शेष नारायण सिंह
खबर आ रही है कि कोलकाता के दौरे पर गए बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा के काफिले पर पथराव हुआ है . उनके काफिले पर हमला करने वाले सत्ताधारी तृणमूल कांग्रेस पार्टी के कार्यकर्ता बताये जा रहे हैं . बंगाल में माना जाता है कि तृणमूल कांग्रेस आजकल मुख्यमन्त्री ममता बनर्जी और उनके भतीजे अभिषेक बनर्जी के स्वामित्व वाली पार्टी बन गयी है. तृणमूल कांग्रेस को डर है कि बंगाल की राजनीति में कांग्रेस और लेफ्ट फ्रंट के हाशिये पर चले जाने के बाद उनकी सत्ता को अगर कोई ख़तरा है तो वह बीजेपी से है .शायद इसीलिये वे बीजेपी वालों को सत्ता तक आने देने से रोकना चाहते हैं . इस काम में उनको बाहुबलियों के एक वर्ग का समर्थन मिल रहा है . बीजेपी के उठान के पहले तृणमूल कांग्रेस के खिलाफ जो बाहुबली होते थे वे लेफ्ट फ्रंट के साथ होते थे लेकिन वे आजकल बीजेपी के साथ हो गए हैं . इस तरह से वहां की सड़कों और गावों में दोनों पक्षों के बाहुबलियों का आतंक है . लोकतंत्र का दुर्भाग्य है कि ज़्यादातर चुनाव बाहुबलियों की ताक़त के बीच ही होने लगे हैं . बाहुबलियों के प्रभाव से चुनाव जीतने की संस्कृति से हमारे लोकतंत्र को भारी ख़तरा है और उस खतरे को फ़ौरन ख़त्म करने की ज़रूरत है . अगर ऐसा करने में देरी की गयी तो हमारे लोकतंत्र पर बदमाशों का कब्ज़ा हो जाएगा.
हमारे लोकतंत्र के तीन स्तंभ हैं . न्यायपालिका , विधायिका और कार्यपालिका . न्याय पालिका तो अपना काम कर ही रही है लेकिन कार्यपालिका और विधायिका के काम में बाधाएं आ रही हैं . गठबंधन सरकारों के दौर में हमने देखा है कि संसद का काम इसलिए नहीं हो पाता था कि सरकार में शामिल पार्टियां सरकार यानी कार्यपालिका के कुछ फैसलों से खुश नहीं रहती थीं . नतीजा यह होता है कि वे सरकार पर गलत काम करवाने के लिए बेजा दबाव डालती थीं . इसी तरह जब विपक्ष की पार्टियां सरकार के काम से खुश नहीं रहतीं तो कार्यपालिका पर दबाव डालने के लिए वह विधायिका को अपना काम नहीं करने देती , संसद और विधानसभाओं में हल्ला गुल्ला इसी वजह से होता है . इस सारी मुसीबत को खत्म करने का एक बहुत सही तरीका यह है कि विधायिका और कार्यपालिका का काम अलग अलग लोग करें . यानी जो लोग विधायिका यानी एम पी या एम एल ए हैं वे कार्यपालिका से अलग रहें यानी मंत्री न बनाए जाएँ . वे कार्यपालिका के काम की निगरानी रखें उन पर नज़र रखें और संसद की सर्वोच्चता को स्थापित करने में योगदान दें. अभी यह हो रहा है कि जो लोग संसद के सदस्य है , संसद की सर्वोच्चता के संरक्षक हैं वे ही सरकार में शामिल हो जाते हैं और कार्यपालिका भी बन जाते हैं . गौर करने की बात यह है कि जब भी संसद की कार्यवाही को हल्ला गुल्ला करके रोका गया है वह विरोध कार्यपालिका के किसी फैसले के बारे में था . यानी संसद का जो विधायिका के रूप में काम करने का मुख्य काम है उसकी वजह से संसद में हल्ला गुल्ला कभी नहीं हुआ. हल्ला गुल्ला इसलिए हुआ कि संसद के सदस्यों का जो अतिरिक्त काम है , कार्यपालिका वाला, उसकी वजह से संसद को काम करने का मौका नहीं मिला. इसलिए अब इस बात पर गंभीरता से विचार करने की ज़रूरत है कि कार्यपालिका और विधायिका का काम अलग अलग लोगों को दिया जाए. यानी ऐसे नियम बना दिए जाएँ जिसके बाद कोई भी संसद सदस्य या कोई भी विधायक मंत्री न बन सके. संसद या विधानमंडलों के सदस्य के रूप में नेता लोग अपना काम करें , यानी कानून बनायें और उन कानूनों को लागू करने वाली कार्यपालिका के काम की निगरानी करें . मंत्री ऐसे लोग बने जो संसद या विधानमंडलों के सदस्य न हों . यहाँ यह गौर करने की बात है कि नौकरशाही को काबू में रखना भी ज़रूरी है वर्ना वे तो ब्रिटिश नजराना संस्कृति के वारिस हैं, वे तो सब कुछ लूटकर रख देगें. अगर संसद या विधानसभा का सदस्य बनकर केवल क़ानून बनाने का काम मिलने की बात होगी तो इन सदनों में बाहुबली बिलकुल नहीं आयेगें.उसके दो कारण हैं . एक तो उन्हें मालूम है कि कानून बनाने के लिए संविधान और कानून और राजनीतिशास्त्र का ज्ञान होना चाहिए . दूसरी बात यह है कि जब उन्हें मालूम हो जाएगा कि संसद के सदस्य बनकर कार्यपालिका के फैसलों या ठेका देने की शक्ति पर उनका डाइरेक्ट नियंत्रण नहीं रहेगा तो उनकी रूचि खत्म हो जायेगी. क्योंकि रिश्वत की मलाई तो मंत्री बनकर ही नसीब होती है ..
इस तरह हम देखते हैं कि अगर विधायिका को कार्यपालिका से अलग कर दिया जाए तो देश का बहुत भला हो जाएगा. यह कोई अजूबा आइडिया नहीं है . अमरीका में ऐसी ही व्यवस्था है . अपने संसदीय लोकतंत्र को जारी रखते हुए यह किया जा सकता है कि बहुमत दल का नेता मुख्यमंत्री या प्रधान मंत्री बन जाए और वह संसद या विधान मंडलों के बाहर से अपना राजनीतिक मंत्रिमंडल बनाये. एक शंका उठ सकती है कि वही बाहुबली और भ्रष्ट नेता चुनाव नहीं लड़ेगें और मंत्री बनने के चक्कर में पड़ जायेगें और वही काम शुरू कर देगें जो अभी करते हैं . लेकिन यह शंका निर्मूल है . क्योंकि जब सरकार गिराना या सरकार बनाना उनकी औकात के बाहर होगा तो कोई भी मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री उनको कोई महत्व नहीं देगा ,किसी बदमाश को अपने मंत्रिमंडल में नहीं शामिल करेगा . संसद का काम यह रहे कि मंत्रिमंडल के काम की निगरानी रखे . यह मंत्रिमंडल राजनीतिक फैसले ले और मौजूदा नौकरशाही को ईमानदारी से काम करने के लिए मजबूर करे. यह संभव है और इसके लिए कोशिश की जानी चाहिए . कार्यपालिका और नौकरशाही पर अभी भी संसद की स्टैंडिंग कमेटी कंट्रोल रखती है और वह हमारी लोकशाही का एक बहुत ही मज़बूत पक्ष है . स्टैंडिंग कमेटी की मजबूती का एक कारण यह भी है कि उसमें कोई भी मंत्री सदस्य के रूप में शामिल नहीं हो सकता . स्टैंडिंग कमेटी मंत्रिमंडल के काम पर निगरानी भरी नज़र रखती है . आज जो काम स्टैंडिंग कमेटी कर रही है वही काम पूरी संसद का हो जाए तो चुनाव सुधार का बहुत पुराना एजेंडा भी लागू हो जाएगा और अमरीका की तरह विधायिका की सर्वोच्चता भी स्थापित हो जायेगी.
भारत में भ्रष्टाचार के समकालीन इतिहास पर नज़र डालें तो साफ़ समझ में आ जाता है कि इस काम में राजनीतिक बिरादरी नंबर एक पर है. राजनेता, एम पी या एम एल ए का चुनाव जीतता है और केन्द्र या राज्य में मंत्री बन जाता है . मंत्री बनते ही कार्यपालिका के राजनीतिक फैसलों का मालिक बन बैठता है . और उन्हीं फैसलों की कीमत के रूप में घूस स्वीकार करना शुरू कर देता है. जब राजनेता भ्रष्ट हो जाता है तो उसके मातहत काम करने वाली नौकरशाही को भ्रष्टाचार करने का लाइसेंस मिल जाता है और वह पूरी मेहनत और बेईमानी के साथ घूस वसूलने में जुट जाता है. फिर तो नीचे तक भ्रष्टाचार का राज कायम हो जाता है. भ्रष्टाचार के तत्व निरूपण में जाने की ज़रूरत इसलिए नहीं है कि भ्रष्टाचार हमारे सामाजिक राजनीतिक जीवन का इतना महत्वपूर्ण हिस्सा बन चुका है कि उसके बारे में किसी भी भारतीय को कुछ बताना बिकुल बेकार की कवायद होगी. इस देश में जो भी जिंदा इंसान है वह भ्रष्टाचार की चारों तरफ की मौजूदगी को अच्छी तरह जानता है .
उत्तर प्रदेश में भ्रष्टाचार को अंदर से देख और झेल रहे मेरे एक अफसर मित्र से चर्चा के दौरान भ्रष्टाचार को खत्म करने के कुछ दिलचस्प तर्क सामने आये. उत्तर प्रदेश की नौकरशाही में अफसरों का एक वर्ग ऐसा भी है जो भ्रष्टाचार के खिलाफ है लेकिन जल में रहकर मगर से वैर नहीं करता और नियम कानून की सीमाओं में रहकर अपना काम करता रहता है .मेरे अफसर मित्र उसी वर्ग के हैं . उन्होंने भ्रष्टाचार को खत्म करने के कई गुर बताए लेकिन सिद्धांत के स्तर पर जो कुछ उन्होंने बताया ,वह फील्ड में काम करने वाले उस योद्धा के तर्क हैं जो भ्रष्टाचार की मार का सोते जागते मुकाबला करता रहता है . जब तक एक कलक्टर या एस डी एम जाग रहा होता है उसे को न कोई नेता या मंत्री या उसका बड़ा अफसर भ्रष्टाचार के तहत कोई न कोई काम करने की सिफारिश करने को कहता रहता है . उन्होंने बताया कि जिलों में सबसे ज्यादा भ्रष्ट राजनीतिक नेता होते हैं . जो लोग मंत्री हो जाते हैं वे तो हर काम को अपनी मर्जी से करवाने को अपना जन्मसिद्ध अधिकार मानते हैं . उसके बाद मंत्री जी के चमचों का नंबर आता है. यह चमचा वाली संस्था तो बनी ही भ्रष्टाचार का निजाम कायम रखने के लिए है. उसके बाद वे नेता आते हैं जो विधायक या सांसद बन चुके होते हैं लेकिन मंत्री नहीं बन पाते . यह सरकारी पक्ष के ही होते हैं . सरकारी पक्ष के नेताओं के बाद विपक्ष की पार्टियों के विधायकों और सांसदों का नंबर आता है जिनके चमचे भी सक्रिय रहते हैं . इस वर्ग के नेता भी कम ताक़तवर नहीं होते और उनका भी खर्चा पानी घूस की गिजा पर ही चलता है . उसके बाद उन नेताओं का नंबर आता है जो भूतपूर्व हो चुके होते हैं . भूतपूर्व के बाद वे नेता आते हैं जिनको अभी चुनावी सफलता नहीं मिली है या कि मिलने वाली है .
कुल मिलाकर यह देखा गया है कि सरकारी फैसलों को घूस की चाभी से अपने पक्ष में करने वाले लोगों में सबसे आगे वही लोग होते हैं जो राजनीति के क्षेत्र से आते हैं .अगर चुनाव जीतने वालों को स्पष्ट रूप से पता हो कि वह मंत्री नहीं बनेगा ,उसे अमरीकी सेनेटर की तरह काम करने पडेगा और उसके लिए पढना लिखना ज़रूरी होगा तो पत्थर फेंकने वाले गुंडे और बाहुबलियों के चेले और बाहुबली जमातें कभी भी चुनावी राजनीति में शामिल नहीं होंगी और देश का बहुत भला होगा . अगर ऐसा हुआ तो जो गुंडे आजकल बंगाल में विरोधी नेताओं पर पथराव कर रहे हैं उनको कोई पूछने वाला नहीं होगा .
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