Monday, May 29, 2017

सहारनपुर के हवाले से जाति के विनाश की पहल की जा सकती है .

शेष नारायण सिंह
उत्तर प्रदेश के सहारनपुर जिले में आजकल जाति के नाम पर खूनी संघर्ष जारी है .जिले  में जातीय हिंसा एक बार फिर भड़क गई है . दोनों पक्षों की ओर से हिंसा और आगज़नी करने की घटनाएं जारी हैं .सारे विवाद के केंद्र में शब्बीर पुर गाँव है . वहां बड़ी संख्या में पुलिस बल तैनात किए गए हैं और लखनऊ के अफसर वहां पहुंच गए हैं और जो समझ में आ रहा है ,कर रहे हैं .पुलिस ने हिंसक घटनाओं की पुष्टि हर स्तर  पर  की है लेकिन समस्या इतनी विकट है कि कहीं कोई हल नज़र नहीं आ रहा है .ताज़ा हिंसा भड़कने से इलाक़े में ज़बरदस्त तनाव की स्थिति है. मंगलवार की सुबह बीएसपी नेता मायावती ने शब्बीरपुर गांव का दौरा किया. खबर है कि मायावती के शब्बीरपुर पहुंचने से पहले ही कुछ दलितों ने ठाकुरों के घर पर पथराव करने के बाद आगजनी की थी.जबकि  मायावती की बैठक के बाद  ठाकुरों ने दलितों के घरों पर कथित तौर पर हमला बोल दिया.

अब तक की सरकारी कार्यवाही को देख कर साफ़ लग रहा है कि सरकार सहारनपुर की स्थिति की गंभीरता को नहीं समझ रही है . जैसा कि आम तौर पर होता है , सभी सरकारें  बड़ी राजनीतिक और सामाजिक समस्याओं को कानून व्यवस्था की समस्या मानकर काम करना शुरू कर देती हैं . सहारनपुर में भी वही हो रहा है . पिछले करीब तीन दशकों  ने उत्तर प्रदेश में ऐसी सरकारें आती रही हैं जिनके गठन में दलित जातियों की खासी भूमिका रहती रही है . लेकिन इस बार उत्तर प्रदेश में ऐसी सरकार आई है जिसके गठन में सरकारी पार्टी के समर्थकों के अनुसार दलित जातियों का कोई योगदान नहीं है . विधान सभा चुनाव में बीजेपी को भारी बहुमत मिला था जिसके बाद योगी आदित्य नाथ को उत्तर प्रदेश का मुख्य मंत्री बनाया गया . ज़मीनी स्तर पर उनकी पार्टी के कार्यकर्ताओं को मालूम है  कि विधान सभा चुनावों में दलित वर्गों ने बीजेपी की धुर विरोधी मायावती की पार्टी को वोट दिया था. इस बात की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता कि बीजेपी के समर्थन में  रही जातियों के लोगों ने अपनी पार्टी के खिलाफ वोट देने वालों को सबक सिखाने के उद्देश्य से उनको दण्डित करने के  लिए यह कारनामा किया हो . हालांकि यह भी सच है कि दलित जातियां अब उतनी कमज़ोर नहीं हैं जितनी महात्मा गांधी या डॉ आम्बेडकर के समय में हुआ करती थीं. वोट के लालच में ही सही लेकिन उनके वोट की याचक जातियों ने उनका सशक्तीकरण किया है और वह साफ़ नज़र भी आता है . इसलिए सहारनपुर में राजपूतों ने अगर हमला किया  है तो  कुछ मामलों में दलितों ने भी हमला किया है .
 आजकल उत्तर प्रदेश समेत ज़्यादातर राज्यों में चुनाव का सीज़न जातियों की गिनती का होता है . इ सबार के चुनाव में यह कुछ ज़्यादा ही था. मायावती को मुगालता था कि उनकी अपनी जाति के लोगों  के साथ साथ अगर मुसलमान भी उनको  वोट कर दें तो वे फिर एक बार मुख्यमंत्री बन जायेंगी  ऐसा नहीं हुआ लेकिन चुनाव ने एक बार मोटे तौर पर साबित कर दिया कि दलित जातियों के लोग अभी भी मायावती को समर्थन देते हैं और उनके साथ हैं .
उत्तर प्रदेश के ग्रामीण इलाकों की सवर्ण जातियों में अभी भी यह भावना है कि मायावती ने दलितों को बहुत मनबढ़ कर दिया है. इस  भावना की सच्चाई पर चर्चा करने का कोई मतलब नहीं है क्यों जब समाज में एकता लाने वाली राजनीतिक शक्तियों का ह्रास हो जाए तो इस तरह की भावनाएं बहुत जोर मारती हैं . सहारनपुर में वही हो रहा है . सहारनपुर में जिला प्रशासन ने वही गलती की जो २०१३ के मुज़फ्फरनगर दंगों के शुरुआती  दौर में वहां के जिला अधिकारियों ने की थी . उस दंगे की ख़ास बात तो यह थी कि ज़्यादातर राजनीतिक पार्टियाँ यह उम्मीद लगाए बैठी थीं कि पश्चिम उत्तर प्रदेश में धार्मिक ध्रुवीकरण का फायदा उनको ही होगा . जिसको फायदा होना था , हो गया , बाकी लोगों को और राष्ट्र और समाज को भारी नुक्सान हुआ . ऐसा लगता है कि सहारनपुर में जातीय विभेद की जो चिंगारी शोला बन गयी है , अगर उसको राजनीतिक स्तर पर संभाल न लिया गया तो वह समाज का मुज़फ्फरनगर के साम्प्रदायिक दंगों से ज़्यादा नुक्सान करेगी. जाति के हिंसक  स्वरूप का अनुमान आज़ादी की लड़ाई के दौरान ही महात्मा गांधी और डॉ भीमराव आंबेडकर  को था . इसीलिये  दोनों ही दार्शनिकों ने साफ़ तौर पर बता दिया था कि जाति की बुनियाद पर होने वाले सामाजिक बंटवारे को ख़त्म किये जाने की ज़रूरत है और उसे ख़त्म किया जाना चाहिए . महात्मा गांधी ने छुआछूत को खत्म करने की बात की जो उस दौर में जातीय पहचान का सबसे मज़बूत आधार था लेकिन डॉ आंबेडकर ने जाति की संस्था के विनाश की ही बात की और बताया कि वास्तव  में हिन्दू समाज कोई एकीकृत समाज नहीं है , वह वास्तव  में बहुत सारी जातियों का जोड़ है . इन जातियों में कई बार आपस में बहुत विभेद भी देखा जाता है .  शायद इसीलिये उन्होंने जाति संस्था को ही खत्म करने की बात की और अपने राजनीतिक दर्शन को जाति के विनाश के  आधार पर स्थापित किया .

डॉ आंबेडकर के राजनीतिक दर्शनशास्त्र में महात्मा फुले के चिंतन का साफ़ असर देखा जा सकता है .महात्मा गांधी के समकालीन रहे अंबेडकर ने अपने दर्शन की बुनियादी सोच का आधार जाति प्रथा के विनाश को माना था उनको विश्वास था कि तब तक न तो राजनीतिक सुधार लाया जा सकता है और न ही आर्थिक सुधार लाया जा सकता है।  जाति के विनाश के सिद्धांत को प्रतिपादित करने वाली उनकी किताब,"जाति का विनाश " , ने   हर तरह की राजनीतिक सोच  को प्रभावित किया है. पश्चिम और दक्षिण भारत में सामाजिक परिवर्तन के जो भी आन्दोलन चले हैं उसमें इस किताब का बड़ा  योगदान  है. यह  काम महाराष्ट्र में उन्नीसवीं सदी में ज्योतिबा फुले ने शुरू किया था . उनके बाद के क्रांतिकारी सोच के नेताओं ने उनसे बहुत कुछ सीखा .. डॉ अंबेडकर ने महात्मा फुले की शिक्षा संबंधी  सोच को परिवर्तन की राजनीति के केंद्र में रख कर काम किया और आने वाली नस्लों को जाति के विनाश के रूप में एक ऐसा गुरु मन्त्र दिया जो सही मायनों  में परिवर्तन का वाहक बनेगा.  डॉ अंबेडकर ने ब्राह्मणवाद के खिलाफ शुरू किये गए ज्योतिबा फुले के अभियान को एक अंतरराष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य दिया.

अपनी किताब में डा.अंबेडकर ने बहुत ही साफ शब्दों में कह दिया है कि जब तक जाति प्रथा का विनाश नहीं हो जाता तो  समतान्याय और भाईचारे की शासन व्यवस्था नहीं कायम हो सकती। अंबेडकर के जीवन काल में किसी ने नहीं सोचा होगा कि उनके दर्शन को आधार बनाकर राजनीतिक सत्ता हासिल की जा सकती है। लेकिन ऐसा हुआ और मायावती उत्तर प्रदेश की एक मज़बूत नेता के रूप में  उभरीं .मायावती और उनके राजनीतिक गुरू कांशीराम ने अपनी राजनीति के विकास के लिए अंबेडकर का सहारा लिया और सत्ता भी पायी लेकिन अंबेडकर के नाम पर सत्ता का सुख भोगने वाली  सरकार ने उनके सबसे प्रिय सिद्धांत को आगे बढ़ाने के लिए कोई क़दम नहीं उठाया .इस बात  के भी पुख्ता सबूत हैं कि मायावती जाति प्रथा का विनाश चाहती ही नहीं हैं क्योंकि उनका वोट बैंक एक ख़ास जाति से आता है .इसके उलट वे जातियों के आधार पर पहचान बनाए रखने की पक्षधर है.  जब मुख्यमंत्री थीं तो हर  जाति की भाईचारा कमेटियाँ बना दी थीं और उन कमेटियों को उनकी पार्टी का कोई बड़ा नेता संभालता था .डाक्टर भीम राव आंबेडकर ने साफ कहा था कि जब तक जातियों के बाहर शादी ब्याह की स्थितियां नहीं पैदा होती तब तक जाति का इस्पाती सांचा तोड़ा नहीं जा सकता। चार बार मुख्यमंत्री की कुर्सी पर विराजने वाली मायावती जी ने एक बार भी सरकारी स्तर पर ऐसी कोई पहल नहीं की जिसकी वजह से जाति प्रथा पर कोई मामूली सी भी चोट लग सके। जाहिर है जब तक समाज जाति के बंधन के बाहर नहीं निकलता आर्थिक विकास का लक्ष्य भी नहीं हासिल किया जा सकता।
" जाति का विनाश " नाम की अपनी पुस्तक में अंबेडकर ने अपने आदर्शों का जिक्र किया है। उन्होंने कहा कि जातिवाद के विनाश के बाद जो स्थिति पैदा होगी उसमें स्वतंत्रताबराबरी और भाईचारा होगा। एक आदर्श समाज के लिए अंबेडकर का यही सपना था। एक आदर्श समाज को गतिशील रहना चाहिए और बेहतरी के लिए होने वाले किसी भी परिवर्तन का हमेशा स्वागत करना चाहिए। एक आदर्श समाज में विचारों का आदान-प्रदान होता रहना चाहिए।अंबेडकर के आदर्श समाज में सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा हैबराबरी . बराबरी के लक्ष्य को हासिल करने के लिए आज से सौ साल पहले डॉ आंबेडकर ने जो दर्शन कोलंबिया विश्वविद्यालय के अपने पर्चे में प्रतिपादित किया था , आज सहारनपुर के जातीय दंगों ने उनको बहुत निर्दय तरीके से नकारने की दिशा में महत्वपूर्ण क़दम उठा लिया है .
ग्रामीण समाज में गरीबी स्थाई भाव  है और दलित शोषित वर्ग उसका सबसे बड़ा शिकार है . यह  भी सच  है कि तथाकथित सवर्ण जातियों के लोगों में भी बड़ी संख्या में लोग गरीबी का शिकार हैं . कल्पना कीजिये कि अगर ग्रामीण भारत में लोग अपनी पहचान जाति के रूप में न मानकर आर्थिक आधार पर मानें तो गरीब आदमियों का एक बड़ा हुजूम तैयार हो जाएगा जो राजनीतिक स्तर पर अपनी समस्याओं के समाधान के लिए प्रयास करेगा लेकिन शासक वर्गों ने ऐसा नहीं होने दिया . जाति के सांचों में बांधकर ही उनको अपनी राजनीतिक रोटियाँ सेंकनी थीं और वे लगातार सेंक रहे  हैं .



Sunday, May 21, 2017

नरेंद्र मोदी के विकल्प की बात करना मुख्य मुद्दों से भटकाव की राजनीति है .


शेष नारायण सिंह

केंद्र में नरेंद्र मोदी सरकार के तीन साल पूरे होने के साथ ही यह बात बहुत ज़ोरों से चलाई जा रही है कि अब देश की राजनीति में उनका कोई विकल्प  नहीं है .बीजेपी के नेता इस बात को जोर देकर कहते हैं कि नरेंद्र मोदी अब जवाहरलाल नेहरू की तरह आजीवन प्रधानमंत्री बने  रहेंगें . टेलीविज़न चैनलों में भी यह बात कही जा रही है . नरेंद्र मोदी की सफलताओं का ज़िक्र किया जा रहा है . बीजेपी के प्रवक्ता और मंत्री इस बात का दावा बार बार कर रहे  हैं कि पिछले तीन वर्षों में को भ्रष्टाचार नहीं हुआ है . देश की जनता के पास इसका प्रतिवाद करने का कोई मंच नहीं है लिहाजा सभी इस बात को माने बैठे हैं कि जब इतने बड़े नेता कह रहे हैं तो सच ही होगा. विपक्षी पार्टियों का जिम्मा है कि वे मोदी सरकार की अगर कोई नाकामयाबी है तो उसका ज़बरदस्त तरीके से प्रचार करें लेकिन ऐसा नहीं हो रहा है . सबसे बड़ा ज़िम्मा  कांग्रेस पार्टी  का है लेकिन उनके प्रवक्ता रोज़ शाम ४ बजे के आस पास २४ अकबर रोड , नई दिल्ली के अपने मुख्यालय में  विराजते  हैं और अपनी बात को बहुत प्रभावशाली तरीके  से कहते हैं . आमतौर पर यह बात बीजेपी के कुछ नेताओं या  मंत्रियों के बयानों पर उनकी प्रतिक्रिया होती है . अगले दिन सुबह बात चीत में वे ही  बताते हैं कि बीजेपी की ओर से मीडिया मैनेज हो गया है और प्रेस कांग्रेस की बात को प्राथमिकता नहीं दे रहा है . मीडिया पर हमला करना आजकल फैशन हो गया है लेकिन इन नेताओं को अपने गिरेबान में झांकना होगा कि अगर मीडिया उनकी बात नहीं उठा रहा  है तो क्या और कोई तरीका नहीं है जिस से वे अपनी बात जनता तक पंहुचा सकें .  केंद्र सरकार और राज्य सरकारों की ओर से हर हफ्ते कुछ न कुछ ऐसा हो रहा है जो जनविरोधी है लेकिन कहीं भी किसी भी राजनीतिक  पार्टी ने किसी तरह का विरोध किया ही नहीं .मीडिया का स्पेस हर दौर में सत्ताधारी पार्टी को ज्यादा मिलता रहा है क्योंकि उनके काम और आचरण से देश का अवाम सीधे तौर पर प्रभावित होता रहा है . कांग्रेस के दौर में भी मीडिया का स्पेस  सरकारी पार्टी को मिलता था और तब बीजेपी के नेता भी मीडिया के मैनेज होने की शिकायत करते थे. लेकिन बीजेपी वालों ने दिल्ली समेत देश की ज़्यादातर राजधानियों में जुलूस आदि निकाल कर कांग्रेस की सरकारों  को कटघरे में खडा किया था . देश की राजनीति की बदकिस्मती है कि आज ऐसा नहीं हो रहा है और चारों तरफ यह चर्चा है कि नरेंद्र मोदी का कहीं कोई विकल्प नहीं है .ज़ाहिर है बीजेपी इस अभियान की अगुवा है लेकिन इस तरह की बात को कोई मतलब नहीं है क्योंकि अगर विकल्प की ज़रुरत पडी तो लोकतंत्र अपने हित में किसी भी नेता का विकल्प तलाश लेता है .नरेंद्र मोदी की  विकल्पहीनता की बात बीजेपी की रणनीति का हिस्सा हो सकती  है लेकिन विपक्ष को उसके लपेट में आने की क्या ज़रुरत है , यह बात आम आदमी की समझ से परे है.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के विकल्प की बात सुझाना इस लेख का मकसद नहीं है . अगर विकल्प की ज़रुरत पडी तो वह वक़्त की  ताक़त से अपने आप तय हो जाएगा. भला कोई सोच सकता था  कि जिस व्यक्ति को बीजेपी के ही कई  तिकड़मबाज़  नेताओं  ने गुजरात से बाहर कर दिया था ,वही बीजेपी का सबसे  बड़ा नेता और प्रधानमंत्री  हो जाएगा. बीजेपी के उस समय के बड़े नेता लाल कृष्ण आडवानी और उनके गुट के नेता लोग तो १३ सितम्बर २०१३ के दिन भी नरेंद्र मोदी को विकल्प मानने को तैयार नही थे. पार्टी के  तत्कालीन अध्यक्ष , राजनाथ सिंह  ने जब गोवा में अपनी पार्टी की बैठक में आडवानी आदि की मर्जी के खिलाफ जाकर नरेंद्र मोदी  को पार्टी का प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित कर दिया था तो दिल्ली में विराजने वाले कई बड़े नेता राजनाथ सिंह के खिलाफ ही लामबंद होने लगे थे लेकिन  वक़्त ने साबित कर दिया कि राजनाथ सिंह का फैसला उनकी पार्टी के हित में सही था. आज की स्थिति यह है कि सितम्बर २०१३  में जो लोग नरेंद्र मोदी का विरोध कर रहे थे, नरेंद्र मोदी के विकल्प के रूप में उनकी चर्चा  तक नहीं होती. दिलचस्प बात यह है कि उनमें से कई महानुभाव आज उनके कृपापात्र भी बन गए हैं .
कई मीडिया संगठन नेताओं के ऊपर जनहित  पर आघात करते  है तो सच्चाई के साथ खड़े मीडिया को ज्यादातर राजनेता अपनी आलोचना का विषय बनाते हैं . मीडिया का न तो यह काम है कि वह किसी का विकल्प सुझाए और नहीं उसके लिए यह न्यायसंगत  होगा .  लेकिन देश की जनता को किसी भी चिंता और ऊहापोह की स्थिति से  बचाने के लिए यह मीडिया का फ़र्ज़ है कि जितना संभव  हो देश की जनता को उसकी चिंता  से मुक्त करे. इसका तरीका यह है कि आज के पहले जब भी देश की राजनीति में किसी भी प्रधानमंत्री का विकल्प न होने की बात चली ही उस वक़्त के हालात हो याद दिला दे.
जवाहरलाल नेहरू के जीवन काल में  उनके प्रधानमंत्रित्व के अंतिम दौर में यह चर्चा शुरू हो गयी थी . इस आशय की किताबें आदि भी लिखी जाने लगी थीं . नेहरू के बाद जिस नेता को देश ने चुना ,उनका कार्यकाल बहुत कम समय का रहा लेकिन लाल बहादुर शास्त्री ने यह तय कर दिया कि उन्होंने नेहरू की नीति में जो कमियाँ रह गयी थीं उनको भी दुरुस्त करने की क्षमता उनके अन्दर थी. चीन के  साथ हुए संघर्ष में भारत को अपमान झेलना पड़ा था और उसी से मनबढ़ हुए पाकिस्तानी तानाशाह जनरल अय्यूब ने भारत को युद्ध की तरफ जाने को मजबूर कर दिया . कश्मीर घाटी  में बड़े पैमाने पर घुसपैठ करवाई और युद्ध को भारत पर थोप दिया .शास्त्री जी के राजनीतिक नेतृत्व  में पाकिस्तानी सेना को ऐसा  ज़बरदस्त जवाब दिया कि पाकिस्तानी सेना के हौसले हमेशा के लिए पश्त हो गए . शास्त्री जी ने ही देश में मौजूद अन्न की कमी से सीधे लोहा लिया और ग्रीन रिवोल्युशन की शुरुआत की . यह अलग बात है कि शास्त्री जी की मृत्यु के बाद उसकी सारी वाह वाही इंदिरा जी ने अपने खाते में दर्ज करवा दी.
प्रधानमंत्री पद को लेकर विकल्प हीनता की स्थिति तब भी आयी थी जब इमरजेंसी को खत्म करने तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा  गांधी  ने चुनाव की घोषणा कर दी. ज़्यादातर विपक्षी नेता जेलों में बंद थे . इंदिरा गांधी के खुफिया तंत्र ने उनको सलाह दी थी कि विपक्ष की एकता संभव नहीं है और चुनाव करवा कर पांच साल  के लिए जनादेश ताज़ा करवा लें . लेकिन जनता के दबाव में जेल से आकर विपक्षी नेता लोग  ,सर्वोदय के कर्णधार जयप्रकाश नारायण के साथ खड़े हो गए और भारतीय लोकदल के चुनाव निशान पर चुनाव लड़ने का फैसला कर लिया गया , पार्टी का नाम जनता पार्टी दिया गया जबकि सच्चाई यह है कि पार्टी का गठन सरकार बन जाने के मई महीने में हुआ. चुनाव की घोषणा होने के बाद  , इंदिरा गांधी सरकार के वरिष्ठ मंत्री और कांग्रेस के बड़े नेता , बाबू जगजीवन राम ने कांग्रेस से इस्तीफ़ा देकर ,कांग्रेस फार डेमोक्रेसी  बना लिया और जनता पार्टी के साथ मिलकर चुनाव लड़ गए. चुनाव के नतीजों ने साबित कर दिया कि इंदिरा  गांधी का विकल्प संभव था और वह एक राजनीतिक सच्चाई था.
दूसरा इस तरह का अवसर तह आया जब बहुत भारी बहुमत से देश में राज कर रहे  राजीव गांधी का कोई विकल्प न होने की बात चल पडी  थी. लेकिन बोफर्स का राजनीतिक तूफान आया तो एक साधारण हैसियत का राजा जिसकी अपनी कोई राजनीतिक ज़मीन नहीं थी , राजीव गांधी को बेदखल करने का साधन बन गया . गौर करने की बात यह  है  कि जिस विश्वनाथ प्रताप सिंह ने राजीव  गांधी के विकल्प के रूप में अपने आप को  पेश करने में सफलता पाई थी वे हमेशा से ही  इंदिरा गांधी परिवार के कृपा पात्र रहे थे.१९७१ के बाद इंदिरा गांधी ने उनको छोटा मंत्री बनाया था, १९८० में संजय गांधी की कृपा से मुख्यमंत्री बने थे और १९८४-८५  में राजीव गांधी ने उनको वित्त मंत्री बना दिया था . जब  उनको इंदिरा जी ने राज्य मंत्री बनाया था , उस समय भी कांग्रेस में उनसे बहुत बड़े नेता थे और उनमें से एक , चन्द्रशेखर थे जो १९८९ में प्रधानमंत्री पद के ज़बरदस्त दावेदार थे लेकिन वक़्त ने वी पी सिंह को चुना और राजीव गांधी का विकल्प तैयार हो गया . इसी तरह  से अटल बिहारी वाजपेयी के बाद डॉ मनमोहन सिंह का प्रधानमंत्री बनना भी एक ऐसी सच्चाई  है जिसका अंदाज़ किसी को नहीं था, डॉ मनमोहन सिंह को भी नहीं .
इसलिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के विकल्प की बात करना राजनीति और लोकतंत्र की ताक़तों को न समझ पाने का लक्षण है.  अगर लोकतंत्र के लिए  ज़रूरी हुआ तो कोई भी  मोदी के विकल्प के रूप में सामने आ जाएगा . आखिर २०१३ तक इसी पार्टी के लाल कृष्ण आडवानी, अरुण जेटली  , सुषमा स्वराज , वेंकैया नायडू, नितिन गडकरी आदि वर्तमान प्रधानमंत्री के अति  आदरणीय  नेता रह चुके हैं . पिछले दिनों उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री  योगी आदित्य नाथ का नाम भी दिल्ली के सत्ता का गलियारों में खुसुर पुसुर स्टाइल में चल चुका है लेकिन सच्चाई यह  है कि आज बीजेपी की  राजनीति को मोदी के विकल्प की  ज़रुरत नहीं है. जब ज़रूरी होगा समय अपना विकल्प तलाश  लेगा अभी  तो विपक्ष को  इस बात पर ध्यान देना चाहिए कि उस जनता की आवाज़ को दमदार तरीके से उठायें जो किसी भी सरकार तक अपनी बात नहीं पंहुचा सकती , विकल्प की बात करना एक तरह से अवाम के मुख्य मुद्दों  से भटकाव है और वह राजनीतिक विकास के हित में नहीं है 


Thursday, May 18, 2017

मोदी सरकार पर नज़र रखने में कांग्रेस अब तक असफल रही है



शेष नारायण सिंह

इसी मई में नरेंद्र  मोदी सरकार के तीन साल पूरे हो गए. सरकार और उसके समर्थकों का दावा है कि बी जे पी सरकार ने पिछले तीन वर्षों में हर क्षेत्र में सफलता की बुलंदियां हासिल की हैं ,विदेश नीति से लेकर महंगाई ,बेरोजगारी ,कानून व्यवस्था सभी क्षेत्रों में सफलता के रिकार्ड बनाए गए हैं ,ऐसा बीजेपी वालों का दावा है . यह अलग बात है कि इन सभी क्षेत्रों में  सरकार की सफलता संदिग्ध हैं . महंगाई कहीं कम  नहीं हुयी है , चुनाव अभियान के दौरान बीजेपी ने जिन करोड़ों नौकरियों का वादा किया था  ,वह कहीं भी नज़र नहीं आ रही हैं . ख़ासतौर से ग्रामीण इलाकों में चारों तरफ बेरोजगार नौजवानों के हुजूम देखे जा सकते हैं . किसानों की हालत जो पिछले ४० वर्षों से खराब होना शुरू हुई थी वह बद से बदतर होती जा रही है.  उत्तर प्रदेश और बिहार के अवधी ,भोजपुरी इलाकों से नौजवान बड़ी संख्या में देश के औद्योगिक नगरों की तरफ पलायन करते थे और छोटी मोटी नौकरियाँ हासिल करते थे, वह पूरी तरह ठप्प है . लेकिन बीजेपी के  प्रवक्ता आपको ऐसे ऐसे आंकड़े दिखा देगें कि लगेगा कि आपकी ज़मीन से इकट्ठा की गयी जानकारी गलत है , वास्तव में देश तरक्की कर  रहा है , चारों तरफ खुशहाली है , नौजवान बहुत खुश हैं और अच्छे दिन आ चुके हैं .
 मोदी सरकार के तीन साल पूरे होने की खुशी में टेलिविज़न चैनलों पर बहसों का मौसम शुरू हो  गया है . बीजेपी के कुशाग्रबुद्धि प्रवक्ता वहां मौजूद रहते हैं और पूरी दुनिया को बताते रहते हैं कि पिछले तीन वर्षों में  सब कुछ बदल गया है  . ऐसे ही एक डिबेट में शामिल होने का मौक़ा मिला . बीजेपी  के प्रवक्ता ने अच्छी तरह अपनी बात रखी जो उनको रखना चाहिए . यह उनका फ़र्ज़ है .

इसी डिबेट में कांग्रेस प्रवक्ता भी थे. तेज़ तर्रार नौजवान नेता. राहुल गांधी की राजनीति के अलमबरदार . लेकिन उनके पास बीजेपी के प्रवक्ता का विरोध करने के लिए कोई तैयारी नहीं थी. लगातार नरेंद्र मोदी पर हमले करते रहे . अपने हस्तक्षेप के दौरान कई बार उन्होंने नरेंद्र मोदी या प्रधान मंत्री शब्द का बार बार उलेख किया और बहस में बीजेपी  सरकार की खामियों को गिनाने के लिए केवल नरेंद्र मोदी  का सहारा लेने की कोशिश करते रहे.जब  डिबेट में मौजूद पत्रकारों ने उनको याद दिलाया कि अगर आपकी बात को सच मान भी लिया जाए  कि पिछले तीन वर्षों में सरकार ने जनहित का कोई काम नहीं किया है  और हर मोर्चे पर फेल रही है तो आप लोगों  ने सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी का कर्त्तव्य क्यों नहीं  निभाया, कांग्रेस ने सरकार की असफलताओं को उजागर करने के लिए कोई जन आन्दोलन क्यों नहीं शुरू किया . क्यों आप लोग टेलिविज़न  कैमरों और  अपनी पार्टी के दफ्तरों के  अलावा कहीं नज़र नहीं आये. तो उनके पास बगलें झांकने के अलावा कोई जवाब नहीं था. बड़ी खींचतान  के पाद उन्होंने रहस्योद्घाटन किया कि पिछले दिनों जन्तर मन्तर पर तमिलनाडु  से  आये   किसानों का जो विरोध देखा गया था , वह कांग्रेस द्वारा आयोजित था. ज़ाहिर है और किसी आन्दोलन का ज़िक्र नहीं किया जा सकता  था क्योंकि कहीं कुछ था ही नहीं . ऐसी हालत में एक ऐसे  आन्दोलन को अपना बनाकर पेश  करने की कोशिश  की गयी  जिसमें कांग्रेस की भूमिका केवल  यह थी  कि उनके आला नेता , राहुल गांधी किसानों के उन आन्दोलन से सहानुभूति जताने जंतर मंतर गए थे , कुछ देर बैठे थे और उस मुद्दे  पर उनकी पार्टी  ने बयान आदि देने की रस्म अदायगी की थी.

सवाल यह उठता है कि क्या मुख्य विपक्षी दल का कर्त्तव्य यहीं ख़त्म हो जाता है . क्या लोकतंत्र में यह ज़रूरी  नहीं कि  सरकार अपनी राजनीतिक समझ  के हिसाब से जनहित और राष्ट्रहित  के कार्यक्रम लागू करती रहे और अगर उसकी सफलता संदिग्ध हो तो जनता के बीच जाकर या किसी भी तरीके से विपक्षी पार्टियां  सरकार की कमियों को बहस के दायरे में लायें . या विपक्ष की  यही भूमिका  है कि वह इस बात का इंतज़ार करे कि २०१९ तक जनता बीजेपी से निराश हो जायेगी और फिर से  कांग्रेस सहित विपक्षी दलों को सत्ता थमा देगी.  फिलहाल यही माहौल है . कहीं कुछ भी विरोध देखा नहीं जा रहा  है.

कांग्रेस का ड्राइंग रूम की पार्टी बन जाना इस देश की भावी राजनीति के लिए अच्छा संकेत नहीं है .  कांग्रेस के राहुल गांधी टीम के मौजूदा नेता  यह दावा करते हैं कि उनकी पार्टी   महात्मा गांधी, सरदार पटेल ,जवाहर लाल नेहरू की पार्टी है . बात बिलकुल सही है क्यों जवाहर लाल नेहरू के वंशज उनकी पार्टी के सर्वोच्च नेता हैं . लेकिन क्या इन लुटियन की दिल्ली में रमण करने वाले नए कांग्रेसी नेताओं को मालूम नहीं है कि कांग्रेस के नेताओं ने आन्दोलन को देश की राजनीति का स्थाई भाव बना दिया था. १९२० से लेकर १९४६ तक कांग्रेस ब्रिटिश साम्राज्य की कमियों को हर मोर्चे पर बेपरदा किया था जहां भी संभव था. १९४७ के पहले कांग्रेस के तीन बड़े  आन्दोलन राजनीतिक आचरण के विश्व इतिहास में  जिस सम्मान से उद्धृत किये जाते हैं उसपर कोई भी देश या समाज गर्व कर सकता है . १९२० का महात्मा गांधी का आन्दोलन इतना ज़बरदस्त  था कि  भारत की जनता की एकजुटता को खंडित करने के लिए उस वक़्त के हुक्मरानों को सारे घोड़े खोलने पड़े थे. १९२० के आन्दोलन के बाद ही ऐसा माहौल बना था कि अंग्रेजों ने  अपने वफादार  भारतीयों को आगे करके  कई ऐसे संगठन बनवाये जिनके कारण भारतीय अवाम की एकता को तोड़ने में उनको सफलता मिली. कांग्रेस के १९३० के आन्दोलन का ही नतीजा था कि महात्मा गांधी ने अंग्रेजों को मजबूर कर दिया कि वह  भारतीयों के साथ मिलकर देश पर शासन करें . १९३५ का गवर्नमेंट आफ इण्डिया एक्ट  कांग्रेस की अगुवाई में  चले आन्दोलन का ही नतीजा था .यह भी सच है कि अँगरेज़ शासकों ने भारत की राजनीतिक एकता को खत्म करने के बहुत सारे प्रयास किये लेकिन कहीं कोई सफलता नहीं मिली. शायद  राजनीतिक आन्दोलन के इसी जज्बे का नतीजा था कि१९४२ में जब महात्मा गांधी के साथ खड़े देश ने नारा दिया कि अंग्रेजो ' भारत छोडो ' तो ब्रिटिश हुकूमत ने इन शोषित पीड़ित लोगों की  आवाज़ को हुक्म माना और उनको साफ़ लग गया कि भारत की एकजुट राजनीतिक ताक़त के सामने टिक पाना नामुमकिन था. राजनीति की इस परम्परा का वारिस होने का दावा करने वाली कांग्रेस के मौजूदा नेताओं का वातानुकूलित माहौल से बाहर न निकलने का आग्रह समझ परे है .
मौजूदा  कांग्रेस नेताओं से गांधी-नेहरू परम्परा की उम्मीद भी नहीं है लेकिन राहुल गांधी की दादी और चाचा की राजनीति की उम्मीद तो  की ही जा सकती है . जब १९७७ में भारी जनाक्रोश के बाद इंदिरा गांधी की सरकार बेदखल कर दी गयी थी तो सत्ता को अपनी  हैसियत से  जोड़ चुके संजय गांधी के सामने मुश्किलें बहुत थीं . इमरजेंसी के उनके कारनामों की जांच के लिए शाह आयोग बना दिया गया था, जनता का भारी विरोध था, गली गली में कांग्रेस और इंदिरा -संजय  की टोली की निंदा हो रही थी.   इमरजेंसी में कांग्रेस के बड़े नेता रहे लोग जनता पार्टी की शरण में जा चुके थे . कांग्रेस के लिए चारों तरह अन्धेरा  ही अँधेरा था लेकिन कांग्रेस ने सड़क पर आने का फैसला किया . एक दिन दिल्ली की सडकों पर चलने वालों देखा कि काले पेंट से दिल्ली की दीवारें पेंट कर दी गयी थीं और लिखा था कि ' शाह आयोग नाटक है '. शाह आयोग को इमरजेंसी की ज्यादातियों की जांच  करने के लिए मोरारजी देसाई सरकार ने स्थापित किया था. उसी के विरोध से  तिरस्कृत कांग्रेस ने विरोध की बुनियाद डाल दी. यह सच है कि उन दिनों  सभ्य समाज में कांग्रेस के प्रति बहुत ही तिरस्कार का भाव था लेकिन संजय गांधी और इंदिरा गांधी ने हिम्मत नहीं हारी . बहुत सारे ऐसे नौजवानों  को संजय गांधी ने इकठ्ठा किया जिनको भला आदमी नहीं माना जा सकता था लेकिन उनके सहारे ही आन्दोलन खड़ा कर दिया और जनता पार्टी की सरकार के विरोधाभासों को बहस के दायरे में ला दिया . इंदिरा गांधी और संजय गांधी जेल भी गए और जब जेल से बाहर आये तो उनके साथ और बड़ी संख्या में लोग जुड़ते गए. नतीजा यह हुआ कि १९८० में कांग्रेस की धमाकेदार वापसी हुई . आज के कांग्रेस के अला नेता किसी आन्दोलन के बाद जेल जाने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहे हैं . हाँ याह संभव है कि उनको नैशनल हेराल्ड के केस में आपराधिक मामले में जेल जाना पड़ जाए.
कांग्रेस ने १९९९ से २००४  तक  सोनिया गांधी के नेतृव में भी अटल बिहारी वाजपेयी सरकार को लगातार घेरने की राजनीति की और सारे तामझाम , सारे मीडिया मैनेजमेंट, सारे शाइनिंग इण्डिया के बावजूद जनता ने कांग्रेस को फिर से सत्ता सौंप दी. सत्ता खंडित थी लेकिन बदलाव हुआ और बदलाव राजनीतिक आन्दोलन के रास्ते हुआ. यह ज़रूरी नहीं कि आन्दोलन के बाद सत्ता मिल ही जाए. सोशलिस्ट पार्टी के बड़े नेताओं , आचार्य नरेंद्र देव और डॉ राम मनोहर लोहिया ने विपक्ष में रहते हुए जीवन भर उस वक़्त की कांग्रेस सरकारों की खामियों को  सड़क पर उतर कर जनता  के सामने उजागर करते रहे  . उन महान नेताओं को सत्ता कभी नहीं मिली लेकिन लोकतंत्र में जनता को यह अहसास हमेशा बना रहा कि उस दौर की सत्ताधारी पार्टी जो भी जनविरोधी काम कर रही है उसकी जानकारी नेताओं को है और वे उसके लिए संघर्ष कर रहे हैं . आज की सत्ताधारी पार्टी बीजेपी भी जब विपक्ष में होती थी तो आम जनता को प्रभावित करने आले मुद्दों पर आन्दोलन का  रास्ता अपनाती  रही  है . दिल्ली में रहने वालों को मालूम है कि जब तक मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री रहे हर हफ्ते बीजेपी की अलग अलग इकाइयों  का जंतर मंतर पर कोई न कोई आन्दोलन चलता ही रहता था.

आज के विपक्षी नेताओं की   स्थिति बिलकुल अलग है . वे टेलिविज़न की बाईट देते हैं , प्रेस  कान्फरेंस करते हैं , लाखों  की कारों  में बैठकर संसद आते हैं , गपशप  करते हैं , कभी कभार कुछ बोल देते हैं और उम्मीद करते हैं कि देश भर में  रहने वाली जनता उनके वचनों को तलाश करके निकाले और उनके अनुसार पूरी तरह से नाकाम हो चुकी मोदी सरकार के खिलाफ २०१९ में मतदान करे  और हरे भरे दिल्ली शहर से बाहर गए बिना इन  विपक्षी नेताओं को सत्ता सौंप दे .लेकिन राजनीति में ऐसा  नहीं होता . यहाँ न कोई बिल्ली होती है और न कोई छींका टूटता है इसलिए सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी को अपना कर्त्तव्य सही  तरह से निभाने के लिए जनता के बीच जाना  होगा . उनको यह  हमेशा ध्यान रखना होगा कि लोकतंत्र में सरकारी पक्ष की भूमिका पर निगरानी  रखने और जनता को चौकन्ना रखने के लिए विपक्ष होता  है . आज की स्थिति यह है कि  विपक्ष अपना काम सही  तरीके से  नहीं कर रहा है .

साभार : देशबन्धु ( 19-05-2017}