Thursday, February 21, 2019

जन पक्षधरता के महान विद्वान की मृत्यु , डॉ नामवर सिंह अमर रहें


शेष नारायण सिंह

१९७४ में जोधपुर विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में आंचलिक उपन्यास के अध्ययन के कोर्स में डॉ राही मासूम रज़ा का ' आधा गाँव ' लगा दिया गया . बड़ा हो हल्ला हुआ . छात्रों के एक गुट ने आसमान सर पर उठा लिया और किताब को हटवाने के लिए आन्दोलन करने लगे . उपन्यास में कुछ ऐसी बातें  लिखी थीं जो पुरातनपंथी दिमाग वालों की समझ में नहीं आ रही थीं लिहाज़ा उन लोगों ने आन्दोलन शुरू  कर दिया . डॉ नामवर सिंह वहां उन दिनों हिंदी के विभागाध्यक्ष थे . किताब को कोर्स से हटाने की मांग शुरू हो गयी . डॉ नामवर सिंह झुकना नहीं जानते थे और अपनी इसी प्रवृत्ति के कारण  उन पोंगापंथी छात्रों के सामने भी नहीं झुके.  जब उन्होंने देखा कि आन्दोलन बहुत जोर पकड़ गया .अपने ऊपर उनको इतना विश्वास था कि वे किसी भी नौकरी से  चिपकना चाहते ही नहीं थे. जोधपुर वालों का आन्दोलन दिल्ली विश्वविद्यालय में भी शुरू हो गया . कुछ दक्षिणपंथी जमातों से सम्बद्ध छात्रों ने दिल्ली में भी हल्ला गुल्ला किया और डाक्टर साहब ने इस्तीफा दे दिया . उसके बाद डॉ राम विलास शर्मा ने उनको आगरा के केंद्रीय हिंदी संस्थान में जाने के लिए राजी  किया, सब कुछ हो गया लेकिन भविष्य तो हिंदी की दुनिया में उनके लिए कुछ और भूमिका तय कर   चुका था. जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में उन दिनों हिंदी का नियमित कोर्स नहीं था. डी पी  त्रिपाठी जे एन यू   छात्र संघ के अध्यक्ष थे . छात्रों ने मांग की कि डॉ नामवर सिंह को  जे एन यू लाया जाय. और डॉ नामवर सिंह को लाने का  फैसला हो गया .  एक नया  कोर्स शुरू हुआ जिसका नाम था , Teaching Hindi as a Foreign Language . उन दिनों विश्वविद्यालय में विदेशी छात्रों का जमावड़ा होता था , शायद यह कोर्स उनके लिए ही तय किया गया रहा होगा .  हिंदी में एम ए करने वालों की पहली बैच  का प्रवेश इसी कोर्स में हुआ था. आज के महान कवि मनमोहन , स्व घनश्याम मिश्र आदि इसी कोर्स में दाखिल हुए थे .
डॉ नामवर सिंह के जे एन यू आ जाने के बाद हिंदी आलोचना  भी कैम्पस में चर्चा के केंद्र में आ गयी . राजकमल प्रकाशन से निकलने वाली विख्यात साहित्यिक पत्रिका ' आलोचना ' के सम्पादक भी  वे ही थे. उन दिनों जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में देश के शीर्ष विद्वानों का जमावड़ा हुआ  करता था. प्रो. मुहम्मद हसन के साथ मिलकर डॉ नामवर सिंह ने भारतीय भाषा केंद्र को दुनिया की एक आदरणीय संस्था  बना दिया . इसी  भारतीय भाषा केंद्र में साहित्य की विभूतियों के आने जाने का सिलसिला जो शुरू हुआ तो बहुत समय बाद तक चलता रहा . उन दिनों सारी कक्षाएं पुराने कैम्पस में चलती थीं.  अध्यापकों के आवास और छात्रावास नए कैम्पस में हुआ करते थे. आम तौर पर लोग दोनों परिसरों के बीच बनी पत्थर की पगडंडी से पैदल ही आया जाया करते थे. हालांकि ६१२ नम्बर की एक डी टी सी  बस भी थी जो ओल्ड कैम्पस से गोदवरी  हॉस्टल तक आती थी. इसी पगडंडी पर पैदल चलते हुए डाक्टर साहब ने आम बातचीत में मार्क्सवादी सौंदर्यशास्त्र के महान विद्वान क्रिस्टोफर काडवेल की किताब  ' इल्यूज़न एंड रियलिटी ' का ज़िक्र किया था .  तब तक मैंने उस किताब का नाम नहीं सुना था. उन्होंने उसके बारे में मुझे बताया और उत्सुकता पैदा की कि मैं उसके बारे में और जानकारी    करूँ. साहित्यिक आलोचना में यह किताब पिछले अस्सी साल से सन्दर्भ की पुस्तक में  गिनी जाती है .
कठिन से कठिन बात को बहुत ही साधारण तरीके से बता देना डाक्टर नामवर सिंह के बाएं हाथ का खेल था. आजादी की लड़ाई के  दौरान सन बयालीस में  कम्युनिस्टों का अंग्रेजों के साथ खड़ा हो जाना एक ऐसा तथ्य है जिसको   सभी मंचों से दोहराया  जाता  रहा है.  हम भी नहीं समझ  पाते थे कि ऐसा क्यों हुआ . एक दिन उन्होंने समझाया . उन्होंने कहा कि दूसरा विश्वयुद्ध  जब उफान पर था और हिटलर ने सोवियत रूस पर हमला कर दिया तो हिटलर का विरोध करना जनयुद्ध ( Peoples War ) हो गया और दुनिया भर की बाएं बाजू की जमातें तानाशाह हिटलर को हराने के  लिए लामबंद हो गयीं . उसी प्रक्रिया में भारत की कम्युनिस्ट पार्टी ने भी हिटलर की विरोधी ताकतों का समर्थन कर दिया . उस  प्रक्रिया में कम्युनिस्टों को  आज़ादी के बाद बार बार ताने सुनने पड़े लेकिन जब फैसला हुआ था तब उसमें कोई  गलती नहीं थी. देश और विदेशों में उनके छात्रों की बहुत बड़ी संख्या है . सब अपने अपने क्षेत्र में शीर्ष पर  हैं. डॉ मैनेजर पाण्डेय ,मनमोहन, असद ज़ैदी, उदय  प्रकाश, राजेन्द्र शर्मा, अली जावेद, जगदीश्वर चतुर्वेदी ,पंकज सिंह ,  महेंद्र शर्मा आदि उनके छात्र  रहे हैं . हिंदी के जितने भी सही अर्थों में शीर्ष विद्वान हैं उनमें से अधिकतर उनके  छात्र हैं  . उनके बारे में सबके पास निजी संस्मरण हैं . उनकी सेमिनारीय प्रतिभा भी बेजोड़ रही है . हमने देखा है कि जब भी वे किसी सेमिनार में शामिल हो जाते थे तो चर्चा उनके बारे में ही केन्द्रित हो जाती थी.  जहां वे नहीं भी होते थे कोई न कोई उनकी दृष्टि का उल्लेख कर देता था और चर्चा उसी  विषय पर केन्द्रित हो जाती थी .
उनके छात्रों में बहुत से ऐसे प्रतिभाशाली  छात्र भी थे जो उनके खिलाफ हो रही साजिशों को हर स्तर पर बेनकाब करते थे . १९७७ में एक बार जे एन यू के सिटी सेंटर, ३५ फीरोज़ शाह रोड ,नई दिल्ली में  एक सम्मेलन हो रहा था. बंबई से आये एक साहित्यिक बाहुबली ने उसको संपन्न करवाने का ज़िम्मा लिया हुआ था. जनता पार्टी का राज था . अटल बिहारी वाजपेयी विदेश मंत्री थे . विदेश मंत्रालय के एक संयुक्त सचिव ने उस सम्मलेन को सहयोग दिया था. कार्यक्रम  प्राइवेट था लेकिन  सरकार का गुप्त सहयोग था. डॉ नामवर सिंह के खिलाफ उसमें कुछ पत्रक पढ़े जाने थे . भारतीय भाषा केंद्र के  छात्रों को भी इस आयोजन के एजेंडा की भनक लग गयी . श्रोता के रूप में घनश्याम मिश्र,  विजय चौधरी , पंकज सिंह आदि शारीरिक रूप से सक्षम  छात्र भी वहां पंहुच गए . जैसे ही भूमिका के दौरान उन कार्तिकेय जी ने नामवर जी के बारे में कुछ उलटा सीधा कहा ,उनका मुखर विरोध  हुआ . वे अपनी बात पर अड़े रहे तो उनको रोका गया और जब वे नहीं माने तो अगला कदम भी संपादित कर दिया . बाद में स्व सर्वेश्वर दयाल सक्सेना ने उनको समझाया कि यहाँ इस तरह का प्रयास उनको ज़रूरी नतीजे नहीं दे पायेगा . शाम को जब कैम्पस में  इस टीम के कुछ सदस्य मिले तो डाक्टर साहब ने उनको समझाया कि  बौद्धिक धरातल पर ही विरोध किया जाना चाहिए था . शारीरिक दंड देना बिलकुल गलत था .
डॉ मानवर सिंह का नाम जब भी लिया जाएगा तो यह  बात बिना बताये सब की समझ में आ जायेगी कि उन्होंने कभी  किसी को अपमानित नहीं किया लेकिन आत्मसम्मान से कभी भी समझौता नहीं किया . काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में हिंदी के प्राध्यापक के रूप में वे कम्युनिस्ट पार्टी के उम्मीदवार के रूप में चुनाव  लड़े थे, चुनाव में हर गए तो नौकरी से भी इस्तीफा दे दिया . उन दिनों उनके सबसे छोटे  भाई काशीनाथ सिंह को बी एच यू में काम मिल गया था. घर चल रहा था. परिवार साथ ही रहता था. सुबह जब वे घर से निकलते थे तो  चार आना  उनकी जेब  में होता था.  उसमें उनके पान का खर्चा और केदार की दूकान पर चाय का खर्च चल जाता था. काशी उन दिनों बहुत बड़े साहित्यकारों का ठिकाना हुआ करता था . काशीनाथ सिंह ने बताया था या शायद कहीं लिखा भी है कि एक बार उन्होंने उनकी जेब में  कुछ रूपये डाल दिया . जब शाम को घर आये तो उनको समझाया कि उनके अपने खर्च के  लिए जो चाहिए ,वह उनके पास रहता है .आगे से ऐसी बात नहीं होनी चाहिए . ऐसे बहुत सारे दृष्टांत हैं जिनके आधार पर उनक शख्सियत के   इस अहम पहलू को रेखांकित किया जा सकता  है .
हिंदी आलोचना के क्षेत्र में और भी बहुत से लोग हैं जो अपने को उनके बराबर बताते थे . पुराने कैम्पस की क्लब  बिल्डिंग के लॉन पर बैठे हुए १९७७ की फरवरी में बाबा नागार्जुन ने बहुत ही गंभीरता से कहा था कि बाकी सब नामवर सिंह के हवाले से अपनी बात कहते हैं जबकि नामवर  सिंह हमेशा मौलिक बात करते हैं . उनके कहे में मार्क्सवाद की शास्त्रीय और व्यावहारिक समझ को  वे लोग देख सकते हैं जो विषय को समझते हैं . दिल्ली में हर दौर में नामवर के विरोधियों के खेमे रहे हैं लेकिन ज्यादातर के विरोध निजी कारणों से  होते हैं या  अन्य कम्युनिस्ट पार्टियों से सम्बद्धता के कारण होते हैं . मैंने पिछले चालीस वर्षों में  ऐसे लोग भी देखे हैं जिनका उन्होंने कोई फायदा नहीं होने दिया ,बल्कि नुक्सान होने के अवसर बनाये लेकिन वे लोग भी उनकी मेधा और विद्वत्ता के कारण उनकी तारीफ़ करते हैं . कलकत्ता विश्वविद्यालय के रिटायर्ड प्रोफ़ेसर डॉ जगदीश्वर चतुर्वेदी ऐसे ही एक विद्वान हैं . जे एन यू में उनके प्रवेश  में भी नामवर सिंह ने अड़चन डाली थी. दिल्ली में उनकी नौकरी लगने में भी अडंगा लगाया और भी कोई सहयोग नहीं किया लेकिन जगदीश्वर हमेशा उनको सम्मान  करते हैं . उनके हज़ारों छात्रों में जगदीश्वर इकलौते छात्र है जिन्होंने उनके जीवन और  लेखन के  बारे में एक   किताब लिखी है . जगदीश्वर का कहना  है कि डॉ नामवर सिंह ने अमरीकी साम्राज्यवाद के खिलाफ जो भी लिखा  है वह साम्राज्यवाद के खिलाफ लिखे गए सभी भाषाओं के लेखन की तुलना में बेजोड़ है . साम्प्रदायिकता के खिलाफ उनका लेखन अगर सेकुलर ताक़तों के पैरोकार लोग ठीक से पढ़ लें और उसका प्रयोग करें तो साम्प्रदायिक राजनीति निश्चित रूप से कामजोर पड़ेगी. उनके बारे में लिखी हुई अपनी किताब को जब जगदीश्वर चतुर्वेदी ने  उनके घर जाकर दिया तो उन्होंने कहा कि तुमने मुझे एक बार फिर जीवित कर दिया . उस किताब में उनके विचलन का भी ज़िक्र है,  किसी को भी महान कह देने की उनकी परवर्ती प्रवृत्तियों का भी ज़िक्र है ,उनकी आलोचना भी है लेकिन डाक्टर साहब ने उसकी तारीफ की और उस किताब को माथे से लगाया .
एक शानदार जीवन  बिता कर डॉ नामवर सिंह की मृत्यु हुई है. जो कुछ उन्होंने लिखा है वह अपने देश के साहित्यिक इतिहास की धरोहर है . उनकी प्रमुख किताबें हैं ,हिंदी के विकास में अपभ्रंश का योगदानआधुनिक साहित्य की प्रवृत्तियां, छायावादपृथ्वीराज रासो की भाषाइतिहास और आलोचनाकविता के नए प्रतिमानदूसरी परंपरा की खोज. आने वाली पीढियां इनके आलोक में मेधा का विकास करती रहेंगी . 

Wednesday, February 20, 2019

आज मेरे बाबू की पुण्यतिथि है


मेरे बाबू का जन्म १९२४ में हुआ था . उनके बाबा ठाकुर जगेशर सिंह ज़मींदार थे . परिवार में बाबू के जन्म से बहुत ही खुशी का माहौल बन गया था क्योंकि पट्टी पिरथी सिंह को वारिस मिल गया था . उनकी बरही के दिन बहुत बड़ा जश्न हुआ था .इलाके की सभी तवायफों ने बधाई गाई थी और इनाम पाया था . आजकल बच्चों के प्रति प्रेम का सबूत यह होता है कि उनको अच्छी से अच्छी शिक्षा दी जाये लेकिन उन दिनों ऐसा नहीं था . उन दिनों अपने बच्चों को गाँव से दूर भेजना कायथ करिन्दा का काम माना जाता था .परिवार में शिक्षा के प्रति उत्साह नहीं था. इसलिए पड़ोस के नरिंदा पुर गाँव में १८६६ में जो प्राइमरी स्कूल खुला था ,वहीं से प्राइमरी तक की ही उनकी पढ़ाई हुई थी .उनके पिता और बाबा भी नरिंदापुर ही पास थे .मेरे बाबू के काका ठाकुर राम आधार सिंह सुलतानपुर के मिडिल स्कूल में पढने गए थे . बाद में वही स्कूल माडल स्कूल बन गया था. उन दिनों सुल्तानपुर और दोस्तपुर में ही मिडिल स्कूल थे . दोस्तपुर जाने के लिए गोमती नदी पार करना पड़ता था इसलिए सुल्तानपुर को ही प्राथमिकता दी जाती थी .मेरे पिताजी बहुत दुलरुआ थे इसलिए उनको सुल्तानपुर नहीं भेजा गया . हालांकि उनके काका ,ठाकुर राम आधार सिंह ने मुझसे कई बार बताया कि जब यह चहारुम ही नहीं पास हुए तो मिडिल स्कूल में कैसे भेजे जाते. उन्होंने मिडिल स्कूल पढ़कर भी बहुत तीर नहीं मारा था . मेरे चचेरे बाबा जब मिडिल स्कूल में सुल्तानपुर पढने गए तो उनके साथ गाँव के ही दो नौजवान और गए थे . एक थे राम अवध सिंह जिनके पिता बरार ( विदर्भ ,महाराष्ट्र ) में कपास के खेत में चौकीदारी करते थे लिहाज़ उनके घर बाहरी पैसा आता था . इन लोगों के तीसरे सहपाठी थे काली सहाय सिंह . उनके पिता सरकारी नौकरी में थी . डाकखाने में चिट्ठीरसा थे. बहरहाल जो भी कारण रहे हों ,मेरे पिताजी ने मिडिल की पढ़ाई नहीं की .अगर उन दिनों हाई स्कूल तक पढ़ लिया होता तो शायद हमारे परिवार की तस्वीर बदल जाती लेकिन नहीं बदली.
जब बाबू २० साल के थे ,उनके पिता जी की मृत्यु हो गयी . घर में अलगौझी हो गयी . बाबू के काका का परिवार अलग हो गया . बाबू के बाबा बड़े भाई थे लिहाज़ा वे ही ज़मींदार थे. लगान पूरा वसूल नहीं हो पाता था इसलिए लगान अदा करने के चक्कर में सीर खुदकाश्त के बहुत सारे खेत और बाग़ नीलाम हो जाते थे . खुद की खेती ठीक से नहीं होती थी इसलिए ज़मींदारी उन्मूलन के पहले ही हमारे परिवार में गरीबी आ गई थी . जब १९५१ में ज़मींदारी उन्मूलन हुआ तो छोटे ज़मींदारों के ऊपर तो वज्र जैसा पड़ा . हमारे इलाके के पटवारी,मुसई लाल थे ,उनसे मिलजुल कर ज़्यादातर लोगों ने ज़मींदार की ज़मीन अपने नाम शिकमी करवा ली और हमारे परिवार की हालत बहुत खराब हो गई.उस समय बाबू की उम्र सताईस साल की थी . उन्होंने कुछ ज़मीन तो मुक़दमा लड़कर और कुछ ज़मीन अन्य तरीकों से वापस ली लेकिन आर्थिक सम्पन्नता की बात हमारे घर में कभी नहीं थी . हां यह भी सच है कि बाबू ने कभी किसी के सामने सर नहीं झुकाया . जब पंचायती राज की व्यवस्था लागू हुयी तो १९५२ में गाँव के प्रधान बना दिए गए . करीब ३८ साल प्रधान रहे और एकाध बार को छोड़कर हमेशा निर्विरोध ही चुने जाते रहे. शिक्षा का अभाव था इसलिए तहसील के लेखपाल और कानूनगो हमारे यहाँ बड़े अफसर माने जाते थे . लड़कियों की शिक्षा पर बिलकुल ध्यान नहीं दिया जाता था इसलिए गाँव पूरी तरह से पिछड़ा हुआ था ..
आज़ादी के बाद की बहुत सारी योजनायें मेरे गाँव में कोई असर नहीं डाल सकीं . अपने उद्यम से ही लोग जो कर सकते थे ,वही किया . सामन्ती मानसिकता के रिश्तों में जकड़ा गाँव आज शहरीकरण की तरफ बढ़ रहा है . शहर की अमानवीयता तो आ रही है लेकिन आपसी रिश्तों में गंवई गर्मजोशी ख़त्म हो रही है . १९९१ में मेरे पिताजी की वही उम्र रही होगी जो मेरी अब है . बहुत ज़्यादा बीमार हो गए थे . मेरी दोनों बहनें, मेरे भाई और बहन के बेटे ने उनकी बीमारी में उनको बहुत सहारा दिया . ठीक हो गए थे लेकिन वह बात नहीं बची थी जो उनकी शख्सियत का अहम हिस्सा हुआ करती थी. वे जीवन भर सभी फैसले वे खुद करते रहे थे ,किसी की राय को अपने फैसलों के बीच में नहीं आने देते थे लेकिन बीमारी के बाद फैसले लेना ही छोड़ दिया था. मेरी बहनों को बहुत मानते थे लेकिन उनको उच्च शिक्षा नहीं दिलवाई थी. इसी मुद्दे पर मेरी मां से उनका मतभेद रहा करता था जो जीवन भर चला . उन्होंने गाँव या आसपास के किसी भी आदमी का कभी कोई नुक्सान नहीं किया लेकिन कभी भी किसी और की राय को महत्व नहीं दिया . हमेशा अपनी मर्जी के मालिक रहे . उनके जीवनकाल में हम भी अपनी ज़िंदगी को सुर्खरू करने के लिए संघर्ष करते रहे. जब हम लोगों के बच्चे बड़े हो रहे थे . शिक्षा दीक्षा में प्रवीणता पा रहे थे और इस बात की संभावना बन रही थी कि हमारे माता पिता के साथ साथ हमारी भी मनई की जिनगी हो जायेगी तो १९ फरवरी २००१ के दिन वे दुनिया छोड़ गए . आज उनकी पुण्यतिथि है .

Sunday, February 10, 2019

चुनावी मुद्दों की तलाश में एक लोकतंत्र : बीजेपी का राफेल या कांग्रेस का राबर्ट वाड्रा



शेष नारायण सिंह

बीजेपी की पूरी कोशिश थी कि प्रियंका गांधी के पति राबर्ट वाड्रा को चुनावी मुद्दा बना दिया जाए लेकिन तीन दिन  तक लगातार उनसे पूछताछ के बाद लगता  है कि उनको  मुद्दा नहीं  बनाया  जा सकेगा . उलटे एक अंग्रेज़ी  अखबार में राफेल  सौदे के बारे में  नए खुलासे के बाद ऐसा लगता  है कि २०१९ का चुनावी मुद्दा राफेल , किसानों की बदहाली और नौजवानों की बेकारी बन सकती है .राबर्ट वाड्रा और पी चिदंबरम के बारे में जांच कोई आगे बढ़ाने लेकिन साथ साथ राफेल की जाँच का आग्रह करके राहुल गांधी ने साफ सन्देश दे दिया है की वे वाड्रा के मामले को चुनावी मुद्दा नहीं बनने देंगें . 
जहां तक  प्रियंका गांधी का सवाल है , उन्होंने कांग्रेस मुख्यालय में अपने कमरे में पहले दिन की हाजिरी के साथ ही यह  सन्देश दे दिया है कि वे राबर्ट वाड्रा के नाम को आगे करने की बीजेपी की रणनीति को भी बैकफुट पर नहीं झेलने वाली हैं . उन्होंने  दफ्तर जाने के पहले अपने पति राबर्ट वाड्रा को प्रवर्तन निदेशालय में दफ्तर में पूछताछ के  लिए पंहुचाया उसके बाद अपने दफ्तर गईं . वहां जाकर उन्होंने राबर्ट वाड्रा के बारे में पूछे गए सवालों का बिना किसी संकोच के जवाब दिया और यह भी कहा कि वे अपने पति के साथ रहेंगी . उधर बीजेपी के प्रवक्ता लोग राबर्ट वाड्रा को भ्रष्टाचार की प्रतिमूर्ति बताते देखे जा रहे हैं . यह अलग बात है कि निष्पक्ष पत्रकार  ई डी की मौजूदा जांच के हवाले से अब बीजेपी वालों से ही पूछ रहे हैं कि भाई राबर्ट वाड्रा को किस जुर्म में दण्डित करने की कोशिश की जा रही  है .अभी तो राबर्ट वाड्रा के खिलाफ कुछ संकेत मिले  हैं जिनके आधार पर उनसे ही पूछताछ की जा रही है . उस पूछताछ के आधार पर बात आगे बढ़ेगी ,अगर जाँच में आरोप सही पाए गए तो चार्जशीट होगी . केवल संदिग्ध से पूछताछ के आधार पर  कैसे कोई अपराध सिद्ध किया जा सकेगा . यह भी  देखा जा रहा है कि टीवी की खबरों में कुछ अति उत्साही एंकर और रिपोर्टर फैसला  सुनाने की मुद्रा में  आ गए हैं . ज़ाहिर है अगर सोशल मीडिया और कुछ पत्रकार सच बोलने पर आमादा रह गए तो यह राबर्ट  वाड्रा वाला गुब्बारा ज्यादा समय तक चल  नहीं पायेगा . क्योंकि राबर्ट  वाड्रा को भ्रष्ट साबित करने के लिए न्यायालय में उनके अपराध को सिद्ध करना  पड़ेगा .उनको  अभियुक्त कहने के लिए उनके खिलाफ चार्जशीट दाखिल करनी पड़ेगी . अभी तो मामला बहुत  शुरुआती तफ्तीश तक ही है और वे केवल संदिग्ध हैं . अभी उनको भ्रटाचार की प्रतिमूर्ति कहना  बहुत जल्दबाजी होगी .

पिछले चार पांच दिन से राबर्ट वाड्रा पर  भ्रष्टाचार के आरोप बीजेपी के प्रवक्ता कुछ ज्यादा शिद्दत से लगा रहे हैं .  यह काम वे पिछले पांच साल से कर रहे  हैं . २०१४ के चुनाव के पूर्व बीजेपी के तत्कालीन प्रवक्ता ,रविशंकर प्रसाद ने रॉबर्ट वाड्रा पर जमीन घोटाले का आरोप लगाते हुए 'जमीन का कारोबारी या गुनाहगारनामक एक फिल्म दिखाई थी . बीजेपी ने 'दामाद श्रीनाम से एक पुस्तिका भी जारी की थी .उस प्रेस कॉन्‍फ्रेंस में  रविशंकर प्रसाद ने पूछा था कि आखिर वाड्रा ने सिर्फ हरियाणा और राजस्थान में जमीन क्यों खरीदीइसके साथ ही बीजेपी ने वाड्रा के दिन दोगुनी रात चौगुनी अमीर होने का राज जानना चाहा था .उन्होंने  " रॉबर्ट वाड्रा के विकास मॉडल " पर हमला बोला था और कहा, था कि  'अब तक मैं कांग्रेस के नेताओं से पूछता आया हूं। अब मैं सोनिया गांधी और राहुल गांधी से पूछना चाहता हूं कि वे बताएं कि वाड्रा के विकास का मॉडल क्या है?' रविशंकर प्रसाद के इस आरोप का प्रियंका गांधी ने उस वक़्त भी ज़बरदस्त जवाब दिया था . प्रियंका  गांधी वाड्रा ने कहा,था कि  'बीजेपी बौखलाए हुए चूहों की तरह दौड़ रही है। मुझे मालूम था कि चुनाव से पहले इनके (बीजेपी) झूठों का सिलसिला दोहराया जाएगा। इसमें कुछ भी नया नहीं है। इन्‍हें (बीजेपी) जो करना है करने दीजिएमैं किसी से नहीं डरती हूं। इनकी विनाशकनकारात्‍मक और शर्मनाक राजनीति के खिलाफ मैं चुप नहीं रहूंगी". दामाद्श्री नाम की उस  पुस्तिका में बहुत सारे अखबारों की कतरने थीं , कुछ लेख थे , कुछ दस्तावेज़ थे जिनको राबर्ट वाड्रा के भ्रष्टाचार के सबूत के तौर पर पेश किया गया था . लेकिन  बीजेपी की जीत और नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री पद पर आसीन होने के बाद उस पर कोई कार्रवाई होती नहीं देखी गयी . या हो सकता है कि कुछ हो रहा हो लेकिन मीडिया को उसकी भनक नहीं नहीं . आज यकायक प्रियंका गांधी के मीडिया में छा जाने के बाद उनके पति  राबर्ट वाड्रा को आगे करने के पीछे कहीं प्रियंका गांधी को बैकफुट पर  खेलने के लिए मजबूर करने की रणनीति तो नहीं काम कर रही है .हो सकता है ऐसा न हो लेकिन प्रियंका गांधी के आचरण से बिलकुल साफ़ है कि वे राबर्ट वाड्रा के   कंधे पर अव्वल तो बन्दूक रखने नहीं देंगीं और अगर बीजेपी राबर्ट वाड्रा को सेंटर स्टेज लाने में सफल हो भी गयी तो उस बन्दूक से अपने ऊपर हमला किसी कीमत पर  नहीं होने देंगी. ।'
छः फरवरी को अपने आफिस जाने के पहले राबर्ट वाड्रा को जांचकर्ताओं के यहाँ  प्रवर्तन  निदेशालय पंहुचाना और अपने दफ्तर में आकर सवालों के सामने से जवाब देना इस बात को साफ़ तौर से रेखांकित कर देता है .उनसे जब सवाल पूछा गया तो उन्होंने साफ़ कहा कि , " मैं अपने परिवार के साथ ,हूँ " उनसे जब पूछा गया कि अपने पति को प्रवर्तन निदेशालय पंहुचाने के ज़रिये वे क्या  मेसेज देना चाहती हैं . उनका तुरंत जवाब आया कि, ' वे मेरे पति हैं ,और क्या मेसेज है . वे मेरे परिवार हैं .मैं अपने परिवार के साथ हूं ." ऐसा लगता है कि प्रियंका गांधी और कांग्रेस पार्टी एक सोची समझी रणनीति के तहत ऐसा कर रहे  हैं . राबर्ट वाड्रा पर अभी कोई मुक़दमा भी नहीं चला है और कोई  अपराध भी  नहीं साबित हुआ है लेकिन बीजेपी के प्रचार के चलते उनकी एक ऐसी छवि बन गयी है जिसको प्रियंका गांधी की राजनीतिक राह में  भारी रोड़ा  माना जाता रहा  है . दिल्ली के सत्ता के केन्द्रों में इस बात पर चर्चा होती रहती थी कि अपने पति की छवि के कारण प्रियंका के लिए राजनीति में शामिल होना और  सत्ताधारी पार्टी को चुनौती देना मुश्किल होगा . लेकिन  अब लगने लगा  है कि प्रियंका गांधी अपने पति के बारे में किये  जा रहे प्रचार से डरने के  खिलाफ फैसला ले लिया है . 

प्रियंका गांधी के मैदान ले लेने के बाद लगता  है कि वे अब अपने को पीड़ित के रूप में प्रस्तुत करने जा रही हैं . जिन लोगों को भी उम्मीद थी कि वे अपने पति पर लगे भ्रष्टाचार के आरोपों के कारण दब जायेंगीं उनको उन्होंने बा तक निराश किया है . वैसे यह भी सच है कि बीजेपी उनके ऊपर पिछले कई वर्षों से आरोप लगा रही है लेकिन अभी तक कोई भी मुक़दमा उनके ऊपर नहीं चला है . आज के पांच साल पहले " दामाद्श्री " नाम की जिस किताब को केंद्रीय मंत्री  रविशंकर प्रसाद ने जारी किया था, केंद्र में  सरकार बन जाने के बाद उसकी जांच हो जाना चाहिए थी . उनके भ्रष्टाचार के ज़्यादातर आरोप  हरियाणा और राजस्थान में ज़मीनों से सम्बंधित हैं . दोनों ही राज्यों में बीजेपी की भारी बहुमत की सरकारें थीं लेकिन कोई जांच नहीं की गयी. राबर्ट वाड्रा पर हथियारों की  दलाली के आरोप भी आजकल लगाए जा  रहे हैं . उसकी जाँच भी  केंद्र सरकार की एजेंसियां कर सकती थीं, वह भी नहीं हुई. जबकि २०१४ से ही केंद्र में बीजेपी की सरकार है .अब पांच साल बाद फिर राबर्ट वाड्रा को सेंटर स्टेज लाने का जो काम है वह इस बात की तरफ संकेत देता है कि मामला कहीं चुनावों के कारण तो नहीं गर्माया जा रहा है . जहां तक ई डी की बात है , दिल्ली में सभी जानते हैं कि नेताओं की आर्थिक बेईमानी को पकड़ने का मुख्य केंद्र वही  है और उसको कोई भी राजनीतिक पार्टी इस्तेमाल नहीं कर सकती .

राबर्ट वाड्रा की जांच , प्रियंका की राजनीति और किस्सा कहीं पे निगाहें कहीं पे निशाना



शेष नारायण सिंह

बीजेपी एक राष्ट्रीय राजनीतिक पार्टी है केंद्र में पूर्ण बहुमत की सरकार है . देश के बड़े भूभाग में राज्य सरकारें  भी बीजेपी की ही हैं . २०१८ छोड़कर पिछले पांच वर्षों में ज्यादातर चुनाव बीजेपी ही जीतती रही है . २०१४ में जब नरेंद्र मोदी की अगुवाई में केंद्र सरकार बनी थी तो देश के कई राज्यों में बीजेपी विरोधी सरकारें थीं लेकिन नरेंद्र मोदी की लहर ऐसी चली कि ज्यादातर राज्यों में बीजेपी की सरकारें बन गईं . लेकिन विधानसभा के २०१८ के चुनावों में बीजेपी को ज़बरदस्त  हार का सामना करना पड़ा . पांच राज्यों में जहां चुनाव हुए उसकी सरकार कहीं नहीं बनी . तीन राज्यों में तो पार्टी को अपनी सरकार गंवानी पड़ी. मध्य प्रदेश ,राजस्थान और छत्तीसगढ़ में बीजेपी को अपनी बहुत  बड़े बहुमत वाली सरकारें गंवानी भी पड़ीं. इन राज्यों में बीजेपी की हार के बहुत सारे नतीजे  निकले लेकिन जो नतीजा बीजेपी के लिए सबसे  चिंताजनक रहा वह राहुल गांधी का एक मजबूत नेता के रूप में  उभरना माना जाता है . तीन राज्यों में बीजेपी को हराकर सरकार बनाने के बाद राहुल गांधी के आत्मविश्वास में वृद्धि हुई और उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ हमले और तेज़ कर दिए . बीजेपी ने पिछले कई वर्षों में राहुल गांधी को एक अगंभीर नेता के रूप में प्रोजेक्ट किया था लेकिन विधानसभा २०१८ के बाद अब बीजेपी उनको  गंभीरता से लेने  लगी है . लेकिन अभी भी मीडिया में राहुल गांधी को उतना मीडिया स्पेस नहीं मिलता जितना बीजेपी के दूसरी लाइन के नेताओं को मिलता रहा है . इधर एक बदलाव हुआ  है . जब से  प्रियंका गांधी को कांग्रेस का महासचिव बनाया गया है तब से कांग्रेस को वही मीडिया स्पेस मिलने लगा है जो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को मिला करता था. यह  बीजेपी के  लिए चिंता की बात है . सबको पता  है कि बीजेपी के समर्थकों की बहुत बड़ी संख्या टीवी की ख़बरों को बहुत ही ध्यान से देखती है . बीजेपी का शहरी जनाधार भी टीवी की ख़बरों से ही अपनी बातचीत के मुद्दे  निकालता है . अब प्रियंका गांधी उसी स्पेस में भारी पड़ने लगी हैं. इंदिरा गांधी की  तीसरी पीढ़ी में तीन बच्चे हैं . राहुल गांधी के ऊपर डॉ सुब्रमण्यम स्वामी नाजिल हैं और राहुल  नैशनल हेराल्ड केस में अभियुक्त हैं और जमानत पर बाहर हैं . उनके चचेरे भाई वरुण गांधी  कांग्रेस में हैं नहीं और सोनिया गांधी परिवार से उनके और उनकी माताजी के रिश्ते बहुत अच्छे नहीं हैं . प्रियंका गांधी की छवि साफ़ है , संवाद की कला की जानकार हैं और  उनकी शख्सियत में करिश्मा  है . बीजेपी उनको मीडिया स्पेस की लडाई में अपना मुख्य प्रतिद्वंद्वी मानती है . ऐसा लगता है कि बीजेपी की रणनीति अब  यह है कि जहां जहां प्रियंका गांधी की बेदाग़ छवि दिखाई  पड़े ,वहां उनके पति ,राबर्ट वाड्रा की कारस्तानियों वाली धूमिल तस्वीर भी लगा दी जाए
  
जहां तक  प्रियंका गांधी का सवाल है , उन्होंने कांग्रेस मुख्यालय में अपने कमरे में पहले दिन की हाजिरी के साथ ही यह  सन्देश दे दिया है कि वे राबर्ट वाड्रा के नाम को आगे करने की बीजेपी की रणनीति को भी बैकफुट पर नहीं झेलने वाली हैं . उन्होंने  दफ्तर जाने के पहले अपने पति राबर्ट वाड्रा को प्रवर्तन निदेशालय में दफ्तर में पूछताछ के  लिए पंहुचाया उसके बाद अपने दफ्तर गईं . वहां जाकर उन्होंने राबर्ट वाड्रा के बारे में पूछे गए सवालों का बिना किसी संकोच के जवाब दिया और यह भी कहा कि वे अपने पति के साथ रहेंगी . उधर बीजेपी के प्रवक्ता लोग राबर्ट वाड्रा को भ्रष्टाचार की प्रतिमूर्ति बताते देखे जा रहे हैं . यह अलग बात है कि निष्पक्ष पत्रकार  ई डी की मौजूदा जांच के हवाले से अब बीजेपी वालों से ही पूछ रहे हैं कि भाई राबर्ट वाड्रा किस जुर्म में दण्डित हुए हैं .अभी तो राबर्ट वाड्रा के खिलाफ कुछ संकेत मिले  हैं जिनके आधार पर उनसे ही पूछताछ की जा रही है . उस पूछताछ के आधार पर बात आगे बढ़ेगी ,अगर जाँच में आरोप सही पाए गए तो चार्जशीट होगी . केवल संदिग्ध से पूछताछ के आधार पर  कैसे कोई अपराध सिद्ध किया जा सकेगा . यह भी  देखा जा रहा है कि टीवी की खबरों में कुछ अति उत्साही एंकर और रिपोर्टर फैसला  सुनाने की मुद्रा में  आ गए हैं . ज़ाहिर है अगर सोशल मीडिया और कुछ पत्रकार सच बोलने पर आमादा रह गए तो यह राबर्ट  वाड्रा वाला गुब्बारा ज्यादा समय तक चल  नहीं पायेगा . क्योंकि राबर्ट  वाड्रा को भ्रष्ट साबित करने के लिए न्यायालय में उनके अपराध को सिद्ध करना  पड़ेगा .उनको  अभियुक्त कहने के लिए उनके खिलाफ चार्जशीट दाखिल करनी पड़ेगी . अभी तो मामला बहुत  शुरुआती तफ्तीश तक ही है और वे केवल संदिग्ध हैं . अभी उनको भ्रटाचार की प्रतिमूर्ति कहना  बहुत जल्दबाजी होगी .

पिछले चार पांच दिन से राबर्ट वाड्रा पर  भ्रष्टाचार के आरोप बीजेपी के प्रवक्ता कुछ ज्यादा शिद्दत से लगा रहे हैं .  यह काम वे पिछले पांच साल से कर रहे  हैं . २०१४ के चुनाव के पूर्व बीजेपी के तत्कालीन प्रवक्ता ,रविशंकर प्रसाद ने रॉबर्ट वाड्रा पर जमीन घोटाले का आरोप लगाते हुए 'जमीन का कारोबारी या गुनाहगारनामक एक फिल्म दिखाई थी . बीजेपी ने 'दामाद श्रीनाम से एक पुस्तिका भी जारी की थी .उस प्रेस कॉन्‍फ्रेंस में  रविशंकर प्रसाद ने पूछा था कि आखिर वाड्रा ने सिर्फ हरियाणा और राजस्थान में जमीन क्यों खरीदीइसके साथ ही बीजेपी ने वाड्रा के दिन दोगुनी रात चौगुनी अमीर होने का राज जानना चाहा था .उन्होंने  " रॉबर्ट वाड्रा के विकास मॉडल " पर हमला बोला था और कहा, था कि  'अब तक मैं कांग्रेस के नेताओं से पूछता आया हूं। अब मैं सोनिया गांधी और राहुल गांधी से पूछना चाहता हूं कि वे बताएं कि वाड्रा के विकास का मॉडल क्या है?' रविशंकर प्रसाद के इस आरोप का प्रियंका गांधी ने उस वक़्त भी ज़बरदस्त जवाब दिया था . प्रियंका  गांधी वाड्रा ने कहा,था कि  'बीजेपी बौखलाए हुए चूहों की तरह दौड़ रही है। मुझे मालूम था कि चुनाव से पहले इनके (बीजेपी) झूठों का सिलसिला दोहराया जाएगा। इसमें कुछ भी नया नहीं है। इन्‍हें (बीजेपी) जो करना है करने दीजिएमैं किसी से नहीं डरती हूं। इनकी विनाशकनकारात्‍मक और शर्मनाक राजनीति के खिलाफ मैं चुप नहीं रहूंगी". दामाद्श्री नाम की उस  पुस्तिका में बहुत सारे अखबारों की कतरने थीं , कुछ लेख थे , कुछ दस्तावेज़ थे जिनको राबर्ट वाड्रा के भ्रष्टाचार के सबूत के तौर पर पेश किया गया था . लेकिन  बीजेपी की जीत और नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री पद पर आसीन होने के बाद उस पर कोई कार्रवाई होती नहीं देखी गयी . या हो सकता है कि कुछ हो रहा हो लेकिन मीडिया को उसकी भनक नहीं नहीं . आज यकायक प्रियंका गांधी के मीडिया में छा जाने के बाद उनके पति  राबर्ट वाड्रा को आगे करने के पीछे कहीं प्रियंका गांधी को बैकफुट पर  खेलने के लिए मजबूर करने की रणनीति तो नहीं काम कर रही है .हो सकता है ऐसा न हो लेकिन प्रियंका गांधी के आचरण से बिलकुल साफ़ है कि वे राबर्ट वाड्रा के   कंधे पर अव्वल तो बन्दूक रखने नहीं देंगीं और अगर बीजेपी राबर्ट वाड्रा को सेंटर स्टेज लाने में सफल हो भी गयी तो उस बन्दूक से अपने ऊपर हमला किसी कीमत पर  नहीं होने देंगी. ।'
छः फरवरी को अपने आफिस जाने के पहले राबर्ट वाड्रा को जांचकर्ताओं के यहाँ  प्रवर्तन  निदेशालय पंहुचाना और अपने दफ्तर में आकर सवालों के सामने से जवाब देना इस बात को साफ़ तौर से रेखांकित कर देता है .उनसे जब सवाल पूछा गया तो उन्होंने साफ़ कहा कि , " मैं अपने परिवार के साथ ,हूँ " उनसे जब पूछा गया कि अपने पति को प्रवर्तन निदेशालय पंहुचाने के ज़रिये वे क्या  मेसेज देना चाहती हैं . उनका तुरंत जवाब आया कि, ' वे मेरे पति हैं ,और क्या मेसेज है . वे मेरे परिवार हैं .मैं अपने परिवार के साथ हूं ." ऐसा लगता है कि प्रियंका गांधी और कांग्रेस पार्टी एक सोची समझी रणनीति के तहत ऐसा कर रहे  हैं . राबर्ट वाड्रा पर अभी कोई मुक़दमा भी नहीं चला है और कोई  अपराध भी  नहीं साबित हुआ है लेकिन बीजेपी के प्रचार के चलते उनकी एक ऐसी छवि बन गयी है जिसको प्रियंका गांधी की राजनीतिक राह में  भारी रोड़ा  माना जाता रहा  है . दिल्ली के सत्ता के केन्द्रों में इस बात पर चर्चा होती रहती थी कि अपने पति की छवि के कारण प्रियंका के लिए राजनीति में शामिल होना और  सत्ताधारी पार्टी को चुनौती देना मुश्किल होगा . लेकिन  अब लगने लगा  है कि प्रियंका गांधी अपने पति के बारे में किये  जा रहे प्रचार से डरने के  खिलाफ फैसला ले लिया है .  

प्रियंका गांधी के मैदान ले लेने के बाद लगता  है कि वे अब अपने को पीड़ित के रूप में प्रस्तुत करने जा रही हैं . जिन लोगों को भी उम्मीद थी कि वे अपने पति पर लगे भ्रष्टाचार के आरोपों के कारण दब जायेंगीं उनको उन्होंने बा तक निराश किया है . वैसे यह भी सच है कि बीजेपी उनके ऊपर पिछले कई वर्षों से आरोप लगा रही है लेकिन अभी तक कोई भी मुक़दमा उनके ऊपर नहीं चला है . आज के पांच साल पहले " दामाद्श्री " नाम की जिस किताब को केंद्रीय मंत्री  रविशंकर प्रसाद ने जारी किया था, केंद्र में  सरकार बन जाने के बाद उसकी जांच हो जाना चाहिए थी . उनके भ्रष्टाचार के ज़्यादातर आरोप  हरियाणा और राजस्थान में ज़मीनों से सम्बंधित हैं . दोनों ही राज्यों में बीजेपी की भारी बहुमत की सरकारें थीं लेकिन कोई जांच नहीं की गयी. राबर्ट वाड्रा पर हथियारों की  दलाली के आरोप भी आजकल लगाए जा  रहे हैं . उसकी जाँच भी  केंद्र सरकार की एजेंसियां कर सकती थीं, वह भी नहीं हुई. जबकि २०१४ से ही केंद्र में बीजेपी की सरकार है .अब पांच साल बाद फिर राबर्ट वाड्रा को सेंटर स्टेज लाने का जो काम है वह इस बात की तरफ संकेत देता है कि मामला कहीं चुनावों के कारण तो नहीं गर्माया जा रहा है . जहां तक ई डी की बात है , दिल्ली में सभी जानते हैं कि नेताओं की आर्थिक बेईमानी को पकड़ने का मुख्य केंद्र वही  है और उसको कोई भी राजनीतिक पार्टी इस्तेमाल नहीं कर सकती .

युनिवर्सल बेसिक इनकम की योजना लागू हुई तो गरीबी पर मर्मान्तक हमला होगा



शेष नारायण सिंह  
कांग्रेस के अध्यक्ष राहुल गांधी ने छत्तीसगढ़ की एक सभा में घोषणा कर दी कि अगर कांग्रेस २०१९ के चुनाव के बाद सत्ता में आई तो सबके लिए एक निश्चित आमदनी की गारंटी कर दी जायेगी . राहुल  गांधी ने कहा कि, “ हम एक आधुनिक भारत का निर्माण तब  तक नहीं कर सकते जब तक हमारे करोड़ों भाई बहन गरीबी के अभिशाप से जूझ रहे  हैं . “ उन्होंने दावा किया कि गरीबी और भुखमरी से मुक्ति पाने का यही तरीका  है . हालांकि  यह बात अभी साफ़ नहीं है कि राहुल गांधी ने बिना शर्त सभी के लिए युनिवर्सल बेसिक  इनकम की बात की है या  लक्ष्य तय करके इस योजना को लागू करने की बात की है . दुनिया भर के विद्वानों का मानना है कि  अगर यह योजना वास्तव में युनिवर्सल न की गयी तो लाभार्थी तय  करने  के लिए बीच में नौकरशाही टपक पड़ेगी और भ्रष्टाचार की एक  धारा खुल जायेगी जैसाकि अभी  बहुत सारी  योजनाओं में होता है . मनरेगा  जैसी स्कीम में भी  पंचायत प्रधान , बी डी ओ  से लेकर जिलाधिकारी और मुख्यमंत्री तक भ्रष्टाचार की कड़ी चलती है और लूट में सभी शामिल होते हैं . युनिवर्सल बेसिक  इनकम अगर सही अर्थों में लागू हो जायेगी तो अमीर गरीब सबके बैंक खाते में एक निश्चित रक़म जमा हो जाया करेगी और यह काम मशीनी तरीके से हो जाया करेगा .
 दिल्ली के सत्ता के गलियारों में बहुत  समय से चर्चा है कि चुनाव के पहले आने वाले अंतरिम बजट में बीजेपी की  सरकार भी इसी तरह की घोषणा  करने वाली है . मौजूदा सरकार के पूर्व मुख्य आर्थिक सलाहकार अरविन्द सुब्रमण्यम ने तो केंद्र सरकार के आर्थिक सर्वे में इस विषय पर पूरा एक अध्याय लिखा था  और युनिवर्सल बेसिक इनकम को एक सरकारी नीति के रूप में पेश  कर दिया था. अगर उस समय  सरकार ने उनकी बात मान ली होती तो आज नरेंद्र मोदी को हरा पाना असंभव हो जाता  लेकिन  ऐसा नहीं हुआ .सभी नागरिकों के लिए न्यूनतम आमदनी की  गारंटी करना बहुत बड़ा आर्थिक बोझ नहीं है क्योंकि सरकार सब्सिडी और तरह तरह की रियायतों के नाम पर सरकारी खजाने का एक हिस्सा अभी  भी खर्च करती है.  यह भी सच है कि उस  सरकारी पैसे का एक बड़ा भाग भ्रष्टाचार की बलि चढ़ जाता है .  इस योजना को लागू करने के लिए सरकार को अपनी सब्सिडी और टैक्स में छूट की व्यवस्था पर फिर से विचार करना पडेगा . विख्यात अर्थशास्त्री प्रणब बर्धन ने युनिवर्सल बेसिक इनकम के बारे में काफी शोध किया है .उनका कहना है कि यह संभव है और भारत के लिए वांछनीय भी है .उनका सुझाव है  कि शिक्षा ,स्वास्थ्य ,बाल पोषाहार और मनरेगा जैसी सरकारी योजनाओं के अलावा बाकी की सब्सिडी को ख़त्म  करके अगर युनिवर्सल बेसिक इनकम की व्यवस्था लागू कर  दी जाये तो समाज का और अर्थव्यवस्था का  बहुत भला होगा. अभी बहुत सारी सब्सिडी केंद्र सरकार की तरफ से दी जाती है . खाद यातायातबिजलीपानी ,पेट्रोल आदि पर जो सब्सिडी  दी जाती है वह गरीब आदमी तक तो पंहुचती ही नहीं उसका एक बड़ा हिस्सा भ्रष्टाचार के तंत्र में चला जाता है .  इस तरह की सब्सिडी बंद करके युनिवर्सल बेसिक इनकम की बात शुरू कर  दी जाए तो गरीब आदमी तक कुछ धन सीधे पंहुचेगा .केवल खाद यातायात,बिजलीपानी और पेट्रोल की सब्सिडी जीडीपी का  4% होता है . कांग्रेस नेता और पूर्व वित्त मंत्री पी चिदम्बरम ने राहुल गांधी की घोषणा के बाद एक ट्वीट के  ज़रिये बताया कि उनके अध्यक्ष के वायदे पूरी तरह से लागू करने के लिए जीडीपी  का केवल 3% ही काफी  होगा . अभी  पी डी एस  में जो सब्सिडी दी जाती है वह जीडीपी का 1.4 % है . दुनिया जानती है कि पीडीएस में बहुत बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार होता है और उस  रक़म को अगर सीधे लाभार्थी के खाते में डाल दिया जाय तो सही रहेगा . अभी कस्टम और सेन्ट्रल एक्साइज में सरकार ऐसी  छूट देती है जिसको रेवेन्यू फारगान ( revenue forgone) कहते हैं और वह जीडीपी का 6 प्रतिशत होता है .तात्पर्य यह है कि राहुल  गांधी की  घोषणा या मोदी सरकार के पूर्व मुख्य आर्थिक सलाहकार अरविन्द सुब्रमण्यम का प्रस्ताव लागू  किया जा सकता है . उसके लिए सब्सिडी की व्यवस्था पर  पुनर्विचार की ज़रुरत पड़ेगी .
न्यू यार्क विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र के प्रोफ़ेसर देबराज रे ने  युनिवर्सल बेसिक इनकम पर बहुत काम किया है . वे इसको युनिवर्सल  बेसिक शेयर कहते  हैं और सुझाव देते हैं कि जीडीपी का एक हिस्सा रिज़र्व कर दिया जाएगा जिसको पूरी आबादी  खाते में जमा कर दिया जाना  चाहिए .युनिवर्सल बेसिक इनकम के लिए अब बुनियादी ढांचा भी लगभग तैयार हो गया  है . आधार कार्ड एक ऐसी सुविधा है जो देश के हर नागरिक की पहचान को सुनिश्चित कर देता है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जन धन योजना के तहत देश के अधिकांश नागरिकों के खाते  बैंकों में खुलवाने की पहल कर  दी थी . अभी सब के खाते तो नहीं खुले हैं लेकिन एक सिस्टम  उपलब्ध है . बड़ी आबादी के  पास आज बैंक खाते हैं और जिनके पास नहीं हैं वे खुल जायेंगें .    टेलिविज़न पर हुयी एक  चर्चा में कांग्रेस के एक प्रवक्ता ने बताया कि मौजूदा सब्सिडी  तंत्र  ज्यों का त्यों लागू रहेगा और युनिवर्सल बेसिक इनकम की व्यवस्था उसके साथ साथ होगी.अगर  कांग्रेस सब्सिडी को जारी रखते हुए युनिवर्सल बेसिक इनकम की बात कर रही है तो उन्होंने केवल चुनावी घोषणा कर दी है , उनको अर्थशास्त्र के इस सबसे आधुनिक पहलू के बारे में सही जानकारी नहीं है . अगर युनिवर्सल बेसिक इनकम की बात करनी है तो उसको उन बहुत सी ऐसी चीज़ों के बदले में लाना होगा जो भारतीय अर्थ व्यवस्था में बहुत दिनों से चली आ रही है.

युनिवर्सल बेसिक इनकम को लागू करने में भारत में बहुत सारी समस्याएं आने वाली हैं . सही बात यह है कि यूरोप के जिन देशों में यह स्कीमें सफलतापूर्वक चल रही हैं ,समस्याएं वहां भी हैं . स्विट्ज़रलैंड में यह व्यवस्था लागू  थी लेकिन दो साल पहले हुए एक रेफरेंडम में जनता ने इसको  बंद करने के लिए वोट दे दिया . मुख्य तर्क यह है कि इसके लागू  होने से लोगों में कमाने के लिए उत्साह ख़त्म हो जाता  है . नार्वे में यह  स्कीम   लागू है . लेकिन वहां  उन लोगों को ही यह सुविधा मिलती है जिनके पास कोई काम नहीं है .  ओस्लो विश्वाविद्यालय के अर्थशास्त्री  प्रो काले मोइन का कहना  है कि भारत में भी इसी तरह से लागू किया जा सकता  है .  गरीबी  हटाने का इससे कारगर कोई तरीका नहीं हो सकता .  तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने यूरोप में चल  रही युनिवर्सल बेसिक इनकम की इसी बहस से प्रभावित होकर १९७१ के चुनाव में गरीबी हटाओ का नारा दे दिया था . उस दौर में दक्षिणपंथी अर्थशास्त्री , मिल्टन फ्रायडमैन भी युनिवर्सल बेसिक इनकम की बात कर रहे थे और  लेफ्ट आफ सेंटर  चिन्तक जॉन केनेथ गालब्रेथ भी इस व्यवस्था को भुखमरी और गरीबी की महत्वपूर्ण काट के रूप में बता रहे थे . इंदिरा गांधी ने घोषणा कर दी ,जनता ने उनके ऊपर विश्वास किया लेकिन ऐसा लगता है कि उनके पास योजना को लागू करने का कोई आइडिया नहीं था . बस उन्होंने चुनाव जीतने के लिए एक जुमला फेंक दिया था  जिसपर जनता ने विश्वास कर लिया . ठीक उसी तरह जैसे २०१४ के चुनावों के अभियान में मौजूदा  प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दो करोड़ नौकरियाँ प्रति वर्ष और  किसान की आमदनी दुगुना करने की बात कर दी थी . देश के नौजवानों और किसानों ने उनकी बात का विश्वास किया और देश में मोदी लहर आ गयी . आज वही वायदा उनकी  चुनावी सम्भावनाओं पर भारी पड़ रही है . लोग सवाल पूछ रहे हैं और सत्ताधारी पार्टी के पास कोई जवाब नहीं है .
इस बात की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता कि राहुल गांधी ने भी एक जुमला ही फेंका हो . लेकिन अब यह  बात तय  है कि उन्होंने युनिवर्सल बेसिक इनकम की बात करके भारत में इस योजना को लागू करने का रास्ता साफ़ कर दिया है .  उनके इस आक्रामक रुख से यह बात तय है कि  कल आने वाले  अंतरिम बजट में मोदी सरकार भी युनिवर्सल बेसिक इनकम या  इससे मिलता जुलता कोई प्रस्ताव लायेगी . इसका भावार्थ  यह हुआ कि देश की दोनों बड़ी पार्टियों ने अपने आपको युनिवर्सल बेसिक इनकम के लिए समर्पित कर दिया है . राहुल गांधी की घोषणा ने पूरी दुनिया में गरीबी , भुखमरी और बुनियादी आमदनी की लड़ाई लड़  रहे  लोगों का ध्यान  खींचा है . विश्वविख्यात टाइम मैगज़ीन ने  भी उनकी घोषणा के हवाले से एक बड़ी खबर अपने इंटरनेट संस्करण में लगाई है . पत्रिका ने  गरीबी के खिलाफ अभियान चलाने वाले अर्थशास्त्री ,गाय स्टैंडिंग के बयान  का विस्तार से उल्लेख किया है . वे भारत के बीजेपी नेताओं और संयुक्त राष्ट्र में बहुत दिनों से युनिवर्सल बेसिक इनकम  के सन्दर्भ में संपर्क बनाए हुए हैं . गाय स्टैंडिंग कहते हैं  कि बीजेपी के बड़े नेताओं में इस  तरह की बात बहुत पहले से चल रही है . उन्होंने युनिवर्सल बेसिक  इनकम को  मध्य प्रदेश में लागू करने के लिए संयुक्त राष्ट्र की एक योजना पर २०११-२०१२ में काम किया था . इस योजना का ट्रायल हुआ और छः हज़ार लोगों को बेसिक इनकम के दायरे में लिया गया था  उनको भरोसा  है कि बीजेपी वाले तो पहले से ही इस  विषय पर विचार कर रहे हैं . अब कांग्रेस की घोषणा के बाद उनके सामने कोई विकल्प नहीं है . उनको भी  अंतरिम   बजट में इसी हफ्ते इसकी घोषणा करनी  पड़ेगी . हो सकता है कि योजना का नाम कुछ और दे दिया जाए .अगर युनिवर्सल बेसिक  इनकम की घोषणा नहीं करते तो उनको चुनावी नुक्सान होना तय है. ज़ाहिर है कि अब युनिवर्सल बेसिक  इनकम भारत की अर्थनीति का हिस्सा बन जायेगी और  अपना देश गरीबी से लड़ाई की आर्थिक नीतियों के बारे में अमरीका आदि से भी अधिक प्रगतिशील हो जाएगा  . अमरीका में भी दक्षिणपंथी राजनेता तो  इसको फालतू की बात मानते हैं और बर्नी सैंडर्स जैसे बाएं बाजू के राजनेता  भी इसको टालने के चक्कर में  रहते हैं .  टाइम मैगज़ीन में गाय स्टैंडिंग के हवाले से दावा किया  गया है कि इस स्कीम के लागू होने से कुपोषण ,अशिक्षा ,महिलाओं की दुर्दशा जैसी समस्स्याओं को हल किया जा सकता है . इस तरह हम देखते हैं कि राहुल गांधी की दादी ने जिस योजना को केवल चुनाव जीतेने के लिए १९७१ में कह दिया था आज वह एक सच्चाई बन रही है . मई २०१९ में सरकार चाहे जो बने युनिवर्सल बेसिक  इनकम अब एक नीति का रूप अवश्य लेगी .

महात्मा गांधी की शहादत के सात दशक:अब तो उनके विरोधी भी उनके प्रशंसक हैं





शेष नारायण सिंह 

महात्मा गांधी को गए 71 साल हो गए।  30 जनवरी 1948 के दिन दिल्ली में प्रार्थना के लिए जा रहे  महात्मा जी को एक हत्यारे ने गोली मार दिया था और हे राम कहते हुए वे स्वर्ग चले गए थे . 30 जनवरी के पहले भी उनकी जान लेने की कोशिश हुयी थी .बीस जनवरी 1948 के दिन भी उसी बिरला हाउस में बम काण्ड हुआ था ,जहां दस दिन बाद उनकी हत्या कर दी गयी . उनकी हत्या के बाद पूरा देश सन्न रह गया था। आज़ादी की लड़ाई में शामिल सभी राजनीतिक जमातें दुःख में  डूब गयी थी। ऐसा इसलिए हुआ था कि 1920 से 1947 तक महात्मा  गांधी के नेतृत्व में  ही आज़ादी की लड़ाई लड़ी गयी थी। लेकिन जो जमातें आज़ादी की लड़ाई में शामिल नहीं थींउन्होंने गांधी जी की शहादत पर कोई आंसू नहीं बहाए। ऐसी ही एक जमात आर  एस एस थी जिसकी सहयोगी राजनीतिक पार्टी उन दिनों हिन्दू महासभा हुआ करती थी। हिन्दू महासभा के कई सदस्यों की साज़िश का ही नतीजा था जिसके कारण महात्मा गांधी की हत्या हुयी थी।  हिन्दू महासभा के सदस्यों पर ही  महात्मा गांधी की हत्या का मुक़दमा चला और उनमें से कुछ लोगों को फांसी हुयीकुछ को आजीवन कारावास हुआ और कुछ तकनीकी आधार पर बच गए। नाथूराम गोडसे ने गोलियां चलायी थींउसे फांसी हुयीउसके भाई गोपाल गोडसे को साज़िश में शामिल पाया गया लेकिन उसे आजीवन कारावास की सज़ा हुयी। बाद में वह छूट कर  जेल से बाहर आया और उसने गांधी जी की हत्या को सही ठहराने के लिए कई किताबें वगैरह  लिखीं। आर एस एस के लोगों के ऊपर आरोप है की उन्होंने महात्मा जी की हत्या के बाद कई जगह मिठाइयां आदि भी बांटी। इस बात को आर एस एस वाले शुरू से ही गलत बताते रहे हैं लेकिन इतना पक्का है की आर एस एस  ने  प्रकट रूप से महात्मा गांधी की  मृत्यु पर कोई दुःख व्यक्त नहीं किया  उस वक़्त के आर एस एस के मुखिया एम एस गोलवलकर को भी महात्मा गांधी की हत्या की साज़िश में शामिल होने के आरोप में गिरफ्तार  किया गया था  . सरदार पटेल उन दिनों देश के गृहमंत्री थे और उन्होंने  गोलवलकर को एक अंडरटेकिंग लेकर  कुछ शर्तें मनवा कर जेल से रिहा किया था . बाद के दिनों में आर एस एस ने हिन्दू महासभा से पूरी  तरह से किनारा  कर लिया था। और भारतीय जनसंघ नाम की एक पार्टी को अपनी राजनीतिक शाखा के रूप में स्वीकार कर लिया था और इस तरह आर एस एस के प्रभाव वाली एक नयी राजनीतिक पार्टी तैयार हो गयी। आर एस एस के प्रचारक दीन दयाल उपाध्याय  को आर एस एस के नागपुर मुख्यालय से जनसंघ का  काम करने के लिए भेजा गया था। बाद में  वे जनसंघ के सबसे बड़े नेता हुए।  1977  तक आर एस एस और जनसंघ वालों ने महात्मा गांधी और जवाहर लाल नेहरू की नीतियों की खूब जमकर आलोचना की और  गांधी-नेहरू की राजनीतिक  विरासत को ही देश में होने वाली हर परेशानी का कारण बताया . . लेकिन 1980 में जब जनता पार्टी को तोड़कर जनसंघ वालों ने   भारतीय जनता पार्टी की स्थापना की तो पता नहीं क्यों उन्होंने अपनी पार्टी के राजनीतिक उद्देश्यों में  गांधियन  सोशलिज्म को भी शामिल कर लिया। ऐसा शायद इसलिए हुआ होगा कि आज़ादी की लड़ाई में आर एस एस  का कोई आदमी  कभी शामिल नहीं हुआ था। नवगठित बीजेपी  को कम से कम  एक ऐसे महान व्यक्ति तलाश थी जिसने आजादी की लड़ाई में हिस्सा लिया हो . हालांकि अपने पूरे जीवन भर महात्मा गांधी कांग्रेस के नेता रहे लेकिन बीजेपी ने उन्हें अपनाने की योजना पर काम करना शुरू कर दिया . 

महात्मा गांधी को अपनाने की अपनी योजना को अमली जामा पहनाने के लिए बीजेपी ने मुंबई में 28 दिसंबर 1980 को आयोजित अपने पहले ही अधिवेशन में अपने पांच आदर्शों में से एक गांधियन सोशलिज्म  को निर्धारित किया .बाद में जब 1985 में बीजेपी लगभग शून्य हो गयी  तो गांधी जी से अपने आपको दूर भी कर लिया गया लेकिन आजकल फिर महात्मा गांधी को अपनाने की योजना पर काम चल रहा है और अब तो बीजेपी वाले खुले आम कहते पाए जाते हैं की महात्मा गांधी  कांग्रेस  की बपौती नहीं  हैं . हालांकि आजकल बीजेपी वाले महात्मा गांधी को अपना बताने में कोई कसर नहीं छोड़ते लेकिन सच्चाई यह है की महात्मा गांधी और आर एस एस के बीच इतनी  दूरियां  थीं जिनको कि महात्मा जी के जीवन काल और उसके बाद भी  भरा नहीं जा सका।अंग्रेज़ी  राज  के  बारे में महात्मा गांधी और आर एस एस में बहुत भारी मतभेद था। महात्मा गांधी अंग्रेजों को हर कीमत पर हटाना चाहते थे  जबकि आर एस एस वाले अंग्रेजों की छत्रछाया में ही अपना मकसद हासिल  करना चाहते थे। . वास्तव में 1925 से लेकर 1947 तक आर एस एस को अंग्रेजों के सहयोगी के रूप में देखा जाता है . शायद इसीलिये जब 1942 में भारत छोडो का नारा देने के बाद देश के सभी नेता जेलों में ठूंस दिए गए थे तो आर एस एस के सरसंघचालक एम एस गोलवलकर सहित उनके सभी नेता जेलों के बाहर थे और  अपना ' सांस्कृतिक काम ' चला रहे थे .

गांधियन सोशलिज्म की असफलता के बाद दोबारा महात्मा गांधी को अपनाने की कोशिश आर एस एस ने पूरी गंभीरता के साथ 1997 को अक्टूबर  को शुरू किया . योजना यह थी की 30 जनवरी1998 के दिन इस अभियान का समापन करके महात्मा गांधी को अपनी विचारधारा का समर्थक साबित कर दिया जाएगा . अक्टूबर की सभा में आर एस एस के तत्कालीन प्रमुख राजेन्द्र सिंह ने महात्मा गांधी की बहुत तारीफ़ की . उस सभा में अटल बिहारी वाजपेयी और लाल कृष्ण आडवानी भी मौजूद थे। राजेन्द्र सिंह ने कहा कि  गांधीजी भारतमाता  के चमकते हुए नवरत्नों में से एक थे और अफ़सोस जताया कि  उनको सरकार ने भारतरत्न की उपाधि तो नहीं दी लेकिन  वे लोगों की नज़र में सम्मान के पात्र थे। इतिहास का कोई भी  विद्यार्थी बता देगा कि  महात्मा गांधी के प्रति प्रेम के इस उभार में  किसी योजना का हाथ नज़र आता है .संघ परिवार ने अपने सामाजिक कार्य से भारत के बंटवारे के दौरान बहुत ही सम्मान हासिल कर लिया था . लेकिन  महात्मा गांधी की हत्या में आर एस एस के  बहुत सारे लोगों की गिरफ्तारी के कारण उन्हें सम्मान मिलना बंद हो गया था।महात्मा जी की ह्त्या के 30 साल बाद जब आर एस एस वाले जनता पार्टी के सदस्य बने तो उन्हें राजनीतिक सम्मान मिलना शुरू हुआ लेकिन उन्हें कुछ काबिल पुरखों की तलाश लगातार बनी हुयी थी। इसी प्रक्रिया में आर एस एस प्रमुख के अलावा बीजेपी के  दोनों बड़े नेताअटल बिहारी वाजपेयी और लाल कृष्ण आडवानी भी  गांधीजी  को सदगुणों की खान मानने  लगे। महात्मा गांधी से अपनी करीबी और नाथूराम गोडसे से अपनी दूरी साबित करने के लिए आर एस एस ,जनसंघ और बीजेपी के नेताओं ने हमेशा से ही भारी मशक्क़त की है . महात्मा गांधी की विरासत पर क़ब्ज़ा पाने की  संघ की  जारी मुहिम  के बीच कुछ ऐसे तथ्य सामने  आ गए जिस से उनके अभियान को भारी घाटा हुआ। आडवानी समेत सभी बड़े नेताओं ने बार बार यह कहा था कि जब महात्मा गांधी की हत्या हुयी तो नाथूराम गोडसे आर एस एस का सदस्य नहीं था .यह बात तकनीकी आधार पर सही हो सकती है लेकिन गांधी जी  की हत्या के अपराध में आजीवन कारावास की सज़ा  काट कर लौटे  नाथू राम गोडसे के भाई गोपाल गोडसे ने सब गड़बड़ कर दी। जेल से निकलने के बाद उन्होंने अंग्रेज़ी पत्रिका " फ्रंटलाइन " को दिए गए एक इंटरव्यू में बताया कि आडवानी  और बीजेपी के अन्य नेता उनसे दूरी  नहीं  बना सकते। . उसने कहा कि " हम सभी भाई आर एस एस में थे। नाथूराम,दत्तात्रेय . मैं और गोविन्द सभी आर एस एस में थे। आप कह सकते हैं  की हमारा पालन पोषण अपने घर में न होकर आर एस एस में हुआ। . वह हमारे लिए एक परिवार जैसा था।  . नाथूराम आर एस एस के बौद्धिक कार्यवाह बन गए थे।। उन्होंने अपने बयान में यह कहा था कि  उन्होंने आर एस एस छोड़ दिया था . ऐसा उन्होंने  इसलिए कहा क्योंकि महात्मा गांधी की हत्या के बाद गोलवलकर और आर
एस एस वाले बहुत परेशानी  में पड़  गए थे। लेकिन उन्होंने कभी भी आर एस एस छोड़ा नहीं था " जब गोपाल गोडसे को बताया गया कि आडवानी ने दावा किया है कि नाथूराम का आर एस एस से कोई लेना देना नहीं था तो गोपाल गोडसे ने जवाब दिया " मैंने उनको  यह कहकर फटकार दिया है  की ऐसा कहना कायराना हरकत है .. हाँ यह आप कह सकते हैं की आर एस एस ने गांधी की हत्या का कोई प्रस्ताव नहीं पास किया था लेकिन आप उनसे  (नाथूराम से ) सम्बन्ध विच्छेद नहीं कर सकते। जब 1944 में नाथूराम ने हिन्दू महासभा का काम करना शुरू किया था तो वे आर एस एस के बौद्धिक कार्यवाह थे।"

 नाथूराम गोडसे दूरी बनाने और अपनी विचारधारा  को महात्मा गांधी की प्रिय विचारधारा बताने के लिए भी आर एस एस वालों ने बहुत काम किया है .नवम्बर 1990 में बीजेपी के महासचिव कृष्ण लाल शर्मा ने प्रधानमंत्री चन्द्र शेखर को एक पत्र लिखकर बताया कि  27 जुलाई 1937 को हरिजन सेवक  में एक लेख लिखा था जिसमें महात्मा गांधी ने रामजन्म भूमि के बारे में उन्हीं बातों को सही ठहराया था जिसको अब आर एस एस सही बताता  है . उन्होंने यह भी दावा किया कि महात्मा गांधी के हिंदी साप्ताहिक की वह प्रति उन्होंने देखी थी जिसमें यह बात लिखी गयी थी। . यह खबर अंग्रेज़ी अखबार टाइम्स आफ इण्डिया में छपी भी थी . लेकिन कुछ दिन बाद टाइम्स आफ इण्डिया की रिसर्च टीम ने यह  खबर छापी कि  कृष्ण लाल शर्मा का बयान सही नहीं है क्योंकि महात्मा गांधी ने ऐसा कोई  लेख लिखा ही नहीं था . सच्चाई यह है की 27 जुलाई 1937 को हरिजन सेवक का कोई अंक ही नहीं छपा था . 1937 में उस साप्ताहिक अखबार का अंक 24 जुलाई और 31 जुलाई को छपा था। 
महात्मा गांधी की  शहादत के  सत्तर से ज्यादा साल बाद वे और अधिक प्रासंगिक हो गए हैं और वे लोग  भी उनके प्रशंसक हो गए हैं जिनके नेताओं के ऊपर  उनकी ह्त्या की साज़िश में शामिल होने के मुक़दमे चले वे भी उनको अपनाने में जुट गए हैं . 

चुनाव आयोग ने साफ़ किया कि ई वी एम में गड़बड़ी नहीं की जा सकती.





शेष नारायण सिंह

चुनाव आयोग ने एक विज्ञप्ति जारी करके कहा है कि लंदन में जिस कथित एक्सपर्ट ने ई वी एम में गड़बड़ी किये जाने का दावा किया है उसपर कानूनी कार्रवाई की जायेगी . चुनाव आयोग का दवा है कि ई वी एम पूरी तरह से सुरक्षित है और उनको हैक नहीं किया जा सकता. चुनाव आयोग की यह विज्ञप्ति इसलिए आई है कि लंदन में आयोजित एक प्रेस कान्फरेन्स में स्काइप के ज़रिये अमरीका में बैठे एक  साइबर एक्सपर्ट ने दावा किया है कि 2014 के लोकसभा चुनाव में इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनों (ईवीएम) के जरिए धांधली की गई थी। इस कथित एक्सपर्ट ने लंदन में जिस प्रेस कॉन्फ्रेंस को संबोधित किया, उसमें कांग्रेस नेता कपिल सिब्बल भी मौजूद थे। एक्सपर्ट ने कई दावे किए, लेकिन किसी भी दावे की पुष्टि के लिए वह सबूत नहीं दे पाया। साइबर एक्सपर्ट के इसी दावे के बाद चुनाव आयोग ने कानूनी कार्रवाई की बात की है .
इस कथित एक्सपर्ट की बातें सहज ही भरोसे लायक नहीं लगतीं .क्योंकि वह अमरीका से राजनीतिक शरण मांग रहा है और इस तरह के दावे करके वह  यह साबित करने की कोशिश कर रहा है कि भारत में उसका उत्पीडन  किया जा सकता है और उसके मानवाधिकार सुरक्षित नहीं  हैं .  लंदन की  प्रेस कॉन्फ्रेंस इंडियन जर्नलिस्ट्स एसोसिएशन यूरोप की तरफ से कराई गई थी। इसे साइबर एक्सपर्ट सैयद शुजा ने स्काइप के जरिए संबोधित किया और ईवीएम हैकिंग के दावे किए। प्रेस कॉन्फ्रेंस के दौरान उसका मुंह ढंका हुआ था।

 शुजा ने दावा किया, ‘2014 के आम चुनाव में एक कंपनी ने ने भाजपा की मदद की थी ताकि पार्टी को ईवीएम हैक करने के लिए लो फ्रीक्वेंसी सिग्नल मिल सकें। भाजपा ने मिलिट्री ग्रेड फ्रीक्वेंसी ट्रांसमिट करने वाले एक मॉड्यूलेटर का इस्तेमाल कर ईवीएम में गड़बड़ी की थी। उसने दावा किया कि वह 2014 के चुनाव में इस्तेमाल हुईं वोटिंग मशीनों को डिजाइन करने उस वाली टीम में था जिसको इलेक्ट्रॉनिक्स कॉर्पोरेशन ऑफ इण्डिया  लिमिटेड की तरफ से यह पता लगाने के निर्देश दिए गए थे कि ईवीएम कैसे हैक की जा सकती है।

इस सैयद  शुजा के दावे बहुत ही अजीबोगरीब हैं . उसने यह भी दावा किया कि ‘2014 में तत्कालीन केंद्रीय मंत्री गोपीनाथ मुंडे की हत्या इसलिए कराई गई क्योंकि वे ईवीएम की हैकिंग के बारे में जानते थे .उसने कहा कि पुलिस के बड़े अफसर कोई तंजील अहमद मुंडे की हत्या की एफआईआर दर्ज कराने वाले थे, इसलिए उन्हें भी मार दिया गया। जबकि सच्चाई यह है कि गोपीनाथ जी की मृत्यु 2014 में दिल्ली में एक सड़क दुर्घटना में हुई थी .यही नहीं कथित एक्सपर्ट ने और भी दावे किये . उन्होंने कहा कि बंगलोर की पत्रकार गौरी लंकेश की हत्या भी इसीलिये की गयी क्योंकि उन्होंने ईवी एम की हेराफेरी की उनकी खबर को  छापने का मन बना लिया था . सैयद शुजा ने बीजेपी के अलावा कई पार्टियों पर भी आरोप लगया है ..उन्होंने दावा किया  कि समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी और आम आदमी पार्टी भी ईवीएम हैकिंग में शामिल हैं.
बीजेपी ने इन कथित एक्सपर्ट महोदय के दावों को कांग्रेस द्वारा आयोजित हैकिंग हॉरर शो करार दिया. भारतीय जनता पार्टी ने कहा कि  कांग्रेस ने आगामी लोकसभा चुनाव में अपनी संभावित हार के लिये बहाना ढूंढना शुरू कर दिया है.केंद्रीय मंत्री मुख्तार अब्बास नकवी ने कहा कि लंदन में संवाददाता सम्मेलन के दौरान उसके नेता कपिल सिब्बल का मौजूद रहना संयोग नहीं था. नकवी ने आरोप लगाया कि कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी और उनकी मां सोनिया गांधी समेत शीर्ष कांग्रेस नेताओं ने सिब्बल को अपने पोस्टमैन के रूप में भेजा होगा. बीजेपी का दावा  है कि ‘इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन को हैक नहीं किया जा सकता. यह स्पष्ट है कि भारत विरोधी ताकतों ने कांग्रेस के दिमाग को हैक कर लिया है. लोकसभा चुनाव में हार से पहले हमने कांग्रेस की ओर से आयोजित हैकिंग हॉरर शो को देखा है. वह अपनी आसन्न हार के लिये बहाना ढूंढ रही है.
कांग्रेस पार्टी ने कपिल सिब्बल की लंदन में मौजूदगी के बावजूद इस घटना से अपना पल्ला झाड  लिया है . कांग्रेस नेता और प्रवक्ता अभिषेक मनु सिंघवी ने  कहा, ‘मैं स्पष्ट कर दूं कि कांग्रेस का लंदन की प्रेस वार्ता से कोई लेना देना नहीं है. कपिल सिब्बल ने खुद कहा है कि वहां वह कांग्रेस का प्रतिनिधित्व नहीं कर रहे हैं. भाजपा की शुरू ये ही रुख रहा है कि संदेश देने वाले को निशाना बनाया जाए ताकि मुद्दे को दफ़न किया जा सके .
लंदन की इस प्रेस कान्फरेन्स पर सवालिया निशान लगे हुए हैं लेकिन यह तय है कि चुनाव में बस कुछ  हफ्ते बाकी रह गए हैं  .इस बात में कोई दो राय  नहीं है कि यह मुदा लगातार गरम बना रहेगा . 


क्या २०१९ में दिल्ली की हवा में बदलाव की धमक देखी जायेगी ?


शेष नारायण सिंह 
लोकसभा चुनाव २०१९ के लिए राजनीतिक पार्टियां पूरी तैयारी कर रही हैं .अब चुनाव में कुछ  हफ्ते ही बाकी हैं . पांच साल पहले के माहौल से अगर तुलना की जाए तो मामला बहुत ठंडा लगेगा . जब २०१४ की मोदी लहर का चुनाव अभियान शुरू हुआ था तो ज़्यादातर इलाकों में मोदी मोदी के नारे लगना शुरू हो गए थे .   अन्ना हजारे के आन्दोलन के बाद कांग्रेस पार्टी को भ्रष्टाचार के पर्यावाची के रूप में स्थापित  करने में पूरी सफलता मिल चुकी थी.  नरेंद्र मोदी को मीडिया के सहयोग से एक विकल्प के रूप में प्रस्तुत कर दिया गया था . भ्रष्टाचार मुक्त शासन , प्रति वर्ष दो करोड़ नौकरियाँ और गुजरात माडल का विकास चुनाव का संचारी भाव बन चुका था और नरेंद्र मोदी एक हीरो के रूप में उभर  रहे थे . उनकी बात  पर विश्वास किया जा रहा था . जब उन्होंने कहा कि किसानों की आमदनी को दुगुना कर दिया जाएगा तो लोगों ने उनका विश्वास किया था . दो करोड़ नौकरियाँ प्रतिवर्ष का वादा ऐसा था जिसने ग्रामीण भारत के नौजवानों  में एकदम करेंट जैसा लगा दिया था .सभी बेरोजगार लड़के नरेंद्र मोदी के ब्रैंड अम्बेसडर बन चुके  थे.  मोदी लहर चारों तरफ देखी  जा रही थी . जब चुनाव  हुआ तो केंद की सत्ता पर नरेंद्र मोदी की ताजपोशी सुनिश्चित की जा चुकी थी . दिल्ली की सत्ता पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी  की जीत के  कारणों में हिंदी क्षेत्रों में उनकी  जीत सबसे महत्वपूर्ण थी.. उत्तर प्रदेशबिहारमध्यप्रदेशछतीसगढ़राजस्थान ,दिल्लीहरियाणा पंजाब ,हिमाचल प्रदेश ,उत्तराखंड में उनकी जीत ने प्रधानमंत्री पद के लिए उनका रास्ता साफ कर दिया था . २०१४ में आयी मोदी लहर का फायदा  बीजेपी को  बाद में हुए विधानसभा चुनावों में भी मिला और पार्टी  का कांग्रेसमुक्त भारत का सपना एक सचाई का रूप लेने लगा . लेकिन बाद में मोदी के वायदों  पर सवाल उठने लगे.भ्रष्टाचार के बहुत सारे मामले सामने आने लगे. राहुल गांधी जो २०१४ के चुनाव के पहले एक शर्मीले नौजवान के रूप में देखे जाते थे, इस बार वे राफेल मुद्दे को  उठाकर बोफोर्स जैसा  माहौल बनाने की कोशिश कर रहे हैं .
आज का माहौल देखने से साफ़ लगने लगा है कि प्रधानमंत्री  नरेंद्र मोदी की टीम बैकफुट पर है . हर साल दो करोड़ नौकरियाँ,  किसानों की दुगुनी आमदनी और अच्छे दिन की बातें अब बीजेपी के नेताओं को अच्छी नहीं लग रही हैं . माहौल ऐसा है  कि २०१८ में हुए पांच विधानसभा चुनावों में बीजेपी को ज़बरदस्त  झटका लग चुका है  . उसकी तीन सरकारें चली गयीं और वहां कांग्रेस की सरकार आ गयी . कांग्रेसमुक्त भारत का सपना इन पांच विधान सभा चुनावों में दफन हो गया . कांग्रेस के अध्यक्ष राहुल गांधी जो अब एक नेता के रूप में उभर चुके  हैं,  वे मोदी सरकार के ऊपर लगातार भ्रष्टाचार के आरोप लगाकर माहौल को गरमा रहे हैं .पहले आलम यह था कि  बीजेपी वाले उनको अधिक से अधिक  अपने प्रवक्ता संबित पात्रा के स्तर का ही नेता मानते थे .लेकिन अब उनसे लोग डरने लगे हैं .  पिछले तीन चार साल में बीजेपी ने  कांग्रेस नेता राहुल गांधी को एक अपरिपक्व नेता के  रूप में भी पेश किया है . साथ साथ उनका नाम इतनी बार लिया गया कि उनका मुफ्त में प्रचार होता रहा और जहां एक समय में बीजेपी या उसके सहयोगियों की सरकारें बाईस राज्यों में थींवह संख्या अब कम हो रही है . २०१८ के विधान सभा चुनावों में बीजेपी की हार  का असर यह हुआ कि सभी पार्टियां मानने लगीं कि मोदी के नेतृत्व वाली पार्टी को हराया जा सकता है . नतीजा सामने है . कई राज्यों में ऐसे ऐसे गठबंधन बन रहे  हैं जो बीजेपी की जीत को बहुत ही  मुश्किल बनाने की क्षमता रखते हैं . पिछले साल हुए विधान सभा चुनाव  में कर्नाटक में बीजेपी सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी थी . गवर्नर के सौजन्य से वहां सरकार भी बनाई लेकिन चला नहीं पाए  क्योंकि ज़रूरी संख्या का जुगाड़ नहीं हो  पाया  .  कर्नाटक में बीजेपी के आला नेता और  मुख्यमंत्री पद के दावेदार येदुरप्पा को यह बात किसी भी सूरत में हजम नहीं हो रही  है कि वे  मुख्य मंत्री पद पर विराजमान  नहीं हैं. एच डी कुमारस्वामी के मुख्यमंत्री बन जाने के बाद वे दो बार कोशिश कर चुके  हैं कि  उस सरकार को गिराकर खुद सत्तासीन हो जाएँ लेकिन सफल नहीं हुए. इस बार के असफल प्रयास के बारे में तो कहा जा रहा  है कि उनकी कोशिश को दिल्ली के बड़े नेताओं ने नापसंद किया और उनको फटकार भी  लगाई .२०१४ में बीजेपी को कर्नाटक से लोकसभा की १७ सीटें मिली थीं . पार्टी के सामने उन सीटों को बचाकर रखने की  चुनौती है . शायद इसीलिये येदुरप्पा को शुरू में पार्टी ने उत्साहित किया था लेकिन जब पता लगा कि वे बिना पूरी तैयारी के धनुष बाण लेकर चल पड़े थे तो उनको औकात बता दी गयी .
पिछले साल हुए विधानसभा चुनावों में हार के बाद बीजेपी में कई जगहों  पर असंतोष  भी देखा जा रहा है  . लेकिन जो सबसे बड़ी चिंता की बात है वह यह है कि बीजेपी को  हराने के  लिए देश के अलग अलग राज्यों में अलग अलग गठबंधन बन सकते हैं . यह बात पहले दिन से ही असंभव मानी जा रही थी कि सभी विरोधी पार्टियां एक साथ आकर नरेंद्र मोदी को चुनौती देंगीं . हालांकि बीजेपी और टीवी चैनलों के साथ साथ कांग्रेस के दिल्ली में रहने वाले और सोनिया गांधी के परिवार की चापलूसी करने वाले कांग्रेसी नेताओं  की कोशिश थी राहुल गांधी के नेतृत्व में एक महागठबंधन बन जाये . ज़मीन पर कहीं भी ऐसा नहीं था. शरद पवार ने बहुत  पहले कह दिया था कि अलग अलग राज्यों में बिलकुल अलग तरह का गठबंधन बनेगा . मसलन बंगाल में कांग्रेस और कम्युनिस्ट पार्टियां एक साथ हैं तो केरल में   दोनों आमने सामने   हैं और एक  दूसरे को हराकर सरकार बनाने के सपने देख रही हैं . मायावती और अखिलेश यादव राजस्थान और मध्यप्रदेश में कांग्रेस की सरकार को समर्थन दे रहे  हैं तो उत्तर प्रदेश में उनको गठबंधन में  भी शामिल करने को तैयार नहीं हैं .एक तरह से देखा जाए तो उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव और मायावती का समझौता बहुत ही दिलचस्प  है .१२ जनवरी को जिस समझौते की घोषणा लखनऊ में मायावती ने किया वह बीजेपी के लिए चिंता का  विषय है . उसी दिन दिल्ली में बीजेपी की राष्ट्रीय परिषद् की बहुत ही महत्वपूर्ण बैठक चल रही थी लेकिन  बहुत  सारे टीवी चैनलों ने मायावती और अखिलेश यादव की प्रेसवार्ता  को लाइव  दिखाया . अगले दिन भी कुछ अति समर्पित अखबारों को छोड़कर अधिकतर अखबारों ने बीजेपी की इतनी बड़ी खबर को  दूसरे स्थान पर रखा . मुख्य खबर लखनऊ वाली ही रही.  यह समझौता ऐसा है जिसकी सम्भावना को ही बीजेपी वाले असंभव मानते थे . उनका कहना था कि समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी का २३ साल पुराना  समझौता जिस गेस्ट हाउस काण्ड के कारण टूटा था वह वाकया दोबारा समझौता नहीं होने देगा . लेकिन हो गया और मायावती ने पत्रकार वार्ता में दो बार कहा कि गेस्ट हाउस काण्ड की छाया के बाहर निकल कर वे समझौता कर  रही  हैं . अखिलेश यादव के चाचा शिवपाल यादव जिन्होने गेस्ट हाउस काण्ड को करवाया था वे अब अखिलेश की पार्टी के दुश्मन बने  हुए हैं . आरोप तो यह भी  लग रहे   हैं कि शिवपाल यादव ने जो पार्टी बनाई है उसको बीजेपी का आशीर्वाद प्राप्त है . बहरहाल अब सपा-बसपा में उत्तर प्रदेश में गठबन्धन है और बकौल मायावती इस  गठबंधन की खबर ने बीजेपी के बड़े नेताओं की नींद उड़ा दी है .
उत्तर प्रदेश के गठबंधन की ख़ास बात यह है कि इसमें कांग्रेस को शामिल नहीं किया गया है . जानकार बता  रहे हैं कि कांग्रेस को बाहर रखने का फैसला इसलिए लिया गया  है कि जिस तरह से कांग्रेस की मध्यप्रदेशराजस्थान और छतीसगढ़ में वापसी हुयी  है  अगर उसी तरह से उत्तरप्रदेश में भी हो जायेगी तो अभी तो खैर वह बीजेपी को हराने में सहयोग देगी लेकिन बाद में सपा-बसपा के अस्तित्व को भी चुनौती दे सकती है. कांग्रेस को बाहर रखकर सपा-बसपा ने एक तरह से बीजेपी को  फायदा पंहुचाया है . सेंटर फार द स्टडी आफ डेवलपिंग सोसाइटी के एक सर्वे का आकलन है कि अगर सपा-बसपा-कांग्रेस साथ हों तो वे उत्तर प्रदेश में ५७ सीट जीत सकते हैं लेकिन यदि कांग्रेस को गठबंधन से बाहर रखा तो सपा-बसपा की जोड़ी केवल   ४१ सीट पर ही सफल  होगी . इसके  बावजूद भी मायावती और अखिलेश ने कांग्रेस को बाहर रखने का  फैसला किया . इसका कारण शायद यह  है कि दोनों ही पार्टियां आने वाले समय में  कांग्रेस को अपना प्रतिद्वंदी बनने का मौक़ा नहीं देना  चाहती हैं . क्योंकि अगर उत्तर प्रदेश में कांग्रेस मज़बूत होगी तो सपा और बसपा जो  भविष्य में ज़्यादा नुकसान होगा . जो भी हो लेकिन एक बात तय है कि उत्तर प्रदेश का मौजूदा गठबंधन बीजेपी की सत्ता को ज़बरदस्त चुनौती देने वाला  है . यह गठबंधन बाकी राज्यों में भी चुनावी तालमेल का उदाहरण बन सकता है . कांग्रेस के दरबारी नेताओं  की अगर चली तो राहुल  गांधी  को  निश्चित नुक्सान होगा लेकिन अगर माहौल का सही आकलन करके बात आगे  बढ़ी तो बीजेपी के लिए परेशानी बढ़ सकती है . अगर सभी राज्यों में सही तरीके से चुनावी गठजोड़ हो गया तो इम्पीरियल नई दिल्ली की  हरी भरी  सड़कों पर मई में बदलाव की हवा असंभव नहीं रहेगी .