Sunday, September 2, 2018

मौलिक अधिकारों की हिफाज़त में खड़ा है सुप्रीम कोर्ट

Written on 30 August ,2018
शेष नारायण सिंह

जब भी संविधान पर  संकट आता  है ,सुप्रीम कोर्ट की सुरक्षा इस देश को मिलती रही है . रोमिला थापर की  याचिका पर अभी कोई फैसला तो नहीं आया है लेकिन सुनवाई के दौरान एक टिप्पणी करते हुए माननीय सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि ," मतभेद लोकतंत्र का सेफ्टी वाल्व है " इसी सेफ्टी वाल्व को सुरक्षित रखने के लिए संविधान में अनुच्छेद ३२ की व्यवस्था की गयी है . उसी प्रावधान के तहत कुछ मानवाधिकार कार्यकर्ताओं की गिरफ्तारी को मौलिक अधिकारों का हनन मानते हुए रोमिला थापर और अन्य ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दाखिल की है. मामला अभी  सुप्रीम कोर्ट में  विचाराधीन है लेकिन महाराष्ट्र की सरकार को गिरफ्तार लोगों के साथ मनमानी करने की छूट देने से सुप्रीम कोर्ट  ने इनकार कर दिया है . सुप्रीम कोर्ट की जिस बेंच में यह  मामला विचाराधीन है उसमें मुख्य न्यायाधीश  ,जस्टिस दीपक मिश्र के अलावा जस्टिस डी वाई चंद्रचूड़ और जस्टिस ए एम खानविलकर भी हैं . हुआ यह था कि पुणे में जनवरी २०१८ में हुए एल्गार परिषद के सम्मलेन में कथित रूप से उत्तेजना और समाज में वैमनस्य फ़ैलाने  वाले काम करने के लिए गौतम नवलखा, सुधा भारद्वाज ,वरवर राव  और कुछ अन्य लोगों को  पुलिस ने पकड लिया था. आरोप है कि सरकार के खिलाफ आवाज़ बुलंद करने से रोकने के लिए  इन लोगों को महाराष्ट्र पुलिस ने गिरफ्तार करने की योजना बनाई थी. ऐसा लगता है कि योजना यह थी कि पूरे देश में  मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को पकड लिया जाए और उनको रातों रात पुणे लाकर उनपर मनमानी पुलिस कार्रवाई की जाए . उन लोगों  को पुलिस ने छापा मारकर इस तरह  पकड़ा था जैसे वे लोग फरार हों या बहुत बड़ा ख़तरा पैदा कर रहे हों. लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने  दखल देकर पुलिस की मंशा पर पानी फेर दिया . अब मामला सुप्रीम कोर्ट की शरण में हैं जो इस बात की गारंटी  है कि  संविधान में के अनुच्छेद २१ में मिले हुए नागरिकों के मौलिक अधिकारों का दुरुपयोग नहीं होने दिया जाएगा . सुनवाई के दौरान की गयी कोर्ट की टिप्पणी देश की लोकशाही  की हिफाज़त की दिशा में अहम मुकाम हो सकती है . कोर्ट ने सरकार को चेतावनी दी कि असहमति या मतभेद लोकतंत्र का सेफ्टी वाल्व है .अगर सेफ्टी वाल्व को बंद किया गया तो वैसा ही धमाका हो सकता है जैसे प्रेशर कुकर का सेफ्टी वाल्व बंद कर देने से होता है .
जिस एल्गार परिषद के मामले में पुणे की पुलिस जांच कर रही है उसमें दलित संगठन ईस्ट इण्डिया कम्पनी की महार   रेजिमेंट की दो  सौ साल पहले हुयी जीत का जश्न मनाने के लिए इकठ्ठा हुए थे . वह जीत वास्तव में  पेशवा की सेना पर हुयी थी . यानी अंग्रेजों ने भारतीयों का प्रयोग करके ही भारतीय शासक की सेना को हरा दिया था . इसी के आधार पर मामले क राष्ट्रवादी रंग दे दिया गया था और दलित संगठनों  के साथ खड़े होने वालों को राष्ट्रद्रोही करार दे दिया गया था. अखबारों में तो यह खबर भी प्लांट कर दी गयी कि जिन लोगों को हिरासत में लेने की कोशिश की जा रही है उन्होंने ऐसी साज़िश बनाई थी कि प्रधानमंत्री पर उसी तरह का हमला किया जाए जैसा राजीव गांधी के ऊपर किया  गया था . लेकिन सुप्रीम कोर्ट में सरकार ने इस बात को नहीं उठाया इससे लगता है कि कुछ वफादार चैनलों और कुछ  अखबारों में यह खबर प्लांट ही की गयी थी.  सच्चाई नहीं थी.

महाराष्ट्र सरकार हर हाल में गौतम नवलखा आदि को गिरफ्तार करके पुणे ले जाने पर आमादा थी. उनके वकील तुषार मेहता ने बार बार यह  तर्क दिया कि कोई अजनबी किसी अन्य इंसान की गिरफ्तारी पर रोक की बात कैसे कर सकता है . रोमिला थापर , प्रभात पटनायक आदि के पास वह अधिकार नहीं है कि वे  किसी अन्य की गिरफ्तारी पर रोक की बात करें .अभिषेक मनु सिंघवी ने तर्क  दिया कि मामला संविधान के अनुच्छेद ३२ का है , यह कोई साधारण मामला नहीं  है . लगता है कि कोर्ट ने इस तर्क पर विचार किया और सुनवाई की तारीख तय कर दी . याचिकाकर्ताओं की और से वकील दुष्यंत दवे भी पेश हुए .उन्होंने कहा कि जिन लोगों को  गिरफ्तार करने की कोशिश की जा रही है उनको कोई आपराधिक रिकार्ड कहीं नहीं है .. अगर ऐसा हुआ तो कोई भी सुरक्षित नहीं महसूस करेगा .

 यह देखना दिलचस्प होगा कि संविधान के अनुच्छेद ३२ का लोकतंत्र के सुचारु रूप से संचालन में कितना महत्व है . यह अनुच्छेद  नागरिकों के मौलिक अधिकारों का हनन होने की सूरत में उनकी हिफाज़त का सबसे बड़ा तरीका है . संविधान में नागरिकों को बहुत सारे मौलिक अधिकार दिए गए हैं . कई बार ऐसा होता है कि सरकारें उन अधिकारों को दबा कर देश के नागरिकों को सरकारी तंत्र का शिकार बनाती  हैं . उसी को रोकने के लिए  अनुच्छेद  ३२ की व्यवस्था की गयी है . इसके चार भाग हैं. पहला, मौलिक अधिकारों की स्थापना के लिए सुप्रीम कोर्ट जाने का अधिकार  ,दूसरा सुप्रीम कोर्ट  सम्बंधित पक्ष को निर्देश या आर्डर के ज़रिये मौलिक अधिकार की रक्षा सुनिश्चित कर सकती है.  सुप्रीम कोर्ट के यह अधिकार हमेशा ही बने रहते हैं . केवल एक सूरत में इन अधिकारों को समाप्त माना  जाता है जब केंद्र सरकार अनुच्छेद ३५२ का प्रयोग करके आपातकाल की घोषणा कर दे और मौलिक अधिकारों को ही मुल्तवी कर दे .  आपातकाल लगाने पर अनुच्छेद ३५९ में प्रदत्त अधिकारों का प्रयोग करके राष्ट्रपति महोदय मौलिक अधिकारों को ही  निलंबित कर सकते हैं . सबको मालूम है कि जनाक्रोश का सामना कर रही सरकारें इस प्रावधान का दुरुपयोग कर सकती हैं . अपनी सरकार के खिलाफ बढ़ रहे जनाक्रोश को  कुचलने के लिए १९७५ में केंद्र सरकार ने ३५२ के तहत आपातकाल लगा दिया था और मौलिक अधिकारों को समाप्त कर दिया था.
संविधान सभा की ड्राफ्टिंग कमेटी के अध्यक्ष डॉ बी आर आंबेडकर ने कहा था कि," अनुच्छेद ३२ संविधान की आत्मा है ." सुप्रीम कोर्ट में मौजूदा सुनवाई इसी अनुच्छेद ३२ के तहत हो रही  है. महाराष्ट्र सरकार की तरफ से  इस केस में अतिरिक्त  सालिसिटर जनरल ,तुषार मेहता वकील  हैं . उन्होंने इस मामले को आपराधिक  मामला बनाने की पूरी कोशिश की लेकिन रोमिला थापर आदि के वकील अभिषेक मनु सिंघवी आदि ने पूरी तरह से मामले को मौलिक अधिकारों का मुद्दा  बनाने की  कोशिश की और कोर्ट की शुरुआती टिप्पणी से साफ़ है कि  अभिषेक सिंघवी आंशिक रूप से सफल हैं.
संविधान में सुप्रीम कोर्ट को संविधान में प्रदत्त अधिकारों की रक्षा का ज़िम्मा दिया गया है . संविधान के अनुच्छेद १३१ में सुप्रीम कोर्ट के अधिकार क्षेत्र का वर्णन है उसके बाद अनुच्छेद १४७ तक सुप्रीम कोर्ट के अधिकारों , जिम्मेदारियों और कर्तव्यों की व्यवस्था की गयी है,  इन्हीं प्रावधानों का प्रयोग करके सुप्रीम कोर्ट हमारे संविधान और राष्ट्र की रक्षा करता है , . सुप्रीम कोर्ट में ऐसे मामले अवश्य आते हैं जिसमें व्याख्या की ज़रूरत है| सबको मालूम है कि सरकारें नागरिकों के अधिकारों को दबा कर मनमानी करने के लिए हमेशा ही उद्यत रहती  हैं .  नागरिक आजादी कई बार सरकार की इच्छा को लागू करने में बाधा बनती है और उसको कमज़ोर करने की कोशिश सरकारें करती ही रहती हैं . आम तौर पर सरकारें प्रेस की आज़ादी को भी कुचलने के चक्कर  में रहती हैं . ऐसी दर्जनों घटनाएं हैं जब राज्य या केंद्र सरकार ने प्रेस को भी काबू में करने की कोशिश की लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने मीडिया को बचाने का काम किया .अपने देश में प्रेस की आज़ादी की  व्यवस्था  संविधान में ही निहित है . संविधान के अनुच्छेद 19(1)(a) में अभिव्यक्ति की स्वत्रंत्रता की व्यवस्था दी गयी हैप्रेस की आज़ादी उसी से निकलती  है . इस आज़ादी को सुप्रीम कोर्ट ने अपने बहुत से फैसलों में सही ठहराया है . १९५० के  बृज भूषण बनाम दिल्ली राज्य  और १९६२ के सकाळ पेपर्स  प्राइवेट लिमिटेड बनाम यूनियन आफ इण्डिया के फैसलों में  प्रेस की अभिव्यक्ति की आज़ादी को मौलिक अधिकार के  श्रेणी में रख दिया  गया है . प्रेस की यह आज़ादी निर्बाध ( अब्सोल्युट ) नहीं है . संविधान के मौलिक अधिकारों वाले अनुच्छेद 19(2) में ही उसकी सीमाएं तय कर दी गई हैं.  संविधान में लिखा है  कि  अभिव्यक्ति की आज़ादी के "अधिकार के प्रयोग पर भारत की प्रभुता और अखंडताराज्य की सुरक्षाविदेशी राज्यों के साथ मैत्रीपूर्ण संबंधोंलोक व्यवस्थाशिष्टाचार या सदाचार के हितों में अथवा न्यायालय-अवमानमानहानि या अपराध-उद्दीपन के संबंध में युक्तियुक्त निर्बंधन जहां तक कोई विद्यमान विधि अधिरोपित करती है वहां तक उसके प्रवर्तन पर प्रभाव नहीं डालेगी या वैसे निर्बंधन अधिरोपित करने वाली कोई विधि बनाने से राज्य को निवारित नहीं करेगी"  यानी प्रेस की आज़ादी तो मौलिक अधिकारों के तहत कुछ भी लिखने की आज़ादी  नहीं है . उसी तरह से अन्य मौलिक अधिकार भी निर्बाध नहीं है लेकिन जब कोर्ट को काग जाएगा कि किसी  व्यक्ति को अन्य कारणों से पकड़ा जा रहा है तो कोर्ट दखल भी देगी और पुलिस और सरकार की मनमानी पर रोक भी लगाएगी .  एल्गार परिषद वाले मामले में भी संविधान के अनुच्छेद १९(१) में प्रदत्त अभिव्यक्ति की आजादी का सन्दर्भ आया है .यानी सारकार विरोधी बातों को राष्ट्रद्रोह की श्रेणी में रखने की कोशिश की जा रही है जो उचित नहीं  है .  अब सारा मामला सुप्रीम कोर्ट की नज़र में है. ज़ाहिर है संविधान का उन्ल्लंघन तो नहीं ही होने दिया  जाएगा .

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