Thursday, December 17, 2020

किसान आन्दोलन में सरकार झुकेगी कि किसान ?


 शेष नारायण सिंह 

 दिल्ली में जुटे किसानों का आन्दोलन दस दिन के बाद भी जारी  है . कल तक  कहीं किसी समझौते की राह दूर दूर तक नहीं दिख रही  थी लेकिन अब जानकार मानते हैं कि उम्मीद की एक किरण अब नज़र आने लगी है . बताया जा रहा है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आन्दोलन के बढ़ते दायरे पर चिंता जाहिर  की है और किसानों से बात कर रहे प्रमुख लोगों को तलब करके उनको कुछ दिशानिर्देश  दिए हैं. प्रधानमंत्री के घर चली बैठक में कृषिमंत्री नरेंद्र तोमर और उनके सहयोगियों  के अलावा रक्षामंत्री राजनाथ सिंह और गृहमंत्री अमित शाह भी शामिल हुए थे. प्रधानमंत्री आवास पर यह  बैठक देर तक चली और उसी के बाद इमकान है कि कोई रास्ता निकला आयेगा . अभी तक  कृषिमंत्री और उनकी नौकरशाही की कोशिश थी कि किसानों को  तीनों कानूनों की अच्छाइयों को बताकर उनको राजी कर लिया जाएगा . अगर ज़रूरत पड़ी तो सरकार की तरफ से कुछ आश्वासन आदि देकर आन्दोलन को ख़त्म करवा लिया जाएगा  . लेकिन ऐसा नहीं हो  सका. यह बात बातचीत में शामिल  नौकरशाहों को तीन दिसंबर की बैठक के बाद ही  समझ में आ चुकी थी .सरकारी अफसरों को यह भी अंदाज़  लग गया था कि किसानों के नेताओं की काबिलियत कृषि संबंधी मुद्दों पर सरकारी पक्ष से ज्यादा है इसलिए  उनको सरकारी भाषा की ड्राफ्टिंग के चक्कर में नहीं लपेटा जा सकता .    लेकिन नौकरशाही का एक बुनियादी सिद्धांत है कि वह राजनेताओं की इच्छा को ही नीति का स्वरूप देते हैं और उसी हिसाब से फैसले लेते हैं .  पांच दिसंबर की बैठक में भी जब सरकारी तौर पर वही राग शुरू कर दिया गया तो   किसान नेताओं ने नाराज़गी जताई और करीब आधे घंटे का मौन रख कर अपने  गुस्से का इजहार किया .उसके बाद  कृषिमंत्री नरेंद्र तोमर को हालात की गंभीरता पूरी तरह से समझ  में आयी और उन्होंने थोड़ी मोहलत माँगी . उनका कहना था कि सरकार को किसानों  के रुख के हिसाब से अपनी प्रतिक्रिया तय करने के लिए आपस में थोडा अधिक विचार विमर्श करना ज़रूरी है .

अब किसानों और सरकार के बीच अगली बैठक नौ दिसंबर को होगी . उसके पहले आठ दिसंबर को किसान नेताओं ने  भारत बंद का आह्वान किया है . सरकार की भी नज़र इस बंद पर होगी. अगर बंद सफल हुआ तो  सरकार का नज़रिया कुछ और होगा लेकिन अगर बंद फ्लॉप हो गया तो सरकार किसानों के आन्दोलन को कम महत्व देगी और संसद में पास किये गए कानूनों में कोई ख़ास फेरबदल  नहीं करेगी . किसानों को  आन्दोलन ख़त्म करने के लिए बहाना ज़रूर उपलब्ध करवा सकती है .

प्रधानमंत्री के  दखल के बाद बीच का रास्ता  निकलने की उम्मीद बढ़ गयी है .अब तक तो किसान आन्दोलन को केवल पंजाब के किसानों का आन्दोलन कहकर  बात को सीमित करने की कोशिश की जाती रही है लेकिन अब हरियाणा ,उत्तर प्रदेश ,मध्य प्रदेश आदि राज्यों के किसान भी बड़ी संख्या में शामिल हो गए हैं .अब सरकार को पता है कि केवल पंजाब की अमरिंदर सरकार ही किसान आन्दोलन को हवा नहीं दे रही है . उत्तर प्रदेश से आकर आन्दोलन में शामिल होने वाले लगभग सभी किसान वही हैं जिन्होंने अभी पिछले साल हुए लोकसभा चुनावों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को ज़बरदस्त तरीके से समर्थन किया था . हरियाणा सरकार में शामिल दुष्यंत चौटाला की पार्टी के बहुत सारे नेता किसानों के समर्थन में खुलकर आ गए हैं .  दुष्यंत  चौटाला और  चौ. वीरेन्द्र सिंह के सांसद बेटे के खिलाफ खाप पंचायत की तरफ से साम्जैक बहिष्कार की बात भी चल रही है . अभी कल तक केंद्र सरकार में मंत्री रहीं  हरसिमरत कौर बादल की पार्टी शिरोमणि अकाली दल के नेता चंदूमाजरा कोलकता जाकर ममता बनर्जी की पार्टी के नेताओं से मिलकर केंद्र सरकार के खिलाफ क्षेत्रीय पार्टियों को लामबंद करने की कोशिश कर रहे हैं . तमिलनाडु में भी मुख्य  विपक्षी पार्टी , डी एम ने भी किसान आन्दोलन का समर्थन कर दिया है . अब सब को पता है कि किसान आन्दोलन किसी कांग्रेसी या किसी राजनीतिक पार्टी के बहकावे में किया गया आन्दोलन नहीं है . असली किसान अपनी परेशानियों को लेकर सड़क  पर  है और सरकार से अपनी मांगों के लिए समर्थन मांग रहा है .

 

सरकार का रुख भी आन्दोलन के प्रति शत्रुतापूर्ण नहीं है . हरियाणा सरकार के कुछ मूर्खतापूर्ण कार्यों के अलावा  बाकी किसी सरकार ने किसानों के प्रति सख्ती नहीं  दिखाई है . हरियाणा में तो दिल्ली की तरफ बढ़ रहे किसानों के ऊपर इस ठण्ड के मौसम में पानी की बौछार करने वाली तोपों का इस्तेमाल भी किया गया . दिल्ली पुलिस ने भी आन्दोलन की शुरुआत में किसानों को गिरफ्तार करने की योजना बनाई थी और दिल्ली की केजरीवाल सरकार से  मांग की थी कि कुछ अस्थाई जेलें बना दी जाएँ लेकिन दिल्ली सरकार ने साफ़ मना कर  दिया . अब तो बहरहाल  केंद्र सरकार की समझ में भी आ गया है कि किसानों को शत्रु मानने की गलती नहीं करनी चाहिए . सरकार और किसानों के बीच विवाद  में अभी भी विश्वास की कमी है . ट्रस्ट डेफिसिट का आलम है कि किसान नेता अभी भी बैठक के स्थल ,विज्ञान भवन में  सरकार की तरफ से उपलब्ध कराया गया खाना तक  नहीं खा रहे हैं . इसलिए अभी बातचीत के ज़रिये क्सिआनों और सरकार के बीच बहुत लम्बा रास्ता आते होना है . लेकिन यह बात भी सच है कि प्रधानमंत्री के हस्तक्षेप के बाद सरकार का रवैया बदलेगा . सूत्रों के हवाले से जो संकेत आ रहे हैं उनके हिसाब से प्रधानमंत्री ने  आन्दोलन को सुलझा लेने का आदेश दे दिया है. उसके लिए अगर ज़रूरी हुआ तो संशोधन आदि के  रास्ते भी खुले  रखे जा रहे हैं . तीनों ही कानून को रद्द  तो शायद नहीं किया जा सकेगा लेकिन किसानों की जायज़ मांगों के मान लिए जाने का रास्ता अब खुलता नज़र आ रहा है .

 

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