शेष नारायण सिंह
नरेंद्र मोदी सरकार अब अपने अगले साल में प्रवेश कर गयी है .हालांकि अभी साल पूरा नहीं हुआ है लेकिन कैलेण्डर में साल बदल गया है . अब साल चार बाद चुनाव होंगें . नरेंद्र मोदी ने करीब पौने दो साल पहले अपने आपको प्रधानमंत्री के रूप में पेश करने की कोशिश शुरू की थी . उसके बाद का सारा समय उनकी सफलताओं के नाम दर्ज है . करीब एक साल तक चले चुनाव अभियान के दौरान उन्होंने देश में आर्थिक विकास लाने के बहुत बड़े बड़े वायदे किये थे .बेरोजगारी से जूझ रहे देश के ग्रामीण इलाकों के नौजवानों को उन्होंने रोज़गार का वायदा किया था . नरेंद्र मोदी के अभियान की ताक़त इतनी थी कि उनकी बात देश के दूर दराज़ के गाँवों तक पंहुंची और उनकी बात का विश्वास किया गया . शहरी गरीब और मध्यवर्ग को भी नरेंद्र मोदी ने प्रभावशाली तरीके से संबोधित किया . उन्होने कहा कि वह बेतहाशा बढ़ रही कीमतों पर लगाम लगा देगें .रोज़ रोज़ की महंगाई के कारण मुसीबत का शिकार बन चुके शहरी मध्यवर्ग और गरीब आदमी को भी लगा कि अगर मोदी की राजनीति के चलते महंगाई से निजात पाई जा सकती है तो इनको भी आजमा लेना चाहिए . पूरे देश के गरीब और मध्यम वर्ग के परिवारों को नरेंद्र मोदी के भाषणों की उस बात पर भी विश्वास हो गया जिसमें वे कहते थे की देश का बहुत सारा धन विदेशों में जमा है जिसको वापस लाया जाना चाहिए. मोदी जी ने बहुत ही भरोसे से लोगों को विश्वास दिला दिया था कि अगर विदेशों में जमा काला धन वापस आ गया तो हर भारतीय के हिस्से १५ से २० लाख रूपये अपने आप आ जायेगें . उनकी इस बात का भी विश्वास जनता ने किया . शुरू के छः महीने तो कहीं से कोई आवाज नहीं आयी लेकिन अब इन तीनों ही मुद्दों पर नरेंद्र मोदी की सरकार से सवाल पूछे जा रहे हैं.
इस बीच केंद्र सरकार ने कुछ ऐसे क़दम भी उठाये हैं जिनको विवादस्पद कहा जा सकता है . आर एस एस और उसके सहयोगी संगठनों की जवाहरलाल नेहरू के प्रति दुर्भावना के चलते बहुत सारे ऐसे काम किये जा रहे हैं जो नेहरू से जोड़कर देखे जाते हैं . इनका सबसे ताज़ा उदाहरण योजना आयोग से सम्बंधित है . प्रधानमंत्री ने लाल किले से १५ अगस्त को दिए गए अपने भाषण में योजना आयोग को ख़त्म करने का ऐलान कर दिया था . अब पता लगा है कि केवल उसका नाम बदला जा रहा है . नीति आयोग का नाम धारण कर चुके योजना आयोग का पुराना तंत्र ही कायम रहने वाला है . हाँ यह संभव है कि कुछ मामूली फेर बदल उसके संगठन के स्वरुप को में कुछ नया कर दिया जाए. प्रधानमंत्री ने महंगाई ,बेरोजगारी और काले धन के मुद्दों पर अपने चुनावी वायदों को बदलाव की आंच में सेंकना शुरू कर दिया है . लगता है कि उनकी इच्छा है कि उनके चुनावी वायदों को जनता या तो भूल जाए या प्रधानमंत्री पद पर आसीन होने के बाद उन्होने इन वायदों की नई व्याख्या करने की जो योजना बनाई है , उसको स्वीकार कर लिया जाए. जिस काले धन के मुद्दे पर नरेंद्र मोदी खुद और उनके बहुत बड़े समर्थक बाबा रामदेव ने कांग्रेस विरोधी माहौल को ज़बरदस्त ताकत दी थी , उसी काले धन के बारे में प्रधान मंत्री का रुख एकदम बदल गया है . चुनाव के पहले वे कहते थे कि विदेशों में कुछ लाख करोड़ रूपये काले धन के रूप में जमा हैं और अब उन्होंने कहना शुरू कर दिया है कि किसी को नहीं पता कि विदेशों में कितना काला धन है . उनके प्रवक्ताओं और समर्थकों के बीच भी अगर काले धन का कोई ज़िक्र किया जाए तो वे लोग नाराज़ हो जाते हैं . ऐसा लगता है कि काले धन के मुद्दे पर सरकार निश्चित रूप से प्रधानमंत्री के चुनावी वायदों को भुलाने की कोशिश कर रही है . संसद में भी काले धन पर सरकारी बयान वही है जो कांग्रेस की सरकार का हुआ करता था. ज़ाहिर है कि इस तरह के रुख से प्रधानमंत्री की उस विश्वसनीयता पर आंच आयेगी जो चुनाव अभियान के दौरान बनी थी और जनता ने उनके ऊपर विश्वास करके उनके हाथ में सत्ता सौंप दी थी.
चुनाव अभियान के दौरान प्रधान मंत्री ने आर्थिक विकास को मुख्य मुद्दा बनाया था. उसी के सहारे बेरोजगारी ख़त्म करने की बात भी की थी. सरकार में आने पर पता चला कि उनकी आर्थिक विकास की दृष्टि में देश को मैनुफैक्चरिंग हब बनाना बुनियादी कार्यक्रम है . प्रधानमंत्री की योजना यह है कि देश भर में कारखानों और फैक्टरियों में का जाल बिछा दिया जाए . अर्थशास्त्र का कोई भी विद्यार्थी बता देगा कि यह बिलकुल सही सोच है . प्रधानमंत्री के इस कार्यक्रम का स्थाई भाव यह है कि विदेशी कम्पनियां भारत में बड़े पैमाने पर निवेश करेगीं और चीन की तरह अपना देश भी पूरी दुनिया में कारखानों के देश के रूप में स्वीकार कर लिया जाएगा . उनकी इस योजना में भी देश में कारखाने लगाने का माहौल बनाने की बात सबसे प्रमुख है . सभी जानते हैं कि जहां कारखाने लगाए जाने हैं ,उस राज्य की कानून व्यवस्था सबसे अहम् पहलू है . महाराष्ट्र और गुजरात में तो कानून व्यवस्था ऐसी है जिसके आधार पर कोई विदेशी कंपनी वहां पूंजी निवेश की बात सोच सकती है लेकिन दिल्ली के आसपास के राज्यों की कानून व्यवस्था ऐसी बिलकुल नहीं है कि वहां कोई विदेशी कंपनी चैन से कारोबार कर सके. उसको भी ठीक करना होगा और जल्दी करना होगा क्योंकि नरेंद्र मोदी को केवल पांच साल के लिएही चुना गया है . लेकिन देश के राजनीतिक माहौल के सामने यह कानून व्यवस्था की बात भी गौड़ हो जाती है . विदेशी पूंजीपति और देशी उद्योगपतियों की एक मांग रही है कि उनको मौजूदा श्रम कानूनों से उनको छुट्टी दिलाई जाए यानी श्रम कानून ऐसे हों कि वे जब चाहें कारखाने में काम करने वाले मजदूरों को नौकरी से हटा सकें . अभी के कानून ऐसे हैं कि पक्के कर्मचारी को हटा पाना बहुत ही मुश्किल होता है . किसी भी सरकार के लिए उद्योग लाबी की इस मांग को पूरा कर पाना बहुत ही मुश्किल होगा लेकिन स्पष्ट बहुमत की मौजूदा सरकार ने इस दिशा में काम करना शुरू कर दिया है . इसके इसके नतीजे जो भी होंगें उनका सामना तो कई साल बाद करना होगा . सरकार की योजना है कि तब तक इतनी सम्पन्नता आ चुकी होगी कि लोग पुराने श्रम कानूनों पर बहुत निर्भर नहीं करेगें. उद्योगपतियों की दूसरी मांग रहती है कि जहां भी उनके कारखाने लगाए जाएँ वहां उनको ज़मीन सस्ती , बिना किसी झंझट और इफरात मात्रा में मिल जाए. अंग्रेजों के ज़माने का पुराना भूमि अधिग्रहण कानून इसी तरह का था लेकिन राजनीतिक दबाव के चलते डॉ मनमोहन सिंह की सरकार ने उसमें ज़रूरी बदलाव किया था. उस बदलाव में बीजेपी की भी सहमति थी . उद्योगपति लाबी ने इन बदलावों को नापसंद किया था . आर्थिक विकास को रफ़्तार देने के लिए नरेंद्र मोदी की सरकार ने उसको बदलने के मन बना लिया लेकिन संसद से मंजूरी की संभावना नहीं थी क्योंकि किसी भी राजनीतिक पार्टी के लिए किसी भी किसान विरोधी कानून को समर्थन दे पाना बिलकुल असंभव है . इसलिए सरकार ने अध्यादेश के ज़रिये पूंजीपति लाबी की यह इच्छा पूरी कर दी है . यह अलग बात है की संसद के सत्र के पूरा होने के अगले ही हफ्ते में ऐसा कानून अध्यादेश से लाने की ज़रूरत को सरकार की हताशा ही माना जायेगा. इस कानून की विश्वसनीयता भी सवालों के घेरे में रहेगी . अध्यादेश के ज़रिये बीमा कानून को भी सरकार ने बदल दिया है . उसमें विदेशी कम्पनियों को ज़यादा सुविधा और अधिकार देने का प्रावधान है . सरकार को उम्मीद है कि इन कानूनों के बाद सब कुछ बदल जायेगा और विदेशी पूंजीपति भारत में उसी तरह से जुट पडेगा जिस तरह से चीन में जुट पडा है . यह तो वक़्त ही बताएगा कि ऐसा होता है कि नहीं . नरेंद्र मोदी सरकार का आर्थिक विकास का जो माडल देश के सामने पेश किया गया है उसमें विदेशी पूंजी का बहुत महत्व है . विदेशी पूंजी के सहारे देश में आद्योगिक मजबूती लाकर बेरोजगारी ख़त्म करने का प्रधानमंत्री का चुनावी वायदा इसी बुनियाद पर आधारित है .
कुल मिलाकर यह भरोसे के साथ कहा जा सकता है कि महंगाई, बेरोजगारी और काला धन के बुनियादी नारे को लागू करने की प्रधानमंत्री की इच्छा पर कोई सवाल नहीं उठाया जा सकता लेकिन यह भी सच है कि आठ महीने की नरेंद्र मोदी की सरकार ने अभी ऐसा कोई कदम नहीं उठाया है जिससे याह नज़र आये कि महंगाई और बेरोजगारी को ख़त्म करने की दिशा में कोई ज़रूरी पहल भी हो रही है . बल्कि इसका उलटा हो रहा है . पूरी दुनिया में कच्चे तेल की कीमत कम हो रही है . लेकिन भारत में उसका पूरा लाभ आम आदमी तक नहीं पंहुंच रहा है . डीज़ल की कीमतें इतनी कम हो गयी हैं कि अर्थव्यवस्था और आम आदमी की जेब पर उसका असर साफ़ नज़र आने लगता लेकिन सडक बनवाने के नाम पर सरकार ने एक्साइज टैक्स बढ़ाकर उसको वापस लेने का फैसला कर लिया है. अगर विदेशी बाज़ार में कम हुयी कच्चे तेल को सरकार ने बाज़ार में जाने दिया होता तो इस से निश्चित रूप से महंगाई पार काबू किया जा सकता था .
सबको मालूम है की सरकारों को वायदा पूरा करने में समय लगता है लेकिन नरेंद्र मोदी सरकार के काम में अड़ंगा लगाने के लिए उनके अपने सहयोगी ही सक्रिय हो गए हैं . धर्म परिवर्तन और घर वापसी जैसे गैर ज़रूरी मसलों पर आर एस एस के कुछ सहयोगी संगठन पूरी मजबूती से जुट गए हैं . आर एस एस के प्रमुख ने बहुत जल्द हिनूद राष्ट्र की स्थापना की संभावना की बात करके मामले को और तूल दे दिया है .बात यहाँ तह बिगड़ रही है कि समाज में बिखराव के संकेत साफ़ नज़र आने लगे हैं . खतरा यह भी है कि कहीं दंगों जैसा माहौल न बन जाए .ज़ाहिर है कि अगर समाज में बिखराव के संकेत दिखने लगे तो केंद्र सरकार को आर्थिक विकास के कार्यक्रम लागू करने में भारी परेशानी आयेगी. और अगर आर्थिक विकास ,बेरोजगारी,महंगाई और काले धन के मुद्दों को सरकार नज़र अंदाज़ करेगी तो उसके सामने अस्तित्व का संकट आ जाएगा .
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