Friday, April 10, 2015

गैर बराबरी और सामंती सोच के खिलाफ पहला हमला बोला था महात्मा ज्योतिराव फुले ने




शेष नारायण सिंह 

हर साल ११ अप्रैल के दिन महात्मा फुले का बाढ़ दिवस पड़ता है . महाराष्ट्र में जन्म दिन को इसी नाम से जाना जाता है . 19 वीं सदी के क्रांतिकारी चितंक और वर्णव्यवस्था को गंभीर चुनौती देने वाले ज्योतिराव फुले के बारे में जानकारी की बहुत कमी है। उन्होंने लड़कियों की शिक्षा को सामाजिक परिवर्तन का सबसे बड़ा प्रेरक माना था. दलित लड़कियों की शिक्षा के लिए जो कार्य उन्होंने किया ,आने वाली पीढ़ियों को उस काम से सदियों तक प्रेरणा मिलती रहेगी.
ज्योतिराव गोविंदराव फुले का जन्म पुणे में हुआ था और उनके पिता पेशवा के राज्य में बहुत सम्माननीय व्यक्ति थे। लेकिन ज्योतिराव फुले अलग किस्म के इंसान थे। उन्होंने दलितों के उत्थान के लिए जो काम किया उसकी तुलना किसी से नहीं की जा सकती। उनका जन्म 1827 में पुणे में हुआ थामाता पिता संपन्न थे लेकिन महात्मा फुले हमेशा ही गरीबों के पक्षधर बने रहे। उनकी महानता के कुछ खास कार्यों का ज़‍िक्र करना ज़रूरी है।
1848 में शूद्रातिशूद्र लड़कियों के लिए एक स्कूल की स्थापना कर दी थी। आजकल जिन्हें दलित कहा जाता हैमहात्मा फुले के लेखन में उन्हें शूद्रातिशूद्र कहा गया है। 1848 में दलित लड़कियों के लिए स्कूल खोलना अपने आप में एक क्रांतिकारी कदम है। क्योंकि इसके 9 साल बाद बंबई विश्वविद्यालय की स्थापना हुई। उन्होंने 1848 में ही मार्क्‍स और एंगेल्स ने कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो का प्रकाशन किया था। 1848 में यह स्कूल खोलकर महात्मा फुले ने उस वक्त के समाज के ठेकेदारों को नाराज़ कर दिया था। उनके अपने पिता गोविंदराव जी भी उस वक्त के सामंती समाज के बहुत ही महत्वपूर्ण व्यक्ति थे। दलित लड़कियों के स्कूल के मुद्दे पर बहुत झगड़ा हुआ लेकिन ज्योतिराव फुले ने किसी की न सुनी। नतीजतन उन्हें 1849 में घर से निकाल दिया गया। सामाजिक बहिष्कार का जवाब महात्मा फुले ने 1851 में दो और स्कूल खोलकर दिया। जब 1868 में उनके पिताजी की मृत्यु हो गयी तो उन्होंने अपने परिवार के पीने के पानी वाले तालाब को अछूतों के लिए खोल दिया। 1873 में महात्मा फुले ने सत्यशोधक समाज की स्थापना की और इसी साल उनकी पुस्तक गुलामगिरी का प्रकाशन हुआ। दोनों ही घटनाओं ने पश्चिमी और दक्षिण भारत के भावी इतिहास और चिंतन को बहुत प्रभावित किया।

महात्मा फुले के चिंतन के केंद्र में मुख्य रूप से धर्म और जाति की अवधारणा है। वे कभी भी हिंदू धर्म शब्द का प्रयोग नहीं करते। वे उसे ब्राह्मणवाद के नाम से ही संबोधित करते हैं। उनका विश्वास था कि अपने एकाधिकार को स्थापित किये रहने के उद्देश्य से ही ब्राह्मणों ने श्रुति और स्मृति का आविष्कार किया था। इन्हीं ग्रंथों के जरिये ब्राह्मणों ने वर्ण व्यवस्था को दैवी रूप देने की कोशिश की। महात्मा फुले ने इस विचारधारा को पूरी तरह ख़ारिज़ कर दिया। फुले को विश्वास था कि ब्राह्मणवाद एक ऐसी धार्मिक व्यवस्था थी जो ब्राह्मणों की प्रभुता की उच्चता को बौद्घिक और तार्किक आधार देने के लिए बनायी गयी थी। उनका हमला ब्राह्मण वर्चस्ववादी दर्शन पर होता था। उनका कहना था कि ब्राह्मणवाद के इतिहास पर गौर करें तो समझ में आ जाएगा कि यह शोषण करने के उद्देश्य से हजारों वर्षों में विकसित की गयी व्यवस्था है। इसमें कुछ भी पवित्र या दैवी नहीं है। न्याय शास्त्र में सत की जानकारी के लिए जिन 16 तरकीबों का वर्णन किया गया हैवितंडा उसमें से एक है। महात्मा फुले ने इसी वितंडा का सहारा लेकर ब्राह्मणवादी वर्चस्व को समाप्त करने की लड़ाई लड़ी। उन्होंने अवतार कल्पना का भी विरोध किया। उन्होंने विष्णु के विभिन्न अवतारों का बहुत ही ज़ोरदार विरोध किया। कई बार उनका विरोध ऐतिहासिक या तार्किक कसौटी पर खरा नहीं उतरता लेकिन उनकी कोशिश थी कि ब्राह्मणवाद ने जो कुछ भी पवित्र या दैवी कह कर प्रचारित कर रखा है उसका विनाश किया जाना चाहिए। उनकी धारणा थी कि उसके बाद ही न्याय पर आधारित व्यवस्था कायम की जा सकेगी। ब्राह्मणवादी धर्म के ईश्वर और आर्यों की उत्पत्ति के बारे में उनके विचार को समझने के लिए ज़रूरी है कि यह ध्यान में रखा जाए कि महात्मा फुले इतिहास नहीं लिख रहे थे। वे सामाजिक न्याय और समरसता के युद्घ की भावी सेनाओं के लिए बीजक लिख रहे थे।
महात्मा फुले ने कर्म विपाक के सिद्धांत को भी ख़ारिज़ कर दिया थाजिसमें जन्म जन्मांतर के पाप पुण्य का हिसाब रखा जाता है। उनका कहना था कि यह सोच जातिव्यवस्था को बढ़ावा देती है इसलिए इसे फौरन ख़ारिज़ किया जाना चाहिए। फुले के लेखन में कहीं भी पुनर्जन्म की बात का खंडन या मंडन नहीं किया गया है। यह अजीब लगता है क्योंकि पुनर्जन्म का आधार तो कर्म विपाक ही है।
महात्मा फुले ने जाति को उत्पादन के एक औज़ार के रूप में इस्तेमाल करने और ब्राह्मणों के आधिपत्य को स्थापित करने की एक विधा के रूप में देखा। उनके हिसाब से जाति भारतीय समाज की बुनियाद का काम भी करती थी और उसके ऊपर बने ढांचे का भी। उन्होंने शूद्रातिशूद्र राजाबालिराज और विष्णु के वामनावतार के संघर्ष का बार-बार ज़‍िक्र किया है। ऐसा लगता है कि उनके अंदर यह क्षमता थी कि वह सारे इतिहास की व्याख्या बालि राज-वामन संघर्ष के संदर्भ में कर सकते थे।
स्थापित व्यवस्था के खिलाफ महात्मा फुले के हमले बहुत ही ज़बरदस्त थे। वे एक मिशन को ध्यान में रखकर काम कर रहे थे। उन्होंने इस बात के भी सूत्र दियेजिसके आधार पर शूद्रातिशूद्रों का अपना धर्म चल सके। वे एक क्रांतिकारी सामाजिक परिवर्तन की बात कर रहे थे। ब्राह्मणवाद के चातुर्वर्ण्‍य व्यवस्था को उन्होंने ख़ारिज़ कियाऋग्वेद के पुरुष सूक्त काजिसके आधार पर वर्णव्यवस्था की स्थापना हुई थीको फर्ज़ी बताया और द्वैवर्णिक व्यवस्था की बात की।
महात्मा फुले एक समतामूलक और न्याय पर आधारित समाज की बात कर रहे थे इसलिए उन्होंने अपनी रचनाओं में किसानों और खेतिहर मजदूरों के लिए विस्तृत योजना का उल्लेख किया है। पशुपालनखेतीसिंचाई व्यवस्था सबके बारे में उन्होंने विस्तार से लिखा है। गरीबों के बच्चों की शिक्षा पर उन्होंने बहुत ज़ोर दिया। उन्होंने आज के 150 साल पहले कृषि शिक्षा के लिए विद्यालयों की स्थापना की बात की। जानकार बताते हैं कि 1875 में पुणे और अहमदनगर जिलों का जो किसानों का आंदोलन थावह महात्मा फुले की प्रेरणा से ही हुआ था। इस दौर के समाज सुधारकों में किसानों के बारे में विस्तार से सोच-विचार करने का रिवाज़ नहीं था लेकिन महात्मा फुले ने इस सबको अपने आंदोलन का हिस्सा बनाया।
स्त्रियों के बारे में महात्मा फुले के विचार क्रांतिकारी थे। मनु की व्यवस्था में सभी वर्णों की औरतें शूद्र वाली श्रेणी में गिनी गयी थीं। लेकिन फुले ने स्त्री पुरुष को बराबर समझा। उन्होंने औरतों की आर्य भट्ट यानी ब्राह्मणवादी व्याख्या को ग़लत बताया।
फुले ने विवाह प्रथा में बड़े सुधार की बात की। प्रचलित विवाह प्रथा के कर्मकांड में स्त्री को पुरुष के अधीन माना जाता था लेकिन महात्मा फुले का दर्शन हर स्तर पर गैरबराबरी का विरोध करता था। इसीलिए उन्होंने पंडिता रमाबाई के समर्थन में लोगों को लामबंद कियाजब उन्होंने धर्म परिवर्तन किया और ईसाई बन गयीं। वे धर्म परिवर्तन के समर्थक नहीं थे लेकिन महिला द्वारा अपने फ़ैसले खुद लेने के सैद्घांतिक पक्ष का उन्होंने समर्थन किया।
महात्मा फुले की किताब गुलामगिरी बहुत कम पृष्ठों की एक किताब हैलेकिन इसमें बताये गये विचारों के आधार पर पश्चिमी और दक्षिणी भारत में बहुत सारे आंदोलन चले। उत्तर प्रदेश में चल रही दलित अस्मिता की लड़ाई के बहुत सारे सूत्र गुलामगिरी में ढूंढ़े जा सकते है। आधुनिक भारत महात्मा फुले जैसी क्रांतिकारी विचारक का आभारी है।

भ्रष्टाचार को समर्पित एक साल और राजनीति की उतरती आबरू

यह मेरा २०१० का एक लेख है . पता नहीं कैसे फेसबुक पर अब फिर  प्रकट हो गया . इसको इसलिए दोबारा पोस्ट कर रहा हूँ क्योंकि मित्र लोग इसे ताज़ा लेख समझ रहे हैं . यह लेख डॉ मनमोहन सिंह के कार्यकाल के दौरान साल २०१० की समीक्षा करता है , मौजूदा सरकार की नहीं . इसे मेरे ब्लॉग पर ३१ दिसंबर २०१० को पोस्ट किया गया था..



शेष नारायण सिंह 

देश की राजनीति स्थिति बहुत ही  गड़बड़झाले से गुज़र रही है.कांग्रेस की ढिलाई और हालात पर पकड़ के कमज़ोर होने की वजह से अगर आज चुनाव हो जाएँ तो उनकी हार लगभग पक्की मानी जा रही है .यह बात बहुत सारे कांग्रेसियों को भी पता है . बीजेपी वालों को यह बात सबसे ज्यादा मालूम है . शायद इसी वजह से जेपीसी के नाम पर वे सरकार को घेरे में लेना चाहते हैं . वैसे इस बात में दो राय नहीं है कि 2010  मेंअपने देश में भ्रष्टाचार के सारे रिकार्ड तोड़े गए हैं . भ्रष्टाचार और घूस की रक़म को इनकम मानने का रिवाज़ तो बहुत पहले से शुरू हो चुका है लेकिन घूसखोर थोडा संभलकर रहता था, भले आदमियों की नज़र बचाकर रहता था . लेकिन जब से संजय गाँधी ने अपराधियों को राजनीति में इज्ज़त देना शुरू किया, घूस को गाली मानने वालों की संख्या में भारी कमी आई थी . लेकिन भ्रष्टाचार को सम्मान का दर्ज़ा कभी नहीं मिला. पिछले बीस वर्षों में जब से केंद्र में गठबंधन सरकार की परंपरा शुरू हुई है , भ्रष्टाचार और घूस को इज्ज़त हासिल होने लगी है . घूसखोर आदमी अपने आप को सम्मान का हक़दार मानने लगा है. राजनीति में शामिल लोगों की आमदनी कई गुना बढ़ गयी है और भ्रष्ट होना अपमानजनक नहीं रह गया है . जब तक बीजेपी वाले विपक्ष में थे , माना जाता था कि यह ईमानदार लोगों की जमात है . लेकिन कई राज्यों में और केंद्र में 6 साल तक सरकार में रह चुकी  बीजेपी भी अब बाकायदा भ्रष्ट मानी जाने लगी है. बीजेपी में फैले भ्रष्टाचार को उनके बड़े नेता कांग्रेसीकरण कहते हैं और उपदेश देते हैं कि पार्टी को कांग्रेसीकरण की बीमारी से बचायें .यह अलग बात है कि बीजेपी को भ्रष्टाचार की आदत से बचा पाने की हैसियत अब किसी की नहीं है . वह अब विधिवत भ्रष्ट हो चुकी है और वह जब भी सत्ता में होगी भ्रष्टाचार में लिप्त पायी जायेगी . लेकिन भ्रष्टाचार की इस भूलभुलैया में भी सन 2010 का मुकाम बहुत ऊंचा है . इस  साल देश में आर्थिक भ्रष्टाचार के सारे पुराने रिकार्ड टूट गए हैं . कामनवेल्थ खेलों में  सुरेश कलमाड़ी के नेतृत्व में जमकर लूट मची है . शुरू में बीजेपी ने जांच के लिए बहुत जोर भी मारा लेकिन जब जांच के शुरुआती दौर में ही बीजेपी के कुछ नेताओं का गला फंसने लगा तो मामला ढीला पड़ गया . अब तो  लगता है कि कांग्रेस ही कामनवेल्थ के घूस को उघाड़ने में ज्यादा रूचि ले रही है .ऐसा शायद इसलिए कि उनका तो केवल एक मोहरा ,सुरेश कलमाड़ी मारा जाएगा जबकि बीजेपी के कई बड़े नेता कामनवेल्थ के घूस की ज़द में आ जायेगें. सुरेश कलमाड़ी को राजनीतिक रूप से ख़त्म करके देश के सत्ताधारी वंश का कुछ नहीं बिगड़ेगा . २जी स्पेक्ट्रम के घोटाले की जांच में अब बीजेपी और कांग्रेस के शामिल होने की जांच का काम शुरू हो गया है . ज़ाहिर है कि सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में हो रही इस जांच से जो भी दोषी होगा ,दुनिया के सामने आ जाएगा. शायद इसीलिये मध्यवाधि चुनाव को लक्ष्य बनाकर बीजेपी वाले जेपीसी जांच की बात को आगे बढ़ा रहे हैं .उन्हें उम्मीद है कि जेपीसी जांच के दौरान रोज़ ही मीडिया में अपने लोगों की मदद से कांग्रेस के खिलाफ माहौल बनाया जा सकेगा .और उसका असर सीधे चुनाव प्रचार पर पड़ेगा. कुल मिलाकर हालात ऐसे बन रहे हैं कि देश की सत्ता की राजनीति रसातल की तरफ बढ़ रही है. दोनों ही मुख्य पार्टियां बुरी तरह से भ्रष्टाचार में डूबी हुई हैं . 
कांग्रेस पार्टी की राजनीति में सारी  ताक़त राहुल गाँधी को प्रधानमंत्री बनाने के अभियान में झोंकी जा रही है . महात्मा गाँधी और सरदार पटेल की कांग्रेस के परखचे उड़ रहे हैं . समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता के बुनियादी सिद्धांत पता नहीं कहाँ दफन हो गए हैं . आलाकमान कल्चर हावी है और सुप्रीम नेता से असहमत होने का रिवाज़ ही ख़त्म हो गया है . राजनीतिक जागरूकता के बुनियादी ढाँचे में कहीं कुछ भी निवेश नहीं हो रहा है . ठोस बातों की कहीं भी कोई बात नहीं हो रही है . पार्टी के बड़े नेता  चापलूसी के सारे रिकार्ड तोड़ रहे हैं और आजादी के बुनियादी सिद्धातों की कोई परवाह न करते हुए अमरीकी पूंजीवाद के कारिंदे के रूप में देश की छवि बन रही है . बीजेपी में भी हालात बहुत खराब हैं . कई गुटों में बंटी हुई पार्टी में किसी तरह का अनुशासन नहीं है . नागपुर की ताक़त से पार्टी के अध्यक्ष बने एक मामूली नेता को कोई भी इज्ज़त देने को तैयार नहीं है . वह नेता भी अपने अधिकार को बढाने के लिए एड़ी चोटी का जोर लगा रहा है . एक न्यूज़ चैनल को इंटरव्यू देकर पार्टी अध्यक्ष ने अपनी ताक़त को दिखाने की कोशिश की है . उन्होंने साफ कह दिया है कि लाल कृष्ण आडवाणी अब उनकी पार्टी की तरफ से प्रधान मंत्री पद के उम्मीदवार नहीं रहेगें . भला बताइये ,2009 के लोकसभा चुनावों में पूरे देश में भावी प्रधानमंत्री का अभिनय करते हुए व्यक्ति को एक इंटरव्यू देकर खारिज  कर देना कहाँ का राजनीतिक इंसाफ़ है .  दिलचस्प बात यह है कि अपने आपको  प्रधान मंत्री पद की दावेदारी से दूर रख कर अध्यक्ष ने आडवाणी गुट के की कई नेताओं का नाम आगे कर दिया है. ज़ाहिर है उनके दिमाग में भी  आडवानी  गुट में फूट डालकर उनकी ताक़त को कमज़ोर  करने की रणनीति काम कर रही है .ऐसी हालात में देश की राजनीति में तिकड़मबाजों और जुगाड़बाजों का बोलबाला चारों तरफ बढ़ चुका है . अब तक बीजेपी वाले नीरा राडिया के हवाले से कांग्रेस को खींचने की कोशिश कर रहे थे लेकिन अब लगता है कि नीरा राडिया के बीजेपी के बड़े नेताओं से  ज्यादा करीबी संबंध रह चुके हैं . कुल मिलाकर हालात ऐसे बन गए हैं कि अब कोई चमत्कार ही देश की राजनीति की आबरू बचा सकता है . 

Tuesday, February 3, 2015

महात्मा गांधी के हत्यारे को भगवान बनाने की साज़िश को तबाह करो.



शेष नारायण सिंह

महात्मा गांधी की शहादत को ६७ साल हो गए. महात्मा गांधी की हत्या जिस आदमी ने की थी वह कोई अकेला इंसान नहीं था. उसके साथ साज़िश में भी बहुत सारे लोग शामिल थे और देश में उसका समर्थन करने वाले भी बहुत लोग थे . तत्कालीन गृहमंत्री सरदार पटेल ने बताया था कि  महात्मा जी की हत्या के दिन  कुछ लोगों ने खुशी से मिठाइयां बांटी थीं. नाथूराम गोडसे और उसके साथियों के पकडे जाने के बाद से अब तक उसके साथ सहानुभूति दिखाने वाले चुपचाप रहते थे ,उनकी हिम्मत नहीं पड़ती थी कि कहीं यह बता सकें कि वे नाथूराम से सहानुभूति रखते हैं  . अब से करीब छः महीने पहले से उसके साथियों ने फिर सिर उठाना शुरू कर दिया है .अब वे नाथूराम को सम्मान देने की कोशिश करने लगे  हैं . आज के अख़बारों में खबर है कि कुछ शहरों में नाथूराम गोडसे के मंदिर बनने वाले हैं . पिछले दिनों जब उत्तर प्रदेश के कुछ शहरों में नाथूराम गोडसे की मूर्ति लगाने की कोशिश की गयी तो भारी विरोध हुआ . लेकिन अब पता चला है कि गोडसे की पार्टी , हिन्दू महासभा के वर्तमान नेताओं ने तय किया है कि कुछ मंदिरों के संचालक साधुओं से बात की जायेगी और मौजूदा मंदिरों में ही गोडसे की मूर्तियाँ रखवा दी जायेगीं . तय यह भी किया गया है कि मीडिया में बात को लीक नहीं होने दिया जाएगा क्यंकि बहुत चर्चा हो जाने से उनको गोडसे के महिमा मंडन के काम में अड़चन आती है . नई रणनीति के हिसाब से पहले मूर्तियाँ लगा दी जायेगीं फिर मीडिया को खबर दी जायेगी .नाथूराम गोडसे की पार्टी के सूत्रों के हवाले से देश के एक बहुत ही सम्मानित अखबार में खबर छपी है कि इलाहाबाद के माघ मेले में पिछले कुछ हफ़्तों में ऐसे बहुत सारे साधुओं से बात हुयी है जो अपने कंट्रोल वाले मंदिरों में मूर्तियाँ रखवा देगे .इन तत्वों का तर्क यह है कि नाथूराम गोडसे मूल रूप से अखंड भारत के पक्षधर थे . उनकी सोच को आगे बढाने के लिए यह सारा  काम किया जा रहा है . अखबार की खबर के अनुसार इन लोगों ऐसे कुछ नौजवानों को इकठ्ठा कर लिया है जो महात्मा गांधी की समाधि , राजघाट पर भी नाथूराम गोडसे की मूर्ति रखने को तैयार हैं लेकिन अभी यह काम रोक दिया गया है . अभी फिलहाल पूरे देश में करीब पांच सौ मूर्तियाँ रखने की योजना है और जयपुर में मूर्ति बनाने वालों को आर्डर भी दे दिया गया है. महात्मा गांधी की हत्या से जुड़े सवालों पर अपनी बात रखने के लिए गोडसे के भक्तों ने बहुत सारा साहित्य बांटने की योजना भी बनाई है.
महात्मा गांधी के हत्यारे को इस तरह से सम्मानित करने के पीछे वही रणनीति और सोच काम कर रही है जो महात्मा गांधी की ह्त्या के पहले थी .गांधी की हत्या के पीछे के तर्कों का बार बार परीक्षण किया गया है लेकिन एक पक्ष जो बहुत ही उपेक्षित रहा है वह है  कि महात्मा गांधी को मारने वाले संवादहीनता की राजनीति के पोषक थे , वे बात को दबा देने और छुपा देने की रणनीति पर काम करते थे जबकि महात्मा गांधी अपने समय के सबसे महान कम्युनिकेटर थे. उन्होंने आज़ादी की लडाई से जुडी हर बात को बहुत ही  साफ़ शब्दों में बार बार समझाया था. पूरे देश के जनमानस में अपनी बात को इस तरह फैला दिया था की हर वह आदमी जो सोच सकता था वह गांधी के साथ था .
महात्मा गांधी की अपनी सोच में नफरत का हर स्तर पर विरोध किया गया था. लेकिन उनके हत्यारे के प्रति नफरत का जो पूरी दुनिया में माहौल है उसको उनकी रचनाएं भी नहीं रोक पायी थीं . इसका कारण यह है कि पूरी दुनिया में महात्मा गांधी का बहुत सम्मान है .  पूरी दुनिया में उनके प्रशंसक और भक्त फैले हुए हैं। महात्मा जी के सम्मान का आलम तो यह है कि वे जाति, धर्म, संप्रदाय, देशकाल सबके परे समग्र विश्व में पूजे जाते हैं। वे किसी जाति विशेष के नेता नहीं हैं। हां यह भी सही है कि भारत में ही एक बड़ा वर्ग उनको सम्मान नहीं करता बल्कि नफरत करता है। इसी वर्ग और राजनीतिक विचारधारा के जिस  व्यक्ति ने 30 जनवरी 1948 के दिन गोली मारकर महात्मा जी की हत्या कर दी थी। उसके वैचारिक साथी अब तक उस हत्यारे को सिरफिरा कहते थे लेकिन यह सबको मालूम है कि महात्मा गांधी की हत्या किसी सिरफिरे का काम नहीं था। वह उस वक्त की एक राजनीतिक विचारधारा के एक प्रमुख व्यक्ति का काम था। उनका हत्यारा कोई सड़क छाप व्यक्ति नहीं था, वह हिंदू महासभा का नेता था और 'अग्रणी' नाम के उनके अखबार का संपादक था। गांधी जी की हत्या के आरोप में उसके बहुत सारे साथी गिरफ्तार भी हुए थे। ज़ाहिर है कि गांधीजी की हत्या करने वाला व्यक्ति भी महात्मा गांधी का सम्मान नहीं करता था और उसके वे साथी भी जो आजादी मिलने में गांधी जी के योगदान को कमतर करके आंकते हैं। अजीब बात है कि गोडसे को महान बताने वाले और महात्मा गांधी  के योगदान को कम करके आंकने वालों के हौसले आज बढे हुए  हैं . लेकिन इसमें गांधी के भक्तों और अहिंसा की राजनीति के  समर्थकों को निराश होने की ज़रुरत नहीं है क्योंकि जिन लोगों ने 1920 से लेकर 1947 तक महात्मा गांधी को जेल की यात्राएं करवाईं, वे भी उनको सम्मान नहीं करते थे। इस तरह से हम देखते हैं कि महात्मा गांधी को सम्मान न देने वालों की एक बड़ी जमात हमेशा से ही मौजूद रही है . आज का दुर्भाग्य  यह है कि वे लोग अब तक छुप कर काम करते थे अब ऐलानियाँ काम करने लगे हैं .
भारत के कम्युनिस्ट नेता भी महात्मा गांधी के खिलाफ थे। उनका आरोप था कि देश में जो राष्ट्रीय आंदोलन चल रहा था, उसे मजदूर और किसान वर्ग के हितों के खिलाफ इस्तेमाल करने में महात्मा गांधी का खास योगदान था। कम्युनिस्ट बिरादरी भी महात्मा गांधी के सम्मान से परहेज करती थी। जमींदारों और देशी राजाओं ने भी गांधी जी को नफरत की नजर से ही देखा था, अपनी ज़मींदारी छिनने के लिए वे उन्हें ही जिम्मेदार मानते थे। इसलिए यह उम्मीद करना कि सभी लोग महात्मा जी की इज्जत करेंगे, बेमानी है। हालांकि इस सारे माहौल में एक बात और भी सच है, वह यह कि महात्मा गांधी से नफरत करने वाली बहुत सारी जमातें बाद में उनकी प्रशंसक बन गईं। जो कम्युनिस्ट हमेशा कहते रहते थे कि महात्मा गांधी ने एक जनांदोलन को पूंजीपतियों के हवाले कर दिया था, वही अब उनकी विचारधारा की तारीफ करने के बहाने ढूंढते पाये जाते हैं। अब उन्हें महात्मा गांधी की सांप्रदायिक सदभाव संबंधी सोच में सदगुण नजर आने लगे है।लेकिन आज भी गोडसे के भक्तों की एक परम्परा है जो महात्मा जी को सम्मान नहीं करती.
आर.एस.एस. के ज्यादातर विचारक महात्मा गांधी के विरोधी रहे थे लेकिन 1980 में बीजेपी ने गांधीवादी समाजवाद के सिद्घांत का प्रतिपादन करके इस बात को ऐलानिया स्वीकार कर लिया कि महात्मा गांधी का सम्मान किया जाना चाहिए। अब देखा गया है कि आर एस एस और उसके मातहत सभी संगठन महात्मा गांधी को कांग्रेस से छीनकर अपना हीरो  बनाने की कोशिश करते पाए जाते हैं . आर एस एस के बहुत सारे समर्थक कहते हैं की महात्मा गांधी कभी भी कांग्रेस के सदस्य नहीं थे. ऐसा इतिहास के अज्ञान के कारण ही कहा जाता है क्योंकि महात्मा गांधी के जीवन के तीन बड़े आन्दोलन  कांग्रेस पार्टी के ही आन्दोलन थे. १९२० के आन्दोलन को कांग्रेस से मंज़ूर करवाने के लिए महात्मा गांधी ने कलकत्ता और नागपुर के अधिवेशनों में बाक़ायदा अभियान चलाया था . देशबंधु चितरंजन दास ने कलकत्ता सम्मलेन में गांधी जी का विरोध किया था लेकिन नागपुर में वे उनके साथ आ गए थे. १९३० का आन्दोलन भी जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता वाली कांग्रेस पार्टी के लाहौर में पास हुए प्रस्ताव का नतीजा था. १९४२ का भारत छोड़ो आन्दोलन भी मुंबई में कांग्रेस कार्यकारिणी की बैठक में लिया गया था .  महात्मा  गांधी खुद १९२४ में बेलगाम में हुए कांग्रेस के उन्तालीसवें  अधिवेशन के अध्यक्ष थे . लेकिन वर्तमान कांग्रेसियों को इंदिरा गांधी के वंशज  गांधियों के सम्मान की इतनी चिंता  रहती है कि महात्मा गांधी की विरासत को अपने नज़रों के सामने छिनते देख रहे हैं और उनके  सम्मान तक की रक्षा नहीं कर पाते. इसके अलावा जिन अंग्रेजों ने महात्मा जी को उनके जीवनकाल में अपमान की नजर से देखा, उनको जेल में बंद किया, ट्रेन से बाहर फेंका उन्हीं के वंशज अब दक्षिण अफ्रीका और इंगलैंड के हर शहर में उनकी मूर्तियां लगवाते फिर रहे हैं। इसलिए गांधी के हत्यारे को सम्मानित करने की कोशिश में लगे लोगों को समझ लेना चाहिए कि भारत की आज़ादी की लड़ाई के हीरो और दुनिया भर में अहिंसा की राजनीति के संस्थापक को अपमानित करना असंभव है . इनको इन कोशिशों से बाज आना चाहिए.
मौजूदा सरकार को भी यह ध्यान रखना चाहिए कि महात्मा गांधी के हत्यारे को सम्मानित करने वालों को पूजनीय बनाने की कोशिश उन पर भी भारी पड़ सकती है .महात्मा गांधी की शहादत के दिन को देश में शहीद दिवस के रूप में मनाया जाता है . इस अवसर पर प्रधानमंत्री ने देशवासियों के नाम सन्देश भेजा है जिसमें कहा गया है कि "पूज्य बापू को उनकी पुण्यतिथि पर शत् शत् नमन. "  महात्मा गांधी के प्रति यह सम्मान बना रहे इसलिए ज़रूरी है कि  गांधी के हत्यारों को सम्मानित न किया जाए .प्रधानमंत्री समेत पूरी दुनिया ने देखा है कि अमरीकी राष्ट्रपति ने किस तरह से महात्मा गांधी का सम्मान किया था . राष्ट्रपति बराक ओबामा की यात्रा मोदी सरकार की एक बड़ी उपलब्धि मानी जाती है . बराक ओबामा ने दिल्ली में अपने तीन दिन के कार्यक्रम में बार बार यह बताया कि उनके निजी जीवन और अमरीका के सार्वजनिक जीवन में महात्मा गांधी का कितना महत्व है . ज़ाहिर है महात्मा गांधी का नाम भारत के राजनेताओं के लिए बहुत बड़ी राजनीतिक पूंजी है . अगर उनके हत्यारों को सम्मानित करने वालों को फौरन रोका न गया तो बहुत मुश्किल पेश आ सकती है . प्रधानमंत्री समेत सभी नेताओं को चाहिए कि नाथूराम गोडसे को भगवान बनाने की कोशिश करने वालों की मंशा को सफल न होने दें वरना भारत के पिछली सदी के इतिहास पर भारी कलंक लग जाएगा .

अन्ना हजारे के दो शिष्यों के बीच तय होगा दिल्ली का महाभारत



शेष नारायण सिंह

दिल्ली विधान सभा का चुनाव बहुत ही दिलचस्प हो गया है . लोक सभा चुनाव २०१४ के बाद कई विधान सभाओं के चुनाव हुए लेकिन बीजेपी ने किसी भी चुनाव में मुख्यमंत्री पद का दावेदार नहीं घोषित किया . पार्टी की तरफ से हर जगह तर्क दिया गया कि बीजेपी कभी भी मुख्यमंत्री का उम्मीदवार नतीजे आने के पहले नहीं घोषित करती . ऐसा करने से राज्य में सक्रिय सभी गुटों को साथ रखना आसान हो जाता था. दूसरी बात यह थी कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का लोक सभा चुनाव के पहले बना हुआ करिश्मा काम कर रहा था . उनके नाम पर ही हर विधान सभा का चुनाव लड़ा गया और पार्टी को अच्छी सफलता मिली . जहां बीजेपी की कोई हैसियत नहीं थी ,वहां आज उनकी सरकार है . महाराष्ट्र में बीजेपी  शिवसेना की सहायक पार्टी होती थी आज रोल पलट गया है. अब बीजेपी मुख्य पार्टी है ,उसकी सरकार है और शिवसेना की भूमिका केवल सरकार में शामिल होने भर की है . बीजेपी को अब अपना अस्तित्व बचाने के लिए शिवसेना की ज़रुरत नहीं  है . जम्मू-कश्मीर में बीजेपी आज सरकार बनाने की कोशिश कर रही है जहां उसकी चुनावी राजनीति हमेशा से ही बहुत कमज़ोर रही है . राज्य में बीजेपी को आज़ादी के पहले की पार्टी प्रजा परिषद की वारिस के रूप में  देखा जाता है . प्रजा परिषद के बारे में कहते हैं कि वह एक ऐसी पार्टी थी जिसे जम्मू-कश्मीर के तत्कालीन राजा ने शुरू करवाया था और उस दौर के जम्मू-कश्मीर के सबसे लोकप्रिय नेता शेख अब्दुल्ला के खिलाफ उसका इस्तेमाल किया जाता था.  इसलिए प्रजा परिषद् की कोई ख़ास इज्ज़त नहीं थी. भारतीय जनसंघ और बीजेपी को उसी विरासत की वजह से बहुत नुक्सान होता रहा था. इस बार विधान सभा चुनाव में जम्मू और लद्दाख में बीजेपी ने  चुनावी सफलता पाई है और उसका क्रेडिट प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता को दिया जाता है .इस तरह से साफ़ नज़र आ रहा है है कि मई २०१४ में जो नरेंद्र मोदी की लहर बनी थी वह जारी थी.
 दिल्ली विधान सभा चुनाव के अभियान के शुरुआती दौर में भी बीजेपी नेतृत्व का यही आकलन था लेकिन अब बात बदल गयी है .अब उनको  साफ़ लगने लगा है कि अरविन्द केजरीवाल अन्य राज्यों की विपक्षी पार्टियों के नेताओं की तरह थका हारा नेता नहीं है . वह दिल्ली के एक लोकप्रिय नेता हैं और विधान सभा चुनाव जीत भी सकते हैं .ऐसी हालत में बीजेपी में ज़बरदस्त मंथन चला . बीजेपी वाले दिल्ली विधान सभा का चुनाव हर हाल में जीतना चाहते हैं लेकिन अगर कहीं हार की नौबत आयी तो उसका ठीकरा नरेंद्र मोदी के सर नहीं फूटने देना चाहते . पार्टी अध्यक्ष के आकलन में दिल्ली बीजेपी में इतने गुट हैं कि उनमें से किसी के सहारे जीत की उम्मीद नहीं की जा सकती . अमित शाह को हर हाल में जीत चाहिए इसलिए उन्होंने अरविन्द केजरीवाल की काट के रूप में किरण बेदी को आगे कर दिया . बहुत सारे लोग यह कहते पाए जा रहे हैं कि किरण बेदी बलि का बकरा के रूप में नेता बनाई गयी हैं . अब अगर पार्टी जीत गयी तो नरेंद्र मोदी की जीत के सिलसिले में दिल्ली  विधान सभा की जीत भी दर्ज कर दी जायेगी और अगर हार गयी तो यह माना जाएगा कि  टीम अन्ना के दो सदस्यों के बीच मुकाबला हुआ और एक के हाथ पराजय  लगी.  किरण बेदी की मीडिया  प्रोफाइल इतनी अच्छी है कि उनका नाम आते ही आमतौर पर विजेता की छवि सामने आ जाती है. मुझे याद है कि दिल्ली में सक्रिय पत्रकारों के एक वर्ग ने इमरजेंसी के टाइम से ही उनकी मीडिया प्रोफाइल बनाना शुरू कर दिया था.तरह तरह की कहानियां उनके बारे में छापी गयीं . यहाँ तक कि कई कहानियां बिलकुल झूठी हैं लेकिन मनोरंजक हैं . एक उदाहरण काफी होगा. एक प्रचार यह किया गया कि ट्रैफिक पुलिस के इंचार्ज के रूप में उन्होंने प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की कार का चालान कर दिया था  क्योंकि वह नो पार्किंग ज़ोन में पार्क की गयी थी. अब  कोई पूछे कि प्रधानमंत्री की कार किसी चपरासी की साइकिल नहीं है कि कहीं भी लगा दी जाए . और जब किरण बेदी ट्रैफिक पुलिस में थीं तो प्रधानमंत्री इंदिरा  गांधी बहुत बड़ी नेता थीं . किरण बेदी को उनकी कृपा प्राप्त थी. उन दिनों किसी पुलिस अधिकारी की औकात नहीं थी कि वह उनकी कार के पास फटक भी जाए लेकिन अखबारों में चल गया तो चल गया . बहरहाल एक बहुत ही बड़े मीडिया प्रोफाइल के साथ किरण बेदी ने इंट्री मारी है और अब यह देखना बहुत ही मनोरंजक होगा कि अरविन्द केजरीवाल उनको मीडिया के मैदान में क्या जवाब दे पाते हैं .

मीडिया के क्षेत्र में पहला राउंड अरविन्द केजरीवाल ने जीत लिया है . अरविन्द केजरीवाल बाल्मीकि मंदिर से पर्चा दाखिल करने चले और २-३ किलोमीटर की दूरी में दिन भर  लगा दिया . हर टी वी चैनल पर उनके साथ चल रही भीड़ की तस्वीरें दिखती रहीं और ख़बरें चलती रहीं . अपनी इस यात्रा से केजरीवाल ने यह साबित कर दिया कि उनको मीडिया प्रबंधन की टेक्नीक आती है और इस अप्रत्याशित कार्य से उन्होंने साबित कर दिया कि उनको नरेंद्र मोदी के मीडिया प्रबंधकों से बेहतर समझ मीडिया की है .  लोक सभा चुनाव के दौरान नरेंद्र मोदी ने मीडिया का जैसा इस्तेमाल किया था ,अरविन्द केजरीवाल ने उस योग्यता से बेहतर प्रदर्शन करके यह उम्मीद जगा दी है कि दिल्ली विधान सभा का चुनाव बहुत ही दिलचस्प रहने वाला है .

चुनाव में क्या नतीजे होंगें उसकी भविष्यवाणी करना पत्रकारिता के मानदंडों की अनदेखी होगी और वह ठीक नहीं होगा लेकिन मुख्यमंत्री पद की दावेदारी में अरविन्द केजरीवाल को कमज़ोर मानना राजनीतिक समझदारी नहीं होगी. किरण बेदी की आगे करके बीजेपी ने संभावित हार की ज़िम्मेदारी से  नरेंद्र मोदी को तो मुक्त कर लिया  है लेकिन बीजेपी की जीत को पक्का मानने का कोई आधार नहीं है .  कांग्रेस ने भी प्रचार शुरू कर दिया है और इस बात की पूरी संभावना है कि वह इस बार बीजेपी के ही वोट काटेगी. पिछली बार कांग्रेस और आम आदमी पार्टी के वोट लगभग एक इलाकों से आये थे ,उनका क्लास भी वही था. आम आदमी पार्टी ने कांग्रेस के मतदाताओं को लगभग पूरी तरह से अपनी और कर लिया था . भ्रष्टाचार विरोधी अवाम का वोट बीजेपी और आम आदमी पार्टी में बंट गया था .लेकिन इस बार तस्वीर बदल चुकी है . इस बार कांग्रेस और बीजेपी ने अरविन्द केजरीवाल को लगातार भगोड़ा के रूप में प्रस्तुत किया है . उनको भगोड़ा मानने वाले, धरना प्रदर्शन से नाराज़ रहने वाले ज़्यादातर लोग अरविन्द केजरीवाल के खिलाफ वोट करेगें और इस  तरह से उनको मिडिल क्लास के अपने इन समर्थकों से होने वाले नुक्सान की भरपाई दलित और गरीब इलाकों में अपने को और मज़बूत करके पूरा करना होगा . हालांकि यह चुनाव भी  नरेंद्र मोदी की उपलब्धियों और वायदों पर केन्द्रित होगा लेकिन मुख्यमंत्री पद के दोनों दावेदारों की अच्छाइयां बुराइयां १० फरवरी को आने वाले नतीजों पर मुख्य असर डालने वाली हैं .

अरविन्द केजरीवाल के पक्ष में सबसे ज़्यादा जो बात जा रही है वह बीजेपी के अन्दर चारों तरफ फ़ैल चुकी कलह है .टिकट के बंटवारे को लेकर भी अन्दर ही अन्दर बहुत नाराज़गी है. सीनियर नेताओं में भी निराशा है . उनको लगता है कि जिस किरण बेदी को वे लोग जीवन भर कांग्रेस की वफादार मानते रहे और दिल्ली में कांग्रेस सरकारों की मनमानी को झेलते रहे उसी किरण बेदी को बीजेपी का दिल्ली का सर्वोच्च नेता मानना पड़ रहा है . उनको यह भी मालूम है कि अगर किरण बेदी एक बार स्थापित हो गयीं तो पंद्रह साल पहले वे छोड़ने वाली नहीं हैं . कांग्रेस में इन्हीं सीनियर नेताओं के भाई बन्दों और रिश्तेदारों ने पंद्रह साल तक शीला दीक्षित को देखा है . उनके अपने कार्यक्रताओं और प्रापर्टी डीलरों को शीला  दीक्षित ने कोई मौक़ा ही नहीं दिया था . इस बात की सम्भावना से इनकार नहीं किया जा सकता कि बीजेपी के सीनियर लीडर किरण बेदी को किनारे करने के लिए काम करेगें . किरण बेदी के खिलाफ तो शायद खुली बगावत न हो  लेकिन कांग्रेस और आम आदमी पार्टी से आये उन लोगों की हार केलिए बीजेपी के कार्यकर्ता ज़रूर काम करेगें जिनके खिलाफ कल तक हर गली मोहल्ले में लडाइयां होती रही हैं .इसके अलावा आर्विंद केजरीवाल की राजनीतिक पकड़ दलितों मुसलमानों और गरीब आदमियों में जैसी थी वैसी ही बनी हुयी है .२०१३ के विधान सभा चुनावों में दलितों के लिए रिज़र्व बारह सीटों में आम आदमी पार्टी ने  नौ सीटों पर जीत दर्ज कराई थी. वैसे भी दिल्ली की में दलित मतदाता अगर मुसलमानों से मिल जाएँ तो  सबसे बड़ा वोट बैंक बनता है . अरविन्द केजरीवाल ने जो घर घर जाकर चुनाव प्रचार की शैली अपनाई है वह इस बार भी चल रही है और इस बार भी उसका फायदा उनके अभियान को होगा ,ऐसा उनके समर्थक मानते हैं .अरविन्द केजरीवाल ने अपनी छवि एक ऐसे आदमी की बना रखी है जो बहुत ही ईमानदारी से काम करता है और भ्रष्टाचार को बर्दाश्त नहीं कर सकता .वह उनके काम आने वाला है .  

बीजेपी के अभियान में सबसे बड़ी अड़चन बीजेपी के पुराने कार्यकर्ता ही रहने वाले हैं . नेताओं को तो अमित शाह समझा बुझा देगें . गायक सांसद मनोज तिवारी ने पहले दिन किरण बेदी के खिलाफ कुछ बोल दिया था लेकिन बाद में उनका राग पार्टी लाइन पर आ गया . डॉ हर्षवर्धन को तो अमित शाह ने बिलकुल किरण बेदी की अपनने सीट से उनको जितवाने का  ज़िम्मा ही सौंप दिया है .सतीश उपाध्याय को अरविन्द केजरीवाल के बिजली मीटर पुराण में खलनायक बनाकर टाल दिया गया है .  ज़ाहिर है बीजेपी के बड़े नेता इन दिक्क़तों से पार्टी को निजात दिला देगें लेकिन अगर अरविन्द केजरीवाल और उनके समर्थकों ने  किरण बेदी के बारे में वे खबरें सार्वजनिक कर दीं तो किरण बड़ी के लिए खासी मुश्किल पैदा हो सकती  है . क्योंकि समय समय पर दुनिया भर के अखबारों में उनके खिलाफ छपता रहा है और उन्होंने उसका खंडन नहीं किया है .किरण बेदी की छवि एक ऐसे अधिकारी की रही है जो बहुत ही सख्त मानी जाती है . पुलिस अफसर के रूप में उनके ऊपर किसी तरह के आर्थिक भ्रष्टाचार के आरोप भी नहीं लगे हैं . इसलिए उनको निश्चित रूप से एक मज़बूत दावेदार माना जा सकता है लेकिन परेशानी केवल उनकी यही हो सकती है कि उनके सामने अरविन्द केजरीवाल खड़े हैं जो अपनी बेदाग़ और जनपक्षधर इमेज के सहारे ज़बरदस्त चुनौती दे रहे हैं .

विदेशनीति की परीक्षा की घड़ी, अमरीका से भारत को सावधान रहना चाहिए


शेष नारायण सिंह


भारत के गणतंत्र दिवस की परेड के मौके पर इस साल अमरीका के राष्ट्रपति बराक ओबामा मुख्य अतिथि रहेगें . किसी
अमरीकी राष्ट्रपति के लिए पहला मौक़ा है जब वह राजपथ की परेड में मौजूद रहेगा. इसके पहले दो बार ऐसे अवसर आये तह जब अमरीकी राष्ट्रपतियों को  २६ जनवरी की परेड में शामिल होने का मौक़ा मिल सकता था.  पहली बार आज़ादी के बाद जवाहरलाल नेहरू के कार्यकाल में रूजवेल्ट को बुलाने की बाद हुई थी लेकिन नेहरु ने साफ़ मना कर दिया था. दूसरी बार जब इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री थीं तो लिंडन जानसन ने भी इच्छा व्यक्त की थी लेकिन इंदिरा गांधी ने कोई रूचि नहीं दिखाई थी . हालांकि उन दिनों टेलीविज़न नहीं होते थे लेकिन जब नेहरू और इंदिरा गांधी अमरीका गए थे तो अमरीकी प्रशासन ने भारत की उभरती अर्थव्यवस्था से लाब लेने के लिए खासे प्रयास किये थे . इस बार जब नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री के रूप में अमरीका गए तो वहाँ रहने वाले भारतीयों ने उनका बहुत स्वागत सत्कार किया और अमरीकी हुकूमत ने भी रूचि दिखाई .भारत के सम्बन्ध अमरीका से बहुत दोस्ताना नहीं रहे  थे लेकिन जब डॉ मनमोहन सिंह वित्त मंत्री बने और अपने १९९२ के बजट भाषण में उन्होंने अमरीकी आर्थिक हितों के लिए भारत में अवसर के दरवाज़े खोल दिए तब से अमरीका और भारत की दोस्ती बहुत बढ़ रही है . अटल बिहारी वाजपयी के कार्यकाल में भी उनके विदेश मंत्री और अमरीकी विदेश विभाग के आला अफसर टालबोट के बीच खासी दोस्ती हो गयी थी. जब डॉ मनमोहन सिंह खुद प्रधानमंत्री बन गए तब तो अमरीका को भारत से बहुत अधिक अपनापा हो गया था . अपने पूरे कार्यकाल में डॉ मनमोहन सिंह केवल एक बार एड़ी चोटी का जोर लगाकर  संसद में कोई बिल पास करवाया था. वह बिल अमरीकी व्यापारिक हितों के लिए था. बीजेपी ने उसका घोर विरोध किया था. कम्युनिस्टों ने विरोध किया था. अमर सिंह के सहयोग से बिल पास हुआ था और  कांग्रेस की सरकार अस्थिर हो गयी थी लेकिन मनमोहन सिंह ने ख़तरा उठाया और अमरीका खुश हो गया .अब उन्हीं मनमोहन सिंह की आर्थिक नीतियों पर चल रही नरेंद्र मोदी सरकार भी अमरीका के हित में कुछ भी करने के संकेत दे दिए  हैं . अपनी अमरीका यात्रा के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एवाहान के बड़े  उद्योगपतियों को भारत में कारोबार करने की खुली छूट का प्रस्ताव किया और जब प्रवासी भारतीय दिवस और  वाइब्रेंट गुजरात के समय जनवरी के पहले पक्वादे में अहमदाबाद में जमावड़ा हुआ तो साफ़ ऐलान किया कि  भारत में व्यापार करना अब बहुत  ही आसान कर दिया जाएगा . अमरीकी राष्ट्रपति के लिए इस से अच्छी बात कुछ भी नहीं हो सकती थी . ज़ाहिर है कि जब नरेंद्र मोदी ने बराक ओबामा को भारत आने का न्योता दिया तो उन्होंने तुरंत स्वीकार कर लिया .

अमरीका में आजकल भारत को लेकर बहुत रूचि दिखाई जाती है .जब अमरीका से परमाणु करार करके और दूसरी बार प्रधानमंत्री बनकर डॉ मनमोहन सिंह अमरीका गए थे तो उनके लिए भी इन्हीं बराक ओबामा की सरकार ने पलक पांवड़े बिछा दिए थे .मनमोहन सिंह और उनके प्रशासन ने अमेरिका में वह ओहदा प्राप्त कर लिया था जिसकी कोशिश भारतीय प्रशासन लंबे समय से कर रहा था. उसी यात्रा में भारत अमेरिका का रणनीतिक साझेदार बन गया था. इस रणनीतिक साझेदारी का ही नतीजा था कि डॉ मंमोःन सिंह के भारत लौटने से पहले ही भारत ने परमाणु परीक्षण के मुद्दे पर अंतर राष्ट्रीय परमाणु एजेंसी (आईएईए) में उस ईरान के खिलाफ जा खड़ा हुआ था जिसके साथ भारत का सदियों पुराना संबंध रहा है.
मनमोहन सिंह की उसी यात्रा में भारत अमरीका का राजनीतिक पार्टनर हो गया था और यह भरोसा दे दिया था कि अब भारत वही करेगा जो अमेरिका चाहेगा. अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा के खास मेहमान डा. मनमोहन सिंह और उनके मेजबान ने बार-बार इस बात का ऐलान किया था . दोनों ने ही कहा था  कि अब उनकी दोस्ती का एक नया अध्याय शुरू हो गया था . जलवायु परिवर्तन, कृषि और शिक्षा के क्षेत्र में नई पहल की जाएगी। आतंकवाद के मसले पर दोनों देशों के बीच एक समझौते पर भी हस्ताक्षर किए गए थे । भारत के पड़ोस में मौजूद आतंक का ज़िक्र करके अमरीकी राजनयिकों ने भारत को संतुष्ट करने का प्रयास किया था ।
भारत की लगातार शिकायत रहती रही है कि अमरीका का रुख पाकिस्तान की तरफ सख्ती वाला नहीं रहता। मनमोहन सिंह के साथ साझा बयान में भारत की यह शिकायत दूर करने की कोशिश की गई थी . दोनों ही देशों ने इस बात पर जोर दिया था कि आतंकवादियों के सुरक्षित इलाकों पर नजर रखी जायेगी। भारत के परमाणु समझौते पर अमरीकी ढिलाई की चर्चा पर विराम लगाते हुए राष्ट्रपति ओबामा ने साफ कहा था कि भारत अमरीका परमाणु समझौते की पूरी क्षमता का दोनों देशों के हित में इस्तेमाल किया जाएगा। ओबामा ने भारत को परमाणु शक्ति कहकर भारत में महत्वाकांक्षी कूटनीति के अति आशावादी लोगों को भी खुश कर दिया था . अमरीका की तर्ज पर ही कमजोर देशों के ऊपर दादागिरी करने के सपने पाल रहे दक्षिणपंथी राजनयिकों को इससे खुशी हुई थी. व्हाइट हाउस के प्रांगण में डा. मनमोहन सिंह का स्वागत करते हुए अमरीकी राष्ट्रपति ने कहा था कि दोनों परमाणु शक्ति संपन्न देश मिलकर दुनिया से परमाणु हथियारों को खत्म करने में सहयोग कर सकते हैं। ऐसा लगता था कि अमरीका भारत को अपने बराबर मान रहा था लेकिन कूटनीति की भाषा में कई शब्दों के अलग मतलब होते हैं. जहां तक भारत की विदेशनीति के गुट निरपेक्ष स्वरूप की बात है उसको तो खत्म करने की कोशिश 1998 से ही शुरू हो गई थी जब अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री बने थे। उनके विदेश मंत्री जसवंत सिंह तो अमरीकी विदेश विभाग के मझोले दर्जे के अफसरों तक के सामने नतमस्तक थे। मनमोहन सिंह ने भी उसी लाइन को जारी रखा था. अटल बिहारी वाजपेयी के काल में जो वायदे किये गए थे डॉ मनमोहन सिंह उनमें से सभी को पूरा करने में जुटे हुए थे . प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अमरीका यात्रा को अटल बिहारी वाजपेयी और डॉ मनमोहन सिंह की अमरीका नीति का अविरल क्रम ही माना जाना चाहिए . बराक ओबामा के २६ जनवरी की परेड में शामिल होने को इस बात का संकेत माना जाना चाहिए कि अब अमरीका में भारत को वही रूतबा हासिल है जो ब्राजील . दक्षिण कोरिया , ब्रिटेन आदि को हासिल है .हालांकि यह भी सच है कि अब भारत की विदेशनीति की वह हैसियत नहीं रही जो जवाहरलाल नेहरू के वक़्त में हुआ करती थी.
अमरीका की हमेशा से ही कोशिश थी कि भारत को रणनीतिक पार्टनर बना लिया जाय। 1966 में जब इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री बनी थीं तो तत्कालीन अमरीकी राष्ट्रपति लिंडन बी जानसन ने कोशिश की थी। बाद में रिचर्ड निक्सन ने भी भारत को अर्दब में लेने की कोशिश की थी। इंदिरा गांधी ने दोनों ही बार अमरीकी राष्ट्रपतियों को मना कर दिया था। उन दिनों हालांकि भारत एक गरीब मुल्क था लेकिन गुटनिरपेक्ष आंदोलन के संस्थापक के रूप में भारत की हैसियत कम नहीं थी। लेकिन वाजपेयी से वह उम्मीद नहीं की जा सकती थी, जो इंदिरा गांधी से की जाती थी। बहरहाल 1998 में शुरू हुई भारत की विदेश नीति की फिसलन २०१० तक पूरी हो चुकी थी और भारत अमरीका का रणनीतिक पार्टनर बन चुका था. अब जो हो रहा है वह तो उसी कार्यवाही के अगले क़दम के रूप में देखा जाना चाहिए . अमरीका का रणनीतिक पार्टनर बनना कोई खुशी की बात नहीं है। एक जमाने में पाकिस्तान भी यह मुकाम हासिल कर चुका है और आज अमरीकी विदेश नीति के आकाओं की नज़र में पाकिस्तान की हैसियत एक कारिंदे की ही है, उससे ज्यादा कुछ नहीं। इसलिए ताकतवर देश का रणनीतिक पार्टनर होना बहुत ही खतरनाक हो सकता है। 
अब भारत भी राष्ट्रों की उस बिरादरी में शामिल हो गया है जिसमें ब्राजील, दक्षिण कोरिया, अर्जेंटीना, ब्रिटेन वगैरह आते हैं। अमरीका एशिया या बाकी दुनिया में भारत को इस्तेमाल करने की योजना पर काम करना शुरू कर देगा और उसे अब भारत से अनुमति लेने की जरूरत नहीं पड़ेगी। भारत सरकार को चाहिए जब अमरीका के सामने समर्थन कर ही दिया है तो उसका पूरा फायदा उठाए। अमरीकी प्रभाव का इस्तेमाल करके भारत के विदेशनीति के नियामक फौरन सुरक्षा परिषद की स्थाई सदस्यता की बात को फाइनल करे। अब तक अमरीकी हुक्मरान भारत और पाकिस्तान को बराबर मानकर काम करते रहे हैं। जब भी भारत और अमरीका के बीच कोई अच्छी बात होती थी तो पाकिस्तानी शासक भी लाइन में लग लेते थे। यहां तक कि जब भारत और पाकिस्तान के बीच परमाणु समझौता हुआ तो पाकिस्तान के उस वक्त के राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ भी पूरी कोशिश करते पाए गए थे कि अमरीकी उनके साथ भी वैसा ही समझौता कर ले। पाकिस्तानी विदेश नीति की बुनियाद में भी यही है कि वह अपने लोगों को यह बताता रहता है कि वह भारत से मजबूत देश है और उसे भी अंतर्राष्ट्रीय बिरादरी में वही हैसियत हासिल है जो भारत की है। जबकि सच्चाई इससे बिल्कुल पलट है। 
भारत एक विकासमान और विकसित देश है, विश्वमंच पर उसकी हैसियत रोज ब रोज बढ़ रही है जबकि पाकिस्तान तबाही के कगार पर खड़ा एक मुल्क है, जिसके रोज़मर्रा के खर्च भी अमरीकी और सउदी अरब से मिलने वाली आर्थिक सहायता से ही चल रहे हैं। इसलिए अमरीका भी पाकिस्तान को अब वह महत्व नहीं दे सकता है। भारत अमरीकी रणनीतिक साझेदारी की बात अब एक सच्चाई है और उसके जो भी नतीजे होंगे वह भारत को भुगतने होंगे लेकिन कोशिश यह की जानी चाहिए कि भारत की एकता, अखण्डता और आत्मसम्मान को कोई ठेस न लगे।भारत के हित में ही माना जाएगा कि जब अमरीका को अपना सुपीरियर देश मान लिया है तो उसका पूरा लाभ उठाया जाए. डॉ मनमोहन सिंह और नरेंद्र मोदी से वह उम्मीद करना ठीक नहीं होगा जिसकी उम्मीद जवाहरलाल नेहरू से की जाती थी .

Wednesday, January 7, 2015

मई से अब तक दुनिया में पेट्रोल की कीमतें आधी हो गयीं लेकिन आम आदमी के हाथ कुछ नहीं आया


शेष नारायण सिंह 
नयी दिल्ली, ६ जनवरी .कच्चे तेल की कीमतों में गिरावट का सिलसिला जारी है . मई में अंतर राष्ट्रीय बाज़ार में पेट्रोलियम के दाम कम होना शुरू हुए थे और अब पचास प्रतिशत से ज़्यादा कमी आ चुकी  है . अमरीका में आम आदमी खुशियाँ मना रहा है . पिछले छः महीनों में अमरीकी उपभोक्ता को नब्बे अरब डालर का  लाभ हो चुका है . चीन ,जर्मनी और फ्रांस में जी डी पी में करीब एक प्रतिशत की वृद्धि हुयी है क्योंकि पेट्रोल और उस से जुडी अन्य चीज़ों की कीमतें घट गयी हैं और अर्थव्यवस्था के हर क्षेत्र में जश्न का माहौल है . भारत में भी आयात बिल का सबसे बड़ा हिस्सा कच्चे तेल के मद में ही जाता है .यहाँ भी तील की कीमतों को बहुत ही कम हो जाना चाहिए था लेकिन कहीं दो चार रूपये पेट्रोल और डीज़ल की कीमतें घटा दी जा रही हैं ,बाकी  पेट्रोल और डीज़ल का कारोबार करने वाली कम्पनियां खूब लाभ कमा रही हैं .यह कंपनियां आम आदमी को जो थोडा बहुत लाभ  दे भी रही  हैं वह  एक्साइज़ टैक्स बढ़ाकर सरकार वापस ले ले रही है . समझ  में नहीं आता कि अच्छे दिन का वादा करके सत्ता में आई सरकार आम आदमी को राहत न देकर तेल कंपनियों की पक्षधरता क्यों कर रही है .
.कच्चे तेल की पिछले छः महीनों में लगातार घट रही कीमतों के कारण पेट्रोलियम का निर्यात करने वाले कुछ छोटे देश तबाही के कगार पर भी आ गए हैं . पश्चिम एशिया और उत्तरी और पश्चिमी अफ्रीका के कुछ देश अपनी सारी अर्थव्यवस्था का संचालन पेट्रोलियम उत्पादनों से करते हैं . उनके सामने बहुत मुश्किल आने वाली है . कांगो रिपब्लिक, गिनी, और अंगोला का सारा जी डी पी और सरकार की सारी आमदनी  कच्चा तेल बेच कर आती है . यह छोटे देश छः महीने में हे एताबाह हो चुके हैं . इनकी अर्थव्यवस्था पूरे इतरह से कमज़ोर पड़ गयी है . रोटी पानी की तकलीफें शुरू हो गयी हैं . लेकिन दुनिया भर में उपभोक्ता खुश है . लेकिन भारत में पता नहीं किस तरह की अर्थव्यवस्था का प्रबंधन चल रहा है कि कच्चे तेल की कीमतों हो रही भारी गिरावट का लाभ आम आदमी तक क्यों नहीं पंहुंच रहा  है . 

बेरोजगारी,महंगाई और काले धन के मुद्दों को नज़र अंदाज़ नहीं कर सकती सरकार



शेष नारायण सिंह

नरेंद्र मोदी सरकार अब अपने अगले साल में प्रवेश कर गयी है .हालांकि अभी साल पूरा नहीं हुआ है लेकिन कैलेण्डर में साल बदल गया है . अब साल चार बाद चुनाव होंगें . नरेंद्र मोदी ने करीब पौने दो साल पहले अपने आपको प्रधानमंत्री के रूप में पेश करने की कोशिश शुरू की थी . उसके बाद का सारा समय उनकी  सफलताओं के नाम दर्ज है . करीब एक साल तक चले चुनाव अभियान के दौरान उन्होंने देश में आर्थिक विकास लाने के बहुत बड़े बड़े वायदे किये थे .बेरोजगारी से जूझ रहे देश के ग्रामीण इलाकों के नौजवानों को उन्होंने रोज़गार का वायदा किया था . नरेंद्र मोदी के अभियान की ताक़त इतनी थी कि उनकी बात देश के दूर दराज़ के गाँवों तक पंहुंची और उनकी बात का विश्वास किया गया . शहरी गरीब और मध्यवर्ग को भी नरेंद्र मोदी ने प्रभावशाली तरीके से संबोधित किया . उन्होने कहा कि वह बेतहाशा बढ़ रही कीमतों पर लगाम लगा देगें .रोज़ रोज़ की महंगाई के कारण मुसीबत का शिकार बन चुके शहरी मध्यवर्ग और गरीब आदमी को भी लगा कि अगर मोदी की राजनीति के चलते महंगाई से निजात पाई जा सकती है  तो इनको भी आजमा लेना चाहिए . पूरे देश के गरीब और मध्यम वर्ग के परिवारों को नरेंद्र मोदी के भाषणों की उस बात पर भी विश्वास हो गया जिसमें वे कहते थे की देश का बहुत सारा धन विदेशों में जमा है जिसको वापस लाया जाना चाहिए. मोदी जी ने बहुत ही भरोसे से लोगों को विश्वास दिला दिया था कि अगर विदेशों में जमा काला धन वापस आ गया तो हर भारतीय के हिस्से १५ से २० लाख रूपये अपने आप आ जायेगें . उनकी इस बात का भी विश्वास जनता ने किया . शुरू के छः महीने तो कहीं से कोई आवाज नहीं आयी लेकिन अब इन तीनों ही मुद्दों पर नरेंद्र मोदी की सरकार से सवाल पूछे जा रहे हैं.

इस बीच केंद्र सरकार ने कुछ ऐसे क़दम  भी उठाये हैं जिनको विवादस्पद कहा जा  सकता है . आर एस एस और उसके सहयोगी संगठनों की जवाहरलाल नेहरू के प्रति दुर्भावना के चलते बहुत सारे ऐसे काम किये जा रहे हैं जो नेहरू से जोड़कर देखे जाते हैं . इनका सबसे ताज़ा उदाहरण योजना आयोग से सम्बंधित है . प्रधानमंत्री ने लाल किले से १५ अगस्त को दिए गए अपने भाषण में योजना आयोग को ख़त्म करने का ऐलान कर दिया था . अब पता लगा है कि केवल उसका नाम बदला जा रहा है . नीति आयोग का नाम धारण कर चुके  योजना आयोग का पुराना तंत्र ही कायम रहने वाला  है . हाँ यह संभव है कि कुछ मामूली फेर बदल उसके संगठन के स्वरुप को में कुछ नया कर दिया जाए. प्रधानमंत्री ने महंगाई ,बेरोजगारी और काले धन के मुद्दों पर अपने चुनावी वायदों को बदलाव की आंच में सेंकना शुरू कर दिया है . लगता है कि उनकी इच्छा है कि उनके चुनावी वायदों को जनता या तो भूल जाए या प्रधानमंत्री पद पर आसीन होने के बाद उन्होने इन वायदों की नई व्याख्या करने की जो योजना बनाई है , उसको स्वीकार कर लिया जाए.  जिस काले धन के मुद्दे पर नरेंद्र मोदी खुद और उनके बहुत बड़े समर्थक बाबा रामदेव ने कांग्रेस विरोधी माहौल को ज़बरदस्त ताकत दी थी , उसी  काले धन के बारे में प्रधान मंत्री का रुख एकदम बदल गया है . चुनाव के पहले वे कहते थे कि विदेशों में कुछ लाख करोड़ रूपये काले धन के रूप में जमा  हैं और अब उन्होंने कहना शुरू कर दिया है कि किसी को नहीं पता कि विदेशों में कितना काला धन है . उनके प्रवक्ताओं और समर्थकों  के बीच भी अगर काले धन का कोई ज़िक्र किया जाए तो वे लोग नाराज़ हो जाते हैं . ऐसा लगता है कि काले धन के मुद्दे पर सरकार निश्चित रूप से प्रधानमंत्री के चुनावी वायदों को भुलाने की कोशिश कर रही है . संसद में भी काले धन पर सरकारी बयान वही है जो कांग्रेस की सरकार का हुआ करता था. ज़ाहिर है कि इस तरह के रुख से प्रधानमंत्री की उस विश्वसनीयता पर आंच आयेगी जो चुनाव अभियान के दौरान बनी थी और जनता ने उनके ऊपर  विश्वास करके उनके हाथ में सत्ता सौंप दी थी.
चुनाव अभियान के दौरान प्रधान मंत्री ने आर्थिक विकास को मुख्य मुद्दा  बनाया था. उसी के सहारे बेरोजगारी ख़त्म करने की बात भी की थी. सरकार में आने पर पता चला कि उनकी आर्थिक विकास की दृष्टि में देश को मैनुफैक्चरिंग हब बनाना बुनियादी कार्यक्रम है . प्रधानमंत्री की योजना यह है कि देश भर में कारखानों और  फैक्टरियों में का जाल बिछा दिया जाए . अर्थशास्त्र का कोई भी विद्यार्थी बता देगा कि यह बिलकुल सही सोच है . प्रधानमंत्री के इस कार्यक्रम का  स्थाई भाव यह है कि विदेशी कम्पनियां भारत में बड़े पैमाने पर  निवेश करेगीं और चीन की तरह अपना देश भी पूरी  दुनिया में कारखानों के देश के रूप में  स्वीकार कर लिया जाएगा . उनकी इस योजना में भी देश में कारखाने लगाने का माहौल बनाने की बात सबसे प्रमुख है .  सभी जानते हैं कि जहां कारखाने लगाए जाने हैं ,उस राज्य की कानून व्यवस्था सबसे अहम् पहलू है .  महाराष्ट्र और गुजरात में तो कानून व्यवस्था ऐसी है जिसके आधार पर कोई विदेशी कंपनी वहां पूंजी निवेश की बात सोच सकती है लेकिन दिल्ली के आसपास के राज्यों की कानून व्यवस्था ऐसी बिलकुल नहीं है कि वहां कोई विदेशी कंपनी चैन से कारोबार कर सके. उसको भी ठीक करना होगा और जल्दी करना होगा क्योंकि नरेंद्र मोदी को केवल पांच साल के लिएही चुना गया है . लेकिन देश के राजनीतिक माहौल के सामने यह कानून व्यवस्था की बात भी गौड़ हो जाती  है . विदेशी पूंजीपति और देशी उद्योगपतियों की एक मांग रही है कि उनको मौजूदा श्रम कानूनों से उनको छुट्टी दिलाई जाए  यानी श्रम कानून ऐसे हों कि वे जब चाहें कारखाने में काम करने वाले मजदूरों को नौकरी से हटा सकें . अभी के कानून ऐसे हैं कि पक्के कर्मचारी को हटा पाना बहुत ही मुश्किल होता  है . किसी भी सरकार के लिए  उद्योग लाबी की इस मांग को पूरा कर पाना बहुत ही मुश्किल होगा  लेकिन स्पष्ट बहुमत की मौजूदा सरकार ने इस दिशा में  काम करना शुरू कर दिया है . इसके इसके नतीजे जो भी होंगें उनका सामना तो कई साल बाद करना होगा . सरकार की योजना है कि तब तक इतनी सम्पन्नता आ चुकी होगी कि लोग पुराने श्रम कानूनों पर बहुत निर्भर नहीं करेगें.  उद्योगपतियों  की दूसरी मांग रहती है कि जहां भी उनके कारखाने लगाए जाएँ वहां उनको ज़मीन सस्ती , बिना  किसी झंझट और इफरात  मात्रा में मिल जाए. अंग्रेजों के ज़माने का पुराना भूमि  अधिग्रहण कानून इसी तरह का था लेकिन राजनीतिक दबाव के चलते डॉ मनमोहन सिंह की सरकार ने उसमें ज़रूरी बदलाव किया था. उस बदलाव में बीजेपी की भी सहमति थी . उद्योगपति लाबी ने इन बदलावों को नापसंद  किया था . आर्थिक विकास को रफ़्तार देने के लिए नरेंद्र मोदी की सरकार ने उसको बदलने के मन बना लिया लेकिन संसद से मंजूरी की संभावना नहीं थी क्योंकि किसी भी  राजनीतिक पार्टी के लिए किसी भी किसान विरोधी कानून को समर्थन दे पाना बिलकुल असंभव है . इसलिए सरकार ने अध्यादेश के ज़रिये पूंजीपति लाबी की यह इच्छा पूरी कर दी है .  यह अलग बात है की संसद के सत्र के पूरा होने के अगले ही हफ्ते में ऐसा कानून अध्यादेश से लाने की ज़रूरत को सरकार की हताशा ही माना जायेगा. इस कानून की  विश्वसनीयता भी सवालों के घेरे में रहेगी . अध्यादेश के ज़रिये बीमा कानून को भी सरकार ने बदल दिया है . उसमें विदेशी कम्पनियों को ज़यादा सुविधा और अधिकार देने का प्रावधान है . सरकार को उम्मीद  है कि इन  कानूनों के बाद सब कुछ बदल जायेगा और विदेशी पूंजीपति भारत में उसी तरह से जुट पडेगा जिस तरह से चीन में जुट पडा है . यह तो वक़्त ही बताएगा कि ऐसा होता है कि नहीं . नरेंद्र मोदी सरकार का आर्थिक विकास  का जो माडल देश के सामने पेश किया गया है उसमें विदेशी पूंजी का बहुत महत्व  है . विदेशी पूंजी  के सहारे देश में आद्योगिक मजबूती लाकर  बेरोजगारी ख़त्म करने का प्रधानमंत्री का चुनावी वायदा इसी बुनियाद पर आधारित है .
कुल मिलाकर यह भरोसे के साथ कहा जा सकता है कि महंगाई, बेरोजगारी और काला धन के बुनियादी नारे को लागू करने की प्रधानमंत्री की इच्छा पर कोई सवाल नहीं उठाया जा सकता लेकिन यह भी सच है कि आठ महीने की नरेंद्र मोदी की सरकार ने अभी ऐसा कोई कदम नहीं उठाया है जिससे याह नज़र आये कि महंगाई और बेरोजगारी को ख़त्म करने की दिशा में कोई ज़रूरी पहल भी हो रही है . बल्कि इसका उलटा हो रहा है . पूरी दुनिया में  कच्चे तेल की कीमत  कम हो रही है . लेकिन भारत में उसका पूरा लाभ आम आदमी तक  नहीं पंहुंच रहा है . डीज़ल की कीमतें इतनी कम हो गयी हैं कि अर्थव्यवस्था और आम आदमी की जेब पर उसका असर साफ़ नज़र आने लगता लेकिन सडक बनवाने के नाम पर सरकार  ने एक्साइज टैक्स बढ़ाकर उसको  वापस लेने  का फैसला कर लिया है. अगर विदेशी बाज़ार में कम हुयी कच्चे तेल को सरकार ने बाज़ार में जाने दिया  होता तो इस से निश्चित रूप से महंगाई पार काबू किया जा सकता था .
सबको मालूम है की सरकारों को वायदा पूरा करने में समय लगता है  लेकिन नरेंद्र मोदी सरकार के काम में अड़ंगा लगाने के लिए उनके अपने सहयोगी ही सक्रिय हो गए हैं . धर्म परिवर्तन और घर वापसी जैसे गैर ज़रूरी मसलों पर आर एस एस के कुछ सहयोगी संगठन पूरी मजबूती से जुट गए हैं . आर एस एस के प्रमुख ने बहुत जल्द हिनूद राष्ट्र की स्थापना की संभावना की बात करके मामले को और तूल दे दिया है .बात यहाँ तह बिगड़ रही है कि  समाज में बिखराव के संकेत साफ़ नज़र आने  लगे हैं . खतरा  यह भी  है कि कहीं दंगों जैसा माहौल न बन जाए .ज़ाहिर है कि अगर समाज  में बिखराव के संकेत दिखने लगे तो केंद्र सरकार को आर्थिक विकास के कार्यक्रम लागू करने में भारी परेशानी आयेगी. और अगर आर्थिक विकास ,बेरोजगारी,महंगाई और काले धन के मुद्दों को सरकार नज़र अंदाज़ करेगी तो उसके सामने अस्तित्व का संकट आ जाएगा .