Saturday, March 27, 2021

फिल्म पगलैट में आशुतोष राणा के चेहरे पर उमड़ा हुआ “ निनाद करता सन्नाटा “ बेहतरीन अभिनय का दस्तावेज़ है .

 


शेष नारायण सिंह

 

नेटफ्लिक्स पर फिल्म पगलैट से मुक़ाबला हुआ.  एक नौजवान की मृत्यु के दिन से उसकी तेरहवीं के 13  दिन की कथा है . लखनऊ टाइप शहरों में निम्न मध्यवर्गीय संयुक्त परिवारों में होने वाले स्वार्थ और ओछेपन के तांडव को बहुत ही नफासत से प्रस्तुत किया गया है . मौत के दुःख में शामिल होने के लिए आने वाले रिश्तेदारों के नकलीपन  का चित्रण वस्तुवादी है . कोई चमकदार सेट नहीं .  एक निम्न मध्यवर्गीय मोहल्ला, एक नदी , कुछ घटवार दिखा कर फिल्म को आला मुकाम पर पंहुचा दिया गया है . मौत के बाद भी लालच के शिकार होने वाले गरीबी से जूझ रहे ,सम्पन्नता का अभिनय कर रहे परिवारों की  कहानी  इस तरह से फिल्माई गयी है कि लगता है कि  फिल्मकार और कलाकारों ने सच्चाई को उसी तरह से पकड़कर रखा है जैसे फिल्म पड़ोसन के ‘ चतुर नार  ‘ वाले गाने में महमूद ने सुर को पकड रखा था .  अभिनेत्री सान्या मल्होत्रा ने पाखण्ड को रेखांकित करने में शानदार काम किया . रघुवीर यादव का पप्पू तायाजी  याद रहेगा लेकिन मेरी नज़र में आशुतोष राणा का काम विश्वस्तर का है . पूरी फिल्म में वे बोलते बहुत कम हैं लेकिन चेहरे पर जो दर्द की इबारत लिखी है वह बेजोड़ है . दर्द के हर स्वरूप का दर्शन आशुतोष के अभिनय में देखने को मिला.  परिवार के स्वार्थी लोगों  को झेलने का दर्द अलग है तो डिस्काउंट की बात करने वाले गिरि जी अलग लगते हैं . उनके बेटे की तेरहवीं पूरी होने के पहले उनकी  विधवा बहू के इंश्योरेंस में मिले पचास लाख रूपये झटकने के चक्कर में पड़े रिश्तदारों के आचरण के दर्द की खीझ अलग है , स्वर्गीय बेटे की पत्नी को मिलने वाले इन्श्योरेंस के पैसे को हड़पने की साजिश में शामिल होने के दर्द को उन्होंने अमर बना दिया है . फिल्म ख़त्म होने के बाद मैं यही सोचता रहा कि दर्द को इतने वस्तुवादी तरीके से जीने की आशुतोष राणा की क्षमता उनको काबुलीवाला और  दो बीघा ज़मीन के बलराज साहनी के मेयार पर ले जाकर खड़ा कर देती है .सही बात यह है गिरि जी के  दर्द का चित्रण  उन कालजयी फिल्मों से बीस ही पड़ेगा क्योंकि मैंने किसी भी फिल्म में ऐसा “  निनाद करता सन्नाटा  “ कभी नहीं देखा  जो आशुतोष राणा के चेहरे दर्ज पूरी फिल्म के दौरान दर्ज था .अच्छी फिल्मों के शौकीन लोगों के लिए एक अच्छी फिल्म .एक ऐसी फिल्म जो क्रिस्टोफर कॉडवेल के सौंदर्यशास्त्र के मानकों पर सही उतरनी चाहिए .

 

 

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