डॉ राही मासूम रज़ा ने जो कुछ भी लिखा है
,बहुत ही आला दर्जे का लिखा है . उनके
उपन्यास आधा गाँव,टोपी शुक्ला, हिम्मत जौनपुरी,ओस की बूँद,दिल एक सादा कागज़, कटरा
बी आर्ज़ू, और नीम का पेड़ मैंने पढ़ा है . ख़ुदा हाफ़िज़ कहने का मोड़ भी पढ़ा है. उनके
ज़रिये ही उनके गाँव के लोगों को जानता हूँ. राही की शैली मुझे अपनी लगती है . उनके
उपन्यासों में बहुत सारे असली चरित्र होते हैं . दिल एक सादा कागज़ एक बार फिर पढ़ा उनके जन्मदिन पर .उनका यह उपन्यास बार बार हार जाने के बाद भी जिंदा
रहने की जिद की कहानी है , समझौतों की कहानी है . आज़ादी के पहले और उसके बाद के
नकलीपन को रेखांकित करने की कहानी है . सिस्टम का हिस्सा बनकर जिंदा रहने की कोशिश की कहानी है . मुझे इस उपन्यास में कहीं
कोने अंतरे में मेरा ," मैं " झांकता नज़र
आता है . आज के कई दशक पहले जब इसको पहली
बार पढ़ा था तो सोचा था कि अपनी शर्तों पर ज़िंदगी जियूँगा , मैं रफ्फन की तरह समझौते
नहीं करूंगा . मैं भी डिग्री कालेज की मास्टरी छोड़कर आया था . तय यह किया था कि जिस
औरत से शादी की है उसके बच्चों को उसी की मर्जी की बुलंदी पर ले जाऊँगा . चार
दशक के बाद जब इस किताब को फिर पढ़ा तो लगा कि केवल शिक्षा की पूंजी लेकर
,दिमाग की पूंजी लेकर चल रहे लोगों को समझौते करने पड़ते हैं . रफ्फन जितने तो नहीं लेकिन काफ़ी समझौते मैंने भी किये . लेकिन जब उस औरत को संतुष्ट देखता हूँ तो लगता है कि ठीक ही किया .दिल एक
सादा कागज़ की कुछ पंक्तियाँ मुझे आज बहुत अच्छी लग रही हैं . राही लिखते हैं
," रफ्फन उस पल इस नतीजे पर पंहुचा
कि जन्नत ( उसकी बीवी ) दुनिया की सबसे ज़्यादा खूबसूरत औरत है और उसी पल वह अपनी जन्नत और जन्नत बाजी
को अलग-अलग करके देखने में पहली बार सफल भी
हुआ .और उसने अपने आपको बेच देने के जुर्म पर अपने आपको क्षमा कर दिया
"
अलीगढ से नौकरी से निकाले जाने के बाद जब कोई भी
डॉ राही मासूम रज़ा के साथ खड़ा होने को तैयार नहीं था ,तब राजकमल प्रकाशन की
मालकिन और स्वनामधन्य बुद्धिजीवी , स्व.शीला संधू ने उनको मानसिक सहारा दिया था . यह उपन्यास
राही ने उनको ही समर्पित किया है. समर्पण करते हुए लिखते हैं ,
" शीला जी ,आपने मुझे एक ख़त में लिखा
है : " फिल्मों में ज्यादा मत फंसियेगा.यह भूल भुलैया है .इसमें लोग खो जाते
हैं .......आशा है ,आप खैरियत से होंगे."
मैं खैरियत से नहीं हूँ
' दिल एल सादा कागज़ मेरी जीवनी भी हो सकता
था .पर यह मेरी जीवनी नहीं है . इसके पन्नों में उदासी-सी जो कोई चीज़ है ,उसे
स्वीकार कीजिये . इसलिए स्वीकार कीजिये कि मेरी नई ज़िंदगी की दस्तावेज़ पर पहला
दस्तखत आप ही का है .
सात साल के बाद आपको वह दोपहर याद दिलवा रहा हूँ जिसमें
मेरा साथ देने वाला कोई नहीं था . मैं नय्यर के साथ बिलकुल अकेला था और तब आपने
कहा था : " फ़िक्र क्यों करते हो . मैं तुम लोगों के साथ हूँ ."उसी
बेदर्द और बेमुरव्वत दोपहर की याद में यह उपन्यास आपकी नज़र है .
राही मासूम रजा
१५-९-७३
No comments:
Post a Comment