Friday, July 27, 2018

जन्मदिन मुबारक ,डॉ एस बी सिंह

हमारे इलाके में ज्यादातर लोगों के दो जन्मदिन होते हैं . एक तो असली वाला जिसके बारे में घर वाले जानते हैं . मसलन मेरा जन्म बृहस्पतिवार को हुआ था. उस दिन सावन का अमावस था. बस मेरी मां ने इतना ही बताया था . बाबू ने उसमें अंग्रेज़ी तारिख के हिसाब को भी जोड़ दिया. बाबू बताते थे कि ज़मींदारी उन्मूलन के बाद और बडकी बाढ़ के पहले मेरा जन्म हुआ था . बड़की बाढ़ यानी १९५५ और जमींदारी उन्मूलन यानी १९५१ . जब स्कूल गया तो पंडित राम पाल पाण्डेय ने कोई एक तारीख लिख दी . जब मेरे बच्चे बड़े हुए तो उन्होंने मेरी और अपनी माता जी के सहयोग से असली तारीख पता किया .
यही चूक मुझसे हुई थी जब विश्व होम्योपैथी दिवस के दिन अपने अज़ीज़ दोस्त डॉ समर बहादुर सिंह ( डॉ एस बी सिंह ) के जन्मदिन की बधाई लिख दी थी . वास्तव में आज उनका जन्मदिन है . २८ जुलाई १९५३ के दिन जब इनका जन्म हुआ था तो बहुत खुशी मनाई गयी थी . इनके बड़के बाबू ने उन दिनों सुल्तानपुर जिले के सबसे नामी अल्हैत ,काली सहाय को तलब किया था और पूरा इलाका आल्हा सुनने के लिये आया था. उनके असली जन्मदिन पर आज फिर उसी लेख के कुछ हिस्से यहाँ नक़ल कर रहा हूँ. मुझे खुशी है कि इस डाक्टर के बारे में में जब भी लिखता हूँ तो मेरे कई दोस्त कुछ ऐसी बीमारियों की बात करते हैं जिनका कई कई साल से इलाज़ नहीं मिल पाया है और दिल्ली के नामी होम्योपथिक डाक्टर उनका खून पी रहे है . ऐसे दोस्तों को मैं डाक्टर एस बी सिंह साहब का फोन नम्बर देता हूँ, वे फोन पर ही दवा का नाम बता देते हैं और चर्म रोग का तो गारंटी के साथ इलाज हो जाता है . जो लोग होम्योपैथी के नाम पर लाखों खर्च कर चुके होते हैं उनको जब मुफ्त में इलाज़ मिलता है तो उनकी खुशी मैं भी महसूस कर लेता हूँ.
आज उन्हीं डाक्टर एस बी सिंह का असली जन्मदिन है . जन्मदिन मुबारक मेरे दोस्त , मेरी दुआ है कि तुम जियो हज़ारों साल क्योंकि तुम्हारी ज़िंदगी का हर दिन इंसानियत की खिदमत के लिए ही होता है .
मुझे गर्व है कि मैं तुम्हारा दोस्त हूँ. अजीब शख्स है यह बहमर पुर का लड़का.जब इस डाक्टर के बारे में सोचता हूँ तो लगता है कि यह लड़का भगीरथ का अवतार है . इन्होने कभी हिम्मत नहीं हारी. माँ बाप की जैसी सेवा इस इंसान ने की ,वह बहुत कम लोग कर पाते हैं . भाई,बहनों को अपने जिगर के टुकड़ों से ज़्यादा सम्मान दिया . जिस लडकी से शादी की उसको ही रम्भा,मेनका, लक्ष्मी सब कुछ माना और अब दोनों बूढ़े हो गए हैं लेकिन यह भाई जसी तरह से अपनी पत्नी के नखरे उठाता है ,वह बहुत कम लोग उठाते हैं. उनकी हर बात को मानते हैं . उसके बारे में फिर कभी लिखूंगा ,विस्तार से . डॉ एस बी सिंह ने अपने बच्चों के लिए अच्छी से अच्छी शिक्षा का बंदोबस्त किया . गाँव में जिसका भी दर्द दिखा उसको हर लेने की कोशिश करता रहा. लाजवाब इंसान है यह आदमी. होमियोपैथी की उच्च शिक्षा तो है ही, इलाहाबाद में रहते हुए एम ए और एल एल बी भी कर लिया . इनके पिता जी ने मुझे मिडिल स्कूल में अंग्रेज़ी पढ़ाया था . जब यह लड़का आठवीं पास हुआ तो इसको मेरे सुपर्द कर दिया . जौनपुर के तिलकधारी कालेज में यह मेरे वार्ड रहे . किताबी ज्ञान तो नहीं लेकिन मुझे गर्व है कि मैंने इनको आत्मनिर्भरता का पाठ विधिवत पढ़ाया . आज जब मैं इनको देखता हूँ तो खुशी होती है कि उसी पाठ का इस्तेमाल यह हमेशा करते रहे. जितने लोग भी इनको मिलते हैं ,इनके मुरीद हो जाते हैं . मेरी इच्छा है जब भी देश में बेहतरीन इंसान का ज़िक्र हो तो उनका ही नाम आये. मैं चाहता हूँ कि हर लडकी को उन जैसा ही पति मिले, मैं चाहता हूँ कि हर बच्चे को उन जैसा ही बाप मिले और मैं चाहता हूँ कि हर मुसीबतजदा इंसान को उन जैसा ही दोस्त मिले. डॉ एस बी सिंह इस देश के चोटी के होमियोपैथी के डाक्टर हैं , मेरी इच्छा है कि उनका नाम सबसे ऊपर के इंसानों में गिना जाए .

Thursday, July 26, 2018

लोकतंत्र में विरोध के अधिकार को सुप्रीम कोर्ट ने सम्मान दिया . धन्यवाद ,सुप्रीम कोर्ट



शेष नारायण सिंह 

जंतर मंतर को सुप्रीम कोर्ट ने फिर धरना प्रदर्शन के लिए खोल दिया है . इसके पहले एक सरकारी आदेश के मुताबिक़ वह बंद कर दिया गया था और आदेश दे दिया गया था कि सरकार से विरोध प्रदर्शन करने के लिए लोग तुर्कमान गेट के पास ,रामलीला मैदान का प्रयोग करें. जन्तर मंतर को खोलने के साथ साथ माननीय सुप्रीम कोर्ट ने बोट क्लब को भी लोकतंत्र के महत्वपूर्ण हथियार, सार्वजनिक सभा, धरना और प्रदर्शन के लिए खोल दिया है .
बोट क्लब को बंद तब किया गया था जब महेंद्र सिंह टिकैत अपने समर्थकों के साथ वहां कई हफ्तों के लिए जम गए थे जबकि उन्होंने पुलिस को केवल यह बताया था कि केवल एक सभा के लिए आ रहे थे . महीने भर के करीब वे वहां जमे रहे थे . बोट क्लब के नाम कुछ ऐसी भी रैलियाँ लिखी हुयी हैं जिनके बाद दिल्ली में सत्ता परिवर्तन हुआ था. १९७५ में जब सारा देश इंदिरा गांधी के खिलाफ हो गया था लेकिन उनको मुगालता था कि वे ‘ गरीबी हटाओ ‘ वाले नारे के बाद मिली लोकप्रियता बचाए हुए हैं, उसी माहौल में वहां जयप्रकाश नारायण की सभा हुयी थी .यह इमरजेंसी के पहले की घटना है . उसके बाद इंदिरा गांधी को समझ में आया कि जनता उनको नापसंद करने लगी है . घबडाई इंदिरा गांधी ने उसके बाद ही इमरजेंसी लगाई थी. मैंने वह जुलूस देखा नहीं था लेकिन बीबीसी हिंदी रेडियो पर मार्क टली की रिपोर्ट सुनी थी. लंदन से रत्नाकर भारतीय ने बहुत ही प्रभावशाली तरीक़े से उसको हिंदी सर्विस के लिए पढ़ा था. बेहतरीन रिपोर्ट थी , आजतक उसके कुछ नारे याद हैं . हम लोग ‘इन्कलाब जिंदाबाद ‘ का नारा लगाते थे . अपने गाँव में बैठे हुए मैंने जब बीबीसी पर सुना,” इन्कलाब जिंदाबाद,जिंदाबाद “ तो मुझे बहुत अच्छा लगा था . आडियो रिपोर्ट में नारों के पैच जिस तरह से लगाये गए थे ,वह बहुत ही रोमांचक था.
बोट क्लब पर ही १९६६ में स्वामी करपात्री जी ने गौ रक्षा वाला जुलूस निकाला था और रैली की थी. तब तक जनसंघ को दिल्ली के अलावा कहीं भी मान्यता नहीं मिली थी लेकिन गौरक्षा के बोट क्लब वाले प्रदर्शन के बाद जनसंघ के कार्यकर्ता पूरे देश में मिलने लगे. मेरे खानदान की नौगवां शाखा की इंदिरा फुआ भी उस जुलूस में आयी थीं , साध्वी हो गयी थीं, शायद करपात्री जी की ही शिष्या थीं, उनके बाद हमारे यहाँ भी जनसंघ के उम्मीदवार का प्रचार हुआ और १९६७ के चुनाव में उदय प्रताप सिंह दूसरे नम्बर पर आये . उसके पहले सोशलिस्ट दूसरे नंबर पर रहते थे. कांग्रेस के उमादत्त ने विधायक का चुनाव जीता था. उसी साल लोकसभा चुनाव में जनसंघ के बाबू बेचू सिंह की भी उपस्थिति दर्ज हुयी . उत्तर प्रदेश विधानसभा में जनसंघ को ९८ सीटें मिली थीं और पार्टी के नेताओं ने खुशियाँ मनाई थीं.
बोट क्लब पर ही चरण सिंह की जन्मदिन वाली सभा १९७८ में हुयी थी . उसके बाद मोरारजी देसाई की सरकार की अलविदा पढ़ दी गयी थी. दर असल चौधरी चरण सिंह कभी जन्मदिन नहीं मनाते थे लेकिन उस बार वह कार्यक्रम रच दिया गया था क्योंकि वे ही जनता पार्टी में तोड़फोड़ के साधन बने थे. राजनारायण उन दिनों अपने को उनका हनुमान कहते फिरते थे.
जन्तर मन्तर पर तो मैंने अपनी आँखों से बहुत सारे धरने जुलूस देखे हैं . कुछ लोग तो उस स्थान पर महीनों पड़े रहते थे और रिकार्ड बनाते थे . अगर वहां जम जाने की प्रवृत्ति पर लगाम लगाई जा सके तो जंतर मंतर विरोध प्रदर्शन के लिए सही जगह है. धन्यवाद सुप्रीम कोर्ट 

मोदी को घटिया साबित करने के चक्कर में करन थापर ने पत्रकारिता का नुकसान किया .




शेष नारायण सिंह
शैतान के वकील नाम का टीवी प्रोग्राम चलाने वाले विख्यात पत्रकार करन थापर की किताब आई है . नाम है  Devil’s Advocate जिसका हिंदी अनुवाद है , ‘ शैतान के वकील ‘. करन थापर ने इस किताब में अपनी बहुत सारी यादें का उल्लेख किया है . उन्होंने दावा किया है कि वे किस तरह से कैम्ब्रिज यूनियन के अध्यक्ष बने , किस तरह से बेनजीर भुट्टो से दोस्ती की और किस तरह से लंदन के विख्यात अखबार .टाइम्स में उनको नौकरी मिली. लन्दन में रहते हुए अपने टेलिविज़न पत्रकार के रूप में उपलब्धियों का भी ज़िक्र किया है . तत्कालीन प्रधानमंत्री ,राजीव गांधी से अपनी दोस्ती का भी विस्तृत वर्णन किया है और यह भी बताया है कि कैसे राजीव गांधी ने हिंदुस्तान टाइम्स की मालकिन शोभना भरतिया से बात करके उनकी नौकरी लगवाई थी और  उन्होंने उनको वीडियो मैगजीन कार्यक्रम , आईविटनेस शुरू किए था .
 इसी किताब  का एक अंश आजकल चर्चा में  हैं जिसमें करन थापर ने अपने उस इंटरव्यू का ज़िक्र किया है जो उन्होंने २००७ में गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ किया था . करीब तीन मिनट का वह  इंटरव्यू  उन दिनों बार बार दिखाया गया था .  जितनी बातचीत दिखाई गयी थी ,उससे  साफ़ लगा रहा था कि कोई थानेदार किसी अभियुक्त से पूछताछ कर रहा था.पत्रकारिता के कई बड़े विद्वानों ने उस वक़्त भी कहा था कि करन थापर का  अहंकार उस इंटरव्यू का स्थाई भाव था. दूसरी बात यह थी कि इंटरव्यूकर्ता यह भूल गए कि जब भी हम किसी  का इंटरव्यू करते हैं तो सवाल पूछना पत्रकार का विशेषाधिकार होता  है लेकिन जवाब देना हमेशा उस व्यक्ति का अधिकार है जिससे बातचीत की जा  रही है . किसी भी सवाल का जवाब न  देनेया उस पर चुप हो जाने या उस सवाल का अपनी समझ के अनुसार जवाब  देना उसका अधिकार होता है. जब यह  इंटरव्यू हुआ था तो मैं पत्रकारिता के एक संस्थान में ब्राडकास्ट जर्नलिज्म का शिक्षक था. उस इंटरव्यू के बारे में मैंने बहसें की थीं और जितने भी वरिष्ठ लोगों से मैंने बात की सबने यही कहा कि वह पत्रकारिता के  पैमाने पर खरा  नहीं उतरता .यहाँ यह  ध्यान देना ज़रूरी है कि मैंने जिन  लोगों से बात की थी वे  सभी नरेंद्र मोदी के खिलाफ लिख रहे थे और  टीवी  में भी उनके कार्यों के बारे में आलोचनात्मक रुख रखते थे. मैं खुद  उन दिनों   छपता नहीं था क्योंकि मेरी नौकरी पढ़ाने की थी. इसलिए मैंने खुद कुछ नहीं लिखा था .
आज जब उस  इंटरव्यू और उससे जुडी हुई  घटनाओं के बारे में करन थापर की किताब के अंश  पढ़े तो मुझे लगता है कि यह आदमी  पत्रकारिता की बुनियादी बातों  को भी नहीं जानता या अगर जानता भी है तो उसका पालन नहीं किया .ऐसा लगता है कि इस कार्य से उन्होंने नरेंद्र मोदी को बहुत ही घटिया साबित करने की  कोशिश की  है लेकिन एक निष्पक्ष व्यक्ति को साफ़ समझ में  आ जाएगा कि नरेंद्र मोदी और चाहे जो भी हों ,करन थापर जैसे आदमी से तो बहुत ही बड़े हैं . २००७ के  खंडित इंटरव्यू के बाद भी  नरेंद्र मोदी ने इनको चाय पिलाईमिठाई खिलाईढोकला खिलाया और सम्मान पूर्वक विदा किया  जबकि कुछ ही मिनट पहले ,२००७ चुनाव के मध्य में थापर साहब ने उनकी छवि का भारी नुक्सान करने वाला  इंटरव्यू किया था. करन थापर ने यह सारी बातें अपनी किताब  “ शैतान के वकील “ में लिखी हैं .

इसी किताब में इन्होने नरेंद्र मोदी से अपनी दोस्ती का हवाला भी दिया है और उनसे २००० के आर एस एस के प्रमुख सुदर्शन से इंटरव्यू के लिए की जा रही अपनी तैयारी के समय नरेंद्र मोदी से मिली मदद का ज़िक्र किया  है  . नरेंद्र मोदी ने जो बातें उनको कान्फिडेंस में बतायी थींउन बातों का खुले आम इस्तेमाल किया गया है. पत्रकारिता के काम में सोर्स का बहुत महत्व होता  है . सोर्स और आफ द रिकार्ड की बात को सार्वजनिक करना बिलकुल अपराध है अपने सोर्स की निजता  और उसके भरोसे को कभी भी कम्प्रोमाइज नहीं किया जाता . यह अनैतिक है . अपनी किताब में इन्होने उन सारी बातों का उल्लेख किया है जो नरेंद्र मोदी ने उनको सुदर्शन के इंटरव्यू के पहले बताई थीं.  यह पत्रकारिता नहीं है .  पत्रकार को यहाँ तक अधिकार है  कि वह किसी कोर्ट में भी अपने सोर्स का नाम न बताये . ऐसा इसलिए किया जाता है कि  सोर्स अंदर की खबरें बताता  रहे और जनता तक सही खबर पंहुचती रहे. अगर सोर्स  का नाम पब्लिक हो गया तो उसकी उपयोगिता तो ख़त्म हो ही जायेगी ,उसकी नौकरी भी खतरे में  पड़ जायेगी . अपनी किताब में करन थापर ने यही काम किया है .  उन लोगों का नाम दे दिया है  जिन्होंने उनको कान्फिडेंस में अंदर की बातें बताई थीं. ज़ाहिर  है इससे पत्रकारिता की भावी पीढ़ियों का नुक्सान हुआ है.
नरेंद्र मोदी के उस २००७ वाले तीन मिनट के इंटरव्यू  का खूब इस्तेमाल हुआसारी दुनिया में उसके कारण करन थापर ने वाह वाही लूटी. और बेलौस पत्रकार के रूप में अपनी शमशीर चमकाई . वह बात अब बीत चुकी है . श्री थापर का आरोप है कि  पिछले कुछ समय से  बीजेपी वाले उनका बायकाट कर रहे हैं . इस किताब में उन्होंने उस बायकाट के कारणों का पता लगाने की कोशिश का विवरण दिया है और विवरण देने की प्रक्रिया में उन्होंने उन लोगों  की नौकरी खतरे में डाल दिया है जो उनको सच्चाई बताना चाहते थे . इस चक्कर में उन्होंने बीजेपी के प्रवक्ता सम्बित पात्र मंत्री अरुण जेटलीप्रकाश जावडेकरबीजेपी महामंत्री ,राम माधव  ,  प्रधानमंत्री के कार्यालय में अधिकारी नृपेन्द्र मिश्र और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोवाल का नाम लिया है .  जनता दल यू के नेता और पूर्व राजनयिक पवन वर्मा और उनके हवाले से २०१४ में नरेंद्र मोदी के चुनाव में प्रबंधक रह चुके प्रशान्त किशोर के साथ हुयी अपनी  प्राइवेट बातचीत को  सार्वजनिक कर दिया है .
उन्होंने यह  भी लिखा है नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बन जाने के बाद उन्होंने कई बार उनसे मिलने की कोशिश की लेकिन मुलाक़ात संभव नहीं हो सकी. यह बिलकुल सामान्य है . दिल्ली के दरबारों के आसपास मंडराने वालों की यह खासियत है कि वे जिन लोगों को घटिया आदमी मानते रहते हैं उनके दिल्ली की सत्ता में महत्वपूर्ण मुकाम हासिल करने के बाद उनसे चिपकने की  कोशिश करते हैं . उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के यहाँ हाजिरी लगाने की कोशिश में बहुत मेहनत की और जब सफल नहीं हुए तो अपने उन मित्रों को एक्सपोज़ कर दिया जिन्होंने उनकी मदद करने की कोशिश थी. उनके इस काम से हो सकता है की उनकी किताब की बिक्री खूब बढ़ जाए लेकिन पत्रकारिता का काम करने वालों के लिए उन्होने मुश्किल ज़रूर पैदा कर दिया है . ज़ाहिर है एक व्यक्ति कीलालच और निजी एजेंडा को लागू करने के चक्कर में पत्रकारिता का भारी नुकसान हुआ है .
इसी तरह का काम लाल कृष्ण आडवानी के साथ भी इस किताब में हुआ है . करन थापर ने किताब में विस्तार से लिखा है कि देश के गृहमंत्री के रूप में श्री आडवानी अपने गहर पर दिल्ली स्थिति पाकिस्तानी उच्चायुक्त , अशरफ काज़ी से मिला करते थे . यह मुलाकातें गुपचुप तरीके से हुआ करती थीं. ज़ाहिर है आडवानी का कोई गुप्त एजेंडा नहीं रहा होगा .वे मुलाकातें राष्ट्रीय हित को ध्यान में रखकर ही होती रही होंगी. करन थापर दावा करते हैं कि वे पाकिस्तानी उच्चायुक्त को खुद ही ड्राइव करके ले जाया करते थे और अडवानी जी के परिवार के अलावा किसी और को उन मुलाकातों की जानकारी नहीं  होती थी.  यह मुलाकातें गृह मंत्रालय के सिस्टम के बाहर जा कर  होती थीं .इसका मतलब यह  हुआ  कि आडवानी  ने करन थापर का भरोसा करके इन मुलाकातों को उनके मार्फ़त किया था . आज बीस साल  बाद उन मुलाकातों को सार्वजनिक करने का और  जो भी उद्देश्य हो पत्रकारिता के पवित्र मानदंडों का ऐलानिया  उन्लंघन हैं .


Sunday, July 22, 2018

जवाहरलाल नेहरू के महान होने में किसी को शक नहीं





शेष नारायण सिंह


मेरे मित्र राम दत्त त्रिपाठी की एक पोस्ट देख कर मेरे मन यह विचार आया कि गुटनिरपेक्ष आन्दोलन के अध्ययन की अपनी समझ को शेयर करूं. दिल्ली में जब जनता पार्टी के राज में निर्गुट सम्मेलन के विदेश मंत्रियों की बैठक हुयी थी तो मुझे उसमें पांच सौ रूपये रोज़ पर काम करने का मौक़ा मिला था.लंच भी मिलता था.  उन दिनों, हम लोग विदेश मंत्रालय के बिलकुल नए भर्ती हुए अफसरों, श्यामला बालसुब्रमन्यम , तुहिन वर्मा आदि की टीम  में थे. हमारी भूमिका सहायक की ही होती थी.जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के स्कूल आफ इंटरनैशनल स्टडीज़ से कई लोग उस सम्मलेन में मेरी तरह ही फुटकर काम कर रहे थे . इसके अलावा स्पैनिश, फ्रेंच, और अरबी भाषा केंद्र के भी बहुत सारे लोग थे. उसी सम्मेलन के बाद  मुझे निर्गुट सम्मलेन के बारे में रूचि  पैदा हुयी . पढता लिखता रहा जिसके चलते बाद में भी बहुत समय तक सम्मेलनों में फुटकर काम मिलता रहा.
जवाहरलाल नेहरू की  दूरदृष्टि का नतीजा  था कि एशिया और अफ्रीका के  पिछड़े देशों का एक सम्मलेन 1955 में इंडोनेशिया के नगर , बांडुंग में हुआ. बाद में यही संगठन निर्गुट आन्दोलन के रूप में विख्यात हुआ. जब अमरीका और सोवियत रूस की चढ़ाचढ़ी में यह ख़तरा पैदा हो गया था कि दुनिया के बाकी देश दो बड़े देशों की आपसी लड़ाई में किसी न किसी खेमे में शामिल हो  जायेंगें तो अपने स्वतंत्र अस्तित्व की सुरक्षा  के लिए यह सम्मलेन बुलाया गया था . इसमें जो देश शामिल हुए थे ,आज वे बिखर गए हैं . विश्व शांति के लिए आज उनकी एकता बहुत ज़रूरी है . अगर बांडुंग  सम्मलेन में शामिल देश यह तय कर लीं कि उन्हें एक रहना है, एक साथ रहना है तो इस  इलाके से अमरीकी दादागीरी हमेशा के लिए ख़त्म हो जायेगी. बांडुंग सम्मलेन में शामिल देशों और घोषणापत्र पर दस्तखत करने वालों के नाम देखें . , भारत, इंडोनेशिया, ईरान, इराक, जापान, चीन, अफगानिस्तान, कम्बोडिया ,श्रीलंका, साइप्रस,  मिस्र , इथियोपिया ,गोल्ड कोस्ट ,जार्डन, लाओस, लेबनान ,लाइबेरिया,लीबिया ,नेपाल, पाकिस्तान,  साउदी अरब, सीरिया , सूडान, ,थाईलैंड ,तुर्की, वियतनाम, और यमन .
आज दुनिया भर में जो भी अशांति है उनमें इस सम्मलेन में शामिल देश झोंक दिए गए  हैं , इनमें से  कई तो आपस में लड़ रहे हैं और  अमरीकी और रूसी हथियारों के खरीदार हैं .अपने निजी स्वार्थ के लिए हथियारों के सौदागरों  ने इस क्षेत्र में दुश्मनी के बीज बो दिया है  . आज इसी इलाके में अमरीका और रूस अपने कारखानों के हथियारों के ग्राहक तलाशते हैं और उनकी ही प्रेरणा से ग्राहक तय करने की लडाइयां लड़ी जा रही हैं . आज अगर  पाकिस्तान , अफगानिस्तान, सीरिया, इरान, इराक़, सीरिया,में शान्ति हो जाय तो हथियारों पर  खर्च हो रहा धन विकास में  लगेगा . नेहरू की महानता यह है कि १९५४ में ही उन्होंने यह सपना देख लिया था . उसी समय उन्होंने चीन से दोस्ती का  हाथ भी बढ़ा दिया था .वह दोस्ती भी इसलिए टूटी कि अमरीका ने दलाई लामा को भारत में शरण लेने के लिए उकसाया और आज हम चीन के दुश्मन  हैं . कल्पना कीजिये कि अगर आज नेहरू के सपनों और उनकी  विदेश नीति के मन्त्रों को एशिया और अफ्रीका के नेताओं द्वारा माना गया होता तो दुनिया में कितना अमन चैन होता.


Monday, July 16, 2018

अगर चुनाव साम्प्रदायिक मुद्दों पर हुआ तो अवाम के सब्र का इम्तिहान होगा


शेष नारायण सिंह
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने शनिवार को अपने चुनाव क्षेत्र वाराणसी का दौरा किया .उसके पहले उन्होंने आजमगढ़ में पूर्वांचल एक्सप्रेसवे का उदघाटन किया और एक तरह से लोकसभा चुनाव २०१९ के प्रचार की शुरुआत कर दी. देश के सबसे बड़े अखबार ,दैनिक जागरण ने आज़मगढ़ की सभा की रिपोर्ट अपने वेबसाईट पर डाली है . अखबार लिखता है कि," परिवारवाद पर चोट करते हुए पीएम मोदी ने कहा कि मोदी हो या योगी अब तो आप ही लोग हमारा परिवार हैं। आपके सपने हमारे सपने हैं।  मोदी ने कहा कि इन परिवार पार्टियों की पोल तो तीन तलाक ने खोल दी है। लाखों-कराड़ों मुस्लिम बहन-बेटियों की मांग थी कि तीन तलाक को बंद कराया जाए। कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी का नाम लिए बगैर प्रधानमंत्री ने कहा कि मैंने अखबार में पढ़ाकांग्रेस श्रीनामदार ने कहा है कि कांग्रेस मुस्लिमों की पार्टी है। पिछले दो दिनों से चर्चा चल रही है। मुझे आश्चर्य नहीं है। जब कांग्रेस की सरकार थीतब पीएम मनमोहन सिंह ने कहा था कि देश के प्राकृतिक संसाधनों पर सबसे पहला हक मुस्लिमों का है। मैं तो अब श्रीनामदार से पूछना चाहता हूंकांग्रेस पार्टी मुस्लिमों की पार्टी हैआपको ठीक लगे तो आपको मुबारक। लेकिन क्या आपकी मुस्लिमों की पार्टी सिर्फ पुरुषों की है या मुस्लिम महिलाओं तथा बहनों की भी है।प्रधानमंत्री ने कहा कि देश के कुछ दल पार्लियामेंट में कानून रोक कर बैठ जाते हैं। लगातार यह हो-हल्ला करते हैं। पार्लियामेंट नहीं चलने देते। मोदी को हटाने के लिए दिन-रात एक दिन करने वाली पार्टियों से कहना चाहता हूं कि अभी पार्लियामेंट शुरू होने में तीन-चार दिन बाकी हैं। तलाक पीडि़त महिलाओं से मिलकर आइएहलाला के कारण परेशान मां-बहनों से मिलकर आइए तब पार्लियामेंट में बात कीजिए। जब भाजपा सरकार ने संसद में कानून लाकर मुस्लिम बहन-बेटियों को अधिकार देने की कोशिश की तो उसमें भी रोड़े अटकाने की कोशिश कर रहे हैं। यह चाहते हैंतीन तलाक होता रहे मुस्लिम बहन बेटियों का जीवन नरक बनता रहे। मैं विश्वास दिलाता हूं कि मैं इन राजनीतिक दलों को समझाने की पूरी कोशिश करूंगा। उनको समझाकर हमारी बहन-बेटियों को अधिकार दिलाने के लिए उनको साथ लाने का प्रयास करूंगा। ताकि मुस्लिम बेटियों को तीन तलाक के कारण जो परेशानियां हो रही हैंउससे मुक्ति मिल सके। "
जागरण की रिपोर्ट से बिलकुल साफ़ है कि लोकसभा के अगले चुनाव  में मुसलमान बड़ा मुद्दा बनने वाले हैं .  प्रधानमंत्री के आजमगढ़ के भाषण से ऐसा लगता है कि उनको संकेत मिल गया  है कि पिछले चार साल में जिस तरह से आपराधिक तत्वों ने मुसलमानों को मारा पीटा है ,उसके बाद उनकी पार्टी को मुसलमानों का वोट तो नहीं मिलने वाला है . प्रधानमंत्री ने इंक़लाब अखबार की उस खबर का ज़िक्र भी किया जिसका उनवान था कि ," हाँ, कांग्रेस मुसलमानों की पार्टी है " दर असल खबर यह थी कि राहुल गांधी ने कहा दानिश्वरों से मुलाक़ात के दौरान कहा था कि हम पर अपीजमेंट का आरोप लगता है तो लगे लेकिन अब मुसलमान भी इस देश में दूसरे दलित हो गए हैं इसलिए कांग्रेस मुसलमानों का साथ देगी और अगर कोई  कहता  है कि उनकी पार्टी मुसलमानों की पार्टी है तो जवाब  है कि  हाँ कांग्रेस मुसलमानों की र्टी है .प्रधानमंत्री ने इस खबर से यह अर्थ निकाल लिया कि कांग्रेस केवल मुसलमानों की पार्टी है . उनके प्रवक्ता और टीवी चैनल एक दिन पहले से ही इसी बात को प्रमुखता से चला रहे थे.  प्रधानमंत्री के बारे में कहा  जाता है कि वे  शिकस्त के मुंह से खींच कर  जीत निकाल लेते हैं .इसीलिये उन्होंने मुसलमानों की महिलाओं के रक्षक के रूप में अपने को पेश कर के हर मुसलमान के घर से कुछ  वोट निकाल लेने की रणनीति बना ली है . लगता है कि इस बार के चुनाव में विकास को बैकबर्नर पर डालने की तैयारी शुरू हो चुकी  है. ऐसा इसलिए है कि अखिलेश यादव ने कह दिया  है कि  मोदी-योगी की सरकार समाजवादी सरकार द्वारा  किये गए कामों का उदघाटन करके  वाहवाही लूटने की कोशिश कर रही  है ,खुद का कोई विकास नहीं किया है .
प्रधानमंत्री ने २०१४ का चुनाव नौजवानों के लिए नौकरी, महिलाओं की सुरक्षा , आर्थिक तरक्की , भ्रष्टाचार का खात्मा .लोकपाल की तैनाती जैसे मुद्दों के बारे में वायदा कर के लड़ा था. देश की जनता  ने उनका विश्वास किया और उनको वोट दिया . हालांकि उस चुनाव में भी मुज़फ्फरनगर के  दंगे का ज़िक्र उनकी पार्टी के  ज़्यादातर नेताओं ने किया था .  मुज़फ्फरनगर के  दंगे के बहुत सारे अभियुक्त बीजेपी के चुनाव प्रचार की अगली कतार में थे लेकिन चुनाव  में जीत नरेंद्र मोदी के आर्थिक विकास के नारे,किसानों की खुशहाली, महिलाओं की सुरक्षा ,पाकिस्तान  को दुरुस्त करने  और   नौजवानों की नौकरियों के वायदे की   वजह से मिली थी.   लेकिन पिछले  चार साल में ऐसा कुछ नहीं हुआ है जिसके बाद कोई भी कह सके कि  नौजवानों को नौकरियाँ मिली हैं . इसके उलटे सरकार और बीजेपी की तरफ से  नौकारियों की परिभाषा  ही बदलने की बात कर दी गयी . दावा किया गया कि  मुद्रा लोन जैसी स्कीमों से  बहुत नौकरियाँ मिल गयीं हैं . लेकिन जिसको नौकरी चाहिए वः इन बातों में नहीं आता . जब नोटबंदी की गयी थी तो दावा किया गया था अकि उसके बाद भ्रष्टाचार और आतंकवाद  ख़त्म हो जाएगा .लेकिन वह भी कहीं नज़र नहीं आ रहा है. आतंकवाद भी है बल्कि  हालात और बिगड़े हैं और  भ्रष्टाचार भी है . जब बीजेपी के प्रवक्ता और मंत्री टीवी पर दावा करते हैं  कि देश में  भ्रष्टाचार ख़त्म हो गया  है तो  पूरे देश में खबर देख रहा व्यक्ति केवल मुस्करा देता है क्योंकि भ्रष्टाचार कहीं कम नहीं हुआ है . नोटबंदी के बाद मौजूदा सरकार का एक बड़ा ऐतिहासिक क़दम था जी एस टी. उसके बाद महंगाई ख़त्म कारने का दावा किया गया था लेकिन वह भी नहीं हुआ . महंगाई तो रोज़ ही बढ़ रही है . जी एस टी से अगर कोई फायदा हो रहा  है तो बीजेपी वाले अब उसका ज़िक्र  नहीं करते . ज़ाहिर है उनको  मालूम है कि २०१४ के वायदों के ज़िक्र करना उतना उपयोगी  नहीं है .इसलिए इस बार के संकेतों से लगता है कि २०१९ का चुनाव  साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण के मुद्दे पर लाने की तैयारी हो रही है .
२०१४ के चुनाव में बीजेपी   विरोधी पार्टियों ने अलग अलग चुनाव लड़कर बीजेपी और उसकी सहयोगी पार्टियों की जीत को आसान बना दिया था . लेकिन इस बार लगता है कि ऐसा नहीं होने जा रहा  है . अपने अपने प्रभाव के इलाकों में  क्षेत्रीय पार्टियां एकजुट होंगी और अगर ऐसा हुआ तो बीजेपी के लिए मुश्किल हो  जायेगी .  शायद इसीलिये पार्टी ने  धार्मिक मुद्दों को चुनाव का  विषय बनाने की कोशिश शुरू कर दी है .  यह तय है कि बीजेपी को इस बार २०१४ की तुलना में भारी चुनौती मिलेगी . इस बार वायदों पर नहीं,  काम पर वोट मिलेगा . अगर देश चौकन्ना रहा और साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण नहीं हो सका तो सत्ताधारी पार्टी सवालों के घेरे में पूरी तरह से घिरी रहेगी .  
बीजेपी ने भी कांग्रेस के ऊपर हिन्दू-मुस्लिम विभाजन का आरोप लगाकर चुनावी माहौल को गरमाने की कोशिश शुरू कर दिया है .  बीजेपी के राष्ट्रीय मुख्यालय में प्रेस वार्ता में रक्षामंत्री निर्मला सीतारमण ने आरोप लगाया कि कांग्रेस खतरनाक सांप्रदायिक कार्ड खेल रही है..उन्होंने यह भी चेतावनी दी कि  यदि आज से 2019 के बीच कुछ भी अप्रिय घटित होता है तो कांग्रेस पूरी तरह जिम्मेदार होगी. उन्होंने सवाल पूछा कि क्या कांग्रेस एक मुस्लिम पार्टी हैउन्हें इस पर सफाई देनी चाहिए. राहुल गांधी को इस मुद्दे पर सामने आना चाहिए और बताना चाहिए कि मुस्लिम पार्टी से उनका क्या मतलब था." इसका  मतलब यह है कि अगर कुछ भी अप्रिय हुआ तो उसके लिए कांग्रेस को ज़िम्मेदार  ठहराने की पेशबंदी शुरू हो गयी है . इसका एक मतलब यह भी हुआ कि देश की अवाम के सब्र का भी २०१९ के चुनावों में  पूरी तरह से इम्तिहान होने  जा रहा है

अंतरराष्ट्रीय धरोहर ताजमहल की रक्षा हमारा राष्ट्रीय कर्तव्य है

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शेष नारायण सिंह

सुप्रीम कोर्ट की तरफ से सरकार को एक बार फिर फटकार पड़ी है . आगरा के ताजमहल की ठीक से हिफाज़त न कर पाने के लिए सरकार की खिंचाई इस हद तक हो गयी कि माननीय अदालत ने कहा कि अगर सरकार इस विश्व प्रसिद्ध धरोहर को संभाल नहीं सकती  तो उसको ढहा ही दे. सुप्रीम कोर्ट ने सरकार के रुख पर अपनी खीझ को ज़ाहिर करने के लिए यह टिप्पणी की है ,उसका संकेत किसी भी हालत में ताजमहल को ढहाने का नहीं है लेकिन देश के समझदार नागरिकों के बीच एक अजीब सी आशंका देखी जा सकती है . सोशल मीडिया पर यह चर्चा है कि जिस तरह से उत्तर प्रदेश सरकार ताजमहल को पीछे धकेलने की कोशिश कर रही है ,कहीं  ऐसा न हो  कि  ताजमहल को ढहाना ही शुरू कर दे  और सत्ताधारी पार्टी अपने प्रवक्ताओं को यह निर्देश   दे दे कि देश को बता दो कि सुप्रीम कोर्ट की इच्छा का आदर करने के लिए यह काम किया जा रहा  है.अभी सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई चल  रही  है और माननीय अदालत के रुख को देखकर साफ़ लगता है कि सुनवाई के अंत में कुछ सख्त आदेश आने की सम्भावना है . बुधवार की सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने साफ़  कहा  कि हमारे आदेश की अनदेखी करते हुए ताज ट्रेपेजियम ज़ोन  के अफसर अभी भी ताजमहल के आस पास  कारखानों का विस्तार करने की अनुमति दे रहे हैं . याचिका पर चर्चा के दौरान जब  यह बात सामने आई कि अफसर सुप्रीम को कोर्ट की अनदेखी करके माननीय आदलत को परेशान कर   रहे हैं  तो जज ने कहा कि अगर अफसर हमें परेशान करेंगे तो हम उनको भी वापस परेशान कर देंगे . अगली तारीख को ताज ट्रेपोज़ियम के अध्यक्ष को तलब भी कर लिया गया है .
कोर्ट ने ताजमहल की हर हाल में हिफाज़त करने की बात को एक से अधिक  बार कहा और यह भी जोर दिया कि यह दुनिया की सबसे खूबसूरत धरोहर है . जस्टिस लोकुर ने कहा कि फ़्रांस में एफिल टावर की देखभाल के लिए वहां की सरकार जो कोशिश कर रही  हैअपनी सरकार को उससे भी सबक लेना चाहिए . उन्होंने यह भी कहा कि ताज महल एफिल  टावर से  बहुत ही ज्यादा सुन्दर है लेकिन सरकार इतनी महान विरासत को संभाल  नहीं पा रही है . ताजमहल  की ख़ूबसूरती को संभाल पाने में नाकाम सरकारी विभागों की तरफ से तरह तरह के तर्क दिए  जाते  हैं . मई में पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग ने कहा था कि लोग गंदे मोज़े पहनकर इमारत के अन्दर आ  जाते  है और उसके  कारण ताजमहल का रंग बदरंग हो रहा है . पुरातत्व के अफसरों ने यह भी कहा कि दर्शकों की संख्या बहुत ज़्यादा  है इसलिए भी  देखभाल नहीं हो पा रही है  . अदालत ने सरकारी वकील को याद दिलाया कि ताजमहल को देखने करीब पचास लाख लोग आते  हैं जबकि एफिल टावर को देखने उससे सोलह गुना ज़्यादा लोग देखने आते हैं . पेरिस की इस विरासत को देखने करीब आठ करोड़ लोग आते  हैं .  पुरातत्व  सर्वेक्षण के वकील ने कहा कि इतने लोग आते  हैं कि सबको टेम्परेरी मोज़े देना संभव नहीं होता और बहुत सारे लोग अपने मोज़े ही पहनकर चले जाते हैं . कोर्ट ने सरकार की नीयत पर भी सवाल उठाया और कहा  कि  इस्तेमाल कर के फेंक देने  लायक मोजों की बात करके सरकार अपनी स्थिति को कमज़ोर कर रही है . सरकार ताजमहल के बगल में बहने वाली यमुना नदी के सरंक्षण के  लिए भी कुछ नहीं कर रही है जिसके कारण नदी भी रही है . ज़मीन के माफिया सक्रिय हैं और ताजमहल के पास अनाप शनाप इमारते बन रही  हैं .
ताजमहल के सौंदर्य को सबसे ज़्यादा नुकसान मथुरा की  रिफाइनरी से  हो रहा है . आज के चालीस साल पहले भी लोगों को यह मालूम था कि मथुरा रिफाइनरी ताजमहल को भारी नुक्सान पंहुचा रही  है. भारत की लोकसभा में १९७८ में इस विषय पर चर्चा हुयी थी  और  संसद सदस्यों ने चिंता भी जताई थी. जनता पार्टी की सरकार थी और तत्कालीन पेट्रोलियम मंत्री स्व हेमवती नंदन बहुगुणा ने बहुत ही प्रभावशाली तरीके से लोकसभा के अपने भाषण  में कहा  था कि सरकार की सूचना है कि मथुरा रिफाइनरी से ताजमहल को कोई नुक्सान नहीं हो रहा है लेकिन  अगर सरकार की जानकारी में आया कि रिफाइनरी की वजह से ताजमहल को कोई भी  नुक्सान हो रहा है तो मथुरा  मथुरा रिफाइनरी को वहां से हटा दिया जाएगा . संसद के बाहर जब उस दौर के पत्रकारों ने उनसे पूछा कि रिफाइनरी   हटाने की घोषणा अपने बिना किसी विचार विमर्श के ही  क्यों कर दी तो बहुगुणा जी ने जवाब दिया कि  अभी तो वैसी नौबत आने वाली नहीं है .जब होगा तब देखा जाएगा . अगर ताजमहल के इतिहास पर गौर करें तो उसके प्रति  अलगर्ज़ रवैया हमेशा से ही रहा है. कई बार तो सरकारों ने ताजमहल को तबाह कर देने की  बात को भी हवा में उछालने का काम किया है . १८३० में तत्कालीन गवर्नर जनरल ,लार्ड विलियम बेंटिक ने ताजमहल को तुड़वाकर उसके  संगमरमर को बेचने की योजना बना दी थी लेकिन लोगों के समझाने से रुक गया लेकिन कैम्पस में रखे हुए संगमरमर के बहुत बड़े भंडार को बेच ही खाया . उसका तर्क यह था कि   सरकार की हालत ठीक नहीं है तो पत्थर को बेच कर कुछ रकम तैयार कर ली जायेगी . १८५७ की आजादी की लड़ाई के दौरान भी अंग्रेज़ी सेना ने इस इमारत का बहुत नुकसान किया था .लेकिन बाद में इसको संभालने का प्रयास सरकार के स्तर पर होता रहा है .  दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान यह ख़तरा पैदा हो गया था कि  कहीं जापानी वायुसेना के बमवर्षक विमान इस पर बमबारी न कर दें . सरकार ने ताजमहल को  ऐसी स्केफोल्डिंग से घेर दिया था जो बिल्डिंग बनाते समय इस्तेमाल की जाती है .. १९६५ और १९७१ की पाकिस्तानी लड़ाई के दौरान भी यही तरीका अपनाकर  एहतियात  बरती गयी थी .
हिंदूवादी संगठनों ने भी ताजमहल पर मालिकाना हक  जताने के दावे  बार बार किये हैं .पुरुषोत्तम नागेश ओक  जैसे इतिहासहासकार भी ताजमहल को हिन्दू इमारत   बताते रहे  हैं लेकिन इन लोगों को कोई गंभीरता से   नहीं लेता था . ओक साहब ने तो सुप्रीम कोर्ट में एक मुक़दमा भी दायर कर दिया था और माननीय अदालत से प्रार्थना की थी कि वह घोषित कर दे कि ताजमहल को एक हिन्दू राजा ने बनवाया था .लेकिन सन २००० में कोर्ट ने उनकी याचिका को खारिज कर दिया . इसी तरह इलाहाबाद हाई कोर्ट में भी एक श्रीमानजी मुकदमा  लेकर हाज़िर हुए थे . उन्होंने बाकायदा अर्जी थी कि किसी परमार देव नाम के हिन्दू राजा ने  मुहम्मद गोरी के भारत आने के पहले ही  ताजमहल को बनवा दिया था. २०१४ में केंद्र में हिन्दुत्ववादी विचारधारा को मानने वालों की सरकार बनने के बाद तो  अदालतों में   बहुत सारे लोगों ने ताजमहल को हिन्दू संपत्ति घोषित करवाने के लिए मुक़दमे दायर किये ,यह भी दावे किये गए कि किसी हिन्दू मंदिर को तोड़कर ताजमहल को बनाया  गया था लेकिन २०१७ में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग ने स्पष्ट  कर दिया कि इस बात के कहीं कोई सबूत  नहीं हैं कि यह साबित किया जा सके कि ताजमहल की जगह पर कभी कोई मंदिर रहा होगा .
ताजमहल को नज़रंदाज़ करने का सरकारी सिलसिला जारी  है . उत्तर प्रदेश में हिन्दुत्ववादी सरकार बन जाने के बाद मुख्यमंत्री महोदय के आदेश पर राज्य के पर्यटन विभाग का जो ब्रोशर बना ,उसमें ताजमहल  को कोई ख़ास महत्व नहीं दिया गया . सत्ताधारी पार्टी के कई नेता यह कहते पाए  जाते  हैं कि ताजमहल एक कब्र ही तो है उसको इतना  अधिक महत्व देने की क्या ज़रूरत है .  मुसीबतों की इस भंवर में फंसे ताजमहल के लिए सुप्रीम कोर्ट की  टिप्पणी एक बड़ी आशा की किरण है .आज  हालात यह हो गए हैं कि सुप्रीम कोर्ट देश की सामूहिक बुद्धिमत्ता का सबसे बड़ा संरक्षक हो गया है . सरकारें अक्सर अपनी मर्जी को क़ानून के लबादे में लपेटकर  देश की अवाम पर थोपने की कोशिश करती  हैं. यह काम इमरजेंसी में इंदिरा-संजय के राज में शुरू हुआ था. उन दिनों सुप्रीम कोर्ट में भी मनमाफिक जज तैनात कर अपनी मर्जी को क़ानून बनाने की कोशिश की गयी थी लेकिन  जनता ने एकजुट होकर  इंदिरा गांधी की इमरजेंसी पर ब्रेक लगा दिया था. उसके बाद से कार्यकारिणी की मनमानी का सिलसिला जारी है . लोकशाही के अन्य  स्तम्भ लगभग प्रभावहीन हो चुके हैं . स्थानीय न्यायपालिका  भी मुकामी कार्यकारिणी की इच्छा की वाहक  ही नज़र आने लगी है ,इन  विकट परिस्थितियों में सुप्रीम कोर्ट से हमारी लोकशाही को बहुत उम्मीदें हैं , और हमारी भावी पीढ़ियों को भी बहुत उम्मीदें हैं . इस बात की उम्मीद की जानी चाहिए कि हमारी ऐतिहासिक धरोहरों और विरासत से छेड़छाड़ करने वालों को सुप्रीम कोर्ट क़ानून  और संविधान का सम्मान करने के लिए उत्साहित करती रहेगी और ऐसा कोई  रास्ता नहीं छोड़ेगी कि लोग संविधान की सीमाओं का उन्ल्लंघन कर सकें.

Friday, July 6, 2018

न्यूनतम समर्थन मूल्य को आंकड़ों की बाजीगरी नहीं बनाना चाहिए

  

 शेष नारायण सिंह 

खरीफ फसल के  लिए सरकारी खरीद का दाम तय कर दिया गया है . गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने प्रेस कान्फरेंस में बाकायदा  मंत्रिमंडल के फैसलों का ऐलान किया . देश  भर में  किसानों के आन्दोलन  चल रहे हैं लेकिन मीडिया में वह मुकाम नहीं पा रहे हैं जो उनको मिलना चाहिए और इसीलिए बाकी दुनिया  को अंदाज़ा नहीं है कि किसानों में भारी हाहाकार है. लेकिन सरकार को मालूम है कि देश का  किसान बहुत नाराज़ है . खरीफ की फसलों की सरकारी  खरीद के मूल्यों में जिस तरह से वृद्धि की गयी है उसको देखकर लगता है कि सरकार में सर्वोच्च स्तर पर भी इस बात की चिंता है और चुनावी साल में किसान की नाराजगी का   पाथेय लेकर बीजेपी चुनावी मैदान में नहीं जाना चाहेगी . इसलिए घोषित सरकारी मूल्यों का राजनीतिक कारण सबसे अहम है . बीजेपी ने अपने 2014 के चुनावी घोषणापत्र में यह वायदा किया था कि अगर बीजेपी की सरकार बनी तो वह स्वामीनाथन आयोग की उस सिफारिश को लागू करेगीजिसमें  कहा  गया है कि किसानों को सी-2  लागत के ऊपर 50 प्रतिशत जोड़कर न्यूनतम समर्थन मूल्य दिया जाना चाहिए . फसल पर हुए खर्च के मद की लागत को जोड़कर जो कीमत आती है उसको सी-२ कहा जाता है . सरकार ने चार साल तक इस महत्वपूर्ण मुद्दे पर कोई ध्यान नहीं दिया . बल्कि इस  बीच किसानों की क़र्ज़ माफी आदि के मुद्दों पर हास्यास्पद तरह  के तर्क दिए जाते रहे . लेकिन अब सरकार की समझ में आ गया  है कि चुनावी साल में  नाराज़ किसान बहुत कुछ  नुक्सान कर सकता है .

अब  तक सरकारें  जो घोषणा करती रहीं हैं  उसको देखा जाय तो लगता है कि सी-लागत के ऊपर 10-12 प्रतिशत जोड़कर ही न्यूनतम समर्थन मूल्य तय किया  जाता रहा है . स्वामीनाथन कमीशन की रिपोर्ट इस  मामले में बहुत ही महत्वपूर्ण संगमील  मानी जाती थी . २०१४ में  बीजेपी का घोषणा पत्र बनाने वालों ने इस  अवसर को भांपा और उसको अपने चुनावी वायदों में शामिल  कर दिया .  सबको मालूम है कि मोदी सरकार बनवाने में  देश भर  के किसानों का बड़ा योगदान है लेकिन सरकार में आने के बाद  स्वाभाविक दबावों के चलते सरकार ने अपने इस वायदे को पूरी तरह से भुला दिया . इस साल की  शुरुआत से ही साफ़ नज़र आ रहा है कि सरकार के खिलाफ मैदान ले चुका है  तो यह घोषणा की गयी है . हमको मालूम है कि अब चुनाव तक सरकार और बीजेपी के प्रवक्ता सरकारी खरीद के दाम को मुद्दा बनाने  की  कोशिश करेंगे लेकिन कुछ  ऐसी बातें हैं जिनको वे ढांकतोप  कर बात करना चाहेंगे. मसलन वे इस बात को पब्लिक डोमेन में नहीं आने देंगे कि इस सरकार ने  स्वामीनाथन कमीशन में बताये गई सी-२ की  परिभाषा ही बदल दी है .एक बात और सच है कि इस बार का घोषित मूल्य नई परिभाषा के हिसाब से भी खरा नहीं उतरता है .

  पिछले चार वर्षों में  सरकार ने हर  साल न्यूनतम समर्थन मूल्य घोषित किया है. समर्थन मूल्य का उद्देश्य यह माना जाता है कि अगर बाजार में सरकारी कीमत के नीचे किसी अनाज की कीमत जाती हैतो सरकार  एम एस पी के आधार पर किसानों  से अनाज खरीदेगी। आम तौर पर उम्मीद की जाती है कि किसान को न्यूनतम समर्थन मूल्य से ज्यादा कीमत मिलती रहेगी लेकिन पिछले चार वर्षों में ऐसा कभी नहीं हुआ जब गेहूं और धान को छोड़कर किसी भी उत्पादन का बाज़ार भाव एम एस पी के बराबर भी पंहुचा हो . .एम एस पी की अवधारणा ही यही  है कि किसान की फसल की  कीमत एक मुकाम के नीचे न जाने पाए . लेकिन मौजूदा सरकार के कार्यकाल में अब तक तो ऐसा हुआ नहीं है . ज़ाहिर है नया घोषित हुआ यह समर्थन मूल्य भी किसान का बहुत हित  करने वाला नहीं  है. किसान अपनी  पैदावार को  होल्ड नहीं कर सकता , उसको फसल तैयार होने के बाद बेचना ज़रूरी  हो जाता  है .इसका मुख्य कारण तो यही है कि उसकी पास इतना धन नहीं होता कि वह बाज़ार भाव के अच्छे होने का इंतज़ार करे और अपनी ही फसल को बहुत दिन तक रखा नहीं जा सकता, उसपर कानूनी कार्रवाई का खतरा रहता है .इसलिए जब देरी या धांधली  होने लगती है तो वह औने पौने दाम पर बेचने के लिए मजबूर हो जाता  है. किसान की इस कमजोरी का फायदा वे लोग उठाते हैं जो खाद्य सामग्री के वायदा कारोबार में बड़ी रक़म बना रहे होते हैं . नतीजा यह होता है कि किसान को जिस चीज़ की कीमत एक रूपये मिल रही होती है ,वही जब  शहरी मध्यवर्ग के पास पंहुचती है तो वह करीब एक सौ रूपये की हो चुकी होती  है . इस प्रकार से राजनीतिक पार्टियों के समर्थकों  के दो बड़े समूह  बिचौलियों के शिकार हो चुके होते हैं . एक तो किसान जिसकी आबादी सबसे ज्यादा  है और दूसरा शहरी मध्यवर्ग जिसकी भी आबादी  दूसरे नंबर पर है. सरकार को इस  हालत को सुधारने के लिए मौलिक और बुनियादी क़दम उठाना चाहिए लेकिन कोई भी सरकार ऐसा  करती नहीं है .  

नई एम एस पी घोषित होने के साथ साथ यह प्रचार शुरू हो गया है कि सरकार ने अपना एक महत्वपूर्ण वायदा पूरा कर दिया है लेकिन  लगता  है कि यह सब एक योजना के तहत किया जा रहा  है जिससे किसान को सही  बात का पता ही न लग पाये. न्यूनतम समर्थन मूल्य के दर्शनशास्त्र का आधार  यह  था कि किसान को यह गारंटी दी जा सके कि उसकी फसल की एक कीमत सरकार की तरफ से तय जिसके ऊपर के दाम पर वह बाज़ार में अपना माल बेच सकता है आम तौर पर एम एस पी के ऊपर उसको करीब बीस प्रतिशत ज्यादा कीमत बाज़ार से मिल सकती था. पहले ऐसा होता भी था लेकिन अब नहीं हो रहा  है. मनमोहन सिंह ने  वित्त मंत्री के रूप  में जिस उदारीकरण और   भूमंडलीकरण का आगाज़ किया था उसका सबसे ज्यादा नुक्सान किसान को ही हो रहा   है. तथाकथित सुधारों के नाम पर  उद्योगपति, शेयर बाज़ार वाले, अंतरराष्ट्रीय  ठग आदि तो मौज कर रहे   हैं , बैंकों का धन लूटने वाले लोगों को संभालने के लिए सरकार एक लाख करोड़ से ज्यादा के एन पी ए यानी बेकार हो चुके बैंकों के क़र्ज़ को माफ़ कर रही है लेकिन किसान सरकार की  प्राथमिकता नहीं हैं . उदारीकरण और वैश्वीकरण के तमाम सुधारों के नाम पर किसानों को बाकी दुनिया के किसानों के साथ मुकाबला करने के  लिए छोड़ दिया गया है , किसानों के उत्पादन के मुकाबले अमरीका आदि से अनाज का आयात कर लिया जाता है और  किसान बाज़ार से खुद ही लड़ने के लिए अभिशप्त है. देश के अन्दर भी  किसान के ऊपर  प्रतिबंध लगे हुए हैं। वे एक राज्य से दूसरे राज्य तक  अनाज नहीं ले जा सकतेतय मात्रा से अधिक जमा नहीं कर सकतेयहाँ तक कि निर्यात भी नहीं कर सकते। इसलिए एम  एस पी की घोषणा मात्र कर लेने से सरकार के कर्तव्यों की इतिश्री नहीं हो जाती .देश की सामाजिक आर्थिक और राजनीतिक स्थिरता के लिए ज़रूरी है कि  सरकार अपने आपको किसानों की सही हित रक्षक  रूप  में प्रस्तुत करे , केवल मतदाता के रूप में ही नहीं .

इस सन्दर्भ में  मीडिया की ज़िम्मेदारी का उल्लेख करना भी ज़रूरी है . देखा गया है कि  लगभग सभी खबरों में तोता रटन्त स्टाइल में वही लिख दिया जाता  जो सरकारी तौर पर बताया जाता है .सारी खबरें सरकारी पक्ष को उजागर करने के लिए लिखी जाती हैं. यह सच है। लेकिन एक सच और है जो आजकल अखबारों के पन्नों तक आना बंद हो चुका है। यह सच है कि किसान किस  तरह से अपनी रोज़मर्रा की ज़िंदगी को जीता है , किस तरह से वह ज़मीन छोड़कर शहर भाग जाने के लिए तडपता है , देश के गाँवों में कम खेत वाले या भूमिहीन खेतिहर मजदूर पर क्या  गुजरती  है , किस तरह से वह भूख और अकाल का शिकार होता है.  भूख के तरह-तरह के रूप देश के सूखा ग्रस्त गांवों में देखे जाते हैं  लेकिन वे खबर नहीं बन पाते . खबर तब  बनती है  जब कोई भूख से तड़प तड़प कर मर जाता है ,या कोई अपने बच्चे बेच देता है या  खुद को गिरवी रख देता है . भूख से मरना बहुत बड़ी बात हैदुर्दिन की इंतहा है। लेकिन भूख की वजह से मौत होने के पहले इंसान पर तरह-तरह की मुसीबतें आती हैंभूख से मौत तो उन मुसीबतों की अंतिम कड़ी है .कहीं भी नहीं लिखा जाता कि किसानी का एक ज़रूरी हिस्सा  यह भी है कि साल दर साल  फसल चौपट हो जाती  है . फसल  बर्बाद हो जाने की वजह से उस गरीब किसान का क्या होगा जिसका सब कुछ तबाह हो चुका है। वह सरकारी मदद भी लेने में संकोच  करता  है  क्योंकि गांव का गरीब और इज्जतदार आदमी मांग कर नहीं खाता। गांव का गरीबसरकारी लापरवाही के चलते और मानसून खराब होने पर भूखों मरता है। आजादी के बाद जो जर्जर कृषिव्यवस्था नए शासकों को मिली थीवह लगभग आदिम काल की थी। उसको दुरुस्त करने के लिए लाल बहादुर   शास्त्री ने  हरित क्रान्ति की पहल की थी लेकिन उसके बाद  किसी सरकार ने अब अब तक कोई  पहल नहीं की है .
इसलिए मीडिया की ज़िम्मेदारी है कि सच्चाई को देश और समाज के सामने लाये, मीडिया का फ़र्ज़ है कि इन आंकड़ाबाज नेताओं को यह बताने की जरूरत को समझे कि आम आदमी की मुसीबतों को आंकड़ों में घेर कर उनके जले पर नमक छिड़कने की संस्कृति से बाज आएं। अकाल या सूखे की हालत में ही खेती का ख्याल न करेंइसे एक सतत प्रक्रिया के रूप में अपनाएं। इस देश का दुर्भाग्य है कि जब फसल खराब होने की वजह से शहरी मध्यवर्ग प्रभावित होने लगता हैतभी इस देश का नेता और पत्रकार जागता है। गांव का किसानजिसकी हर जरूरत खेती से पूरी होती हैवह इन लोगों की प्राथमिकता की सूची में कहीं नहीं आता। इसलिए किसान की समस्या को लगातार केंद्र में रखना सरकार का भी ज़िम्मा है और मीडिया का भी . दोनों को ही अपनी ज़िम्मेदारी का निर्वाह करना चाहिए .

अमरीका से दोस्ती किसी देश के राष्ट्रहित में कभी नहीं रही



शेष नारायण सिंह


विदेश मंत्री सुषमा स्वराज और रक्षा मंत्री निर्मला सीतारमन को अमरीका यात्रा पर जाना था . वे वहां के विदेश मंत्री और रक्षा मंत्री से मुलाक़ात करके आपसी  संबंधों के बारे में विस्तृत विचार विमर्श करने वाली थीं लेकिन अमरीका ने अनुरोध कर दिया कि कुछ ऐसी परिस्थितियाँ हैं कि इस यात्रा को रोक देना ही ठीक रहेगा. इस बातचीत के कार्यक्रम की घोषणा पिछले साल अगस्त में की गयी थी जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमरीका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप से  फोन पर बात हुयी थी और तय पाया गया था कि सामरिक,सुरक्षा और सैनिक सहयोग को मज़बूत करने के लिए  दोनों देशों के विदेश और रक्षा मंत्रियों की बातचीत होगी. यह बातचीत पहले भी  टाली जा चुकी है लेकिन उस बार  टलने का कारण पता  था. क्योंकि उस बार डोनाल्ड ट्रंप ने अपने मंत्री रेक्स टिलरसन को बर्खास्त कर दिया था. इस बार बातचीत के टाले जाने का कारण शायद यह है  कि भारत ने रूस से एस-४०० मिसाइल खरीदने की पेशकश कर दी है जो अमरीका के राष्ट्रपति जी को पसंद नहीं आया है .   अमरीका चीन के बढ़ते प्रभाव के चलते इस इलाके में ऐसे दोस्त की   तलाश में है जो उसके अलावा   किसी से रिश्ते न रखे . अब तक पाकिस्तान इसी काम आता था अब भारत का वही इस्तेमाल करना अमरीकी विदेशनीति का अहम हिस्सा है .

उधर अमरीकी रक्षा मंत्री जिम मेटिस चीन की यात्रा पर हैं . उन्हें जापान और  दक्षिण कोरिया भी जाना है . अमरीकी अखबार न्यू यार्क टाइम्स में  छपा है कि वे अपनी यात्रा की  शुरुआत में ही वे चीनी राष्ट्रपति  शी जिनपिंग से मिले और उनका मन भांपने के लिए दक्षिण चीन सागर की चर्चा कर दी .चीन के राष्ट्रपति ने दो टूक लहजे में जवाब दिया कि " हमारे पुरखों  ने जो ज़मीन हमारे लिए छोडी है ,हम उसका एक इंच भी किसी के लिए नहीं छोड़ेंगे. किसी और की ज़मीन को हम बिलकुल नहीं चाहते." अमरीकी  रक्षामंत्री  इस इलाके में चीन के बढ़ते प्रभाव को कम  करने के लिए अमरीकी विदेशनीति को ताक़त देने के लिए इस यात्रा पर हैं .
इस खबर का ज़िक्र करने का उद्देश्य केवल  यह  है कि  अमरीका से सही रिश्ते रखने के लिए उससे इसी भाषा में बात करना  पड़ता है .  उससे बहुत अपनापा नहीं दिखाना चाहिए .इंदिरा गांधी जब प्रधानमंत्री बनीं तो अमरीकी  राष्ट्रपति लिंडन जॉनसन ने उनको बहुत भारी भारी वायदे किये थे . उनको उम्मीद थी कि जवाहरलाल नेहरू और लाल बहादुर शात्री जैसे अमरीका विरोधी राजनेताओं के जाने के बाद राजनीति में अपेक्षाकृत कम  तजुर्बेकार इंदिरा गांधी को अमरीकी सम्पन्नता के मायाजाल में  फंसाया जा सकता  था लेकिन  इंदिरा गांधी ने उनको कोई खास महत्व नहीं दिया था. उसके बाद तो निक्सन के राष्ट्रपति पद पर रहते बंगलादेश की स्थापना भी हुयी और अमरीकी राजनीति में सक्रिय हर इंसान को लगने लगा कि इंदिरा गांधी की अगुवाई वाले भारत से दोस्ती से अच्छी दुश्मनी ही  ठीक रहेगी और वह काम उसने किया भी . यहाँ तक कि पाकिस्तान के समर्थन में १९७१ में बंगाल की खाड़ी में अपने सातवें बेड़े का युद्धपोत इंटरप्राइज़ भी भेज दिया था . लेकिन अमरीका कुछ नहीं कर सका और बंगलादेश की स्थापना हो गयी.  उसके बाद भी कई बार अमरीका ने भारत से  दोस्ती का हाथ बढ़ाया . सोवियत रूस के विघटन के बाद अमरीका को इकलौते सुपर पावर का दर्ज़ा मिल गया उसके बाद तो हालात बदल गए . भारत भी आर्थिक संकट के भयानक दौर से गुज़र रहा  था. पी वी नरसिम्हाराव की सरकार थी और डॉ मनोहन सिंह  वित्त मंत्री थे. अमरीकी दाबाव उस बार  बरास्ता, आई एम एफ और विश्व बैंक आया और भारत अमरीका  के आर्थिक दबाव में आ गया .उसके बाद जो हुआ उसे दुनिया जानती है. .आम तौर पर  भारत की  सरकारें कमज़ोर थीं क्योंकि गठबंधन की सरकारें होती थीं लेकिन अमरीका से सैनिक और सामरिक जुगलबंदी के प्रस्तावों को टाला जाता रहा . अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में जसवंत सिंह विदेशमंत्री बने तो उन्होंने अमरीका से कूटनीतिक संबंधों को ताकत देना शुरू किया . लेकिन पूरी तरह से अमरीका के सहयोगी देश की स्थिति भारत की कभी  नहीं बनी.
तीस साल  बाद  भारत में स्पष्ट बहुमत वाली सरकार आई है और इस सरकार ने  अमरीका के सामरिक सहयोगी की भूमिका को स्वीकार करने का मन बना लिया है . लेकिन अमरीका में राष्ट्रपति की निजी इच्छाएं क़ानून नहीं बन  जातीं, इस बात का ध्यान रखना चाहिए . अमरीका की  दोस्ती के चक्कर में अपनी राष्ट्रीय अस्मिता और निजी सम्मान को कभी नहीं  भूलना चाहिए . अमरीका के पूर्व विदेशमंत्री हेनरी कीसिंजर की बात हमेशा याद रखनी चाहिए . उन्होंने कहा था कि ," अमरीका से दुश्मनी खतरनाक है लेकिन उससे दोस्ती में तो  और भी खतरनाक है "  .उनके इस पैमाने पर सद्दाम हुसैन,  ईरान के शाह  रज़ा पहलवी ,चिली के तानाशाह  पिनोशे और पाकिस्तानी तानाशाह परवेज़ मुशर्राफ  को देखा जा सकता है . इसलिए किसी  भी राष्ट्राध्यक्ष को अमरीका से दोस्ती करने में बहुत संभल कर रहना चाहिए .
बहरहाल  अमरीका से भारत के रिश्ते सुधारने की कोशिश चल रही है. लेकिन ज़रूरी यह है कि इस बात की जानकारी रखी जाय कि अमरीका कभी भी भारत के बुरे वक़्त में काम नहीं आया है . भारत के ऊपर जब १९६२ में चीन का हमला हुआ था तो वह नवस्वतंत्र भारत के लिए सबसे बड़ी मुसीबत थी . उस वक़्त के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने अमरीका से मदद माँगी भी थी लेकिन अमरीकी राष्ट्रपति जॉन केनेडी ने कोई भी सहारा नहीं दिया और नेहरू की चिट्ठियों का जवाब तक नहीं दिया था . इसके बाद इंदिरा गाँधी के प्रधान मंत्री बनने के बाद लिंडन जॉनसन ने भारत का अमरीकी कूटनीति के हित में इस्तेमाल करने की कोशिश की थी लेकिन इंदिरा गाँधी ने अपने राष्ट्रहित को महत्व दिया और अमरीका के हित से ज्यादा महत्व अपने हित को दिया और गुट निरपेक्ष आन्दोलन की नेता के रूप में भारत की इज़्ज़त बढ़ाई . हालांकि अमरीका की यह हमेशा से कोशिश रही है कि वह एशिया की राजनीति में भारत का इस्तेमाल अमरीकी हित साधना के लिए करे लेकिन भारतीय विदेशनीति के नियामक अमरीकी राष्ट्रहित के प्रोजेक्ट में अपने आप को पुर्जा बनाने को तैयार नहीं थे . यह अलग बात है कि भारत के सत्ता प्रतिष्टान में ऐसे लोगों का एक वर्ग हमेशा से ही सक्रिय रहा है जो अमरीका की शरण में जाने के लिए व्याकुल रहा करता था. पी वी नरसिम्हा राव की सरकार आने के पहले तक इस वर्ग की कुछ चल नहीं पायी. नरसिम्हा राव की सरकार आने के बाद हालात बदल गए थे. सोवियत रूस का विघटन हो चुका था और अमरीका अकेला सुपरपावर रह गया . ऐसी स्थिति में भारतीय राजनीति और नौकरशाही में जमी हुई अमरीकी लॉबी ने काम करना शुरू किया और भारत को अमरीकी हितों के लिए आगे बढ़ाना शुरू कर दिया . जब अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में जसवंत सिंह विदेशमंत्री बने तो अमरीकी विदेश विभाग के लोगों से उन्होंने बिलकुल घरेलू सम्बन्ध बना लिए . डॉ मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्री पद पर विराजमान होने के बाद तो अमरीका से घनिष्ठ आर्थिक  सम्बन्ध बन गए थे.  एशिया में बढ़ते हुए चीन के प्रभाव को कम करना अमरीकी विदेशनीति का अहम हिस्सा है और इस मकसद को हासिल करने के लिए वह भारत का इस्तेमाल कर रहा है .हालांकि चीन को बैलेंस करना भारत के हित में भी है लेकिन यह भी ध्यान रखने की ज़रुरत है कि कहीं भारत के राष्ट्रहित को अमरीकी फायदे के लिए कुरबान न करना पड़े.

पिछले सत्तर वर्षों के इतिहास पर नज़र डालें तो समझ में आ जाएगा कि अमरीका ने भारत को हमेशा की नीचा दिखाने की कोशिश की है . १९४८ में जब कश्मीर मामला संयुक्तराष्ट्र में गया था तो तेज़ी से सुपर पावर बन रहे अमरीका ने भारत के खिलाफ काम किया था . १९६५ में जब कश्मीर में घुसपैठ कराके उस वक़्त के पाकिस्तानी तानाशाह जनरल अय्यूब ने भारत पर हमला किया था तो उनकी सेना के पास जो भी हथियार थे सब अमरीका ने ही उपलब्ध करवाया था . उस लड़ाई में जिन पैटन टैंकों को भारतीय सेना ने रौंदा थावे सभी अमरीका की खैरात के रूप में पाकिस्तान की झोली में आये थे. पाकिस्तानी सेना के हार जाने के बाद अमरीका ने भारत पर दबाव बनाया था कि वह अपने कब्जे वाले पाकिस्तानी इलाकों को छोड़ दे . १९७१ की बंगलादेश की मुक्ति की लड़ाई में भी अमरीकी राष्ट्रपति निक्सन ने पाकिस्तानी तानाशाह याहया खां के बड़े भाई के रूप में काम किया था .उस वक़्त के अमरीकी विदेशमंत्री हेनरी कीसिंजर ने उस दौर में पाकिस्तान की तरफ से पूरी दुनिया में पैरवी की थी. संयुक्त राष्ट्र में भी भारत के खिलाफ काम किया था . जब भी भारत ने परमाणु परीक्षण किया अमरीका को तकलीफ हुई . भारत ने बार बार पूरी दुनिया से अपील की कि बिजली पैदा करने के लिए उसे परमाणु शक्ति का विकास करने दिया जाय लेकिन अमरीका ने शान्ति पूर्ण परमाणु के प्रयोग की कोशिश के बाद भारत के ऊपर तरह तरह की पाबंदियां लगाईं. उसकी हमेशा कोशिश रही कि वह भारत और पाकिस्तान को बराबर की हैसियत वाला मुल्क बना कर रखे लेकिन ऐसा करने में वह सफल नहीं रहा .आज भारत के जिन इलाकों में भी अशांति है वह सब अमरीकी दखलंदाजी की वजह से ही है . कश्मीर में जो कुछ भी पाकिस्तान कर रहा है उसके पीछे पूरी तरह से अमरीका का पैसा लगा है . पंजाब में भी आतंकवाद पाकिस्तानी फौज की कृपा से ही शुरू हुआ था . पूर्वोत्तर भारत में जो आतंकवादी पाकिस्तान की कृपा से सक्रिय हैं उन सबको को पाकिस्तान उसी पैसे से मदद करता  था  जो उसे अमरीका से अफगानिस्तान में काम करने के लिए मिलता था . ऐसी हालत में अमरीका से बहुत ज्यादा दोस्ती कायम करने के पहले मौजूदा हुक्मरान को पिछले साठ वर्षों के इतिहास पर नज़र डाल लेनी चाहिए . और अमरीका से दोस्ती की पींग बढाने के पहले यह जान लेना चाहिए कि जो अमरीका भारत के बुरे वक़्त में काम कभी नहीं आया . इसलिए अमरीका की दोस्ती को एक बार फिर से समझ लेने की ज़रूरत है .

Monday, July 2, 2018

बलात्कारी के धर्म से देश को बांटना खतरनाक राजनीति है


शेष नारायण सिंह

मध्य प्रदेश के मंदसौर में एक छोटी लडकी के साथ बलाकार हुआ है . बलात्कार के आरोप में जिसको गिरफ्तार किया गया है ,वह मुसलमान है  .उसके बाद धार्मिक आधार पर देश को बांटने की कोशिश कर रही जमातें बहुत ही सक्रिय हो गयी हैं . बात को इस तरह से पेश किया जा रहा है ,गोया देश का हर मुसलमान इस बलात्कार के लिए ज़िम्मेदार है. मुसलमानों के खिलाफ माहौल बनाया जा रहा है . मंदसौर के बलात्कार की तुलना कठुआ की वारदात से की जा रही है जहां एक मुसलिम बच्ची से  बलात्कार हुआ था. उस केस में बलात्कारी हिन्दू था.  हम इन दोनों ही आपराधों में बलात्कारियों की निंदा करते हैं . लेकिन तकलीफ तब होती है जब एक अपराधी के काम  के लिए पूरे समाज को ज़िम्मेदार ठहराया जाता है . कठुआ के मामले में बलात्कारी हिन्दू था . देश भर में हिन्दुओं ने उस पर ग़म-ओ-गुस्से  का इज़हार किया था ,उसकी निंदा की थी लेकिन बलाकारियों के कुछ खैरख्वाह   उनके समर्थन में  खड़े हो गए थे. हिन्दू एकता के नाम पर चंदा इकठ्ठा कर रहे थे . जब कि मंदसौर में मुसलमानों  ने सड़क पर आकर  बलात्कारी के खिलाफ जुलूस निकाला , उसको सज़ा-ए-मौत की मांग की और कोई भी मौलवी उस बलात्कारी के लिए  नमाज़-ए-जनाजा पढवाने को तैयार नहीं है , उसको अपने कब्रिस्तान में दफ़न तक करने से मुसलमानों ने मना कर दिया है . पूरे समाज में उसके खिलाफ माहौल बन गया है .  ऐसी हालत में मंदसौर और कठुआ की तुलना ठीक नहीं है .धार्मिक आधार पर बलात्कारी का साथ देना बहुत ही घटिया हरकत है और उसकी निंदा की जानी चाहिए .
टेलिविज़न पर मंदसौर के बलात्कार के हवाले से  देश के सभी मुसलमानों को घेरने की कोशिश कर रहे सरकारी  पार्टी के प्रवक्ताओं को वे बातें नहीं करनी चाहिए जिस  तरह की बात वे कर  रहे  हैं . सरकार और बीजेपी की ज़िम्मेदारी है कि  इन प्रवक्ताओं पर लगाम लगाए . धार्मिक आधार पर देश की आबादी को खेमों में  बांटना सत्ताधारी पार्टी को  भारी नुक्सान पंहुचा सकता है . जब भी  धार्मिक भावनाओं के सहारे राजनीति करने की बी जे पी ने  कोशिश की ,देश का बहुत नुकसान हुआ है . इस बार भी लगता है कि उनकी कोशिश है  झगडा झंझट का माहौल पैदा किया जाये  . यह ठीक नहीं है . यह सच है कि   आर एस एस का आज़ादी की लड़ाई और आज़ादी हासिल करने में कोई योगदान नहीं है लेकिन यह ध्यान रखना होगा कि भारत की आज़ादी की लड़ाई जिन मूल्यों पर लड़ी गयी थीउनमें धर्म निरपेक्षता एक अहम मूल्य था .देश में जो माहौल बनाया जा रहा है उसमें  धर्मनिरपेक्षता के अहम पहलुओं पर एक बार फिर से गौर करने की ज़रूरत है .धर्मनिरपेक्षता  भारत के संविधान का स्थायी भाव हैउसकी मुख्यधारा है। धर्मनिरपेक्ष राजनीति किसी के खिलाफ कोई नकारात्मक प्रक्रिया नहीं है। वह एक सकारात्मक गतिविधि है। देश के मौजूदा नेतृत्व को इस बात पर विचार करना पड़ेगा और धर्मनिरपेक्षता को राष्ट्र निर्माण और संविधान की सर्वोच्चता के जरूरी हथियार के रूप में संचालित करना पड़ेगा। आज भी धर्मनिरपेक्षता का मूल तत्व वही है जो 1909 में महात्मा गांधी ने हिंद स्वराज में लिख दिया था..

धर्मनिरपेक्ष होना हमारे गणतंत्र के लिए बहुत ज़रूरी है। इस देश में जो भी संविधान की शपथ लेकर सरकारी पदों पर बैठता है वह स्वीकार करता है कि भारत के संविधान की हर बात उसे मंज़ूर है यानी उसके पास धर्मनिरपेक्षता छोड़ देने का विकल्प नहीं रह जाता। जहां तक आजादी की लड़ाई का सवाल है उसका तो उद्देश्य ही धर्मनिरपेक्षता और सामाजिक न्याय का राज कायम करना था।  आज के शासकों को यह ध्यान रखना होगा कि कांग्रेस इस देश  में इतने वर्षों तक राज इसलिए कर पाई कि उसने धर्मनिरपेक्षता को अपनी राजनीति की बुनियाद बना रखा  था. 60 के दशक तक तो कांग्रेस उसी रास्ते पर चलती नजर आई लेकिन लाल बहादुर शास्त्री की मृत्यु के बाद भटकाव शुरू हो गया था और जब कांग्रेस ने धर्मनिरपेक्षता के बुनियादी सिद्धांत पर कमजोरी दिखाई तो जनता ने और विकल्प ढूंढना शुरू कर दिया। महात्मा गांधी ने अपनी पुस्तक 'हिंद स्वराजमें पहली बार देश की आजादी के सवाल को हिंदू-मुस्लिम एकता से जोड़ा है। 1909 में छपी इस किताब को छपे सौ साल से ज्यादा हो गए हैं . गांधी जी एक महान कम्युनिकेटर थेजटिल सी जटिल बात को बहुत साधारण तरीके से कह देते थे। हिंद स्वराज में उन्होंने लिखा है - ''अगर हिंदू माने कि सारा हिंदुस्तान सिर्फ हिंदुओं से भरा होना चाहिएतो यह एक निरा सपना है। मुसलमान अगर ऐसा मानें कि उसमें सिर्फ मुसलमान ही रहेंतो उसे भी सपना ही समझिए। फिर भी हिंदूमुसलमानपारसीईसाई जो इस देश को अपना वतन मानकर बस चुके हैंएक देशीएक-मुल्की हैंवे देशी-भाई हैं और उन्हें एक -दूसरे के स्वार्थ के लिए भी एक होकर रहना पड़ेगा।"

महात्मा जी ने अपनी बात कह दी और इसी सोच की बुनियाद पर उन्होंने 1920 के आंदोलन में हिंदू-मुस्लिम एकता की जो मिसाल प्रस्तुत कीउससे अंग्रेजी राज्य की चूलें हिल गईं। आज़ादी की पूरी लड़ाई में महात्मा गांधी ने धर्मनिरपेक्षता की इसी धारा को आगे बढ़ाया। शौकत अलीसरदार पटेलमौलाना अबुल कलाम आजाद और जवाहरलाल नेहरू ने इस सोच को आजादी की लड़ाई का स्थाई भाव बनाया।लेकिन अंग्रेज़ी सरकार हिंदू मुस्लिम एकता को किसी कीमत पर कायम नहीं होने देना चाहती थी। उसने जिन्ना टाइप लोगों की मदद से आजादी की लड़ाई में अड़ंगे डालने की कोशिश की और सफल भी हुए।लेकिन देश का सौभाग्य था कि महात्मा गाँधी के उत्तराधिकारी और कांग्रेस के नेता जवाहरलाल नेहरू थे। उनकी धर्मनिरपेक्षता की कहानियां चारों तरफ सुनी जा सकती हैं। उन्होंने लोकतंत्र की जो संस्थाएं विकसित कींसभी में सामाजिक बराबरी और सामाजिक सद्भाव की बातें विद्यमान रहती थीं। प्रेस से उनके रिश्ते हमेशा अच्छे रहे इसलिए उनके धर्मनिरपेक्ष चिंतन को सभी जानते हैं और उस पर कभी कोई सवाल नहीं उठता। लेकिन इनके जाने के बाद कांग्रेस की राजनीति ऐसे लोगों के कब्जे में आ गई जिन्हें महात्मा जी के साथ काम करने का सौभाग्य नहीं मिला था।

कांग्रेसियों के ही एक वर्ग ने सरदार को हिंदू संप्रदायवादी साबित करने की कई बार कोशिश की लेकिन उन्हें कोई सफलता नहीं मिली। भारत सरकार के गृहमंत्री सरदार पटेल ने 16 दिसंबर 1948 को घोषित किया कि सरकार भारत को ''सही अर्थों में धर्मनिरपेक्ष सरकार बनाने के लिए कृत संकल्प है।" (हिंदुस्तान टाइम्स - 17-12-1948)। सरदार पटेल को इतिहास मुसलमानों के एक रक्षक के रूप में भी याद रखेगा। सितंबर 1947 में सरदार को पता लगा कि अमृतसर से गुजरने वाले मुसलमानों के काफिले पर वहां के सिख हमला करने वाले हैं। सरदार पटेल अमृतसर गए और वहां करीब दो लाख लोगों की भीड़ जमा हो गई जिनके रिश्तेदारों को पश्चिमी पंजाब में मार डाला गया था। उनके साथ पूरा सरकारी अमला था और उनकी बहन भी थीं। भीड़ बदले के लिए तड़प रही थी और कांग्रेस से नाराज थी। सरदार ने इस भीड़ को संबोधित किया और कहा, ''इसी शहर के जलियांवाला बाग की माटी में आज़ादी हासिल करने के लिए हिंदुओंसिखों और मुसलमानों का खून एक दूसरे से मिला था। ............... मैं आपके पास एक ख़ास अपील लेकर आया हूं। इस शहर से गुजर रहे मुस्लिम शरणार्थियों की सुरक्षा का जिम्मा लीजिए ............ एक हफ्ते तक अपने हाथ बांधे रहिए और देखिए क्या होता है।मुस्लिम शरणार्थियों को सुरक्षा दीजिए और अपने लोगों की डयूटी लगाइए कि वे उन्हें सीमा तक पहुंचा कर आएं।"  सरदार वल्लभ भाई पटेल की धर्मनिरपेक्षता सीधे महात्मा गांधी वाली थी।

इसलिए  आज के सत्ताधीशों का यह  फ़र्ज़ है कि वे अपने समर्थकों को आगाह कर दें कि सेकुलर शब्द को गाली के रूप में इस्तेमाल करने से बाज  आयें क्योंकि कांग्रेस ने भी जब सेकुलरिज्म का दामन छोड़ा तो सत्ता हाथ से निकल गयी ,१९७७ में भी और १९८९ में भी . इस देश का  सत्ताधीश सेकुलर ही रहेगा ,यह संविधान की भावना है . किसी बलात्कारी के जन्म के धर्म से देश को बांटना बहुत ही खतरनाक खेल है .

Sunday, July 1, 2018

अमरीका से दोस्ती किसी देश के राष्ट्रहित में कभी नहीं रही



शेष नारायण सिंह


विदेश मंत्री सुषमा स्वराज और रक्षा मंत्री निर्मला सीतारमन को अमरीका यात्रा पर जाना था . वे वहां के विदेश मंत्री और रक्षा मंत्री से मुलाक़ात करके आपसी  संबंधों के बारे में विस्तृत विचार विमर्श करने वाली थीं लेकिन अमरीका ने अनुरोध कर दिया कि कुछ ऐसी परिस्थितियाँ हैं कि इस यात्रा को रोक देना ही ठीक रहेगा. इस बातचीत के कार्यक्रम की घोषणा पिछले साल अगस्त में की गयी थी जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमरीका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप से  फोन पर बात हुयी थी और तय पाया गया था कि सामरिक,सुरक्षा और सैनिक सहयोग को मज़बूत करने के लिए  दोनों देशों के विदेश और रक्षा मंत्रियों की बातचीत होगी. यह बातचीत पहले भी  टाली जा चुकी है लेकिन उस बार  टलने का कारण पता  था. क्योंकि उस बार डोनाल्ड ट्रंप ने अपने मंत्री रेक्स टिलरसन को बर्खास्त कर दिया था. इस बार बातचीत के टाले जाने का कारण शायद यह है  कि भारत ने रूस से एस-४०० मिसाइल खरीदने की पेशकश कर दी है जो अमरीका के राष्ट्रपति जी को पसंद नहीं आया है .   अमरीका चीन के बढ़ते प्रभाव के चलते इस इलाके में ऐसे दोस्त की   तलाश में है जो उसके अलावा   किसी से रिश्ते न रखे . अब तक पाकिस्तान इसी काम आता था अब भारत का वही इस्तेमाल करना अमरीकी विदेशनीति का अहम हिस्सा है .

उधर अमरीकी रक्षा मंत्री जिम मेटिस चीन की यात्रा पर हैं . उन्हें जापान और  दक्षिण कोरिया भी जाना है . अमरीकी अखबार न्यू यार्क टाइम्स में  छपा है कि वे अपनी यात्रा की  शुरुआत में ही वे चीनी राष्ट्रपति  शी जिनपिंग से मिले और उनका मन भांपने के लिए दक्षिण चीन सागर की चर्चा कर दी .चीन के राष्ट्रपति ने दो टूक लहजे में जवाब दिया कि " हमारे पुरखों  ने जो ज़मीन हमारे लिए छोडी है ,हम उसका एक इंच भी किसी के लिए नहीं छोड़ेंगे. किसी और की ज़मीन को हम बिलकुल नहीं चाहते." अमरीकी  रक्षामंत्री  इस इलाके में चीन के बढ़ते प्रभाव को कम  करने के लिए अमरीकी विदेशनीति को ताक़त देने के लिए इस यात्रा पर हैं .
इस खबर का ज़िक्र करने का उद्देश्य केवल  यह  है कि  अमरीका से सही रिश्ते रखने के लिए उससे इसी भाषा में बात करना  पड़ता है .  उससे बहुत अपनापा नहीं दिखाना चाहिए .इंदिरा गांधी जब प्रधानमंत्री बनीं तो अमरीकी  राष्ट्रपति लिंडन जॉनसन ने उनको बहुत भारी भारी वायदे किये थे . उनको उम्मीद थी कि जवाहरलाल नेहरू और लाल बहादुर शात्री जैसे अमरीका विरोधी राजनेताओं के जाने के बाद राजनीति में अपेक्षाकृत कम  तजुर्बेकार इंदिरा गांधी को अमरीकी सम्पन्नता के मायाजाल में  फंसाया जा सकता  था लेकिन  इंदिरा गांधी ने उनको कोई खास महत्व नहीं दिया था. उसके बाद तो निक्सन के राष्ट्रपति पद पर रहते बंगलादेश की स्थापना भी हुयी और अमरीकी राजनीति में सक्रिय हर इंसान को लगने लगा कि इंदिरा गांधी की अगुवाई वाले भारत से दोस्ती से अच्छी दुश्मनी ही  ठीक रहेगी और वह काम उसने किया भी . यहाँ तक कि पाकिस्तान के समर्थन में १९७१ में बंगाल की खाड़ी में अपने सातवें बेड़े का युद्धपोत इंटरप्राइज़ भी भेज दिया था . लेकिन अमरीका कुछ नहीं कर सका और बंगलादेश की स्थापना हो गयी.  उसके बाद भी कई बार अमरीका ने भारत से  दोस्ती का हाथ बढ़ाया . सोवियत रूस के विघटन के बाद अमरीका को इकलौते सुपर पावर का दर्ज़ा मिल गया उसके बाद तो हालात बदल गए . भारत भी आर्थिक संकट के भयानक दौर से गुज़र रहा  था. पी वी नरसिम्हाराव की सरकार थी और डॉ मनोहन सिंह  वित्त मंत्री थे. अमरीकी दाबाव उस बार  बरास्ता, आई एम एफ और विश्व बैंक आया और भारत अमरीका  के आर्थिक दबाव में आ गया .उसके बाद जो हुआ उसे दुनिया जानती है. .आम तौर पर  भारत की  सरकारें कमज़ोर थीं क्योंकि गठबंधन की सरकारें होती थीं लेकिन अमरीका से सैनिक और सामरिक जुगलबंदी के प्रस्तावों को टाला जाता रहा . अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में जसवंत सिंह विदेशमंत्री बने तो उन्होंने अमरीका से कूटनीतिक संबंधों को ताकत देना शुरू किया . लेकिन पूरी तरह से अमरीका के सहयोगी देश की स्थिति भारत की कभी  नहीं बनी.
तीस साल  बाद  भारत में स्पष्ट बहुमत वाली सरकार आई है और इस सरकार ने  अमरीका के सामरिक सहयोगी की भूमिका को स्वीकार करने का मन बना लिया है . लेकिन अमरीका में राष्ट्रपति की निजी इच्छाएं क़ानून नहीं बन  जातीं, इस बात का ध्यान रखना चाहिए . अमरीका की  दोस्ती के चक्कर में अपनी राष्ट्रीय अस्मिता और निजी सम्मान को कभी नहीं  भूलना चाहिए . अमरीका के पूर्व विदेशमंत्री हेनरी कीसिंजर की बात हमेशा याद रखनी चाहिए . उन्होंने कहा था कि ," अमरीका से दुश्मनी खतरनाक है लेकिन उससे दोस्ती में तो  और भी खतरनाक है "  .उनके इस पैमाने पर सद्दाम हुसैन,  ईरान के शाह  रज़ा पहलवी ,चिली के तानाशाह  पिनोशे और पाकिस्तानी तानाशाह परवेज़ मुशर्राफ  को देखा जा सकता है . इसलिए किसी  भी राष्ट्राध्यक्ष को अमरीका से दोस्ती करने में बहुत संभल कर रहना चाहिए .


बहरहाल  अमरीका से भारत के रिश्ते सुधारने की कोशिश चल रही है. लेकिन ज़रूरी यह है कि इस बात की जानकारी रखी जाय कि अमरीका कभी भी भारत के बुरे वक़्त में काम नहीं आया है . भारत के ऊपर जब १९६२ में चीन का हमला हुआ था तो वह नवस्वतंत्र भारत के लिए सबसे बड़ी मुसीबत थी . उस वक़्त के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने अमरीका से मदद माँगी भी थी लेकिन अमरीकी राष्ट्रपति जॉन केनेडी ने कोई भी सहारा नहीं दिया और नेहरू की चिट्ठियों का जवाब तक नहीं दिया था . इसके बाद इंदिरा गाँधी के प्रधान मंत्री बनने के बाद लिंडन जॉनसन ने भारत का अमरीकी कूटनीति के हित में इस्तेमाल करने की कोशिश की थी लेकिन इंदिरा गाँधी ने अपने राष्ट्रहित को महत्व दिया और अमरीका के हित से ज्यादा महत्व अपने हित को दिया और गुट निरपेक्ष आन्दोलन की नेता के रूप में भारत की इज़्ज़त बढ़ाई . हालांकि अमरीका की यह हमेशा से कोशिश रही है कि वह एशिया की राजनीति में भारत का इस्तेमाल अमरीकी हित साधना के लिए करे लेकिन भारतीय विदेशनीति के नियामक अमरीकी राष्ट्रहित के प्रोजेक्ट में अपने आप को पुर्जा बनाने को तैयार नहीं थे . यह अलग बात है कि भारत के सत्ता प्रतिष्टान में ऐसे लोगों का एक वर्ग हमेशा से ही सक्रिय रहा है जो अमरीका की शरण में जाने के लिए व्याकुल रहा करता था. पी वी नरसिम्हा राव की सरकार आने के पहले तक इस वर्ग की कुछ चल नहीं पायी. नरसिम्हा राव की सरकार आने के बाद हालात बदल गए थे. सोवियत रूस का विघटन हो चुका था और अमरीका अकेला सुपरपावर रह गया . ऐसी स्थिति में भारतीय राजनीति और नौकरशाही में जमी हुई अमरीकी लॉबी ने काम करना शुरू किया और भारत को अमरीकी हितों के लिए आगे बढ़ाना शुरू कर दिया . जब अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में जसवंत सिंह विदेशमंत्री बने तो अमरीकी विदेश विभाग के लोगों से उन्होंने बिलकुल घरेलू सम्बन्ध बना लिए . डॉ मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्री पद पर विराजमान होने के बाद तो अमरीका से घनिष्ठ आर्थिक  सम्बन्ध बन गए थे.  एशिया में बढ़ते हुए चीन के प्रभाव को कम करना अमरीकी विदेशनीति का अहम हिस्सा है और इस मकसद को हासिल करने के लिए वह भारत का इस्तेमाल कर रहा है .हालांकि चीन को बैलेंस करना भारत के हित में भी है लेकिन यह भी ध्यान रखने की ज़रुरत है कि कहीं भारत के राष्ट्रहित को अमरीकी फायदे के लिए कुरबान न करना पड़े.

पिछले सत्तर वर्षों के इतिहास पर नज़र डालें तो समझ में आ जाएगा कि अमरीका ने भारत को हमेशा की नीचा दिखाने की कोशिश की है . १९४८ में जब कश्मीर मामला संयुक्तराष्ट्र में गया था तो तेज़ी से सुपर पावर बन रहे अमरीका ने भारत के खिलाफ काम किया था . १९६५ में जब कश्मीर में घुसपैठ कराके उस वक़्त के पाकिस्तानी तानाशाह , जनरल अय्यूब ने भारत पर हमला किया था तो उनकी सेना के पास जो भी हथियार थे सब अमरीका ने ही उपलब्ध करवाया था . उस लड़ाई में जिन पैटन टैंकों को भारतीय सेना ने रौंदा था, वे सभी अमरीका की खैरात के रूप में पाकिस्तान की झोली में आये थे. पाकिस्तानी सेना के हार जाने के बाद अमरीका ने भारत पर दबाव बनाया था कि वह अपने कब्जे वाले पाकिस्तानी इलाकों को छोड़ दे . १९७१ की बंगलादेश की मुक्ति की लड़ाई में भी अमरीकी राष्ट्रपति निक्सन ने पाकिस्तानी तानाशाह याहया खां के बड़े भाई के रूप में काम किया था .उस वक़्त के अमरीकी विदेशमंत्री हेनरी कीसिंजर ने उस दौर में पाकिस्तान की तरफ से पूरी दुनिया में पैरवी की थी. संयुक्त राष्ट्र में भी भारत के खिलाफ काम किया था . जब भी भारत ने परमाणु परीक्षण किया अमरीका को तकलीफ हुई . भारत ने बार बार पूरी दुनिया से अपील की कि बिजली पैदा करने के लिए उसे परमाणु शक्ति का विकास करने दिया जाय लेकिन अमरीका ने शान्ति पूर्ण परमाणु के प्रयोग की कोशिश के बाद भारत के ऊपर तरह तरह की पाबंदियां लगाईं. उसकी हमेशा कोशिश रही कि वह भारत और पाकिस्तान को बराबर की हैसियत वाला मुल्क बना कर रखे लेकिन ऐसा करने में वह सफल नहीं रहा .आज भारत के जिन इलाकों में भी अशांति है , वह सब अमरीकी दखलंदाजी की वजह से ही है . कश्मीर में जो कुछ भी पाकिस्तान कर रहा है उसके पीछे पूरी तरह से अमरीका का पैसा लगा है . पंजाब में भी आतंकवाद पाकिस्तानी फौज की कृपा से ही शुरू हुआ था . पूर्वोत्तर भारत में जो आतंकवादी पाकिस्तान की कृपा से सक्रिय हैं , उन सबको को पाकिस्तान उसी पैसे से मदद करता  था  जो उसे अमरीका से अफगानिस्तान में काम करने के लिए मिलता था . ऐसी हालत में अमरीका से बहुत ज्यादा दोस्ती कायम करने के पहले मौजूदा हुक्मरान को पिछले साठ वर्षों के इतिहास पर नज़र डाल लेनी चाहिए . और अमरीका से दोस्ती की पींग बढाने के पहले यह जान लेना चाहिए कि जो अमरीका भारत के बुरे वक़्त में काम कभी नहीं आया . इसलिए अमरीका की दोस्ती को एक बार फिर से समझ लेने की ज़रूरत है .