्ता का सुख भोगने वाली  सरकार ने उनके सबसे प्रिय सिद्धांत को आगे बढ़ाने के लिए कोई क़दम नहीं उठाया .इस बात  के भी पुख्ता सबूत हैं कि मायावती जाति प्रथा का विनाश चाहती ही नहीं हैं क्योंकि उनक वोट बैंक एक ख़ास जाति से आता है .
मायावती की  पिछले बीस वर्षों की राजनीति पर नज़र डालने से प्रथम दृष्टया ही समझ में आ जाता है कि उन्होंने जाति प्रथा के विनाश के लिए कोई काम नहीं किया है। बल्कि इसके उलट वे जातियों के आधार पर पहचान बनाए रखने की पक्षधर है। दलित जाति को अपने हर सांचे में फिट रखने के लिए तो उन्होंने छोड़ ही दिया है अन्य जातियों को भी उनकी जाति सीमाओं में बांधे रखने के लिए बड़े पैमाने पर अभियान चला रही हैं। जब मुख्यमंत्री थीं तो हर  जाति की भाईचारा कमेटियाँ बना दी थीं और उन कमेटियों को उनकी पार्टी का कोई बड़ा नेता संभालता था .डाक्टर साहब ने साफ कहा था कि जब तक जातियों के बाहर शादी ब्याह की स्थितियां नहीं पैदा होती तब तक जाति का इस्पाती सांचा तोड़ा नहीं जा सकता। चार बार मुख्यमंत्री की कुर्सी पर विराजने वाली मायावती जी ने एक बार भी सरकारी स्तर पर ऐसी कोई पहल नहीं की जिसकी वजह से जाति प्रथा पर कोई मामूली सी भी चोट लग सके। जाहिर है जब तक समाज जाति के बंधन के बाहर नहीं निकलता आर्थिक विकास का लक्ष्य भी नहीं हासिल किया जा सकता।
इस पुस्तक में जाति के विनाश की राजनीति और दर्शन के बारे में गंभीर चिंतन भी है और विमर्श भी। और इस देश का दुर्भाग्य है कि आर्थिकसामाजिक और राजनीतिक विकास का इतना नायाब तरीका हमारे पास हैलेकिन उसका इस्तेमाल नहीं किया जा रहा है। डा- अंबेडकर के समर्थन का दम ठोंकने वाले लोग ही जाति प्रथा को बनाए रखने में रूचि रखते है हैं और उसको बनाए रखने के लिए एड़ी चोटी का जोर लगा रहे हैं। जाति के विनाश के लिए डाक्टर अंबेडकर ने सबसे कारगर तरीका जो बताया था वह अंर्तजातीय विवाह का थालेकिन उसके लिए राजनीतिक स्तर पर कोई कोशिश नहीं की जा रही हैलोग स्वयं ही जाति के बाहर निकल कर शादी ब्याह कर रहे हैयह अलग बात है। पुस्तक में अंबेडकर ने अपने आदर्शों का जिक्र किया है। उन्होंने कहा कि जातिवाद के विनाश के बाद जो स्थिति पैदा होगी उसमें स्वतंत्रताबराबरी और भाईचारा होगा। एक आदर्श समाज के लिए अंबेडकर का यही सपना था। एक आदर्श समाज को गतिशील रहना चाहिए और बेहतरी के लिए होने वाले किसी भी परिवर्तन का हमेशा स्वागत करना चाहिए। एक आदर्श समाज में विचारों का आदान-प्रदान होता रहना चाहिए।

अंबेडकर का कहना था कि स्वतंत्रता की अवधारणा भी जाति प्रथा को नकारती है। उनका कहना है कि जाति प्रथा को जारी रखने के पक्षधर लोग राजनीतिक आजादी की बात तो करते हैं लेकिन वे लोगों को अपना पेशा चुनने की आजादी नहीं देना चाहते इस अधिकार को अंबेडकर की कृपा से ही संविधान के मौलिक अधिकारों में शुमार कर लिया गया है और आज इसकी मांग करना उतना अजीब नहीं लगेगा लेकिन जब उन्होंने उनके दशक में में यह बात कही थी तो उसका महत्व बहुत अधिक था। अंबेडकर के आदर्श समाज में सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा हैबराबरी ब्राहमणों के अधियत्य वाले समाज ने उनके इस विचार के कारण उन्हें बार-बार अपमानित किया। सच्चाई यह है कि सामाजिक बराबरी के इस मसीहा को जात पात तोड़क मंडल ने भाषण नहीं देने दिया लेकिन अंबेडकर ने अपने विचारों में कहीं भी ढील नहीं दी .उनका वह भाषण आज किताब के रूप में हर भाषा में उपलब्ध है और आने वाले राजनीतिक विमर्श को दिशा देने में अग्रणी भूमिका निभाएगा .
उत्तर प्रदेश के मौजूदा मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के राजनीतिक आदर्श और पिता मुलायम सिंह यादव की राजनीति डॉ राम मनोहर लोहिया की राजनीति से प्रभावित है . एक बार जब बनारस जाकर तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ  राजेन्द्र प्रसाद ने ब्राह्मणों का पाँव  धोया था तो जवाहरलाल नेहरू ने एतराज़ किया था . उस दौर में डॉ लोहिया ने अपनी किताब  कहा था कि," जातिप्रथा के विरुद्ध इधर उधर की और हवाई बातों के अलावा प्रधानमंत्री ( नेहरू ) ने जाति तोड़ने और सबके बीच भाईचारा  लाने के लिए क्या किया ,इसकी जानकारी दिलचस्प होगी . एक बहुत ही मामूली कसौटी पर  उसे परखा जा सकता है . जिस दिन प्रशासन और फौज में भर्ती के लिए और बातों के साथ साथ शूद्र और द्विज के बीच विवाह को योग्यता और सहभोज के लिए इनकार करने पर योग्यता मानी जायेगी ,उस दिन जाति पर सही मानी में हमला शुरू होगा . वन दिन अभी आना बाकी है ."
लोकसभा चुनाव २०१४ का चुनाव लहर के आधार पर लड़ा गया .समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी हार चुकी  हैं लेकिन  राज्य में सामाजिक परिवर्तन की वाहक यही पार्टियां बन सकती हैं . क्या  यह पार्टियां अपने आदर्श पुरुषों , डॉ लोहिया और आंबेडकर को ज़रूरी महत्व देने पर विचार करेगीं .  यह एक ज़रूरी सवाल  है जिसके आधार पार ही भावी राजनीति और सामाजिक समरसता या दुश्मनी की बुनियाद तय होगी .

इराक और अफगानिस्तान में शान्ति और स्थिरता भारत की तरक्की की ज़रूरी शर्त


 शेष नारायण सिंह 
इराक एक राष्ट्र के रूप में टूट चुका है . ताज़ा वारदात दिल दहला देने वाली है . इस्लामिक स्टेट आफ इराक एंड  सीरिया ने दावा किया है कि उसने १७०० इराकी  सैनिकों को पकड़ लिया था और अब  उन्हें फायरिंग स्क्वाड के सामने खड़े करके मार डाला गया है . दावा किया गया है कि जो तस्वीरें इन लोगों ने ट्विटर पर लगाई हैं , वे इन्हीं बदकिस्मत लोगों की हैं . इस्लामिक स्टेट आफ इराक एंड  सीरिया  कोई  राज्य नहीं है . यह इराक में मौजूद अल-कायदा संगठन का ही नाम है . भारी हथियारों से लैस यह संगठन इराक के कई बड़े शहरों पर क़ब्ज़ा कर चुका है . उत्तर इराक के सबसे बड़े शहर मोसुल पर इसका क़ब्ज़ा है. १७०० सैनिकों को मौत के घाट उतारने की जो तस्वीरें ट्विटर पर पोस्ट की गयी हाँ , वे पूर्व राष्ट्रपति सद्दाम हुसैन के जन्मस्थान तिकरित की हैं . बताया जा रहा है कि दज़ला नदी के किनारे बने हुए सद्दाम के पुराने महल के प्रांगण में ही सैनिकों को इकठ्ठा किया गया था और वहीं से उनको उन जगहों पर ले जाया गया जहां उनको सामूहिक कब्रों में फेंक दिया गया . इस्लामिक स्टेट आफ इराक एंड सीरिया पुराने मेसोपोटामिया में  काम करने वाला एक ज़बरदस्त संगठन है . यह लेबनान , इजरायल, जार्डन और सीरिया पर भी अपना दावा ठोंकता है लेकिन फिलहाल तो इसका सारा फोकस उत्तरी इराक में है . इस्लामिक स्टेट आफ इराक एंड  सीरिया के जन्म को इराक में अमरीका की असंगत नीति का नतीजा बताया जा सकता है . इसकी स्थापना इराक युद्ध के शुरुआती दिनों में ही हो गयी थी . २००४ में इस संगठन को इराक का अल कायदा माना  जाता था . यह ऐसे लड़ाकुओं का संगठन था जो स्पष्ट रूप से सद्दाम के भक्त नहीं थे लेकिन सद्दाम हुसेन के साथ हो रहे अमरीकी व्यवहार से नाराज़ थे . उस दौर के अन्य लड़ाकू संगठन , मुजाहिदीन शूरा काउन्सिल, जैश अल फातिहीन , जैश अल ताईफा , अल मंसूरा आदि ने मिलकर एक तंजीम  की स्थापना की थी . इराक युद्ध के दौरान भी इस  संगठन की मौजूदगी इराक के अल अंबार, निनावा, किरकुक, बाबिल, दियाला, और सलाह अद्दीन इलाकों में थी . इस्लामिक स्टेट आफ इराक एंड सीरिया शुरू में ऐसा कोई मज़बूत संगठन नहीं था लेकिन २०१२ के बाद से यह उत्तरी इराक में अपनी हुकूमत चला रहा है . कुर्दों के इलाके में भी इराक के शिया प्रधानमंत्री का कोई ख़ास असर नहीं  है . लगता  है कि एक अलग कुर्दिस्तान भी बन ही चुका है .  जिन सत्रह सौ सैनिकों को मारा गया है , वे इराकी सेना के शिया सैनिक ही थे  , उनके साथ पकडे गए जो सैनिक सुन्नी थे उनको सिविलियन कपडे पहनाकर भगा दिया गया था . इस्लामिक स्टेट आफ इराक एंड  सीरिया के मौजूदा सुप्रीमो , अबू बकर बगदादी अब एक स्वत्रन्त्र संगठन के मालिक हैं और वे अल कायदा या किसी और से केवल अपने फायदे के लिए संपर्क रखते हैं . एक बार अलकायदा के मुखिया अयमान अल ज़वाहिरी ने आदेश दिया था कि इस्लामिक स्टेट आफ इराक एंड  सीरिया की सीरिया शाखा को भंग कर दिया जाय लेकिन बगदादी ने साफ़ मना कर दिया था .
बहरहाल आतंरिक संगठन की इनकी जो भी लड़ाई हो , इस्लामिक स्टेट आफ इराक एंड  सीरिया इराक में आज एक ऐसी सैनिक ताक़त है जिसके सामने इराक की सरकार की कुछ नहीं चल रही है . अमरीका के राष्ट्रपति बराक ओबामा अपने पूर्व राष्ट्रपति जार्ज बुश के फैलाये गए उस रायते से पिंड छुड़ाना चाहते हैं जो उन्होंने अफगानिस्तान और इराक में फैलाया था . लेकिन लगता है कि उनका सपना बहुत ही मुश्किल दौर से गुज़र रहा है . इराक और अफगानिस्तान दोनों ही देशों में अलकायदा की विचारधारा वाले वहाबी मुसलमानों के संगठन भारी पड़ रहे हैं .
अभी दो दिन पहले भारतीय अखबारों में भी खबर छपी थी कि तालिबान आकाओं ने हुक्म कर दिया  है कि अफगानिस्तान में काम कर  रहे वे तालिबान आतंकी अब भारत की तरफ रुख करें और कश्मीर में वहां के मुकामी लोगों के साथ मिलकर हमले करें . भारत की सुरक्षा की चिंता करने वाले तबकों में इस खबर की जानकारी पहले से ही थी और उस पर काबू पाने की कोशिश भी चल रही है लेकिन जानकारी जब अखबारों में छप गयी तो शेयर बाज़ार पर भी असर दिखा . इराक के राष्ट्र पर आसन्न खतरे को देखते हुए सबको मालूम है कि पेट्रोलियम पदार्थों की सप्लाई और कीमतों पर उलटा असर पड़ने वाला  है .ज़ाहिर है कि इराक में अस्थिरता का दौर शुरू होने वाला है . इराक से भारत भी भारी मात्रा में तेल आयात करता  है . ज़ाहिर है कि भारत इस घटनाक्रम से प्रभावित होने वाला है .
इराक और अफगानिस्तान में चल रही अस्थिरता का भारत पर सीधे तौर पर असर पडेगा . यहाँ  करीब चार हफ्ते पहले नई सरकार आयी है .नरेंद्र मोदी देश के नए प्रधानमंत्री बने हैं . उनसे देश की कमज़ोर अर्थव्यवस्था में सुधार की बहुत उम्मीदें हैं लेकिन अगर अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में तेल की कीमतें बढ़ गयीं तो उनके लिए  देश की आर्थिक सेहत को ठीक करना पाने के मिशन में बहुत अडचनें  आयेगीं .  देश में मौजूद पेट्रोलियम  संसाधनों में सबसे प्रमुख तत्व ,गैस की  कीमतों में सरकार पद संभालने के  साथ साथ वृद्धि कर ही चुकी है . ज़ाहिर है कि विदेशी तेल के महँगा होने के बाद प्रधानमंत्री का मंहगाई पर काबू कर पाने का सपना बहुत ही मुश्किल दौर से गुजरने के लिए मजबूर हो जाएगा. खतरा यह भी है कि मौजूदा हालात के मद्दे नज़र महंगाई घटना तो दूर कहीं बढना न शुरू हो जाए.
 इराक और अफगानिस्तान में चल रहे अल कायदा के प्रभाव वाले झगडे का सीधा  नुक्सान भारत की आतंरिक सुरक्षा की हालात पर पड़ सकता है . पाकिस्तान में मौजूद अल कायदा का सबसे बड़े खैरख्वाह , हाफ़िज़ मुहम्मद सईद और तालिबान की संस्थापक पाकिस्तानी फौज और आई एस आई भारत को तबाह करने के सपने हमेशा देखते रहते  हैं . अफनिस्तान में काम कर रहे कुछ तालिबानी आतंकियों  को कश्मीर में झोंकने की बातें चर्चा में हैं . अगर यह हो गया तो देश में आर्थिक सम्पन्नता का प्रयास कर रही मौजूदा सरकार का ध्यान सबसे पहले सुरक्षा की तरफ जाएगा . ज़ाहिर है कि उससे अर्थव्यवस्था पर फालतू का बोझ पडेगा और मंहगाई को ख़त्म करने और नौजवानों को रोजगार देने की नरेंद्र मोदी की  योजना को झटका लगेगा . भारत समेत अंतर्राष्ट्रीय बिरादरी को कोशिश करनी चाहिए कि इराक और अफगानिस्तान की हालात जल्द से जल्द स्थिर बनें .

Monday, June 16, 2014

सरकार अगर जनपक्षधर रही तो देश सख्त फैसलों का स्वागत करेगा



शेष नारायण सिंह 

जब नरेंद्र मोदी सरकार ने करीब तीन हफ्ते पहले शपथ ली थी तो सब ने कहा था कि इस सरकार के काम काज पर छः महीने पहले टिप्पणी करने की ज़रुरत नहीं है . प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को अपने विचारों को नीति के रूप में लागू करके देश की प्रगति की भावी दिशा निर्धारित करने में इतना टाइम तो लग ही जाएगा . उम्मीद की गयी थी कि वे विकास के कुछ ऐसे माडल लायेगें जिनसे वे लक्ष्य  हासिल किये जा सकें जिनका अपने चुनाव अभियान के दौरान उन्होंने बार बार वायदा किया था . दो बातें उन्होंने ख़ास तौर पर कही थीं . एक तो यह कि उनके सत्ता संभालने के बाद मंहगाई पर काबू पा लिया जायेगा और दूसरी बात कि देश में बेरोजगार नौजवानों को काम  मिलेगा. बेरोजगारी जैसे मुद्दों पर मौजूदा सरकार जुलाई में पेश होने वाले बजट के समय जो बातें करेगी उससे पता लगेगा . नरेंद्र मोदी सरकार के वित्त मंत्री का भाषण ऐतिहासिक होगा और उसी के आधार पर आने वाले वर्षों में आम आदमी की सम्पन्नता या विपन्नता के बारे में फैसला लिया जाएगा .लेकिन मंहगाई कम करने वाले तरीकों को तो लगता है कि वर्तमान सरकार ने गंभीरता से नहीं लिया है . कृष्णा गोदावरी बेसिन से निकलने वाली गैस की कीमत को दोगुना कर दिया गया है , यानी उस गैस से जो चीज़ें पैदा होती हैं उनकी कीमत दोगुने से भी ज़्यादा होने वाली है क्यों रासायनिक खाद और बिजली के उत्पादन में उस गैस  का कच्चे माल के रूप में उपयोग होता है . ट्रांसपोर्ट सेक्टर भी गैस पर बहुत हद तक आधारित है . लेकिन हम यह भी जानते  हैं कि जनता की आकांक्षाओं को मूर्त रूप देने के जनादेश पर चुनी गयी सरकार ऐसा कोई भी काम  नहीं करेगी जिस से उस जनादेश देने वाली जनता को तकलीफ हो . इस बात की पूरी संभावना है कि गैस की कीमत बढ़ाने का फैसला बहुत ही मजबूरी में किया गया होगा क्योंकि इस सरकार की मंशा बिलकुल नहीं होनी चाहिए कि चुनाव  नतीजों के आने के महीने भर के अन्दर ऐसा कोई फैसला ले लिया जाए जिस से जनहित उलटे तरीके से प्रभावित होता हो.
गोवा की एक सभा में प्रधानमंत्री ने अपनी बात को बहुत ही साफ़गोई से कह दिया . उन्होने कहा कि पिछली सरकार ने देश की अर्थव्यवस्था को बहुत ही खराब हालत में छोड़ा है . उनकी सरकार को उसको पटरी पर लाना होगा . प्रधानमंत्री ने साफ़ कहा कि अर्थव्यवस्था को सही लाइन पर लाने के लिए सख्त आर्थिंक फैसले करने पड़ेगें . प्रधानमंत्री ने आगे कहा  कि यह फैसले ऐसे होंगें जिसकी वजह से उनकी लोकप्रियता में कमी आयेगी लेकिन उन्होने बताया कि उनको इसके बावजूद भी यह फैसले लेने पड़ेगें .सख्त आर्थिक फैसले का मतलब यह  है कि लोगों को किसी चमत्कार की उम्मीद नहीं करनी चाहिए . सरकार की पूरी कोशिश होगी कि वह राष्ट्रहित को सर्वोपरि रख कर काम करे और सब की भलाई के लिए अर्थव्यवस्था को चुस्त दुरुस्त करने के लिए अगर आम आदमी को कुछ तकलीफें उठानी पड़े तो देश की अवाम को उसके लिए तैयार रहना चाहिए. मुझे नहीं लगता कि इन बातों में कहीं कोई खोट है . ज़ाहिर है देश को अपनी आर्थिक बीमारी ठीक करने के लिए सख्त दवाइयों का सेवन तो करना पडेगा. कोई भी सरकार अगर गंभीरता से कोई काम करती है तो उसपर शक नहीं करना चाहिए . कोई भी स्टेट्समैन प्रधानमंत्री अपनी बात को इसी तरह से रखेगा . जवाहरलाल नेहरू ने देश के हित में ऐसे  फैसले लिए जो आम आदमी को तकलीफ देते थे लेकिन  प्रधानमंत्री के रूप में उस महान  राजनेता ने अपने देशवासियों को यह समझा दिया कि सख्त फैसले देश की जनता के हित में हैं . देश में आज़ादी की लड़ाई के हीरो जवाहरलाल नेहरू का बहुत ही ज्यादा भरोसा किया जाता था .जनता ने उनकी  हर बात को माना और तकलीफें झेलीं लेकिन देशहित के काम में कभी भी जनता आड़े नहीं आयी . लोगों को मालूम था कि जो भी संस्थाएं बन रही हैं सब उनके  ही काम आयेगीं . सबको मालूम था कि नेहरू की सरकार किसी टाटा बिड़ला के लाभ के लिए काम नहीं करती , वह सरकार जनहित में  काम करती है और टाटा बिडला को भी  मजबूर करती है कि उनकी कम्पनियां  देश की अर्थव्यवस्था के विकास में योगदान करे  . उस  प्रक्रिया में उनको लाभ कमाने पर कोई रोक नहीं थी . नरेंद्र मोदी को भी जनता में इसी तरह का भरोसा पैदा करना होगा कि उनकी सरकार  जो भी फैसले लेगी वे किसी पूंजीपति के हित में  नहीं होंगें . लेकिन अगर जनता को पता चल गया कि जनता को कुछ अन्य बात बताकार पूंजीपति के हित के फैसले लिए जा  रहे हैं तो इस देश की जनता बहुत महान है , चुप हो जायेगी और आने वाले चुनावों  के वक़्त अपना आदेश सुना देगी .
डॉ मनमोहन सिंह की सरकार ने यही गलती की . उन्होंने जनमानस में यह भाव बैठा दिया कि उनकी सरकार पूंजीपतियों के हित के निर्णय लेती है . टू जी घोटाले के समय सारे देश को मालूम था कि यू पी ए २ की सरकार  धन्नासेठों को फायदा पंहुचाने के लिए आम आदमी का शोषण कर रही थी . आम आदमी को इनकम  टैक्स में मामूली छूट देकर वह कारपोरेट घरानों को  डेढ़ लाख करोड़ से ज़्यादा की आयकर की सब्सिडी दे रही थी, आर्थिक सुधार के नाम पर मजदूरों के हितों की अनदेखी कर रही थी . कारपोरेट लाबी का दबाव तो यहाँ तक था कि  मजदूरों की आर्थिक और रोज़गार की सुरक्षा के जो क़ानून मौजूद हैं उनको इतना कमज़ोर कर दिया जाए कि पूंजीपति मजदूरों  को दबा सके,परेशान कर सके . अगर सरकार आ गयी होती तो वह काम हो भी जाता . आजकल भी मजदूर कानूनों को बदल देने की वकालत पूंजीपतियों के चाकर जोर शोर से कर रहे हैं . नरेंद्र  मोदी को उनको चुप करा देना चाहिए क्योंकि अगर मजदूरों के हितों को पूंजीपतियों की मर्जी से नुकसान पंहुचाया गया तो वह किसी भी सरकार को नुक्सान करेगा .प्रधानमंत्री को न्याय करना चाहिए और यह कोशिश करनी चाहिए की सब को साफ़  नज़र आये कि न्याय हो रहा है .  अगर वे अपने को जनपक्षधर  प्रधानमंत्री  के रूप में पेश कर सके तो उनको भी वही प्यार मिलेगा जो जवाहरलाल नेहरू को मिला था  लेकिन अगर उनकी नीतियों में डॉ मनमोहन सिंह की सरकार की पूंजी की चाकर नीतियाँ नज़र आने लगीं तो इस  देश की जनता बहुत महान है . किसी भी प्रधानमंत्री को  इंदिरा गांधी, मोरारजी देसाई , राजीव गांधी , वी पी  सिंह आदि की तरह बाहर  का रास्ता भी दिखा देती है . नरेंद्र मोदी के पास अपने आपको जनपक्षधर सिद्ध करने का एक मौक़ा मिला है , देखना दिलचस्प होगा कि वे उसका क्या इस्तेमाल करते हैं .

Sunday, June 15, 2014

आम आदमी पार्टी विकल्प तो नहीं बन सकी लेकिन उसकी राजनीति में दम है

  
शेष नारायण सिंह

दिसंबर २०१३ में हुए दिल्ली विधानसभा के चुनाव में एक राजनीतिक ताक़त बन कर उभरी आम आदमी पार्टी से देश की भावी राजनीति को दिशा मिल सकती है . चुनाव में भारी पराजय के बाद कांग्रेस में ऐसा माहौल है जो सत्ताधारी पार्टी पर सवाल नहीं उठा सकती .देश की राजनीति की ज़रुरत है कि अब जनता  राज करने वाली पार्टियों से मुश्किल सवालात पूछे . जनता की तरफ से सवाल पूछने  का काम अब तक कम्युनिस्ट पार्टियां करती रही हैं लेकिन कम्युनिस्ट पार्टियों की राजनीतिक हैसियत बहुत कम हो जाने के बाद हालात बदल गए हैं .सुकून की बात यह है कि आम आदमी पार्टी के रूप में एक ऐसी पार्टी राजनीतिक के मैदान में  तैयार है जो दोनों ही बड़ी पार्टियों से मुश्किल सवाल पूछ रही है . इस बात की पूरी संभावना है कि अब इसी तरह के सवाल पूछे जायेगें क्योंकि सूचना क्रान्ति और आम आदमी पार्टी के प्रादुर्भाव ने ऐसा माहौल बना दिया है कि अब मुश्किल सवाल पूछने में कोई भी संकोच नहीं रह गया है . भ्रष्टाचार के आचरण को अपनी नियति मान चुकी राजनीतिक पार्टियों के बीच से आम आदमी पार्टी का उदय एक ऐसी घटना है जिसके बाद लोगों को लगने लगा है कि इस देश में परिवारवाद और मनमानी की राजनीतिक ताकतों को रोका जा सकता है .यह अलग बात है कि आम आदमी पार्टी में भी आजकल बहुत उठापटक चल रही है. कहीं कोई नाराज़ है तो कहीं ऐसे लोग पार्टी छोड़कर भाग रहे हैं जो दिल्ली विधानसभा में अच्छे प्रदर्शन के बाद इस  पार्टी से इसलिए जुड़ गए थे कि कुछ धंधा पानी चलेगा लेकिन पार्टी में आतंरिक लोकतंत्र ज़बरदस्त है इसलिए बातें साफ़ होती नज़र आ रही हैं .


कांग्रेस पार्टी में लोकसभा चुनाव में हार के बाद अजीब माहौल है . आलाकमान कल्चर से अभिभूत पार्टी से किसी राजनीतिक लड़ाई की उम्मीद करने का कोई मतलब नहीं है क्योंको वहां अभी भी ऐसे लोगों का वर्चस्व बना  हुआ है जो पार्टी की बुरी तरह से हुयी पराजय के बाद भी कोई सबक सीखने को तैयार नहीं हैं . जो भी पार्टी बची है उस पर क़ब्ज़ा बनाए रखने की कोशिश चल रही है . पार्टी के नेताओं  तक पंहुंच रखने वाले २४ अकबर रोड के हाकिम लोग , नए तरीके की सोच का कोई अवसर आला कमान तक नहीं पंहुचने देना चाहते हैं .अजीब मानसिकता है . लगता है की कुछ नया तामीर करने की इच्छा ही नहीं हैं , सभी मलबे के मालिक वाली मानसिकता से ग्रस्त हैं . लेकिन दिल्ली में कांग्रेस और बीजेपी को चुनौती देने वाली आम आदमी पार्टी से उम्मीद की जानी चाहिए. पिछले एक हफ्ते में ऐसे बहुत सारे राजनीतिक विश्लेषकों से बातचीत हुई है जो कहते हैं कि यह पार्टी चल नहीं पायेगी या कि इसमें ऐसे नेता नहीं है जो साफ़ समझ के साथ राजनीति को दिशा दे  सकें . इन बातों का कोई मतलब नहीं है .एक तो यह बात ही बेमतलब है कि आम आदमी पार्टी में सही राजनीतिक सोच के लोग नहीं है . हम जानते हैं कि वहाँ काम करने वाले , अरविन्द केजरीवाल ,मनीष सिसोदिया ,प्रशांत भूषणआनंद कुमार , योगेन्द्र यादवऔर संजय सिंह ऐसे लोग हैं जिन्होने इसके पहले कई बार स्थापित सत्ता के खिलाफ लोकतांत्रिक सत्ता की बहाली के लिए संघर्ष  किया है और उनकी  राजनीतिक समझ किसी भी राहुल गांधी या नरेंद्र मोदी से ज़्यादा है .इसलिए इन शंकाओं को गंभीरता से नहीं लिया जाना चाहिए . लेकिन इस से भी महत्वपूर्ण बात यह  है कि इस पार्टी का जो मुख्य रोल है उसमें इसने अपने आपको खरा साबित कर दिया है . स्थापित सत्ता के दावेदारों को चुनौती देकर आम आदमी पार्टी  इस बात को पूरे देश में साबित करने में कामयाब हो गयी कि अवाम की तरफ से अगर सही सवाल पूछे जाएँ तो राजनीति की संस्कृति में परिवर्तन संभव है .

हालांकि कांग्रेस लोकसभा २०१४ में बुरी तरह से हार गयी है लेकिन उसको ख़त्म  मान लेना किसी भी राजनीतिक विश्लेषक के लिए जल्दबाजी होगी .सच्चाई यह  है कि सत्ताधारी पार्टी को चुनौती अभी भी कांग्रेस से ही मिलेगी . बस कांग्रेस को एक बार उस मानसिकता को अपनाना होगा जिसमें हारी हुयी फौजें हथियार दाल कर भाग नहीं खडी होतीं बल्कि अपने आपको रिग्रूप करती हैं . आलाकमान कल्चर को छोड़ना भी पड़ सकता है और आम आदमी पार्टी के राजनीतिक अभियान के तरीकों को अपनाना पड़ सकता है क्योंकि मूल रूप से वे कांग्रेस ई तरीके है जो आज़ादी के शुरुआती सत्रह वर्षों में अपनाए  जाते रहे  हैं . जवाहरलाल नेहरू के जाने के बाद कांग्रेस में साम्राज्यवादी पूंजीवादी ताक़तों को अवसर नज़र आने लगा था और इमरजेंसी में तो वही ताक़तें कांग्रेस की भाग्यविधाता बन बैठी थीं . नतीजा यह है कि आज भी जनता दो पार्टियों की साम्राज्यवादी पूंजीवादी राजनीति के बीच पिस रही है . आम आदमी पार्टी ने एक ऐसी खिड़की दे दी है जिसके  रास्ते देश का आम आदमी स्थापित सत्ता की दोनों की पार्टियों को चुनौती दे सकता है . और यह कोई मामूली भूमिका नहीं  है . १९७७ में  जिस तरह से जनता ने चुनाव लड़कर उन लोगों को जिता दिया था जो स्थापित तानाशाही सत्ता के खिलाफ चुनाव लड़ रहे थे ,उसी तरह इस बार दिल्ली विधानसभा में जनता ने आम आदमी पार्टी के उम्म्मीद्वारों को जिता कर यह सन्देश दे दिया है कि अगर राजनीतिक समूह की नीयत साफ़ हो तो जनता के पास ताकत है और वह अपने बदलाव के  सन्देश को देने के लिए किसी भी ईमानदार समूह का साथ दे देती है .और बदलाव की आंधी को गति दे देती है . १९७७ में तानाशाही ताकतों के खिलाफ हुई लड़ाई में जो नतीजे निकले उनके ऊपर उस दौर की उन पार्टियों के पस्तहिम्मत नेताओं ने कब्जा कर लिया जो इंदिरा गांधी की ताकत का लोहा मान कर हथियार डाल चुके थे . जनता पार्टी का गठन १९७७ के उस चुनाव के बाद हुआ जिसमें इंदिरा गांधी और संजय गांधी की तानाशाही हुकूमत को जनता पराजित कर चुकी थी . लेकिन जनता के उस अभियान का  वह नतीजा नहीं निकला जिसकी उम्मीद की गयी  थी. जेल से छूटकर आये नेताओं को लगने लगा कि उनकी पार्टी की लोकप्रियता और उनकी अपनी राजनीतिक योग्यता के कारण १९७७ की चुनावी सफलता मिली थी . वे लोग भी सत्ता से मिलने वाले कोटा परमिट के लाभ को संभालने में उसी तरह से  जुट गए जैसे उस पार्टी के लोग करते थे जिसको हराकर वे आये थे . नतीजा यह हुआ  कि दो साल के अंदर ही जनता पार्टी टूट गयी और सब कुछ फिर से यथास्थितिवादी राजनीति के हवाले  हो गया और संजय गांधी-इंदिरा गांधी की कांग्रेस फिर से सत्ता पर वापस आ गयी. आम आदमी पार्टी का विरोध कर रहे बहुत सारे लोग यही बात  याद दिलाने की कोशिश करते हैं .
जनता पार्टी के प्रयोग को  असफलता के रूप में पेश करने की तर्कपद्धति में दोष है .१९७७ में जनता पार्टी की चुनावी सफलता किसी राजनीतिक पार्टी की सफलता नहीं थी.  वह तो देश की जनता का आक्रोश था जिसने तनाशाही के खिलाफ एक आन्दोलन चलाया था. जनता के पास अपनी कोई राजनीतिक पार्टी नहीं थी ,उसने जनसंघ ,संसोपा,मुस्लिम मजलिसभारतीय लोकदल ,स्वतन्त्र पार्टी आदि राजनीतिक पार्टियों के नेताओं को मजबूर कर दिया था कि इंदिरा गांधी की सत्ता के खिलाफ राजनीतिक लड़ाई कि उसकी मुहिम में सामने आयें . जनता के पास राजनीतिक पार्टी नहीं थी लिहाज़ा जनता पार्टी नाम का एक नया नाम राजनीति के मैदान में डाल दिया गया . और इस तरह से  बिना किसी तैयारी के जनता पार्टी का ऐलान हो गया . चुनाव आयोग के पास जाकर चुनाव  निशान लेने तक का समय नहीं था लिहाजा चौधरी चरण सिंह की पार्टी भारतीय लोकदल के चुनाव निशान हलधर किसान को जनता पार्टी के उम्मीदवारों का चुनाव निशान बना दिया गया . यह जानना  दिलचस्प होगा कि १९७७ का चुनाव जीतने वाले जनता पार्टी के सभी उम्मीदवार वास्तव में भारतीय लोक दल के  संसद सदस्य के रूप में चुनकर आये थे और उसी पार्टी के सदस्य के रूप में उन्होने लोकसभा में सदस्यता की शपथ ली थी . मोरारजी देसाई जिस सरकार के प्रधानमंत्री बने थे वह भारतीय लोकदल की सरकार थी . सरकार बनाने के बाद इन लोगों ने १ मई १९७७ के दिन सम्मलेन करके जनता पार्टी का गठन किया और फिर हलधर किसान जनता पार्टी का चुनाव निशान बना . सब को मालूम है कि जनता पार्टी अपने नेताओं के स्वार्थ के कारण तहस नहस हो गयी और बाद के कई वर्षों तक कांग्रेस के लोग यह भरोसा दिलाते रहे कि कांग्रेस विरोध की राजनीति का कोई मतलब नहीं होता लेकिन यह सच्चाई है कि  जनता पार्टी के प्रयोग ने संजय गांधी ब्रांड तानाशाही को रोक दिया था और दोबारा १९८० में जब कांग्रेस की सत्ता में वापसी हुई तो एक लोकतांत्रिक पार्टी के रूप में  ही उसकी वापसी हुई थी ,१९७५ की तानशाही की राजनीति को  वह तिलांजलि दे चुकी थी.
१९७५ के जनता के आन्दोलन को उस समय की मौजूदा पार्टियों  ने हडपने में सफलता  हासिल कर ली थी क्योंकि उन दिनों जनता की तरफ से कोई राजनीतिक  फार्मेशन नहीं था . आम आदमी पार्टी ने उस कमी को पूरा कर दिया है. आज जनता के पास उसका अपना विकल्प है और उसपर यथास्थितिवाद की पार्टियों का प्रभाव बिलकुल नहीं है .३७ साल पुराने जनता पार्टी के सन्दर्भ का ज़िक्र करने का केवल यह मतलब है कि जब जनता तय करती है तो परिवर्तन असंभव नहीं रह जाता .आम आदमी पार्टी के गठन के समय भी देश की जनता आम तौर पर दिशाहीनता का शिकार हो चुकी थी. देश में दो बड़ी राजनीतिक पार्टियां हैं , कुछ राज्यों में बड़ी राष्ट्रीय पार्टियां तो नहीं हैं लेकिन वहाँ की मुकामी पार्टियों के बीच सारी राजनीति सिमट कर रह गयी है . जनता के सामने कोई विकल्प नहीं है . उसे नागनाथ और सांपनाथ के बीच किसी का चुनाव करना  है लेकिन दिल्ली विधानसभा के चुनाव में जिस तरह से आम आदमी पार्टी ने विकल्प दिया था उसके बाद पूरे देश में राजनीतिक पार्टियों के बीच सक्रियता साफ़ नज़र आ रही है . उम्मीद की जानी चाहिए कि इसके बाद जनता की उन इच्छाओं को सम्मान मिलेगा जिसके तहत वे बदलाव कर देना चाहती हैं .


पिछले २० वर्षों की भारत की राजनीति पर नज़र डालें तो साफ़ नज़र आ जाएगा कि जब तक देशप्रेमी और आर्थिक भ्रष्टाचार के धुर विरोधी लोग राजनीतिक पदों पर नहीं पंहुचते ,देश का कोई भला नहीं होने वाला है .इसी शून्य को भरने की कोशिश आम आदमी पार्टी  ने की है लेकिन उनका राजनीतिक अर्थशास्त्र  बहुत गड्ड मड्ड है. दिसंबर २०१३ में उद्योगपतियों की एक  सभा में उन्होंने ऐलान कर  दिया था कि वे पूंजीवादी राजनीति के समर्थक हैं . इसका मतलब यह हुआ कि वे चाकर पूंजी के लिए काम करेगें और उसी तरह से देश का भला करेगें  जैसा ईस्ट इंडिया कंपनीब्रिटिश साम्राज्य और १९७० के बाद की बाकी सत्ताधारी पार्टियों ने किया है . केवल महात्मा गांधी और जवाहरलाल नेहरू की राजनीतिक प्रमुखता  के दौर में देश के आम आदमी के हित की राजनीति हुई है बाकी तो चाकर पूंजी की सेवा ही चल रही .राजनीतिक ऊहापोह  की राजनीति से अगर आम आदमी पार्टी बाहर निकल सकी तो देश की भावी राजनीति में आम आदमी की भागीदारी के लिहाज़ से महत्वपूर्ण होगा . इस काम में ज़रूरी नहीं है कि अरविन्द केजरीवाल ने जो पार्टी बनाई है वह जनभावनाओं का हरावल दस्ता बने . कोई भी राजनीतिक समूह जो जनता की भागीदारी की बात करेगा वही वास्तव में इस देश की भावी राजनीति की दिशा तय  करेगा . वह समूह कांग्रेस पार्टी भी हो सकती है .लेकिन उसके लिए कांग्रेस को अपनी कोटरी राजनीति की परम्परा को तिलांजलि देनी पड़ेगी .

Friday, June 13, 2014

भारत के खिलाफ शुरू हुआ पाकिस्तानी आतंकवाद अब उसके लिए मुसीबत बन चुका है।


शेष नारायण सिंह 

पाकिस्तान  के कराची हवाई अड्डे पर हमलों का  सिलसिला लगातार जारी  है. तहरीके तालिबान पाकिस्तान ने  हमलों की ज़िम्मेदारी ली है।  इन हमलों  के बाद आत्नकवाद की राजनीति में एक नया अध्याय जुड़ गया है।  जब पाकिस्तान के तत्कालीन  फौजी तानाशाह जनरल ज़िया उल हक़ ने आतंकवाद को विदेशनीति   का बुनियादी आधार बनाने का  खतरनाक खेल खेलना  शुरू किया तो दुनिया  शान्तिप्रिय लोगों ने उनको आगाह किया  था कि  आतंकवाद को कभी भी राजनीति का हथियार नहीं बनाना चाहिए।  लेकिन जनरल  जिया  अपनी ज़िद पर अड़े रहे।  भारत के कश्मीर और पंजाब में उन्होंने फ़ौज़ की मदद से आतंकवादियों को झोंकना शुरू कर दिया।  अफगानिस्तान में भी अमरीकी मदद से उन्होंने आतंकवादियों  पैमाने पर तैनाती की।  इस इलाक़े की मौजूदा तबाही का कारण यही है कि  जनरल  जिया का आतंकवाद अपनी जड़ें  जमा चुका है। 
पाकिस्तानी आतंकवाद की सबसे नई बात यह है कि  पहली बार पाकिस्तानी फ़ौज़ और आई यस आई के खिलाफ इस बार उनके द्वारा पैदा किया गया आतंकवाद ही मैदान में है।  पहली बार पाकिस्तानी इस्टैब्लिशमेंट के खिलाफ तालिबान के लड़ाकू हमला कर रहे हैं।  इसलिए जो   आतंकवाद भारत को नुक्सान पंहुचाने के लिए पाकिस्तानी फ़ौज़ ने तैयार किया था वह अब उनके ही सर की मुसीबत बन चुका है।  भारत में भस्मासुर की जो अवधारणा बताई जाती है ,वह पाकिस्तान में सफल होती   नज़र आ रही है।  अस्सी  के दशक में पाकिस्तान  अमरीका की कठपुतली के रूप में भारत के खिलाफ आतंकवाद फैलाने का काम करता था।  यह  बात हमेशा से ही मालूम थी कि  अमरीका तब से भारत का विरोधी हो गया था जब से अमरीका की मर्ज़ी के खिलाफ जवाहरलाल  नेहरू ने निर्गुट आन्दोलन  की स्थापना की थी।  क़रीब तीन साल पहले अमरीका की जे एफ के लाइब्रेरी में नेहरू-केनेडी पत्रव्यवहार को सार्वजनिक किये जाने के बाद कुछ ऐसे तथ्य सामने आये हैं जिनसे पता चलता है कि अमरीका ने भारत की मुसीबत  के वक़्त कोई मदद नहीं की थी.  भारत के  ऊपर जब १९६२ में चीन का हमला हुआ था तो वह नवस्वतंत्र भारत के लिए सबसे बड़ी मुसीबत थी . उस वक़्त के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने अमरीका से मदद माँगी भी थी लेकिन अमरीकी राष्ट्रपति जॉन केनेडी ने कोई भी सहारा नहीं दिया  और नेहरू की चिट्ठियों का जवाब तक नहीं दिया था . इसके बाद इंदिरा गाँधी के प्रधान मंत्री बनने के बाद लिंडन जॉनसन  ने भारत का अमरीकी कूटनीति के हित में इस्तेमाल करने की कोशिश की थी लेकिन इंदिरा गाँधी ने अपने राष्ट्रहित को महत्व दिया और अमरीका के हित से ज्यादा महत्व अपने हित को दिया और गुट निरपेक्ष आन्दोलन की नेता के रूप में भारत की इज़्ज़त बढ़ाई . हालांकि अमरीका की  यह हमेशा से कोशिश रही है कि वह एशिया की  राजनीति में भारत का अमरीकी हित में इस्तेमाल करे लेकिन भारतीय विदेशनीति के नियामक अमरीकी राष्ट्रहित के प्रोजेक्ट में अपने आप को पुर्जा बनाने को तैयार नहीं थे .
पिछले साठ वर्षों के इतिहास पर नज़र डालें तो समझ में आ जाएगा कि अमरीका ने भारत को हमेशा  की नीचा दिखाने की कोशिश की  है . १९४८ में जब कश्मीर मामला संयुक्तराष्ट्र में गया था तो तेज़ी से सुपर पावर बन रहे अमरीका ने भारत के खिलाफ काम किया था .  १९६५ में जब कश्मीर में घुसपैठ कराके उस वक़्त के पाकिस्तानी तानाशाह , जनरल अय्यूब  ने भारत पर हमला किया था तो उनकी सेना के पास जो भी हथियार थे सब अमरीका ने ही उपलब्ध करवाया था . उस लड़ाई में जिन पैटन टैंकों को भारतीय सेना ने रौंदा था, वे सभी अमरीका की खैरात के रूप में पाकिस्तान  की झोली में आये थे. पाकिस्तानी सेना के हार जाने के बाद अमरीका ने भारत पर दबाव बनाया था कि वह अपने कब्जे वाले पाकिस्तानी इलाकों को छोड़ दे  . १९७१ की बंगलादेश की  मुक्ति की लड़ाई में भी अमरीकी राष्ट्रपति निक्सन ने  तानाशाह याहया खां के बड़े भाई के रूप में काम किया था और भारत  को धमकाने के लिए अमरीकी सेना के सातवें बेडे को बंगाल की खाड़ी में तैनात कर दिया था . उस वक़्त के अमरीकी विदेशमंत्री हेनरी कीसिंजर ने उस दौर में पाकिस्तान की तरफ से पूरी दुनिया  में पैरवी की थी. संयुक्त राष्ट्र में भी भारत के खिलाफ काम किया था . जब भी भारत ने परमाणु परीक्षण किया अमरीका को तकलीफ हुई . भारत ने बार बार पूरी दुनिया से अपील की कि बिजली पैदा करने के लिए उसे परमाणु शक्ति का विकास करने दिया जाय लेकिन अमरीका ने शान्ति पूर्ण परमाणु के प्रयोग की कोशिश के बाद भारत के ऊपर तरह तरह की पाबंदियां लगाईं. उसकी हमेशा कोशिश रही कि वह भारत और पाकिस्तान को बराबर की हैसियत वाला मुल्क बना कर रखे लेकिन ऐसा करने में वह सफल नहीं रहा .आज भारत के जिन इलाकों में भी अशांति है , वह सब अमरीका की कृपा से की गयी पाकिस्तानी  दखलंदाजी की वजह से ही है . कश्मीर में जो कुछ भी पाकिस्तान कर रहा है उसके पीछे पूरी तरह से अमरीका का पैसा लगा है . पंजाब में भी आतंकवाद पाकिस्तान की  फौज की कृपा से ही शुरू हुआ था . 

आज हम देखते हैं कि  अमरीका ने जिस पाकिस्तानी आतंकवाद का ज़रिये भारत की एकता पर प्राक्सी हमला किया था  पाकिस्तान  ही मुसीबत बन गया है. पाकिस्तानी  फ़ौज़ और राजनेताओं को चाहिए कि वे अपने देश की सुरक्षा को सबसे ऊपर  रखें और भारत की मदद से आतंकवाद के खात्मे के लिए योजना बनाएं वरना एक राष्ट्र के रूप में पाकिस्तान  अस्तित्व खतरे में पड़  जाएगा।