शेष नारायण सिंह
गुजरात के स्थानीय निकाय चुनावों में भारतीय जनता पार्टी ने भारी जीत दर्ज की है . अभी कुछ दिन पहले छः महानगरपालिकाओं के चुनाव हुए थे . उन चुनावों में भी बीजेपी ने सभी नगरों पर कब्जा किया था . सूरत ,अहमदाबाद, वड़ोदरा, राजकोट ,जामनगर और भावनगर की 6 महानगर पालिकाओं में ही चुनाव में भी भारतीय जनता पार्टी ने पूरी सफलता पाई थी . उसदिन एक टीवी चैनल के डिबेट में शामिल होने का मौक़ा मिला था. दिल्ली के कुछ विद्वानों ने कहा था कि बीजेपी मूल रूप से महानगरों की पार्टी है इसलिए जीत स्वाभाविक है . जब ग्रामीण इलाकों वाले जिला पंचायत , नगर पंचायत , तालुका और ग्राम पंचायतों के चुनाव होंगे तो माहौल बदल जाएगा . उसी चर्चा में अहमदाबाद से शामिल हो रहे एक पत्रकार मित्र ने चेतावनी दी थी कि अभी जल्दी इस तरह के अनुमान लगाना ठीक नहीं है क्योंकि कुछ दिन बाद ही ग्रामीण क्षेत्रों में भी चुनाव होने वाले हैं ,दूध का दूध और पानी का पानी हो जाएगा . वे चुनाव हो गए हैं और स्पष्ट हो गया है कि गुजरात के ग्रामीण इलाकों में भी भारतीय जनता पार्टी और नरेद्र मोदी की लोकप्रियता बढ़ी है . इसके पहले गुजरात विधानसभा की आठ सीटों पर उपचुनाव हुए थे जहां भारतीय जनता पार्टी को 8 सीट मिली थी . अब ग्रामीण क्षेत्रों में फैले ,जिला ,तहसील पंचायत एवं नगर पालिका में भारी जीत देखी गयी है .
इन नतीजों से सबसे बड़ा नुकसान कांग्रेस का हुआ है . गुजरात में कांग्रेस की जड़ें बहुत कमज़ोर पड़ चुकी हैं और अब कोई भी ऐसा नेता नहीं है जो पार्टी को सफलता की राह पर ले जा सके. ताज़ा पंचायत चुनावों में कांग्रेस की बुरी तरह से हुयी हार के बाद राज्य के पार्टी अध्यक्ष अमित चावड़ा और नेता प्रतिपक्ष परेश धनानी ने इस्तीफा दे दिया है . या यों कहें की उनको पार्टी आलाकमान ने हटा दिया है . इस्तीफे के बाद उन्होंने कहा कि , “ स्थानीय निकाय चुनाव के परिणाम हमारी उम्मीदों के विपरीत हैं। हम जनता के जनादेश को स्वीकार करते हैं। ‘ आदिवासी समाज में मज़बूत पकड़ वाले ,भारतीय ट्राइबल पार्टी के नेता छोटू भाई वसावा भी गुजरात की कुच्छ सीटों पर नतीजों को प्रभावित करने की क्षमता वाले नेता मने जाते हैं . हर चुनाव के पहले पार्टियां उनको साथ लेने की कोशिश करती हैं . लेकिन इस चुनाव में उनकी भी मिट्टी पलीद हो गयी है .उनके अपने पुत्र चुनाव हार गए हैं . कांग्रेस के बड़े नेता और पूर्व अध्यक्ष अर्जुन भाई मोढवाडिया के भारी रामदेव भाई भी चुनाव हार गए हैं
इन चुनावों ने साबित कर दिया है कि गुजरात में भारतीय जनता पार्टी अब उतनी ही मज़बूत पार्टी है जितनी 1977 के चुनाव के पहले कांग्रेस पार्टी हुआ करती थी . उन दिनों कांग्रेस में ऐसे नेता थे जिन्होंने महात्मा गांधी और सरदार पटेलके साथ काम किया था और उन दोनों नेताओं का वहां पूरा सम्मान था लेकिन कांग्रेस की राजनीति में इंदिरा गांधी के आगमन के बाद गुजरात समेत पूरे देश में कांग्रेसियों के बीच सरदार पटेल का सम्मान होना बंद हो गया . उसके बाद कांग्रेस की शक्ति में कमी आने का सिलसिला शुरू हुआ . अयोध्या आन्दोलन के बाद भारतीय जनता पार्टी में मजबूती आने लगी . सरदार पटेल की विरासत के सही उत्तराधिकारी के रूप में भी नरेंद्र मोदी की पहचान होने लगी है जिसका नतीजा है कि आज भारतीय जनता पार्टी के गढ़ के रूप में गुजरात स्थापित हो चुका है और अब साफ़ लगने लगा है कि वहां पार्टी को हरा पाना बहुत ही दूर की कौड़ी है .
आम तौर पर माना जाता था कि भारतीय जनता पार्टी शहरी मध्यवर्ग की पार्टी है लेकिन अब ऐसा नहीं है . अब सभी वर्गों के लोग भारतीय जनता पार्टी के साथ नज़र आने लगे हैं. 2019 के चुनावों में एक बात बार बार उभर का सामने आ रही थी कि उत्तर भारत के सभी इलाकों में लोग ओबीसी वर्ग की जातियों में नरेंद्र मोदी की पहचान उनके अपने नेता के रूप में हो रही थी. ग्रामीण इलाकों में रसोई गैस , बिजली और सरकारी खर्च पर बने शौचालयों के कारण सभी जातियों के लोगों में उनकी लोकप्रियता बढ़ी थी .आज नरेंद्र मोदी को सभी वर्गों का समर्थन है क्योंकि भारतीय जनता पार्टी को उन्होंने उसी मुकाम पर पंहुचा दिया है जहां कभी कांग्रेस हुआ करती थी. आज लगभग पूरे भारत में बीजेपी या तो सत्ता में है या विपक्ष की मज़बूत पार्टी है .
पिछले एक साल में हुए कई राज्यों के चुनावों में भी भारतीय जनता पार्टी ने गुजरात जैसा तो नहीं लेकिन अच्छा प्रदर्शन किया है . बिहार विधानसभा चुनाव में अब तक भारतीय जनता पार्टी नीतीश कुमार की सहयोगी पार्टी के रूप में चुनाव लडती थी.. इस बार भी वही हुआ लेकिन इस बार. भारतीय जनता पार्टी को नीतीश कुमार की जे डी यू से ज्यादा सीटें मिलीं . पिछले साल कई अन्य राज्यों में उपचुनाव भी हुए . 11 राज्यों में हुए 58 सीटो के उप-चुनाव में भाजपा को 40 सीटो पर जीत हासिल हुई जिसमें एक तो गुजरात ही है जहां उसका स्ट्राइक रेट शत प्रतिशत रहा . मध्य प्रदेश में 28 में 19 उत्तर प्रदेश में 7 में 6 मणिपुर में 5 में से 4 ,कर्नाटक में और तेलंगाना की सभी सीटों के उपचुनाव भारतीय जनता पार्टी के नाम रहे . इसके अलावा लद्दाख ऑटोनोमस डेवलपमेंट काउन्सिल और
ग्रेटर हैदराबाद म्युनिसिपल भी भारतीय जनता पार्टी को खासी सफलता मिली .
इन चुनावों में बहुत सारे चुनाव दिल्ली के पास हो रहे पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसानों के आन्दोलन के शुरू होने के बाद हुए हैं . आन्दोलन में शामिल किसानों ने बार बार यह बात दुहराई है कि वे खेती में नीतिगत हस्तक्षेप वाले तीन कानूनों के वापस होने तक आन्दोलन को जारी रखेंगे. शुरू में ऐसा संकेत दिया जा रहा था कि किसान आन्दोलन को ग्रामीण जनता का बड़ा समर्थन हासिल है .आम तौर पर आन्दोलन के बाद होने वाले चुनाव के नतीजे इस बात का संकेत देते हैं कि किस पार्टी की क्या हैसियत है . अगर आन्दोलन सफल रहा तो उसके बाद होने वाले चुनावों में सत्ताधारी पार्टी को हार का सामना करना पड़ता है लेकिन अगर सत्ताधारी पार्टी को सफलता मिलती है तो माना जाता है कि आन्दोलन की लोकप्रियता उतनी नहीं है जितनी कि बताई जा रही है. मौजूदा किसान आन्दोलन की भी यही स्थति है . पंजाब में नगर पंचायतों के चुनाव के नतीजे में तो बीजेपी का नुकसान हुआ लेकिन पंजाब वैसे भी बीजेपी स्टेट नहीं है . वहां वह अकाली दल की सहयोगी पार्टी रही है . अब अकाली दल अलग है, किसानों के मुद्दे पर ही अकाली दल ने बीजेपी का साथ छोड़ा था लेकिन उसको भी कोई ख़ास सफलता नहीं मिली .
गुजरात के ग्रामीण इलाकों में हुए चुनावों और उसमें सत्ताधारी पार्टी को मिली सफलता की रोशनी में नई कृषि नीति के खिलाफ आन्दोलन कर रहे किसानों को ज़रूरी सबक लेना चाहिए और वह सबक यह है कि तीनों कानूनों को वापस लेने की जिद छोड़कर किसानों के फायदे वाले प्रावधानों की बात करें . सबको मालूम है कि कृषि क़ानून में बदलाव ज़रूरी है ,क्योंकि 1965-66 की हरित क्रान्ति के नीतिगत हस्तक्षेप के बाद कोई भी बड़ा बदलाव नहीं किया गया है . कांग्रेस को जानना चाहिए कि 1991 में जब डॉ मनमोहन सिंह ने देश के आर्थिक विकास के लिए जो फार्मूला तय किया था ,मौजूदा क़ानून उसी बात को आगे बढाने की कोशिश है . किसानों को चाहिए कि दीवाल पर लिखी इबारत को भांप लें और मान लें कि नई कृषि नीति के बाद भारतीय जनता पार्टी और नरेद्र मोदी की लोकप्रियता के ग्राफ में वृद्धि हुयी है और किसान आन्दोलन के नेताओं को सरकार के साथ मिल बैठकर आन्दोलन को वापस लेने की कोशिश करनी चाहिए .
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