Sunday, September 2, 2018

वामपंथ और दक्षिणपंथ के बीच में ग्रे के बहुत शेड्स होते हैं .

Witten on September 1, 2018
शेष नारायण सिंह

हमारे मित्र शीतल सिंह एक जागरूक इंसान हैं .राजनीति की बारीकियों को सही तरह  से समझने की उनकी ट्रेनिंग है . एक पत्रकार के रूप में उन्होंने राजनीति को बहुत ही करीब से देखा   है. समकालीन राजनीति की परतों को अच्छी तरह से नेर देते हैं . मैं उनकी बातों को  अक्सर  सही मानता हूँ .  शीतल लिखते हैं कि ," बीच का रास्ता नहीं होता  .अरुण शौरी जो आज अपने ही लिखे पढ़े गढ़े के विलोम पर आ खड़े हुए हैं इसे बेहतर समझ सकते हैं एक समय रजनीश ने भी यह ऐसे ही समझा था जिसे मेरे मित्र और अग्रज Chanchal Bhu हमेशा नकारते आये हैं कि ,विचारधारा या तो वाम होगी या दक्षिण वह बीच में ठहरी नहीं रह सकती ।"
इस बार मैं शीतल सिंह की बात से सहमत नहीं हूँ . सारी राजनीतिक समझ को केवल वाम और दक्षिण के दो खांचों में लपेट देने का मतलब यह है कि हमने वह स्वीकार कर लिया है जो अति दक्षिणपंथी हुक्मरान चाहते हैं या अपना सब कुछ गँवा चुके वामपंथी राजनेता सत्ता से नाराज़ लोगों को अपने खरके में हांक लेने के लिए कंगूरों पर चढ़कर बांग दे  रहे होते हैं.  अगर सारी राजनीति को केवल दो खेमों में बाँट दिया गया तो अन्य बातों के अलावा यह तर्क पद्धति अति साधारणीकरण के दोष का शिकार हो जायेगी . अमरीका के एक उदहारण से बात को सही सन्दर्भ में रखने की कोशिश की जायेगी . वहां के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप को अमरीकी पत्रकार बिरादरी कई बार  फासिस्ट कह देती है और बराक ओबामा को सोशलिस्ट.  लेकिन ट्रंप फासिस्ट नहीं है . हाँ अगर उनको आज़ादी मिली तो अपनी मूर्खता के  स्तर के हिसाब से वह फासिस्ट हो सकते हैं . सच्चाई यह  है कि वे अमरीकी राष्ट्रवाद के लठैत  हैं और यथास्थितिवादी पूंजीवाद की वकालत करते रहते हैं . जबकि ओबामा  सोशलिस्ट तो बिलकुल नहीं हैं. उनको नव उदारवादी कहा जा सकता है . दोनों ही दक्षिणपंथी और पूंजीवादी  हैं और अपनी राजनीतिक सुविधा के हिसाब से अमरीका की  पूंजीवादी विचारधारा को राजनीतिक सोच का रंग देते रहते हैं . जो लोग  ट्रंप को फासिस्ट कहते हैं उनको डर  है कि यह  राष्ट्रपति चूंकि मूलतः बकलोल है और राष्टपति के रूप में उसके पास अकूत पावर है तो यह कहीं फासिस्ट न हो जाये . उसको फासिस्ट कहने वाले एक तरह से पेशबंदी कर रहे होते हैं  कि कहीं वह वास्तव में फासिस्ट हो न जाए . उसी तरह से ओबामा को सोशलिस्ट कहने वाले उनके उन कामों को रेखांकित कर रहे होते हैं जो उन्होंने अमरीकी समाज के निचले वर्गों के लिए किया . लेकिन यह तय है कि ओबामा अमरीकी पूंजीवादी व्यवस्था को मज़बूत करने के लिए अमरीकी गरीबों या मध्यवर्ग को केवल को-आप्ट कर रहे होते थे . हमारे देश में भी जब किसानों गरीबों और शोषित पीड़ित लोगों के हित के लिए कहीं रसोई गैस , कहीं फसल बीमा की बात की जा रही  होती है तो वह गरीबों को इम्पावर करने की दिशा में कोई क़दम नहीं होता . पूंजीवादी अर्थशास्त्र के लाभार्थियों के लिए गरीब जनता  का होना बहुत ज़रूरी शर्त है और उन लोगों को गरीब बनाए रखने के  लिए ओबामा या भारत सरकार की स्कीमों को केवल लालीपाप का बंदोबस्त ही माना  जाएगा . क्योंकि अगर  सोशलिस्ट नीतियों की बात की जाए तो शोषित पीड़ित जनता के हाथ में सत्ता की चाभी देने की बात भी आयेगी और वह न तो ओबामा कर रहे  थे और  न ही इंदिरा गांधी और न मौजूदा बीजेपी  . वामपंथी राजनीति की सबसे ज़रूरी शर्त  है कि वह सत्ताहीन वर्गों को सत्ता पर नियंत्रण की दिशा में क़दम उठाये . भारत में  सोशलिस्ट नाम पर राजनीति करने वाले सभी वर्गों ने ऐतिहासिक रूप से सत्ताधारी वर्गों और उनको  संचालित  करने वाले थैलीशाहों को ही मज़बूत किया है . हालांकि पी सी जोशी, राम मनोहर लोहिया , आचार्य  नरेंद्र देव   आदि ने शोषित पीड़ित लोगों के हाथ में वास्तविक सत्ता देने की बात की थी लेकिन उनके उत्तरवर्ती नेताओं ने  हमेशा ही  स्थापित सत्ता के चाकर के रूप में ही काम किया .
 शीतल सिंह की बात को आगे बढाते हुए यह कहना ज़रूरी है कि आज  भारत की राजनीति में सत्ताधारी वर्ग अपने को ऐलानियाँ दक्षिणपंथी पूंजीवादी अर्थशास्त्र का पोषक बताता है .उनकी कोशिश  है  कि जो उनके साथ पूरे समर्पण भाव से  नहीं लगा हुआ है , उसको  वामपंथी घोषित करके अपना वर्गशत्रु घोषित कर दें . और उनपर वही कार्रवाई करें जो मैकार्थी ने  किया था .उधर वामपंथी राजनीति की रोटी तोड़ रहे सियासी दल इस चक्कर में हैं कि जिन लोगों को भी  सत्ताधारी दक्षिणपंथी आका वामपंथी घोषित  करें उनको वे अपना बन्दा बना कर राजनीतिक गोलबंदी शुरू कर दें . यह स्थिति बहुत ही भयावह  है . इस देश में एक बहुत बड़ा वर्ग है जो सत्ताधारी वर्ग की राजनीति  को सही नहीं मानता लेकिन वह किसी कीमत पर भारत की वामपंथी  पार्टियों  को समर्थन नहीं करेगा. मैं खुद अपने को उसी श्रेणी में रखता हूँ . हम जैसे लोगों के  लिए वह स्पेस बहुत ज़रूरी है , जिसको डेमोक्रेटिक और लिबरल स्पेस कहा  जा सकता है . यह भी सच है कि इस तरह के लोग या तो मौके की तलाश में बिलरिया नेप लगाए बैठे लोग होते हैं जो कहीं भी चले जाने के अवसर टपास  रहे होते हैं और ऊंची ऊंची बातें सेमिनार सर्किट के ज़रिये टार्गेट श्रोता वर्ग तक पंहुचा रहे होते हैं .लेकिन बहुत बड़ी संख्या ऐसे लोगों की भी होती है  जो  दक्षिण और वामपंथी  राजनीति की खामियों के प्रति साहुचेत होते हैं और उनमें से किसी में नहीं शामिल नहीं होना चाहते . क्योंकि राजनीति में सब कुछ सफ़ेद या काला नहीं होता , बहुत सारे ग्रे शेड्स भी होते हैं .इसलिए इस बात को मानने को मन नहीं मान रहा है कि  वामपंथ और दक्षिण पंथ के अलावा कोई और रास्ता नहीं है . मेरा अपना भरोसा है कि वह रास्ता है और उसकी दिशा कबीर  साहब की सोच मुक़म्मल तरीके से दे सकती है . हाँ यह भी सच है कि उस सोच के लिए मगहर जाना पड़ सकता है क्योंकि लुटियन की दिल्ली में तो उस सोच को हलाल  कर देने वालों की फौजें तैनात हैं और वे कभी भी लूट मार कर सकती हैं .

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