Tuesday, February 3, 2015

विदेशनीति की परीक्षा की घड़ी, अमरीका से भारत को सावधान रहना चाहिए


शेष नारायण सिंह


भारत के गणतंत्र दिवस की परेड के मौके पर इस साल अमरीका के राष्ट्रपति बराक ओबामा मुख्य अतिथि रहेगें . किसी
अमरीकी राष्ट्रपति के लिए पहला मौक़ा है जब वह राजपथ की परेड में मौजूद रहेगा. इसके पहले दो बार ऐसे अवसर आये तह जब अमरीकी राष्ट्रपतियों को  २६ जनवरी की परेड में शामिल होने का मौक़ा मिल सकता था.  पहली बार आज़ादी के बाद जवाहरलाल नेहरू के कार्यकाल में रूजवेल्ट को बुलाने की बाद हुई थी लेकिन नेहरु ने साफ़ मना कर दिया था. दूसरी बार जब इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री थीं तो लिंडन जानसन ने भी इच्छा व्यक्त की थी लेकिन इंदिरा गांधी ने कोई रूचि नहीं दिखाई थी . हालांकि उन दिनों टेलीविज़न नहीं होते थे लेकिन जब नेहरू और इंदिरा गांधी अमरीका गए थे तो अमरीकी प्रशासन ने भारत की उभरती अर्थव्यवस्था से लाब लेने के लिए खासे प्रयास किये थे . इस बार जब नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री के रूप में अमरीका गए तो वहाँ रहने वाले भारतीयों ने उनका बहुत स्वागत सत्कार किया और अमरीकी हुकूमत ने भी रूचि दिखाई .भारत के सम्बन्ध अमरीका से बहुत दोस्ताना नहीं रहे  थे लेकिन जब डॉ मनमोहन सिंह वित्त मंत्री बने और अपने १९९२ के बजट भाषण में उन्होंने अमरीकी आर्थिक हितों के लिए भारत में अवसर के दरवाज़े खोल दिए तब से अमरीका और भारत की दोस्ती बहुत बढ़ रही है . अटल बिहारी वाजपयी के कार्यकाल में भी उनके विदेश मंत्री और अमरीकी विदेश विभाग के आला अफसर टालबोट के बीच खासी दोस्ती हो गयी थी. जब डॉ मनमोहन सिंह खुद प्रधानमंत्री बन गए तब तो अमरीका को भारत से बहुत अधिक अपनापा हो गया था . अपने पूरे कार्यकाल में डॉ मनमोहन सिंह केवल एक बार एड़ी चोटी का जोर लगाकर  संसद में कोई बिल पास करवाया था. वह बिल अमरीकी व्यापारिक हितों के लिए था. बीजेपी ने उसका घोर विरोध किया था. कम्युनिस्टों ने विरोध किया था. अमर सिंह के सहयोग से बिल पास हुआ था और  कांग्रेस की सरकार अस्थिर हो गयी थी लेकिन मनमोहन सिंह ने ख़तरा उठाया और अमरीका खुश हो गया .अब उन्हीं मनमोहन सिंह की आर्थिक नीतियों पर चल रही नरेंद्र मोदी सरकार भी अमरीका के हित में कुछ भी करने के संकेत दे दिए  हैं . अपनी अमरीका यात्रा के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एवाहान के बड़े  उद्योगपतियों को भारत में कारोबार करने की खुली छूट का प्रस्ताव किया और जब प्रवासी भारतीय दिवस और  वाइब्रेंट गुजरात के समय जनवरी के पहले पक्वादे में अहमदाबाद में जमावड़ा हुआ तो साफ़ ऐलान किया कि  भारत में व्यापार करना अब बहुत  ही आसान कर दिया जाएगा . अमरीकी राष्ट्रपति के लिए इस से अच्छी बात कुछ भी नहीं हो सकती थी . ज़ाहिर है कि जब नरेंद्र मोदी ने बराक ओबामा को भारत आने का न्योता दिया तो उन्होंने तुरंत स्वीकार कर लिया .

अमरीका में आजकल भारत को लेकर बहुत रूचि दिखाई जाती है .जब अमरीका से परमाणु करार करके और दूसरी बार प्रधानमंत्री बनकर डॉ मनमोहन सिंह अमरीका गए थे तो उनके लिए भी इन्हीं बराक ओबामा की सरकार ने पलक पांवड़े बिछा दिए थे .मनमोहन सिंह और उनके प्रशासन ने अमेरिका में वह ओहदा प्राप्त कर लिया था जिसकी कोशिश भारतीय प्रशासन लंबे समय से कर रहा था. उसी यात्रा में भारत अमेरिका का रणनीतिक साझेदार बन गया था. इस रणनीतिक साझेदारी का ही नतीजा था कि डॉ मंमोःन सिंह के भारत लौटने से पहले ही भारत ने परमाणु परीक्षण के मुद्दे पर अंतर राष्ट्रीय परमाणु एजेंसी (आईएईए) में उस ईरान के खिलाफ जा खड़ा हुआ था जिसके साथ भारत का सदियों पुराना संबंध रहा है.
मनमोहन सिंह की उसी यात्रा में भारत अमरीका का राजनीतिक पार्टनर हो गया था और यह भरोसा दे दिया था कि अब भारत वही करेगा जो अमेरिका चाहेगा. अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा के खास मेहमान डा. मनमोहन सिंह और उनके मेजबान ने बार-बार इस बात का ऐलान किया था . दोनों ने ही कहा था  कि अब उनकी दोस्ती का एक नया अध्याय शुरू हो गया था . जलवायु परिवर्तन, कृषि और शिक्षा के क्षेत्र में नई पहल की जाएगी। आतंकवाद के मसले पर दोनों देशों के बीच एक समझौते पर भी हस्ताक्षर किए गए थे । भारत के पड़ोस में मौजूद आतंक का ज़िक्र करके अमरीकी राजनयिकों ने भारत को संतुष्ट करने का प्रयास किया था ।
भारत की लगातार शिकायत रहती रही है कि अमरीका का रुख पाकिस्तान की तरफ सख्ती वाला नहीं रहता। मनमोहन सिंह के साथ साझा बयान में भारत की यह शिकायत दूर करने की कोशिश की गई थी . दोनों ही देशों ने इस बात पर जोर दिया था कि आतंकवादियों के सुरक्षित इलाकों पर नजर रखी जायेगी। भारत के परमाणु समझौते पर अमरीकी ढिलाई की चर्चा पर विराम लगाते हुए राष्ट्रपति ओबामा ने साफ कहा था कि भारत अमरीका परमाणु समझौते की पूरी क्षमता का दोनों देशों के हित में इस्तेमाल किया जाएगा। ओबामा ने भारत को परमाणु शक्ति कहकर भारत में महत्वाकांक्षी कूटनीति के अति आशावादी लोगों को भी खुश कर दिया था . अमरीका की तर्ज पर ही कमजोर देशों के ऊपर दादागिरी करने के सपने पाल रहे दक्षिणपंथी राजनयिकों को इससे खुशी हुई थी. व्हाइट हाउस के प्रांगण में डा. मनमोहन सिंह का स्वागत करते हुए अमरीकी राष्ट्रपति ने कहा था कि दोनों परमाणु शक्ति संपन्न देश मिलकर दुनिया से परमाणु हथियारों को खत्म करने में सहयोग कर सकते हैं। ऐसा लगता था कि अमरीका भारत को अपने बराबर मान रहा था लेकिन कूटनीति की भाषा में कई शब्दों के अलग मतलब होते हैं. जहां तक भारत की विदेशनीति के गुट निरपेक्ष स्वरूप की बात है उसको तो खत्म करने की कोशिश 1998 से ही शुरू हो गई थी जब अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री बने थे। उनके विदेश मंत्री जसवंत सिंह तो अमरीकी विदेश विभाग के मझोले दर्जे के अफसरों तक के सामने नतमस्तक थे। मनमोहन सिंह ने भी उसी लाइन को जारी रखा था. अटल बिहारी वाजपेयी के काल में जो वायदे किये गए थे डॉ मनमोहन सिंह उनमें से सभी को पूरा करने में जुटे हुए थे . प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अमरीका यात्रा को अटल बिहारी वाजपेयी और डॉ मनमोहन सिंह की अमरीका नीति का अविरल क्रम ही माना जाना चाहिए . बराक ओबामा के २६ जनवरी की परेड में शामिल होने को इस बात का संकेत माना जाना चाहिए कि अब अमरीका में भारत को वही रूतबा हासिल है जो ब्राजील . दक्षिण कोरिया , ब्रिटेन आदि को हासिल है .हालांकि यह भी सच है कि अब भारत की विदेशनीति की वह हैसियत नहीं रही जो जवाहरलाल नेहरू के वक़्त में हुआ करती थी.
अमरीका की हमेशा से ही कोशिश थी कि भारत को रणनीतिक पार्टनर बना लिया जाय। 1966 में जब इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री बनी थीं तो तत्कालीन अमरीकी राष्ट्रपति लिंडन बी जानसन ने कोशिश की थी। बाद में रिचर्ड निक्सन ने भी भारत को अर्दब में लेने की कोशिश की थी। इंदिरा गांधी ने दोनों ही बार अमरीकी राष्ट्रपतियों को मना कर दिया था। उन दिनों हालांकि भारत एक गरीब मुल्क था लेकिन गुटनिरपेक्ष आंदोलन के संस्थापक के रूप में भारत की हैसियत कम नहीं थी। लेकिन वाजपेयी से वह उम्मीद नहीं की जा सकती थी, जो इंदिरा गांधी से की जाती थी। बहरहाल 1998 में शुरू हुई भारत की विदेश नीति की फिसलन २०१० तक पूरी हो चुकी थी और भारत अमरीका का रणनीतिक पार्टनर बन चुका था. अब जो हो रहा है वह तो उसी कार्यवाही के अगले क़दम के रूप में देखा जाना चाहिए . अमरीका का रणनीतिक पार्टनर बनना कोई खुशी की बात नहीं है। एक जमाने में पाकिस्तान भी यह मुकाम हासिल कर चुका है और आज अमरीकी विदेश नीति के आकाओं की नज़र में पाकिस्तान की हैसियत एक कारिंदे की ही है, उससे ज्यादा कुछ नहीं। इसलिए ताकतवर देश का रणनीतिक पार्टनर होना बहुत ही खतरनाक हो सकता है। 
अब भारत भी राष्ट्रों की उस बिरादरी में शामिल हो गया है जिसमें ब्राजील, दक्षिण कोरिया, अर्जेंटीना, ब्रिटेन वगैरह आते हैं। अमरीका एशिया या बाकी दुनिया में भारत को इस्तेमाल करने की योजना पर काम करना शुरू कर देगा और उसे अब भारत से अनुमति लेने की जरूरत नहीं पड़ेगी। भारत सरकार को चाहिए जब अमरीका के सामने समर्थन कर ही दिया है तो उसका पूरा फायदा उठाए। अमरीकी प्रभाव का इस्तेमाल करके भारत के विदेशनीति के नियामक फौरन सुरक्षा परिषद की स्थाई सदस्यता की बात को फाइनल करे। अब तक अमरीकी हुक्मरान भारत और पाकिस्तान को बराबर मानकर काम करते रहे हैं। जब भी भारत और अमरीका के बीच कोई अच्छी बात होती थी तो पाकिस्तानी शासक भी लाइन में लग लेते थे। यहां तक कि जब भारत और पाकिस्तान के बीच परमाणु समझौता हुआ तो पाकिस्तान के उस वक्त के राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ भी पूरी कोशिश करते पाए गए थे कि अमरीकी उनके साथ भी वैसा ही समझौता कर ले। पाकिस्तानी विदेश नीति की बुनियाद में भी यही है कि वह अपने लोगों को यह बताता रहता है कि वह भारत से मजबूत देश है और उसे भी अंतर्राष्ट्रीय बिरादरी में वही हैसियत हासिल है जो भारत की है। जबकि सच्चाई इससे बिल्कुल पलट है। 
भारत एक विकासमान और विकसित देश है, विश्वमंच पर उसकी हैसियत रोज ब रोज बढ़ रही है जबकि पाकिस्तान तबाही के कगार पर खड़ा एक मुल्क है, जिसके रोज़मर्रा के खर्च भी अमरीकी और सउदी अरब से मिलने वाली आर्थिक सहायता से ही चल रहे हैं। इसलिए अमरीका भी पाकिस्तान को अब वह महत्व नहीं दे सकता है। भारत अमरीकी रणनीतिक साझेदारी की बात अब एक सच्चाई है और उसके जो भी नतीजे होंगे वह भारत को भुगतने होंगे लेकिन कोशिश यह की जानी चाहिए कि भारत की एकता, अखण्डता और आत्मसम्मान को कोई ठेस न लगे।भारत के हित में ही माना जाएगा कि जब अमरीका को अपना सुपीरियर देश मान लिया है तो उसका पूरा लाभ उठाया जाए. डॉ मनमोहन सिंह और नरेंद्र मोदी से वह उम्मीद करना ठीक नहीं होगा जिसकी उम्मीद जवाहरलाल नेहरू से की जाती थी .

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