Saturday, November 25, 2017

क्या गरीब राजपूत लड़के लड़कियों की भी सुध ली जायेगी ?



शेष नारायण सिंह

चित्तौड़ की रानी पद्मिनी और चित्तौड़ गढ़ के हवाले से एक  फिल्म बनी है और उस पर विवाद हो  रहा है. जिस अभिनेत्री ने रानी पद्मिनी की भूमिका अदा की है उसको जला डालने और उसकी नाक काट लेने के लिए इनामों  की घोषणा हो रही है . राजपूतों के  कुछ संगठन इसमें आगे आ गए हैं . राजपूती आन बान और शान पर खूब चर्चा  हो रही है . ऐसा लगता है कि कुछ लोग राजपूतों की एकता की कोशिश कर रहे हैं और उसको बतौर वोट  बैंक विकसित करने का कोई कार्यक्रम चल रहा है . इसका आयोजन कौन कर रहा है,अभी इसकी जानकारी सार्वजनिक चर्चा में नहीं आयी है . राजपूतों के इतिहास पर बहुत कुछ लिखा गया  है . नामी गिरामी विद्वानों  ने शोध किया  है और  क्षत्रियों और राजपूतों में तरह तरह के भेद बताये गए हैं . वह बहसें आकादमिक हैं लेकिन आम तौर पर ठाकुरक्षत्रिय और राजपूत को एक ही माना जाता है . इसलिए इस लेख में ठाकुरों और राजपूतों के बारे में अकादमिक चर्चाओं से दूर सामाजिक सवालों पर बात करने की कोशिश की जायेगी . मैं राजपूत परिवार में  पैदा हुआ था . लेकिन राजपूत  जाति की राजनीति से मेरा साबका १९६९ में पडा जब जौनपुर के मेरे कालेज में अखिल भारतीय क्षत्रिय महासभा का अधिवेशन हुआ . देश के कोने  कोने से राजपूत राजा महाराजा आये थे . मेवाड़ के स्व महाराणा भगवत सिंह  ने  अध्यक्षता की थी. डूंगरपुर के महारावल लक्ष्मण सिंह भी आये  थे.  और भी बहुत से राजा आये थे .  उस अधिवेशन में पूरी चर्चा इस बात पर होती रही  कि इंदिरा गांधी ने राजाओं का प्रिवी पर्स छीन कर राजपूतों की आन बान पर बहुत बड़ा हमला किया था . आजादी के बाद सरदार पटेल ने जिन राजाओं के राजपाट का भारत में विलय करवाया था उनको कुछ विशेषाधिकार और उनके राजसी जीवन निर्वाह के लिए प्रिवी पर्स देने का वायदा  भी किया था . कुछ राजाओं को को १९४७   में लाखों रूपया  मिलता था . मसलन मैसूर के राजा को २६ लाख रूपये मिलते थे .  सन १९५०  में सोने का भाव करीब १०० रूपये प्रति दस ग्राम  होता था .आज करीब  तीस हज़ार रूपये है. आज की कीमत से इसकी तुलना की जाए तो यह ७८  करोड़  रूपये हुए. 1970 में जब इंदिरा गांधी ने प्रिवी पर्स ख़त्म किया तब  भी सोना १८४ रूपये प्रति दस ग्राम था . ऐसे सैकड़ों राज थे हालांकि कुच्छ को तो बहुत कम रक़म मिलती थी .  यानी प्रिवी पर्स देश  संपत्ति पर बड़ा बोझ था . इसलिए स्वतंत्र भारत में प्रिवी पर्स के मामले  पर आम नाराज़गी की थी .उस समय की देश की आर्थिक स्थिति  के लिहाज़ से इस को  देश पर  बोझ माना जाता था .राजाओं के ख़िताबों की आधिकारिक मान्यता को भी पूर्णतः असंवैधानिक व अलोकतांत्रिक प्रक्रिया के रूप में देखा जाता था। प्रिवी पर्स को  हटाने का प्रस्ताव १९६९ में जब संसद में लाया गया तो प्रस्ताव राज्य सभा पारित नहीं हो  सका और मामला टल गया . बाद में  इंदिरा गांधी ने  नागरिकों के लिये सामान अधिकार एवं सरकारी धन के दुरूपयोग का हवाला देकर  १९७१ में २६वें संविधानिक संशोधन के रूप में पारित कर दिया . और प्रिवी पर्स ख़त्म हो गया .कई राजाओं ने १९७१ के चुनावों में इस मुद्दे पर इंदिरा गांधी को चुनौती दी , लोक सभा का चुनाव लड़ने  लिए मैदान लिया और सभी बुरी तरह से हार गए .

इंटरमीडिएट के छात्र के रूप में मैंने इस अधिवेशन को देखा और इसमें शामिल हुआ. अजीब लगा कि अखिल भारतीय क्षत्रिय महासभा के अधिवेशन में राजाओं के प्रिवी पर्स और विशेषाधिकारों के पक्ष में क्षत्रिय समाज को एकजुट  करने की आयोजकों की तरफ से  की गयी .  मेरे दर्शनशास्त्र के  और मेरे गुरू ने मुझे समझाया कि इस बहस का  कोई मतलब नहीं है . उत्तर प्रदेश ,जहां यह बहस हो रही थी वहां किसी भी  राजपूत या क्षत्रिय राजा को प्रिवी पर्स नहीं मिलता था . उत्तर प्रदेश में प्रिवी पर्स वाले लेवल तीन राजा थेकाशी नरेश ,नवाब रामपुर और समथर के राजा.. इन तीनों में कोई भी राजपूत नहीं था. जबकि उसी उत्तर प्रदेश में लगभग सभी  गाँवों  में राजपूत  रहते हैं . उनकी समस्याओं पर  अखिल भारतीय क्षत्रिय महासभा के अधिवेशन में कोई चर्चा नहीं हुयी .उस दौर में किसानो को खाद,  चीनी ,सीमेंट आदि काले बाज़ार से दुगुनी कीमत पर खरीदना पड़ता था ,उन  किसानों में बड़ी संख्या में राजपूत थे  लेकिन महासभा में इस विषय पर कहीं कोई बात नहीं हो रही थी.  एक छात्र को भी भाषण करने का अवसर मिलना था . जिसके लिए मुझे कालेज की तरफ से बुलाया गया . मैंने किसान राजपूतों , चपरासी राजपूतों, क्लर्क राजपूतों , बेरोजगार राजपूतों  की समस्याओं का ज़िक्र कर दिया और राजाओं के लाभ के  एजेंडे से बात फिसल गयी. उसके बाद से सरकार से किसानों की समस्याओं  पर बात शुरू हो गयी . राजपूती शान और आन बान की  बहस के बीच राजपूतों की बुनियादी समस्याओं पर भी बहस  शुरू हो गयी .

यह काम मैं कसर करता हूँ . अभी पिछले दिनों  रानी पद्मिनी को केंद्र में रख कर बनाई फिल्म की बहस में जब मुझे शामिल होने का अवसर मिला तो मैंने रानी पद्मिनी के इतिहास और जौहर के हवाले से उन समस्याओं का भी उल्लेख कर दिया जो आज के राजपूत रोज़ ही  झेल रहे हैं . मेरे गाँव और आस पास के इलाके में  राजपूतों की बड़ी आबादी  है . सैकड़ों  किलोमीटर तक राजपूतों के ही गाँव हैं . बीच बीच में और भी जातियां हैं .ज्यादातर लोग  बहुत ही गरीबी की ज़िंदगी बिता  रहे  हैं . दिल्ली , मुंबई, जबलपुर, नोयडा , गुरुग्राम आदि शहरों में हमारे इलाके के राजपूत भरे पड़े हैं . वे अपना गाँव छोड़कर आये हैं . वहां खेती है लेकिन ज़मीन के रकबा इतना कम हो गया है कि परिवार का भरण पोषण नहीं हो  सकता . शिक्षा की कमी है इसलिए यहां मजदूरी करने पर विवश हैं . मजदूरी भी ऐसी कि न्यूनतम मजदूरी से बहुत कम कमाते हैं . किसी झुग्गी में  चार -पांच लोग रहते हैं . राजपूती आन की ऐसी चर्चा गाँव में होती रहती है कि वहां चल रही मनरेगा योजनाओं में काम   नहीं कर सकते ,  खानदान की नाक कटने का डर है . यह तो उन लोगों की हाल है जो अभी   दस पांच साल पहले घर से आये हैं . जो लोग यहाँ चालीस साल से रह रहे  हैं , उनकी हालत बेहतर बताई जाती है . एक उदाहरण पूर्वी दिल्ली के मंडावली का दिया जा सकता है . पटपडगंज की पाश सोसाइटियों से लगे हुए  मंडावली गाँव की खाली पडी ज़मीन पर १९८० के आस पास पूर्वी दिल्ली के बड़े नेता , हरिकिशन लाल  भगत के  गुंडों ने पुरबियों से दस दस हज़ार रूपये लेकर ३५ गज ज़मीन के प्लाट पर क़ब्ज़ा करवा दिया था. सब बस गए .बाद में वह कच्ची कालोनी मंज़ूर हो गयी और अब ३५ साल बाद उस ज़मीन की कीमत बहुत बढ़ गयी  है लेकिन उस  ज़मीन की कीमत बढवाने में वहां रहने वालों की दो पीढियां लग गईं . वहां ठाकुरों , ब्राहमणों आदि के जाति के आधार मोहल्ले बना दिए गए थे . उनमें राजपूत भी बड़ी संख्या में थे. दिल्ली के संपन्न इलाकों में भी राजपूत रहते थे . सुल्तानपुर के सांसद भी उन दिनों राजपूत थे और राजपूत वोटों के बल  पर जीत कर आये थे लेकिन उनको  भी उन गंदी बस्ती में रह रहे लोगों की परवाह   नहीं थी . जब  पांच साल बाद फिर चुनाव हुए तो उन्होंने जिले में जाकर ठाकुर एकता का नारा दिया था .  इसी तरह की एक  कालोनी दिल्ली के वजीराबाद पुल के आगे है . सोनिया विहार नाम की इस कालोनी में भी लाखों की संख्या में राजपूत रहते हैं और आजकल  उस फिल्म में रानी  पद्मावती के चित्रण को लेकर गुस्से में हैं .

बुनियादी सवाल यह है कि  चुनाव के समय या किसी आन्दोलन के समय राजपूतों का आवाहन करने वालों को क्या  इस बात का ध्यान नहीं रखना चाहिए कि राजपूतों में जो गरीबी , अशिक्षा , बेरोजगारी आदि समस्याएं हैं उनको भी विचार के दायरे में रखना बाहुत ज़रूरी है .  मेरे गाँव में  राजपूतों के पास बहुत कम ज़मीन है . १९६१ में जब जनगणना हुयी थी तो मैं अपने गाँव के लेखपाल  के साथ घर घर घूमा  था .  राजपूतों के १५ परिवार थे . अब वही अलग बिलग होकर करीब चालीस परिवार  हो गए हैं . ज़मीन  जितनी थी ,वही है. यानी सब की ज़मीन  के बहुत ही छोटे  छोटे टुकड़े  हो गए हैं . पहले भी किसी तरह पेट पलता था , अब तो सवाल ही नहीं है . उन्हीं परिवारों के राजपूत लड़के , महानगरों में मेहनत मजूरी करके पेट पाल रहे हैं. मालिन बस्तियों में रह  रहे  हैं , राजपूत एकता का जब भी नारा दिया जाता है , वे ही लोग  भीड़ का हिस्सा बनते हैं और राजपूत नेताओं की कमियों को छुपाने के लिए चलाई गयी बहसों में भाग लेते हैं . सवाल यह  है कि क्या इन लोगों के बुनियादी  शिक्षा और स्वास्थ्य के अधिकारों के लिए कोई आन्दोलान नहीं चलाया जाना  चाहिए . अगर राजपूतों के नाम पर  राजनीति करने वालों और राजपूत भावनाओं से लाभ लेने वालों से यह सवाल पूछे जाएँ तो समाज का भला होना निश्चित है . लेकिन यह सवाल   पूछने के लिए गरीबी और सरकारी उपेक्षा का जीवन जी रहे लोगों  को ही आगे आना पड़ेगा. राजपूती आन बान और शान के आंदोलनकारियों के नेताओं से यह  सवाल भी पूछे जाने चाहिए .

रानी पद्मिनी के संदर्भ में एक बात और बहुत ज़रूरी पूछी  जानी है लेकिन वह सवाल पीड़ित पक्ष के लोग पूछने नहीं आयेगें . किसान राजपूतों के  परिवार में लड़कियों की शिक्षा आदि का सही ध्यान  नहीं दिया जाता . जहां लड़कों के लिए गरीबी  में भी कुछ न कुछ इंतज़ाम किया जाता  था , लड़कियों को पराया धन मान कर  उपेक्षित किया जाता था . आज ज़रूरी यह है कि राजपूत नेताओं से समाज के वरिष्ठ लोग यह सवाल पूछें कि क्या राजपूत लड़कियों की शिक्षा आदि के लिए कोई ख़ास इंतजाम नहीं किया  जाना चाहिए . क्या उनके अधिकारों की बात को हमेशा नज़र अंदाज़ किया जाता रहेगा .  अगर लड़कियों  को सही शिक्षा दी जाए और उनको भी अवसर उपलब्ध कराये जाएँ तो सामाजिक परिवर्तन की बात को रफ्तार मिलेगी . ऐसा हर वह आदमी जानता  है जिसकी सोचने समझने की शक्ति अभी बची हुयी  है . आज एक सिनेमा के विरोध के नाम पर जो नेता आन्दोलन की अगुवाई कर रहे  हैं क्या उनको अपने गिरेबान में झाँक कर नहीं देखना चाहिए कि लड़कियों को सम्मान की ज़िन्दगी देने में समाज और सरकार का भी कुछ योगदान होता है . जो लोग राजपूतों के इतिहास की बात करके राजपूत लड़कों को  किसी की नाक काटने और किसी को जिंदा जला देने की राह पर डाल रहे हैं क्या उनको राजपूतों की आर्थिक और सामाजिक स्थिति को दुरुस्त करने के लिए आन्दोलन नहीं शुरू करना  चाहिए .  हर राजपूत को  अत्याचारी के रूप में चित्रण करने की परम्परा  को दुरुस्त करने के लिए क्या कोई राजपूत नेता आन्दोलन की डगर  पर जाने  के बारे में विचार करेगा  क्योंकि ऐसे बहुत सारे इलाके हैं जहां राजपूत परिवार की आर्थिक हालत दलितों से भी बदतर है . इन सवालों को पूछने  वालों की समाज  और देश को सख्त ज़रूरत  है . क्या राजपूतों के कुछ नौजवान यह सवाल पूछने के लिए आगे आयेंगें ?

Monday, November 20, 2017

६३ साल की उम्र में जाना भी कोई जाना है , के वी एल नारायण राव नहीं



के वी एल नारायण राव नहीं रहे . एन डी टी वी को राधिका रॉय की बहुत छोटी कंपनी से बड़ी कंपनी बनाने में जिन लोगों का योगदान है , नारायण राव उसमें सरे फेहरिस्त हैं . ६३ साल की उम्र में कूच करके नारायण राव ने बहुत लोगों को तकलीफ पंहुचाई है , मुझे भी . 

बृहस्पतिवार दिनांक २० नवम्बर १९९७ के दिन मैं नारायण राव से पहली बार मिला था. एन डी टी वी में मुझे पंकज पचौरी ने प्रवेश दिलाया था. हिंदी विभाग की प्रमुख मृणाल पांडे ने किसी ऐसे पत्रकार को अपने नए कार्यक्रम के लिए लेने का फैसला किया था, जो बीबीसी के कार्य पद्धति को जानता हो. पंकज ने कहा कि बीबीसी छोड़कर तो कोई नहीं आएगा लेकिन अगर आप कहें तो एक आउटसाइड कंट्रीब्यूटर को बुला दूं . मृणाल जी ने पंकज से सुझाव माँगा तो उन्होंने मेरा नाम बता दिया . मृणाल जी ने मुझे राधिका रॉय से मिलवाया और वहीं , प्रणय रॉय और आई पी बाजपाई भी आ गए और मेरा इंटरव्यू हो गया . चुन लिया गया . राधिका ने कहा अब आप नरायन के पास जाइए क्योंकि Only he negotiates the money . इस तरह मेरी ,के वी एल नारायण राव से डब्लू-१७ गेटर कैलाश-१ वाले दफ्तर में मुलाक़ात हुयी .

नारायण राव उन दिनों जनरल मैनेजर थे . मालिकों के बाद सबसे बड़ी पोजीशन वही थी. मैं अख़बार से गया था , मुझे पता ही नहीं था कि एन डी टी वी में तनखाहें बहुत ज्यादा होती थीं. मुझे जो मिल रहा था मैने उस से काफी आगे बढ़ कर बताया . नारायण राव ने कहा कहा कि सोच लीजिये . मुझे नौकरी ज़रूर चाहिए थी , मैंने थोडा कम कर दिया . मुस्कराते हुए टोनी ग्रेग की लम्बाई वाले गंभीर आवाज वाले शख्स ने कहा कि आपने जो पहले कहा था , कंपनी ने आपको उस से ज्यादा धन देने का फैसला लिया है . अगर आप उससे ज्यादा कहते तो भी मिल सकता था . बहरहाल अब आप जाइए ,, काम शुरू करिए . आपकी उम्मीद से ज्यादा तनखाह आपको मिलेगी.

आज उस दिन को बीस साल हो गए थे . मैं आज ही सोच रहा था कि अपने बीस साल पहले के दिन को याद करूंगा और कुछ लिखूंगा . मैंने बिलकुल नहीं सोचा था कि उस दिन को याद करते हुए मैं आज के वी एल नारायण राव के लिए श्रद्धांजलि लिखूंगा . दिल एकदम टूट गया है .

मैं एन डी टी वी में ज़्यादातर सुबह ही शिफ्ट में काम करता था . सुबह छः बजे से दिन के दो बजे तक . उसी शिफ्ट में अंग्रेज़ी बुलेटिन की इंचार्ज रेणु राव भी हुआ करती थीं. रेनू ने नारायण राव से विवाह किया था. रेनू . स्व. हेमवती नंदन बहुगुणा की भांजी थीं . मैं बहुगुणा जी को जानता था और इन दोनों की शादी में बहुगुणा जी के आवास सुनहरी बाग़ रोड पर शामिल हुआ था . यह दोनों इन्डियन एक्सप्रेस में मिले थे जहां राधिका रॉय डेस्क की इंचार्ज हुआ करती थीं . बाद में नारायण राव , आई आर एस में चुन लिए गए . कुछ साल वहां काम किया लेकिन जब राधिका रॉय ने एन डी टी वी को बड़ा बनाने का फैसला किया तो उन्होंने नारायण राव को अपने साथ आने का प्रस्ताव दिया . उन्होंने नौकरी छोड़ी और एन डी टी वी आ गए . रेनू वहां पहले से ही थीं. एन डी टी वी में काम करने का जी बेहतरीन माहौल था , अब शायद नहीं है , उसको राधिका रॉय की प्रेरणा से नारायण राव ने ही बनाया था.

नारायण राव से किसी ने पूछा कि इनकम टैक्स के बड़े पद पर आप थे, उसको छोड़कर प्राइवेट कंपनी में क्यों आ गए . उन्होंने कहा कि वहां तनखाह कम थी , यहाँ पैसे बनाने आया हूँ . नारायण राव ने इनकम टैक्स विभाग में भी बहुत इमानदारी का जीवन जिया था .उनके पिता , स्व.जनरल के वी कृष्णा राव ,भारतीय सेना के प्रमुख रह चुके थे . रिटायर होने के बाद जम्मू-कश्मीर, त्रिपुरा,नगालैंड और मणिपुर के राज्यपाल भी हुए ..नारायण राव ने अपने बहुत ही बड़े इन्सान और आदरणीय पिता के गौरव को अपना आदर्श मानते थे . के वी एल नारायण राव को मैं कभी नहीं भुला पाऊंगा .

Sunday, November 19, 2017

बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना: बाबरी मस्जिद विवाद और श्री श्री रविशंकर



शेष नारायण सिंह


 अयोध्या विवाद में अब कोर्ट के बाहर सुलह की बात को ज्यादा अहमियत दी जा रही है. इस बार सुलह कराने  के लिए बंगलौर के एक  धार्मिक नेता श्री श्री रविशंकर ने अपने आपको मध्यथ नियुक्त  कर लिया है . माहौल भी अनुकूल है .आज उत्तर प्रदेश में एक ऐसी सरकार है जिसके मुख्य मंत्री,योगी आदित्यनाथ हैं जो गोरखनाथ पीठ के महंत भी हैं . वे स्वयं  भी   अयोध्या की बाबरी मस्जिद की जगह राम जन्म भूमि बनाने के बड़े समर्थक रहे हैं . उनके पहले के गोरखनाथ पीठ के महंत अवैद्यनाथ रामजन्म भूमि आन्दोलन के बड़े नेता रहे  हैं . महंत अवैद्यनाथ के गुरु महंत दिग्विजय नाथ ने १९४९ में बाबरी मस्जिद में रामलला की  मूर्ति रखवाने में प्रमुख  भूमिका निभाई थी . ज़ाहिर है वर्तमान मुख्यमंत्री की इच्छा होगी कि वहां राम मंदिर बन जाये लेकिन अब वे संवैधानिक  पद पर हैं और उनकी ज़िम्मेदारी सुप्रीम कोर्ट का जी भी आदेश होगा ,उसको  लागू करने भर की है. जो मामला सुप्रीम कोर्ट में है उसमें उत्तर प्रदेश सरकार पार्टी भी नहीं है . उत्तर प्रदेश सरकार ने साफ़ कर दिया  है कि बाबरी मस्जिद-रामजन्म भूमि विवाद में सुप्रीम कोर्ट का   फैसला  ही अंतिम सत्य होगा और सरकार उसको लागू करेगी . राज्यपाल राम नाइक ने इस  आशय का बयान भी दे दिया है . 

इस पृष्ठभूमि में श्री श्री रविशंकर ने अयोध्या विवाद में इंट्री मारी  है . राज्यपाल ने उनको साफ़ संकेत दे दिया है कि सरकार से कोई मदद नहीं मिलने  वाली है . राज्यपाल  से जब रविशंकर मिलने गए तो उन्होंने मुलाक़ात की लेकिन बाद में एक बयान भी दे दिया . राज्यपाल ने  कहा कि ," इस तरह की कोशिशें उन लोगों द्वारा  की जा रही हैं जिनको लगता है कि इस से मामले को जल्दी सुलझाया जा सकता है . मेरी शुभकामना उन लोगों के साथ है लेकिन सरकार के लिए सुप्रीम कोर्ट का निर्णय ही अंतिम और  बाध्यकारी होगा ."   लेकिन श्री श्री रविशंकर का उत्साह इससे कम नहीं हुआ . वे
अयोध्या भी गए ,उत्तर प्रदेश में  मुख्य मंत्री योगी आदित्यनाथ से भी मिले.  उनकी तरफ से यह माहौल बनाने की कोशिश की गयी  कि उनके प्रयासों को  सरकार का आशीर्वाद प्राप्त है लेकिन कुछ देर बाद ही सरकार की तरफ से बयान आ गया  कि  श्री श्री की मुख्यमंत्री से हुयी मुलाकात केवल शिष्टाचार वश की गयी मुलाक़ात है . इसका भावार्थ यह हुआ कि उनके अयोध्या जाने न जाने से सरकार को कुछ  भी लेना देना नहीं है .  

 श्री श्री रविशंकर ने यह मुहिम  शिया वक्फ बोर्ड के अध्यक्ष वसीम रिजवी की प्रेरणा से शुरू की  थी. लेकिन वसीम रिजवी को मुसलमानों के बीच बहुत इज्ज़त नहीं दी जाती 'वसीम रिजवी के अयोध्या मसले को लेकर चल रही मुलाकातों व दावों को लेकर इससे जुड़े मुकदमे के पक्षकारों से जब बात की गई तो दोनों पक्षों के लोगों ने एक सुर से समझौते के मसौदे को बकवास बताया। 

अयोध्या मसले के मुस्लिम पक्षकार इकबाल अंसारी ने वसीम रिजवी  के फार्मूले को पूरी तरह खारिज करते हुए कहा, 'राजनीतिक  फायदा उठाने के लिए इस तरीके के फार्मूले पेश किए जा रहे हैं। सुन्नी इसको मानने को तैयार नहीं है.'  
श्री श्री रविशंकर के इस मामले में शामिल होने को लेकर सभी पक्षकारों में खासी  नाराज़गी है .आल इण्डिया मुस्लिम पर्सनल  ला  बोर्ड के जनरल सेक्रेटरी मौलाना वली रहमानी ने कहा  कि ,"१२ साल पहले भी  श्री श्री रविशंकर  ने इस तरह की कोशिश की थी और कहा था कि विवादित   स्थल हिन्दुओं को सौंप दिया जाना चाहिए. आल इण्डिया मुस्लिम पर्सनल  ला  बोर्ड के महासचिव ने  शिया सेन्ट्रल वक्फ बोर्ड के अध्यक्ष वसीम रिजवी की दखलन्दाजी का भी बहुत बुरा माना है . उन्होंने कहा कि किसी वक्फ बोर्ड के अध्यक्ष के  पास इस तरह के अख्तियारात नहीं हैं कि वह किसी भी विवादित जगह को किसी एक पार्टी को सौंप दे .  वसीम रिजवी उत्तर प्रदेश की पिछली सरकार के ख़ास थे लेकिन आजकल नई सरकार के करीबी बताये जा रहे हैं . कुछ दिन पहले उन्होंने  बाबरी मस्जिद को लेकर कई विवादित बयान दिए हैं . 

यह मामला इतना बड़ा इसलिए बना  कि बीजेपी को  हिंदुत्व का मुद्दा चाहिए था .१९८० में तत्कालीन जनता पार्टी टूट गयी और भारतीय जनता पार्टी का गठन हो गया .शुरू में इस पार्टी ने उदारतावादी राजनीतिक सोच को अपनाने की कोशिश की . गांधीवादी समाजवाद जैसे राजनीतिक शब्दों को अपनी बुनियादी सोच का आधार बनाया . लेकिन जब १९८४ के लोकसभा चुनाव में ५४२ सीटों वाली लोकसभा में बीजेपी को केवल दो सीटें मिलीं तो उदार राजनीतिक संगठन बनने का विचार हमेशा के लिए त्याग  दिया गया . जनवरी १९८५ में कलकत्ता में आर एस एस के शीर्ष नेताओं की बैठक हुई जिसमें भारतीय जनता पार्टी के बड़े नेताओंअटल बिहारी वाजपेयी और लाल कृष्ण आडवाणी को भी बुलाया गया और साफ़ बता दिया गया कि अब गांधियन सोशलिज्म को भूल जाइए . आगे से पार्टी की राजनीति  के स्थाई भाव के रूप में हिन्दू राष्ट्रवाद की राजनीति को चलाया जाएगा . वहीं तय कर लिया गया कि अयोध्या में  रामजन्मभूमि  के निर्माण के नाम पर  राजनीतिक मोबिलाइज़ेशन किया जाएगा . आर एस एस के दो संगठनोंविश्व हिन्दू परिषद् और बजरंग दल को इस प्रोजेक्ट को चलाने का जिम्मा दिया गया. विश्व हिन्दू परिषद् की स्थापना अगस्त १९६४  में हो चुकी थी लेकिन वह सक्रिय नहीं था. १९८५ के बाद उसे सक्रिय किया गया . १९८५ से अब तक बीजेपी हिन्दू राष्ट्रवाद की राजनीति को ही अपना स्थायी भाव मानकर चल रही है .
विश्व हिन्दू पारिषद आज भी  अयोध्या  विवाद का सबसे महत्वपूर्ण पक्ष है  . बिना  उसकी सहमति के कुछ भी  नहीं  हासिल किया जा सकता . श्री श्री रविशंकर की मध्यस्थता को विश्व हिन्दू परिषद वाले कोई महत्व नहीं देते . उसके प्रवक्ता , शरद  शर्मा ने कहा है कि ," रामजन्मभूमि हिन्दुओं की है . पुरातत्व के साक्ष्य यही कहते हैं कि वहां एक मंदिर था और अब एक भव्य मंदिर बनाया जाना चाहिए . जो लोग मध्यस्थता आदि कर रहे हैं उन्पीर नज़र रखी जा रही है लेकिन समझौते की कोई उम्मीद नहीं है . अब इस काम को संसद के ज़रिये किया जाएगा ,"
  समझ में नहीं आता कि श्री श्री रविशंकर किस  तरह की  मध्यस्थता करने की कोशिश कर रहे हैं जब राम जन्म भूमि-बाबरी मस्जिद  विवाद के दोनों ही पक्ष उनकी किसी भूमिका को स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं . अयोध्या में भी वे कुछ साधू संतों से मिलने में तो कामयाब रहे लेकिन किसी ने उनको गंभीरता से नहीं लिया . आर एस एस के प्रमुख मोहन भागवत से मिलने  की कोशिश भी वे कर रहे हैं . यह देखना दिलचस्प होगा कि उनको वहां से क्या हासिल होता है . 

Tuesday, November 14, 2017

गुजरात में कांग्रेस बीजेपी को टक्कर दे रही है लेकिन सर्वे के कहते हैं जीत बीजेपी की ही होगी



शेष नारायण सिंह 

अहमदाबाद १२ नवम्बर . हिमाचल प्रदेश में मतदान पूरा हो जाने के बाद अब सारा राजनीतिक ध्यान गुजरात चुनाव पर है .  बीजेपी ने  सारी ताकत इस चुनाव को जीतने के लिए झोंक दी है . कांग्रेस के उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने भी कोई  कसर नहीं छोड़ रखी है . उनको  इस चुनाव से बहुत उम्मीदें हैं , बीजेपी से माहौल में  जो नाराजगी है उसके हिसाब से राहुल गांधी की उम्मीद जायज़ लगती है  लेकिन गुजरात की सडकों में मिलने वाला हर शख्स कहता मिल जाता है कि इस  साल चुनाव में  भाजप की हालत बहुत खराब है लेकिन जीत अंत में सत्ताधारी पार्टी की ही  होगी क्योंकि बीजेपी  अध्यक्ष अमित शाह और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी गुजरात विधानसभा के चुनाव में हार किसी कीमत पर स्वीकार नहीं करेंगे इसलिए वे हर हाल में जीतेंगें . उसके लिए कुछ भी करना पड़े. बीजेपी के कार्यकर्ता कहते हैं कि अभी भले कांग्रेस का प्रचार भारी नज़र आता हो लेकिन जब प्रधानमंत्री मनीला की विदेश यात्रा से वापस आयेगें और अपने  चुनावी प्रचार शुरू करेंगे तो कांग्रेस वाले कहीं नहीं  दिखेंगे.  उनका दावा है कि पिछले २५ वर्षों में नरेंद्र मोदी ने गुजरात में गंभीर राजनीतिक  कार्य किया है और हर गली मोहल्ले और गाँव को अच्छी तरह जानते हैं .   
गुजरात चुनाव का मौजूदा प्रचार देखकर १९८० के दशक में अमेठी में होने वाले   प्रचार की याद  ताज़ा हो गयी. उन दिनों कांग्रेस नेताओं संजय गांधी और  उनकी मृत्यु के बाद राजीव  गांधी को खुश करने के लिए किसी भी चुनाव के दौरान ,कांग्रेस का  हर बड़ा नेता अमेठी  क्षेत्र के गाँवों में घूमता मिल जाता था. आजकल गुजरात में केंद्रीय मंत्रिमंडल के अधिकतर सदस्य कहीं  न कहीं मिल जा रहे हैं .
रक्षा मंत्री निर्मला सीतारमन,  अहमदाबाद की मणिनगर में मतदाताओं के बीच पैदल घूमती नज़र आयीं . मणिनगर को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का चुनाव क्षेत्र कहा जाता है . अहमदाबाद नगर का पूर्वी  इलाका मणिनगर विनसभा क्षेत्र है  . अहमदाबाद तमिल संगम के खजांची , आर राजा  का दावा है कि इस क्षेत्र में करीब पचास हज़ार तमिल परिवार  रहते हैं .  मुख्य रूप से उनकी आबादी खोखरा  और अमराई वाडी में है . शायद इसीलिये यहाँ पर तमिलनाडु की मूल निवासी रक्षामंत्री निर्मला सीतारमन को घर घर जाकर प्रचार करने को कहा गया है. १९९० से इस सीट पर भाजप का क़ब्ज़ा है .२००१ में राज्य का मुख्यमंत्री नियुक्त होने के बाद इसी सीट से नरेंद्र मोदी ने विधान सभा की सदस्यता ली थी . उस वक़्त  कमलेश पटेल विधायक थे . उन्होंने नरेंद र्मोदी के लिए सीट खाली की थी. नरेंद्र मोदी २००२, २००७ और २०१२ में यहाँ से चुने गए थे .
मणिनगर विधान सभा बीजेपी के लिए सबसे सुरक्षित सीट मानी जाती है लेकिन  यहाँ भी उसके विरोध के सुर साफ़ नज़र आये .  हालांकि हर जगह बीजेपी के कार्यकर्ता रक्षामंत्री का खूब जोर शोर से स्वागत करते नज़र आये लेकिन एक  व्यक्ति उनको काला कपडा दिखाने में सफल रहा.. बाद में महेश पटेल नाम के उस व्यक्ति ने  बताया कि ,”मैं पाटीदार  हूँ ,और पिछले बीस साल से भाजप का  सदस्य हूँ . लेकिन अब मैं निराश हूँ . पार्टी के नेता लोग सरकारी पैसे को लूट रहे हैं और अपनी जेबें भर रहे हैं .सडकों के निर्माण में बहुत ही  घटिया माल लगाया गया है . मैं कई बार इन लोगों से शिकायत कर चुका हूँ लेकिन कोई सुनता ही नहीं “. पाटीदार ( पटेल )  बिरादरी में बीजेपी से नाराज़गी है .  सरदार पटेल और महात्मा गांधी के  समय से ही पटेल लोग कांग्रेस को वोट देते  रहे थे लेकिन लाल कृष्ण आडवानी की सोमनाथ से अयोध्या रथयात्रा के बाद से पटेल लगभग पूरी तरह से बीजेपी  को वोट देते  रहे हैं . पहली बार हार्दिक पटेल के  आन्दोलन के बाद आजकल वे बीजेपी से दूर जाते नज़र आ रहे हैं . हालांकि जानकार इस बात को भी पक्का बता रहे हैं कि अमित शाह और नरेंद्र मोदी की यात्राओं के बाद बड़ी संख्या में पटेल वोट हार्दिक को छोड़ देंगें  इस बात में दो राय नहीं है कि पटेल समुदाय इस बार पूरी तरह से बीजेपी के साथ नहीं होगा . ओबीसी नेता अल्पेश ठाकोर तो  कांग्रेस में औपचारिक रूप से शामिल ही  गए हैं , दलितों के नेता जिग्नेश भी  कांग्रेस की तरफ झुक चुके हैं . बीजेपी को अगर कोई नुक्सान होगा तो उसमें   इन  तीनों नौजवान नेताओं के अलावा  बहुत ही ख़ास योगदान राज्य भर में फैले हुए  छोटे व्यापारियों का होगा . वे अभी चुप  हैं लेकिन थोड़ी देर बात करने पर साफ़ समझ में आ जाता है कि वे बीजेपी के जी एस टी वाले  काम से बहुत परेशान हैं .इन्हीं कारणों  से शायद  प्रचार में अभी कांग्रेस का माहौल दिख रहा है .
प्रचार में कांग्रेस की हवा को चुनाव सर्वे सही नहीं मानते . लोकनीति सी एस डी एस के   सर्वे के अनुसार  बीजेपी को इस बार भी गुजरात में सत्ता मिलेगी . सर्वे के अनुसार जीत तो होगी लेकिन २०१२ से कम सीटें आने की उम्मीद है .बीजेपी के मतदान प्रतिशत में भी मामूली कमी आ सकती है.२०१२ में ४७.९ प्रतिशत मिला था जो इस साल ४७ प्रतिशत  रहने की संभावना है .कांग्रेस को पिछली बार ३८ प्रतिशत वोट मिले थे जो इस बार ४१ प्रतिशत तक बढ़ जाने  का आकलन सर्वे में किया  गया है . . सौराष्ट्र क्षेत्र में कांग्रेस को फिलहाल बढ़त है . सर्वे के अनुसार बीजेपी और कांग्रेस  दोनों को ही सौराष्ट्र में ४२-४२ प्रतिशत वोट मिल सकते हैं . अगर इसी में किसी  को थोडा तल विचल हुआ तो नतीजे भारी बदलाव का कारण बन सकते हैं . दक्षिण और मध्य गुजरात में बीजेपी की  मजबूती बनी हुयी  है. क्योंकि वहां उसको ५१ प्रतिशत वोट मिल  सकते हैं जिसके कारण बड़ी संख्या में सीटें मिल सकती हैं .
मतदान के लिए गुजरात में अभी करीब महीना भर बाकी है . नतीजा जो भी ,चुनाव बहुत ही दिलचस्प हो गया है .

Tuesday, November 7, 2017

एक बेहतरीन इंसान का जन्मदिन है आज , मुबारक हो सबीहा



दिल्ली के एक करखनदार परिवार में उसका जन्म हुआ था . मुल्क  के बंटवारे की तकलीफ को उसके  परिवार ने  बहुत करीब से झेला था. उसके परिवार के लोग जंगे-आज़ादी की अगली सफ़ में रहे थे. उनके पिता ने  हिन्दू कालेज के छात्र के रूप में बंटवारे के दौर में इंसानी बुलंदियों को रेखांकित किया था लेकिन बंटवारे के बाद  परिवार टूट गया था. कोई पाकिस्तान चला गया और कोई हिन्दुस्तान में रह गया . उसके दादा मौलाना अहमद सईद ने पाकिस्तान के चक्कर में पड़ने से मुसलमानों को आगाह किया था और जिन्ना का विरोध किया था . मौलाना अहमद सईद देहलवी ने 1919 में अब्दुल मोहसिन सज्जाद , क़ाज़ी हुसैन अहमद , और अब्दुल बारी फिरंगीमहली के साथ मिल कर जमीअत उलमा -ए - हिंद की स्थापना की थी. जो लोग बीसवीं सदी भारत के इतिहास को जानते हैं ,उन्हें मालूम है की जमियत उलेमा ए हिंद ने महात्मा गाँधी के १९२० के आन्दोलन को इतनी ताक़त दे दी थी की अंग्रेज़ी साम्राज्य के बुनियाद हिल गयी थी .उसके बाद ही अंग्रेजों ने  हिन्दुओं और मुसलमानों में फूट डालने के अपने प्रोजेक्ट पर काम करना शुरू कर दिया था. 
जमीअत उस समय के उलमा की संस्था थी . खिलाफत तहरीक के समर्थन का सवाल जमीअत और कांग्रेस को करीब लाया . जमीअत ने हिंदुस्तान भर में मुसलमानों को आज़ादी की लड़ाई में शामिल होने के लिए प्रेरित किया और खुले रूप से पाकिस्तान की मांग का विरोध किया . मौलाना साहेब भारत में ही रहे और परिवार का एक बड़ा हिस्सा भी यहीं रहा लेकिन कुछ लोगों के चले जाने से परिवार  तो बिखर गया ही था.
आठ नवम्बर ११९४९ को दिल्ली के  कश्मीरी गेट मोहल्ले में उसका जन्म  हुआ था. परिवार पर आर्थिक संकट का पहाड़ टूट पड़ा था लेकिन उसके माता  पिता ने हालात का बहुत ही बहादुरी से मुकाबला किया  अपनी पाँचों औलादों को इज्ज़त की ज़िंदगी देने की पूरी कोशिश की और कामयाब हुए. उसके सारे भाई बहन बहुत ही आदरणीय लोग हैं . जब दिल्ली में कारोबार लगभग ख़त्म हो गया तो डॉ जाकिर हुसैन और प्रो नुरुल हसन की   प्रेरणा से परिवार अलीगढ़ शिफ्ट हो गया . बाद में उसकी माँ को  दिल्ली में नौकरी मिल गयी तो बड़े बच्चे अपनी माँ के पास दिल्ली में आकर पढाई लिखाई करने लगे . छोटे अलीगढ में ही  रहे ' कुछ साल तक परिवार  दिल्ली और  अलीगढ के बीच झूलता रहा . बाद में सभी दिल्ली में आ  गए . इसी दिल्ली में आज से  चालीस साल  पहले मेरी उससे मुलाक़ात हुयी .

बंटवारे के बाद जन्मी  यह लडकी आज ( आठ नवम्बर )  अडसठ साल की हो गयी. जो लोग सबीहा को  जानते हैं उनमे से कोई भी बता देगा  कि उन्होंने सैकड़ों ऐसे लोगों की जिंदगियों को जीने लायक बनाने में योगदान किया है जो  अँधेरे भविष्य की और ताक  रहे  थे. वह किसी भी परेशान इंसान के मददगार के रूप में अपने असली  स्वरुप में आ  जाती  हैं . लगता है कि  आर्थिक अभाव में बीते अपने बचपन ने उनको एक ऐसे इंसान के रूप में स्थापित कर दिया जो किसी भी मुसीबतजदा इंसान को दूर से ही पहचान लेता है और वे फिर बिना उसको बताये उसकी मदद की योजना पर काम करना शुरू कर देती हैं .यह खासियत उनकी छोटी बहन में भी है . उनकी शख्सियत की यह खासियत मैंने पिछले चालीस  वर्षों में बार बार देखा .
दिल्ली के एक बहुत ही आदरणीय पब्लिक  स्कूल में आप आर्ट पढ़ाती थीं,  एक दिन उनको पता लगा कि बहुत ही कम उम्र के किसी बच्चे को कैंसर हो गया है . कैंसर की शुरुआती स्टेज थी . डाक्टर ने बताया कि अगर उस बच्चे का इलाज हो जाये तो उसकी ज़िंदगी बच सकती थी. अगले एक घंटे के अंदर आप अपने शुभचिंतकों से बात करके प्रोजेक्ट पर काम करना शुरू कर चुकी थीं. बच्चे का इलाज हो गया . अस्पताल में ही जाकर जो भी करना होता था , किया . बच्चे की इस मदद को अपनी ट्राफी नहीं बनाया . यहाँ  तक कि उनको मालूम भी नहीं कि वह बच्चा कहाँ है . ऐसी अनगिनत मिसालें हैं . किसी की क्षमताओं को पहचान कर उसको बेहतरीन अवसर दिलवाना उनकी पहचान का हिस्सा है . उनके स्कूल में एक लड़का  उनके विभाग में चपरासी का काम करता था. पारिवारिक परेशानियों के कारण पढाई पूरी नहीं कर सका था . उसको  प्राइवेट फ़ार्म भरवाकर पढ़ाई पूरी करवाया और  बाद में वही लड़का बैंक के प्रोबेशनरी अफसर की परीक्षा में  बैठा और आज बड़े  पद पर  है .  उनके दफ्तर के  एक  अन्य सहयोगी की मृत्यु के बाद उसके घर गईं, आपने भांप लिया कि उसकी विधवा को उस  परिवार में परेशानी ही परेशानी होगी. अपने दफ्तर में उसकी  नौकरी  लगवाई. उसकी आगे की पढ़ाई करवाई और आज वह महिला स्कूल में  शिक्षिका है . ऐसे  बहुत सारे मामले हैं ,लिखना शुरू करें तो किताब बन जायेगी . आजकल आप बंगलौर के पास के जिले रामनगर के एक गाँव में विराजती हैं और वहां भी  कई लड़कियों को अपनी ज़िंदगी बेहतर बनाने के लिए प्रेरित कर रही हैं .   उस गाँव की कई बच्चियों के माता पिता  को हडका कर सब को शिक्षा पूरी करने का माहौल बनाती हैं और उनकी फीस  आदि का इंतज़ाम  करती हैं .  
सबीहा अपनी औलादों के लिए कुछ भी कर सकती हैं , कुछ भी . दिल्ली के पास गुडगाँव में उनके बेटे ने अच्छा ख़ासा  घर बना दिया था लेकिन जब उनको लगा कि उनको बेटे के पास बंगलौर रहना ज़रूरी है तो उन्होंने यहाँ से सब कुछ ख़त्म करके बंगलोर शिफ्ट करना उचित   समझा लेकिन  बच्चों के सर  पर बोझ नहीं बनीं, उनके घर में रहना पसंद नहीं किया .अपना अलग घर बनाया और आराम से  रहती हैं. इस मामले में खुशकिस्मत हैं  कि उनकी तीनों औलादें अब बंगलौर में ही हैं . सब को वहीं काम मिल गया है .आपने वहां एक ऐसे गाँव में ठिकाना  बनाया जहां जाने  के लिए सड़क भी नहीं है.. मुख्य सड़क से  काफी दूर पर उनका घर है लेकिन वहां से हट नहीं सकतीं क्योंकि गाँव का हर परेशान परिवार अज्जी की तरफ उम्मीद की नज़र  से देखता है . सबीहा ने अपने लिए किसी से कभी कुछ नहीं माँगा लेकिन  जब उनको किसी की मदद करनी होती है तो बेझिझक मित्रों , शुभचिंतकों से  योगदान करवाती हैं . अपने  गाँव की बच्चियों से हस्तशिल्प के आइटम बनवाती हैं , खुद  भी लगी रहती हैं और बंगलौर शहर में जहां भी कोई प्रदर्शनी लगती है उसमें बच्चों के काम को प्रदर्शित करती हैं , सामान की बिक्री से  जो भी आमदनी होती है उसको उनकी फीस के डिब्बे में डालती रहती  हैं . उसमें से  अपने लिए एक पैसा नहीं लेतीं .उनके तीनों ही बच्चे यह जानते हैं और अगर कोई ज़रूरत पड़ी तो हाज़िर रहते हैं.  
 अपने भाई के एक  ऐसे दोस्त को उन्होंने रास्ता दिखाया  और सिस्टम से ज़िंदगी जीने की तमीज सिखाई जो दिल्ली महानगर में पूरी तरह से कनफ्यूज़ था . छोट शहर और गाँव से आया यह नौजवान दिल्ली में दिशाहीनता की तरफ बढ़ रहा था . रोज़गार के सिलसिले में दिल्ली आया था , काम तो छोटा मोटा मिल गया था लेकिन परिवार गाँव में था. वह अपनी पत्नी और दो  बच्चों को इसलिए नहीं ला रहा था कि रहेंगे कहाँ . आपने डांट डपट कर बच्चों और उसकी पत्नी को दिल्ली बुलवाया, किराये के मकान में  रखवाया और आज वही बच्चे अपनी ज़िन्दगी संभाल रहे  हैं, अच्छी पढाई लिखाई कर चुके हैं  . वह दिशाहीन  नौजवान भी  अब बूढा हो गया है और शहर में कई हल्कों  में पहचाना जाता है .
सबीहा में हिम्मत और हौसला बहुत ज्यादा है . आपने चालीस साल की उम्र में रॉक क्लाइम्बिंग सीखा और  बाकायदा एक्सपर्ट बनीं, अडतालीस साल की उम्र में कार चलाना सीखा .  चालीस की उम्र पार करने के बाद चीनी भाषा में  उच्च शिक्षा ली.  नई दिल्ली के नैशनल म्यूज़ियम इंस्टीच्यूट ( डीम्ड यूनिवर्सिटी ) से पचास साल की उम्र में पी एच डी किया . जब मैंने पूछा कि इतनी उम्र के बाद पी एच डी से क्या फायदा होगा ?  आपने कहा कि ,"यह मेरी इमोशनल  यात्रा है . मेरे अब्बू की इच्छा थी कि मैं  पी एच डी करूं. उनके जीवनकाल में तो नहीं कर पाई लेकिन अब जब भी मैं उसके लिए पढ़ाई  करती हूँ तो लगता है उनको श्रद्धांजलि दे रही हूँ ."
आज उसी बुलंद इन्सान का जन्मदिन है .जन्मदिन मुबारक हो सबीहा .



पाकिस्तान:जो शाखे-नाज़ुक पे आशियाना बनेगा ,नापायेदार होगा

शेष नारायण सिंह

पाकिस्तानी आतंकवादी और जैशे मुहम्मद के सरगना ,मौलाना मसूद अजहर को पूरी दुनिया के सभ्य देश ग्लोबल आतंकवादी घोषित करना चाहते थे . सुरक्षा पारिषद के एक प्रस्ताव में ऐसी मंशा ज़ाहिर की गयी थी . अमरीका फ्रांस और ब्रिटेन ने इसकी पैरवी भी की लेकिन चीन ने प्रस्ताव पर वीटो लगा दिया और मसूद अजहर एक बार फिर बच निकला . मसूद अजहर का संगठन जैशे-मुहम्मद  पहले  ही प्रतिबंधित संगठनों की लिस्ट में मौजूद है . चीन ने जब इस प्रस्ताव पर वीटो लगाया तो उसका तर्क था  कि अभी मसूद अज़हर को ग्लोबल आतंकवादी घोषित करने के लिए देशों  में आम  राय नहीं बन पाई है जबकि सच्चाई यह है कि  पाकिस्तान के अलावा कोई भी देश उसको  बचाना नहीं चाहता .
चीन के इस रुख पर भारत ने गहरी निराशा जताई है . विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता रवीश कुमार ने एक  बयान  में कहा है कि ," हमें इस बात से बहुत निराशा हुयी है कि केवल एक देश ने  पूरी दुनिया के देशों  की आम राय को ब्लाक कर दिया है जिसके तहत संयुक्त राष्ट्र से प्रतिबंधित एक संगठन के मुखिया,  मसूद अज़हर को ग्लोबल आतंकवादी घोषित किया जाना  था. यह दूरदर्शिता बहुत ही नुकसानदेह साबित हो सकती  है ." मसूद अजहर भारत की संसद  पर हुए आतंकवादी हमले का मुख्य साज़िशकर्ता तो है ही पठानकोट हमले  में भी उसका हाथ रहा  है . मसूद अजहर १९९४ में कश्मीर आया था जहां उसको गिरफ्तार कर लिया गया था .  उसको रिहा करवाने के लिए  अल फरान नाम के एक आतंकी  गिरोह ने कुछ सैलानियों का  अपहरण कर लिया था लेकिन नाकाम रहे. बाद में उसके भाई की अगुवाई  में आतंकवादियों ने नेपाल  से दिल्ली आ रहे  एक विमान को हाइजैक करके कंदहार में उतारा और अटल बिहारी वाजपेयी सरकार को मजबूर कर दिया कि   उसको रिहा करें. उस दौर के विदेशमंत्री जसवंत सिंह मसूद अज़हर सहित कुछ और आतंकवादियों को लेकर कंदहार गए और विमान और यात्रियों को वापस लाये . और इस तरह मसूद अजहर जेल से छूटने में सफल रहा .
भारत की जेल से छोटने के बाद से ही मसूद अजहर भारत को  तबाह करने के  सपने पाले हुये है. जहां तक भारत को तबाह करने की बात  हैवह सपना तो कभी नहीं पूरा होगा लेकिन इस मुहिम में पाकिस्तान तबाही के कगार  पर  पंहुंच गया है .आज पाकिस्तान अपने ही पैदा किये हुए आतंकवाद का शिकार हो रहा  है.
पाकिस्तान अपने ७० साल के इतिहास में सबसे भयानक मुसीबत के दौर से गुज़र रहा है. आतंकवाद का भस्मासुर उसे निगल जाने की तैयारी में है. देश के हर बड़े शहर को आतंकवादी अपने हमले का निशाना बना चुके हैं . पाकिस्तान को विखंडन हुआ तो उसके इतिहास में  बांग्लादेश की स्थापना के बाद यह सबसे बड़ा झटका माना जाएगा. अजीब बात यह है कि पड़ोसी देशों में आतंकवाद को हथियार की तरह इस्तेमाल करने के चक्कर में पाकिस्तान खुद आतंकवाद का शिकार हो गया है और अपने अस्तित्व को ही दांव पर लगा दिया है. पाकिस्तानी हुक्मरान को बहुत दिन तक मुगालता था कि आसपास के देशों में आतंक फैला कर वे अपनी राजनीतिक ताक़त बढा सकते थे. जब अमरीका की मदद से पाकिस्तानी तानाशाहजनरल जिया उल हक आतंकवाद को अपनी सरकार की नीति के रूप में विकसित कर रहे थे तभी दुनिया भर के समझदार लोगों ने उन्हें चेतावनी दी थी कि आतंकवाद की आग उनके देश को ही लपेट सकती है . लेकिन उन्होंने किसी की नहीं सुनी . जनरल जिया ने धार्मिक उन्मादियों और फौज के जिद्दी जनरलों की सलाह से देश के बेकार फिर रहे नौजवानों की एक जमात बनायी थी जिसकी मदद से उन्होंने अफगानिस्तान और भारत में आतंकवाद की खेती की थी .उसी खेती का ज़हर आज पाकिस्तान के अस्तित्व पर सवालिया निशान बन कर खडा हो गया है.. अमरीका की सुरक्षा पर भी उसी आतंकवाद का साया मंडरा रहा है जो पाकिस्तानी हुक्मरानों की मदद से स्थापित किया गया था . दुनिया जानती है कि अमरीका का सबसे बड़ा दुश्मनअल कायदा अमरीकी पैसे से ही बनाया गया था और उसके संस्थापक ओसामा बिन लादेन अमरीका के ख़ास चेला हुआ करते थे . बाद में उन्होंने ही अमरीका पर आतंकवादी हमला करवाया और  पाकिस्तान की  हिफाज़त में आ गए जहाँ उनको अमरीका ने पाकिस्तानी  फौज की नाक के नीचे से पकड़ा और मार डाला .ओसामा बिन लादेन की मौत के बाद अमरीका की विदेशनीति में पाकिस्तान  के प्रति रुख में ख़ासा बदलाव आया है .
आज  हालात यह हैं कि पाकिस्तान अपने अस्तित्व की लड़ाई में इतनी  बुरी तरह से उलझ चुका है कि उसके पास और किसी काम के लिए फुर्सत ही नहीं है. आर्थिक विकास के बारे में अब पाकिस्तान में बात ही नहीं होती .यह याद करना दिलचस्प होगा कि भारत जैसे बड़े देश से पाकिस्तान की दुश्मनी का आधारकश्मीर है. वह कश्मीर को अपना बनाना चाहता है लेकिन आज वह इतिहास के उस मोड़ पर खडा है जहां से उसको कश्मीर पर कब्जा तो दूर अपने चार राज्यों को बचा कर रख पाना ही टेढी खीर नज़र आ रही है.  कश्मीर के मसले को जिंदा रखना पाकिस्तानी शासकों की मजबूरी है .

पाकिस्तान की मदद करके अब अमरीका भी पछता रहा है . जब से पाकिस्तान बना है अमरीका उसे करीब पचास अरब डालर से ज्यादा का दान दे चुका है. यह शुद्ध रूप से खैरात है .अमरीका अब ऐलानियाँ कहता है कि पाकिस्तानी सेना आतंकवाद की प्रायोजक है और उसी ने हक्कानी गिरोह जैशे-मुहम्मद और लश्कर-ए-तय्यबा को हर तरह की मदद की है . यह सभी  गिरोह अफगानिस्तान और भारत में आतंक फैला रहे हैं .  पिछले करीब  ४० वर्षों से भारत आई एस आई प्रायोजित आतंकवाद को झेल रहा  है . पंजाब और जम्मू-कश्मीर में आई एस आई प्रायोजित आतंक का सामना किया गया है . लेकिन जब भी अमरीका से कहा गया कि जो भी मदद पाकिस्तान को अमरीका तरफ से मिलती है ,उसका बड़ा हिस्सा भारत के खिलाफ इस्तेमाल होता है तो अमरीका ने उसे हंस कर टाल दिया . अब जब अमरीकी हितों पर हमला हो रहा है तो पाकिस्तान में अमरीका को कमी नज़र आने लगी है .
 पाकिस्तान का नया मददगार चीन है लेकिन वह  नक़द मदद नहीं देता . वह पाकिस्तान में बहुत सारी ढांचागत सुविधाओं की स्थापना कर रहा है ,जिससे आने वाले वक़्त में पाकिस्तानी राष्ट्र को लाभ मिल सकता है . लेकिन इन ढांचागत संस्थाओं की मालिक चीन की कम्पनियां ही रहेंगी . यानी अगर पाकिस्तान ने चीन के साथ वही किया जो उसने अमरीका के साथ  किया है तो चीन पाकिस्तान के एक बड़े भूभाग पर कब्जा भी कर सकता है .


पाकिस्तानी शासक अब अमरीका से परेशान हैं लेकिन खुले आम अमरीका के खिलाफ भी नहीं  जा सकते .सच्ची बात यह है कि  पाकिस्तान के आतंरिक मामलों में अमरीका की खुली दखलंदाजी है और पाकिस्तान के शासक इस हस्तक्षेप को झेलने के लिए मजबूर हैं .एक संप्रभु देश के अंदरूनी मामलों में अमरीका की दखलंदाजी को जनतंत्र के समर्थक कभी भी सही नहीं मानते लेकिन आज पाकिस्तान जिस तरह से अपने ही बनाए दलदल में फंस चुका है, उन हालात में पाकिस्तान से किसी को हमदर्दी नहीं है . उस दलदल से निकलना पाकिस्तान के अस्तित्व के लिए तो ज़रूरी है ही बाकी दुनिया के लिए भी उतना ही ज़रूरी है. अमरीका पाकिस्तान कोइस हालत में पंहुचाने के लिए आंशिक रूप से ज़ेम्मेदार है और चिंतित है . शायद इसीलिये जब भी कोई अमरीकी अधिकारी या मंत्री चाहता है पाकिस्तान को हडका देता है . पिछले दिनों जब अमरीकी विदेशमंत्री रेक्स टिलरसन इस्लामाबाद गए थे तो उन्होंने साफ  फरमान जारी कर दिया कि आतंकवाद पर काबू करो वरना अमरीका खुद ही कुछ करेगा . सीधी ज़बान में इसको हमले की धमकी माना  जाएगा लेकिन अमरीकी विदेशमंत्री के सामने  पाकिस्तानी केयरटेकर प्रधानमंत्री और फौज के मुखिया जनरल बाजवा की घिग्घी बांध गयी . उनके  विदा होने के बाद अखबारों में बयान वगैरह देकर इज्ज़त बचाने की कोशिश की गयी .

पाकिस्तान के शासकों ने उसको तबाही के रास्ते पर डाल दिया   है. आज बलोचिस्तान में पाकिस्तान के खिलाफ ज़बरदस्त आन्दोलन चल रहा है .सिंध  में भी पंजाबी आधिपत्य वाली केंद्रीय हुकूमत और फौज से बड़ी नाराजगी  है. इन  हालात में पाकिस्तान को एक राष्ट्र के रूप में बचाने की सबसे बड़ी जिम्मेदारी वहां के सभ्य समाज और  जनतंत्र की पक्षधर जमातों की है. हालांकि इतने दिनों उनकी संख्या बहुत कम हो गयी है . मसूद अजहर,   हाफ़िज़ सईद और सैय्यद सलाहुद्दीन जैसे लोगों के चलते पाकिस्तान की छवि बाकी दुनिया में एक असफल राष्ट्र की बन चुकी है .लेकिन पाकिस्तान का बचना बहुत ज़रूरी है क्योंकि कुछ फौजियों और सियासतदानों के चक्कर में पाकिस्तानी कौम को तबाह नहीं होने देना चाहिए . इसलिए इस बात में दो राय नहीं कि पाकिस्तान को एक जनतांत्रिक राज्य के रूप में बनाए रखना पूरी दुनिया के हित में है.. यह अलग बात है कि अब तक के गैरजिम्मेदार पाकिस्तानी शासकों ने इसकी गुंजाइश बहुत कम छोडी है.
अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे पाकिस्तान में आतंकवादियों का इतना दबदबा कैसे हुआ ,यह समझना कोई मुश्किल नहीं है . पाकिस्तान की आज़ादी के कई साल बाद तक वहां संविधान नहीं तैयार किया जा सका.  पाकिस्तान के संस्थापक मुहम्मद अली जिन्ना की बहुत जल्दी मौत हो गयी और सहारनपुर से गए और नए देश प्रधानमंत्री लियाक़त अली को क़त्ल कर दिया गया . उसके बाद वहां धार्मिक और फौजी लोगों की  ताकत बढ़ने लगी .नतीजा यह हुआ कि आगे चलकर जब  संविधान बना  भी तो फौज देश की राजनीतिक सत्ता पर कंट्रोल कर चुकी थी. उसके साथ साथ धार्मिक जमातों का प्रभाव बहुत तेज़ी से बढ़ रहा था. पाकिस्तान के इतिहास में एक मुकाम यह भी आया कि सरकार के मुखिया को  नए देश  को इस्लामी राज्य घोषित करना  पड़ा. पाकिस्तान में अब तक चार फौजी तानाशाह हुकूमत कर चुके हैं लेकिन पाकिस्तानी समाज और राज्य का सबसे बड़ा  नुक्सान जनरल जिया-उल-हक  ने किया . उन्होंने पाकिस्तान में फौज और धार्मिक अतिवादी गठजोड़ कायम किया जिसका  खामियाजा पाकिस्तानी  समाज और राजनीति आजतक झेल रहा है . पाकिस्तान में सक्रिय सबसे बड़ा आतंकवादी हाफ़िज़ सईद जनरल जिया की ही पैदावार है . हाफ़िज़ सईद तो मिस्र के काहिरा विश्वविद्यालय में  दीनियात का   मास्टर था . उसको वहां से लाकर जिया ने अपना धार्मिक सलाहकार नियुक्त किया . धार्मिक जमातों और फौज के बीच उसी ने सारी जुगलबंदी करवाई और आज आलम यह है कि दुनिया में कहीं भी आतंकवादी हमला हो ,शक की सुई सबसे पहले पाकिस्तान पर ही  जाती है . आज पकिस्तान  एक दहशतगर्द और असफल कौम है और आने वाले वक़्त में उसके अस्तित्व पर सवाल बार बार उठेगा

Thursday, November 2, 2017

महात्मा गांधी ने कहा- सरदार और जवाहर देश की गाड़ी को मिलकर चलाएंगे


शेष नारायण सिंह  

सरदार पटेल की जयंती पर इस बार बहुत सक्रियता रही . सरकारी तौर पर बहुत सारे आयोजन हुए . स्वतंत्रता सेनानी पूर्वजों की किल्लत झेल  रही सत्ताधारी  पार्टी  ने सरदार को अपनाने की ऐसी मुहिम  चलाई कि  कुछ लोगों को शक होने लगा कि कहीं सरदार पटेल ने बीजेपी की सदस्यता तो   नहीं ले ली है . नेहरू के परिवार पर हमला हुआ और सरदार पटेल को अपनाने की ज़बरदस्त योजना पर काम हुआ .यह भी प्रचारित किया गया कि सरदार को जवाहरलाल नेहरू  ने प्रधानमंत्री नहीं बनने दिया था  . यह सरासर गलत है .  सरदार पटेल को जिन दो व्यक्तियों ने प्रधानंत्री नहीं बनने दिया उनके नाम हैं , मोहनदास करमचंद गांधी और सरदार वल्लभ भाई पटेल .इस बात  की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता कि सरदार पटेल के मन में प्रधानमंत्री बनने की इच्छा रही होगी  लेकिन उन्होंने किसी से कहा  नहीं था . जवाहरलाल नेहरू  के प्रधानमंत्री बनने और सरदार पटेल की भूमिका को लेकर बहुत सारे सवाल उछाले जाते रहते हैं . सरदार  पटेल की राजनीति के एक मामूली विद्यार्थी के रूप में मैं अपना फ़र्ज़ समझता हूँ कि सच्चाई को एक बार फिर लिख देने की ज़रूरत है . जब   अंतरिम सरकार के  गठन की  बात, वाइसरॉय लार्ड वावेल,  कांग्रेस और मुस्लिम लीग के बीच में तय हो गयी और यह तय  हो गया कि २२ जुलाई १९४६ को लार्ड वावेल कांग्रेस अध्यक्ष को  अंतरिम सरकार की अगुवाई करने के लिए आमंत्रित करेंगें तो नए कांग्रेस अध्यक्ष का निर्वाचन   ज़रूरी  हो गया . हालांकि सरकार के अगुआ के पद का नाम वाइसरॉय की इक्जीक्युटिव काउन्सिल का वाइस प्रेसिडेंट था लेकिन वास्तव में वह  प्रधानमंत्री ही  था. इस  समझौते के वक़्त  कांग्रेस के अध्यक्ष मौलाना अबुल कलाम आज़ाद थे . वे भारत छोड़ो आन्दोलन के समय से ही चले आ रहे थे क्योंकि सन बयालीस  में पूरी कांग्रेस वर्किंग कमेटी को अहमदनगर किले में बंद कर दिया गया था . रिहाई के बाद नया कांग्रेस अध्यक्ष चुना जाना था . मौलाना खुद को ही निर्वाचित करवाना चाहते थे . ऐसा किसी अखबार में छप भी गया .  महात्मा गांधी को जब यह पता लगा तो उन्होंने मौलाना आज़ाद को  अखबार की कतरन  भेजी और उसके साथ जो पत्र लिखा उसमें साफ़ लिख दिया कि वे  एक ऐसा बयान दें जिस से साफ़  हो जाए कि वे  खुद को कांग्रेस अध्यक्ष के चुनाव से अलग कर चुके हैं. महात्मा जी के सुझाव के बाद मौलाना आज़ाद मैदान से बाहर हो गए .
 कांग्रेस  अध्यक्ष के चुनाव की प्रक्रिया शुरू हो गयी . २९ अप्रैल १९४६ को नामांकन दाखिल करने का अंतिम दिन था . २० अप्रैल को ही महात्मा गांधी ने कुछ लोगों को बता दिया था कि वे जवाहरलाल  को अगला कांग्रेस  अध्यक्ष देखना चाहते हैं . लेकिन देश में मौजूद कुल पन्द्रह  प्रदेश कांग्रेस   कमेटियों में से बारह की की तरफ से सरदार  पटेल के पक्ष में नामांकन आ चुके थे . आचार्य कृपलानी भी उम्मीदवार थे. उनका नाम भी  प्रस्तावित था. उधर महात्मा गांधी नेहरू के पक्ष में  अब खुलकर आ गए थे. उन्होंने संकेत दिया कि अंग्रेजों से सत्ता ली जा रही है तो ऐसा व्यक्ति चाहिए जो अंग्रेजों से उनकी तरह ही बात कर सके . जवाहरलाल इसके  लिए उपयुक्त थे क्योंकि वे इंग्लैंड के नामी पब्लिक स्कूल  हैरो में पढ़े थे , कैम्ब्रिज गए थे और  बैरिस्टर थे. महात्मा गांधी ने यह भी संकेत  दिया कि जवाहरलाल को विदेशों में भी लोग जानते हैं और वे अंतरराष्ट्रीय मामलों के  जानकार  हैं .महात्मा गांधी को यह भी मालूम था कि जवाहरलाल  कैबिनेट में दूसरे स्थान पर कभी नहीं जायेंगे जबकि अगर उनको नम्बर एक  पोजीशन मिल गयी तो सरदार पटेल  सरकार में शामिल हो जांएगे और इस तरह से दोनों मिलकर काम कर लेंगें. वे दोनों  सरकार रूपी बैलगाड़ी में जुड़े दो बैलों की तरह देश को संभाल लेगें .  महात्मा गांधी के पूरे समर्थन के बाद भी जवाहरलाल नेहरू की तैयारी बिलकुल नहीं थी. उनका नाम किसी भी प्रदेश कांग्रेस कमेटी से प्रस्तावित   नहीं हुआ था. अंतिम तारीख २९ अप्रैल थी लेकिन औपचारिक रूप से   नेहरू के नाम का प्रस्ताव नहीं हुआ था . आचार्य  कृपलानी ने लिखा है कि महात्मा गांधी की इच्छा का सम्मान  करते हुए उन्होंने ही कार्य समिति की बैठक में जवाहरलाल के नाम का प्रस्ताव किया और कार्यसमिति के सदस्यों से उस पर दस्तख़त करवा लिया .इमकान है कि सरदार पटेल ने भी उस प्रस्ताव पर दस्तख़त किया था .जब जवाहरलाल के नाम का प्रस्ताव हो गया तो कृपलानी ने अपना नाम वापस ले लिया और सरदार पटेल को भी नाम वापसी का  कागज़ दे दिया जिससे नेहरू को निर्विरोध निर्वाचित किया जा सके. सरदार पटेल ने वहां मौजूद महात्मा गांधी को वह कागज़ दिखाया . महात्मा गांधी ने जवाहरलाल नेहरु से कहा  कि किसी भी  प्रदेश कांग्रेस कमेटी ने  आपके नाम का प्रस्ताव नहीं किया है केवल कांग्रेस वर्किंग कमेटी  ने ही आपके नाम का प्रस्ताव किया है . जवाहरलाल चुप रहे. महात्मा जी ने सरदार पटेल को नाम वापसी के कागज़ पर दस्तखत करने का इशारा कर दिया . सरदार ने तुरंत दस्तखत कर दिया और इस तरह जवाहरलाल का  कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में निर्विरोध निर्वाचन  पक्का हो गया . महात्मा गांधी की बात मान कर सरदार इसके पहले भी जवाहरलाल नेहरू को कांग्रेस अध्यक्ष बनाने के लिए  नाम वापस ले चुके थे , १९२९ में लाहौर में आम राय सरदार के पक्ष में थी लेकिन महात्मा गांधी ने सरदार से नाम वापस  करवा दिया था .
महात्मा गांधी की इच्छा का सम्मान करते हुए सरदार ने जवाहरलाल के पक्ष में मैदान ले लिया . हालांकि यह भी सच है कि उस वक़्त के महात्मा गांधी के इस फैसले पर डॉ राजेन्द्र प्रसाद ने  बाद में अपनी बात बहुत ही तकलीफ के साथ कही. उन्होंने कहा कि "गांधी ने एक बार और ग्लैमरस नेहरु के लिए अपने भरोसेमंद  लेफ्टीनेंट को कुर्बान कर   दिया ." लेकिन सरदार पटेल ने कोई भी नाराजगी नहीं जताई,  वे कांग्रेस के काम में जुट गए .   सरदार की महानता ही है कि इतने बड़े पद से एकाएक महरूम किये जाने के बाद भी मन में कोई तल्खी नहीं पाली. यह अलग बात है  कि जवाहरलाल के तरीकों से वे बहुत खुश नहीं थे . उन्होंने  मध्य प्रदेश के नेता डी पी मिश्र को २९ जुलाई को जो चिट्ठी लिखी वह जवाहरलाल के प्रति उनके स्नेह की एक झलक  देती  है. लिखते  हैं कि " हालांकि  नेहरू चौथी बार कांग्रेस के अध्यक्ष बने हैं लेकिन लेकिन वे कई बार बाल   सुलभ सरलता  के साथ  आचरण करते हैं . लेकिन अनजानी गल्त्तियों के बावजूद उनका उत्साह बेजोड़ है . आप निश्चिन्त रहें जब तक हम लोग  उस ग्रुप में हैं जो  कांग्रेस की नीतियों को चला रहा है, तब तक इस जहाज़ की गति को कोई नहीं रोक सकता "
एक बार सरदार पटेल ने महात्मा   गांधी के कहने के बाद  जवाहरलाल को अपना नेता मान लिया तो मान लिया . इसके बाद उस मार्ग से बिलकुल डिगे नहीं .जब जिन्नाह ने  डाइरेक्ट एक्शन का आवाहन किया तो मुस्लिम बहुत इलाकों में खून खराबा मच गया . हालात बिगड़ने लगे तो सरदार ने   ही नेहरू को संभाला  . महात्मा  गांधी के जीवनकाल में तो वे नेहरू की अति उत्साह में  की गयी गलतियों की शिकायत महात्मा गांधी से  गाहे बगाहे करते भी थे लेकिन महात्मा गांधी के जाने के बाद उन्होंने नेहरू को   हमेशा समर्थन दिया और गार्जियन की तरह  रहे. नेहरू साठ साल के हुए तो १४ नवम्बर १९४९ को डॉ राजेन्द्र प्रसाद, डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णन और पुरुषोत्तम दास टंडन ने एक किताब प्रकाशित किया . “ नेहरु :अभिनन्दन ग्रंथ “ नाम की इस किताब में तत्कालीन उप प्रधानमंत्री सरदार पटेल का एक लेख है . लेख बड़ा है . कुछ अंश उन लोगों को सही जवाब दे देते हैं जो इस बात का प्रचार कर रहे हैं कि दोनों नेताओं में वैमनस्य था .जवाहरलाल नेहरु के बारे में सरदार लिखते हैं कि “ लोगों के लिए यह अनुमान लगा पाना बहुत मुश्किल है जब कुछ दिनों के लिए एक दूसरे से दूर होते हैं और समस्याओं और कठिनाइयों को हल करने के लिए एक दूसरे की सलाह नहीं ले पाते तो हम एक दूसरे को कितना याद करते हैं . . यह अपनत्व ,निकटता ,दोस्ती और दो भाइयों के बीच प्रेम को कुछ शब्दों में कह पाना मुश्किल है . राष्ट्र के  हीरोदेश के लोगों के नेता ,देश के प्रधानमंत्री जिनका महान कार्य और जिनकी उपलब्धियां एक खुली किताब हैं , उनको मेरी तारीफ़ की ज़रूरत नहीं है .
देश में कुछ ऐसे लोगों का एक वर्ग पैदा हो गया है जो यह कहते नहीं अघाता कि प्रधानमंत्री पद के बारे में दोनों नेताओं के बीच भारी मतभेद था. कुछ लोग तो यहाँ तक कह देते हैं कि सरदार पटेल खुद प्रधानमंत्री बनना चाहते थे . लेकिन इस बात को उनकी बेटी मणिबेन पटेल ने बार बार गलत बताया है . वे उन दिनों सारदार पटेल के साथ ही रहती थीं. स्वयं सरदार पटेल ने लिखा है कि ,” यह बहुत ज़रूरी था कि हमारी आज़ादी के ठीक पहले के धुन्धलके में वे ( जवाहरलाल ) ही  हमारे  प्रकाशस्तम्भ होते और जब आजादी के बाद भारत एक संकट के बाद दूसरे संकट का सामना कर रहा था , तो उनको ही हमारे विश्वास और हमारी एकता का निगहबान होना चाहिए था . मुझसे बेहतर कोई नहीं जानता कि आज़ादी के दो वर्षों में उन्होंने हमारे अस्तित्व को चुनौती देने वाली शक्तियों के खिलाफ कितना संघर्ष किया है . मैं उनसे उम्र में बड़ा हूँ . मुझे इस बाद की खुशी है कि हम लोगों के  सामने प्रशासन और संगठन से सम्बंधित जो भी समस्याएं आती  हैंउनके बारे में उन्होंने मेरी हर सलाह को माना है .मैने देखा है कि वे ( नेहरु) हर समस्या के बारे में मेरी सलाह मांगते हैं और उसको स्वीकार कारते हैं .
सरदार पटेल ने जोर देकर कहा कि “ कुछ निहित स्वार्थ वाले यह प्रचार करते हैं कि हम लोगों में मतभेद है .इस कुप्रचार को कुछ लोग आगे भी बढाते हैं .लेकिन यह सरासर गलत है .हम दोनों जीवन भर दोस्त रहे हैं . हमने हमेशा ही एक  दूसरे के दृष्टिकोण का सम्मान किया है और जैसी भी समय की मांग रही होजैसा भी  ज़रूरी हुआ एक  दूसरे की बात को माना है  . ऐसा  तभी संभव हुआ क्योंकि हम दोनों को एक दूसरे पर पूरा भरोसा है 
सरदार पटेल और नेहरु के बीच  मतभेद  बताने वालों को इतिहास का सही ज्ञान  नहीं है . इस बात में दो   राय नहीं  है कि उनके  राय  बहुत से मामलों में हमेशा  एक नहीं होती थी लेकिन पार्टी की बैठकों  में ,  कैबिनेट की बैठकों में उनके बीच के मतभेद  एक राय में बदल जाते थे .ज्यादातर  मामलों में सरदार की राय को ही जवाहरलाल स्वीकार कर लेते थे . जवाहरलाल नेहरू को यह बात  हमेशा मालूम रहती थी कि वे प्रधानमंत्री महात्मा गांधी के आशीर्वाद और सरदार पटेल के सहयोग से ही  बने  हैं.