शेष नारायण सिंह
दिल्ली की सीमा पर आन्दोलन कर रहे किसान नेताओं ने केंद्र सरकार के प्रस्ताव को नामंजूर कर दिया है और अपने आन्दोलन को तेज़ करने का ऐलान किया है .केंद्र सरकार बहुत बड़ी दुविधा में है . आन्दोलन के समर्थन में विपक्ष भी कूद पडा है और 2015 जैसा माहौल बनाने की कोशिश कर रहा है जब केंद्र सरकार ने किसानों की ज़मीन के अधिग्रहण से सम्बंधित कानून पास करने की कोशिश की थी . पिछले दो महीने में केंद्र सरकार और किसान नेताओं के बीच बातचीत के कई दौर हो चुके हैं लेकिन किसान खेती से सम्बंधित उन तीन कानूनों को रद्द करने की अपनी मांग पर अड़े हुए हैं जिनको भारतीय संसद ने इस साल पास किया था . बीजेपी के अध्यक्ष जे पी नड्डा ने दावा किया है कि आन्दोलन को कुछ निहित स्वार्थ वाले ही हवा दे रहे हैं ,उसको किसानों का समर्थन नहीं है . उन्होंने राजस्थान हुए पंचायत चुनाव के नतीजों का ज़िक्र किया और कहा कि कांग्रेस शासित राज्य में हुए पंचायत चुनावों में बीजेपी के उम्मीदवारों की भारी बढ़त इस बात का संकेत है कि देश का किसान नरेंद्र मोदी और उनकी नीतियों में पूरा भरोसा रखता है . उसको विश्वास है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी किसानों के हित की अनदेखी नहीं करेंगे .बीजेपी का आरोप है कि यह किसान आन्दोलन मूल रूप से बिचौलियों के समर्थन के बल पर चल रहा है . इसके बावजूद भी केंद्र सरकार किसानों के आन्दोलन को नज़रंदाज़ नहीं कर सकती क्योंकि पंजाब के अलावा दिल्ली का घेरा डालने वाले अधिकतर किसान बीजेपी के समर्थक हैं. इसीलिये बार बार की बातचीत के बाद कोई हल न निकलने पर भी सरकार शक्ति प्रदर्शन से परहेज कर रही है .गृहमंत्री अमित शाह से किसान नेताओं की मुलाक़ात के बाद केंद्र सरकार ने जो प्रस्ताव भेजा था उसमें उपज की खरीद पर न्यूनतम समर्थन मूल्य ( MSP ) और सरकारी मंडियों की बात की गयी थी. बहुत ही विस्तृत प्रस्ताव नहीं था लेकिन बातचीत के लिए एक अवसर था . उसमें लिखा है कि ,” केंद्र सरकार एम एस पी की वर्तमान खरीदी व्यवस्था के सम्बन्ध में लिखित आश्वासन देगी “ . नए कानून में कहीं भी न्यूनतम समर्थन मूल्य का ज़िक्र नहीं है .इसलिए सरकार के इस आश्वासन से यह बात साफ़ नहीं हो रही थी कि एम एस पी वाली बात को संशोधन के ज़रिये कानून में ही डाला जाएगा या किसी सरकारी आदेश से उसकी व्यवस्था की जायेगी . लेकिन यह बातें तो बातचीत के ज़रिये स्पष्ट की जा सकती थीं .खेती संबंधी तीनों नए कानूनों में से एक है एफ पी टी पी एक्ट जिसमें मंडियों का उल्लेख है . उस सम्बन्ध में केंद्र सरकार ने कहा था कि राज्य सरकारों को पूरी छूट होगी कि मंडियों की कैसी व्यवस्था करते हैं . सरकारी और निजी मंडियों के बारे में भी सरकारी प्रस्ताव में ज़िक्र था .उसपर भी बातचीत की जा सकती थी . मुक़दमों की सुनवाई के बारे में भी दीवानी अदालतों में जाने की बात की गयी थी . आवश्य वस्तु अधिनियम के बारे में सरकारी प्रस्ताव में कोई बात नहीं लिखी है. ज़खीरेबाज़ी को लेकर किसानों के मन में भारी आशंका है . उस पर सरकारी प्रस्ताव में कोई उल्लेख न होना अजीब लगता है . बहरहाल सरकारी प्रस्ताव में उसपर कोई ज़िक्र न होने के बावजूद भी बातचीत के रास्ते खुल रहे थे लेकिन किसान नेताओं ने सरकार के पूरे प्रस्ताव को सिरे से खारिज कर दिया . उसके अलावा दिल्ली की घेराबंदी को और मज़बूत करने का संकल्प भी लिया . सवाल यह उठता है कि इस आन्दोलन को किसान कितने दिनों तक एकजुटता के साथ जारी रख पायेंगें .
किसान आन्दोलन को विपक्ष की राजनीतिक चाल बताने का काम सत्ताधारी बीजेपी के लोगों ने शुरू कर दिया है . उनकी कोशिश है कि इस आन्दोलन को विपक्ष की राजनीति के खांचे में फिट करके कमज़ोर कर दिया जाए.वैसे विपक्ष की राजनीति भी समझ में नहीं आती . यह बिल मानसून सत्र में पास कर लिए गए थे . तब से लेकर आब तक विपक्ष के राजनेता मूलरूप से ट्विटर आदि के ज़रिये अपना विरोध दर्ज करवा रहे थे लेकिन जब देखा कि किसान सड़कों पर है, दिल्ली में मीडिया का पूरा ध्यान किसानों के आन्दोलन पर है तो विपक्ष के नेता मैदान में आ गए और राष्ट्रपति से जाकर भेंट भी कर आये. किसानों को मालूम है कि विपक्ष के नेताओं की विश्वसनीयता शक के घेरे में है इसलिए उन्होंने यह कोशिश की थी कि कोई राजनीतिक नेता उनके साथ न आये ..इस बात में दो राय नहीं है कि तीनों कानूनों में कुछ ऐसी बातें हैं जिनसे किसानों को नुक्सान होगा लेकिन उस नुक्सान को कम करने के लिए किसानों को अपनी ताकत पर ही भरोसा है और उनको मालूम है कि उनकी ताक़त विपक्षी नेताओं से ज़्यादा है
भारत के एक कृषि प्रधान देश है लेकिन आजादी के बाद खेती को वह प्राथमिकता नहीं मिली जो उद्योगों को मिली .पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने औद्योगिक विकास को प्राथमिकता दी ,खेती पर उनका ध्यान उतना नहीं गया जितना जाना चाहिए था. .1962 में जब चीन का हमला हुआ तो एक जबरदस्त झटका लगा । जवाहर लाल नेहरू को एहसास हो गया था कि कहीं बड़ी गलती हुई है। लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी . ताबड़तोड़ मुसीबतों से घिरे मुल्क पर 1965 में पाकिस्तान ने भी हमला कर दिया। युद्ध का समय और खाने की कमी। बहरहाल प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने जय जवान, जय किसान का नारा दिया।अनाज की बचत के लिए देश की जनता से आवाहन और खेती को ज़रूरी महत्व दिया . उनके समय में ही खेती में क्रांतिकारी सुधार की बात हुयी थी . तत्कालीन कृषि मंत्री सी सुब्रमण्यम ने खेती में आधुनिकीकरण की कोशिश की और उसी प्रयास को ग्रीन रिवोल्यूशन का नाम दिया गया। इस क्रान्ति के लिए कृषि मंत्री ,सी सुब्रमण्यम ने अमरीकी प्रोफ़ेसर नार्मन बोरलाग की मदद ली थी . प्रो. नार्मन बोरलाग को ग्रीन रिवोल्यूशन का जनक कहा जाता है। 1960 के दशक में भूख के मुकाबिल खड़ी दक्षिण एशिया की जनता को डॉ. नार्मल बोरलाग ने भूख से लड़ने और बच निकलने की तमीज सिखाई थी । 20 वीं सदी की सबसे खतरनाक समस्या भूख को ही माना जाता है। ज्यादातर विद्वानों ने दूसरे विश्वयुद्ध के बाद भविष्यवाणी कर दी थी कि सदी के अंत के दो दशकों में अनाज की इतनी कमी होगी कि बहुत बड़ी संख्या में लोग भूख से मर जाएंगे। नार्मन बोरलाग खुद एक सैनिक के रूप में दूसरे विश्वयुद्ध में शामिल हुए थे .विश्वयुद्ध की समाप्ति पर जब नार्मन बोरलाग, वापस आए तो रॉकफेलर फाउंडेशन के एक प्रोजेक्ट के तहत वे मैक्सिको चले गए। इस प्रोजेक्ट का उद्देश्य मैक्सिको के किसानों को अपनी फसल को सुधारने की जानकारी और ट्रेनिंग देना था। बोरलाग जब मैक्सिको पहुंचे तो सन्न रह गए, वहां हालात बहुत खराब थे। मिट्टी का पूरा दोहन हो चुका था, बहुत पुराने तरीके से खेती होती थी और किसान इतना भी नहीं पैदा कर सकते थे कि अपने परिवार को दो जून की रोटी खिला सकें। कई वर्षों के कठिन परिश्रम के बाद डॉ बोरलाग ने गेहूं की ऐसी किस्में विकसित कीं जिनकी वजह से पैदावार कई गुना ज्यादा होने लगी। आमतौर पर गेहूं की पैदावार तीन गुना ज्यादा हो गई और कुछ मामलों में तो चार गुना तक पहुंच गई। मैक्सिको सहित कई अन्य दक्षिण अमरीकी देशों में किसानों में खुशहाली आना शुरू हो गई थी, बहुत कम लोग भूखे सो रहे थे। बाकी दुनिया में भी यही हाल था। 60 का दशक पूरी दुनिया में गरीब आदमी और किसान के लिए बहुत मुश्किल भरा माना जाता है। भारत में भी खेती के वही प्राचीन तरीके थे। पीढ़ियों से चले आ रहे बीज बोए जा रहे थे।गरीब आदमी और किसान भुखमरी के कगार पर खड़ा था। कहा जाता था कि भारत की खाद्य समस्या, "शिप टू माउथ" चलती है। यानी अमरीका से आने वाला गेहूं, फौरन भारत के गरीब आदमियों तक पहुंचाया जाता था। ऐसी विकट परिस्थिति में डॉ. बोरलाग भारत आए और हरितक्रांति का सूत्रपात किया। हरित क्रांति के अंतर्गत किसान को अच्छे औजार, सिंचाई के लिए पानी और उन्नत बीज की व्यवस्था की जानी थी जो डॉ. बोरलाग की प्रेरणा से संभव हुआ।भारत में हरितक्रांति के लिए तकनीकी मदद तो निश्चित रूप से नॉरमन बोरलाग की वजह से मिली लेकिन भारत के कृषिमंत्री सी. सुब्रहमण्यम ने राजनीतिक इच्छाशक्ति का प्रदर्शन किया और हरित क्रांति के लिए जरूरी प्रशासनिक इंतजाम किया। डा. बोरलाग का अविष्कार था बौना गेहूं और धान जिसने भारत की खाद्य समस्या को हमेशा के लिए बौना कर दिया।
साठ के दशक की हरित क्रान्ति के बाद खेती के फ्रंट में देश में कुछ नहीं हुआ. हरित क्रान्ति के बाद खेती में कुछ नया करने की यह पहली कोशिश है . इसमें कुछ कमियाँ होंगीं .उनको ठीक किया जाना चाहिये 1991 में तत्कालीन वित्त मंत्री डॉ मनमोहन सिंह ने जब देश की अर्थव्यवस्था का उदारीकरण किया तो उन्होंने वायदा किया था कि कृषि के क्षेत्र में भी ऐसा ही कुछ करेंगें . खेती में हरित क्रान्ति जैसे निवेश के अवसर लायेंगें .लेकिन कुछ हुआ नहीं . आज वह अवसर आया है . सरकार में ज़रूरी पहल की है .कानून में कुछ कमियां होंगी ,उनको ठीक किया जाना चाहिए लेकिन किसानों के लिए शुरू की गयी किसी पहल को सिरे से खारिज करना सही राजनीति नहीं है .
No comments:
Post a Comment