Wednesday, December 26, 2012

उत्तर प्रदेश में प्रमोशन में आरक्षण और कैश सब्सिडी के इर्द गिर्द होगी २०१४ की लड़ाई




शेष नारायण सिंह 

२०१४ के चुनावों की तैयारियां हर राजनीतिक पार्टी पूरी शिद्दत से कर रही है .लोकसभा के पिछले सत्र में सरकारी नौकरियों में प्रमोशन में आरक्षण की बात को ज़ोरदार तरीके से उठाकर  बहुजन समाज पार्टी की अध्यक्ष मायावती ने यह संकेत दे दिया था .वे अपने घोर समर्थकों की पक्षधरता की राजनीति कर रही थीं जो लोकतंत्र में हर तरह से जायज़ है. इस सत्र में उन्होंने उसे पास भी करवा लिया .उनके इस क़दम से साफ़ लगता है कि वे पूरे देश में अनुसूचित जातियों और जनजातियों की नेता बनना चाहती हैं . हालांकि पूरे देश में उनको अनुसूचित जातियों और जनजातियों  के नेता के रूप में स्वीकार किया जाता है लेकिन उत्तर प्रदेश के बाहर वे एक राजनीतिक शक्ति के रूप में स्थापित नहीं हो सकी हैं . जहां तक उत्तर प्रदेश का सवाल है ,वहाँ मायावती को नज़र अंदाज़ कर पाना मुश्किल है . वे  हर क्षेत्र में १५ से २५ प्रतिशत के बीच वोट पर लगभग पूरी तरह से काबिज हैं. लेकिन  उनके कोर समर्थकों यानी अनुसूचित जातियों और जनजातियों की संख्या उत्तर प्रदेश के किसी एक जिले में ऐसी नहीं है कि उन्हें कोई सीट दिला सके. विधानसभा या लोकसभा में कोई सीट जीतने के लिए मायावती और बहुजन समाज पार्टी के लिए ज़रूरी है कि वे अनुसूचित जातियों और जनजातियों  के साथ किसी अन्य जाति का समर्थन हासिल करें  . इसी राजनीतिक रणनीति के तहत २००७ के चुनावोंमें मायावती ने विधानसभा में स्पष्ट  बहुमत हासिल किया था और पांच साल तक निर्बाध तरीके से राज किया था . उत्तर प्रदेश में कभी बीजेपी और कांग्रेस की समर्थक रही एक खास जाति के वोटों को अपनी तरफ  खींचने में मायावती सफल हो गयी थीं .अनुसूचित जातियों और जनजातियों  के साथ जब ब्राह्मण मिल गए तो चुनाव जीतने लायक समूह तैयार हो गया. इसके साथ उम्मीदवार की जाति भी मिल गयी और उत्तर प्रदेश में मायावती को बहुमत दिलवा दिया . २०१२ में उनकी पार्टी विधान सभा चुनाव हार गयी लेकिन जातियों का यह  गठबंधन उनके साथ था और राजनीतिक हल्कों में उम्मीद की जा रही थी कि  जिस तरह से  उत्तर प्रदेश की मौजूदा सरकार काम कर रही है ,उसी तरह काम करती रही तो २०१४ में समाजवादी पार्टी को वे फिर पटखनी दे देगीं . लेकिन अब पांसा पलट गया है . मायावाती ने अनुसूचित जातियों और जनजातियों  के बीच अपनी नेतागीरी को पुख्ता करने के लिए प्रमोशन  में आरक्षण को राज्यसभा में इतने  ज़बरदस्त तरीके से उछाल दिया कि अब वे शुद्ध रूप से दलितों की नेता के रूप में स्थापित हो चुकी हैं . उत्तर प्रदेश में  दलितों के बाद उनके सबसे बड़े समर्थक वोट बैंक ने उनके खिलाफ मोर्चा खोल रखा है . जिस दिन से राज्यसभा में दलितों को  प्रमोशन में आरक्षण देने वाला संविधान संशोधन विधेयक पास हुआ है उसी दिन से उत्तर प्रदेश में सरकारी कर्मचारियों की  हड़ताल है . राज्य के १८ लाख कर्मचारी मायावती, बीजेपी और कांग्रेस के  खिलाफ लामबंद हैं और सडकों पर जुलूस निकाल रहे हैं , प्रदर्शन कर रहे हैं और समाजवादी पार्टी के साथ एकजुट हो रहे  हैं . यहाँ यह समझ लेना बहुत ज़रूरी है कि १८ लाख कर्मचारी केवल १८ लाख वोट नहीं हैं . अगर एक परिवार में १० व्यक्ति शामिल कर लिए जाएँ तो करीब २ करोड वोटर तो सीधे तौर पर मायावती, बीजेपी और कांग्रेस के  खिलाफ  इकट्ठा हो चुके हैं और वे मुलायम सिंह यादव को समर्थन दे रहे हैं .इसके अलावा उत्तर प्रदेश के हर गाँव में अधिकतर नौजवान सरकारी नौकरियों के उम्मीदवार हैं . उनको सरकारी नौकरी मिले चाहे न मिले लेकिन वे उसके बारे में पूरी तरह से जानकारी रखते हैं . राज्य में मौजूदा राजनीतिक माहौल ऐसा  है कि अनुसूचित जातियों और जनजातियों  के सभी नौजवान मायावती के साथ हैं जबकि इन  जातियों के अलावा बाकी जातियों के नौजवान और उनके परिवार मायावती के घोर विरोधी हैं . इन विरोधियों में ब्राहमण भी शामिल हैं  जो अनुसूचित जातियों और जनजातियों  के बाद  मायावती के सबसे बड़े समर्थक के रूप में पहचाने जाते हैं . उत्तर प्रदेश के सरकारी कर्मचारियों में ब्राह्मणों की  संख्या सबसे ज़्यादा है . ऐतिहासिक रूप से वे ही सरकारी नौकरियों में सबसे बड़ी संख्या में भर्ती होते रहे हैं .मंडल आयोग के पहले तो यह संख्या ७०  प्रतिशत के आस पास होती थी लेकिन बाद में भी यह संख्या ४० प्रतिशत  से  ज्यादा है . प्रमोशन में आरक्षण से पैदा हुई ध्रुवीकरण की राजनीति के चलते मायावती इस वर्ग का समर्थन पूरी  तरह से खो चुकी हैं .


अगर ऐसे ही चलता रहता तो इस बात की पूरी संभावना थी कि उत्तर प्रदेश का राजनीतिक गणित  बिलकुल बदल जाता लेकिन अपने लिए बढ़ रहे समर्थन के तूफ़ान के बावजूद समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव ने आबादी के अनुपात में मुसलमानों के आरक्षण की बात को राजनीतिक बहस के दायरे में ला दिया . उन्होंने मांग कर दी  कि मुसलमानों को सरकारी  नौकरियों में   आबादी के हिसाब से आरक्षण दिया जाए. जानकार बताते हैं कि मुलायम सिंह यादव का यह क़दम राजनीतिक रूप से उन्हें नुक्सान पंहुचा सकता   है . उनका यह एक क़दम राजनीतिक पहल को बीजेपी के पाले में फेंक देने की क्षमता रखता है .  बीजेपी किसी भी घटना को साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण के औज़ार के रूप में इस्तेमाल करने की कला में निष्णात है . उनकी इस क्षमता का सबसे महत्वपूर्ण उदाहरण गुजरात में पिछले दस वर्षों से हो रहे  चुनाव हैं . २००२ में गोधरा में ट्रेन के एक डिब्बे में मारे  गए  लोगों की दुर्भाग्यपूर्ण मौत के बाद  हुए मुसलमानों के क़त्ले आम के तमगे के साथ नरेंद्र मोदी ने गुजरात  का चुनाव जीत लिया  था. २००७ के चुनाव में भी जब उन्हें सोनिया गांधी के एक भाषण में मौत का सौदागर कह दिया गया तो मोदी ने चुनाव को साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण की पिच पर ला दिया और चुनाव जीत  गए. इस बार कांग्रेस ने उनको कोई अवसर नहीं दिया कि वे चुनाव को साम्प्रदायिक रंग में  पेश कर सकें .नरेंद्र मोदी ने  विकास की बात की तो उसी पिच पर उनेक विरोधियों ने उनको घेर दिया और साबित हो गया कि गुजरात के विकास में मोदी  का कोई खास योगदान  नहीं  है . गुजरात तो पहले से ही विकसित राज्य था.गुजरात से बेहतर विकास वाले राज्य भी हैं .गुजरात चुनाव को कांग्रेस ने इस तरीके से लड़ा कि मोदी की साम्प्रदायिक राजनीति को  बैकफुट पर जाना पड़ा .लेकिन उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव ने मुसलमानों के लिए आरक्षण मांगकर बीजेपी को एक मौक़ा दे दिया है . खासतौर से जब सरकारी नौकरियों के प्रमोशन में आरक्षण की राजनीति  में बीजेपी कांग्रेस के साथ खड़ी पायी गयी है और राज्य  कर्मचारी उसके खिलाफ हैं . पिछले २५ वर्षों की उत्तर प्रदेश की  राजनीति  का कोई भी जानकार बता देगा कि इस राज्य में अगर साम्प्रदायिक मुद्दे राजनीति को बहुत ज्यादा प्रभावित करते रहे हैं .बीजेपी के खिलाफ जिस तरह से राज्य कर्मचारियों के बीच गुस्सा है ,उसके दफ्तर पर पत्थर फेंके जा रहे हैं,उसके नेताओं के पुतले जलाए जा रहे हैं और वह  पूरी तरह से घिर चुकी है .ऐसी हालत में बीजेपी इस अहम विषय से ध्यान हटाने के लिए आगामी चुनाव को साम्प्रदायिक बना सकती है .और राज्य की सत्ताधारी पार्टी को केवल मुसलमानों का शुभचिंतक  साबित करना एक उपयोगी रणनीति हो सकती है .समझ में नहीं आता कि अपने पक्ष में उठ रहे राजनीतिक तूफ़ान के बीच मुलायम सिंह यादव ने मुसलमानों के आरक्षण जैसी बात क्यों की. खास तौर पर जबकि राज्य के मुसलमान पूरी तरह से उनके साथ हैं . उनके इस एक राजनीतिक क़दम के कारण बीजेपी फिर से चुनावी मैदान में वापसी कर  सकती है और  लोकसभा २०१४ त्रिकोणीय हो सकता है . सबको मालूम है कि बीजेपी उत्तर प्रदेश में चुनाव को बाबरी मसजिद की यादों की पिच पर लड़ना चाहती है .वह कल्याण सिंह को अपने साथ ले रही है , उमा  भारती विधानसभा  चुनाव में खास भूमिका अदा कर चुकी हैं . पूरी संभावना है कि वे इस बार भी चुनाव प्रचार की मुख्यधारा में रहेगीं .  मुसलमानों के खिलाफ दुश्मनी के नए सिम्बल वरुण गांधी भी चुनावों में खास भूमिका की तैयारी में हैं .  वे अमेठी की पड़ोसी सीट सुल्तानपुर से उम्मीदवार बनने की कोशिश कर रहे हैं . बाबरी मसजिद के विध्वंस के बाद से ही यह सीट  हिंदुत्व की राजनीति करने वालों की प्रिय सीट रही है. इसके अलावा राज्य की राजनीतिक हवा में वाराणसी से नरेंद्र मोदी को चुनाव लड़ाने की बात भी कभी कभी उछाली  जा रही है . ज़ाहिर है कि चुनाव को साम्प्रदायक बनाया जा सकता है . मुलायम सिंह यादव और उनकी पार्टी को प्रमोशन में आरक्षण के उनके रुख के बाद लाभ मिला है . अगर यही माहौल बना रहा तो वे लोकसभा २०१४  में बहुत  मज़बूत हो जायेगे . लेकिन अगर चुनाव साम्प्रदायिक हो गया तो उनका नुक्सान हो जाएगा. वैसे भी उत्तर प्रदेश में मुसलमान पूरी तरह से उनके साथ है . तो मुसलमानों के आरक्षण की बात को  उठाकर पता नहीं क्यों वे पहल साम्प्रदायिक ताक़तों के हाथ में देना चाहते हैं. 

 उत्तर प्रदेश की राजनीति के हाशिए पर चली गयी कांग्रेस भी इस बार राज्य में अपनी मौजूदगी को सुनिश्चित करने का मन बना लिया है .  सरकारी  नौकरियों में प्रमोशन में आरक्षण को लागू करने की अपनी राजनीति  के चलते वह राज्य की एक बड़ी आबादी का कोपभाजन बन चुकी है लेकिन एक राजनीतिक पार्टी होने के कारण वह अन्य  राजनीतिक पहल के ज़रिये उत्तर प्रदेश के खेल में शामिल होना चाहती  है . इस दिशा में सब्सिडी को लाभार्थी के हाथ में देने की केन्द्र सरकार की योजना को कांग्रेस २०१४ के राजनीतिक हथियार के रूप में इस्तेमाल करना चाहती है .कांग्रेस ने 'आपका पैसा, आपके हाथ' का राजनीतिक नारा दिया है और 2014 के लोकसभा चुनाव के पहले इस कार्यक्रम का खूब प्रचार प्रसार करने की योजना बना ली है .राहुल  गांधी ने कैश सब्सिडी योजना लागू करने वाले 51 जिलों के पार्टी अध्‍यक्षों और युवा कांग्रेस अध्‍यक्षों के साथ बैठक की . इन जिलों में अगले साल एक जनवरी से केन्द्र सरकार की सीधा लाभ अंतरण योजना शुरू हो रही है .ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश इस कार्यक्रम के सबसे महत्वपूण  व्यक्ति हैं .उन्होंने बताया कि कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी ने 'आपका पैसा, आपके हाथ' कार्यक्रम को कांग्रेस पार्टी और सरकार की भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई का प्रभावशाली हथियार बताया और कहा कि यह सिर्फ एक योजना नहीं, बल्कि पूरी वितरण व्यवस्था में बदलाव लाने की शुरुआत है। बैठक में वित्तमंत्री पी चिदंबरम भी मौजूद थे। बैठक में राहुल ने पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी के उस बयान का भी उल्लेख किया जिसमें उन्होंने कहा था कि गरीबों के कल्याण के लिए भेजे जाने वाले एक रुपए में से सिर्फ पंद्रह पैसा गरीबों तक पहुंचता है, बाकी पैसे बिचौलिए के हाथ में चले जाते हैं। राहुल गाँधी का दावा है कि इस योजना के सफल होने पर सौ में से सौ रुपया लाभार्थी तक जरूर पहुंचेगा. हालांकि अभी इस योजना में उत्तर प्रदेश के जिले नहीं शामिल किये  गए हैं लेकिन दूसरे चरण में उत्तर प्रदेश को भी शामिल कर लिया जाएगा और २०१४ तक यह योजना उत्तर प्रदेश में पूरी ताक़त के साथ लागू की जा चुकी होगी. अभी इस योजना में ३४ तरह की आर्थिक मदद  को शामिल किया  गया है  .अभी  एलपीजी, केरोसीन और उर्वरक सब्सिडी को इसके दायरे में नहीं लाया गया है लेकिन साल भर के अंदर यानी लोकसभा २०१४ के पहले  इसे लगभग  हर सब्सिडी स्कीम पर लागू कर दिया जाएगा .फिलहाल इसमें छात्रवृति, वृद्धावस्था पेंशन, मनरेगा मजदूरी और अन्य कल्याण योजनाओं के पैसे का भुगतान होगा। 

अगर कांग्रेस की यह योजना सफल होती है तो वह भी  उत्तर प्रदेश की राजनीति में अपनी मौजूदगी को पक्के तौर पर दर्ज करवा देगी . उत्तर प्रदेश विधान सभा २०१२ के राहुल गांधी के चुनाव अभियान को जिन  लोगों ने देखा है उन्हें मालूम है कि राहुल गांधी अपने राज्य  में किसी को भी वाकओवर नहीं देगें . वे कैश सब्सिडी की योजना के साथ उत्तर प्रदेश में चुनाव की राजनीति करेगें .और कैश सब्सिडी की यह योजना उत्तर प्रदेश समेत पूरे देश में राजनीति में कांग्रेस को बढ़त दिला सकती है . ज़ाहिर है कि बाकी पार्टियों के नेताओं को कांग्रेस की इस गेमचेंजर योजना की काट तलाशनी पड़ेगी . तजुर्बा बताता है कि राजनीति में अर्थ का योगदान सबसे प्रभावी है और धर्म जाति वगैरह उस से पिछड़ जाते हैं . 

Wednesday, December 19, 2012

बाबरी मसजिद ढहाने वालों की मानसिकता से देश के सामने तबाही का खतरा बना हुआ है



शेष नारायण सिंह 

बीस साल पहले ६ दिसंबर १९९२ के दिन अयोध्या की बाबरी मसजिद को ढहा दिया  गया था . उसके सात साल पहले से उस मसजिद के नाम पर हिंदुओं को जागृत करने की कोशिश शुरू कर दी गयी थी . १९८० में आर एस एस ने तत्कालीन जनता पार्टी को इसीलिये तोडा था कि पार्टी के बड़े समाजवादी  नेता मधु लिमये ने मांग कर दी थी कि जनता पार्टी में जो लोग भी शामिल थे, वे किसी अन्य राजनीतिक संगठन में न रहें . मधु लिमये ने हमेशा यही माना कि आर एस एस एक राजनीतिक संगठन है और हिन्दू राष्ट्रवाद उसकी मूल राजनीतिक अवधारणा है . आर एस एस ने अपने लोगों को पार्टी से अलग कर लिया और भारतीय जनता पार्टी का गठन कर दिया .शुरू में इस पार्टी ने उदारतावादी राजनीतिक सोच को अपनाने की कोशिश की . दीन दयाल उपाध्याय के एकात्म मानववाद और गांधीवादी समाजवाद जैसे राजनीतिक शब्दों को अपनी बुनियादी सोच का आधार बनाने की कोशिश की . लेकिन जब १९८४ के लोकसभा चुनाव में ५४२ सीटों वाली लोकसभा में बीजेपी को केवल दो सीटें मिलीं तो उदार राजनीतिक संगठन बनने का विचार हमेशा के लिए दफन कर दिया गया . जनवरी १९८५ में कलकत्ता में आर एस एस के टाप नेताओं की बैठक हुई जिसमें अटल बिहारी वाजपेयी और लाल कृष्ण आडवाणी को भी बुलाया गया और साफ़ बता दिया गया कि अब हिन्दू राष्ट्रवाद की राजनीति को चलाया जाएगा . वहीं तय कर लिया गया कि अयोध्या की बाबरी मस्जिद को रामजन्मभूमि बता कर राजनीतिक मोबिलाइज़ेशन किया जाएगा . आर एस एस के दो संगठनों, विश्व हिन्दू परिषद् और बजरंग दल को इस प्रोजेक्ट को चलाने का जिम्मा दिया गया. विश्व हिन्दू परिषद् की स्थापना १९६६ में हो चुकी थी लेकिन वह सक्रिय नहीं था. १९८५ के बाद उसे सक्रिय किया गया और कई बार तो यह भी लगने लगा कि आर एस एस वाले बीजेपी को पीछे धकेल कर वी एच पी से ही राजनीतिक काम करवाने की सोच रहे थे . लेकिन ऐसा नहीं हुआ और चुनाव लड़ने का काम बीजेपी के जिम्मे ही रहा . १९८५ से अब तक बीजेपी हिन्दू राष्ट्रवाद की राजनीति को ही अपना स्थायी भाव मानकर चल रही है ..कांग्रेस और अन्य सेकुलर पार्टियों ने अपना राजनीतिक काम ठीक से नहीं किया  इसलिए देश में हिन्दू राष्ट्रवाद का खूब प्रचार प्रसार हो गया . जब बीजेपी ने हिन्दू राष्ट्रवाद को अपने राजनीतिक दर्शन के रूप में प्रचारित करना शुरू कर दिया तो उस विचारधारा को मानने वाले बड़ी संख्या में उसके साथ जुड़ गए .वही लोग १९९१ में अयोध्या आये थे जब उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव की सरकार थी . बाबरी मस्जिद को तबाह करने पर आमादा इन लोगों के ऊपर गोलियां भी चली थीं .वही लोग १९९२ में अयोध्या आये थे जिनकी मौजूदगी में बाबरी मस्जिद का ध्वंस हुआ , वही लोग साबरमती एक्सप्रेस में सवार थे जब गोधरा रेलवे स्टेशन पर उन्हें जिंदा जला दिया गया . . अब जब निजी बातचीत के आधार पर दुनिया को मालूम चल गया है कि बीजेपी हिन्दू राष्ट्रवाद को केवल बातचीत का प्वाइंट मानती है तो उनके परिवार वालों पर क्या गुज़र रही होगी जो हिन्दू राष्ट्रवाद के चक्कर में मारे जा चुके हैं . . सबको मालूम है हिन्दू राष्ट्रवाद की राजनीति के बल पर देश का नेतृत्व नहीं किया जा सकता . इसलिए बीजेपी के राष्ट्र को नेतृत्व देने की इच्छा रखने वाले नेताओं में अपने आपको हिन्दू राष्ट्रवाद की राजनीति से दूर रखने की प्रवृत्ति पायी जाने लगी है . इसी सोच के तहत लाल कृष्ण आडवाणी ने जिन्ना की तारीफ़ की थी.

१९९२ में जिन लोगों ने अयोध्या में एक मध्य युगीन मसजिद को ज़मींदोज़ किया था उन्होंने  उसके साथ ही बहुत कुछ ज़मींदोज़ कर दिया था .उन्होंने आज़ादी की लड़ाई की उस परंपरा को ढहा दिया था जिसे महात्मा गांधी ने आंदोलन का मकसद बताया था. दर असल  धर्म निरपेक्षता भारत की आज़ादी  के संघर्ष का इथास थी. बाबरी मसजिद के विध्वंस  के बाद मैं उन कुछ बदकिस्मत लोगों में था जिन्होंने उसके बाद की राजनीति को विकसित होते देखा था.  हिंदी मीडिया में पत्रकारों का एक बड़ा वर्ग आर एस एस की राजनीति के प्रचारक के रूप में काम कर रहा था . वे आर एस एस के मसजिद ढहाने के काम को वीरता बता रहे थे . उस वक़्त के प्रधानमंत्री पी वी नरसिम्हा राव को अर्जुन सिंह की चुनौती मिल रही थे लेकिन कुछ भी करने के पहले १०० बार सोचने के लिए विख्यात अर्जुन सिंह ने मंत्रिमंडल से इस्तीफ़ा नहीं दिया .  अटल बिहारी वाजपेयी दुखी होने का  अभिनय कर रहे तह . लाल कृष्ण आडवानी, कल्याण सिंह , उमा  भारती ,   साध्वी ऋतंभरा , अशोक सिंघल आदि जश्न मना रहे थे . कांग्रेस में हताशा का माहौल था. २४ घंटे का टेलिविज़न नहीं था. ख़बरें बहुत धीरे धीरे आ रा ही थीं लेकिन जो भी ख़बरें आ रही थीं वे अपने राष्ट्र की बुनियाद को हिला देने वालीथीं . दिल्ली में सहमत नाम की  संस्था ने कुछ बुद्धिजीवियों को इकठ्ठा करना शुरू कर दिया था . महात्मा गांधी की समाधि पर जब मदर टेरेसा  के साथ देश भर से आये धर्म निरपेक्ष लोगों ने  माथा टेका तो लगता था कि अब अपना देश तबाह होने से बच जाएगा . बिना किसी तैयारी के  शांतिप्रेमी लोग वहाँ इकठ्ठा हुए और समवेत स्वर में  रघुपति  राघव राजाराम की  टेर लगाते रहे. मेरी नज़र में महात्मा गांधी के  दर्शन की उपयोगिता का यह प्रैक्टिकल  सबूत था .  
बाबरी मसजिद को  ढहाने के बाद आर एस एस ने कट्टर हिन्दूवाद को एक राजनीतिक विचार धारा के रूपमें स्थापित कर दिया था . आर एस एस के लोग इस योजना पर बहुत पहले से  काम कर  रहे थे .दुनिया जानती है कि आज़ादी की लड़ाई में आर एस एस के लोग शामिल नहीं हुए थे .  आज़ादी  के बाद महात्मा गांधी की हत्या के बाद संघ के ऊपर प्रतिबन्ध लगा था .बाद में १९७५ में भी इन पर पाबंदी लगी थी  लेकिन इनका काम कभी रुका नहीं . आर एस  एस के लोग पूरी तरह से अपने मिशन में  लगे  रहे. डॉ  लोहिया  ने गैर कांग्रेस वाद की राजनीति के सहारे इन लोगों को राजनीतिक सम्मान  दिलवाया था. जब १९६७ में संविद सरकारों का प्रयोग हुआ तो आर एस एस  की अधीन पार्टी  भारतीय जनसंघ थी . उस पार्टी के लोग कई राज्य सरकारों में मंत्री बने . बाद में जब जनता पार्टी बनी तो जनसंघ घटक के लोग उसमें सबसे ज्यादा संख्या में थे. उसके साथ ही आर एस एस की राजनीति मुख्यधारा में आ चुकी थी . १९७७ में जब लाल कृष्ण आडवानी सूचना और प्रसारण मंत्री बने तो बड़े पैमाने पर संघ के  कार्यकर्ताओं को अखबारों में भर्ती करवाया गया . जब १९९२ में  बाबरी मसजिद को तबाह किया गया तो  उत्तर भारत के अधिकतर अखबारों में आर एस एस के लोग भरे हुए थे . उन्हीं लोगों ने ऐसा माहौल बनाया जैसे कि जैसे बाबरी मसजिद को ढहाने  वालों ने  कोई बहुत भारी वीरता का काम किया हो . कुल मिलाकर  माहौल ऐसा बन गया कि देश में धर्म निरपेक्ष होना किसी अपराध जैसा लागने लगा था.   लेकिन देश में बहुसंख्यक  हिंदू धर्म  निरपेक्ष हैं और उनको मालूम है कि धार्मिक कट्टरता से समाज में विघटन पैदा होता है, शायद इसी लिए हिंदुओं की  बहुसंख्या होने के बाद भी देश में  साम्प्रदायिक ताक़तों की हालत खराब ही रहती है . 

बाबरी मसजिद के तबाह  होने के बाद आर एस एस ने सत्ता के पास आने में सफलता तो पा ली लेकिन देश के धर्म निरपेक्ष मूल ढाँचे से छेडछाड करने की उनकी कोशिश का नतीजा ऐसा नहीं है जिससे उन्हें बहुत खुशी  हो . उनकी   विध्वंस की राजनीति ने वरुण गांधी , नरेंद्र मोदी , परवीन  तोगडिया टाइप कुछ  नेता भले  ही पैदा कर दिये  हों  लेकिन उन्हें सम्मान मिल पाना बहुत मुश्किल है .उसके लिए उन्हें  बहुत मेहनत करनी पड़ेगी . बाबरी मसजिद की तबाही की तारीख  हमें हमेशा यह भी याद दिलाती है कि महात्मा गांधी ने जिस आजादी को हमारे हवाले  किया था , हमेशा उसकी  हिफाज़त करते रहना पड़ेगा . अगर एक राष्ट्र और समाज के  रूप में हम चौकन्ना न रहे तो जिन लोगों ने बाबरी मसजिद को ज़मींदोज़ किया  था वे हमारे अंदर के तार तार को तोड़ डालेगें

Friday, December 14, 2012

नरेन्द्र मोदी ने पत्रकारों को भी डरा दिया है

शेष नारायण सिंह 


आज जब गुजरात में फिर से चुनाव हो रहे  हैं , मुझे २०१० के शुरुआती महीनों की बहुत याद आ रही है . उन दिनों मोदी और उनके समर्थकों ने प्रचार कर रखा था कि मोदी के २००२ वाले नरसंहार कार्यक्रम  को  मुसलमान भूल चुके हैं और अब मुसलमान शुद्ध रूप से मोदी के साथ हैं . मैंने गुजरात के कुछ तथ्य जुटाए और एक लेख  लिख मारा था . जून २०१० में  यह लेख ख़ासा चर्चित हुआ और कई जगह इसका उद्धरण दिया गया . गुजरात चुनाव के मौजूदा संस्करण में भी मुझे एक बात बार बार समझ में आती रही जिसे पत्रकार और  विश्लेषक  प्रदीप सौरभ ने  रखांकित कर दिया . जो भी गुजरात से वापस आ रहा है कि वह बताता है कि मोदी की हालत ठीक नहीं है . लेकिन वह अपनी बात को कुछ गोलमोल तरीके से कहता है  .प्रदीप सौरभ ने कहा कि भाई जब आप देख कर आये हैं कि मोदी की हालत खराब है तो उसको ऐलानियाँ क्यों नहीं कहते .  कई लोगों ने कहा कि बात अभी बिलकुल साफ़ नहीं है . मुझे लगता है कि नरेंद्र मोदी आतंक के तरह तरह के तरीके जानते हैं . उन्होंने आजकल पत्रकारों के वर्ग को भी आतंकित कर दिया है . देश के कुछ बड़े अखबारों के कुछ बड़े पत्रकार  मोदी या उनके चेलों की  चेलाही करते हैं और वे अपने मोदी  जी के गुणगान के कार्यक्रम के तहत माहौल बनाए  हुए हैं कि मोदी को हराया नहीं  जा सकता . नतीजा यह है कि  दिल्ली में विराजमान विश्लेषक दहशत में हैं और वही कह रहे हैं जो देश के बड़े अखबारों में छपा रहता है . इस तरह से मोदी   ने पत्रकारों के बीच जो दहशत फैला रखी है वह टेलिविज़न के स्टूडियो में साफ़ नज़र आ रही है .  सच्चाई यह  है कि मोदी अपनी  ज़िंदगी की सबसे मुश्किल राजनीतिक लड़ाई लड़  रहे हैं और उसमें उनकी जीत की  संभावना बहुत कम है . आतंक फैलाने के उनके तरीकों को समझने के लिए मैंने अपने ही एक लेख का सहारा लिया जो मुसलमानों के बीच आतंक फैलाने के  मोदी के तरीकों को  साफ़ करने के लिए मैंने लिखा था . प्रस्तुत है वही पुराना लेख .

गुजरात में एक दलित नेता और उनकी पत्नी को पकड़ लिया गया है . पुलिस की कहानी में बताया गया है कि वे दोनों नक्सलवादी हैं और उनसे राज्य के अमन चैन को ख़तरा है . शंकर नाम के यह व्यक्ति मूलतः आंध्र प्रदेश के रहने वाले हैं लेकिन अब वर्षों से गुजरात को ही अपना घर बना लिया है . गुजरात में साम्प्रदायिकता के खिलाफ जो चंद आवाजें बच गयी हैं , वे भी उसी में शामिल हैं. विरोधियों को परेशान करने की सरकारी नीति के खिलाफ वे विरोध कर रहे हैं और लोगों को एकजुट करने की कोशिश कर रहे हैं .उनकी पत्नी, हंसाबेन भी इला भट के संगठन सेवा में काम करती हैं , वे गुजराती मूल की हैं लेकिन उनको गिरफ्तार करते वक़्त पुलिस ने जो कहानी दी है ,उसके अनुसार वे अपने पति के साथ आंध्र प्रदेश से ही आई हैं और वहीं से नक्सलवाद की ट्रेनिंग लेकर आई हैं . ज़ाहिर है पुलिस ने सिविल सोसाइटी के इन कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार करने के पहले होम वर्क नहीं किया था. इसके पहले डांग्स जिले के एक मानवाधिकार कार्यकर्ता ,अविनाश कुलकर्णी को भी गिरफ्तार कर लिया गया था . किसी को कुछ पता नहीं कि ऐसा क्यों हुआ लेकिन वे अभी तक जेल में ही हैं .गुजरात में सक्रिय सभी मानवाधिकार संगठनों के कार्यकर्ताओं को चुप कराने की गुजरात पुलिस की नीति पर काम शुरू हो चुका है और आने वाले वक़्त में किसी को भी नक्सलवादी बता कर धर लिया जाएगा और उसक अभी वही हाल होगा जो पिछले १० साल से गुजराती मुसलमानों का हो रहा है .नक्सलवादी बता कर किसी को पकड़ लेना बहुत आसान होता है क्योंकि किसी भी पढ़े लिखे आदमी के घर में मार्क्सवाद की एकाध किताब तो मिल ही जायेगी. और मोदी क एपुलिस वालों के लिए इतना ही काफी है . वैसे भी मुसलमानों को पूरी तरह से चुप करा देने के बाद , राज्य में मोदी का विरोध करने वाले कुछ मानवाधिकार संगठन ही बचे हैं . अगर उनको भी दमन का शिकार बना कर निष्क्रिय कर दिया गया तो उनकी बिरादराना राजनीतिक पार्टी , राष्ट्रवादी सोशलिस्ट पार्टी और उसके नेता , एडोल्फ हिटलर की तरह गुजरात के मुख्यमंत्री का भी अपने राज्य में एकछत्र निरंकुश राज कायम हो जाएगा .
अहमदाबाद में जारी के बयान में मानवाधिकार संस्था,दर्शन के निदेशक हीरेन गाँधी ने कहा है कि 'गुजरात सरकार और उसकी पुलिस विरोध की हर आवाज़ को कुचल देने के उद्देश्य से मानवाधिकार संगठनो , दलितों के हितों की रक्षा के लिए काम करने वाले कार्यकर्ताओं और सिविल सोसाइटी के अन्य कार्यकर्ताओं को नक्सलवादी बताकर पकड़ रही है ' लेकिन विरोध के स्वर भी अभी दबने वाले नहीं है . शहर के एक मोहल्ले गोमतीपुर में पुलिस का सबसे ज़्यादा आतंक है, . वहां के लोगों ने तय किया है कि अपने घरों के सामने बोर्ड लगा देंगें जिसमें लिखा होगा कि उस घर में रहने वाले लोग नक्सलवादी हैं और पुलिस के सामने ऐसी हालात पैदा की जायेगीं कि वे लोगों को गिरफ्तार करें . ज़ाहिर है इस तरीके से जेलों में ज्यादा से ज्यादा लोग बंद होंगें और मोदी की दमनकारी नीतियों को राष्ट्रीय बहस का मुद्दा बनाया जाएगा.वैसे भी अगर सभ्य समाज के लोग बर्बरता के खिलाफ लामबंद नहीं हुए तो बहुत देर हो चुकी होगी और कम से कम गुजरात में तो हिटलरी जनतंत्र का स्वाद जनता को चखना ही पड़ जाएगा.

वैसे गुजरात में अब मुसलमानों में कोई अशांति नहीं है , सब अमन चैन से हैं . गुजरात के कई मुसलमानों से सूरत और वड़ोदरा में बात करने का मौक़ा लगा . सब ने बताया कि अब बिलकुल शान्ति है , कहीं किसी तरह के दंगे की कोई आशंका नहीं है . उन लोगों का कहना था कि शान्ति के माहौल में कारोबार भी ठीक तरह से होता है और आर्थिक सुरक्षा के बाद ही बाकी सुरक्षा आती है.बड़ा अच्छा लगा कि चलो १० साल बाद गुजरात में ऐसी शान्ति आई है .लेकिन कुछ देर बाद पता चला कि जो कुछ मैं सुन रहा था वह सच्चाई नहीं थी. वही लोग जो ग्रुप में अच्छी अच्छी बातें कर रहे थे , जब अलग से मिले तो बताया कि हालात बहुत खराब हैं . गुजरात में मुसलमान का जिंदा रहना उतना ही मुश्किल है जितना कि पाकिस्तान में हिन्दू का . गुजरात के शहरों के ज़्यादातर मुहल्लों में पुलिस ने कुछ मुसलमानों को मुखबिर बना रखा है , पता नहीं चलता कि कौन मुखबिर है और कौन नहीं है . अगर पुलिस या सरकार के खिलाफ कहीं कुछ कह दिया गया तो अगले ही दिन पुलिस का अत्याचार शुरू हो जाता है. मोदी के इस आतंक को देख कर समझ में आया कि अपने राजनीतिक पूर्वजों की लाइन को कितनी खूबी से वे लागू कर रहे हैं . लेकिन यह सफलता उन्हें एक दिन में नहीं मिली . इसके लिए वे पिछले दस वर्षों से काम कर रहे हैं . गोधरा में हुए ट्रेन हादसे के बहाने मुसलमानों को हलाल करना इसी रणनीति का हिस्सा था . उसके बाद मुसलमानों को फर्जी इनकाउंटर में मारा गया, इशरत जहां और शोहराबुद्दीन की हत्या इस योजना का उदाहरण है . उसके बाद मुस्लिम बस्तियों में उन लड़कों को पकड़ लिया जाता था जिनके ऊपर कभी कोई मामूली आपराधिक मामला दर्ज किया गया हो . पाकेटमारी, दफा १५१ , चोरी आदि अपराधों के रिकार्ड वाले लोगों को पुलिस वाले पकड़ कर ले जाते थे , उन्हें गिरफ्तार नहीं दिखाते थे, किसी प्राइवेट फार्म हाउस में ले जा कर प्रताड़ित करते थे और अपंग बनाकर उनके मुहल्लों में छोड़ देते थे . पड़ोसियों में दहशत फैल जाती थी और मुसलमानों को चुप रहने के लिए बहाना मिल जाता था .लोग कहते थे कि हमारा बच्चा तो कभी किसी केस में पकड़ा नहीं गया इसलिए उसे कोई ख़तरा नहीं था . ज़ाहिर है इन लोगों ने अपने पड़ोसियों की मदद नहीं की ..इसके बाद पुलिस ने अपने खेल का नया चरण शुरू किया . इस चरण में मुस्लिम मुहल्लों से उन लड़कों को पकड़ा जाता था जिनके खिलाफ कभी कोई मामला न दर्ज किया गया हो . उनको भी उसी तरह से प्रताड़ित करके छोड़ दिया जाता था . इस अभियान की सफलता के बाद राज्य के मुसलमानों में पूरी तरह से दहशत पैदा की जा सकी. और अब गुजरात का कोई मुसलमान मोदी या उनकी सरकार के खिलाफ नहीं बोलता ..डर के मारे सभी नरेन्द्र मोदी की जय जयकार कर रहे हैं. अब राज्य में विरोध का स्वर कहीं नहीं है . कांग्रेस नाम की पार्टी के लोग पहले से ही निष्क्रिय हैं . वैसे उनके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं होती क्योंकि विपक्ष का अभिनय करने के लिए उनकी ज़रूरत है .यह मानवाधिकार संगठन वाले आज के मोदी के लिए एक मामूली चुनौती हैं और अब उनको भी नक्सलवादी बताकर दुरुस्त कर दिया जाएगा. फिर मोदी को किसी से कोई ख़तरा नहीं रह जाएगा. हमारी राजनीति और लोकशाही के लिए यह बहुत ही खतरनाक संकेत हैं क्योंकि मोदी की मौजूदा पार्टी बी जे पी ने अपने बाकी मुख्यमंत्रियों को भी सलाह दी है कि नरेन्द्र मोदी की तरह ही राज काज चलाना उनके हित में होगा


Wednesday, December 5, 2012

अम्बेडकर जाति संस्था को खत्म करना चाहते थे,मायावती उसे जिंदा रखना चाहती हैं .



 शेष नारायण सिंह

डा.अंबेडकर के  निर्वाण दिवस के मौके पर उनको याद किया जाएगा. इस अवसर पर ज़रूरी है कि उनकी सोच और दर्शन के सबसे अहम पहलू पर गौर किया जाए. सब को मालूम है कि डा. अंबेडकर के दर्शन ने २० वीं सदी के भारत के राजनीतिक आचरण को बहुत ज्यादा प्रभावित किया था . लेकिन उनके दर्शन की सबसे ख़ास बात पर जानकारी की भारी कमी है. यह बात कई बार कही जा चुकी है कि उनके नाम पर राजनीति करने वालों को इतना तो मालूम है कि बाबा साहेब जाति व्यवस्था के खिलाफ थे लेकिन बाकी चीजों पर ज़्यादातर लोग अन्धकार में हैं. उन्हीं कुछ बातों का ज़िक्र करना आज के दिन सही रहेगा. डा. अंबेडकर को इतिहास एक ऐसे राजनीतिक चिन्तक के रूप में याद रखेगा जिन्होंने जाति के विनाश को सामाजिक ,आर्थिक और राजनीतिक परिवर्तन की बुनियाद माना था. यह बात किसी से छुपी नहीं है कि उनकी राजनीतिक विरासत का सबसे ज्यादा फायदा उठाने वाली पार्टी की नेता, आज जाति की संस्था को संभाल कर रखना चाहती हैं ,उसके विनाश में उनकी कोई रूचि नहीं है . वोट बैंक राजनीति के चक्कर में पड़ गयी अंबेडकरवादी पार्टियों को अब वास्तव में इस बात की चिंता सताने लगी है कि अगर जाति का विनाश हो जाएगा तो उनकी वोट बैंक की राजनीति का क्या होगा. डा अंबेडकर की राजनीतिक सोच को लेकर कुछ और भ्रांतियां भी हैं . कांशीराम और मायावती ने इस क़दर प्रचार कर रखा है कि जाति की पूरी व्यवस्था का ज़हर मनु ने ही फैलाया था, वही इसके संस्थापक थे और मनु की सोच को ख़त्म कर देने मात्र से सब ठीक हो जाएगा. लेकिन बाबा साहेब ऐसा नहीं मानते थे . उनके एक बहुचर्चित, और अकादमिक भाषण के हवाले से कहा जा सकता है कि जाति व्यवस्था की सारी बुराइयों को लिए मनु को ही ज़िम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता .मनु के बारे में उन्होंने कहा कि अगर कभी मनु रहे भी होंगें तो बहुत ही हिम्मती रहे होंगें . डा. अंबेडकर का कहना है कि ऐसा कभी नहीं होता कि जाति जैसा शिकंजा कोई एक व्यक्ति बना दे और बाकी पूरा समाज उसको स्वीकार कर ले. उनके अनुसार इस बात की कल्पना करना भी बेमतलब है कि कोई एक आदमी कानून बना देगा और पीढियां दर पीढियां उसको मानती रहेंगीं. . हाँ इस बात की कल्पना की जा सकती है कि मनु नाम के कोई तानाशाह रहे होंगें जिनकी ताक़त के नीचे पूरी आबादी दबी रही होगी और वे जो कह देंगे ,उसे सब मान लेंगें और उन लोगों की आने वाली नस्लें भी उसे मानती रहेंगी.उन्होंने कहा कि , मैं इस बात को जोर दे कर कहना चाहता हूँ कि मनु ने जाति की व्यवस्था की स्थापना नहीं की क्योंकि यह उनके बस की बात नहीं था. . मनु के जन्म के पहले भी जाति की व्यवस्था कायम थी. . मनु का योगदान बस इतना है कि उन्होंने इसे एक दार्शनिक आधार दिया. . जहां तक हिन्दू समाज के स्वरुप और उसमें जाति के मह्त्व की बात है, वह मनु की हैसियत के बाहर था और उन्होंने वर्तमान हिन्दू समाज की दिशा तय करने में कोई भूमिका नहीं निभाई. उनका योगदान बस इतना ही है उन्होंने जाति को एक धर्म के रूप में स्थापित करने की कोशिश की . जाति का दायरा इतना बड़ा है कि उसे एक आदमी, चाहे वह जितना ही बड़ा ज्ञाता या शातिर हो, संभाल ही नहीं सकता. . इसी तरह से यह कहना भी ठीक नहीं होगा कि ब्राह्मणों ने जाति की संस्था की स्थापना की. मेरा मानना है कि ब्राह्मणों ने बहुत सारे गलत काम किये हैं लेकिन उनकी औक़ात यह कभी नहीं थी कि वे पूरे समाज पर जाति व्यवस्था को थोप सकते. . हिन्दू समाज में यह धारणा आम है कि के जाति की संस्था का आविष्कार शास्त्रों ने किया और शास्त्र तो कभी गलत हो नहीं सकते. बाबा साहेब ने अपने इसी भाषण में एक चेतावनी और दी थी कि उपदेश देने से जाति की स्थापना नहीं हुई थी और इसको ख़त्म भी उपदेश के ज़रिये नहीं किया जा सकता.. यहाँ यह भी स्पष्ट कर देना ज़रूरी है अपने इन विचारों के बावजूद भी , डा अंबेडकर ने समाज सुधारकों के खिलाफ कोई बात नहीं कही. ज्योतिबा फुले का वे हमेशा सम्मान करते रहे. . हाँ उन्हें यह पूरा विश्वास था कि जाति प्रथा को किसी महापुरुष से जोड़ कर उसकी तार्किक परिणति तक नहीं ले जाया जा सकता.

डा अंबेडकर के अनुसार हर समाज का वर्गीकरण और उप वर्गीकरण होता है लेकिन परेशानी की बात यह है कि इस वर्गीकरण के चलते वह ऐसे सांचों में फिट हो जाता है कि एक दूसरे वर्ग के लोग इसमें न अन्दर जा सकते हैं और न बाहर आ सकते हैं . यही जाति का शिकंजा है और इसे ख़त्म किये बिना कोई तरक्की नहीं हो सकती. सच्ची बात यह है कि शुरू में अन्य समाजों की तरह हिन्दू समाज भी चार वर्गों में बंटा हुआ था . ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र . यह वर्गीकरण मूल रूप से जन्म के आधार पर नहीं था, यह कर्म के आधार पर था .एक वर्ग से दूसरे वर्ग में आवाजाही थी लेकिन हज़ारों वर्षों की निहित स्वार्थों कोशिश के बाद इसे जन्म के आधार पर कर दिया गया और एक दूसरे वर्ग में आने जाने की रीति ख़त्म हो गयी. और यही जाति की संस्था के रूप में बाद के युगों में पहचाना जाने लगा. . अगर आर्थिक विकास की गति को तेज़ किया जाय और उसमें सार्थक हस्तक्षेप करके कामकाज के बेहतर अवसर उपलब्ध कराये जाएँ तो जाति व्यवस्था को जिंदा रख पाना बहुत ही मुश्किल होगा. और जाति के सिद्धांत पर आधारित व्यवस्था का बच पाना बहुत ही मुश्किल होगा.. अगर ऐसा हुआ तो जाति के विनाश के ज्योतिब फुले, डा. राम मनोहर लोहिया और डा. अम्बेडकर की राजनीतिक और सामाजिक सोच और दर्शन का मकसद हासिल किया जा सकेगा.

तालाबों के मरम्मत की केन्द्र सरकार की योजना को नज़रअंदाज़ कर रहे हैं अफसर




शेष नारायण सिंह 

नयी दिल्ली, ३० नवम्बर। पंद्रहवीं लोकसभा की जल  संसाधन मंत्रालय से संबद्ध स्थाई समिति की सोलहवीं रिपोर्ट संसद के दोनों सदनों में २७ नवंबर को पेश कर दी गयी.रिपोर्ट को देखने से साफ़ पता चलता  है कि जल संकट की तरफ बढ़ रहे देश में इतनी महत्वपूर्ण योजना नौकरशाही की मनमानी का शिकार हो रही है . देश भर में फैले तालाबों की मरम्मत, नवीनीकरण और  जीर्णोद्धार के लिए केन्द्र सरकार की एक बहुत   ही महत्वपूर्ण योजना को सरकारी अफसरों के गैर ज़िम्मेदार रवैय्ये के कारण सफल नहीं हो रही है .अपनी कालजयी किताब ," आज भी खरे हैं तालाब " में अनुपम मिश्र ने लिखा है कि 'पानी का प्रबंध उसकी चिंता हमारे समाज के कर्तव्य बोद्ध के विशाल सागर की एक  बूँद थी. सागर और बूँद एक दूसरे से जुड़े थे .' लेकिन आज हमें यह देखने को मिल  रहा  है कि सरकार के स्तर पर तो कोशिश  हो रही है लेकिन अफसर उसे गडबड कर रहे हैं .

देश भर में फैले तालाबों , बावलियों और पोखरों की 2000-2001 में गिनती की गयी थी। सरकारी आंकड़ों के हिसाब से देश में इस तरह के जलाशयों की संख्या  साढ़े पांच लाख से ज्यादा है . इसमें से करीब 4 लाख 70 हज़ार जलाशय किसी न किसी रूप में इस्तेमाल हो रहे हैं .जबकि करीब 15 प्रतिशत बेकार पड़े हैं . दसवीं पञ्च वर्षीय योजना के दौरान 2005  में केंद्र सरकार ने एक स्कीम शुरू करने की योजना बनायी  जिसके तहत इन जलाशयों  की मरम्मत , नवीकरण और जीर्णोद्धार ( आर आर आर ) का काम शुरू किया जान था . ग्यारहवीं योजना में काम शुरू भी हो गया .इसके अधीन केंद्र सरकार ने राज्य सरकारों के  ज़रिये इस योजना को लागू करने की योजना बनायी . कुछ धन केंद्र सरकार की तरफ  से जाना था जबकि विश्व बैंक जैसी संस्थाओं से भी कुछ धन आना था। इस योजना का लक्ष्य इन जलाशयों की क्षमता बढ़ाना और सामुदायिक  स्तर  पर  बुनियादी ढाँचे का विकास करना था . गाँव  ,ब्लाक, जिला और राज्य स्तर पर योजना को लागू किया  गया है । हर स्तर  पर टेक्नीकल एडवाइज़री कमेटी का   गठन किया जाना था . सेन्ट्रल वाटर कमीशन और  सेन्ट्रल ग्राउंड वाटर बोर्ड को इस योजना को तकनीकी सहयोग देने के   ज़िम्मा दिया गया .  जल संसाधन मंत्रालय इस योजना को केंद्र सरकार के स्तर पर मानिटर करता है .

यह योजना बहुत ही महत्वाकांक्षी है . और इस बात को सुनिश्चित करने का एक प्रयास है कि आने वाले दिनों में देश में जल की कमी एक भयावह समस्या का रूप ने ले ले। सरकार की तरफ से कोशिश यह भी  की गयी  कि  मनरेगा  जैसी अन्य स्कीमों से इसको मिलाकर अधिकतम और अच्छे नतीजे हासिल किये जा सकें . लेकिन संसद में रखी गयी इस विषय पर बनी स्थायी समिति की रिपोर्ट  में लिखा  है कि इस दिशा में उम्मीद के मुताबिक कुछ भी नहीं हुआ है।सबसे तकलीफ की बात यह है कि  इस योजना को लागू  करने का जिन सरकारी महकमों को  ज़िम्मा दिया  गया था वे सभी लापरवाह हैं .कमेटी ने अपनी नाराज़गी इस बात पर जताई है  कि  ज़रूरी स्कीमें ही नहीं बनायी जा सकीं।इस स्कीम की  पाइलट प्रोजेक्ट के तहत  शुरू में 3341 जलाशयों को  चुना गया था लेकिन  कमेटी को बताया गया कि सितम्बर 2012 तक केवल 1481 जलाशय की ठीक किये जा सके। इस योजना के लिए जो धन आवंटित किया गया है वह भी इस्तेमाल नहीं हो रहा है .कमेटी ने सुझाव दिया है कि आर आर आर स्कीम की सफलता के लिए पंचायतों को  भी शामिल किया जाए. इस काम में केंद्रीय जन संसाधन मंत्रालय का बहुत भारी योगदान है . मंत्रालय को चाहिए कि धन का आवंटन करके ही अपने काम  की इतिश्री न समझ लें .  अभी व्यवस्था यह है कि  राज्य सरकारों को कम्पलीशन सार्टिफिकेट दाखिल करने पर अगली  किश्त दी जाती है . ज़रूरत इस बात की है कि मंत्रालय राज्य सरकारों से बाकायदा प्रोग्रेस रिपोर्ट मंगवाए और काम पर नज़र रखने के लिए अफसर तैनात करे.

आर आर आर स्कीमों पर तकनीकी नज़र रखने का काम अभी केन्द्र सरकार की कंपनी वाटर एंड पावर कंसल्टेंसी सर्विसेज लिमिटेड ( वाप्कोस) के ज़िम्मे किया गया है .अभी वाप्कोस को फंड तब रिलीज़ किया जाता है जब राज्य सरकारें प्रोजेक्ट का मूल्यांकन कर लेती हैं . कमेटी का सुझाव है कि मंत्रालय को राज्य सरकारों से बात करके ऐसी व्यवस्था करनी चाहिए जिस से वाप्कोस को फंड समय से दिया जा सके.कमेटी ने पाया है कि एक बार प्रोजेट शुरू हो जाने के बाद अफसर लोग उसको देखने बहुत कम जाते हैं . अफसरों के यात्रा विवरण  कमेटी के पास उपलब्ध हैं  जिनसे पता चलता है कि केन्द्र  सर्कार के अफसर तो राज्यों के दौरे पर जाते हैं लेकिन राज्य सरकार के अफसर मौके  का निरीक्षण करने में कोताही बरत रहे हैं.इसे भी ठीक किये जाने की ज़रूरत है . कुल मिलाकर पंद्रहवीं लोकसभा की जल  संसाधन मंत्रालय से संबद्ध स्थाई समिति की सोलहवीं रिपोर्ट  से पता  चलता है कि केन्द्र सरकार की इतनी  महत्वपूर्ण स्कीम अफसरों की लापरवाही के चलते बिलकुल बेकार साबित हो  रही है.

सब्सिडी की रकम सीधे उपभोक्ता तक पंहुचाकर कांग्रेस ने गेम चेंज कर दिया है .



शेष नारायण सिंह 

एफ डी आई  के मुद्दे को यू पी ए सरकार को घेरने के लिये बीजेपी इस्तेमाल नहीं कर पायी. अब सरकार ने कह दिया है कि बहस चाहे जैसे करवा ली जाए.यानी उसने लोकसभा में इतने वोटों का प्रबंध कर लिया है कि बीजेपी को अब सरकार को मुश्किल में डालना आसान  नहीं होगा .यू पी ए की प्रमुख सहयोगी डी एम के के आला नेता,करूणानिधि ने ऐलान कर दिया है  कि वह सरकार को मुश्किल में नहीं डालेगें . यही रुख तृणमूल कांग्रेस का भी है . वह भी सरकार को परेशानी में नहीं पड़ने देना चाहती . हालांकि तृणमूल वालों को कांग्रेस या उसके नेतृत्व से कोई मुहब्बत नहीं है. वह तो मनमोहन सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लेकर आ  गए थे . तृणमूल कांग्रेस की सुप्रीमो ममता बनर्जी ने उम्मीद की थी कि उनके अविश्वास प्रस्ताव के नोटिस को बीजेपी का समर्थन मिल जाएगा . हालांकि ऐसी कोई जानकारी नहीं है कि बीजेपी ने उनको किसी भी स्तर पर  वादा किया हो कि उनके प्रस्ताव पर समर्थन या कोई सहूलियत दी जायेगी .  लेकिन ममता बनर्जी ने बीजेपी से उम्मीद लगा रखी थी कि बीजेपी वाले यू पी ए सरकार को परेशान करने के लिए उनके साथ आ  जायेगें . लेकिन ऐसा नहीं हुआ.नतीजा यह हुआ कि तृणमूल कांग्रेस का अविश्वास प्रस्ताव मुंह के बल गिर पड़ा.एफ डी आई के खिलाफ होने के बावजूद भी तृणमूल कांग्रेस  आज बीजेपी के साथ दिखने के लिए तैयार नहीं है इसका कारण यह  है कि वह बीजेपी को भी मुश्किल में डालना चाहते हैं.आज का घटनाक्रम ऐसा है कि नियम १८४ के तहत जब लोकसभा में बहस होगी तो बीजेपी को कुछ  खास हासिल नहीं होगा . उसका प्रस्ताव पास नहीं हो सकेगा और सरकार  को कोई फरक नहीं पडेगा .  एक बार फिर राजनीतिक प्रबंधन में  बीजेपी को कांग्रेस ने  पिछाड दिया है . बीजेपी के प्रबंधकों में इस बात पर  चर्चा शुरू हो गयी है कि गलती कहाँ हुई. जबकि  बाकी दुनिया को मालूम है कि गलती कहाँ हुई है . जब अटल बिहारी वाजपेयी  प्रधान मंत्री थे थे तो उनके साथ बहुत सारी पार्टियां हुआ करती  थीं लेकिन आज बात  बिलकुल अलग है. एन डी ए में तृणमूल कांग्रेस, डी एम के , तेलुगु देशम. बीजू जनता दल  , नेशनल कानफरेंस सब थे .एक वक़्त तो जयललिता भी अटल बिहारी  वाजपेयी की समर्थक रह चुकी है . लेकिन आज हालात वैसे नहीं है . आज बीजेपी के  साथ पूरी तरह से केवल शिवसेना और अकाली दल ही बचे है . नीतीश कुमार की  जे डी ( यू  ) भी अधिकतर मुद्दों पर  बीजेपी के खिलाफ रहती है . अभी ताज़ा  उदाहरण सी बी आई के निदेशक की नियुक्ति का है जहां  बीजेपी के दोनों बड़े नेताओं ने प्रधान मंत्री के पास चिट्ठी लिखी थी लेकिन नीतीश कुमार ने उस चिट्ठी से सहमति नहीं जताई ,. बीजेपी के बड़े नेता नरेंद्र  मोदी को नीतीश  कुमार अपने  राज्य में चुनाव प्रचार तक नहीं करने देते हैं . ऐसी हालत में बीजेपी के साथ अब ऐसी ताक़त नहीं है कि वह किसी सरकार को हिला  सके. बीजेपी की राजनीतिक रणनीति  की दुर्दशा अभी राष्ट्रपति के चुनाव में भी  हो चुकी है  जबकि उसके  खास साथी शिवसेना ने भी कांग्रेस के उम्मीदवार का साथ दिया . वहाँ भी ममता बनर्जी की राजनीतिक सोच की धज्जियां उड़ी थीं जब  उन्होंने समाजवादी पार्टी के साथ मिलकर कांग्रेस को शिकस्त देने की कोशिश की थी . उस वक़्त भी ममता बनर्जी को मालूम था कि वे कांग्रेस उम्मीदवार को तो हरा नहीं पायेगीं लेकिन वे यू पी ए की सरकार को कमज़ोर करना चाहती थीं. उस दौर में ममता बनर्जी यू पी ए में शामिल थीं और जो कुछ भी चाहती थीं , सरकार को करना पड़ता था . उनकी गैरवाजिब मांगों से  मनमोहन सरकार और सोनिया गांधी परेशान थे लेकिन ममता सरकार को गिरा नहीं सकती थीं क्योंकि उस सरकार को मुलायम  सिंह यादव के  २२ सदस्यों का बाहर रहकर समर्थन प्राप्त था . राष्ट्रपति चुनाव के दौरान ममता बनर्जी ने कोशिश की थी कि मुलायम सिंह यादव को अपने साथ लेकर वे यू पी ए से अपनी हार बात  मानने को मजबूर कर सकेगीं . लेकिन उनसे गलती हो गयी . उन्होंने सोचा कि मुलायम सिंह यादव  उनकी राजनीति चमकाने में मदद  करेगें. राजनीति का बुनियादी सिद्धांत है कि सभी नेता अपनी राजनीति को चमकाने के  लिए काम करते हैं . मुलायम  सिंह ने भी अपनी राजनीति को मज़बूत किया . उनकी राजनीति यह है कि वे कभी भी किसी साम्प्रदायिक शक्ति के साथ  नहीं देखे जा सकते और उन्होंने राष्ट्रपति चुनाव में बीजेपी के उम्मीद्वार के खिलाफ वोट देकर कांग्रेस के उम्मीदवार को  जिता दिया और प्रणब मुखर्जी राष्ट्रपति हो  गए. उस चुनाव में भी कांग्रेस की राजनीति सफल रही  थी और बीजेपी की राजनीति को झटका लगा था .

   १९८९ के बाद से  ही बीजेपी की राजनीति का सभी मकसद हासिल किये जाते रहे हैं .उनकी बात को सबसे ऊपर तक पंहुचाने में उनके विपक्षियों की सबसे बड़ी भूमिका रहती रही है .कांग्रेस का नेतृत्व जबतक लचर था ,बीजेपी को कोई परेशान नहीं कर सकता था . बीजेपी की बात को आगे बढाने में मीडिया की भूमिका भी बहुत ही अहम रही है .  जब बाबरी मसजिद की  हिफाज़त के दौरान उत्तर प्रदेश की तत्कालीन सरकार ने गोलियाँ चलवाई थीं तो वाराणसी से छपने वाले हिंदी के एक अखबार ने तो लिख दिया था कि खून से सरजू नदी लाल हो गयी थी.  जो कि सच नहीं था.बाद में पता लगा कि खबर गलत थी . बाद के दौर में भी मीडिया ने बीजेपी की मदद की.बड़ी संख्या में मीडिया संगठनों में  बीजेपी  से सहानुभूति रखने वाले पत्रकारों की मौजूदगी के कारण ऐसा माहौल बन गया कि अगर कोई बीजेपी के खिलाफ कोई तथ्यपरक खबर भी लिखता  तो उस पर नज़रें तिरछी होने लगी थीं . लेकिन पिछले  कुछ वर्षों से बीजेपी के पक्ष में काम करने वाले पत्रकारों के सामने बड़ी मुश्किल है . जब से कर्नाटक की बीजेपी सरकार के भ्रष्टाचार के कारनामे पब्लिक हुए हैं . मीडिया को उसे हाईलाईट करना पड़ रहा है. ताज़ा मामला तो बीजेपी  के अध्यक्ष का ही  है . एक बार फिर साबित हो गया है कि भ्रष्टाचार में टू जी, कामनवेल्थ खेल,और अन्य घोटाले करने वाली यू पी ए और बीजेपी के नेता भ्रष्टाचार की पिच पर बराबर  हैं . दोनों ही पार्टियों में भ्रष्टाचार है .सवाल केवल भ्रष्टाचार को मैनेज करने का  है . बीजेपी के भ्रष्टाचार को उजागर करने में देश के हिंदी और अंग्रेज़ी , दोनों ही भाषाओं के सबसे बड़े अखबारों ने पूरी निष्पक्षता से काम किया है . नतीजा यह है कि अब भ्रष्टाचार के मामलों में कांग्रेस को बीजेपी घेर नहीं सकती . बीजेपी के मौजूदा अध्यक्ष के राजनीतिक कद को लेकर भी बीजेपी डिफेंसिव है . नितिन गडकरी अपनी ही पार्टी के सभी राष्ट्रीय नेताओं से  छोटे पाए जा  रहे हैं . लोकसभा और राज्य सभा में उनकी पार्टी के दोनों नेता ,उनसे बहुत बड़े हैं . उनके  सभी पूर्व अध्यक्ष उनसे राजनीतिक हैसियत में बहुत ऊंचे हैं और ऊपर से उन्होने महाराष्ट्र सरकार में मंत्री रहने के दौरान कुछ ऐसे काम किये हैं जिसका खामियाजा उनकी पार्टी को आज भुगतना पड़ रहा है . उनकी पार्टी  के निर्माताओं में  अटल  बिहारी वाजपेयी और लाल कृष्ण आडवानी का नाम लिया जाता है .. नितिन गडकरी के लिए वे ऊंचाइयां तो असंभव ही मानी जायेगीं . 
बीजेपी की एक और मुश्किल  है . उनका मुकाबला कांग्रेस से माना जाता है जहां राष्ट्रीय अध्यक्ष  का कद पार्टी के हर बड़े नेता से बड़ा  है . सोनिया गांधी  बहुत ही विपरीत परिस्थितियों में राजनीति में आयीं . अध्यक्ष के रूप में सीताराम केसरी ने पार्टी  को कहीं का नहीं छोड़ा था लेकिन सोनिया गांधी ने जीरो से शुरू  करके पार्टी को सरकार तक पंहुचाया . विपक्षी पार्टी की मुखिया के रूप में  काम शुरू  किया और केन्द्र सरकार में अपने कार्यकर्ता को प्रधान मंत्री  पद तक पंहुचाया . डॉ मनमोहन सिंह के बारे में उन दिनों कहा  जाता था  कि वे बहुत ही कमज़ोर प्रधान मंत्री हैं लेकिन अर्थशास्त्र के विद्वान प्रधान  मंत्री को दुबारा जीत दिलाकर उन्होंने साबित कर दिया कि वे देश की सबसे बड़ी राजनीतिक नेता  हैं . बीजेपी के बहुत ही कुशल पार्टी प्रवक्ताओं के आरोपों पर भी चुप रहने की कला में  प्रवीण सोनिया गांधी ने जब भी मौक़ा लगा तो संसद में लाल  कृष्ण आडवानी तक को हडका लिया और आडवानी जी को मजबूर होकर अपना बयान वापस लेना पड़ा. यू पी ए के पहले कार्यकाल में मनरेगा और सूचना के अधिकार जैसे क्रांतिकारी काम  के बल पर उन्होंने अपनी सरकार को दूसरा कार्यकाल दिलवा दिया . इस  हफ्ते सब्सिडी को सीधे उपभोक्ता के बैंक खाते में भेजने की जिस योजना की घोषणा कांग्रेस की नियमित ब्रीफिंग में  जाकर जयराम रमेश और पी चिदंबरम ने की है , वह गेम चेंजर  की भूमिका निभाएगा और आब विपक्ष को और भी मज़बूत रणनीति के साथ आना पड़ेगा वर्ना अगर कहीं सोनिया गाँधी ने लगातार तीन बार अपनी पार्टी के नेता को प्रधानमंत्री बनवा दिया तो वे जवाहरलाल नेहरू के बराबर की राजनेता  हो जायेगीं और बीजेपी  के लिए  बहुत मुश्किल होगी. बीजेपी को चाहिए कि वह फ़ौरन सोनिया गांधी को राजनीतिक चुनौती देने में सक्षम नेता  की  तलाश करे वर्ना बहुत देर हो चुकी होगी .क्योंकि आज की बीजेपी की राजनीति अपने अंदर से आ रही चुनौतियों को  संभालने में परेशान है जबकि  कांग्रेस समेत बाकी पार्टियां २०१४ या २०१३ जब भी लोक सभा चुनाव  होंगें उसकी तैयारी में हैं .