Saturday, July 26, 2014

समाज को अपनी विधवा बेटियों की इज्ज़त करने की तमीज सीखनी पड़ेगी .



शेष नारायण सिंह
आजकल अखबारों की सुर्ख़ियों पर नज़र डालने से ऐसा लगता है कि बलात्कार देश के  हर कोने में लगातार हो रहे हैं . लखनऊ , भोपाल. जयपुर,बैंगलोर, मुंबई, कोलकता , कहीं का अखबार देखें , बलात्कार की ख़बरें लगभग रोज़ ही छप रही हैं . इन खबरों के बीच में सरकारों का रवैया सबसे ज़्यादा चिंता  का विषय है . सरकारें इस तरह से बलात्कार के मामलों में  रक्षात्मक मुद्रा में आ जाती हैं जैसे वे ही बलात्कार को उकसावा दे रही हों . सच्चाई यह है कि ऐसा नहीं होता . समाज के इस नासूर को पक्ष विपक्ष के व्याकरण से बाहर निकल कर देखना आज की एक राजनीतिक और सामाजिक आवश्यकता है . ज़रुरत इस बात की है कि बलात्कार के मामले में विपक्ष की पार्टियां सरकारों को ज़िम्मेदार ठहराना बंद कर दें और सारी राजनीतिक जमातें उस मानसिकता के खिलाफ लामबंद हों जो बलात्कार जैसी ज़हरीली घटनाओं के लिए ज़िम्मेदार हैं . अभी देखा गया है की लगभग सभी बलात्कारी  किसी राजनीतिक पार्टी के कार्याकर्ता के रूप में कवर ले लेते हैं और राजनीतिक पार्टियां उनके बचाव में लग जाती हैं . राजनीतिक कार्यकर्ता वाले घेरे में केंद्रीय और राज्यों की सरकारों के मंत्री तक अपने आपको छुपाते देखे गए हैं . इस प्रवृत्ति से मुकाबला करने की  ज़रुरत सभी पार्टियों को है . . दूसरी अहम बात यह है कि अपराध हो जाने के बाद की स्थिति पर सारा ध्यान फोकस  हो जाता है जिससे फांसी आदि की मांग उठने लगती है . कोशिश  यह होनी चाहिए कि एक समाज के रूप में हम बलात्कारी को नामंजूर कर दें , उसका हुक्का पानी बंद करवा दें , जिससे  अपराधी मानसिकता को रोकने में कामयाबी मिलेगी . दूसरी बात यह है कि लड़कियों को उपभोग की सामग्री मानने की मानसिकता से एक समाज को ज़रूरी  शर्मिन्दगी उठानी चाहिए . लडकियां समाज के ज़िम्मेदार हिस्से के रूप में इज्ज़त पायें इसके लिए सारी ताकत लगा देनी चाहिए .

अपनी बात को लखनऊ में हुए ह्त्या और बलात्कार के मामले से जोड़कर स्पष्ट करने की कोशिश की जायेगी .लखनऊ के प्रतिष्ठित अस्पताल संजय गांधी पोस्ट ग्रेजुएट इंस्टीटयूट की महिला कर्मचारी की ह्त्या और उसके शरीर को जिस गैरजिम्मेदाराना तरीके से नुमाइश का विषय बनाया गया वह सरकार और समाज की बीमार मानसिकता का उदाहरण है . सरकारी अफसर और बाकी लोग मिलकर एक ऐसा माहौल बनाने की  कोशिश कर रहे थे जिससे बर्बरता का शिकार हुयी लड़की को ही पूरी तरह से अपराध के लिए ज़िम्मेदार ठहरा दिया जाए और सरकारी अमला मामले को दफ़न कर दे . लेकिन यह  इतना आसान नहीं है . अब सब कुछ पब्लिक डोमेन में है . हालांकि यह भी सच है कि असहाय लड़की की ह्त्या के बहुत  ही दुखद मामले को मीडिया के एक वर्ग ने चटखारे का मामला बनाने में कोई कसर नहीं  छोडी . यह तो मीडिया में कुछ जागरूक लोग के प्रयास से आज हम इस स्थिति में हैं कि उत्तर प्रदेश के सामंती मानसिकता वाले समाज में जन्म लेने वाली लड़कियों के प्रति समाज के रुख के बारे में कुछ सवाल पूछ सकें . मोहनलाल गंज में महिला के साथ हुयी बर्बरता के बारे में जो सवाल उठ रहे हैंउनमें से किसी भी सवाल का जवाब हमारे पास नहीं है लेकिन कोशिश यह की जानी चाहिए की सवाल सही उठाये जाएँ . दुर्भाग्य यह है कि इस तरह के सवाल उठाये जा रहे हैं कि  उसकी ह्त्या की जांच को इतना विवादित कर दिया जा रहा है कि पुलिस अपने आप को पाक साफ़ साबित कर ले. लेकिन क्या ऐसा किया जाना चाहिए . ३५ साल की जिस महिला की बर्बरता पूर्वक हत्या हुयी है उसमें जो इंसानियत और सामाजिक असंगतियों के सवाल हैं उनको भी चर्चा का  विषय बनाया जाना चाहिए .

सबसे पहला सवाल तो यही है कि हुकूमत का इकबाल क्या रसातल में पंहुंच गया है कि राज्य की राजधानी के सबसे प्रतिष्ठित अस्पताल में काम करने वाली महिला के साथ बर्बरता की सारी सीमाएं पार करने वाला अपराध अन्जाम दिया जाता है और सरकार की अथारिटी की कोई भी धमक किसी अपराधी के दिलोदिमाग में दहशत नहीं पैदा कर पाती . इस बीच एक अच्छी बात या  हुयी है कि राज्य के मुख्यमंत्री ने मृतका के बच्चों के नाम एक बड़ी रकम जमा करवाने के आदेश दे दिए हैं और बच्चों की पढाई लिखाई का सारा खर्च सरकार के जिम्मे डाल दिया गया है . यह उन अनाथ बच्चों के लिए बहुत बड़ा सहारा है लेकिन मामले की जिस तरह से जांच की जा रही है और जिस तरह से  औरतपन का मजाक उड़ाया जा रहा है उसके खिलाफ सरकार को एक निश्चित राय रखनी चाहिए थी . जहां तक पुलिस का  रोल है उसने  पूरे मामले को एक रूटीन क्राइम की तरह लिया  है . पुलिस से और कोई उम्मीद की भी नहीं जानी चाहिए क्योंकि अपने देश में पुलिस राज करने का औजार भर है नेताओं के आगे पीछे घूमने वाली बावर्दी फ़ोर्स के रूप में इसकी पहचान होती है . पुलिस ने ताज़ा जानकारी यह दी है कि  मृतका ने २०१० में अपनी एक किडनी अपने पति को दान कर दी थी उसकी किडनी वास्तव में निकाली  ही नहीं  गयी थी. जबकि जिस अस्पताल में वह काम  करती थी ,उसका दावा है कि उसकी किडनी बाकायदा निकाली गयी थी .पुलिस की इस एक कारगुजारी से  अभियुक्तों की बचत का रास्ता बिकुल साफ़ हो गया है . अजीब बात यह है कि एक बहुत बड़े अधिकारी को किडनी प्रकरण की जांच करने का आदेश दे दिया गया है . लखनऊ रेंज के डीआईजी नवनीत सिकेरा इसकी जांच करेंगे.  नवनीत सिकेरा ने बताया कि महिला की पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट के मुताबिक उसकी दोनों किडनी सुरक्षित मिली हैं। जबकि पीजीआई प्रबंधन से बात करने पर इस बात की पुष्टि हो गई है कि महिला के पति का अक्टूबर, 2011 में किडनी ट्रांसप्लांट का ऑपरेशन हुआ था और  महिला ही डोनर थीं. महिला के घरवालों ने भी किडनी ट्रांसप्लांट की पुष्टि के लिए वह सर्टिफिकेट पेश किया हैजो पीजीआई की तरफ से उन्हें दिया गया था .किडनी ट्रांसप्लांट के करीब एक माह बाद ही महिला के पति की मौत हो गई थी. अब पुलिस की सारी जांच किडनी जांच प्रकरण में तब्दील होती नज़र आ रही है .

लेकिन हमारे समाज में महिलाओं की जो दुर्दशा  है उसपर किसी के ध्यान नहीं जा रहा है . इस केस में महिला के पिता का बयान  अखबारों में छपा था कि  उन्होंने लडकी की शादी कम उम्र में ही कर दी थीजिस लड़के से शादी हुयी थी उसकी किडनी में बीमारी थी और लडकी ने अपने पति का जीवन बचाने के लिए उसे किडनी दान कर दी थी. ट्रांसप्लांट सफल नहीं रहा और उसके पति की मृत्यु हो गयी . यहीं पर परिवार के लोगों और समाज की ज़िम्मेदारी पर सवाल उठना शुरू हो जाता है . जब उस लडकी के पति की मृत्यु हो गयी तो उसके सुसराल और मैके के परिवार वालों ने उसका साथ नहीं दिया . वह अपने दो  बच्चों के साथ अपने भविष्य को संवारने के लिए  खुद ही चल पडी थी . पी जी आई में नौकरी के साथ साथ वह कुछ अतिरिक्त काम  भी करती थी . हो सकता है कि किसी और अस्पताल में काम कर रही  हो जहां वह एक अलग शिफ्ट करती रही हो और सबसे इस बात को छुपा रखा हो क्योंकि कोई भी सरकारी संस्थान  कहीं और काम करने की अनुमति नहीं देता. लेकिन पुलिस ने जो ख़बरें मीडिया को दीं उसमें इस  तरह की संभावना का ज़िक्र तक नहीं किया गया .जिस तरह की कहानियां पुलिस के सूत्रों से बाहर आयी उनसे यह साबित करने की कोशिश की गयी  कि वह संदिग्ध चरित्र की महिला थी और रात को कहीं चली जाती थी . एक कहानी यह भी चलाई गयी की उसका किसी राजीव नाम के  व्यक्ति से सम्बन्ध  था . समाज के रूप में हमारी इतनी सड़ी मानसिकता है कि किसी पुरुष से किसी तरह के सम्बन्ध को चटकारे का विषय बनाने में मीडिया ने कोई समय नहीं गंवाया  और पुलिस को जांच में राहत के अवसर नज़र  आने लगे. सवाल यह  है कि अगर किसी  महिला का अपने स्वर्गीय पति के अलावा किसी अन्य पुरुष से सम्बन्ध है तो क्या उसे बर्बरतापूर्वक मार डाला जाना चाहिए .क्या संदिग्ध चरित्र की महिला को मार डालने वालों को वीर पुरुष माना जाएगा .
जहां तक पुलिस की बात है  उसके बारे में सबको मालूम है कि वे बहुत ही संवेदनशील नहीं माने जाते . इस केस में मृतका के  दोनों परिवारों के रोल की समीक्षा की जानी चाहिए.  उसके माता पिता ने उसकी शादी कर दी और उसके बाद अपने कर्तव्यों की इतिश्री समझ लिया . यह बिलकुल  गलत  है . शादी के बाद भी वह उनकी बेटी थी . अब सबको मालूम है की जब उस लडकी के ऊपर मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ा था तब उन लोगों ने उसको किसी और की ज़िम्मेदारी मानकर छोड़ दिया था . हमारे समाज में रिवाज़ है कि लड़की की शादी के बाद उसका सारा ज़िम्मा उसकी ससुराल वालों का हो जाता है. माता पिता ने ससुराल को ज़िम्मेदार  ठहरा कर अपनी जान छुड़ा ली और ससुराल वालों ने  क्या किया . उन्होंने अपने स्वर्गीय बेटे की पत्नी को अपने दोनों बच्चों के साथ अपने रास्ते तलाशने के लिए लखनऊ के पुरुष प्रधान सामंती मानसिकता  वाले शहर  में छोड़ दिया . उनको अपने स्वर्गीय बेटे के  बच्चों की सुध तब आयी जब उन बच्चों को सरकारी खजाने से दस लाख का अनुदान मिला और अन्य कई स्रोतों से बड़ी रकम आनी शुरू हो गयी .अगर ससुराल वालों ने अपने बेटे की मृत्यु के बाद उस लडकी के साथ खड़े होने का संकेत दिया होता तो जो हुआ है वह शायद कभी न होता .हमने  यह भी देखा है कि इसी उत्तर प्रदेश में कारगिल युद्ध में  शहीद हुए नौजवानों की पत्नियों को मिली बड़ी रकम को झटक लेने के  लिए बहुत सारे रिश्तेदार खड़े हो गए थे . कई  मामलो में तो यह भी साबित करने की कोशिश की  गयी कि शहीद जवान की पत्नी का दावा गलत है .  सवाल यह है कि अगर कोई सरकारी अनुदान नहीं मिलेगा तो क्या यह समाज अपनी बेटियों को इज्ज़त देना बंद कर देगा .

मुझे ऐसे बहुत सारे मामले मालूम हैं जहां माता पिता ने अपने लड़कों को अच्छी से अच्छी शिक्षा दी और लड़कियों को स्कूल ही नहीं भेजा . नतीजा यह होता है की जब लडकी का पति नहीं रह जाता तो उस लड़की की ज़िंदगी नर्क हो जाती है . अगर उसके भाई बाप या सास ससुर साथ खड़े हो  जाएँ तो  वह तबाही से बच जाती है . बहुत सारे ऐसे मामले मुझे मालूम हैं   जहां १८-२० साल की उम्र में विधवा हुई लड़कियों के भाई उसके साथ खड़े हो गए और लडकी ने अपने रास्ते तलाश लिए .लेकिन जहां बाल विधवा को  अनाथ छोड़ दिया गया  और शिक्षा का औजार भी साथ  नहीं था वहां ज़िंदगी बहुत ही मुश्किल हो गयी . इन मुश्किलों का कोई स्वरुप नहीं तय किया जा सकता . मुसीबतें किसी भी रूप में आ सकती हैं .लखनऊ के आसपास के जिलों में ऐसी बहुत सारी औरतें रहती हैं जिनके पति की मृत्यु हो चुकी  है और जो दूसरे दर्जे की नागरिक के रूप में जीवन बिताने के लिए अभिशप्त हैं .और इस सब के लिए पुरुष प्रधान समाज की वह सामंती मानसिकता ज़िम्मेदार है जो औरत को  कोई भी अधिकार नहीं देना चाहती .मोहनलाल गंज  के मामले  के बहाने से ही सही हमें एक समाज  के  रूप में अपनी मानसिकता की पड़ताल ज़रूर करनी चाहिए .

हमें मालूम है कि यह काम सरकारें नहीं कर सकतीं लेकिन सामाजिक बदलाव सरकारों के ज़रिये नहीं होते . सरकारें तो एक बहुत ही साधारण जरिया होती हैं . राजनीतिक पार्टियों को चाहिए कि अपराधियों को सरकार न बनने  दें ,उनको टिकट न दें वरना निकट भविष्य में इस बात की संभावना से इनकार नहीं किया  जा सकता कि सरकारें अपराधियों की पक्षधर हो जायेगीं और एक ज़िम्मेदार समाज और राष्ट्र के रूप में हमारे अस्तित्व पर सवाल उठने लगेगें

यूक्रेन पर कब्जे की लड़ाई अब मानवता की दुश्मन बन चुकी है



शेष नारायण सिंह
 ( इस लेख को लिखने में मेरे सम्पादक ,श्री राजीव रंजन श्रीवास्तव से बड़ी मदद मिली है )

पूर्वी यूक्रेन के आसमान पर मलयेशिया एयरलाइंस जिस विमान को मार गिराया गया उसमें करीब  तीन सौ लोग सवार थे और सब मारे गए. अजीब बात यह है कि एक सवारी विमान को मार  गिराया गया जिसमें ऐसे लोग सवार थे जिनका यूक्रेन और रूस की लड़ाई से कोई लेना देना नहीं है . जिनको पता भी नहीं होगा कि उस  इलाके के लिए अमरीका और रूस के बीच वर्चस्व की लड़ाई चल रही है . इतनी बात बिलकुल सच है . इस सच्चाई को आधार बनाकर अब रूस और अमरीका के साथी अपनी सुविधानुसार सच्चाई को तोड़ मरोड़ कर पेश करने में जुट गए है . मलयेशिया एयरलाइंस का सवारी विमान जिस इलाके में मार गिराया वह मौजूदा यूक्रेनी सरकार के मठाधीशों के खिलाफ काम कर रहे  बागी  सैनिकों के कब्जे में है . राजधानी में जो सरकार है उसका प्रधानमंत्री अमरीका की कठपुतली के रूप में काम करता है जबकि उसका विरोध कर रहे तथाकथित बागी रूसी कठपुतलियाँ हैं . दरअसल कोल्ड वार के ख़त्म होने के बाद रूस और अमरीका के बीच आपसी खींचतान का यह सबसे बड़ा उदाहरण है .



विमान के मार गिराए जाने की खबर की पुष्टि भी नहीं हो पाई थी कि यूक्रेनी अफसरों ने रूस पर आरोप लगाना शुरू कर दिया . उन्होंने कहा कि मलयेशिया एयरलाइंस का  बोईंग किसी ऐसे मिसाइल से मारा गया है जो रूस में बना हुआ अहै और बहुत ही आधुनिक टेक्नोलजी से बनाया गया है .इन अफसर ने मीडिया में खाबें देना शुरू कर दिया कि बागियों के हाथ यह मिसाइल पिछले दिनों ही लगा था . रात में एक प्रेस कान्फरेंस में यूकेन के आतंरिक सुरक्षा  विभाग के एक बड़े अधिकारी ने बताया कि उन्होंने कुछ फोन वार्ताएं इंटरसेप्ट की हैं जिसके  आधार पर वे पक्के तौर पर कह सकते हैं कि हमला बागियों की ही करामात है . ज़ाहिर है कि बागियों को इसके लिए ज़िम्मेदार ठहरा देने के बाद रूस पर  हमले के आरोप बिलकुल फिट बैठ जायेगें . यूक्रेन पर कब्ज़ा करने के प्राक्सी युद्ध में लगे अमरीका और रूस के बीच  यह अब तक का सबसे घिनौना अध्याय है .

 जिसने भी यह कारनामा किया है उसको यूक्रेन के कब्जे की लड़ाई को अंतर राष्ट्रीय बना देने की ज़बरदस्त इच्छा होगी क्योंकि अन्यथा इतने निर्दोष लोगों को बेमौत मार देना कहाँ की  बहादुरी  है . यूक्रेन पर कब्जे की लड़ाई में कभी अमरीका का पलड़ा भारी होता है तो कभी रूस का .  अभी रूस बागियों की तरफ है लेकिन अभी कुछ दिन पहले तक अमरीका बागियों की मदद का रहा था अ. अब अमरीकी बागी सत्ता में हैं जबकि रूस के साथी पुराने राष्ट्रपति की टोली वाले बागी  हो गये हैं . दरअसलनवम्बर 2013 में यूरोपीय संघ और यूक्रेन के बीच दूरगामी राजनीतिक और मुक्त व्यापार समझौतों पर हस्ताक्षर होने वाले थे। जिसके बाद यूक्रेन भी 28 देशों  के यूरोपीय संघ का सदस्य बन जाता।  इस समझौते के लिए यूरोपीय संघ के कुछ देश खासकर-जर्मनीकई वर्षों से प्रयासरत थे।  परन्तु ऐन वक्त पर राष्ट्रपति यानुकोविच का पलट जाना और इसके बदले रूस से 15 अरब डॉलर की  सहायता प्राप्त करना विपक्ष तथा यूरोपीय संघ के हिमायतियों को नागवार गुजरापरिणामस्वरूप सरकार विरोधी आंदोलन की शुरुआत हुई। कीव  की सड़कों पर प्रदर्शनकारी उतर आए। आंदोलनकारियों ने इस आंदोलन को ''यूरोमैदान "' नाम दिया है। इसी बीच सरकार ने राजधानी में हो रहे प्रदर्शन पर लगाम कसने के लिए सख्त कानून लागू कर दियाजिसके अंतर्गतसरकारी काम-काज में बाधा डालने या सरकारी इमारतों तक जाने का रास्ता रोकने पर जेल की सजा का प्रावधान कर दिया गया। प्रदर्शन के दौरान हेलमेट या मास्क पहनने पर भी रोक लगा दी गई। लेकिन आंदोलनकारियों का सरकार विरोधी प्रदर्शन जारी रहा। 19 व 20 फरवरी 2014 को पुलिस तथा प्रदर्शनकारियों में झड़प हुई जिसमें 70 से अधिक लोग मारे गए और लगभग 500 घायल हो गए। इस घटना के बाद 23  फरवरी को यूक्रेन की संसद ने महाभियोग लगाकर राष्ट्रपति विक्टर यानुकोविच को सत्ता से बेदखल कर दिया और उन्हें देश छोड़कर भागने को मजबूर होना पड़ा। इधर ''यूरोमैदान'' का आंदोलन जारी ही था कि रूस के समर्थकों और सैनिकों ने क्रीमिया की सरकारी इमारतोंसंसदहवाई अड्डे और बंदरगाह पर कब्जा कर लिया। बहुसंख्यक रूसी भाषी क्रीमिया अब रूस के कब्जे में है। रूसी राष्ट्रपति ब्लादिमीर पुतिन के इस कदम से दुनिया भर में चिंता छा गई और कई देशों के राजनयिक हरकत में आ गए। रूस के कदम को अंतरराष्ट्रीय शांति और सुरक्षा के लिए खतरा बताया जाने लगा। ''यूरोमैदान'' का आंदोलन अब क्रीमिया और रूस के बीच फंसकर रह गया है।  

सन् 1954 से पहले क्रीमिया रूसी सोवियत संघात्मक समाजवादी गणराय का अंग था और उस समय सोवियत संघ में कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव निकिता ख्रुश्चेव थे जो यूक्रेनी थे।  उन्होंने फरवरी 1954में क्रीमिया को यूक्रेनी सोवियत समाजवादी गणराय के अधीन कर दिया। चूँकि रूस और यूक्रेन सोवियत संघ के ही अंग थे इसलिए ख्रुश्चेव के इस निर्णय से किसी को तकलीफ नहीं हुई।  वह दौर सोवियत संघ के मजबूत संगठन और सदस्य गणरायों के विकास का था।  सोवियत संघ के गणराय आर्थिकराजनैतिक और सामाजिक दृष्टि से सामान अधिकार रखते थे इसलिए भी उस समय क्रीमिया का यूक्रेन के साथ मिल जाने का विरोध औचित्यहीन था। 1991 में सोवियत संघ से अलग होकर जब यूक्रेन स्वतंत्र देश बना तब क्रीमिया ने उसके साथ ही रहने का निर्णय लिया। यूक्रेन भाषाई आधार पर रूस से बिलकुल अलग देश बन गया। यहां 78 प्रतिशत यूक्रेनी भाषा बोलने वाले और 17 प्रतिशत रूसी भाषा बोलने वालों की जनसंख्या है। जबकि क्रीमिया प्रांत में लगभग 59 प्रतिशत रुसी मूल के बहुसंख्यक रुसी भाषी हैं। यूक्रेन का भाग होने के बावजूद क्रीमिया को स्वायत्त गणराय का दर्जा प्राप्त है। भाषायी आधार पर भिन्न होने के कारण यह दक्षिण पूर्वी प्रान्त अपने आप को यूक्रेन से दूर और रूस के करीब मानता आया है। इसका महत्वपूर्ण कारण पिछले 15 वर्षों से यूक्रेन में पैर पसार रहे दक्षिण पंथी और नाज् ाी (निओ-नाज् ाी)  विचार वाले चरम पंथी हैं।  जो चाहते हैं कि यूक्रेन पूर्ण रूप से यूक्रेनी भाषा बोलने वाले लोगों का देश बने और दूसरी भाषा वाले यहाँ से अपने मूल स्थान चले जाएँ। वे अन्य भाषी लोगों को यूक्रेनी नागरिक मानने से इंकार करते हैं। यह विडम्बना ही मानी जायेगी कि पूर्व सोवियत संघ से अलग हुए कई गणरायों में इस समय भाषायी आधार पर देश की रक्षा करने वाले अतिवादी सक्रिय हैं। 
सोवियत संघ के समय सामाजिक और आर्थिक समरूपता के लिए प्रान्तीय आधार पर कल-कारखानों की स्थापना की गई थी।  यूक्रेन दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा कृषि उत्पादक देश है। यहाँ गेहूं की पैदावार प्रचुर मात्रा में होती है। ब्लैक सी अर्थात काला सागर के तट से लगा होने के कारण यहाँ औद्योगिक विकास भी बहुत हुए। विनिर्माण क्षेत्र में एयरोस्पेसऔद्योगिक उपकरणरेल आदि के आने से यूक्रेन रूस के बाद सोवियत संघ का दूसरा सबसे बड़ा गणराय बन गया था। दरअसल,  सोवियत संघ के बुनियादी ढांचे को तैयार करते वक्त हर गणराय को वहाँ की प्रचुरता के स्वरूप बांटा गया था। संघ के सभी गणराय एक-दूसरे के लिए उपयोगी और एक-दूसरे पर आश्रित होते थे। यूक्रेन में प्राकृतिक गैस की कमी हैजिसे रूस पूरा करता आया है।  इसी प्रकार यूक्रेनी गेहूं रुसियों के भोजन का महत्वपूर्ण हिस्सा है। रुसी अंतरिक्ष अभियान के विकास में भी यूक्रेन का'एअरोस्पेसमहत्वपूर्ण भूमिका निभाता आया है। 
यूक्रेन के स्वतंत्र राष्ट्र बनने के बाद से काला सागर को लेकर रूस और यूक्रेन के बीच खींच-तान चलती रही। रूस अपने नौसैनिकों के लिए काला सागर में एक स्थायी ठिकाना चाहता था।  अंतत: 1997 में रूस और यूक्रेन के बीच हुई एक संधि में काला सागर के 81 प्रतिशत भाग को रुसी नौसैनिकों के उपयोग के लिए दे दिया गया।  इस संधि से एक तरफ जहाँ रूस अपने मिशन ''काला सागर'' में कामयाब हो गया वहीं यूक्रेन को सब्सिडी के तहत प्राकृतिक गैस तथा अन्य आर्थिक सहायता प्राप्त होने लगीं। आगामी वर्षों में तात्कालीन यूक्रेनी सरकार का रूस के प्रति झुकाव बढ़ता जा रहा था कि सन् 2004 में पश्चिम की नुमाइंदगी करने वाली विपक्ष की नेता यूलिया तिमोशेंको के नेतृत्व में ऑरेंज रेवोल्युशन का आगाज हो गया। नारंगी क्रांति का मुख्य उद्देश्य सत्तारूढ़ सरकार को उखाड़ फेंकनासंवैधानिक सुधार करना और भ्रष्टाचार मुक्त सरकार का गठन करना था। लगभग दो साल के बाद तिमोशेंको यूक्रेन की प्रधानमंत्री चुनी गईं।  चार वर्षों के शासनकाल में तिमोशेंको का ''पश्चिमी'' एजेंडा चलता रहा। यूक्रेन को रूस से अलग कर यूरोपीय संघ के देशों के साथ आर्थिक-व्यापारिक समझौते की रूपरेखा तैयार की गई। इसी बीच यूक्रेन में भाषायी मतभेद भी उभरकर आने लगे। रूस के साथ सम्बन्धों में फिर से खटास आ गई। सन् 2008  में रूस ने गैस की सप्लाई रोक दी जिस कारण यूक्रेन आर्थिक मंदी में चला गया। देश की हालत खराब हो गई।  तिमोशेंको पर भ्रष्टाचार के आरोप भी लगे। मुसीबतों से घिरी तिमोशेंको सन् 2010 के चुनाव में हार गईं और विक्टर यानुकोविच राष्ट्रपति चुन लिए गए। नई सरकार ने भ्रष्टाचार के आरोप में तिमोशेंको के खिलाफ मुकदमा चला दिया और अंतत: तिमोशेंको को 7साल की कैद की सजा हो गई। परन्तुविपक्ष और दक्षिणवादी चरम पंथियों ने यूक्रेन की सरकार पर यूरोपीय संघ के साथ समझौते का दबाव बनाये रखा।  जिसे नवम्बर 2013 में फलीभूत होना थापरन्तु सोवियत संघ के जमाने से रूस के समर्थक और नजदीकी माने-जाने वाले राष्ट्रपति विक्टर यानुकोविच ने न सिर्फ यूरोपीय संघ के साथ किसी भी प्रकार के समझौते और गठबंधन से  इंकार कर दिया बल्कि रूस के साथ कारोबारी संधि कीजिसके बाद यूक्रेन में प्रदर्शन शुरू हो गए। 
 उन्हीं प्रदर्शनों के बाद आज की जो सरकार  है उसको मौक़ा मिला और यह पूरी तरह से अमरीका की पिट्ठू सरकार है . रूस को बदनाम करने के लिए किसी भी हद तक जा सकती है लेकिन एक सवारी विमान को मार कर करीन तीन सौर लोगों की जान ले लेना कायरता है और इसके लिए जो भी ज़िम्मेदार हो उसकी निन्दा अकी जानी चाहिए . इस विमान पर नीदरलैंड के  १५४ लोग थे और २७ आस्ट्रेलियाई थे. मलयेशिया के २८ पैसेंजर थे जबकि चालक दल के  सभी १५ सदस्य मलयेशिया के ही थे. सवारियों में कई चोटी के वैज्ञानिक थे जो मेलबोर्न में हो रही २०वें  एड्स सम्मलेन में भाग लेने जा रहे थे .  दुखद  घटना के बाद रूसी राष्ट्रपति व्लादीमीर पुतिन ने मौजूदा यूक्रेनी सरकार पर परोक्ष रूप से आरोप लगा दिया है . उन्होंने संकेत दिया कि यूक्रेन के पूर्वी इलाके पर क़ब्ज़ा कर चुके जो बागी अपने मुल्क को अमरीकी कठपुतली राष्ट्रपति से मुक्त कराने की लड़ाई लड़ रहे  हैं उनको बदनाम करने के लिए यह कारनामा किया गया है .जबकि पश्चिमी देशों ने रूस पर आरोप लगाया है किवह बागियों को आधुनिक हथिय्यार देकर युद्ध को खूंखार बना रहा है .

Wednesday, July 16, 2014

अलविदा ,नादिन गार्डिमर


शेष नारायण सिंह 


साहित्य के नोबेल पुरस्कार से सम्मानित लेखिका , नादिन गार्डिमर नहीं रहीं . ९० साल की उम्र में हुयी उनकी मौत का साथ ही दक्षिण अफ्रीका की आज़ादी और रंगभेद की नीतियों के खिलाफ हुए संघर्ष की एक महान योद्धा के जीवन का अंत हो गया .उनकी मौत के साथ साथ ही अफ्रीकी देशों में आज़ादी के सबसे बड़े नायक नेल्सन मंडेला की एक घनिष्ठ कामरेड के जीवन का अंत हो गया .नादिन गार्डिमर रंगभेद के खिलाफ चले आन्दोलन के हरावल दस्ते के अगली कतार की नेता थीं .उन्होंने दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद के खिलाफ चले संघर्ष में ज़बरदस्त भूमिका निभाई . नेल्सन मंडेला के १९६२ वाले मुक़दमे में वे बहुत ही सक्रियता के साथ रंगभेदी सरकार के खिलाफ बने मोर्चे में सक्रिय थीं . उस केस में नेल्सन मंडेला ने अपने बचाव के लिए जो बयान दिया था ,वह आज़ादी की लड़ाई का एक बहुत ही अहम दस्तावेज़ है . उस बयान को नादिन गार्डिमर ने ही तैयार किया था . बाद मे “ आई एम प्रेपेयर्ड टू डाई “ नाम से उस मंडेला के बयान को पुस्तक के रूप में छापा गया . दुनिया की बहुत सारी भाषाओं में उसका अनुवाद हो चुका है . नादिन गार्डिमर  अफ्रीकी आन्दोलन की इतनी बड़ी नेता थीं कि जब नेल्सन मंडेला को जेल से छोड़ा गया तो मंडेला ने रिहाई के बाद सबसे पहले उनसे मिलने की इच्छा जताई थी.  अफ्रीका में रंगभेद की नीतियों के बारे में बाकी दुनिया को जानकारी नादिन गार्डिमर  की किताबों से ही मिली. उन्होंने ही दुनिया को बताया कि दक्षिण अफ्रीका में किस तरह से शरीर के रंग की वजह से काबिल लोगों को समाज के विकासक्रम में सबसे पीछे डाल दिया जाता है . अमरीका और ब्रिटेन की अफ्रीका नीति के पोल भी सबसे पहले नादिन गार्डिमर  ने ही खोली थी . उन्होने ही सारी दुनिया को बताया था कि लोकशाही के समर्थन का दावा करने वाली पश्चिमी देशों की सरकारें किस तरह से दक्षिण अफ्रीका में हो रहे रंगभेद के अन्याय के तांडव का समर्थन करती हैं . उन्होने ही बताया कि दक्षिण अफ्रीका में आधी रात को भी कोई भी पुलिस वाला किसी भी काले आदमी के घर पर दस्तक दे सकता है और उसके परिवार के बच्चों और महिलाओं को अपमानित कर सकता है . उनकी साहित्यिक कृतियों से ही अंग्रेज़ी पढने वाली दुनिया को पता लगा कि दक्षिण अफ्रीका में आज़ादी की बात सोचना भी असंभव है  . नादिन गार्डिमर  की किताबों में ही लिखा हुआ है कि जब वहाँ की कोर्ट से जब कोई काला आदमी जेल से रिहा हो जाता है तो जेल के गेट के बाहर ही उसको फिर किसी ऐसे  जुर्म का फर्जी आरोप लगाकर पकड़ लिया जाता है जो उसने कभी किया ही नहीं था . इस तरह से कोर्ट की न्याय के स्वांग की प्रक्रिया के बीच दक्षिण अफ्रीका का आम आदमी कुछ मिनटों के लिए ही आज़ादी की हवा में सांस ले सकता है . उनकी साहित्यिक रचनाओं के बारे में दुनिया भर के नामी आलोचकों और समाजशास्त्रियों की राय है कि वह साहित्य कम और सामाजिक इतिहास ज़्यादा है . उनका कहना है कि उन्होंने इतिहास नहीं लिखा लेकिन किसी भी साहित्यिक रचना में उन्होने जो डिटेल शामिल किया है , वास्तव में उसको उस कालखंड का इतिहास माना जा  सकता है . नादिन गार्डिमर ने आत्मकथा नहीं लिखी है लेकिन अक्सर कहा जाता है कि उनकी कई रचनाओं में जो सन्दर्भ में वे उनके भोगे हुए यथार्थ के टुकड़े हैं . हर रचना में सच्चाई बहुत ही साफ़ तरीके से दर्ज है . बहुत सारे आलोचकों ने अक्सर दावा किया है कि उनकी कुछ रचनाएं आत्मकथात्मक हैं . उनकी साहित्यिक रचनाओं के बारे में कहा जाता है कि उनकी हर किताब में साफ़ साफ़ इतिहास  लिखा हुआ है . बस उसमें नाम और तारीख सच नहीं होती बाकी सब कुछ सच्चाई होती है . उन्होंने पचीसों किताबें लिखी . १९४९ में उनकी पहली किताब  ‘ फेस टू फेस ‘ छपी थी . उनका सबसे महत्वपूर्ण शाहकार “ टेलिंग टाइम्स --- राइटिंग एंड लिविंग १९५४-२००८ “ है . मैं इसको इंसानी बुलंदी का सबसे अहम दस्तावेज़ मानता हूँ . यह साहित्य नहीं है यह उनकी गैर साहित्यिक रचनाओं का संकलन है .इस किताब में उनकी वह रचनाएं हैं जिनमें अफ्रीकी अवाम की लड़ाई के ३५ वर्षों और नेल्सन मंडेला की रिहाई के बाद के वर्षों की राजकाज और सामाजिक सामंजस्य की दुविधाओं को रेखांकित किया गया है . उनके तीन उपन्यासों को रंगभेदी सरकार ने प्रतिबंधित भी कर रखा था  लेकिन वे किताबें  बाकी दुनिया में हमेशा उपलब्ध रहीं .

नादिन गार्डिमर एक युगद्रष्टा रचनाकार थीं . उनकी १९८१ में छपी किताब ‘ जुलाई पीपुल “ को पढकर लगता है कि जैसे वे एक नए देश की जीत और उसके लोगों के सपनों को पूरा होने की कहानी बता रही हों . लगता है कि वह दक्षिण अफ्रीका की आज़ादी के बाद  की घटनाएं हैं .जबकि दक्षिण अफ्रीका को आज़ादी की उम्मीद इस किताब के छपने के दस साल बाद नज़र आनी शुरू हुयी थी .उस दौर तो में किसी को उम्मीद भी नहीं थी कि दस साल बाद नेल्सन मंडेला रिहा हो जायेगें और एक नए राष्ट्र का जन्म होगा जिसमें रंगभेद नहीं होगा . नादिन गार्डिमर को इतने सम्मान मिले हैं कि गिनवाना बहुत ही मुश्किल है. उनको १९७४ में बुकर प्राइज़ मिला था और १९९१ में उन्हें नोबेल पुरस्कार मिला . यह दक्षिण अफ्रीका के खाते का पहला  नोबेल सम्मान था . इसके अलावा कामनवेल्थ और  पुरानी ब्रिटिश कालोनियों में जो भी सम्मान होते हैं ,सब उनको मिल चुके हैं .  बेझिझक कहा जा सकता है कि दक्षिण अफ्रीका की आज़ादी के संघर्ष के सबसे महत्वपूर्ण दस्तावेज़नबीस ने दुनिया से अलविदा कह दिया है .

Tuesday, July 15, 2014

गाजा में मारे जा रहे बच्चों की चीख क्यों नहीं सुन रही है दुनिया ?



शेष नारायण सिंह 



पश्चिम एशिया में इजरायल का आतंक हर तरह से नज़र  रहा है .  इजरायली हमलों में अब तो दुधमुंहें बच्चे भी मारे जा रहे हैं . जहां तक फिलीस्तीनीअवाम का सवाल है अब तो वह पूरी तरह से इजरायल के रहमो करम पर जिंदा है . इजरायल ने यह लड़ाई अपने तीन नौजवानों के अपहरण और उनकीह्त्या  के बाद शुरू किया था . हुआ  यह था कि जून में वेस्ट बैंक के हेब्रान शहर में रहने वाले हमास के दो सदस्यों ने यहूदी  लड़कों को पकड़ लिया था औरआरोप है  कि बाद में उनकी हत्या कर  दीकथित हत्यारे हेब्रान के ही रहने वाले बताए जाते हैं .अभी इजरायल की पूरी सेना  और उनका सारा खुफिया तंत्र ,मुख्य अभियुक्तों को पकड़ने में नाकाम है . लेकिन उसी बहाने से पूरे इलाके में आतंक का राज कायम कर रखा है . पूरे फिलिस्तीन में आतंक ही आतंक है . कल ही खबर आई थी कि इजरायली सेना ने गाजा शहर में विमान से पर्चे फेंके थे जिनमें लिखा था कि जो लोग शहर छोड़कर भाग नहीं जायेगे उनकी जान की रक्षा की गारंटी नहीं दी जा सकती. सब लोग घर बार छोड़कर भाग रहे हैं और शहर से दूर बनायी गयी जगहों पर शरण ले रहे हैं . इजरायल ने दावा किया है कि गाजा में हमास का एक अहम सैनिक ठिकाना है जहां से इजरायली इलाकों को निशाना बनाकर राकेट दागे जाते हैं . इजरायल ने बाद में हमला किया तो गाजा शहर के पुलिस प्रमुख तासीर बत्श के घर को निशाने पर लिया गया . उनके परिवार के १८ सदस्य मार डाले गए जिनमें छः बच्चे भी थे. खुद पुलिस प्रमुख को घायल हालत में अस्पताल में दाखिल करवाया गया है जहां आई सी यू में  उनका इलाज़ चल रहा है .. उधर इजरायल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतान्याहू ने साफ़ कह दिया है कि जब तक हमास को सबक नहीं सिखा दिया जाता , तब तक हमलों में कोई ढील नहीं दी जायेगी .  उनका दावा है कि हमास को तोड़ दिया जाएगा और उसके बाद बहुत समय तक शान्ति का माहौल बना रहेगा . लेकिन यह बेकार की बात है .इसके पहले भी इजरायल ने हमास को  दुरुस्त करने के लिए हमले किये हैं . २००८-०९ और २०१२ के हमले भी इसी मकसद से किये गए थे. हालांकि उन दोनों अभियानों में हमास  की सैनिक ताक़त थोड़ी कमज़ोर तो हुई थी लेकिन बहुत जल्द ही फिर वे एकजुट हो गए थे . देखा यह गया है कि इजरायली हमले के बाद हमास के पास नए हथियार आ जाते हैं . राकेट तो उनका नया हथियार है . ज़ाहिर है कि हमास और हेज़बोल्ला को भी समर्थन देने वाली शक्तियों की कमी नहीं है . पिछले इजरायली हमलों को हमास वाले अब मजाक का विषय बताने लगे हैं और कहते हैं कि हर दो तीन साल बाद इजरायल इस तरह से हमले करता है जैसे उसके सैनिक लान की कटाई छंटाई करने आते हैं . लेकिन यह  रुख भी सही नहीं है. युद्ध के काम को बारीकी से समझने वाले हमास के कार्यकर्ता तो बच जाते हैं लेकिन हर इजरायली हमले में आम आदमी , औरतें और बच्चे काल के गाल में जाने को अभिशप्त हो जाते हैं . हमास वालों के इस तरह के रवैए का ही नतीजा है कि इस बार इजरायली सेना ने तय कर रखा है कि इस बार इजरायली सेना को तब तक काम करने दिया जाएगा जब तक कि हमास को खत्म न कर दिया जाए . इजरायल में भी पिछली दो बार के हमलों को लेकर असंतोष है.अजीब बात है कि इजरायल में इस तरह से खुले आम गैर सैनिक नागरिकों को मारने काटने का सिलसिला बदस्तूर जारी है और दुनिया भर में मानवाधिकारों की डुगडुगी बजाने वाले अमरीका के विदेशनीति के नियंताओं को कहीं नहीं नज़र आ रहा है . गाजा में हुए मौजूदा हमलों में कम से कम १६६ लोग मरे हैं जिनमें  ३६ बच्चे और २४ महिलायें शामिल हैं . संयुक्त राष्ट्र की तरफ से इस इलाके में शान्ति की कोशिश कर रही संस्थाओं के आकलन है कि हालात बहुत ही खतरनाक हैं .  

इजरायल के बड़े अधिकारियों का कहना है कि इस बात की कोई संभावना नहीं है कि हमास को पूरी तरह से तबाह किया जा सकता है . इस हमले के बाद भी हमास के सैनिक ढाँचे का कुछ  भी बिगड़ने वाला नहीं है . लेकिन हमास और उसके सभी समर्थकों का आरोप है कि इजरायल की अपनी कोई ताकत नहीं है . इस इलाके में जो भी नरसंहार हो रहा है सबके पीछे अमरीका है क्योंकि अमरीका हर साल इजरायल के लिए ३ अरब डालर की सैनिक सहायता देता है .इजरायली हमले की चारों तरफ से निंदा हो रही है . खासकर बच्चों और औरतों को जिस  बेदर्दी से मारा जा रहा है उसके कारण पूरी दुनिया में सभी समाजों में इनकी निंदा हो रही है .हालांकि इजरायल की इस मनमानी का विरोध इंसानी स्तर पर अमरीका सहित सभी देशों में हो रहा है लेकिन सरकारों के रुख स्वार्थी तरीकों से  तय हो रहे हैं. पूरी दुनिया में इस्लाम के नाम पर एकता का नारा देने वाली सरकारें भी अमरीका की दहशत के कारण इजरायल का विरोध करने की हिम्मत नहीं जुटा पा रही हैं .अमरीका के इस्लामी दोस्त जार्डनसंयुक्त अरब अमीरात ,तुर्की ,क़तर बहरीनओमानलेबनान और कुवैत इजरायल के खिलाफ कुछ नहीं बोल रहे  हैं . हालांकि हमास के आतंकवादी तरीकों को भी सही नहीं माना जा सकता लेकिन अमरीका को चाहिए कि वह इजरायल को रोके. इस सारी प्रक्रिया में भारत सरकार की भूमिका आत्मघाती लक्षणों से परिपूर्ण है . जो भारत पश्चिम एशिया में जायानिस्ट आतंक का हमेशा  विरोध करता रहा है , गाज़ा में मारे जा रहे बच्चों की चीख को क्यों नहीं सुन पा रहा है . यह बात समझ से परे है .

लोकतंत्र की रक्षा के लिए राजनीतिक आचरण में शुचिता ज़रूरी


 शेष नारायण सिंह 



अपना लोकतंत्र बहुत ही खतरनाक दौर से गुज़र रहा है . अंग्रेजों से जब देश को मुक्त कराया गया था तो आज़ादी के महानायकों ने बहुत सोच विचार के बाद संसदीय लोकतंत्र को देश की राजकाज की प्रणाली के रूप में शुरू किया था . देश के सभी नागरिकों और राजनीतिक दलों का कर्त्तव्य है कि वे देश के लोकतंत्र की रक्षा में अपना योगदान करें .  जहां तक जनता का सवाल है , उसकी भूमिका तो चुनाव के वक़्त वोट देने तक सीमित कर दी गयी है . यह अलग बात है की संविधान और राष्ट्र के संस्थापको ने उम्मीद जताई  थी कि जो लोग भी राजनीतिक कार्य में शामिल होंगें वे  लोकतंत्र में जनता की भागीदारी को सुनिश्चित करेगें . लेकिन ऐसा हो नहीं रहा है . राजनेताओं ने लोकतंत्र की रक्षा का काम खुद अपने जिम्मे कर लिया है और जनता की भागीदारी केवल मतदाता के रूप में देखी जा रही है . हम सभी जानते हैं कि लोकतंत्र केवल एक ख़ास किस्म के राजकाज का ही नाम नहीं हैं . . वास्तव में यह देश के सभी नागरिकों के हित के राजनीतिक संगठनसामाजिक संगठन और आर्थिक व्यवस्था  होने के साथ साथ एक नैतिक भावना भी है. लोकतंत्र जीवन का समग्र दर्शन है जिसके  दायरे में मानवीय  गतिविधियों के सभी पहलू शामिल होने चाहिए . बहुत भारी चिंता की बात है कि आजकल लोकतंत्र पर हिंसा , भ्रष्टाचार , वंशवाद, धन्नासेठों का प्रभुत्व , राजनीतिक विरोधियों के प्रति जाहिलाना आचरण , अशिक्षा  आदि हावी हो  गए हैं और लोकतंत्र का कोई भी जानकार बता देगा कि अगर किसी भी राजकाज की प्रणाली में यह सारी बातें शामिल हो गयीं तो लोकतंत्र की अकाल मृत्यु हो जाती है .

 

देश के सभी नागरिकों का दुर्भाग्य है कि आजकल के राजनीतिक नेताओं में सहिष्णुता बिलकुल ख़त्म हो गयी है . राजनीतिक लाभ के लिए अपने विरोधी को परेशान करना और उसको अपमानित करने की प्रवृत्ति सभी पार्टियों में देखी जा सकती है .जब से गठबंधन सरकारों  का युग शुरू हुआ है तब से आर्थिक भ्रष्टाचार राजनीतिक नेताओं का अधिकार सा हो गया है . किसी तरह से सरकार को चलाते रहने के लिए स्वार्थी राजनेता भ्रष्ट से भ्रष्ट व्यक्ति को मनमानी का मौक़ा देते हैं और लोकतंत्र और देश का भारी नुक्सान करते हैं . सत्ता हासिल करने के लिए कांग्रेस के नेता संजय गांधी ने  १९८० में पहली बार अपराधियों के लिए संसद और विधानसभा की सदस्यता के रास्ते को खोला था . उसके बाद से देश की  सभी विधानसभाओं और लोकसभा में अपराधियों की खासी संख्या रहती है . इस बार की लोकसभा में भी बहुत सारे ऐसे लोग चुन कर आ गए हैं जिन्होंने अपने हलफनामों में खुद स्वीकार किया है कि उनके ऊपर आपराधिक मुक़दमे चल रहे हैं . अजीब बात है कि राजनीतिक बिरादरी में अब अपराधी होना बुरा नहीं माना जाता . यह लोकतंत्र के लिए बहुत ही अशुभ संकेत है. राजनेताओं का आपराधिक आचरण उनके सार्वजनिक जीवन में बार बार देखा जाता  है . ताज़ा वाकया उत्तर प्रदेश का है . मुरादाबाद जिले में आजकल राजनीतिक हिंसा का माहौल है . उसी माहौल के बीच से बीजेपी के प्रदेश अध्यक्ष  लक्ष्मी कान्त वाजपेयी का बयान आया है जो बहुत ही डरावना है और किसी भी राजनेता को किसी भी हालत में यह बयान नहीं देना चाहिए था . जिले के पुलिस प्रमुख से नाराज़ लक्ष्मी कान्त वाजपेयी ने कहा कि वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक धर्मवीर यादव को भाजपा ने अपनी आंखों में नागिन की तरह उतार लिया है,इन्हें पूरी तरह डसकर ही पार्टी दम लेगी . उन्होंने आगे कहा कि उनकी पार्टी जब तक अपने कार्यकर्ताओं के अपमान का बदला जिले के  पुलिस कप्तान से नहीं ले लेगी तब तक शांत नहीं बैठेगी. क्या यह सभ्य राजनीतिक आचरण की भाषा है ? यहाँ इस घटना का उल्लेख केवल उदाहरण के लिये ही किया गया है. पूरे देश में हर राजनीतिक पार्टी में इस तरह के तत्व हैं .जिस व्यक्ति ने यह बयान दिया है उसकी पार्टी ने राज्य में बहुत अच्छे नतीजों के साथ लोकसभा चुनाव जीता है . उनकी पार्टी की केंद्र में  सरकार है . हम जानते हैं कि अभी दो महीने पहले तक इन नेताजी की पार्टी के लोग इस तरह के बयान  नहीं देते थे  .जिस पार्टी के खिलाफ उन्होंने उत्तर प्रदेश में मोर्चा खोल रखा है , उस पार्टी के नेता बीजेपी वालों के खिलाफ इसी तरह का बयान दिया करते थे. हालांकि बीजेपी के प्रदेश अध्यक्ष ने अपने गुस्से का कारण जिले के पुलिस प्रमुख के निजी आचरण को बताया  है लेकिन उस हालत में भी क्या लोकशाही को चलाने के लिए बदले की राजनीति को बढ़ावा दिया जाना चाहिए . राज्य में सत्ता पर मौजूद पार्टी को भी चाहिए कि विवादित अफसरों को सार्वजनिक मुद्दों को संभालने के लिए तैनात न करें . जिस पुलिस वाले के आचरण के कारण  घटिया  भाषा का प्रयोग किया गया है उसकी कार्यक्षमता पर सरकार के अन्दर बैठे आला अफसरों ने सवाल उठाया था जब उन्होंने मथुरा जिले के पुलिस प्रमुख के  रूप में कोसी में दंगे की हालत पैदा होने में गैरजिम्मेदार भूमिका निभाई थी .

सवाल यह पैदा होता है कि क्या इस तरह के राजनीतिक व्यवहार से देश के लोकतंत्र को बचाया जा सकता है . सत्ता और विपक्ष दोनों पर लोकतंत्र की  हिफाज़त का ज़िम्मा होता है. अगर राजनीतिक बिरादरी ने अपने इस फ़र्ज़ को ठीक से नहीं समझा और राजनीतिक अदूरदर्शिता का परिचय देते रहे तो देश के राजनीतिक भविष्य पर सवालिया निशान लग सकता है .

अमरीकी गलतियों के कारण पश्चिम एशिया में जंग के हालात


शेष नारायण सिंह

पश्चिम एशिया में अमरीकी विदेशनीति की धज्जियां उड़ रही हैं . करीब सौ साल पहले इसी सरज़मीन पर अमरीका ने एक बड़ी ताक़त बनने के सपने को शक्ल देना शुरू किया था और कोल्ड वार के बाद यह साबित हो गया था कि अमरीका ही दुनिया का सबसे ताक़तवर मुल्क है. सोवियत रूस टूट गया था और उसके साथ रहने वाले ज़्यादातर देशों ने अमरीका को साथी मान लिया था . लेकिन बाद में तस्वीर बदली. चीन ने अमरीका को चुनौती देने की तैयारी कर ली और आज चीन एक बड़ी ताक़त  है  अमरीका अपनी एशिया नीति में चीन की हैसियत को नज़रंदाज़ करने की हिम्मत नहीं कर सकता है. अमरीका के मौजूदा राष्ट्रपति बराक ओबामा की विदेशनीति में अमरीकी हितों के हवाले से हर उस मान्यता को दरकिनार करने के आरोप लग रहे हैं जिनके लिए कथित रूप से अमरीका अपने को दुनिया का  चौकीदार मानता रहा है . बराक ओबामा की विदेशनीति अब मानवाधिकारों या लोकतंत्रीय राजनीति की  संरक्षक के रूप में नहीं जानी जाती , अब वह पूरी तरह से अमरीकी हितों की बात करती है. यह भी सच है की राष्ट्रपति के रूप में बराक ओबामा ने मानवाधिकारों की बात बार बार की है , कुछ इलाकों में उनकी रक्षा भी की है लेकिन यह भी सच है कि पश्चिम एशिया और अरब दुनिया में अमरीकी नीतियों की मौकापरस्ती के चलते आज मानवाधिकारों और लोकतंत्र की मान्यताओं का सबसे ज़्यादा नुक्सान हो रहा है . अमरीकी नीतियों की लुकाछिपी का ही नतीजा है कि आज इजरायल और फिलिस्तीन के बीच एक खूनी संघर्ष की शुरुआत की इबारत लिखी जा रही है. वेस्ट बैंक में तीन इजरायली किशोर बच्चों के कथित अपहरण और हत्या के बाद इस इलाके में मारकाट शुरू हो गयी है . ताज़ा वारदात में फिलिस्तीनी डाक्टरों ने बताया कि कम से कम २३ लोगों की जान गयी है . बताया गया है की हमास और इस्लामिक जेहाद वालों के खिलाफ इजरायल ने अभियान छेड़ रखा है और उसी का नतीजा  है कि इस इलाके में शान्ति की संभावनाओं पर बहुत बड़ा सवालिया निशान लग गया है . इजरायल ने झगड़े को बढाने के साफ़ संकेत दे दिए हैं . इजरायल में १५०० रिज़र्व सैनिकों को तैनात कर दिया है और अगर ज़रूरत पड़ी तो ४०,००० और रिजर्व  सैनिकों को तैनात कर दिया जाएगा . इजरायली सेना ने यह भी कहा  है कि उनके ठिकानों पर मिसाइलों से लगातार हमले हो रहे हैं.  गज़ा से करीब ८० मिसाइल दागे गए जो काफी अन्दर तक  पंहुचने में सफल रहे .
दुनिया जानती है कि इजरायल पश्चिम एशिया में अमरीकी मंसूबों का सबसे भरोसेमंद लठैत  है और उसकी सेवाओं के लिए अमरीका ने उसे इस खित्ते के इस्लामी  शासकों पर नाजिल कर रखा है .बराक ओबामा के दोस्त और दुश्मन , सभी अमरीकी राष्ट्रपति को विदेशनीति के ऐसे जानकार के रूप में पेश करते हैं जिसकी नज़र हमेशा सच्चाई पर  रहती  है. यहाँ सच्चाई का मतलब न्याय नहीं है . ओबामा की सच्चाई का मतलब यह है कि घोषित नीतियों से चाहे जितनी पलटी मारनी पड़े , लेकिन अमरीकी फायदे के अलावा और कोई  बात नहीं की जायेगी . अरब दुनिया की राजनीति में उनकी इस शख्सियत को आजकल बार  बार देखने  का मौक़ा लग रहा है . इसी जून के अंतिम सप्ताह में मिस्र के दौरे पर आये अमरीकी विदेश मंत्री जॉन केरी मिस्र के नवनिर्वाचित राष्ट्रपति , अब्दुल फतह अल सीसी  के साथ  मुस्कराते हुए फोटो खिंचा रहे थे .अब्दुल फतह अल-सीसी को अमरीका तानाशाह कहता रहा है . अमरीकी हुकूमत की तरफ से उनकी एक ऐसे व्यक्ति के रूप में शिनाख्त की गयी थी जो मुस्लिम ब्रदरहुड में अपने विरोधियों को साज़िश करके मरवा  डालता है . यह व्यक्ति अल जजीरा के उन तीन पत्रकारों का गुनाहगार भी है जिनको जेल की सज़ा सुना दी गयी है . जॉन केरी फोटो खिंचाकर लौटे ही थे  कि पत्रकारों को सज़ा  का हुक्म हो गया . अमरीका ने मिस्र के इस कारनामे  की निंदा की लेकिन उसी दिन मिस्र को करीब ५८ करोड़ डालर की सैनिक सहायता भी मुहैया करवा दी. यह शुद्ध रूप से मतलबी विदेशनीति है क्योंकि अमरीका को इसमें अपना लाभ नज़र आता है .
बराक ओबामा अपने दूसरे कार्यकाल में पश्चिम एशिया में तरह तरह के अजूबे  करते रहे हैं . वियतनाम के बाद अमरीका ने अफगानिस्तान और इराक में सैनिक हस्तक्षेप बड़े पैमाने पर किया था . जब बुश बाप बेटों ने इराक और अफगानिस्तान में  सेना की धौंस मारने की कोशिश की थी तो उनके शुभचिंतकों ने उनको चेतावनी दी थी कि संभल कर रहना , कहीं वियतमान न हो जाए. खैर , अभी तक वियतनाम तो नहीं हुआ है लेकिन अभी दोनों ही देशों में अमरीकी गलतियों का सिलसिला ख़त्म भी तो नहीं हुआ  है .अफगानिस्तान में वर्षों का हामिद करज़ई का शासन ख़त्म होने को है . अमरीकी सुरक्षा के तहत वहां राष्ट्रपति पद के चुनाव हुए हैं . दूसरे दौर की गिनती हो चुकी  है . पहले राउंड के बाद कोई फैसला नहीं  हो सका था . उसके बाद अब्दुल्ला अब्दुल्ला  और अशरफ गनी के बीच दूसरे राउंड का चुनाव हो चुका है . औपचारिक रूप से नतीजे घोषित नहीं हुए हैं लेकिन संकेत साफ़ आ चुके हैं  . आम तौर पर माना जा रहा है कि पख्तूनों के समर्थन से चुनाव लड़ रहे अशरफ गनी ने बेईमानी करके ताजिकों के समर्थन वाले अब्दुल्ला अब्दुल्ला को हरा दिया है  . इस बीच नतीजों के संकेत आने के बाद अब्दुल्ला के समर्थकों ने दबाव बनाना शुरू कर दिया है  कि आप अपने आपको निर्वाचित घोषित कर दीजिये . अगर ऐसा हुआ तो साफ़ माना जाएगा कि अफगानिस्तान के दो टुकड़े होने वाले हैं . अभी कोई नहीं जानत्ता कि अफगानिस्तान का राष्ट्रपति कौन होगा---- अब्दुल्ला या अशरफ गनी . या कहीं दोनों ही राष्ट्रपति न बन जाएँ . अमरीका की मनमानी नीतियों की  कृपा से ही आज अफगानिस्तान एक अशान्ति का क्षेत्र है . एक ऐसा क्षेत्र जहां अमरीका की कृपा से अल कायदा का जन्म हुआ , जहां पाकिस्तानी सेना ने तालिबान की स्थापना की और जिसके संघर्ष में शामिल  मुजाहिदीन ने आसपास के इलाकों में आतंक का माहौल  बना रखा है . आज इस अशांति से अमरीका को सबसे बड़ा खतरा  है . यह ख़तरा हमेशा से ही था लेकिन अमरीकी हुक्मरान को यह दिखता नहीं था .उनको लगता  था कि पश्चिम और दक्षिण एशिया की अशांति अमरीका नहीं पंहुचेगी लेकिन जब ११ सितम्बर को न्यूयार्क में हमला हो गया तब से अमरीकी विदेश नीति तरह तरह के कुलांचे भरती नज़र आ रही है .
अफगानिस्तान की तरह ही अमरीकी विदेशनीति ने इराक में अशान्ति का माहौल बना रखा है . अमरीका का हुक्म मानने से इनकार करने वाले तत्कालीन इराकी राष्ट्रपति सद्दाम हुसैन को सबक सिखाने के लिए अमरीका ने सामूहिक नरसंहार के  हथियारों की फर्जी बोगी के ज़रिये इराक पर हमला किया था . दिमाग से थोड़े कमज़ोर अमरीकी राष्ट्रपति बुश जूनियर और उनके साथी ब्रिटेन के राष्ट्रपति टोनी ब्लेयर ने इराक को तबाह करने की योजना बनाई थी . आज अमरीकी विदेशनीति वहीं दजला और फरात  नदियों के दोआब में बुरी तरह से पिट रही है . अमरीका की पश्चिम एशिया नीति में कभी भी कोई स्थिरता नहीं रही है लेकिन बेचारे बराक ओबामा की मुश्किल बहुत ही अजीब है . आजकल वे इराक में राज कर रहे प्रधानमंत्री नूरी अल मलिकी को नहीं संभाल पा रहे हैं . अमरीका अब उन पर भरोसा नहीं करता. लेकिन उनके लिए ३०० अमरीकी सैनिक सलाहकार भेज दिए गए . संकेत यह है कि अमरीका मलिकी के साथ है जबकि ऐसा नहीं है .इससे इराक के अल्पसंख्यक सुन्नी नेताओं में खासी नाराज़गी  है . ऐसा लगता है कि इस्लामिक स्टेट नाम के आतंकी संगठन के खिलाफ और किसी स्वीकार्य नेता को इराक में न तलाश पाने की कुंठा के चलते ओबामा अल मलिकी को ही समर्थन करने की सोच रहे हैं . इस  चक्कर में वे अपने परंपरागत दुश्मन इरान और सीरिया  के राष्ट्रपति बशर अल असद के साथ हाथ मिलाते नज़र आ  रहे हैं .अमरीका ने इरान से सैनिक सहयोग मांग लिया है जबकि बशर अल असद ने अमरीकी सलाह से इराक के अन्दर उन इलाकों पर लड़ाकू विमानों से बमबारी करवाई है जो इस्लामिक स्टेट आफ इराक एंड सीरिया के सुन्नी  लड़ाकों के कब्जे में है. अब दूसरा विरोधाभास देखिये . अमरीकी राष्ट्रपति ने अपनी संसद से ५० करोड़ डालर की सैनिक सहायता उन ज़िम्मेदार सुन्नी मिलिसिया के लिए माँगी है जो सीरिया में बशर अल असद की सरकार के खिलाफ लड़ रहे हैं.   देखा यह गया है  कि सीरिया और इरान के बारे में अमरीका बिलकुल कन्फ्यूज़न का शिकार है .इजरायल, साउदी अरब आदि के दबाव में वह इरान और लेबनान में एक आचरण करता  है जबकि इराक की ज़मीनी सच्चाई की रोशनी में वह शिया हुक्मरानों के करीब जाने की कोशिश  करता नज़र  आता  है . कोई भी साफ़ दिशा कहीं से भी नज़र नहीं आती है .
आजकल तो अमरीकी विदेशनीति के आयोजक और संचालक मुंगेरीलालों को एक और  हसीन सपना आ रहा है . वे इरान के साथ किसी ऐसे समझौते के सपने देख रहे हैं  जिसके बाद इरान के परमाणु कार्यक्रम को भी काबू में किया जा सकेगा . अगर ऐसा हुआ तो अमरीका और इरान के बाच ३५ साल से चली आ रही दुश्मनी ख़त्म हो जायेगी . अब इनको कौन बताये कि जो इरान हर तरह की अमरीकी पाबंदियों को झेलता रहा , अमरीका के हर तरह के दबाव को झेलता रहा और उन दिनों के अमरीकी  चेला सद्दाम हुसैन के हमले  झेलता रहा और अमरीका के सामने कभी नहीं झुका , वह इरान आज जबकि उसका पलड़ा भारी  है , वह अमरीका की मूर्खतापूर्ण विदेशनीति को डूबने से बचा सकता  है तो वह अपने परमाणु कार्यक्रम जो अमरीका की मर्जी से चलाने पर राजी हो जाएगा. अमरीकी विदेशनीति के संचालकों को यह नहीं दख रहा है कि  अगर इरान से बहुत अधिक दोस्ती बढ़ाने की कोशिश की गयी तो इजरायल को कैसा लगेगा या कि साउदी अरब को कैसा लगेगा .
आज भी पश्चिम एशिया में अमरीका के सबसे करीबी दोस्तों में इजरायल के अलावा जार्डन, संयुक्त अरब अमीरात और तुर्की शामिल हैं . इसके अलावा क़तर , बहरीन, ओमान, लेबनान और कुवैत भी अमरीका के दोस्तों में शुमार किये जाते हैं . इस्लामिक स्टेट आफ इराक और सीरिया को काबू में करने के लिए अमरीका को साउदी अरब की मदद भी मिल सकती है क्योंकि वह भी आजकल अल कायदा से बहुत खफा है . ज़ाहिर है की अगर इन साथियों के इर्द गिर्द अमरीका कोई योजना बनाता है तो शायद इस्लामिक स्टेट आफ इराक और सीरिया को काबू में किया जा सके. इस मुहिम में उसको इरान और  सीरिया के राष्ट्पति की मदद भी मिल सकती है लेकिन अब वक़्त आ गया  है कि अमरीका अपनी उस आदत से बाज़ आ गए जिसमें सब कुछ उसकी मर्जी से ही होता रहा है . पश्चिम एशिया में आज अमरीका मुसीबत के  घेरे में है उसे समझदारी से काम लेना पडेगा .

Thursday, July 10, 2014

साम्प्रदायिक दंगों को समझने के लिए नया सिद्धांत , आर्थिक कारणों से होते हैं दंगे



शेष नारायण सिंह 


अपने देश में साम्प्रदायिक हिंसा की शुरुआत , योजनाबद्ध तरीके से , महात्मा गांधी के १९२० के आन्दोलन के बाद से मानी जाती है. जब अंग्रेजों ने देखा कि महात्मा गांधी की अगुवाई में पूरे देश के हिन्दू और मुसलमान एक हो गए हैं ,तो उनको अपनी हुकूमत के भविष्य के बारे में चिंता होने लगी. उसके बाद से ही अंग्रेजों ने दंगों के बारे में एक विस्तृत रणनीति बनाई और संगठित तरीके से देहस में दंगों का आयोजन होने लगा .अब तक के दंगों के इतिहास और उसकी राजनीति को समझने  के लिए माना जाता रहा है कि शासक वर्ग अपने राजनीतिक हितों की साधना के लिए दंगे करवाते हैं . लेकिन अब साम्प्रदायिक झगड़ों को समझने के विमर्श में एक नया  सिद्धांत बौद्धिक स्तर पर चर्चा  में है . बताया  गया है कि साम्प्रदायक दंगों की शुरुआत कोई न कोई व्यापारी करवाता  है और बाद में उसको राजनेता, धार्मिक नेता या सामाजिक समूह अपने लाभ के लिए इस्तेमाल करता है .  डॉ अनिरबान मित्रा और देबराज रे ने इस नए सिद्धांत का प्रतिपादन किया है . " इम्प्लीकेशंस ऑफ ऐन इकानामिक थियरी ऑफ कानफ्लिक्ट: हिन्दू-मुस्लिम वायलेंस इन इण्डिया " शीर्षक वाला यह शोध पत्र  जर्नल आफ पोलिटिकल इकानामी के अगले अंक में छपने वाला है. इसके बारे में मुझे सबसे पहले जानकारी मेरे मित्र और ब्राउन विश्वविद्यालय के प्रोफ़ेसर आशुतोष  वार्ष्णेय ने दी .  वे खुद हिन्दू-मुस्लिम संघर्ष के राजनीतिशास्त्र के विषय के भारी ज्ञाता हैं . उन्होंने मुझसे बताया कि उन्होंने इस शोधपत्र को देखा है . उन्होंने बताया कि इस बात से वे खुद सहमत नहीं हैं लेकिन जिस तार्किक तरीके से बात कही गयी है वह अकाट्य है और आने वाले समय में  यह राजनीतिशास्त्र के बौद्धिक अध्ययन में चर्चा में रहेगा .


अब मुल्कों में जंग नहीं होती। अब एक ही मुल्क के लोग आपस में कट मरते हैं। सीरिया और इराक में चल रही लड़ाइयां इसका सबसे ताजा उदाहरण हैं। दोनों ही देशों में चल रहे सिविल वार में शामिल हर शख्स मुसलमान है। कोई राजा है तो कोई राजा बनने के लिए लड़ रहा है। जो हैरानी की बात है वह यह है कि पश्चिम एशिया में सत्ता पर कब्जा करने की जो जद्दोजहद चल रही है, उस हर लड़ाई में खून इंसान का बह रहा है, आम आदमी का बह रहा है, ऐसे लोगों का खून बह रहा है जिनको इस लड़ाई में या तो मौत मिलेगी या गरीबी। लड़ाई की अगुवाई करने वालों को राज मिलेगा, वे जिसकी कठपुतलियां हैं उनको आर्थिक लाभ होगा, अमेरिका और रूस इस इलाके में हो रही लड़ाई में अपने-अपने हित साध रहे हैं, उनकी कठपुतलियां पूरे अरब को रौंद रही हैं, और आम आदमी की जिंदगी तबाह कर रही हैं और अपने देश का मुस्तकबिल उन्हीं ताकतों के हवाले कर रही हैं जिन्होंने पूरी अरब दुनियां को आज से सौ साल पहले टुकड़े-टुकड़े कर दिया था। विश्वयुद्ध के प्रमुख कारणों में से एक अरब इलाकों में मिले तेल पर कब्जा करना भी था।
जिस तरह की लड़ाई सीरिया और इराक में चल रही है, उसको साम्राज्यवादी भाषा में 'लो इंटेंसिटी वारÓ कहते हैं। इस तरह की लड़ाई में जो लोग मर कट रहे होते हैं उनको किसी धर्म, सम्प्रदाय या जाति के नाम पर इकट्ठा किया जाता है और बाद में साम्राज्यवादी या शासकवर्ग की ताकतें उनको अपने हित के लिए इस्तेमाल कारती हैं। पश्चिम एशिया का पूरा युद्ध इसी श्रेणी में आता है। युद्ध के गुनाहों के लिए सबसे ज़्यादा जिम्मेवार अमेरिका और रूस हैं क्योंकि इन दोनों ने ही अफगानिस्तान में जो जहर बोया था, वह अब पूरे खित्ते में आतंक की शक्ल में फैल गया है और पूरा एशिया और मध्य एशिया उसकी चपेट में है।  
भारत में भी स्वार्थी राजनेताओं ने 1940 के दशक में इसी तरह के धर्म आधारित खूनी संघर्ष की बुनियाद रख दी थी। जब अंग्रेजों की समझ में आ गया कि अब इस देश में उनकी हुकूमत के अंतिम दिन आ गए हैं तो उन्होंने मुल्क को तोड़ देने की अपनी प्लान बी पर काम शुरू कर दिया। नतीजा यह हुआ कि अगस्त 1947 में जब आजादी मिली तो एक नहीं दो आजादियां मिलीं, भारत के दो टुकड़े हो चुके थे, साम्राज्यवादी ताकतों के मंसूबे पूरे हो चुके थे लेकिन सीमा के दोनों तरफ ऐसे लाखों परिवार थे जिनका सब कुछ लुट चुका था।  भारत और पाकिस्तान आजाद हो गए थे। दोनों ही देशों में साम्राज्यवादी ताकतों के नक्शेकदम पर राज करने की सौगंध खा चुके लोग नए शासक वर्ग बन चुके थे, दोनों ही देशों में ऐसी अर्थव्यवस्था की बुनियाद डाल दी गई थी जिसमें आम आदमी की हिस्सेदारी केवल राजनीतिक पार्टियों को सरकार सौंप देने भर की थी। लेकिन जो हिंसक अभियान शुरू हुआ उसको अब बाकायदा  संस्थागत रूप दिया  जा चुका है। भारत की आजादी के पहले हिंसा का जो दौर शुरू हुआ उसने हिन्दू और मुसलमान के बीच अविश्वास का ऐसा बीज बो दिया था जो आज बड़ा पेड़ बन चुका है और अब उसके जहर से समाज के कई स्तरों पर नासूर विकसित हो रहा है। भारत की राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक जिंदगी में अब दंगे स्थायी भाव बन चुके हैं। आजादी के बाद से भारत में बहुत सारे दंगे हुए। अधिकतर दंगों के आयोजकों का उद्देश्य राजनीतिक सत्ता हासिल करने के लिए सम्प्रदायों का धु्रवीकरण रहा है।  देखा यह गया है कि भारत में अधिकतर दंगे चुनावों के कुछ पहले सत्ता को ध्यान में रख कर करवाए जाते हैं। विख्यात भारतविद् पॉल ब्रास ने अपनी महत्वपूर्ण किताब ''द प्रोडक्शन ऑफ हिन्दू-मुस्लिम वायलेंस इन कंटेम्परेरी इण्डियाÓÓ में दंगों का बहुत ही विद्वत्तापूर्ण विवेचन किया है। उन्होंने साफ कहा है कि हर दंगे में जो मुकामी नेता सक्रिय होता है, दोनों ही समुदायों में उसकी इच्छा राजनीतिक शक्ति हासिल करने की होती है लेकिन उसको जो ताकत मिलती है वह स्थानीय स्तर पर ही होती है।  उसके ऊपर भी राजनेता होते हैं जो साफ न•ार नहीं आते लेकिन वे बड़ा खेल कर रहे होते हैं। पॉल ब्रास ने लिखा है कि, 'आजादी के पैंतालीस साल बाद दुनिया के सामने एक अजीब तरह के भारत की तस्वीर पेश की गई।  उस तस्वीर में हिन्दू धर्म के एक प्रसिद्ध शहर अयोध्या में झुण्ड के झुण्ड हिन्दू न जर आए जो करीब पांच सौ साल पुरानी एक मस्जिद को ढहाने के लिए इकट्ठा हुए थे। इसके बाद जो दंगा हुआ उसके कारण अयोध्या से एक हजार मील दूर, बम्बई के दंगों के बाद जल रहे शहर की तस्वीरों वाली खबरें दुनिया भर में दिखाई गईं। भारत के बाहर रहने वाले जिन लोगों ने बीबीसी टेलीविजन पर इन तस्वीरों को देखा उनको नहीं मालूम था कि बंबई की तरह के हालत और शहरों में भी हुए थे।Ó अपनी किताब में पॉल ब्रास ने यह बात बार-बार साबित करने की कोशिश की है कि भारत में दंगे राजनीतिक कारणों से होते हैं, हालांकि उसका असर आर्थिक भी होता है लेकिन हर दंगे में मूलरूप से राजनेताओं का हाथ होता है।  पॉल ब्रास की अॅथारिटी को चुनौती देना मेरा मकसद नहीं है। आम तौर पर माना जाता है कि वे इस विषय के सबसे गंभीर आचार्य हैं। हिन्दू मुस्लिम संबंधों और झगड़ों पर ब्राउन विश्वविद्यालय के प्रोफेसर आशुतोष वार्षणेय ने  भी बहुत गंभीर काम किया है, उनके विमर्श में पॉल ब्रास की बहुत सारी स्थापनाओं को चुनौती दी गई है लेकिन उनके भी निष्कर्ष लगभग वही हैं।
अब तक आमतौर पर यही माना जाता रहा है कि दंगों के पीछे राजनीतिक मकसद ही  होते हैं। लेकिन अब एक नया दृष्टिकोण भी बहस में आ गया है। न्यूयार्क विश्वविद्यालय के रिसर्च स्कालर और ओस्लो विश्वविद्यालय के प्रोफेसर डॉ. अनिरबान मित्रा ने विश्वविख्यात अर्थशास्त्री और न्यूयार्क विश्ववद्यालय के अर्थशास्त्र के विभागाध्यक्ष, प्रोफेसर देबराज रे के साथ मिलकर एक शोधपत्र लिखा है। ''इम्प्लीकेशंस ऑफ ऐन इकानामिक थियरी ऑफ कानफ्लिक्ट: हिन्दू-मुस्लिम वायलेंस इन इण्डियाÓÓ शीर्षक वाला यह शोधपत्र दुनिया की  सबसे सम्मानित राजनीतिक अर्थशास्त्र की शोध पत्रिका  'जर्नल आफ पोलिटिकल इकानामीÓ के अगले अंक में छपेगा। उनका कहना है कि कई बार हिन्दू-मुस्लिम दंगे शुद्ध रूप से आर्थिक और व्यापारिक कारणों से भी होते हैं। डॉ. मित्रा  कहते हैं कि 'राजनीतिशास्त्री और समाजशास्त्री  जातीय हिंसा के बारे में लिखते रहे हैं। लेकिन उनके लेखन में अक्सर आर्थिक कारणों को अहमियत नहीं दी जाती। हमारा विश्वास है कि इकानामिक थियरी और उसके तरीकों से संघर्ष को बेहतर तरीके से समझा जा सकता है।Ó  इस पर्चे के अनुसार भारत के कई इलाकों में धर्म का इस्तेमाल आर्थिक सम्पन्नता के लिए किया जाता है। उदाहरण के लिए कोई आदमी अपने जिले में कोई सामान बेचता है। अक्सर उसके मुकाबले में और लोग भी वही सामान या वही सेवाएं बेचने लगते हैं। अगर  वह कारोबारी मुसलमान है तो अपनी बिरादरी वालों को इकट्ठा करके दंगे की हालात पैदा कर देता है और अगर हिन्दू है तो वह मुसलमानों के खिलाफ लोगों  को भड़काता है। यह  व्यापारी किसी धर्म के मानने वालों से नफरत नहीं करते, बस कम्पीटीशन को खत्म करने के लिए सारा सरंजाम करते हैं और उनको उसका फायदा भी होता है। 
इस रिसर्च में 1950 से 2000 के बीच के दंगों के भारत सरकार के आंकड़ों का प्रयोग किया गया है। इस दौर में उन सभी लोगों के केस जांचे गए हैं जिनको दंगों के दौरान चोट लगी या जो घायल हुए। घरेलू खर्च के सरकारी सर्वे के आंकड़े भी इस्तेमाल किए गए है। शोध के नतीजे निश्चित रूप से एक नई समझ की तरफ संकेत  करते हैं। दंगे के अर्थशास्त्र को एक नया आयाम दे दिया गया है। बताया गया है कि दंगों में सबसे ज़्यादा परेशानी मुसलमानों को होती है। लिखते हैं, ''एक साफ पैटर्न नजर आता है। जब मुसलमानों की सम्पन्नता बढ़ती है, उसके अगले साल और बाद के वर्षों में धार्मिक संघर्ष बढ़ जाता है।ÓÓ  देखा यह गया है कि अगर मुसलमानों की खर्च करने की क्षमता में एक प्रतिशत की वृद्धि होती है तो उस इलाके में हिंसक दंगों में पांच प्रतिशत की वृद्धि हो जाती है। लेकिन हिन्दुओं के मामले में यह बिल्कुल उलटा है। अगर हिन्दू सम्पन्न होते हैं तो उनके खिलाफ कोई दंगा नहीं होता। इस रिसर्च के पहले भी ऐसी बहुत सारी  किताबें आई हैं जिनके अनुसार दंगों का कारण आर्थिक भी  होता है लेकिन अभी तक ऐसी कोई किताब या कोई सिद्धांत नहीं आया है जिसमें यह देखा जा सके कि दंगों में एक निश्चित आर्थिक पैटर्न होता है। इस शोध में यही बात जोर देकर कही गई है।
जाहिर है कि दंगों के मुख्य कारणों में आर्थिक मुद्दों को शामिल करना और राजनीतिक कारणों को उसका बाई प्रॉडक्ट मानना एक नई बात है और इससे विवाद पैदा होगा लेकिन यह भी सच है जब भी कोई नया सिद्धांत आता है तो जिन लोगों की बुद्धिमत्ता को चुनौती मिल रही होती है उनको चिंता होती है। जर्नल ऑफ पोलिटिकल इकानामी में इस शोध पत्र के छपने के बाद बहस की शुरुआत होगी। बहरहाल इस बात गारंटी है कि अब  दंगों की बहस में एक नया और जबरदस्त आयाम जुड़ चुका है।