Wednesday, October 31, 2018

सरदार पटेल के जाने के बाद नेहरू ने उनके दोनों बच्चों को लोकसभा का सदस्य बनाया

शेष नारायण सिंह 

सरदार पटेल के दो बच्चे थे. मणिबहन पटेल उनकी बेटी थीं. और डाह्याभाई उनके बेटे थे. सरदार पटेल की मृत्यु के बाद जवाहरलाल नेहरू ने उनके दोनों ही बच्चों को संसद में भेजा .मणिबहन पटेल दक्षिण कैरा लोकसभा सीट से १९५२ में और आनंद सीट से १९५७ में कांग्रेस के टिकट पर चुनी गयीं . १९६२ में गैप हो गया तो जवाहरलाल ने उनको छः साल के लिए राज्य सभा की सदस्य के रूप में निर्वाचित करवाया . अपनी बेटी इंदिरा गांधी को उन्होंने अपने जीवनकाल में कभी भी चुनाव लड़ने का टिकट नहीं मिलने दिया जबकि इंदिरा गांधी बहुत उत्सुक रहती थीं. जवाहरलाल की मृत्यु के बाद ही उनको संसद के दर्शन हुए . कामराज आदि भजनमंडली वालों ने इंतज़ाम किया .मणिबहन ने इमरजेंसी का विरोध किया और जनता पार्टी की टिकट पर मेहसाना से १९७७ में चुनाव जीतीं , वह बहुत ही परिपक्व राजनीतिक कार्यकर्ता थीं. उन्होंने १९३० में सरदार की सहायक की भूमिका स्वीकार की और जीवन भर अपने पिता के साथ ही रहीं .यह बात जवाहरलाल ने एक से अधिक अवसरों पर कहा और लिखा है .मणिबहन के नाम पर ही वह शहर बसा है जो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का विधानसभा क्षेत्र हुआ करता था. .
सरदार पटेल की दूसरी औलाद डाह्याभाई पटेल थे जो बंबई में एक बीमा कंपनी में काम करते थे . वे मणिबहन से तीन साल छोटे थे . जब सरदार पटेल उप प्रधानमंत्री बने तो उनके सेठ ने डाह्याभाई को किसी काम से दिल्ली भेजा . सरदार पटेल ने शाम को खाने के समय अपने बेटे डाह्याभाई को समझाया कि जब तक मैं यहाँ काम कर रहा हूँ , तुम दिल्ली मत आना . वे भी कांग्रेस की टिकट पर १९५७ और १९६२ में लोक सभा के सदस्य रहे . बाद में १९७० में राज्य सभा के सदस्य बने और मृत्युपर्यंत रहे .
यह सूचना उन लोगों के लिए है जो अक्सर कहते पाए जाते हैं कि जवाहरलाल नेहरू ने सरदार पटेल के बच्चों को अपमानित किया था या उनको ज़रूरी महत्व नहीं दिया था .

३१ अक्टूबर आचार्य नरेंद्र देव का जन्मदिन है

आज आचार्य नरेंद्र देव का जन्मदिन है . ३१ अक्टूबर १८८९ के दिन उनका जन्म उत्तर प्रदेश के सीतापुर में हुआ था. उनका बचपन का नाम अविनाशी लाल था .उनकी माता जी का नाम जवाहर देवी था और पिता का नाम था बलदेव प्रसाद .महामना मदन मोहन मालवीय, माधव प्रसाद मिश्र , डॉ गंगानाथ झा और बाल गंगाधर तिलक ने उनकी किशोरावस्था में उनको बहुत प्रभावित किया .उन्होंने १९११ में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से बी ए पास किया और बनारस में क्वींस कालेज में नाम लिखा लिया . बाद में क्वींस कालेज का नाम बदलकर संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय रख दिया गया था. वहां से १९१३ में एम ए किया और १९१५ में इलाहाबाद से कानून की पढाई की . फिर फैजाबाद में वकालत शुरू कर दिया .वे १९०६ में कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में शामिल हुए थे जिसकी अध्यक्षता दादाभाई नौरोजी ने की थी.उसके बाद वे कांग्रेस में सक्रिय हो गए और बाद में कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के सदस्य हुए .
देश की राजनीति में आचार्य जी को एक ऐसे व्यक्ति के रूप में याद किया जाएगा जिसने कभी भी कोई गलत काम नहीं किया . आचार्य नरेंद्र देव् की जयन्ती पर उनकी स्मृति को प्रणाम .

सरदार पटेल पूरी तरह से धर्मनिरपेक्ष थे.

शेष नारायण सिंह 

सरदार पटेल पूरी तरह से धर्मनिरपेक्ष थे. हालांकि उनकी मृत्यु के बाद कांग्रेसियों के ही एक वर्ग ने सरदार को हिंदू संप्रदायवादी साबित करने की कई बार कोशिश की लेकिन उन्हें कोई सफलता नहीं मिली। भारत सरकार के गृहमंत्री सरदार पटेल ने 16 दिसंबर 1948 को घोषित किया कि सरकार भारत को ''सही अर्थों में धर्मनिरपेक्ष सरकार बनाने के लिए कृत संकल्प है।" (हिंदुस्तान टाइम्स - 17-12-1948)। सरदार पटेल को इतिहास मुसलमानों के एक रक्षक के रूप में भी याद रखेगा।रिकार्डेड इतिहास की एक घटना का उल्लेख करना उपयोगी होगी .जिन्ना के डायरेक्ट एक्शन के आवाहन के बाद देश भयानक साम्प्रदायिक दंगों की लपेट में था. आजादी की औपचारिक घोषणा हो चुकी थी लेकिन शान्ति नहीं थी. सितंबर 1947 में सरदार पटेल को पता लगा कि अमृतसर से गुजरने वाले मुसलमानों के काफिले पर वहां के सिख हमला करने वाले हैं।
सरदार अमृतसर गए और वहां करीब दो लाख लोगों की भीड़ जमा हो गई जिनके रिश्तेदारों को पश्चिमी पंजाब में मार डाला गया था। सरदार के साथ पूरा सरकारी अमला था और उनकी बेटी भी थीं। भीड़ बदले के लिए तड़प रही थी और कांग्रेस से नाराज थी। सरदार ने इस भीड़ को संबोधित किया और कहा, ''इसी शहर के जलियांवाला बाग की माटी में आज़ादी हासिल करने के लिए हिंदुओं, सिखों और मुसलमानों का खून एक दूसरे से मिला था। ............... मैं आपके पास एक ख़ास अपील लेकर आया हूं। इस शहर से गुजर रहे मुस्लिम शरणार्थियों की सुरक्षा का जिम्मा लीजिए ............ एक हफ्ते तक अपने हाथ बांधे रहिए और देखिए क्या होता है।मुस्लिम शरणार्थियों को सुरक्षा दीजिए और अपने लोगों की डयूटी लगाइए कि वे उन्हें सीमा तक पहुंचा कर आएं।"
सरदार पटेल की इस अपील के बाद पंजाब में हिंसा नहीं हुई। कहीं किसी शरणार्थी पर हमला नहीं हुआ। कांग्रेस के दूसरे नेता जवाहरलाल नेहरू थे। उनकी धर्मनिरपेक्षता की कहानियां चारों तरफ सुनी जा सकती हैं। उन्होंने लोकतंत्र की जो संस्थाएं विकसित कीं, सभी में सामाजिक बराबरी और सामाजिक सद्भाव की बातें विद्यमान रहती थीं। प्रेस से उनके रिश्ते हमेशा अच्छे रहे इसलिए उनके धर्मनिरपेक्ष चिंतन को सभी जानते हैं और उस पर कभी कोई सवाल नहीं उठता। लेकिन इनके जाने के बाद कांग्रेस की राजनीति ऐसे लोगों के कब्जे में आ गई जिन्हें महात्मा जी के साथ काम करने का सौभाग्य नहीं मिला था। नतीजा यह हुआ कि इंदिरा गांधी के युग में तो उनके बेटे संजय गांधी ने साफ्ट हिंदुत्व का प्रयोग भी शूरू कर दिया था. आज वही कांग्रेस पर हावी हो गया है .

Tuesday, October 30, 2018

एक खुदा ने मुझको पत्थर से सनम बनाया था ,मैंने उसके बेटे को आला इंसान बना दिया


शेष नारायण सिंह  

आज हमारे दोस्त डाक्टर एस बी सिंह का जन्मदिन है . उनको मैंने फेसबुक पर 'जन्मदिन मुबारक ' कह दिया है . डाक्टर साहेब का पूरा नाम समर बहादुर सिंह है लेकिन इलाहाबाद में उनको उनके अंग्रेज़ी नाम से ही आम तौर पर जाना जाता है . इस सन्दर्भ में एक संस्मरण का उल्लेख करने का मोह संवरण नहीं कर पा रहा हूँ . हुआ यह कि मेरे हाई स्कूल के सहपाठी , राम अभिलाख वर्मा को १९७४ में बैंक आफ इण्डिया में बड़ी सरकारी नौकरी मिल गयी . कानपूर में तैनाती हुयी . उनके काका इत्तफाक से कानपुर गए तो सोचा कि भतीजे से मिल लें . पता लिखा हुआ था सो पंहुंच गए. बैंक में जाकर गार्ड से पूछा कि राम अभिलाख वर्मा से मिलना है . उसने कहा कि इस नाम का यहाँ कोई नहीं है . निराश हुए . लौट रहे थे कि एकाएक वर्मा साहेब दिख गए . उन्होंने गार्ड से कहा कि वो सामने तो खड़े हैं और तुम मना कर रहे हो . गार्ड ने कहा कि उनका नाम तो आर ए वर्मा है. बहरहाल वे मिले और चाय पीते वक़्त उनसे पूछा कि ," कहो भईया नोकरिया पाए के बाद तोहार नाव भी बदल ग का ?" .
इसलिए आज डॉ एस बी सिंह को उनके जन्मदिन की बहुत बहुत बधाई . समर बहादुर सिंह को उनके जन्मदिन की बधाई . डाक्टर साहब भारत के चोटी के होमियोपैथिक फिजीशियन हैं , इलाहाबाद में विराजते हैं और महंगाई के इस दौर में आज भी उनकी फीस बहुत कम है . बेहद लोकप्रिय हैं , इसके बावजूद भी डाक्टरी सलाह और दवाइयों की कीमत बहुत कम रखी हुयी है . इलाहाबाद में कई जगहों पर उनकी क्लिनिक है . बहुत नाम है , उनकी सफलता और लम्बी उम्र के लिए मैं दुआ करता हूँ .
आज उनके जन्मदिन पर पिछले पचपन वर्षों की तरह तरह की तस्वीरें सामने से गुज़र रही हैं . मेरे गाँव के बगल का गाँव है उनका . आज भी यह गाँव ऐसे गाँवों में शुमार होता है जिसके पास से विकास बचकर निकल गया है . उनके गाँव के अन्दर अभी तक पक्की सड़क नहीं गयी है . पिछली कई सरकारों में कई मंत्री उनके मित्र रहे हैं लेकिन गाँव की तिकड़मी राजनीति ने सड़क नहीं बनने दिया .आज भी जिले के कलेक्टर साहेब उनके दोस्त हैं लेकिन गाँव के घुरहू प्रसाद या निरवाहू राम के आगे किसी की नहीं चलती .
उनके पिताजी ठाकुर केश नारायण सिंह अंग्रेजों के ज़माने के अंग्रेज़ी मास्टर थे . सुल्तानपुर जिले के एक नामी मिडिल स्कूल , लम्भुआ में उन्होंने कई पीढ़ियों को अंग्रेज़ी पढ़ाया था . उस ग्रामीण अंचल में जिसने भी उनसे ध्यान से अंग्रेज़ी पढ़ ली , वह आज भी अंग्रेज़ी बोलता मिल जाएगा . अपने पिता जी की साइकिल पर बैठकर अपने डाक्टर साहेब लम्भुआ पढने जाया करते थे . मुझसे तीन साल छोटे हैं . मैंने हाई स्कूल के बाद जौनपुर के टी डी कालेज में इंटरमीडिएट में नाम लिखाया था . हमारे गाँव से बहुत दूर था लेकिन कालेज अच्छा था . मास्टर साहेब ने अपने बेटे को भी नवीं कक्षा में वहीं दाखिल करवा दिया और मुझको उनका गार्जियन तैनात कर दिया . तब से आज तक मैं उनका गार्जियन हूँ . कई बार सभा समाज में मेरी इज्ज़त बहुत बढ़ जाती है जब लोगों को पता लगता है कि मैं डाक्टर एस बी सिंह को जानता हूँ .
हाँ मैं इस बेहतरीन इंसान को जानता हूँ . मैं भगवान राम से उनकी तुलना तो कभी नहीं करूंगा लेकिन एक गुण जो तुलसीदास ने वर्णन किया है , वह उनमें है. हर्ष या विषाद की स्थितियों में यह डाक्टर बिलकुल सामान्य रहता हैं . ऐश में यादे खुदा रखते हैं और तैश में खौफे-खुदा रखते हैं . कभी भी किसी का नुक्सान नहीं करते . समर बहादुर में जो इच्छा शक्ति है वह लाजवाब है . हमारे इलाके में लड़कियों की शिक्षा को उतना महत्व नहीं दिया जाता था जितना लड़कों की शिक्षा को . उनकी पत्नी हाई स्कूल पास करके आई थीं . अपने डाक्टर ने मुझसे बताया कि आगे इनकी पढाई जारी रखना है . काफी दिक्क़तें आईं लेकिन उन्होंने अपने पिता जी से यह कहकर अनुमति ले ली कि जितना खर्च मेरी पढाई पर आप कर रहे हैं, उतने में ही हम दोनों पढ़ लेंगें . इलाहाबाद के राजापुर में घर लिया और दोनों ने उच्च शिक्षा पाई . उनकी पत्नी ने दर्शन शास्त्र में पी एच डी किया और एक बहुत अच्छे शिक्षा संस्थान से रिटायर हुयी हैं . राजापुर का उनका घर बहुत लोगों की शरणस्थली भी रह चुका है . जिन मित्रों को इलाहाबाद आने पर कहीं ठिकाना न मिला वे वहीं पधार जाया करते थे. हालांकि मैं इसका बहुत बुरा मानता था और कई बार जब इलाहाबाद जाने पर उनके घर को धर्मशाला के रूप में देखता था तो तकलीफ होती थी . उनकी पत्नी सबके लिए भोजन आदि की व्यवस्था कर रही होती थीं. लेकिन दोनों ही उसकी अन्य व्यवस्था होने तक उसको साथ रखते थे .
डॉ एस भी सिंह के बारे में जब मैं सोचता हूँ तो मुझे लगता है कि इनका नाम हिम्मत माई होना चाहिए था . यह इंसान मेरी नज़र में इच्छाशक्ति का मानवीकृत रूप है . उल्टी से उल्टी परिस्थिति में इस आदमी को मैंने हिम्मत हारते नहीं देखा . उनकी इच्छा शक्ति ही थी कि अपने बच्चों को इलाहाबाद में रहते हुए लन्दन तक पढ़ाया और आज सभी बच्चे अपने अपने क्षेत्र में जमे हुए हैं . बड़ा बेटा बैंकर है , बेटी वैज्ञानिक है और छोटा बेटा सुप्रीम कोर्ट में वकील है . बाप का पुण्य सभी बच्चों की शख्सियत पर नज़र आता है .
मैं तुम्हारे जन्मदिन पर भावुक हो गया हूँ डाक्टर. लम्बी ,बहुत लम्बी उम्र की दुआ करता हूँ . जैसे ग़ालिब ने रानी विक्टोरिया की लम्बी उम्र की दुआ की थी. उनका ही शे'र आपकी नज़र है ,
तुम सलामत रहो हज़ार बरस
हर बरस के हों दिन पचास हज़ार

Saturday, October 27, 2018

पिंजरे के तोता काण्ड के बाद सी बी आई सबसे बड़ा सवालिया निशान



शेष नारायण सिंह 

सी बी आई की विश्वसनीयता पर ज़बरदस्त सवालिया  निशान लग गया है . संस्था के  दूसरे नम्बर पर पदासीन अधिकारी राकेश अस्थाना के उपर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगे हैं और उनपर एफ आई आर भी  दर्ज हो गयी है . उनकी  टीम के एक सदस्य को सी बी आई ने  गिरफ्तार या कोर्ट ने भी गंभीर पाया है इसलिए उनको  हफ्ते भर के लिए   सी बी आई की हिरासत में दे दिया है . राकेश अस्थाना को भी डर था  कि कहीं वे भी गिरफ्तार न हो जाएँ इसलिए वे दिल्ली हाई कोर्ट में अर्जी लेकर पंहुंच गए और गिरफ्तारी पर एक हफ्ते की रोक लगवाने में सफल हो गए .  अस्थाना ने भी अपने बॉस अलोक वर्मा पर गंभीर आरोप लगाए हैं  लेकिन उनके आरोप अभी एफ आई आर में नहीं बदले गए हैं . उन्होंने  कैबिनेट सचिव को चिट्ठी लिखकर अपनी शिकायतों से अवगत कराया है . उन्होंने अपनी शिकायती  चिट्ठी में यह भी आरोप लगाया है कि उनके  करीबी कुछ व्यापारियों और उद्योगपतियों के यहाँ वड़ोदरा में ,वैमनस्य के चलते सी बी आई निदेशक,आलोक वर्मा  ने दबिश दिलवाई है और उनकी जांच करवा रहे हैं . जबकि सी बी आई का कहना है कि वह दबिश जांच का हिस्सा  है क्योंकि जांच में पता चला है कि  राकेश  अस्थाना ने उन व्यापारियों से  अपनी बेटी की शादी में आर्थिक मदद ली है जो कि भ्रष्टाचार के दायरे में आता है .हाई  कोर्ट से राकेश अस्थाना अपने खिलाफ दायर एफ आई आर को रद्द करवाने में तो सफल नहीं हुए लेकिन उनकी गिरफ्तारी की संभावना को देखते हुए हाई कोर्ट ने गिरफ्तारी पर एक  हफ्ते  की लगा दी लेकिन जाँच जारी रहेगी . सी बी आई ने राकेश अस्थाना से उनके काम को तो तभी छीन लिया जब उनके खिलाफ एफ आई आर दर्ज की गयी थी .

देश की सबसे विश्वसनीय ,आपराधिक जांच संस्था में इस तरह के माहौल  से  सरकार की छवि को ज़बरदस्त नुक्सान हुआ है . नुक्सान  को कुछ कम करने की कोशिश सरकार की तरफ से हो रही है . राकेश अस्थाना तो अब अभियुक्त हो गए हैं निदेशक आलोक वर्मा भी विवाद के घेरे में आ गए हैं . शायद इसीलिये सरकार ने उनको भी कुछ दिन आराम करने को कह दिया है . और उनके मातहत काम करने वाले एक अतिरिक्त  निदेशक,. एम नागेश्वर राव को सी बी आई के निदेशक का काम देखने के लिए आदेश जारी  कर दिया  है . इसके पहले सी बी आई ने बहुत ही संक्षिप्त आदेश में कहा  था  कि विशेष निदेशक श्री राकेश अस्थाना को उनके सुपर्वाइज़री काम से तुरंत
मुक्त किया जाता है . श्री अस्थाना १९८४  बीच के गुजरात कैडर के अधिकारी हैं और सरकार को उनकी योग्यता पर बहुत भरोसा था . शायद इसीलिये उनके  पास राजनीतिक रूप से बहुत ही संवेदनशील मामलों की जांच का ज़िम्मा था .अब वे उन सब कार्यों से अलग कर दिए गए हैं. आगस्टा वेस्टलैंड हेलीकाप्टर केस,विजय  मल्लया केसकोयला घोटाले से सम्बंधित केसराबर्ट वाड्रा केस,भूपिंदर हुड्डा केस और दयानिधि मारण केस जैसे  मामलों की जांच  उनकी ही निगरानी में हो रही थी. अब वह सब कुछ खतम हो गया है क्योंकि इतने गंभीर आरोपों के बाद वह सारी जांच किसी अन्य अधिकारी को सौंपी जा सकती है . .

इसके पहले विशेष निदेशक राकेश अस्थाना ने  जो आरोप लगाए थे वे भी अगर सच हुए तो बहुत ही गंभीर माने जायेंगे . उन्होंने  कोई  कानूनी प्रक्रिया दर्ज नहीं कराई थी लेकिन  कैबिनेट सचिव को एक शिकायती पत्र लिखा था . वह पत्र टाप सीक्रेट था और उसमें भी कुछ तो वही मामले थे जिनकी जाँच में वे खुद फंस गए हैं . २४ अगस्त को कैबिनेट सचिव प्रदीप कुमार सिन्हा को लिखे गए अपने पत्र में राकेश  अस्थाना ने लिखा था कि उनके पास सी बी आई निदेशक के बारे में बहुत ही गंभीर जानकारी  है . लेकिन ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है कि उनकी जांच मैं कर सकूं इसलिए सारी सूचना मैं आप तक पंहुचा रहा हूँ . उन्होंने आरोप लगाया कि लालू यादव केस में उनके ऊपर दबाव बनाया गया था . करीब एक दर्ज़न मामलों में उन्होंने अपने बॉस को लपेटने की कोशिश उस  चिट्ठी में  की थी लेकिन शायद अस्थाना को मालूम नहीं था कि उनके खिलाफ बाकायदा जांच चल रही थी और सी बी आई ने उनके कथित कदाचार के बारे में   मजिस्ट्रेट के सामने बयान भी करवा दिया था . उनके ऊपर पांच करोड़ रूपये की रिश्वत मांगने का आरोप  है जिसमें से  करीब तीन करोड़ तो उनके लोगों को दिया भी जा चुका है. उनके मातहत काम करने वाले  डिप्टी एस पी के ऊपर उनको बचाने के लिए अभियुक्त का बयान  बदलने के लिए दबाव डालने का भी आरोप था  ऐसी हालत में एक बात बिलकुल साफ़ है कि देश की सबसे महत्वपूर्ण जांच एजेंसी सी बी आई की ख्याति पूरी तरह से शक में आच्छादित है . कांग्रेस मौजूदा सरकार पर  संस्थाओं  को खतम करने के आरोप लगाती रही है . इस काण्ड ने उनके आरोप को निश्चित रूप से  सही साबित कारने की दिशा में स्पष्ट संकेत दे दिया  है .   यह देखना दिलचस्प होगा कि जिस सी बी आई के दबाव का इस्तेमाल करके विपक्षी राजनेताओं को मजबूर  किये जाने के आरोप लगते रहे हैं ,वह अपने अधिकारियों के भ्रष्टाचार  के आरोपों के बादल से कैसे बाहर आती है.
सी बी आई   के जीवन काल में कई बार ऐसे विवाद आये हैं जब वह  बहुत ही  परेशानी में पड़ती रही है. कर्नल स्लीमन ने ठगों का अंत करने के लिए जिस संस्था की बुनियाद अंग्रेजों के समय में डाली थी बाद में वही सी बी आई की पूर्ववर्ती संस्था बनी. सी बी आई की  विश्वसनीयता पर कभी भी कोई आंच  नहीं आई थी लेकिन इमरजेंसी में सत्तर के  दशक में इसके पहले दुरुपयोग की कहानियाँ सामने आनी शुरू हुईं. बाद में तो संजय गांधी ने सन अस्सी में कांग्रेस की दुबारा वापसी के बाद उन अफसरों के खिलाफ जांच करवाई ,उनको प्रताड़ित किया और अन्य  तरीकों से भी कष्ट दिया जिन्होंने जनता पार्टी के समय में उनकी इमरजेंसी की  कारस्तानियों की जांच की थी.
 सी बी आई के दुरुपयोग के आरोप सरकारों पर अक्सर  लगते रहे हैं लेकिन गंभीर फटकार कभी नहीं पडती थी. पहली बार सी बी आई की ख्याति को ज़बरदस्त झटका तब लगा जब २०१३ में एक सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने सी बी आई को पिंजरे का तोता कह दिया . केंद्र में डॉ मनमोहन सिंह की सरकार थी . सी बी आई ने कोयला घोटाले की जांच को कानून  मंत्री अश्विनी कुमार को दिखा दिया था . प्रधानमंत्री कार्यालय के दो अफसरों को भी रिपोर्ट दिखाई गयी थी . उसके बादसुप्रीम कोर्ट ने टिप्पणी की कि सरकारी अफसरों ने कोयला घोटाले की जांच रिपोर्ट की आत्मा बदल दी. जस्टिस आर एम लोढ़ाजस्टिस मदन बी लोकुर और जस्टिस कुरियन जोसेफ की पीठ ने सीबीआई के तत्कालीन निदेशक रंजीत सिन्हा के हलफनामे पर गौर करने के बाद कोयला घोटाले की जांच की निष्पक्षता पर भी सवाल उठाया था. .कोर्ट ने कहा था कि  सीबीआई का काम जांच करना है और सच सामने लाना है . उसको मंत्रियों और अफसरों की  जी  हुजूरी नहीं करना चाहिए उसी मुक़दमे की सुनवाई के दौरान   सरकार से यह भी पूछा गया कि सरकार  क्या वो सीबीआई को स्वतंत्र करने के लिए क्या कोई कानून बना रही है। क्योंकि अगर ऐसा न किया गया तो  अदालत ही  दखल देगी। इस मामले में तो माननीय सुप्रीम कोर्ट ने सी बी आई निदेशक और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के अपने पद पर बने रहने के मामले में भी कई सख्त  सवाल उठा दिए थे.
अब तक सी बी आई की विश्वसनीयता पर उठने वाले सवालों पर यह आरोप सबसे बड़ा मना जाता रहा है .उस दौर में  मुख्य विपक्षी पार्टी , बीजेपी हुआ  करती थी..  सुप्रीम कोर्ट की इस टिप्पणी के बाद बीजेपी के नेता हर मंच से इस बात को उठाया करते थे . यह मई की घटना है ,उसके चार महीने बाद ही नरेंद्र मोदी को  बीजेपी ने प्रधानमंत्री पद का दावेदार घोषित कर दिया था . उन्होंने भी अपने भाषणों में सी बी आई पर कई बार  हमला किया . उन्होंने भरोसा भी दिलाया था कि सी बी आई को बिलकुल बेदाग़ संस्था के रूप में स्थापित कर देंगे लेकिन सी बी आई के मौजूदा हालात  देखने से यह तो साफ़ लग रहा है कि सी बी आई एक बेदाग़ संस्था नहीं है .उसके अपने ही  अफसर भ्रष्टाचार की जांच की ज़द में हैं .एक और बात देखें में आ रही है कि  इस बीच सी बी आई के राजनीतिक इस्तेमाल के आरोप विपक्षी पार्टियां कुछ ज़्यादा ही उठा रही हैं .डॉ मनमोहन सिंह के कार्यकाल में भी सी बी आई का राजनीतिक इस्तेमाल करके विपक्षी पार्टियों को कांग्रेस को राजनीतिक मदद देने के आरोप लगते रहे हैं लेकिन अब तो कांग्रेस ऐलानियाँ आरोप लगा रही है कि चुनावों में उम्मीदवार उतारने के बारे में भी सरकार सी बी आई की धमकी देती रहती है .सबसे ताज़ा आरोप है कि छतीसगढ़ में चुनावी  समीकरण को प्रभावित करने के लिये भी सी बी आई के डंडे का इस्तेमाल हुआ है . हालांकि आम तौर पर सी बी आई की छवि को ध्यान में रखते हुए इन बातों पर विश्वास नहीं किया जाता  था लेकिन पिछले एक  हफ्ते में  सी बी आई के बारे में जो ख़बरें टीवी ख़बरों में आ रही हैं उनको देखते हुए तो यही लगता है किसरकार इस संस्था से कुछ भी करवा सकती है . अगर यह सच है तो देश की राजनीति और कानून के राज के लिए चिंता का विषय है . 

Tuesday, October 23, 2018

सरदार पटेल ने आर एस एस पर कभी भरोसा नहीं किया


शेष नारायण सिंह
सरदार पटेल की बहुत बड़ी मूर्ति नर्मदा जिले के केवड़िया में लग चुकी है . ३१ अक्टूबर को उनके जन्मदिन के मौके पर उसको पब्लिक के देखने के लिए खोल दिया जाएगा . चीन से बनकर आयी मूर्ति अमरीका की स्टेचू आफ लिबर्टी से भी ऊंची है .सोशल मीडिया पर चर्चा है कि इस मूर्ति में सरदार पटेल की शक्ल किसी और की लगती है . लेकिन उससे मूर्ति स्थापित करने वालों को बहुत फर्क नहीं पड़ता ..  सरदार पटेल देश की आजादी की लड़ाई के प्रमुख योद्धा थे जबकि वर्तमान सत्ताधारी पार्टी के मूल संगठन , राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का कोई भी नेता १९२० से १९४७ तक चले देश की आजादी के आन्दोलन में शामिल नहीं था .उस दौर के उनके दो बड़े नेता, के बी हेडगेवार और एम एस गोलवलकर कभी भी  आज़ादी की कोशिश कर रहे  किसी भी कार्यक्रम में शामिल नहीं हुए ,कभी जेल नहीं गए , कभी अंग्रेजों के खिलाफ कोई बयान नहीं दिया और जब देश आज़ाद हो गया तो उसकी भी आलोचना की .लेकिन देश आज़ाद हुआ और महात्मा गांधी उस आज़ादी की लड़ाई के सर्वमान्य नेता था. महात्मा गांधी कांग्रेस के नेता थे और १९२५ में कांग्रेस के बेलगाम कांग्रेस के अध्यक्ष भी रह चुके थे . लेकिन देश की सत्ता में आने के बाद तो अपने किसी ऐसे नेता की ज़रूरत होती ही है  जो आज़ादी की लड़ाई का हीरो रहा हो. शायद  इसलिए जब बीजेपी पहली बार सत्ता में आई तो पार्टी ने पूरी गंभीरता से काबिल पुरखों की तालश शुरू कर दी .  हालांकि एक बार पहले भी  महात्मा गांधी को अपनाने की कोशिश की गयी थी. भारतीय जनता पार्टी की स्थापना के साथ ही पार्टी ने मुंबई में 28 दिसंबर 1980 को आयोजित पने पहले ही अधिवेशन में अपने पांच आदर्शों में से एक गांधियन सोशलिज्म  को निर्धारित किया था .लेकिन जब बीजेपी 1985 में लोकसभा की दो सीटों पर सिमट गयी तो गांधी जी से अपने आपको दूर  कर लिया गया . १९९८ में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार आने के बाद तो महात्मा गांधी को पूरी तरह से अपना लेने का कार्यक्रम फोकस में आ गया . महात्मा गांधी और आर एस एस के बीच इतनी  दूरियां  थीं जिनको कि महात्मा जी के जीवन काल और उसके बाद भी  भरा नहीं जा सका।अंग्रेज़ी  राज  के  बारे में महात्मा गांधी और आर एस एस में बहुत भारी मतभेद था। 1925 से लेकर 1947 तक आर एस एस को अंग्रेजों के सहयोगी के रूप में देखा जाता है . शायद इसीलिये जब 1942 में भारत छोडो का नारा देने के बाद देश के सभी नेता जेलों में ठूंस दिए गए थे तो आर एस एस के सरसंघचालक एम एस गोलवलकर सहित उनके सभी नेता जेलों के बाहर थे और  अपना सांस्कृतिक काम चला रहे थे . फिर भी  दोबारा महात्मा गांधी को अपनाने की कोशिश आर एस एस ने पूरी गंभीरता के साथ 1997 को 2 अक्टूबर  को शुरू किया . अक्टूबर की एक सभा में आर एस एस के तत्कालीन सरसंघचालक  प्रो.राजेन्द्र सिंह( रज्जू भैया) ने महात्मा गांधी की बहुत तारीफ़ की . उस सभा में बीजेपी के तत्कालीन दोनों बड़े नेता, अटल बिहारी वाजपेयी और लाल कृष्ण आडवानी भी मौजूद थे। राजेन्द्र सिंह ने कहा कि  गांधीजी भारतमाता  के चमकते हुए नवरत्नों में से एक थे और अफ़सोस जताया कि  उनको सरकार ने भारत रत्न की उपाधि तो नहीं दी लेकिन  वे लोगों की नज़र में सम्मान के पात्र थे। सार्वजनिक मंच से महात्मा गांधी की  प्रशंसा का जो यह सिलसिला शुरू हुआ ,वह आजतक जारी है.

महात्मा गांधी की विरासत का वारिस बनने  की  संघ की  मुहिम  के बीच कुछ ऐसे भी मुकाम आये  जिस से उनके अभियान को भारी घाटा हुआ। आडवानी समेत सभी बड़े नेताओं ने बार बार यह कहा था कि जब महात्मा गांधी की हत्या हुयी तो नाथूराम गोडसे आर एस एस का सदस्य नहीं था .यह बात तकनीकी आधार पर सही है लेकिन गांधी जी  की हत्या के अपराध में आजीवन कारावास की सज़ा  काट कर लौटे  नाथू राम गोडसे के भाई ,गोपाल गोडसे ने दूसरी बात बताकर उनकी मंशा फेल कर दिया . उन्होंने अंग्रेज़ी पत्रिका " फ्रंटलाइन " को दिए गए एक इंटरव्यू में बताया कि आडवानी  और बीजेपी के अन्य नेता उनसे दूरी  नहीं  बना सकते। . उन्होंने कहा कि " हम सभी भाई आर एस एस में थे। नाथूराम, दत्तात्रेय , मैं और गोविन्द सभी आर एस एस में थे। आप कह सकते हैं  की हमारा पालन पोषण अपने घर में न होकर आर एस एस में हुआ। . वह हमारे लिए एक परिवार जैसा था।  . नाथूराम आर एस एस के बौद्धिक कार्यवाह बन गए थे।। उन्होंने ( नाथूराम ने ) अपने बयान में यह कहा था कि  उन्होंने आर एस एस छोड़ दिया था . ऐसा उन्होंने  इसलिए कहा क्योंकि महात्मा गांधी की हत्या के बाद गोलवलकर और आर एस एस वाले बहुत परेशानी  में पड़  गए थे। लेकिन उन्होंने कभी भी आर एस एस छोड़ा नहीं था "
अपने संगठन को गांधी का करीबी बताने के चक्कर में नवम्बर 1990 में बीजेपी के तत्कालीन महासचिव कृष्ण लाल शर्मा ने प्रधानमंत्री चन्द्र शेखर को एक पत्र लिखकर बताया कि  27 जुलाई 1937 को हरिजन सेवक  में एक लेख लिखा था जिसमें महात्मा गांधी ने रामजन्म भूमि के बारे में उन्हीं बातों को सही ठहराया था जिसको अब आर एस एस सही बताता  है . उन्होंने यह भी दावा किया कि महात्मा गांधी के हिंदी साप्ताहिक की वह प्रति उन्होंने देखी थी जिसमें यह बात लिखी गयी थी। . यह खबर अंग्रेज़ी अखबार टाइम्स आफ इण्डिया में छपी भी थी . लेकिन कुछ दिन बाद टाइम्स आफ इण्डिया की रिसर्च टीम ने यह  खबर छापी कि  कृष्ण लाल शर्मा का बयान सही नहीं है क्योंकि महात्मा गांधी ने ऐसा कोई  लेख लिखा ही नहीं था . सच्चाई यह है की 27 जुलाई 1937 को हरिजन सेवक का कोई अंक ही नहीं छपा था . 1937 में उस साप्ताहिक अखबार का अंक 24 जुलाई और 31 जुलाई को छपा था। 
सरदार पटेल को अपना बनाने की कोशिश तब  शुरू हुयी जब लाल कृष्ण आडवानी ने अपने आपको लौहपुरुष कहलवाना शुरू किया . लेकिन इतिहास को मालूम है कि  सरदार पटेल आर.एस.एस. और उसके तत्कालीन मुखिया गोलवलकर को बिलकुल नापसंद करते थे। यहां तक कि गांधी जी की हत्या के मुकदमे के बाद गिरफ्तार किए गए एम.एस. गोलवलकर को सरदार पटेल ने तब रिहा किया जब उन्होंने एक अंडरटेकिंग दी कि आगे से वे और उनका संगठन हिंसा का रास्ता नहीं अपनाएंगे।
उस अंडरटेकिंग के मुख्य बिंदु ये हैं:-आर.एस.एस. एक लिखित संविधान बनाएगा जो प्रकाशित किया जायेगाहिंसा और रहस्यात्मकता को छोड़ना होगासांस्कृतिक काम तक ही सीमित रहेगाभारत के संविधान और तिरंगे झंडे के प्रति वफादारी रखेगा और अपने संगठन का लोकतंत्रीकरण करेगा। (पटेल -ए-लाइफ पृष्ठ 497, लेखक राजमोहन गांधी प्रकाशक-नवजीवन पब्लिशिंग हाउस, 2001) आर.एस.एस. वाले अब इस अंडरटेकिंग को माफीनामा नहीं मानते लेकिन उन दिनों सब यही जानते थे कि गोलवलकर की रिहाई माफी मांगने के बाद ही हुई थी।बहरहाल हम इसे अंडरटेकिंग ही कहेंगे। इस अंडरटेकिंग को देकर सरदार पटेल से रिहाई मांगने वाला संगठन यह दावा कैसे कर सकता है कि सरदार उसके अपने बंदे थे। सरदार पटेल को अपनाने की कोशिशों को उस वक्त भी बड़ा झटका लगा जब लालकृष्ण आडवाणी गृहमंत्री बने और उन्होंने वे कागजात देखे जिसमें बहुत सारी ऐसी सूचनाएं दर्ज हैं जो अभी सार्वजनिक नहीं की गई है। जब 1947 में सरदार पटेल ने गृहमंत्री के रूप में काम करना शुरू किया तो उन्होंने कुछ लोगों की पहचान अंग्रेजों के मित्र के रूप में की थी। इसमें कम्युनिस्ट थे जो कि 1942 में अंग्रेजों के खैरख्वाह बन गए थे।सरदार पटेल इन्हें शक की निगाह से देखते थे। लिहाजा इन पर उनके विशेष आदेश पर इंटेलीजेंस ब्यूरो की ओर से सर्विलांस रखा जा रहा था। पूरे देश में बहुत सारे ऐसे लोग थे जिनकी अंग्रेज भक्ति की वजह से सरदार पटेल उन पर नजर रख रहे थे। कम्युनिस्टों के अलावा इसमें अंग्रेजों के वफादार राजे महाराजे थे। लेकिन सबसे बड़ी संख्या आर.एस.एस. वालों की थीजो शक के घेरे में आए लोगों की कुल संख्या का 40 प्रतिशत थे।
गौर करने की बात यह है कि महात्मा जी की हत्या के पहले हीसरदार पटेल आर.एस.एस. को भरोसे लायक संगठन मानने को तैयार नहीं थे। लेकिन आजकल तो बीजेपी के नेता ऐसा कहते हैं जैसे सरदार पटेल उनकी अपनी पार्टी के सदस्य थे . अहमदाबाद में उनकी मूर्ति लगना उसी कार्यक्रम का एक हिस्सा हो सकता है.

Sunday, October 21, 2018

ताकि सनद रहे


दूसरा युद्ध समाप्त होने के बाद जर्मन, जापान और इटली के सभी सैनिक बतौर युद्धबंदी पकड़ लिए गए थे. नेताजी सुभाष चन्द्र बोस की आज़ाद हिन्द फौज के सभी अफसर और सैनिक भी बर्मा, मलाया, सिंगापुर आदि जगहों से युद्धबंदी बना लिए गए थे. उन सैनिकों के ऊपर अंग्रेजों ने बाकायदा मुक़दमा चलाया . भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने INA डिफेंस कमेटी बनाकर इन युद्धबंदियों की मदद की . जब उन पर मुक़दमा चला तो कांग्रेस की इस कमेटी की ओर से आज़ाद हिन्द फौज के सैनकों की पैरवी करने के लिए जो बड़े वकील को पेश हुए उनमें भूलाभाई देसाई , जवाहरलाल नेहरू, आसफ अली ,कैलाश नाथ काटजू और तेज़ बहादुर सप्रू प्रमुख थे . जवाहरलाल नेहरू ने आज़ाद हिन्द फौज के युद्धबंदियों के पक्ष में वकील के रूप में भी काम किया और एक राजनेता के रूप में भी अपने भाषणों में बार बार अँगरेज़ सरकार को चेतावनी दी कि आज़ाद हिन्द फौज के सैनिकों के साथ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी की तरह व्यवहार किया जाए क्योंकि वे अपने देश की आज़ादी के लिए लड़ रहे थे जबकि जर्मनी, जापान आदि की सेनायें अन्य देशों पर हमला करने के लिए लड़ रही थीं. बाकी लोग तो वकील का काम करते रहे थे लेकिन जवाहरलाल ने वकालत का काम १९२६ में ही छोड़ दिया था और उसके बीस साल बाद लाल किले में अपने दोस्त सुभाष चन्द्र बोस के साथियों के बचाव पक्ष के वकील के रूप में पेश हुए थे.
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