Thursday, December 17, 2020

सही अर्थों में चौधरी देवीलाल के वारिस हैं दुष्यंत चौटाला


 

शेष नारायण सिंह

 

हरियाणा के उपमुख्यमंत्री दुष्यंत चौटाला  भारी दबाव में आ गए थे  हैं और सरकार से बहार होने की संभावना बनने लगी थी .  खेती से सम्बंधित नए कानूनों के  बनने के बाद वे बड़ी दुविधा में थे . दिल्ली और हरियाणा की सीमा पर  डटे किसान मूल रूप से पंजाब और हरियाणा  के रहने वाले हैं . दुष्यंत चौटाला हरियाणा में चौ. देवीलाल की राजनीतिक विरासत के दावेदार के रूप में  पहचाने जाते हैं .उनके परदादा देवीलाल ने आज से नब्बे साल पहले १९३० में किसानों के कल्याण के लिए आज़ादी की लड़ाई में शामिल होकर अपने आपको अविभाजित पंजाब की किसान राजनीति के प्रतिनिधि के रूप में स्थापित कर दिया था . १९४७ में देश के बंटवारे के बाद भी वे पंजाब की राजनीति में  किसानों के कल्याण के लिए संघर्ष करते रहे . वे आज़ादी की लड़ाई के महत्वपूर्ण कार्यकर्ता थे , लेकिन आज़ादी के बाद भी वे किसानों के लिए आंदोलन करते हुए जेल   गए थे . १९५२ में भारतीय पंजाब की पहली विधानसभा के सदस्य चुने  गए थे और जीवन भर किसानों के मुद्दों पर सरकार के बाहर और अंदर  रहकर राजनीति करते रहे .उनके वारिस दुष्यंत चौटाला की सरकार ने किसानों पर पानी की तोपें चलाईं और उनको सरकार के उपमुख्यमंत्री के रूप में चुप रहने को मजबूर होना पड़ा. सरकार उनकी नही है .वे सरकार में इसलिए शामिल हुए हैं क्योंकि पिछले विधानसभा चुनावों में बीजेपी को बहुमत लायक सीटें  नहीं मिलीं तो दुष्यंत चौटाला की जननायक जनता पार्टी से समझौता करके सरकार बनानी पडी. किसान आन्दोलन में वे चुप रहने का विकल्प नहीं अपना सकते थे इसलिए उन्होंने अब बयान दे दिया है कि  अगर न्यूनतम समर्थन मूल्य की व्यवस्था को खतरा होगा तो वह इस्तीफा दे देंगे।

 

लेकिन दुष्यंत चौटाला का यह बयान इस बात को सुनिश्चित करता है  कि हरियाणा की सरकार  और उनकी गद्दी को कोई ख़तरा नहीं है क्योंकि  केंद्र सरकार ने बार बार कहा है कि  कृषि की उपज के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य की मौजूदा व्यवस्था लागू रहेगी . इस आश्वासन के बाद वे खुश हो गए और उन्होंने  कहा कि अब आंदोलन समाप्त कर देना चाहिए क्योंकि सरकार ने एमएसपी और अन्य मांगों पर लिखित आश्वासन देने की बात कह दी है . उन्होंने पत्रकारों से कहा, ''जब लिखित आश्वासन आ गया  है तो मुद्दे को आगे ले जाने की जरूरत नहीं है। सरकार का यह आश्वासन दुष्यंत चौटाला के लिए बड़ी राहत है क्योंकि वे राज्य की मनोहरलाल खट्टर सरकार से हटने के लिए विपक्ष और हरियाणा के कुछ किसान नेताओं  का दबाव झेल  रहे थे .सरकार में बने रहने के लिए उन्होंने अपने परदादा चौधरी देवीलाल हवाला देते हुए उन्होंने दावा किया कि , “ वे कहा करते थे कि सरकार किसानों की बात तब सुनती है जब सरकार में उनकी हिस्सेदारी होती है। हम और हमारी पार्टी किसानों की चिंताओं को सरकार के सामने रख रहे हैं। “

 

दुष्यंत चौटाला पर सरकार से हटने का दबाव  विपक्ष और किसान संगठनों के अलावा अपनी पार्टी के  विधायकों की तरह से भी आ रहा था . उनकी पार्टी  जेजेपी के कुछ  विधायकों द्वारा किसान आन्दोलन को समर्थन दिए जाने के बाद से यह अटकलें लगाई जा रही थीं कि उप मुख्यमंत्री दुष्यंत चौटाला खट्टर सरकार से समर्थन वापस ले लेंगे लेकिन  अब उन अटकलों पर विराम लग  गया  है . दुष्यत चौटाला ने सरकार में बने रहने के लिए ज़रूरी तर्क विकसित कर लिया है । हालांकि हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहरलाल खट्टर भी जेजेपी विधायकों के किसान समर्थक बयानों बाद कुछ चिंतित हो गए थे लेकिन दुष्यंत चौटाला की तरफ से सरकार में बने  रहने के संकेत आने के बाद उन्होंने दावा किया कि राज्य में भाजपा-जेजेपी का गठबंधन मजबूत है और जेजेपी के कुछ विधायकों द्वारा किसानों के विरोध प्रदर्शन का खुल कर समर्थन करने के बावजूद कहीं से भी कोई समस्या नहीं है।

 

देवीलाल के वारिस के रूप में  किसी भी ऐसी सरकार दुष्यंत चौटाला का बने रहना बहुत कठिन था जिस पर किसान विरोधी होने के आरोप लग रहे हों. पंजाब से हरियाणा की सीमा में प्रवेश कर रहे  किसानों पर पुलिस कार्रवाई करके मनोहर लाल खट्टर ने उनके लिए मुसीबत पैदा कर दी थी लेकिन जब खट्टर को अमित शाह की तरफ से  किसानों के प्रति मानवीय व्यवहार करने की  हिदायत दे दी गयी तब हालात बदल गए . किसानों के मुद्दे पर ही पंजाब के अकाली दल ने बीजेपी का साथ छोड़ा है लेकिन उनकी  हैसियत किसी सरकार में उलटफेर कर सकने की  नहीं है . उनको तो नरेंद्र मोदी ने कृपा करके सरकार में रखा हुआ था . लेकिन दुष्यंत चौटाला को अगर सरकार छोड़ने पर मज़बूर होना पड़ा होता तो बीजेपी की हरियाणा सरकार के लिए परेशानी बढ़ जाती .इसलिए अब हरियाणा सरकार स्थिर है और चौधरी देवीलाल के वारिस को सरकार में बने रहने के लिए आवश्यक बहाना मिल गया है .देवीलाल ने आज़ादी के पहले वाले पंजाब , आज़ादी के बाद वाले भारतीय पंजाब और   पंजाब के विभाजन के बाद हरियाणा की राजनीति में हमेशा ही ज़बरदस्त भूमिका निभाई है..१९६६ के पहले  हरियाणा भी पंजाब  का हिस्सा था  और  हरियाणा में रहने वाले लोग नहीं चाहते थे कि वे पंजाब से  अलग हों. हरियाणा की स्थापना के लिए किसी ने कोशिश नहीं की थी बल्कि हरियाणा बन जाने के बाद इस राज्य के लोगों को नया राज्य मिलने से कोई खुशी नहीं हुयी थीबस लोगों ने नियति मानकर इसको स्वीकार कर लिया था .पंजाबी सूबे की मांग को लेकर मास्टर तारा सिंह और संत फ़तेह सिंह ने जो आन्दोलन चलाया उसी के नतीजे में उनको पंजाब का पंजाबी भाषा के बहुमत वाला इलाका  मिल गया जो  बच गया उसी में हरियाणा और हिमाचल प्रदेश बन गया .  नये राज्य की राजनीति में शुरू से ही देवीलाल का दबदबा रहा  है . देवीलाल अविभाजित पंजाब के नेता थेदेश के बंटवारे के  बाद जब प्रताप सिंह कैरों मुख्यमंत्री बने तो देवीलाल उनके बहुत ही करीबी थे . हरियाणा की  स्थापना के बाद वे नए राज्य के ताक़तवर नेता बन गए .  जब बी डी शर्मा और  राव बीरेंद्र सिंह के बीच मुख्यमंत्री के पद को लेकर उठापटक शुरू हुयी तो देवीलाल की अहम भूमिका थी. दोनों की तरफ होने का अहसास देते रहे . कभी इस  पार और कभी उस पार सक्रिय रहे .  उनको मुख्यमंत्री की गद्दी तो नहीं मिली लेकिन मुख्यमंत्री बनाने  बिगाड़ने में वे बहुत सक्रिय भूमिका निभाते रहे. उन्होंने ही प्रताप सिंह कैरों से कहकर बंसीलाल को राजनीति में प्रवेश दिलवाया था लेकिन बाद में वही बंसीलाल उनके सबसे बड़े विरोधी हो गए .  बंसीलाल  को मुख्यमंत्री पद पर बी डी शर्मा गुट ने बैठाया था क्योंकि उनको उम्मीद थी कि  बंसीलाल एक कठपुतली के रूप में रहेंगें लेकिन वक़्त ने ऐसा नहीं होने दिया . बंसीलाल स्वतंत्र हो गए और देवीलाल के साथ साथ बी डी शर्मा को भी धता बताते रहे .

 

  देवीलाल  पंजाब और हरियाणा के बड़े नेता थे लेकिन गद्दी उनसे छटक जाती थी . बंसीलाल को राजनीति में उन्होंने प्रवेश दिलवाया था लेकिन उनसे पहले बंसीलाल मुख्यमंत्री बन गए . १९७७ में ६२ साल की  उम्र में वे पहली बार मुख्यमंत्री बन पाए जबकि उनके वारिस दुष्यंत चौटाला तीस साल की आयु में ही  उपमुख्यमंत्री बन  गए हैं और सत्ता के साथ रहने की कला के माहिर के रूप में उभर रहे हैं . चौ. देवीलाल  हरियाणा के लोगों में बहुत लोकप्रिय थे लेकिन कभी भी  कार्यकाल पूरा नहीं कर पाए . १९७७ और १९८७ में मुख्यमंत्री बने लेकिन हर बार उनके क़रीबी लोगों ने ही उनके  साथ धोखा किया . विश्वनाथ प्रताप सिंह को  प्रधानमंत्री बनाने में उनकी भूमिका ज़बरदस्त थी . अगर उन्होने साथ न दिया होता तो   चंद्रशेखर  तो वी पी सिंह को किसी कीमत पर प्रधानमंत्री बनाने को तैयार नहीं थे . लेकिन ताऊ देवीलाल ने उनको प्रधानमंत्री बनवाया और खुद उपप्रधानमंत्री बने .बाद में  जब वीपी  सिंह ने चालाकी करनी शुरू की तो उनको  हटाने में भी अहम भूमिका निभाई और   चंद्रशेखर को प्रधानमंत्री बनवाकर दुबारा उपप्रधानमंत्री बन गए .वे आदमी की पहचान में अक्सर गच्चा खा जाते थे . लेकिन उनके  वारिस दुष्यंत चौटाला  वक़्त की पहचान के ज्ञाता लगते हैं और मौके की नज़ाक़त के  हिसाब से काम  करते हैं . शायद इसीलिये अपने से सीनियर अपनी पार्टी के नेताओं के दबाव के बाद भी सत्ता में बने  हुए हैं और अपनी सरकार की स्थिरता को संभाले  हुए हैं .

 

लोकतंत्र बचाना है सांसदों और विधायकों को मंत्री बनाना बंद करना पड़ेगा .


 

 

शेष नारायण सिंह 

 

 

खबर आ रही है कि कोलकाता के दौरे पर गए बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा के काफिले पर  पथराव हुआ है . उनके काफिले पर हमला करने वाले  सत्ताधारी  तृणमूल कांग्रेस पार्टी के कार्यकर्ता बताये जा रहे हैं . बंगाल में माना जाता है कि तृणमूल कांग्रेस आजकल मुख्यमन्त्री ममता बनर्जी और उनके भतीजे अभिषेक बनर्जी के स्वामित्व  वाली पार्टी बन गयी है. तृणमूल कांग्रेस को डर है कि बंगाल की राजनीति में कांग्रेस और लेफ्ट फ्रंट के हाशिये पर चले जाने के बाद  उनकी सत्ता को अगर कोई ख़तरा है तो वह बीजेपी से है .शायद इसीलिये वे बीजेपी वालों को सत्ता तक आने देने से रोकना चाहते हैं . इस काम में उनको बाहुबलियों के एक वर्ग का समर्थन मिल रहा है . बीजेपी के उठान के पहले  तृणमूल कांग्रेस के खिलाफ जो  बाहुबली होते थे वे लेफ्ट फ्रंट के साथ होते थे लेकिन वे आजकल  बीजेपी के साथ हो गए हैं . इस तरह से वहां की सड़कों और गावों में दोनों पक्षों के बाहुबलियों का आतंक है . लोकतंत्र का  दुर्भाग्य है कि ज़्यादातर चुनाव बाहुबलियों की ताक़त के बीच ही होने लगे हैं . बाहुबलियों के प्रभाव से चुनाव जीतने की संस्कृति से हमारे लोकतंत्र को भारी ख़तरा है और उस खतरे को फ़ौरन ख़त्म करने की ज़रूरत है . अगर ऐसा करने में देरी की गयी तो हमारे लोकतंत्र पर बदमाशों का कब्ज़ा हो  जाएगा.

 

हमारे लोकतंत्र के तीन स्तंभ हैं . न्यायपालिका ,  विधायिका और कार्यपालिका . न्याय पालिका तो  अपना काम कर ही रही  है लेकिन कार्यपालिका और  विधायिका के काम में बाधाएं आ रही हैं . गठबंधन सरकारों के दौर में  हमने देखा है कि संसद का काम इसलिए नहीं हो  पाता था कि सरकार में शामिल पार्टियां  सरकार यानी कार्यपालिका के कुछ फैसलों से खुश नहीं रहती थीं . नतीजा यह होता है कि वे सरकार पर गलत काम करवाने के लिए बेजा दबाव डालती थीं . इसी तरह जब  विपक्ष की पार्टियां सरकार के काम से खुश नहीं रहतीं तो कार्यपालिका पर दबाव डालने के लिए वह विधायिका को अपना काम  नहीं करने देती  , संसद और विधानसभाओं में हल्ला गुल्ला इसी वजह से होता है . इस सारी मुसीबत को खत्म करने का एक बहुत सही तरीका  यह  है कि विधायिका और कार्यपालिका का काम अलग अलग लोग करें . यानी जो लोग विधायिका यानी एम पी या एम एल ए हैं वे कार्यपालिका  से अलग रहें यानी मंत्री न बनाए जाएँ . वे कार्यपालिका के काम की निगरानी  रखें उन पर नज़र रखें और संसद की सर्वोच्चता को स्थापित करने में योगदान दें. अभी यह हो रहा है कि जो लोग संसद के सदस्य है संसद की सर्वोच्चता के संरक्षक हैं वे ही सरकार में शामिल हो जाते हैं और कार्यपालिका भी बन जाते  हैं . गौर  करने की बात यह है कि जब भी संसद की  कार्यवाही  को हल्ला गुल्ला करके रोका गया है वह विरोध कार्यपालिका के किसी फैसले के बारे में था . यानी संसद का जो विधायिका के रूप में काम करने का मुख्य काम है  उसकी वजह से संसद में  हल्ला गुल्ला कभी नहीं हुआ. हल्ला गुल्ला इसलिए हुआ कि संसद के सदस्यों का जो अतिरिक्त काम है कार्यपालिका वालाउसकी वजह से संसद को काम करने का मौका नहीं मिला. इसलिए अब इस बात पर गंभीरता से विचार करने की ज़रूरत है कि कार्यपालिका और विधायिका का काम अलग अलग लोगों को दिया जाए. यानी ऐसे नियम बना दिए जाएँ  जिसके बाद कोई भी संसद सदस्य या कोई भी विधायक मंत्री न बन सके. संसद या  विधानमंडलों के सदस्य के रूप में नेता लोग अपना काम करें यानी कानून बनायें और उन कानूनों  को लागू करने वाली कार्यपालिका के काम की निगरानी करें . मंत्री ऐसे लोग बने जो संसद या विधानमंडलों के सदस्य न हों . यहाँ यह गौर करने की बात है कि  नौकरशाही को काबू में रखना भी ज़रूरी है वर्ना वे तो ब्रिटिश नजराना संस्कृति के वारिस हैंवे तो सब कुछ लूटकर रख देगें. अगर संसद या विधानसभा का सदस्य बनकर केवल क़ानून बनाने का काम मिलने की बात होगी तो इन सदनों में बाहुबली बिलकुल नहीं आयेगें.उसके दो कारण हैं . एक तो उन्हें मालूम है कि कानून बनाने के लिए संविधान और कानून और राजनीतिशास्त्र का ज्ञान होना चाहिए . दूसरी बात यह है कि जब उन्हें मालूम हो जाएगा कि संसद के सदस्य बनकर कार्यपालिका के फैसलों या ठेका देने की शक्ति पर उनका डाइरेक्ट नियंत्रण नहीं रहेगा तो उनकी रूचि खत्म हो जायेगी. क्योंकि रिश्वत की मलाई तो मंत्री बनकर ही नसीब होती है ..

 

इस तरह हम देखते हैं कि अगर विधायिका को कार्यपालिका से अलग कर दिया जाए तो देश का बहुत भला हो जाएगा. यह कोई  अजूबा आइडिया नहीं है . अमरीका में ऐसी  ही व्यवस्था है . अपने संसदीय लोकतंत्र को जारी रखते हुए यह किया जा सकता है कि बहुमत दल का नेता मुख्यमंत्री या प्रधान मंत्री बन जाए और वह संसद या विधान मंडलों के बाहर से अपना राजनीतिक मंत्रिमंडल बनाये. एक शंका उठ सकती है कि वही  बाहुबली और भ्रष्ट नेता चुनाव नहीं लड़ेगें और मंत्री बनने के  चक्कर में पड़ जायेगें और वही काम शुरू कर देगें जो अभी करते हैं . लेकिन यह शंका निर्मूल है . क्योंकि जब  सरकार गिराना या सरकार बनाना उनकी औकात के बाहर होगा तो कोई भी मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री उनको कोई महत्व नहीं देगा ,किसी  बदमाश को अपने मंत्रिमंडल में नहीं शामिल करेगा . संसद का काम यह रहे कि  मंत्रिमंडल के काम की निगरानी रखे . यह मंत्रिमंडल राजनीतिक फैसले ले और मौजूदा नौकरशाही को ईमानदारी से काम करने के लिए मजबूर करे. यह संभव है और इसके लिए कोशिश की जानी चाहिए . कार्यपालिका और नौकरशाही पर अभी  भी संसद की स्टैंडिंग कमेटी कंट्रोल रखती है और वह हमारी लोकशाही का एक बहुत ही मज़बूत पक्ष है . स्टैंडिंग कमेटी की मजबूती का  एक कारण यह भी है कि उसमें कोई भी मंत्री सदस्य के रूप में शामिल नहीं हो सकता . स्टैंडिंग कमेटी मंत्रिमंडल के काम पर निगरानी भरी नज़र रखती है . आज जो काम स्टैंडिंग  कमेटी कर रही है वही काम पूरी संसद का हो जाए तो चुनाव सुधार का बहुत पुराना एजेंडा भी लागू हो जाएगा और अमरीका की तरह विधायिका की सर्वोच्चता भी स्थापित हो जायेगी.  

 

भारत में भ्रष्टाचार के समकालीन इतिहास पर नज़र डालें तो साफ़ समझ में आ जाता है कि इस काम में राजनीतिक बिरादरी नंबर एक पर है. राजनेताएम पी या एम एल ए का चुनाव जीतता है और केन्द्र या राज्य में मंत्री बन जाता है . मंत्री बनते ही कार्यपालिका के राजनीतिक फैसलों का मालिक बन बैठता है . और उन्हीं फैसलों की कीमत के रूप में घूस स्वीकार करना शुरू कर देता है. जब राजनेता भ्रष्ट हो जाता है तो उसके मातहत काम करने  वाली नौकरशाही को भ्रष्टाचार करने का लाइसेंस मिल जाता है और वह पूरी मेहनत और बेईमानी के साथ घूस वसूलने  में जुट जाता है. फिर तो नीचे तक भ्रष्टाचार का राज कायम हो जाता है. भ्रष्टाचार के तत्व निरूपण में जाने की ज़रूरत इसलिए नहीं है कि भ्रष्टाचार हमारे सामाजिक राजनीतिक जीवन  का इतना महत्वपूर्ण हिस्सा बन  चुका है कि उसके बारे में किसी भी भारतीय को कुछ बताना बिकुल बेकार की कवायद होगी. इस देश में जो भी जिंदा इंसान है वह भ्रष्टाचार की  चारों तरफ की मौजूदगी को अच्छी तरह जानता है . 

 

 उत्तर प्रदेश में भ्रष्टाचार को अंदर से देख और झेल  रहे मेरे एक अफसर मित्र से चर्चा के दौरान भ्रष्टाचार को खत्म करने के कुछ  दिलचस्प  तर्क सामने आये. उत्तर प्रदेश की नौकरशाही में अफसरों का एक वर्ग ऐसा भी है जो भ्रष्टाचार के खिलाफ है लेकिन जल में रहकर मगर से  वैर नहीं करता और नियम कानून की सीमाओं में रहकर  अपना काम करता रहता है .मेरे अफसर मित्र उसी वर्ग के हैं . उन्होंने भ्रष्टाचार  को खत्म करने के कई गुर बताए लेकिन सिद्धांत के स्तर पर जो कुछ उन्होंने बताया ,वह फील्ड में काम करने वाले उस योद्धा के तर्क हैं जो भ्रष्टाचार की मार का सोते जागते मुकाबला करता रहता है . जब तक एक कलक्टर या एस डी एम जाग रहा होता है उसे को न कोई नेता या मंत्री या उसका बड़ा अफसर भ्रष्टाचार के तहत कोई न कोई काम करने की सिफारिश करने को कहता रहता है . उन्होंने बताया कि जिलों में सबसे ज्यादा भ्रष्ट राजनीतिक नेता होते हैं . जो लोग मंत्री हो जाते हैं वे तो हर काम को अपनी मर्जी से करवाने को अपना जन्मसिद्ध अधिकार  मानते हैं . उसके बाद मंत्री जी के चमचों का नंबर  आता है. यह चमचा वाली संस्था तो बनी ही भ्रष्टाचार का निजाम कायम रखने के लिए है. उसके बाद वे नेता आते हैं जो विधायक या सांसद बन चुके होते हैं लेकिन मंत्री नहीं बन पाते . यह सरकारी पक्ष के ही होते हैं . सरकारी पक्ष के नेताओं के बाद विपक्ष की पार्टियों के विधायकों और सांसदों का नंबर आता है जिनके चमचे भी  सक्रिय रहते हैं .  इस वर्ग के नेता भी कम ताक़तवर  नहीं होते और उनका भी खर्चा पानी घूस की गिजा पर ही चलता है . उसके बाद उन नेताओं  का नंबर  आता है जो भूतपूर्व हो चुके होते हैं . भूतपूर्व के बाद वे नेता आते हैं जिनको अभी चुनावी सफलता नहीं मिली है  या कि मिलने वाली है .

कुल मिलाकर यह देखा गया है कि सरकारी फैसलों को घूस की चाभी से अपने पक्ष में करने वाले लोगों में सबसे आगे वही लोग  होते हैं जो राजनीति के क्षेत्र से आते हैं .अगर चुनाव जीतने  वालों को स्पष्ट रूप से पता हो कि वह मंत्री नहीं बनेगा ,उसे अमरीकी सेनेटर की तरह काम करने पडेगा और उसके लिए पढना लिखना ज़रूरी होगा तो पत्थर फेंकने वाले गुंडे और बाहुबलियों के चेले और बाहुबली जमातें कभी  भी  चुनावी राजनीति में शामिल नहीं होंगी और देश का बहुत  भला होगा . अगर ऐसा हुआ तो जो गुंडे आजकल बंगाल में विरोधी नेताओं पर पथराव कर रहे हैं उनको कोई पूछने वाला नहीं होगा .

खेती में बड़े पैमाने पर निवेश की ज़रूरत है,उसको पूरा करते हैं नए कानून

  

 

शेष नारायण सिंह  

 

दिल्ली की सीमा पर आन्दोलन कर रहे किसान नेताओं ने केंद्र सरकार के प्रस्ताव को नामंजूर कर दिया है और अपने आन्दोलन को तेज़ करने का ऐलान किया है .केंद्र सरकार बहुत बड़ी  दुविधा में है . आन्दोलन के समर्थन में विपक्ष भी कूद पडा है और 2015 जैसा माहौल बनाने की कोशिश कर रहा है जब केंद्र सरकार ने किसानों की ज़मीन के अधिग्रहण से सम्बंधित कानून पास करने की कोशिश की थी . पिछले दो महीने में केंद्र सरकार और किसान नेताओं के बीच बातचीत के कई दौर हो चुके हैं लेकिन किसान  खेती से सम्बंधित उन तीन कानूनों को रद्द  करने की अपनी मांग पर अड़े हुए  हैं जिनको भारतीय संसद ने इस साल पास किया था .  बीजेपी के  अध्यक्ष जे पी नड्डा ने दावा किया  है कि आन्दोलन को कुछ निहित स्वार्थ वाले ही हवा दे रहे हैं ,उसको किसानों का समर्थन नहीं है . उन्होंने राजस्थान हुए पंचायत चुनाव के नतीजों का ज़िक्र किया और कहा कि कांग्रेस शासित राज्य में  हुए पंचायत चुनावों में बीजेपी के उम्मीदवारों की भारी बढ़त इस बात का संकेत  है कि देश का किसान नरेंद्र मोदी और उनकी नीतियों में पूरा भरोसा रखता है . उसको विश्वास है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी  किसानों के हित की अनदेखी नहीं करेंगे .बीजेपी का आरोप है कि यह किसान आन्दोलन मूल रूप से बिचौलियों के समर्थन के बल पर चल रहा है . इसके बावजूद  भी केंद्र सरकार किसानों के आन्दोलन को नज़रंदाज़ नहीं कर सकती क्योंकि पंजाब के अलावा दिल्ली  का  घेरा डालने वाले अधिकतर किसान बीजेपी के समर्थक हैं.  इसीलिये बार बार की बातचीत के बाद कोई हल न निकलने पर भी सरकार शक्ति प्रदर्शन से परहेज कर रही है .गृहमंत्री अमित शाह से किसान नेताओं की मुलाक़ात के बाद केंद्र सरकार ने जो प्रस्ताव भेजा था उसमें उपज की खरीद पर न्यूनतम समर्थन मूल्य ( MSP ) और  सरकारी मंडियों की बात की गयी थी. बहुत ही विस्तृत  प्रस्ताव नहीं था लेकिन बातचीत के लिए एक अवसर था . उसमें लिखा  है कि ,” केंद्र सरकार एम एस पी की वर्तमान खरीदी व्यवस्था के सम्बन्ध में लिखित आश्वासन देगी “ . नए कानून में कहीं भी न्यूनतम समर्थन मूल्य का ज़िक्र नहीं है .इसलिए सरकार के इस आश्वासन से यह बात साफ़ नहीं हो रही थी कि  एम एस पी वाली बात को संशोधन के ज़रिये कानून में ही डाला जाएगा  या किसी सरकारी आदेश से उसकी व्यवस्था की जायेगी . लेकिन यह बातें तो बातचीत के ज़रिये स्पष्ट की जा सकती थीं .खेती संबंधी तीनों नए कानूनों में से एक है एफ पी टी पी एक्ट जिसमें मंडियों का उल्लेख है . उस सम्बन्ध में केंद्र सरकार ने कहा था कि राज्य सरकारों को पूरी छूट होगी कि मंडियों की कैसी व्यवस्था करते हैं . सरकारी और निजी मंडियों के बारे में भी सरकारी प्रस्ताव में ज़िक्र था .उसपर भी बातचीत की जा सकती थी . मुक़दमों की सुनवाई के बारे में भी दीवानी अदालतों में जाने की बात की गयी थी . आवश्य वस्तु अधिनियम के बारे में सरकारी प्रस्ताव में कोई बात नहीं लिखी है. ज़खीरेबाज़ी को लेकर  किसानों के मन में भारी आशंका है . उस पर सरकारी प्रस्ताव में कोई उल्लेख न होना अजीब लगता है . बहरहाल सरकारी प्रस्ताव में उसपर कोई ज़िक्र न होने के बावजूद भी बातचीत के रास्ते खुल रहे  थे लेकिन किसान नेताओं ने सरकार के पूरे प्रस्ताव को सिरे से खारिज कर दिया . उसके अलावा दिल्ली की घेराबंदी को और मज़बूत करने का संकल्प भी लिया .  सवाल यह उठता है कि इस आन्दोलन को किसान कितने दिनों तक एकजुटता के साथ जारी रख पायेंगें .

किसान आन्दोलन को विपक्ष की राजनीतिक चाल बताने का काम  सत्ताधारी बीजेपी के लोगों ने शुरू कर दिया है . उनकी कोशिश  है कि इस आन्दोलन को  विपक्ष की राजनीति के खांचे में फिट करके कमज़ोर कर दिया जाए.वैसे विपक्ष की राजनीति भी समझ में नहीं आती . यह बिल मानसून सत्र में पास कर लिए गए थे . तब से लेकर आब तक विपक्ष के राजनेता मूलरूप से ट्विटर आदि के ज़रिये अपना विरोध दर्ज करवा रहे थे लेकिन जब देखा कि किसान सड़कों पर है, दिल्ली में मीडिया का पूरा  ध्यान किसानों के आन्दोलन पर है तो विपक्ष के नेता मैदान में आ गए और राष्ट्रपति से जाकर भेंट भी कर आये.  किसानों को मालूम है कि  विपक्ष के नेताओं की विश्वसनीयता शक के घेरे में है इसलिए उन्होंने यह कोशिश  की थी कि कोई राजनीतिक नेता उनके  साथ न आये ..इस बात में दो राय नहीं है कि तीनों कानूनों में कुछ ऐसी बातें हैं जिनसे किसानों को नुक्सान होगा लेकिन उस नुक्सान को कम करने के लिए किसानों को अपनी ताकत पर ही भरोसा है और उनको मालूम है कि उनकी ताक़त  विपक्षी नेताओं से ज़्यादा  है

भारत के एक  कृषि प्रधान देश है लेकिन आजादी के बाद खेती को वह प्राथमिकता नहीं मिली जो उद्योगों को मिली .पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने औद्योगिक विकास को प्राथमिकता दी ,खेती पर उनका ध्यान उतना नहीं गया जितना  जाना चाहिए था.  .1962 में जब चीन का हमला हुआ तो एक जबरदस्त झटका लगा । जवाहर लाल नेहरू को एहसास हो गया था कि कहीं बड़ी गलती हुई है। लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी . ताबड़तोड़ मुसीबतों से घिरे मुल्क पर 1965 में पाकिस्तान ने भी हमला कर दिया। युद्ध का समय और खाने की कमी। बहरहाल प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने जय जवानजय किसान का नारा दिया।अनाज की बचत के लिए देश की जनता से आवाहन और खेती को ज़रूरी महत्व दिया . उनके समय में ही खेती में  क्रांतिकारी सुधार की बात हुयी थी . तत्कालीन कृषि मंत्री  सी सुब्रमण्यम ने खेती में आधुनिकीकरण की कोशिश की और उसी  प्रयास को ग्रीन रिवोल्यूशन का नाम दिया गया। इस क्रान्ति के लिए कृषि मंत्री ,सी सुब्रमण्यम ने अमरीकी  प्रोफ़ेसर नार्मन बोरलाग की मदद ली थी . प्रो. नार्मन बोरलाग को ग्रीन रिवोल्यूशन का जनक कहा जाता है। 1960 के दशक में भूख के मुकाबिल खड़ी दक्षिण एशिया की जनता को डॉ. नार्मल बोरलाग ने भूख से लड़ने और बच निकलने की तमीज सिखाई थी । 20 वीं सदी की सबसे खतरनाक समस्या भूख को ही माना जाता है। ज्यादातर विद्वानों ने दूसरे विश्वयुद्ध के बाद भविष्यवाणी कर दी थी कि सदी के अंत के दो दशकों में अनाज की इतनी कमी होगी कि बहुत बड़ी संख्या में लोग भूख से मर जाएंगे। नार्मन बोरलाग खुद एक सैनिक के रूप में दूसरे विश्वयुद्ध में शामिल हुए थे .विश्वयुद्ध की समाप्ति पर जब नार्मन बोरलागवापस आए तो रॉकफेलर फाउंडेशन के एक प्रोजेक्ट के तहत वे मैक्सिको चले गए। इस प्रोजेक्ट का उद्देश्य मैक्सिको के किसानों को अपनी फसल को सुधारने की जानकारी और ट्रेनिंग देना था।  बोरलाग जब मैक्सिको पहुंचे तो सन्न रह गएवहां हालात बहुत खराब थे। मिट्टी का पूरा दोहन हो चुका थाबहुत पुराने तरीके से खेती होती थी और किसान इतना भी नहीं पैदा कर सकते थे कि अपने परिवार को दो जून की रोटी खिला सकें। कई वर्षों के कठिन परिश्रम के बाद डॉ बोरलाग ने गेहूं की ऐसी किस्में विकसित कीं जिनकी वजह से पैदावार कई गुना ज्यादा होने लगी। आमतौर पर गेहूं की पैदावार तीन गुना ज्यादा हो गई और कुछ मामलों में तो चार गुना तक पहुंच गई। मैक्सिको सहित कई अन्य दक्षिण अमरीकी देशों में किसानों में खुशहाली आना शुरू हो गई थीबहुत कम लोग भूखे सो रहे थे। बाकी दुनिया में भी यही हाल था। 60 का दशक पूरी दुनिया में गरीब आदमी और किसान के लिए बहुत मुश्किल भरा माना जाता है। भारत में भी खेती के वही प्राचीन तरीके थे। पीढ़ियों से चले आ रहे बीज बोए जा रहे थे।गरीब आदमी और किसान भुखमरी के कगार पर खड़ा था। कहा जाता था कि भारत की खाद्य समस्या, "शिप टू  माउथ" चलती है। यानी अमरीका से आने वाला गेहूंफौरन भारत के गरीब आदमियों तक पहुंचाया जाता था। ऐसी विकट परिस्थिति में डॉ. बोरलाग भारत आए और हरितक्रांति का सूत्रपात किया। हरित क्रांति के अंतर्गत किसान को अच्छे औजारसिंचाई के लिए पानी और उन्नत बीज की व्यवस्था की जानी थी जो डॉ. बोरलाग की प्रेरणा से संभव हुआ।भारत में हरितक्रांति के लिए तकनीकी मदद तो निश्चित रूप से नॉरमन बोरलाग की वजह से मिली लेकिन भारत के कृषिमंत्री सी. सुब्रहमण्यम ने राजनीतिक इच्छाशक्ति का प्रदर्शन किया और हरित क्रांति के लिए जरूरी प्रशासनिक इंतजाम किया। डा. बोरलाग का अविष्कार था बौना गेहूं और धान जिसने भारत की खाद्य  समस्या को हमेशा के लिए बौना कर दिया।

साठ के दशक की हरित  क्रान्ति के बाद खेती के फ्रंट में देश में कुछ नहीं हुआ.  हरित क्रान्ति के बाद खेती में कुछ नया करने की यह पहली कोशिश है . इसमें कुछ कमियाँ होंगीं .उनको ठीक किया जाना चाहिये  1991 में तत्कालीन वित्त मंत्री डॉ मनमोहन सिंह ने जब देश की अर्थव्यवस्था का उदारीकरण किया तो उन्होंने वायदा किया था कि कृषि के क्षेत्र में भी ऐसा ही कुछ करेंगें . खेती में हरित क्रान्ति जैसे निवेश के अवसर लायेंगें .लेकिन कुछ हुआ नहीं . आज वह अवसर आया है . सरकार में ज़रूरी पहल की  है .कानून में कुछ कमियां होंगी ,उनको ठीक किया जाना चाहिए लेकिन किसानों के लिए शुरू की गयी  किसी पहल को सिरे से  खारिज करना सही राजनीति नहीं है .

किसान आन्दोलन में सरकार झुकेगी कि किसान ?


 शेष नारायण सिंह 

 दिल्ली में जुटे किसानों का आन्दोलन दस दिन के बाद भी जारी  है . कल तक  कहीं किसी समझौते की राह दूर दूर तक नहीं दिख रही  थी लेकिन अब जानकार मानते हैं कि उम्मीद की एक किरण अब नज़र आने लगी है . बताया जा रहा है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आन्दोलन के बढ़ते दायरे पर चिंता जाहिर  की है और किसानों से बात कर रहे प्रमुख लोगों को तलब करके उनको कुछ दिशानिर्देश  दिए हैं. प्रधानमंत्री के घर चली बैठक में कृषिमंत्री नरेंद्र तोमर और उनके सहयोगियों  के अलावा रक्षामंत्री राजनाथ सिंह और गृहमंत्री अमित शाह भी शामिल हुए थे. प्रधानमंत्री आवास पर यह  बैठक देर तक चली और उसी के बाद इमकान है कि कोई रास्ता निकला आयेगा . अभी तक  कृषिमंत्री और उनकी नौकरशाही की कोशिश थी कि किसानों को  तीनों कानूनों की अच्छाइयों को बताकर उनको राजी कर लिया जाएगा . अगर ज़रूरत पड़ी तो सरकार की तरफ से कुछ आश्वासन आदि देकर आन्दोलन को ख़त्म करवा लिया जाएगा  . लेकिन ऐसा नहीं हो  सका. यह बात बातचीत में शामिल  नौकरशाहों को तीन दिसंबर की बैठक के बाद ही  समझ में आ चुकी थी .सरकारी अफसरों को यह भी अंदाज़  लग गया था कि किसानों के नेताओं की काबिलियत कृषि संबंधी मुद्दों पर सरकारी पक्ष से ज्यादा है इसलिए  उनको सरकारी भाषा की ड्राफ्टिंग के चक्कर में नहीं लपेटा जा सकता .    लेकिन नौकरशाही का एक बुनियादी सिद्धांत है कि वह राजनेताओं की इच्छा को ही नीति का स्वरूप देते हैं और उसी हिसाब से फैसले लेते हैं .  पांच दिसंबर की बैठक में भी जब सरकारी तौर पर वही राग शुरू कर दिया गया तो   किसान नेताओं ने नाराज़गी जताई और करीब आधे घंटे का मौन रख कर अपने  गुस्से का इजहार किया .उसके बाद  कृषिमंत्री नरेंद्र तोमर को हालात की गंभीरता पूरी तरह से समझ  में आयी और उन्होंने थोड़ी मोहलत माँगी . उनका कहना था कि सरकार को किसानों  के रुख के हिसाब से अपनी प्रतिक्रिया तय करने के लिए आपस में थोडा अधिक विचार विमर्श करना ज़रूरी है .

अब किसानों और सरकार के बीच अगली बैठक नौ दिसंबर को होगी . उसके पहले आठ दिसंबर को किसान नेताओं ने  भारत बंद का आह्वान किया है . सरकार की भी नज़र इस बंद पर होगी. अगर बंद सफल हुआ तो  सरकार का नज़रिया कुछ और होगा लेकिन अगर बंद फ्लॉप हो गया तो सरकार किसानों के आन्दोलन को कम महत्व देगी और संसद में पास किये गए कानूनों में कोई ख़ास फेरबदल  नहीं करेगी . किसानों को  आन्दोलन ख़त्म करने के लिए बहाना ज़रूर उपलब्ध करवा सकती है .

प्रधानमंत्री के  दखल के बाद बीच का रास्ता  निकलने की उम्मीद बढ़ गयी है .अब तक तो किसान आन्दोलन को केवल पंजाब के किसानों का आन्दोलन कहकर  बात को सीमित करने की कोशिश की जाती रही है लेकिन अब हरियाणा ,उत्तर प्रदेश ,मध्य प्रदेश आदि राज्यों के किसान भी बड़ी संख्या में शामिल हो गए हैं .अब सरकार को पता है कि केवल पंजाब की अमरिंदर सरकार ही किसान आन्दोलन को हवा नहीं दे रही है . उत्तर प्रदेश से आकर आन्दोलन में शामिल होने वाले लगभग सभी किसान वही हैं जिन्होंने अभी पिछले साल हुए लोकसभा चुनावों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को ज़बरदस्त तरीके से समर्थन किया था . हरियाणा सरकार में शामिल दुष्यंत चौटाला की पार्टी के बहुत सारे नेता किसानों के समर्थन में खुलकर आ गए हैं .  दुष्यंत  चौटाला और  चौ. वीरेन्द्र सिंह के सांसद बेटे के खिलाफ खाप पंचायत की तरफ से साम्जैक बहिष्कार की बात भी चल रही है . अभी कल तक केंद्र सरकार में मंत्री रहीं  हरसिमरत कौर बादल की पार्टी शिरोमणि अकाली दल के नेता चंदूमाजरा कोलकता जाकर ममता बनर्जी की पार्टी के नेताओं से मिलकर केंद्र सरकार के खिलाफ क्षेत्रीय पार्टियों को लामबंद करने की कोशिश कर रहे हैं . तमिलनाडु में भी मुख्य  विपक्षी पार्टी , डी एम ने भी किसान आन्दोलन का समर्थन कर दिया है . अब सब को पता है कि किसान आन्दोलन किसी कांग्रेसी या किसी राजनीतिक पार्टी के बहकावे में किया गया आन्दोलन नहीं है . असली किसान अपनी परेशानियों को लेकर सड़क  पर  है और सरकार से अपनी मांगों के लिए समर्थन मांग रहा है .

 

सरकार का रुख भी आन्दोलन के प्रति शत्रुतापूर्ण नहीं है . हरियाणा सरकार के कुछ मूर्खतापूर्ण कार्यों के अलावा  बाकी किसी सरकार ने किसानों के प्रति सख्ती नहीं  दिखाई है . हरियाणा में तो दिल्ली की तरफ बढ़ रहे किसानों के ऊपर इस ठण्ड के मौसम में पानी की बौछार करने वाली तोपों का इस्तेमाल भी किया गया . दिल्ली पुलिस ने भी आन्दोलन की शुरुआत में किसानों को गिरफ्तार करने की योजना बनाई थी और दिल्ली की केजरीवाल सरकार से  मांग की थी कि कुछ अस्थाई जेलें बना दी जाएँ लेकिन दिल्ली सरकार ने साफ़ मना कर  दिया . अब तो बहरहाल  केंद्र सरकार की समझ में भी आ गया है कि किसानों को शत्रु मानने की गलती नहीं करनी चाहिए . सरकार और किसानों के बीच विवाद  में अभी भी विश्वास की कमी है . ट्रस्ट डेफिसिट का आलम है कि किसान नेता अभी भी बैठक के स्थल ,विज्ञान भवन में  सरकार की तरफ से उपलब्ध कराया गया खाना तक  नहीं खा रहे हैं . इसलिए अभी बातचीत के ज़रिये क्सिआनों और सरकार के बीच बहुत लम्बा रास्ता आते होना है . लेकिन यह बात भी सच है कि प्रधानमंत्री के हस्तक्षेप के बाद सरकार का रवैया बदलेगा . सूत्रों के हवाले से जो संकेत आ रहे हैं उनके हिसाब से प्रधानमंत्री ने  आन्दोलन को सुलझा लेने का आदेश दे दिया है. उसके लिए अगर ज़रूरी हुआ तो संशोधन आदि के  रास्ते भी खुले  रखे जा रहे हैं . तीनों ही कानून को रद्द  तो शायद नहीं किया जा सकेगा लेकिन किसानों की जायज़ मांगों के मान लिए जाने का रास्ता अब खुलता नज़र आ रहा है .

 

Thursday, December 3, 2020

किसान आन्दोलन का दायरा बढ़ रहा है


 शेष नारायण सिंह 

सरकार के नए कृषि कानूनों के खिलाफ किसानों का आंदोलन लगातार आठवें दिन भी जारी है।  किसानों ने तय कर रखा है कि पेशेवर राजनेताओं को आन्दोलन को हाइजैक नहीं करने   देंगे . लेकिन कुछ  राजनीतिक  पार्टियां  आंदोलन का समर्थन कर रही हैं . आज जो खबर आई है वह निश्चित रूप से सरकार की चिंता बढ़ा देगी . देश के सबसे  बुज़ुर्ग राजनेता और  शिरोमणि अकाली दल के सर्वेसर्वा प्रकाश सिंह बादल ने पद्म विभूषण सम्मान को  लौटा कर अपना विरोध दर्ज कर दिया है .  प्रकाश सिंह बादल के बेटे सुखबीर बदल की पत्नी हरसिमरत कौर बादल ने  भी  किसान क़ानून वाला बिल पास होने के बाद मंत्री पद से इस्तीफा दे दिया था. उस वक़्त राजनीतिक विश्लेषक उनके इस्तीफे को एक राजनीतिक स्टंट मान रहे थे और बताया जा रहा  था कि किसानों के आन्दोलन की आग ठंडी होने पर वे इस्तीफा वापस लेकर एन डी ए  सरकार में फिर मंत्री बन  जायेंगी  लेकिन लगता है कि अब बात आगे बढ़ गयी है . प्रकाश सिंह बदल का विरोध दर्ज करना मोदी सरकार के लिए बड़ी बात होगी. सीनियर बादल सिखों के बहुत बड़े वर्ग के सम्माननीय नेता हैं और बहुत दिनों से पंजाब के साथ  देश की राजनीति में भी अहम् भूमिका निभाते रहे हैं . बीजेपी के संस्थापकों अटल बिहारी वाजपेयी और लाल कृष्ण आडवानी से उनके बहुत ही अच्छे सम्बन्ध रहे हैं . उनके  साथ के कारण ही  पंजाब में बीजेपी अभी तक सरकार का  हिस्सा रहती रही है . प्रकाश सिंह बादल की तरफ से किसान आंदोलन का समर्थन और कृषि कानूनों का विरोध बड़ी बात है .  सबको  मालूम है कि केंद्र सरकार इस घटना को गंभीरता से लेगी . उनका अवार्ड वापसी का फैसला एक बड़ा फैसला है जिसने साबित कर दिया है कि पंजाब की तीनों प्रमुख राजनीतिक पार्टियां , कांग्रेस, अकाली दल और आम आदमी पार्टी अब केंद्र सरकार की किसान नीति के खिलाफ लामबंद हो गयी हैं और केंद्र सरकार को अब अपनी जिद पर अड़े रहने का कोई औचित्य नहीं है . अब  लगभग यह तय हो गया  है कि देश में किसान कानूनों के खिलाफ उठ रहे तूफ़ान के मद्देनज़र केंद्र सरकार को किसान बिलों में कुछ न कुछ बदलाव करना पडेगा . इस बीच किसान आन्दोलन से होने वाले राजनीतिक नुक्सान  को संभालने की ज़िम्मेदारी कृषिमंत्री नरेंद्र सिंह तोमर संभाल रहे हैं और उनके मुख्य सहयोगी की भूमिका में मुंबई शहर के नेता और पार्टी के एक पूर्व खजांची के बेटे , केंद्रीय रेल मंत्री पीयूष गोयल हैं . नेपथ्य में अमित शाह हैं जिनके दिशा निर्देश में सरकार की प्रतिक्रिया डिजाइन की जा रही है .

प्रकाश सिंह बादल को भी सत्ता की राजनीति का मौसम वैज्ञानिक कहा जाता है . वे लगभग हमेशा से ही सत्ता के केंद्र में रहने वाली पार्टी के साथ पाए जाते हैं . उन्होंने अपना पद्मविभूषण सम्मान वापस करते हुए  राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद को  तीन पन्ने की चिट्ठी लिखी है उससे साफ़ है कि वे पंजाब के किसानों के साथ अपने को विधिवत स्थापित करने की कोशिश कर रहे हैं . चिट्ठी में उन्होंने  कृषि कानूनों का विरोध किया है,किसानों पर हुई पुलिस की कार्रवाई की निंदा की है और उनपर ठण्ड के महीने में पानी की बौछार आदि डालने के काम को अमानवीय  बताया है . चिट्ठी में उन्होंने लिखा है कि,”  मैं जो भी हूं किसानों की वजह से हूं।“

खबर है कि कृषि कानूनों के सवाल पर जारी गतिरोध के बीच पंजाब के मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह ने गुरुवार को गृह मंत्री अमित शाह से  मुलाकात की. कैप्टन अमरिंदर सिंह ने गृह मंत्री से नए कृषि कानूनों के खिलाफ जारी किसानों के प्रदर्शन को समाप्त करने के लिए जल्द समाधान निकालने का आग्रह किया .उन्होंने गृह मंत्री के साथ बैठक में अपना विरोध दोहराया और उनसे इस मुद्दे को हल करने का अनुरोध किया। अमरिंदर सिंह ने कहा कि यह तीनों क़ानून पंजाब की अर्थव्यवस्था को बहुत नुक्सान पंहुचायेंगे .साथ ही साथ  यह राष्ट्र की सुरक्षा को प्रभावित करता है। उनकी सरकार ने विधान सभा में बाकायदा केंद्र के  नए कृषि कानूनों के खिलाफ विधेयक भी पारित किया  है . इस आन्दोलन में जो किसान मारे गए थे उनके परिवारों को पंजाब सरकार ने पांच लाख रुपये की आर्थिक सहायता देने की घोषणा भी की है . अमित शाह से उनकी बात का केंद्र सरकार पर क्या असर पड़ा यह तो मालूम नहीं है लेकिन यह तय है की कृषिमंत्री नरेंद्र  सिंह तोमर और किसान नेताओं के बीच चल रही बातचीत पर उसक कुछ असर ज़रूरे पडेगा .

इस बीच टीवी मीडिया का रुख बहुत ही गैर ज़िम्मेदार है ,वह किसानों की समस्याओं को सही तरीके से पेश न करके  बीजेपी के भोंपू की  तरह  काम कर रहा है . टीवी चैनलों को  किसानों के आन्दोलन में केवल वही बात खबर लायक लगती है जिसके कारण अब शहरों में सब्जी और दूध की किल्लत हो जायेगी या कीमतें बढ़ जायेंगीं .  उसको पैदा करने वाले किसान पर क्या गुज़र रही है ,यह बात एकाध चैनलों को छोड़कर कहीं  भी चर्चा का विषय नहीं बन रही है. सरकारी अफसरमंत्री , सत्ताधारी पार्टियों के नेता जब न्यूनतम समर्थन मूल्य की बात करते हैं तो उनकी शब्दावली बहुत ही तकलीफदेह होती है . उनकी बात इस तर्ज पर होती है कि हमने किसानों को  बहुत अधिक न्यूनतम समर्थन मूल्य दे दिया है . कई बार तो ऐसे लगता है जैसे किसी अनाथ को या भिखारी को कुछ देने की बात की जा रही हो. यह किसान का अपमान है उम्मीद की जानी चाहिए कि दिल्ली के चारों तरफ चल रहे आन्दोलन से मीडिया भी कुछ सबक लेगा और ज़िम्मेदारी का आचरण करेगा

 

Wednesday, December 2, 2020

पत्रकारिता और सर्वोच्च इंसानी मान्यताओं के अजातशत्रु थे ललित सुरजन

 

शेष नारायण सिंह

 

ललित सुरजन जी  चले गए . 74 साल की उम्र भी जाने की कोई उम्र है लेकिन उन्होंने हमको अलविदा कह दिया . देशबंधु अखबार के प्रधान संपादक थे . वे एक सम्मानित कवि व लेखक थे .सामाजिक मुद्दों पर बेबाक राय रखते थे ,उनके लिए शामिल होते थे इसलिए  उनके जानने वाले उन्हें एक सामाजिक कार्यकर्ता भी मानते हैं . वे साहित्यशिक्षापर्यावरणसांप्रदायिक सदभाव व विश्व शांति से सम्बंधित मुद्दों पर हमेशा बेबाक राय  रखते थे . दुनिया भर के देशों की संस्कृति और रीति रिवाजों की जानकारी रखने का भी उनको बहुत शौक़ था.  उनके स्तर का यात्रा वृत्तान्त लिखने वाला मैंने दूसरा नहीं देखा .ललित सुरजन एक आला और नफीस  इंसान थे. देशबन्धु अखबार के संस्थापक स्व मायाराम सुरजन के बड़े बेटे थे. मायाराम जी मध्यप्रदेश के नेताओं और पत्रकारों के बीच बाबू जी के रूप में पहचाने जाते थे .वे मध्यप्रदेश में पत्रकारिता के मार्गदर्शक माने जाते थे उन्होंने मध्यप्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन को बहुत ही सम्मान दिलवाया .वे नए लेखकों के लिए खास शिविर आयोजित करते थे और उनको अवसर देते थे . बाद में उनमें से बहुत सारे लेखक बहुत बड़े साहित्यकार बनेउनमें से एक महान साहित्यकार प्रोफ़ेसर काशीनाथ सिंह भी हैं. ‘अपना मोर्चा ‘ जैसे कालजयी उपन्यास के लेखक डॉ काशीनाथ सिंह ने मुझे एक बार बताया कि मायाराम जी ने उनको बहुत शुरुआती दौर में मंच  दिया था. महान लेखक हरिशंकर परसाई जी से उनके पारिवारिक सम्बन्ध थे . स्व मायाराम जी के सारे सद्गुण ललित जी में भी थी .उन्होंने 1961 में  देशबन्धु में एक जूनियर पत्रकार के रूप में काम शुरू किया .  उनको साफ़ बता दिया गया  था कि अखबार के संस्थापक के बेटे होने का कोई विशेष लाभ  नहीं होगाअपना रास्ता खुद तय करना होगाअपना सम्मान  कमाना होगा ,देशबंधु केवल एक अवसर  है ,उससे ज्यादा कुछ नहीं .ललित सुरजन ने वह सब काम किया जो एक नए रिपोर्टर को करना होता है.और अपने महान पिता के सही अर्थों में वारिस बने . पिछले साठ साल की मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ की हर राजनीतिक गतिविधि को उन्होंने एक पत्रकार के रूप में देखाअपने स्वर्गीय पिता जी को आदर्श माना और कभी भी राजनीतिक नेताओं के सामने सर नहीं झुकाया.  द्वारिका प्रसाद मिश्र  और रविशंकर शुक्ल उनके पिता स्व मायाराम जी सुरजन के समकालीन थे,इस लिहाज़ से उनको वह सम्मान तो दिया लेकिन उनकी राजनीति का हथियार कभी  नहीं बनेअपने अखबार को किसी भी नेता के हित के लिए इस्तेमाल नहीं होने दिया .जब दिसंबर 1994 में मायाराम जी के स्वर्गवास हुआ तो अखबार की पूरी ज़िम्मेदारी उनके कन्धों पर आ गयी . दिल्ली,,रायपुर, बिलासपुरभोपालजबलपुर सतना और सागर से छपने अखबार को  मायाराम जी की मान्यताओं के हिसाब से निकालते रहे.

ललित जी बहुत ही  विनम्र और दृढ व्यक्ति थे अपनी सही मानयताओं से कभी समझौता नहीं किया .कई बार बड़ी कीमतें भी चुकाईं। अखबार चलाने में आर्थिक तंगी भी आई और अन्य परशानियाँ भी हुईं लेकिन यह अजातशत्रु कभी झुका नहीं .उन्होंने कभी  किसी से दुश्मनी नहीं की. जिन लोगों ने उनका नुकसान किया उनको भी हमेशा माफ़ करते रहे . ललित सुरजन के बारे में कहा  जाता  है कि उन्होंने कभी भी बदला लेने की भावना से काम नहीं किया .

 

 

ललित जी अपने भाइयों को बहुत प्यार करते  हैं. सभी भाइयों को देशबंधु के अलग अलग संस्करणों की ज़िम्मेदारी दे दी . आजकल वानप्रस्थ जीवन जी रहे थे लेकिन लेखन में एक दिन की भी चूक नहीं हुई. कोरोना के दौर में उनको कैंसर का पता लगा विमान और ट्रेन सेवाएँ ठप थीं लीकिन उनके बच्चों ने उनको विशेष विमान से दिल्ली में लाकर इलाज शुरू करवाया. वे  कैंसर से ठीक हो रहे थे . उनकी मृत्यु ब्रेन हैमरेज से हुई. कैंसर का इलाज सही चल रहा था लेकिन काल ने उनको ब्रेन हैमरेज देकर उठा लिया .

ललित जी का जाना मेरे लिए बहुत बड़ा व्यक्तिगत नुक्सान है . उनके साथ खान मार्किट के बाहरी संस की किताब की दुकान पर जाना एक ऐसा अनुभव है जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता . वह मेरे लिए एक शिक्षा की यात्रा भी होती थी. जो भी किताब छपी उसको उन्होंने अवश्य पढ़ा . अभी राष्ट्रपति बराक ओबामा की किताब आई है उसका इंतज़ार वे बहुत बेसब्री से कर रहे थे  .  उनके जन्मदिन पर बधाई सन्देश का  मेसेज करने के बाद मैं उनके फोन का इंतज़ार करता रहता था कि अब फोन आने वाला है .हुआ  यह था उनके असली जन्मदिन और  फेसबुक पर लिखित जन्मदिन में थोडा अंतर था. अगर गलत वाले दिन  मेसेज लिख दिया  तो फोन करके बताते थे ,शेषजी आपसे गलती हो गयी . जब किसी साल सही वाले पर मेसेज दे दिया तो कहते थे कि इस बार आपने सही मेजेस भेजा .अब यह नौबत कभी नहीं आयेगी क्योंकि अब उनके जीवन में कराल काल ने एक पक्की तारीख  लिख दी है.,वह उनकी मृत्यु की तारीख है . इस मनहूस तारीख को उनका हर चाहने वाला कभी  नहीं भुला पायेगा . उनके अखबार में मैं काम करता हूँ लेकिन उन्होंने यह अहसास कभी नहीं होने दिया कि मैं कर्मचारी हूँ.  आज उनके जाने के बाद लगता है कि काल ने मेरा बड़ा भाई चीन लिया . आपको कभी नहीं भुला पाऊंगा ललित जी .

संयुक्त राष्ट्र में भारत का ऐलान - आतंकवाद दुनिया का सबसे बड़ा संकट


 

शेष नारायण सिंह

 

दूसरे विश्वयुद्ध के खात्मे के 75 साल पूरे हो गए .इस अवसर पर संयुक्त राष्‍ट्र में एक विशेष बैठक का आयोजन किया गया .  सदस्य देशों ने अपनी बातें रखीं .भारत की तरफ से कहा गया कि दूसरा विश्वयुद्ध वास्तव में  आतंकवाद का नतीजा था .भारत की तरफ से कहा गया कि आतंकवाद दुनिया के समक्ष एक बड़ा संकट है। इस संकट को हराने के लिए वैश्विक एकजुटता और इसके खिलाफ सख्‍त कार्रवाई की जरूरत है। समकालीन दुनिया में आतंकवाद युद्ध शुरू करने के एक प्रेरक और साधन के रूप में उभरा है। ज़रूरत इस बात की है कि सभी देश  संयुक्‍त राष्‍ट्र की मूल मान्यताओं के प्रति एक  बार फिर समर्पण करने का संकल्प लें .वास्तव में संयुक्‍त राष्‍ट्र का गठन ही युद्ध के खिलाफ विश्वजनमत का ऐलान था .संयुक्त राष्ट्र का एक प्रमुख लक्ष्य  यह भी था कि बाद  की पीढि़यों को युद्ध के संकट से बचाया जा सके। आतंकवाद आज की दुनिया में युद्ध छेड़ने का एक साधन है . इसको तबाह करने के  लिए सभी देशों को एकजुट होना पडेगा . 

 

 मानवता के इतिहास में इंसानी आतंक को समझने के लिए द्वितीय विश्वयुद्ध एक अवसर देता है .जर्मनी के तानाशाह हिटलर और इटली के मुसोलिनी ने पूरे यूरोप में  ,उनके  सहयोगी जापान के शासक ने एशिया में आतंक का राज कायम करने की कोशिश की .थी  लेकिन विश्व की न्यायप्रिय जनता ने उनको पराजित किया . इंग्लैण्ड, फ्रांस सहित यूरोप के अन्य देशों में हिटलरी आतंक का डंका बज रहा था . उन दिनों यूरोप के ज्यादातर देशों में राजाओं का शासन था . अमरीका में लोकतंत्र की व्यवस्था थी . दूसरे विश्वयुद्ध में अमरीका  प्रमुख भूमिका अदा कर रहा था.  सब ने मिलकर आतंकवादी हिटलर की तानाशाही सोच को हराया और दुनिया को आतंक के राज से मुक्त किया . उसके बाद पूरी  दुनिया में लोकतंत्र की बयार बहने लगी थी . इंगलैंड के लोकतंत्र को ज़्यादातर देशों ने अपनाया . लिबरल डेमोक्रेटिक सोच और राजनीति का माहौल बना . दूसरे विश्वयुद्ध के बाद बहुत सारे देशों  को आजादी नसीब हुई. एशिया और अफ्रीका के कई देश आज़ाद हुए और ज्यादातर देशों में लोकतंत्र की शासन प्रणाली कायम करने की कोशिश की गयी . किसी के एक व्यक्ति की तानाशाही की संस्कृति को तिरस्कार की नज़र से  देखा जाने लगा. लेकिन वह बहुत दिन नहीं चला . कुछ देशों में लोकतांत्रिक तरीके से चुनकर प्रधानमन्त्री या राष्ट्रपति बनने वाले लोगों ने अपने परिवार को ही सत्ता देने की कोशिश शुरू कर दिया . उनके परिवारों ने सत्ता पर क़ब्ज़ा करने के तरह  तरह के हथकंडे अपनाए .. रूस में तो कम्युनिस्ट क्रान्ति 1917 में ही आ चुकी थी लेकिन चीन जैसे देशों में दूसरे विश्वयुद्ध के बाद सर्वहारा की सत्ता कायम हुई लेकिन देखा यह गया कि पार्टी का सर्वोच्च व्यक्ति इतनी ताकत इकट्ठी कर लेता था कि वह मनमानी करने लगता था . चीन में माओत्से तुंग ने यही किया . बाद के चीनी शासकों ने भी यही किया और उनके मौजूदा शासक का आलम तो यह  है कि उसने अपने आपको आजीवन राष्ट्रपति बना लिया  है . यही तानाशाही है , यही आतंकवाद है .  ऐसा इलसिए संभव हो सका क्योंकि विश्वजनमत कमज़ोर पड़ रहा था. विश्वयुद्ध ख़त्म  होने के कुछ अरसा  ही  में शीतयुद्ध शुरू हो गया . अमरीका अपना   प्रभाव क्षेत्र बढाने के लिए अपने विश्वासपात्र तानाशाहों को आगे बढाने लगा. अमरीका की इसी  प्रवृत्ति के कारण दुनिया के कई देशों में तानाशाही और आतंक की खेती होने लगी. पाकिस्तान, अल-कायदा, तालिबान, सद्दाम  हुसैन आदि अमरीकी स्वार्थों की सोच की उपज हैं .

 

आज लोकतन्त्र को सबसे खतरा  आतंकवादी संगठनों से है . जैश-ए-मोहम्म्द ,लश्कर-ए-तैयबा,  हिजबुल मुजाहिदीन , इंडियन मुजाहिदीन, अल कायदा ,हक्कानी नेटवर्क ,तहरीक-ए-तालिबान ,हरकत-उल-मुजाहिदीन ,इस्लामिक स्टेट जैसे संगठन लोकतंत्र को ख़त्म करने की साज़िश हमेशा रचते रहते हैं . भारत ने संयुक्त राष्ट्र के विशेष सत्र में आतंकवाद को ख़त्म करने की जो अपील की है ,वह इन जैसे संगठनों को निष्क्रिय करने की अपील है . यह सारे  संगठन पूरी  दुनिया में एक ख़ास तरह की हुकूमत कायम करना चाहते  हैं और  उनका धर्म इस तरह का निजामे-मुस्तफा  स्थापित कारने की  प्रेरणा देता  है . यह सारे  संगठन मूल रूप से आतंकवादी  हैं और अपने अलावा किसी की नहीं सुनते . जब यह ताक़तवर हो जाते हैं तो यह हिटलर भी बन सकते हैं और स्टालिन भी . यह सभी किसी न किसी आदर्श का चोगा ओढ़े रहते हैं लेकिन मूलरूप से लोकतंत्र के दुश्मन होते हैं . जब  ताकतवर हो जाते हैं तो पूरी दुनिया को कब्जे में लेना चाहते हैं . अल-कायदा और इस्लामिक स्टेट का यही सपना है . ज़रूरत इस बात की है अपनी मनमानी करने वाले कहीं भी  हों उनका  विरोध किया जाए , उनको निष्क्रिय किया जाय.  हिटलर के आतंकवाद के नक्शे क़दम पर आजकल  तुर्की का शासक एर्दोगन भी चल  रहा है . वह भी खलीफा बनने  के सपने देख रहा है और दुनिया भर के  इस्लामी आतंकवादियों को समर्थन दे रहा है . उसपर भी लगाम लगाना ज़रूरी है .यह सारी जमाते लोकतन्त्र के काम करने वाली जमाते  हैं . संयुक्त राष्ट्र में हुए विशेष अधिवेशन का यही सन्देश है