Sunday, December 22, 2019

माँ के बिना उनकी की याद के चौदह साल



शेष नारायण सिंह 

जब मैं अपने भाई बहनों की बेटियों  और बेटों को दिल्ली,लखनऊ, इलाहबाद,धनबाद ,कोलकता,बंगलोर ,सूरत,मुंबई, लन्दन ,न्यू यॉर्क आदि  शहरों में  स्वतंत्र रूप से घूमते या काम करते देखता हूँ, तो मुझे एक ऐसी स्त्री की याद आ जाती है जिसको ब्याह कर ज़मींदारों के घर में लाया गया था लेकिन संयुक्त सामंती परिवार की  तीस और चालीस के दशक की रूढ़िवादी मान्यताओं के चलते अपने सम्मान और अस्तित्व की रक्षा के लिए हर  मोड़ पर संघर्ष करना पड़ा और  समझौते करने पड़े. जिस समाज में वे आई थीं , वहां बच्चों की माँ बन जाना सबसे बड़ी उपलब्धि मानी जाती थी. उस दौर में जिसके बेटा न हुआ वह  फालतू की औरत मानी जाती थी.  वह मेरी माँ ,श्याम कुंवरि थीं. मेरे मातापिता के विवाह के आठ साल बाद मेरी बहन पैदा हुई थी . उस  समय मेरी माँ की आयु केवल इक्कीस साल की थी लेकिन तब तक उस दकियानूसी समाज ने उनको बाकायदा बाँझ घोषित कर दिया था . बहन के जन्म के छः साल बाद मैं पैदा हुआ . तब उनको  वह सम्मान मिलना शुरू हुआ जिसकी वे हमेशा से हक़दार थीं. उसी साल ज़मींदारी  विनाश का क़ानून पास हो गया और उनके परिवार की  खेती का एक बड़ा हिस्सा काश्तकारों के नाम चला गया . उत्तर प्रदेश ज़मींदारी विनाश और भूमि व्यवस्था अधिनियम १९५० के नाम से चर्चित कानून वास्तव में १९५१ में पास हुआ था. यह उत्तर प्रदेश विधानसभा का १९५१ में पास होने वाला पहला अधिनियम था . लेकिन लागू हुआ १९५२ में जब इसके बारे में नियम बन गए . मेरे पिताजी के बाबा ठाकुर जगेसर सिंह सुल्तानपुर जिले के एक बहुत ही छोटे इलाके के ज़मींदार थे .
सीर और खुदकाश्त की ज़मीन ही बाख पाई ,बाकी सब शिकमी लग गयी . हालांकि मुआवजा ज़मीन की कीमत से करीब दस गुना मिलना था लेकिन उसके मिलने में बहुत समय लगा , कोर्ट कचहरी भी हुआ और खेती केती की आमदनी बिलकुल कम हो गयी . मेरे जन्म के पहले से ही खस्ताहाल आर्थिक स्थिति बाद से  बदतर हो गयी . ऐसे अभाव के दौर में मेरा बचपन   शुरू हुआ . मेरी माँ जौनपुर सिटी रेलवे स्टेशन के पास के गाँव सैदन पुर से आई थीं. मेरे नाना भी संपन्न किसान थे लेकिन माई बताती थें कि उनको अपनी परेशानियों से उन्होंने कभी भी अवगत नहीं कराया . मेरा ननिहाल संपन्न लोगों का गाँव था . वहां के कायस्थ और सैय्यद साहिबान को उन्होंने शिक्षा के रास्ते अच्छी ज़िंदगी बिताते देखा था.  मेरे गाँव में पढाई लिखाई की परम्परा बिकुल नहीं थी जबकि बिलकुल पड़ोस के गाँव नरिन्दापुर  में  १८५७ के कुछ साल बाद ही प्राइमरी स्कूल खुल चुका था. नरिंदा पुर की वे लडकियां भी स्कूल जाती थीं जो मेरी बड़ी बहन की उम्र की थीं .मेरी माँ की इच्छा थी कि उनके बच्चे भी शिक्षित हों. लेकिन मेरी बड़ी बहन को स्कूल भेजने में वे असफल  रहीं . हालांकि मुझे स्कूल भेजने में कोई दिक्क़त नहीं हुयी क्योंकि माना जाता था कि बेटा तो अमोला होता है ,उसका पालन  पोषण सही होना चाहिए . जहाँ तक मुझे याद आता है , मैंने पुरुष प्रधान समाज की इस बात को कभी स्वीकार नहीं किया . अपने बाबू और खानदान के अन्य  पुरुषों के प्रति मन में एक अजीब सी दूरी की अनुभूति हमेशा ही होती रही है. मुझे लगता है कि माई के चारों बच्चों की संतानों की शिक्षा के लिए हमारे भाई बहनों ने जो  प्रयास किया उसमें सबके मन में माई की उस इच्छा को पूरी करने का संकल्प था जो वे अपनी बेटियों के सन्दर्भ में कभी नहीं पूरी कर पाई थी. अपनी शिक्षा के प्रयास में आई मुश्किलों का उल्लेख करके कोई सहानुभूति बटोरने की कोशिश मैं नहीं करना चाहता लेकिन यह मैं पक्के तौर पर जानता हूँ कि मेरी की हिम्मत और उनके हौसलों की ही बुलंदी थी कि मैं एम  ए तक की पढाई बिना किसी   बाधा के पार करने में सफल  हो गया .

आज उसी मां  को गए १४ साल हो गए .मेरी बड़ी इच्छा है कि उनकी पुण्यतिथि पर अपने सभी भाई बहनों के बच्चों को उस वीरांगना की कर्मभूमि में हर साल इकठ्ठा करूं जिससे हमारी तीसरी पीढी के सारे  बच्चे अपने चचेरे ,मौसेरे और फुफेरे,भाई बहनों  से मिलें, उनको जानें और अपने पुरखों की ज़मीन से जुड़े रहें लेकिन संयोग नहीं बन  रहा है . एक बार विख्यात पत्रकार और गान्धीविद ,अरविन्द मोहन ने बताया था कि उनके बाबूजी की पुण्यतिथि पर उनके सभी  भाई बहनों के बच्चे  गाँव में  इकट्ठा होते हैं और सभी एक  दूसरे से मिलते जुलते हैं तब से ही मेरे मन में यह इच्छा प्रबल  हुई है लेकिन लगता है कि यह कभी पूरी नहीं होगी. ठीक भी है क्योंकि मैंने बचपन से ही देखा है कि मेरे  गाँव में जो लोग सत्तर साल की उम्र तक पंहुंच जाते हैं उनकी सुन लेने का रिवाज़  तो है लेकिन उनकी बात को लागू करने में किसी की रूचि नहीं रहती . बहरहाल मैं तो हमेशा अपनी माँ की याद करता ही रहूँगा क्योंकि उनके ही प्रयासों से आज मैं समाज में थोडा ही सही , सम्मानित  मुकाम हासिल करने में सफल हुआ हूँ .  मेरे और भाई बहनों के बच्चों ने भी उसी मां के संकल्प के कारण शिक्षा के  रास्ते अपने अपने जीवन को संवारने का प्रयास किया  है. संतोष की बात यह है कि उनकी  बेटियां यानी हमारी बहनें भी बच्चों की शिक्षा के प्रति उतनी ही दृढ संकल्प है जितनी माताजी हुआ करती थीं.



कहते हैं के माँ के पाँव के नीचे बहिश्त है


शेष नारायण सिंह


23 दिसंबर 2005. 82 साल की उम्र पूरी कर के वह अंतिम यात्रा पर निकल पड़ी थीं . अपने छोटे बेटे की गोद में उन्होंने अंतिम सांस ली .उनका बड़ा बेटा घर की आमदनी बढाने के लिए दिल्ली आ गया था , दो ब्याहता बेटियाँ अपने अपने घरों पर थीं . 22 तारीख की रात को एकाएक तबियत बिगड़ी और रात बीत नहीं पाई थी कि उन्होंने अपने उस घर से विदाई ले ली जहां वे सन 1937 में दुलहिन के रूप में आई थीं .वह मेरी मां हैं . उनकी पुण्यतिथि पर उनकी याद के साथ वे बहुत सी बातें भी याद आ रही हैं जो उन्होंने खुद बताई थीं , वे बातें भी याद रही हैं जिनको उन्होंने मुझसे या अपने बच्चों से नहीं बताई थीं लेकिन अन्य लोगों से मालूम पड़ गयी थीं.
जौनपुर सिटी रेलवे स्टेशन ,सैदन पुर और नई गंज गाँवों के बीच बना है . आज से करीब साठ साल पहले वहां कोई रेलवे स्टेशन नहीं था. इन्हीं दोनों गाँवों की ज़मीन अधिग्रहण करके स्टेशन बनाया गया . मेरी मां के पिताजी इसी सैदन पुर गाँव के थे . यह गाँव बहुत ही पुराना गाँव है . लखौरी ईंट से बने बहुत सारे खंडहर मैंने ही साठ और सत्तर के दशक में इन गाँव में देखे हैं . इस गाँव में माली, कोइरी, अहीर, कुम्हार, दर्जी ,दलित आदि जातियों के लोग रहते हैं . मियाँ साहबान भी थे. मेरे मामा के दोस्त मिर्ज़ा फीरोज़ बेग बड़े किसान थे , जैदी परिवार भी था लेकिन ज़ैदी परिवार के लोगों ने खेती को बहुत पहले छोड़ दिया था . मुझे बहुत बाद में पता चला कि गाँव में रहने वाले जैदी वे लोग थी जिनको जौनपुर शहर में ही कहीं नौकरी मिल गयी थी . बाकी लोग गाँव छोड़कर जा चुके थे .दिल्ली, लखनऊ,अलीगढ, मुंबई आदि शहरों में मुझे मेरे ननिहाल के जैदी लोग कभी न कभी मिलते रहे हैं . गाँव में पढ़े लिखे लोगों की दूसरी जाति कायस्थों की थी. लगभग सभी जौनपुर की कचहरी या किसी सरकारी दफ्तर में बाबू थे. उन लोगों के यहाँ खेती भी होती थी लेकिन खुद नहीं करते थे , कोइरी या अहीर लोगों को अधिया पर दे रखा था. मैं जब जौनपुर पढने के लिए 1967 में गया तो यही ढांचा था गाँव का . गाँव के बिलकुल पश्चिम  में ठाकुरों और ब्राह्मणों का घर था. एक ही खानदान के दो तीन परिवार थे . अब तो अलग विलग होकर कई परिवार हो गए हैं .
मेरी मां के पिता, स्व ठाकुर द्वारिका सिंह  संपन्न किसान थे. जौनपुर जिले में अंग्रेज़ी राज शुरू होने के पहले से ही कैश क्राप का चलन था . शर्की सुल्तानों की राजधानी था जौनपुर. मेरे नाना भी कैश फसलों के किसान थे .चमेली और परवल उनके कई खेतों में होता था . उनके गाँव में 1955 में सरकारी ट्यूबवेल लग गया था. इसी गाँव में मेरे पूर्वज 1937 में बारात लेकर गए थे . उस समय मेरे पिताजी की उम्र 13 साल की थी. मकसूदन के ज़मींदारों की पट्टी पिरथी सिंह के इकलौते वारिस थे . शान से बारात गयी थी. उनके ननिहाल .हमीनपुर से उनके नाना साहब दल बल सहित आये थे .हाथी ,घोड़े और बैलगाड़ियों से बराती गए थे , ऊंटों से लदकर तम्बू शामियाने गए थे . बैलगाड़ियों से भी सामान गया था .बारात सुबह कौवा बोले चल पड़ी थी और करीब सोलह कोस की दूरी तय करके शाम द्वार पूजा तक यह लोग पंहुच गए थे. हमारे बाबू के काका , स्व ठाकुर राम आधार सिंह नौजवान थे . उन्होंने मुझसे बताया था कि बच्चा की शादी का सारा इंतज़ाम उनके ही कंधे पर था . पुद्दन दर्जी बताते थे कि बच्चा की शादी में बहुत लोगों को कपडे दिए गए थे और वे अपने अब्बा के साथ सिलाई मशीन आदि लेकर करीब पन्द्रह दिन पहले से ही आकर जम गए थे. मुराद यह कि बारात बहुत ही शान शौकत से गयी थी .
ज़मींदारों का ज़िक्र होने पर आम तौर पर बहुत धनवान और राजसी शान का तसव्वुर होता है लेकिन हमारे पुरखों के यहाँ रईसी नहीं थी. हर शादी ब्याह के समय कुछ न कुछ ज़मीन ज़रूर बिकती थी . लगान भी कम इकट्ठा होती थी क्योंकि ज्यादातर रियाया ब्राहमण थे और उनसे जोर ज़बरदस्ती नहीं की जा सकती थी . मेरे माता पिता की शादी होने के तीन साल के अन्दर ही परिवार में कलह शुरू हो गयी थी. मेरे पिताजी के बाबा दो भाई थे . दोनों भाइयों में बहुत ही अपनापा था लेकिन उनके बच्चों की बहुओं में बात बात पर झगड़ा होता रहता था. 1944 आते आते दोनों भाइयों में अलगौझी हो गयी . छोटे भाई की तो उसी साल मृत्यु ही हो गयी . मेरे समझदार होने पर मेरे गाँव के ही बुज़ुर्ग चश्मा बाबा ने बताया कि अलग होने के बाद वे बहुत ही दुखी रहते थे और कुछ महीने बाद ही उनकी मृत्यु हो गयी .
ज़मींदारों के परिवार में विवाह होने के बाद भी मेरी मां की ज़िंदगी अभावों में बीती . बताती थीं कि जब उनकी शादी हुयी तो देश में गान्हीं का राज आ चुका था. यानी गवर्नमेंट आफ इण्डिया एक्ट 1935 के बाद हुए चुनावों में कांग्रेस की सरकार यू पी में बन चुकी थी. मेरे परिवार में लोगों ने पढाई लिखाई नहीं की थी . मेरी मां के गाँव में कायस्थ और मियाँ लोगों को पढाई करके तरक्की करते मेरी माँ ने देखा था. इसलिए वह अपने बच्चों को पढ़ाना चाहती थी. बड़ी लडकी को तो स्कूल नहीं भेज सकीं लेकिन बाद की औलादों को भेजा. पिताजी पढ़ाई लिखाई को फालतू की चीज़ मानते थे लेकिन मां की जिद चली और मैं पढ़ लिख गया .
उसी मां की याद हमेशा आती रहती हैं . कोशिश करता हूँ कि उनके बच्चों के बच्चे दिसंबर के आख़िरी हफ्ते में गाँव में रहें , उनकी यादें की जाएँ और उनको सही मायनों में श्रद्धांजलि दी जाए .लेकिन बच्चों को नहीं मालूम कि क्या क्या पापड़ बेलकर मेरी मां ने अशिक्षा के उस शिकंजे से अपनी भावी पीढ़ियों को निकाला है . उनको नहीं मालूम कि एक अकेली औरत की जिद के कारण ही इस परिवार में शिक्षा आयी है . हम भाई बहनों की सभी लड़कियां उच्च शिक्षा प्राप्त हैं , सभी बहुएं ग्रेजुएट या उससे ऊपर हैं . लड़के भी उच्च शिक्षित हैं . सब सम्माननीय काम कर रहे हैं . लेकिन सब की अपनी अपनी प्राथमिकता है . मैं यहाँ महानगर में बैठा हूँ और देवतुल्य मां को याद कर रहा हूँ

Friday, December 20, 2019

मंहगाई पर फ़ौरन लगाम लगाना जनहित भी है और राष्ट्रहित भी



शेष नारायण सिंह


पुलवामा बालाकोट,ट्रिपल तलाक़,  370 और अब नागरिकता बिल पर पिछले आठ महीने से सरकार का ध्यान लगा  हुआ है .  यह भावनात्मक मुद्दे हैं. इनकी चर्चा के आम आदमी को प्रभावित करने वाली वे बातें विमर्श के केंद्र में नहीं आतीं जिनके बहुत ही दूरगामी परिणाम होने वाले हैं .मीडिया और देश इन मुद्दों पर लगातार चर्चा कर रहा  है . इन ज़रूरी मुद्दों के बीच हर चीज़ पर जो महंगाई का हमला लगभग रोज़ ही हो रहा है वह सार्वजनिक विमर्श के बाहर रह रहा है . पिछले दो वर्षों  में महंगाई ने जिस तरह से आम जनजीवन को तबाही की तरफ डाल दिया है उसपर भी मीडिया और जनता के बीच चर्चा होना बहुत ज़रूरी है . चूंकि ऐसा नहीं हो रहा है इसलिए लगभग हर हफ्ते पेट्रोल की बढ़ रही कीमतें  दबे पाँव आ  जाती हैं और  जनता को गरीब  और मजबूर बनाती रहती  हैं . देश का प्रभावशाली मीडिया सरकारी एजेंडे के अनुसार  आचरण करता है. ज़रूरत इस बात की है कि आम आदमी की तकलीफों को बहस की मुख्यधारा में लाने की कोशिश की जाए .
 
पिछली छः तिमाहियों ने सकल घरेलू उत्पाद की विकास दर में लगातर कमी आ  रही है. विश्वविख्यात रेटिंग एजेंसी  मूडीज़ ने अगली  तिमाही और पूरे साल के भारत सबंधी अपने आकलन को फिर से संशोधित कर दिया है . और आगाह किया है कि लगातार घट रही विकास दर और भी घटेगी .इस बीच केंद्र सरकार ने महंगाई की खेप दर खेप आम आदमी के सिर पर लादने का सिलसिला जारी रखा हुआ  है. प्याज सहित खाने की हर चीज़ की महंगाई की ज़द में है . पेट्रोल की  कीमतें भी देश की बड़ी आबादी को कहीं का नहीं छोड़ रही हैं. हर हफ्ते  पेट्रोल की कीमत बढ़ती रहती है . जब कभी एकाध बार दो तीन पैसे प्रति लीटर की कमी की घोषणा हो जाती है तो बीजेपी और सरकार के प्रवक्ता उसका प्रचार शुरू कर देते हैं .सचाई यह है कि पेट्रोल की बार बार बढ़ रही कीमतों का महंगाई बढ़ने में बहुत बड़ा योगदान होता  है .फौरी तौर पर गरीब तो सोच सकता है कि बढ़ी हुई पेट्रोल की कीमतों से उनका क्या लेना देना लेकिन सही बात यह है कि पेट्रोल डीज़ल और बिजली की कीमत बढ़ने से सबसे ज्यादा तकलीफ गरीब आदमी ही झेलता है. आज की यह मंहगाई निश्चित रूप से कमर तोड़ है और उसमें ढुलाई की कीमतों का बड़ा योगदान है .

पचास साल पहले पेट्रोल और डीज़ल की कीमतों पर सरकारी नियंत्रण था .अर्थव्यवस्था को सही तरीके से चला पाने में असमर्थ सरकार ने पेट्रोल के दाम बढाकर चीज़ों को सँभालने की कोशिश की थी. हुआ यह था कि १९६७ के अरब-इजरायल यद्ध के कारण कच्चे तेल की कीमतें बढ़  गयी थीं. भारत में सब्सिडी पर डीज़लपेट्रोल और किरोसीन बेचा जाता था . आयातित कच्चे तेल में  भारी वृद्धि के  कारण दाम बढ़ाना ज़रूरी था लेकिन उसकी राजनीतिक कीमत थी और वह सरकार को झेलनी पडी थी .उस वक़्त के  मीडिया ने इसकी विषद विवेचना की थी .साल  १९६९ में जब प्रधानमंत्री स्व इंदिरा गाँधी ने डीज़ल और पेट्रोल की कीमतों में मामूली वृद्धि की थी तो साप्ताहिक ब्लिट्ज के संपादक रूसी के करंजिया ने अपने अखबार की हेडिंग लगाई थी कि पेट्रोल के महंगा होने से आम आदमी सबसे ज्यादा प्रभावित होगा सबसे बड़ी चपत उसी को लगेगी . उन दिनों लोगों की समझ में नहीं आता था कि पेट्रोल की कीमत बढ़ने से आम आदमी कैसे प्रभावित होगा. आर के करंजिया ने अगले अंक में ही बाकायदा समझाया था कि किस तरह से पेट्रोल की कीमत बढ़ने से आम आदमी प्रभावित होता है . उन दिनों तो उनका तर्क ढुलाई के तर्क पर ही केंद्रित था लेकिन उन्होंने समझाया था कि डीज़ल और पेट्रोल की कीमतें बढ़ने या घटने का लाभ या हानि आम आदमी को सबसे ज्यादा होता है .

आज की हालात अलग हैं . आज की मंहगाई जनविरोधी नीतियों की कई साल से चली आ रही गलतियों का नतीजा है . विपक्ष की मुख्य पार्टी कांग्रेस है लेकिन वह अभी भी अपने आपको सत्ताधारी पार्टी जैसी ही मानती है और जनता की तकलीफ के सबसे ज़रूरी मुद्दे महंगाई पर किसी आन्दोलन की बात नहीं करती,सड़क पर जाने की बात सोचती ही नहीं  .जबकि डॉ मनमोहन सिंह के समय मुख्य विपक्षी पार्टी  बीजेपी-आरएसएस हुआ करती थी और वह महंगाई के हर मुद्दे पर सड़क का मैदान ले लेती थी . समझ में नहीं आता की मौजूदा विपक्षी पार्टियों की समझ में यह बात कब आयेगी कि संकट की हालात की शुरुआत में  ही सरकार की नीतियों के खिलाफ जागरण का अभियान शुरू कर देने से आम आदमी की जान महंगाई के थपेड़ों से बचाई जा सकती है. पेट्रोल की कीमतों में वृद्धि तो ऐसी बात है जो सौ फीसदी सरकारी कुप्रबंध का नतीजा है . अगर कांग्रेस के शुरुआती दौर की बात छोड़ भी दी जाए जब घनश्याम दास बिड़ला की अम्बेसडर कार को जिंदा रहने के लिए अपने देश में कारों का वही इंजन चलता रहा जिसे बाकी दुनिया बहुत पहले ही नकार चुकी थी क्योंकि वह पेट्रोल बहुत पीता था . अम्बेसडर कार में वही इंजन चलता रहा लेकिन कांग्रेस में बिड़ला की पंहुच इतनी थी कि सरकारी कार के रूप में अम्बेसडर ही चलती रही . बहरहाल यह पुरानी बात है और उसके लिए ज़िम्मेदार किसी को भी ठहरा लिया जाए लेकिन इतिहास बदला नहीं जा सकता ,उससे केवल सबक लिया जा सकता है . केंद्र सरकार का मौजूदा रुख निश्चित रूप से अजीब है  क्योंकि वह पेट्रोल और डीज़ल की कीमतों के बढ़ने से होने वाली महंगाई को रोकने की दिशा में कोई पहल करने की बात तो दूर   उसको स्वीकार तक नहीं कर रही है . बहुत मेहनत से इस देश में पब्लिक सेक्टर का विकास हुआ था लेकिन ग्लोबलाइज़ेशन और उदारीकरण की आर्थिक नीतियों  के दौर में डॉ मनमोहन सिंह की  सरकार ने ही  आर्थिक विकास में सबसे ज्यादा योगदान कर सकने वाली कंपनियों को पूंजीपतियों को सौंपने का सिलसिला शुरू कर  दिया  था  वह प्रक्रिया आज भी जारी है यह अलग बात है कि कभी देश की शान रही एयर इंडिया जैसी लाभ कमाने वाली  कंपनी की हालत इतनी खराब हो चुकी है कि उसे बिक्री के लिए बाज़ार में लाया  गया तो  कोई खरीदने के लिए  तैयार नहीं हुआ. सरकार उसको बेचने पर आमादा है . जाहिर है इस बार औने पौने दाम पर उसको निपटा दिया जाएगा . कभी देश को पेट्रोलियम  की खोज की दिशा में आत्मनिर्भर बनाने वाली सरकारी कंपनी ,ओ एन जी सी और अन्य पेट्रोलियम कंपनियां  अब घाटे में हैं और बिक्री के लिए विनिवेश के बाज़ार में सौदा बन सकती हैं .  कई बार तो ऐसा लगता है कि अर्थव्यवस्था का प्रबंधन अब सरकार के काबू से बाहर जा चुका है . आर्थिक उदारीकरण के बाद  पिछले २५  वर्षों में कार्पोरेट जगत के पास इतनी  ताक़त आ  गयी है कि अब वे हर क्षेत्र में सरकार और उसकी नीतियों को नज़रअंदाज़ करने और चुनौती देने की स्थिति में आ गए हैं और  मनमानी कर सकने की स्थिति में हैं . सरकार के पास निजी पूंजी को काबू कर सकने की ताक़त अब बिलकुल नहीं है .

इस पृष्ठभूमि में बढ़ती कीमतों के अर्थशास्त्र को समझने की ज़रुरत है . दुर्भाग्य यह है कि देश का मौजूदा राजनीतिक नेतृत्व कुछ भी कंट्रोल कर पाने की स्थिति में नहीं है . ऐसे ही हालात यू पी ए-२  सरकार के समय में २००९ से ही शुरू हो गए थे  और २०११ आते आते त्राहि त्राहि मच गयी थी . हालांकि उस वक़्त तर्क यह दिया गया था कि गठबंधन सरकार की अपनी मजबूरियां होती हैं . लेकिन सचाई को सार्वजनिक रूप से कोई भी स्वीकार  करने के लिए तैयार नहीं था.  जबकि सरकारी नेता  मानते थे  कि कीमतों को बढ़ना राजनीतिक स्थिरता को प्रभावित करता  है . २०१२ में  ही तत्कालीन विपक्षखासकर बीजेपी-आरएसएस का महंगाई के खिलाफ अन्ना हजारे वाला आन्दोलन चल पड़ा और कांग्रेस पार्टी और उसके नेताओं को  भ्रष्टाचार का पर्यावाची बना दिया गया . तत्कालीन सी ए जी विनोद राय ने टू जी स्पेट्रम घोटाले  के पौने  दो लाख करोड़ रूपये के घोटाले का हथियार भी पब्लिक डोमेन में डाल दिया कामनवेल्थ खेलों के घोटाले को भी बड़ा रूप दे दिया गया और उसके सर्वेसर्वा  सुरेश कलमाडी को जेल की हवा खानी पड़ी थी  . यह अलग बात है कि अभी तक  कामनवेल्थ खेलों के घोटालों के कथित अभियुक्तों को कोई सज़ा नहीं हुई है .  सी ए जी विनोद राय के पौने दो लाख  रूपये के टू जी स्पेक्ट्रम के घोटाले के आंकड़े भी मौजूदा सरकार के अधिकारियों की नज़र में फर्जी पाए  गए हैं लेकिन राजनीतिक मोबिलाइज़ेशन में  उनका इतना बेहतरीन उपयोग  हुआ कि उस वक़्त के  विपक्ष को जनता ने देश की सरकार सौंप दी.

आज देश में उसी पार्टी की सरकार है जो उस वक़्त आन्दोलन की अगुवा थी . इसमें दो राय नहीं कि यह महंगाई और भ्रष्टाचार विरोधी उसी आन्दोलन के बाद सत्ता में आई है .  आज भी  जिस तरह से दाम बढ़ रहे हैं वे बहुत ही खतरनाक दिशा की ओर संकेत कर रहे हैं . सरकार की आर्थिक नीतियाँ ऐसी  हैं कि आम आदमी के पास कुछ भी खरीदने के लिए पैसा नहीं है . उदारीकरण के बाद आम आदमी ने स्वीकार कर लिया था कि अब उसके मेहनत को पूंजीपति वर्ग के कारखानों के लिए कच्चा माल माना जाएगा और उस्सको जो  भी अपनी  मेहनत की कीमत मिलेगी ,वह कारखानों से निकले हुए माल के बाज़ार में खरीदारी के काम आयेगी . नोटबंदी के बाद जो बहुत बड़े पैमाने पर बेरोजगारी आयी है उसके चलते गरीब की मेहनत के लिए कोई बाज़ार नहीं रह गया है . ज़ाहिर है उपभोक्ता वस्तुओं के खरीदार भी  कम हुए  हैं . सरकार सप्लाई साइड में तो  पब्लिक का पैसा झोंक  रही है लेकिन उससे कोई रोज़गार नहीं पैदा हो रहा है  जिसके चलते आम आदमी के हाथ में कुछ सरप्लस आमदनी नहीं आ रही है .उसी आमदनी से तो कारखानों में बने हुए माल की डिमांड  बढ़ती है जो अब नहीं बढ़ रही  है.  अजीब स्थिति है .इससे बचने का एक ही  तरीका  है कि  सरकार ऐसी नीतियाँ लाये जिससे यह आगे कुआं और पीछे खाईं वाली स्थिति को संभाला जा सके .

दुनिया भर के इतिहास से सबक लेने की ज़रूरत है . देखा गया है कि जब महंगाई कमरतोड़ होती  है तो शहरी आबादी के पास खाने पीने की भारी कमी हो जाती है . ऐसी हालत में  असंतोष बढ़ जाता है . अगर खाने की हर चीज़ नागरिकों की क्रय सीमा के बाहर हो जाती है तो आम आदमी लूट खसोट पर आमादा हो  जाता है .वह स्थिति अराजकता को जन्म देती है .इसलिए सरकार को चाहिए कि विवाद के नए नए मुद्दे पैदा करके जनता को उसमें भरमाये रखने  शुतुरमुर्गी  नीतियों को  छोड़ दे और तबाह हो रही अर्थव्यवस्था को संभालने की कोशिश करें .  पाकिस्तान की  हालात को टीवी पर चर्चा के माहौल को बंद करें और आर्थिक मुद्दों पर ध्यान केन्द्रित करें. 

बंटवारा एक दर्द है जिसको सियासत चमकाने के लिए नहीं कुरेदा जाना चाहिए



शेष नारायण सिंह

नागरिकता संशोधन एक्ट २०१९ पास हो गया , राष्ट्रपति ने मंजूरी दे दी , गज़ट में भी छप गया और अब वह कानून बन गया . लेकिन उसके बाद देश के  पूर्वोत्तर राज्यों में भारी उथल पुथल है . इस कानून से नाराज़गी है.  असम में आबादी का एक बड़ा हिस्सा बगावत की राह पर है . त्रिपुरा में इंटरनेट बंद कर दिया गया है और पूरे राज्य में निषेधाज्ञा लागू कर दी गयी है.  विदेशों में भी चर्चा है . मौजूदा सरकार के दोस्त समझे जाने वाले अमरीका के धार्मिक आजादी से सम्बंधित कमीशन ने बयान जारी किया है  जिसके अनुसार ” नागरिकता संशोशन विधेयक गलत दिशा में एक खतरनाक मोड़ है . यह भारत के धर्मनिरपेक्ष संविधान के बहुलतावाद के खिलाफ है . उस संविधान में धर्म के परवाह किये बिना सब को कानून की नज़र में बराबरी की गारंटी दी गयी है ."  अपने विदेश मंत्रालय  ने अमरीका से आये इस बयान  को गलत बताया है .भारत के पड़ोसी और दोस्त बंगलादेश की सरकार ने भी इस कानून पर एतराज किया है और अपना विरोध दर्ज कराने के लिए उनके दो मंत्रियों ने अपनी भारत यात्रा को रद्द कर दिया है . इस विधेयक में जो खामियां हैं उनपर तो संसद में और पूरे देश में बहस चल ही रही है लेकिन जो  असम और अन्य राज्यों में  विरोध है , लगता है कि सरकार को उसका अनुमान नहीं था.
  
इस कानून को पास करवाने  के लिए लोकसभा में हुयी बहस के दौरान भारत के १९४७ में हुए बंटवारे पर भी खूब  चर्चा हुयी . संसद में दोनों सदनों में गृहमंत्री पर गलतबयानी का आरोप लगाया गया.  जब उन्होंने लोकसभा में कहा कि ,' आपको मालूम है कि यह बिल लाना क्यों ज़रूरी है ? " उन्होंने जवाब भी खुद ही दिया और कहा कि ,' अगर कांग्रेस ने धार्मिक आधार पर देश का बंटवारा न  किया होता ,तो इस बिल को लाने की ज़रूरत ही न पड़ती . कांग्रेस ने देश को धार्मिक आधार पर विभाजित किया "  सदन में मौजूद कांग्रेस के शशि थरूर ने उनके इस दावे का ज़बरदस्त विरोध किया . उन्होंने कहा कि धार्मिक आधार पर देश के बंटवारे का समर्थन जिन्नाह ने किया था . धार्मिक आधार पर  देश की स्थापना आइडिया ऑफ़ पाकिस्तान है जबकि आइडिया ऑफ़ इण्डिया में एक  ऐसे मुल्क का तसव्वुर किया गया था जिसका स्थाई भाव धार्मिक बहुलता होगी . इतिहास को मालूम है कि तत्कालीन  हिन्दू महासभा के नेता वी डी सावरकर ने  भी उसी टू नेशन सिद्धांत  का ज़बरदस्त समर्थन किया था . सावरकर ने अंग्रेजों की वफादारी के चक्कर में  १९३७ में हिन्दू महासभा के अध्यक्ष के रूप में पार्टी के अहमदाबाद अधिवेशन में  जोर देकर कहा था कि हिन्दू और मुसलमान दोनों अलग अलग राष्ट्र ( Nation ) हैं .इसलिए अगर किसी को धार्मिक आधार पर बंटवारे  के लिए गुनहगार माना जाएगा तो उसमें मुहम्मद अली  जिन्ना और विनायक दामोदर सावरकर के नाम ही सरे-फेहरिस्त होंगे .यह भी सच है  कि कांग्रेस ने कभी भी धार्मिक आधार पर बंटवारे का समर्थन नहीं किया . पाकिस्तान की स्थापना का आधार धार्मिक था लेकिन भारत में धर्मनिरपेक्षता ही राज्य का धर्म स्वीकार की गयी . संविधान की प्रस्तावना में साफ़ साफ़ लिखा  है कि  ," हमभारत के लोगभारत को एक संपूर्ण प्रभुत्वसंपन्नसमाजवादी ,पंथनिरपेक्ष , लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिएतथा उसके समस्त नागरिकों को सामाजिकआर्थिक और राजनीतिक न्यायविचारअभिव्यक्तिविश्वासधर्म और उपासना की स्वतंत्रताप्रतिष्ठा और अवसर की समताप्राप्त कराने के लिए, तथा उन सब में,व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता और अखण्डता सुनिश्चित कराने वालीबन्धुता बढ़ाने के लिए,दृढ़ संकल्पित होकर अपनी संविधानसभा में आज तारीख 26 नवम्बर 1949 ईस्वी (मिति मार्गशीर्ष शुक्ल सप्तमीसंवत दो हजार छह विक्रमी) को एतद्वारा इस संविधान को अंगीकृतअधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं।भारत की  आज़ादी की लड़ाई की यही विरासत है ..
  
धार्मिक आधार पर बंटवारे के लिए कांग्रेस को ज़िम्मेदार ठहराने की गृहमंत्री अमित शाह की  बात को उनकी पार्टी के सबसे बुज़ुर्ग नेता ,लाल कृष्ण आडवाणी के सहयोगी सुधीन्द्र  कुलकर्णी ने भी गलत बताया है .  उन्होंने तो बहुत ही आक्रामक भाषा में  ट्वीट किया और कहा कि संसद के इतिहास में किसी मंत्री ने इतना बड़ा सफ़ेद झूठ कभी नहीं बोला क्योंकि कांग्रेस ने धार्मिक आधार पर देश के बंटवारे की बात तो दूर इस विचार को स्वीकार भी नहीं किया . डॉ राम मनोहर लोहिया ने भी लिखा है कि जिस जनसंघ ( बीजेपी का पूर्व अवतार ) के लोग अखंड भारत के सबसे बड़े पैरोकार बनते हैं उनके पूर्वजों ने मुस्लिम लीग और ब्रिटेन को भारत का बंटवारा करने में मदद पंहुचाई है . डॉ बी आर आंबेडकर ने भी कहा था कि जिन्नाह और सावरकर एक  दूसरे के खिलाफ बोलते हैं लेकिन दो राष्ट्र सिद्धांत के मामले में दोनों एक दूसरे के साथ हैं . इसलिए कांग्रेस को किसी कीमत पर  धार्मिक आधार पर बंटवारे का दोषी नहीं माना जा सकता है .

पता नहीं क्यों हमारे हुक्मरान  मुल्क के बंटवारे की बात को राजनीतिक स्वार्थ के लिए आज 72 साल बाद भी छेड़ते रहते हैं . पाकिस्तान की स्थापना भारत की एक बड़ी आबादी के लिए दर्द की एक तकलीफदेह कहानी  भी है . जहां तक  दक्षिण एशिया के मुसलमानों की बात है उनेक साथ तो हर  स्तर पर धोखा  हुआ है.  1947 के पहले के अविभाजित भारत में रहने वाले मुसलमानों को बेवक़ूफ़ बना कर पाकिस्तान की स्थापना की गयी थी. आखिर तकमुहम्मद अली जिन्ना ने यह नहीं बताया था कि पाकिस्तान की सीमा कहाँ होगी. क्योंकि अगर वे सच्चाई बता देते तो अवध और पंजाब के ज़मींदार मुसलमान अपनी खेती बारी छोड़ने को तैयार न होते और पाकिस्तान की अवधारणा ही खटाई में पड़ जाती. पाकिस्तान का बनना एक ऐसी राजनीतिक चाल थी जिसने आम आदमी को हक्का-बक्का छोड़ दिया था. इसके पहले कि उस वक़्त के भारत की जनता यह तय कर पाती कि उसके साथ क्या हुआ हैअंग्रेजों की शातिराना राजनीति और कांग्रेस और जिन्नाह वाली मुस्लिम लीग के  नेताओं की अदूरदर्शिता का नतीजा था कि अंग्रेजों की पसंद के हिसाब से मुल्क बँट गया.  मुसलामनों ने बंटवारे का दर्द सबसे ज़्यादा झेला है क्योंकि  हिन्दू और  सिख तो अपने परिवारों के साथ भारत आ गए लेकिन मुसलमानों के तो परिवार ही बंट गए .इस मजमून का उद्देश्य उस दर्द को और बढ़ाना नहीं है. हाँ यह याद करना ज़रूरी है कि पाकिस्तान की भौगोलिक स्थिति चाहे जो हो, 1947 के बाद सरहद के इस पार बहुत सारे मुसलमानों के घरों के आँगन में पाकिस्तान बन गया है और वह अभी तक तकलीफ देता है . दुनिया मानती है कि 1947 में भारत का विभाजन एक गलत फैसला था . बाद में तो बँटवारे के सबसे बड़े मसीहामुहम्मद अली जिन्ना भी मानने लगे थे कि पाकिस्तान बनवाकर उन्होंने गलती की ..विख्यात इतिहासकार अलेक्स वोन टुंजेलमान ने अपनी किताब , " इन्डियन समर, : द सीक्रेट हिस्टरी ऑफ़ द एंड ऑफ़ ऐन एम्पायर (Indian Summer: The Secret History of the End of an Empire.) "  में लिखा  है कि अपने आखिरी वक्त में जिन्ना ने पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमंत्री लियाकत अली खान से कहा था कि पाकिस्तान बनाना मेरी जिंदगी की सबसे बड़ी बेवकूफी है। अगर मुझे मौका मिला तो मैं दिल्ली जाकर जवाहरलाल से कह दूंगा कि गलतियां भूल जाओ और हम फिर से दोस्तों की तरह रहें.  लेकिन यह मौक़ा कभी नहीं मिला . वैसे भी पछताने से इतिहास के फैसले नहीं बदलते ..

जब जिन्नाह ने आवाहन किया कि पाकिस्तान में मुसलमानों को नौकरी दी जायेगी तो नौकरी की लालच में उत्तर प्रदेश के बहुत सारे जिलों से नौजवान कराची चले गए थे .यहाँ उनका भरा पूरा परिवार था लेकिन बंटवारे के पूरी तरह से लागू हो जाने के बाद वे लोग वहां से कभी लौट नहीं पाए . उनके घर वालों ने वर्षों के इंतज़ार के बाद अपनी ज़िंदगी को नए सिरे से जीने का फैसला किया लेकिन उसकी तकलीफ अब तक है..आज भी जब कोई बेटीजो पाकिस्तान में बसे अपने परिवार के लोगों में ब्याह दी जाती है जब भारत मायके आती है तो उसकी माँ उसके घर आने की खुशी का इस डर के मारे नहीं इज़हार कर पाती कि बच्ची एक दिन चली जायेगी. और वह बीमार हो जाती है . उसी बीमार माँ की बात वास्तव में असली बात है . नेताओं को शौक़ है तो वे भारत और पाकिस्तान बनाए रखेंराज करें ,सार्वजनिक संपत्ति की लूट करेंजो चाहे करें लेकिन दोनों ही मुल्कों के आम आदमी को आपस में मिलने जुलने की आज़ादी तो दें. अगर ऐसा हो गया तो पाकिस्तान और हिन्दुतान सरहद पर तो होगा संयुक्त राष्ट्र में होगाकामनवेल्थ में होगा लेकिन हमारे मुल्क के बहुत सारे आंगनों में जो पाकिस्तान बन गया है वह ध्वस्त हो जाएगा.फिर कोई माँ इसलिए नहीं बीमार होगी कि उसकी पाकिस्तान में ब्याही बेटी वापस चली जायेगी . वह माँ जब चाहेगी ,अपनी बेटी से मिल सकेगी. इसलिए  राजनेताओं से गुजारिश की जानी चाहिए कि राजनीतिक प्वाइंट बनाने के लिए  बंटवारे के घाव को बार बार न  कुरेदें .

Wednesday, December 18, 2019

गांधी के लिबरल हिंदू धर्म और आर एस एस के कट्टर हिंदुत्व के बीच तय होगी देश की राजनीति


शेष नारायण सिंह

महाराष्ट्र में उद्धव ठाकरे की सरकार देश की राजनीति में एक बड़ी  राजनीतिक सोच का संकेत लेकर आई है। यह एक प्रयोग की तरह लगता है । साफ नजर आ रहा है कि अब कांग्रेस की सेकुलर राजनीति जवाहरलाल नेहरू की धर्म निरपेक्षता से थोड़ा दूर जा रही है। राजनीतिविज्ञान के जानकारों की समझ में आने लगा है कि सोनिया गांधी की कांग्रेस अब महात्मा गांधी की सेकुलर राजनीति को बड़े पैमाने पर अपनाने की तैयारी कर रही है जिसमे हिन्दू होने के साथ साथ धर्मनिरपेक्षता के गांधी जी के मूल्यों को प्रमुखता दी जाएगी । 
महाराष्ट्र में एक नए तरह की राजनीतिक ताक़त के पास सत्ता आयी है . शिवसेना की मुस्लिम विरोधी राजनीति के चलते भारतीय राजनीति में बीजेपी के अलावा कोई भी उनको साथ लेने के लिए तैयार नहीं होता  था. शिवसेना के संस्थापक ,बाल ठाकरे  भारतीय संविधान के धर्मनिरपेक्ष स्वरुप का विरोध करते थे लेकिन सत्ता में आने के चक्कर में उसी   संविधान की शपथ लेकर एम पी एम एल ए ,निगम पार्षद आदि पदों पर शिव सेना के सदस्य पंहुचते भी रहे जिसका मुख्य फोकस सेकुलर राजनीति ही है .. सबको मालूम है कि यह एक विडम्बना ही थी क्योंकि इस देश में सत्ता पाने के लिए भारत के सेकुलर संविधान की रक्षा करने की शपथ लेनी ज़रूरी होती  है .  इस सब के बावजूद भी मुसलमानों का विरोध करने से शिवसेना के नेता बाज नहीं आ रहे थे . महाराष्ट्र में बीजेपी से उनका गठबंधन इसलिए टूटा क्योंकि शिवसेना इस बात पर आमादा थी कि मुख्यमंत्री उनका अपना ही कोई नेता बनेगा . बीजेपी के विधायकों की संख्या अधिक थी और बीजेपी इसी बुनियाद पर शिवसेना को मुख्यमंत्री पद देने को राजी नहीं थी . लेकिन शिवसेना ने सत्ता के लिए उन पार्टियों के सामने भी सहयोग की अर्जी लगाई जिनकी राजनीति का हमेशा से शिवसेना विरोध करती रही है. आज उद्धव ठाकरे मुख्यमंत्री बने हैं तो उनको मुसलमानों का दोस्त समझी जाने वाली   समाजवादी पार्टी का भी सहयोग मिला हुआ है . कांग्रेस ने सरकार का कामकाज  चलाने के  लिए बनाए न्यूनतम साझा  कार्यक्रम में धर्मनिरपेक्षता  की शर्त भी लगवा दी है . यानी  कट्टर हिन्दू राजनीति की समर्थक और सार्वजनिक रूप से धर्म निरपेक्षता की निंदा करने वाली  पार्टी का मुखिया  आज मुंबई में मुख्यमंत्री का काम सेकुलर राजनीति की अलमबरदार पार्टियों की कृपा से कर रहा  है  . मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे ने सत्ता को सेकुलर बुनियाद पर चलाने  की शर्त को भी स्वीकार किया है .उनको मालूम है कि अगर   सेकुलर राजनीति से किनारा किया तो महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री की गद्दी से भी अलविदा हो जायेगी .
 ऐसा लगता है  कि महाराष्ट्र में एक नई किस्म राजनीति जन्म ले रही है. बीजेपी की राजनीति को नकार देने के लिये उनकी  ही विचारधारा और उनके तीस साल पुराने साथी को तोड़कर एक नए किस्म की राजनीतिक ताक़त को शक्ल देने की कोशिश  शरद पवार और सोनिया गांधी ने किया है . जब भी केंद्र सरकार पर किसी ऐसी सत्ता की स्थापना हो जाती है जिसको  विपक्ष की ज़्यादातर पार्टियां सही नहीं मानतीं तो उनके सामने एकजुट होने के अलावा कोई विकल्प नहीं होता. यह बात आज़ादी के बाद भी हुयी थी. आज़ादी के बाद  सोशलिस्टों को लगा था कि जवाहरलाल नेहरू की  नीतियां आज़ाद भारत के लिए ठीक नहीं हैं . कांग्रेस से अलग पहले ही हो चुके थे . सोशलिस्ट पार्टी ने तय किया कि १९५२ के  आम चुनावों में कांग्रेस को चुनौती देनी ज़रूरी है . लेकिन कांग्रेस और उसके नेता जवाहरलाल नेहरू की आंधी के सामने सब बुरी तरह से हार गए . आज जो स्थिति लोकसभा में कांग्रेस की है ,लगभग वही स्थिति सोशलिस्टों की  १९५२ के चुनाव में थी . पांच साल बाद १९५७ के चुनाव में नेहरू और उनकी कांग्रेस बहुत ही मजबूती से चुनाव में कामयाब रहे . सोशलिस्ट नेता जयप्रकश नारायण तो पहले चुनाव के बाद ही चुनावी राजनीति से अलग हो चुके थे . १९५६ में आचार्य नरेंद्र देव की भी मृत्यु हो चुकी थी . डॉ राम मनोहर लोहिया और अशोक मेहता बचे थे .जब जवाहरलाल नेहरू ने   सोशलिस्टिक पैटर्न ऑफ़ सोसाइटी की बात करना शुरू किया तो बड़ी संख्या में समाजवादियों का झुकाव उनकी तरफ होने  लगा और १९६२ के चुनाव में कांग्रेस की  भारी जीत के बाद अशोक मेहता के नेतृत्व में  बड़ी संख्या में  समाजवादियों ने   कांग्रेस की सदस्यता ले ली . डॉ राम मनोहर लोहिया को भरोसा हो गया कि कांग्रेस को हराना सोशलिस्टों के बस की बात नहीं है . उन्होंने कांग्रेस पार्टी को हराने के लिए एक वैकल्पिक राजनीतिक ताक़त की तलाश शुरू कर दी .डॉ  राम मनोहर लोहिया ने गैर कांग्रेसवाद की अपनी राजनीतिक सोच को  बहस के दायरे में  डाल दिया और १९६३ में अपनी पार्टी के कलकत्ता  सम्मलेन में उन्होंने गैरकांग्रेसवाद की सोच को मंज़ूर करवा लिया . उसी साल लोकसभा की चार सीटों पर उपचुनाव हुए और डॉ लोहिया ने  राजाओं की समर्थक स्वतंत्र पार्टी , आर एस एस की सहयोगी  भारतीय जनसंघ के साथ चुनाव लड़ने का ऐलान कर दिया . किसी को विश्वास ही नहीं हुआ क्योंकि समाजवादियों ने हमेशा  आर एस एस और देसी राजाओं महाराजाओं का  विरोध  किया था . लेकिन डॉ लोहिया साफ़ देख रहे थे कि गैरकांग्रेसवाद के नाम पर सभी कांग्रेस विरोधी ताकतों को एक किये बिना कांग्रेस को हराना असंभव है . गैरकांग्रेसवाद के इस मंच ने उत्तर प्रदेश के फर्रुखाबाद,अमरोहा ,जौनपुर और बंबई में १९६३ में हुए लोकसभा के उपचुनावों में हिस्सा लिया . संसोपा के डॉ लोहिया  फर्रुखाबाद ,प्रसोपा के आचार्य जे बी कृपलानी अमरोहा ,जनसंघ के दीनदयाल उपाध्याय जौनपुर और स्वतंत्र पार्टी के मीनू मसानी मुंबई से गैर कांग्रेसवाद के उम्मीदवार बने . दीन दयाल उपाध्याय तो हार गए लेकिन बाकी तीनों विजयी  रहे .इसी प्रयोग के बाद  गैरकांग्रेसवाद ने एक शकल हासिल की और १९६७ में हुए आम चुनावों में अमृतसर से कोलकता तक के  इलाके में वह कांग्रेस विधानसभा के चुनाव हार गयी जिसे जवाहर लाल  नेहरू के जीवनकाल में अजेय माना जाता रहा था . १९६७ में संविद सरकारों का जो प्रयोग हुआ उसे शासन  पद्धति का को बहुत बड़ा उदाहरण तो नहीं माना जा सकता लेकिन यह पक्का है कि उसके बाद से ही यह बात आम  जहनियत का हिस्सा बन गयी कि कांग्रेस को सत्ता से बेदखल किया जा सकता है .इस समय देश की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी थीं.
ऐसा लगता है कि २०१४ और २०१९ के  लोकसभा चुनावों में  नरेंद्र मोदी की बीजेपी की ताबड़तोड़ सफलता के बाद विपक्ष की समझ में यह बात आ गयी है कि   नरेंद्र मोदी को हराने के लिए कुछ गैर भाजपावाद जैसा प्रयोग करना पडेगा जसमें राजनीतिक  विचारधारा के विरोधी भी एक मंच पर आ सकें और बीजेपी को एकमुश्त चुनौती दे सकें . लगता है कि महाराष्ट्र में शिवसेना को अछूत मानने वाली समाजवादी पार्टी और कांग्रेस ने भी इसी सोच के तहत शिव सेना को समर्थन देने का फैसला किया है . कांग्रेस की एक और दुविधा थी . २०१४ के चुनावों में कांग्रेस की हार के बाद कांग्रेस के बड़े नेता , ए के एंटनी ने एक रिपोर्ट तैयार की थी  जिसमें कांग्रेस की हार के कारणों का विश्लेषण  किया  गया था . एक प्रमुख कारण यह बताया गया था कि  बीजेपी के पचीस साल से  अयोध्या की बाबरी मस्जिद के खिलाफ चल  रहे अभियान के चलते कांग्रेस की सेकुलर राजनीति को हिन्दू विरोधी सांचे में फिट कर दिया गया था . उसी लेबल से बचने की कोशिश में २०१४ के बाद हुए कई विधानसभा चुनावों में कांग्रेस  अध्यक्ष ,राहुल गांधी कहीं  शिव भक्त के रूप में जाते थे तो कहीं जनेऊ धारी हिन्दू बनकर प्रचार करते थे . कांग्रेस के जिन नेताओं पर हिन्दू विरोधी होने का आरोप लगा था   उनमें  कांग्रेस  वर्किंग कमेटी के तत्कालीन सदस्य , दिग्विजय सिंह का  नाम सबसे  ऊपर था।  उसकी काट का  पारम्परिक तरीका अपनाया और साढ़े छः महीने में करीब तीन हज़ार किलोमीटर पैदल चल कर  नर्मदा  यात्रा की . अपनी पत्नी के साथ वे यात्रा पर निकल गए ,  मीडिया को दूर रखा , दिन में दो बार  नर्मदा जी की आरती की और जहां ,जहां गए सब को साफ़ नज़र आता रहा कि वे बीजेपी वालों से बड़े हिन्दू हैं .   आज किसी भी टीवी चैनल  वाले की हिम्मत नहीं है कि उनको हिन्दू विरोधी कह सके. राजनीति शास्त्र का प्रत्येक  छात्र जानता  है कि मध्य प्रदेश में  कांग्रेस की जीत में दिग्विजय सिंह  की नर्मदा यात्रा का भी  योगदान है .  

 नरेद्र मोदी ने २०१४ और २०१९ के लोकसभा चुनावों में साबित कर दिया था कि  दिल्ली में सत्ता हासिल करने के लिए मुसलमानों के वोट की कोई ज़रूरत नहीं है . इसलिए अब हिंदुत्व की राजनीति इस देश की सत्ता के लिए ज़रूरी हो गयी थी .महाराष्ट्र के गठबंधन में सोनिया गांधी की कांग्रेस की शिरकत को इसी रोशनी में   देखने की जरूरत है . ऐसा लगता  है कि अब इस देश में सत्ता की राजनीति करने वाले पार्टियों को  दो वर्ग में रखा जायेगा. एक तो कट्टर हिंदुत्व की  समर्थक पार्टियां जो  मुसलमानों को घेरकर मार डालने की घटनाओं को सही ठहराती  हैं और दूसरी वे  पार्टियां जो हिन्दू समर्थक  तो हैं लेकिन लिबरल भी  हैं और महात्मा गांधी की तरह हिन्दू होते हुए   सबको बराबर का सम्मान देने की पक्षधर हैं . कांगेस के शिवसेना के साथ जाने की राजनीति में मुझे इसी तरह के संकेत नज़र आ रहे हैं . इस गठबंधन के बाद कांग्रेस ने यह सुनिश्चित किया है कि सत्ता  चलाने के लिए शिवसेना को अपनी कट्टर हिंदूवादी राजनीति को छोड़कर कॉमन मिनिमम  प्रोग्राम को मानना पड़ेगा  जिसका स्थाई भाव सेकुलर राजनीति  है. बाकी देश में  अब कांग्रेस के नेताओं को हिन्दू विरोधी सांचे से निकलने में महाराष्ट्र के गठबंधन से मदद  मिलेगी . मुसलमानों को भी यह तय करना पड़ेगा  कि कांग्रेस के विरोध की ओवैसी की राजनीति करेंगें जिसमें बीजेपी को चुनावी फायदा होता है या  एन सी पी नेता नवाब मालिक की राजनीति करेंगें जिससे बीजेपी को सत्ता से बाहर रखा जा सकता है .महाराष्ट्र को इस राजनीति की शुरुआत की प्रयोगशाला के रूप में देखा जा सकता है .

Sunday, December 8, 2019

परमाणु हथियारों का ज़खीरा बनाने के लिए कुछ भी करने पर आमादा है पाकिस्तान


शेष नारायण सिंह 
पाकिस्तान के परमाणु हथियारों और सामूहिक तबाही के हथियारों के ज़खीरे पर एक बार फिर अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर चर्चा शुरू हो गयी है. जर्मनी से खबर है कि पाकिस्तान में अनधिकृत तरीके से यह काम किया जा रहा है . आशंका है कि पाकिस्तान जर्मनी और अन्य यूरोपीय देशों में ऐसे लोगों और कंपनियों की तलाश कर रहा है जो परमाणु, जैविक और रासायनिक हथियारों को बनाने और उनको विकसित करने की टेक्नालोजी मुहैया करा सकें . जर्मनी की सरकार को विश्वास है कि पाकिस्तान की इन गतिविधयों में आजकल ज़बरदस्त तेज़ी आई है . अपने देश के एक विपक्षी सांसद के एक पत्र के जवाब में जर्मनी की सरकार ने यह जानकारी दी है . यह कोशिश कोई नई नहीं है . जर्मनी की  ख़ुफ़िया एजेंसी , बी एफ वी ने २०१८ में भी  रिपोर्ट दी थी कि पाकिस्तान बहुत समय से यह कोशिश कर रहा है . रिपोर्ट में बताया गया है कि इनका फोकस परमाणु हथियारों की टेक्नोलोजी पर ज़्यादा रहता है और यह कोशिश बहुत पहले से चल  रही है . उस रिपोर्ट में एक और दिल दहलाने वाली बात भी कही गई है . लिखा है कि पाकिस्तान  का सिविलियन परमाणु कार्यक्रम तो  है ही, उसकी एक बड़ी योजना इस बात की भी है कि परमाणु हथियारों का बड़ा ज़खीरा बनाया जाए . यह सारा कार्यक्रम भारत को टार्गेट करके चालाया जा रहा  है. जर्मनी की सरकार मानती है कि अभी पाकिस्तान के पास करीब १४० परमाणु हथियार हैं जिसको वह २०१५ तक २५० तक पंहुचा देना चाहता है .
ऐसा नहीं है कि पाकिस्तान पर बाकी दुनिया की नज़र पहली बार   पड़ी है . २०११ में भी अमरीका से इसी तरह की एक रिपोर्ट अमरीकी संसद में दी गयी थी. उस वक़्त अमरीकी थिंक टैंक , कांग्रेशनल रिसर्च सर्विस  , ने बताया था कि पाकिस्तान के पास 90 और 100 के बीच परमाणु हथियार थे जबकि भारत के पास उससे कम थे . अब यही संख्या बढ़कर 140 हो गयी है . जिसे वह 250 तक ले जाना चाहता है .  कांग्रेशनल रिसर्च सर्विस का काम काम दुनिया भर के मामलों से अमरीकी संसद के सदस्यों को आगाह रखना है . समय समय पर यह संगठन अपनी रिपोर्ट देता रहता है जिसका अमरीकी सरकार की नीति निर्धारण में अहम भूमिका होती है . २०११ में जब यह रिपोर्ट आई थी अमरीकी विदेश नीति के नियामकों के लिए भारी उलझन पैदा हो गयी थी . इस बात पर बहुत ही नाराजगी जताई गयी थी कि पकिस्तान के विकास के लिए दिया जा रहा धन  परमाणु हथियारों के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है .

२०११ में अमरीकी संसद की इस रिपोर्ट के बाद  भारत में भी विदेश और रक्षा मंत्रालयों के आला अधिकारी चिंतित हो गए थे .. इतनी खतरनाक खबर से भरी हुई रिपोर्ट के आने के बाद चिंता होना स्वाभाविक था. उसी रिपोर्ट में लिखा हुआ था कि पाकिस्तान में इस बात पर चर्चा चल रही थी कि वह उन हालात की फिर से समीक्षा की जाए जिनमें वह अपने परमाणु हथियारों का इस्तेमाल कर सकता है . अब चिंता यह है कि परमाणु हमले की धमकी देने वाले उसके मंत्रियों की मंशा कहीं खतरनाक तो नहीं है . पाकिस्तान के एक मंत्री ने तो किलो आधे किलो के परमाणु बमों की बात भी करके अजीब स्थिति पैदा कर दी थी. अवाम तो यही समझ रहा था कि वह मंत्री कुछ खिसका हुआ है लेकिन सरकारी तत्र को मालूम था कि पाकिस्तान से आने वाले हर संकेत को हलके में निपटना खतरनाक हो सकता है .आज भी आशंका बनी हुयी है  कि वह मामूली झगड़े की हालात में भी परमाणु बम चला चला सकता है . अगर ऐसा हुआ तो यह मानवता के लिए बहुत बड़ा ख़तरा होगा . रिपोर्ट में साफ़ लिखा है कि पाकिस्तान कम क्षमता वाले अपने परमाणु हथियारों को भारत की पारंपरिक युद्ध क्षमता को नाकाम करने के लिए इस्तेमाल कर सकता है .

जिन देशों के पास भी परमाणु हथियार हैं उन्होंने यह ऐलान कर रखा है कि वे किन हालात में अपने हथियार इस्तेमाल कर सकते हैं . आम तौर पर सभी परमाणु देशों ने यह घोषणा कर रखी है कि जब कभी ऐसी हालत पैदा होगी कि उनके देश के सामने अस्तित्व का संकट पैदा हो जाएगा तभी उनके परमाणु हथियारों का इस्तेमाल होगा . लेकिन पाकिस्तान ने ऐसी कोई लक्ष्मण रेखा नहीं बनायी है . उसके बारे में आम तौर पर माना जाता है कि उसका परमाणु कार्यक्रम भारत को केंद्र में रख कर चलाया जा रहा है . रक्षा मामलों के जानकार मानते हैं कि पाकिस्तान ने ऐसा इसलिए कर रखा है जिस से भारत और दुनिया के बाकी देश गाफिल बने रहे और पाकिस्तान अपने न्यूक्लियर ब्लैकमेल के खेल में कामयाब होता रहे. कोई नहीं जानता कि पाकिस्तान परमाणु असलहों का ज़खीरा कब इस्तेमाल होगा . कोई कहता है कि जब पाकिस्तानी राष्ट्र के अस्तित्व पर सवाल खड़े हो जायेगें तब इस्तेमाल किया जाएगा. यह एक पेचीदा बात है . पिछले कुछ वर्षों में पाकिस्तानी प्रधानमंत्री ने कई बार यह कहा है कि पाकिस्तान के सामने अस्तित्व का संकट है . क्या यह माना जाए कि पाकिस्तान अपने उन बयानों के ज़रिये परमाणु हथियारों की धमकी दे रहे थे . पाकिस्तानी सत्ता में ऐसे भी बहुत लोग है जो संकेत देते रहते हैं कि अगर भारत ने पाकिस्तान पर ज़बरदस्त हमला कर दिया तो पाकिस्तान परमाणु ज़खीरा खोल देगा. दुनिया के सभ्य समाजों में पाकिस्तानी फौज के इस संभावित दुस्साहस को खतरे की घंटी माना जा रहा है . पाकिस्तान में इस तरह की मानसिकता वाले लोगों पर काबू करने की ज़रुरत है . यह पाकिस्तान के दुर्भाग्य की बात है कि वहां इस तरह की मानसिकता वालों की संख्या बहुत तेज़ी से बढ़ी है .लेकिन इस मानसिकता वालों की वजह से परमाणु तबाही का ख़तरा भी बढ़ गया है . भारत समेत दुनिया भर के लोगों को कोशिश करनी चाहिए कि पाकिस्तान में मौजूद आतंकवादी मानसिकता के लोग काबू में लाये जाएँ. हालांकि यह काम बहुत आसान नहीं होगा क्योंकि भारत के खिलाफ आतंक को हथियार बनाने की पाकिस्तानी नीति के बाद वहां का सत्ता के बहुत सारे केन्द्रों पर उन लोगों का क़ब्ज़ा है जो भारत को कभी भी ख़त्म करने के चक्कर में रहते हैं . वे १९७१ में पाकिस्तान की सेना की उस हार का बदला लेने के फिराक में रहते हैं जिसके बाद बांग्लादेश का जन्म हुआ था. बदला लेने की इस जिद के चलते उनके अपने देश को भी तबाही का खतरा बना हुआ है . क्योंकि अगर उन्होंने परमाणु हथियार इस्तेमाल करने की गलती कर दी तो अगले कुछ घंटों में भारत उनकी सारी सैनिक क्षमता को तबाह कर सकता है . अगर ऐसा हुआ तो वह विश्व शान्ति के लिए बहुत ही खतरनाक संकेत होगा .


पाकिस्तानी परमाणु हथियारों की सुरक्षा हमेशा से ही सवालों के घेरे में रही है . जिस तरह से पाकिस्तानी फौज ने आई एस आई के नेतृव में आतंक का तामझाम खड़ा किया है उस से तो लगता है कि एक दिन पाकिस्तान के आतंकवादी संगठनों के सरगना उसके परमाणु ज़खीरे की चौकीदारी करने लगेगें. अगर ऐसा न भी हुआ तो पाकिस्तान  में जिस तरह से अपनी कौम को सबसे ताक़तवर बताने और भारतीयों को बहुत कमज़ोर बताने का माहौल है ,उसके चलते कोई भी फौजी जनरल बेवकूफी कर सकता है .इस तरह की गलती १९६५ में जनरल अयूब कर चुके हैं . उन्होंने भारतीयों को कमज़ोर समझकर हमला कर दिया था और जब अमरीका से मिले भारी असलहे से लैस पाकिस्तानी सेना बुरी तरह से हार गयी तब राष्ट्रपति अयूब की समझ में आया कि वे कितनी बड़ी गलती कर बैठे थे . बाद में  ताशकंद में रूस के सौजन्य से भारत में उन्हें कुछ ज़मीन वापस कर दी .पाकिस्तान को महान मानने वालों की आज भी वहां कमी नहीं है .ज़ाहिर है जनरल अयूब वाला दुस्साहस कोई भी पाकिस्तानी जनरल कर सकता है .इसलिए जर्मनी से आयी ताज़ी जानकारी को पाकिस्तानी इस्टेब्लिशमेंट में मौजूद  जंगी मानसिकता के लोगों लो लगाम लगाने के काम में इस्तेमाल किया जाना चाहिये  और दुनिया को पाकिस्तानी परमाणु ज़खीरों पर अंतर राष्ट्रीय निगरानी रखने का माकूल बंदोबस्त करना चाहिए

Thursday, November 14, 2019

साधो ,देखी तुम्हरी कासी






शेष नारायण सिंह

बनारसी संस्कृति , धर्म, परंपरा और लंठई की बुलंदी को फिर से स्थापित करने वाली एक किताब हाथ लगी है .नाम है , " साधो ये उत्सव का गाँव " अभिषेक उपाध्याय, अजय सिंह और रत्नाकर चौबे ने इस किताब का संपादन किया है .यह  काशी की पंचक्रोशी यात्रा की यादों का एक बेहतरीन संकलन है .सभी यात्रियों की यादें इसमें लिखी गयी हैं. हुआ यह कि बनारसी ठलुओं की एक अड़ी के कुछ नक्षत्रों को यह बताया  गया कि तुम बनारस को ठीक से नहीं जानते , लिहाजा बनारस को समझने की एक यात्रा करते हैं .इन सबों ने मिलकर अगस्त के अंतिम दिनों में काशी की पंचक्रोशी यात्रा की और अपने अनुभवों को कलमबंद कर दिया  . सारी यादें भाइयों ने व्हाट्सप पर लिखीं और इसको पुस्तक के रूप  छाप दिया गया .  यात्रा का घोषित उद्देश्य था कि काशी को ठीक से समझा जाएगा  . लेकिन कई यात्रियों ने लिखा  है कि उनकी हालत कोलंबस वाली हो गयी. कोलंबस खोजने निकले थे भारत और खोज  निकाला अमरीका ,लगभग उसी तरह कुछ  ठलुओं ने कुबूल किया है उन्होंने यात्रा शुरू की थी , बनारस को पूरा खोजने के लिए लेकिन अंत में अपने  आपको ही समझकर  संतुष्ट हो गए . विख्यात पत्रकार हेमंत शर्मा इस टोली के मुख्य संयोजक थे , भांति  भांति के संतों को इस यात्रा में शामिल होने की  प्रेरणा दी और सब को लेकर चल पड़े. जनसत्ता के आदिकाल से बहुत बाद तक उसके उत्तर प्रदेश के संवाददाता के रूप में हेमंत ने अपने आपको मेरे जैसे लोगों के दिमाग में स्थापित किया था . जनसत्ता की  भाषा का जो विकास हुआ उसमें हेमंत के बनारस की   भाषा के भी बहुत से लक्षन थे. इस यात्रा के संकलन का जो परिचय उन्होंने लिखा है उसमें उस विकासमान भाषा के कुछ विकसित तत्व भी शामिल हैं . पंचक्रोशी यात्रा, काशी, अड़ी, ठलुआ और लंठई की बाकी दुनिया में अबूझ सत्ता को उनके चरैवेति चरैवेति को पढने से समझने में बहुत सुविधा होगी .उनके उसी लेख से कुछ उधार लेकर बात को साफ़ करने की कोशिश की जायेगी .
बहुत सारे लोग काशी को जानते हैं या जानने का दावा करते हैं लेकिन उनके मानसिक विकास के क्रम में एक मुकाम ऐसा आता  है जब उनको लगता है कि उन्होंने  काशी की गलियाँ देखीं , घाट देखे  , खानपान देखा, बोली बानी देखी ,पहनावा देखा, हर हर महादेव की  बारीकियां समझीं , नाटी इमली का भरत मिलाप देखा, चेतगंज की नक्कटइया देखी, सांड और सन्यासी देखे ,वह गलियाँ देखीं जहाँ से अपने अपने वक़्त के बड़े बड़े सूरमा विश्वनाथ दरबार में हाजिरी लगाने आते रहे थे  लेकिन  उन्होंने वह काशी नहीं देखी जहां कबीर को रामानंद मिले थे  ,जहां रामबोला को उनके  आक़ा ने तुलसीदास बना दिया था , कलकत्ता जाते हुए जहां  ग़ालिब ठहरे थे और उन्होंने एक बार तो बनारस को ही अपना ठिकाना बनाने  का मन बना लिया था . उसी बनारस में ग़ालिब ने चराग़-ए-दैर लिखा था . हेमंत शर्मा लिखते हैं कि सब कुछ नज़रों के सामने था, बस , 'नज़र' नहीं थी.  जो कुछ दिख रहा था ,उससे बस एक कदम बढ़ाना था और काशी के भूगोल से निकलकर बस अगला क़दम उसके इतिहास में ,उसकी परम्पराओं में पड़ने वाला था.
तो जनाब इस तलाश में ठलुओं की अड़ी के यह लोग निकला पड़े . जो यात्रा आमतौर पर पांच दिन में की जाती है उसको तीन दिन में पूरी की . करीब अस्सी  किलोमीटर की यात्रा  यानी पचीस किलोमीटर रोज़ का पैदल चलना . शहराती बाबुओं के लिए यह टेढ़ी खीर है . लेकिन इन लोगों ने इस यात्रा को पूरा किया क्योंकि अगर असंभव को संभव बनाने  की क्षमता न हो तो बनारसी कैसा और ठलुआ कैसा . ठलुआ काशी की  संस्कृति का स्थाई भाव तो है ही सदियों से यह संचारी भाव भी  है .चरैवेति चरैवेति में ही ठलुआ की प्रबोधिनी लिख दी गयी है .लिखते हैं "  ठलुवत्व एक बनारसी जीवनदर्शन है ,जीने की कला है , समाज को देखने की दृष्टि है ,दुनिया को ठेंगे पर रखकर अपनी बात को बेलौस कहने की जिद  है , ' उधो क लेना ,न माधो का देना ' उसका मकसद है . ठलुवा दुखी हो सकता है ,पर रोता नहीं है . वह रोने में भी हंसने का आनंद लेता है . ठलुए में चार कहने और चार सुनने की क्षमता होती है . वह खुद के अलावा समूची दुनिया को मूर्ख समझता है. वह जीवन के राग-रंग से  चुस्त-दुरुस्त होने के साथ ही औघड़पन का दिव्य रस पैदा करने देने वाली भांग-ठंडाई का भी  शौक़ीन होता है . भगवान भोले का यह परम भक्त, धन कमाने के कौशल को मूर्खता नहीं , तो धूर्तता तो ज़रूर  समझता है . ठलुवा भूखा रहेगा पर किसी के आगे हाथ नहीं पसारेगा , अगर कभी पसारेगा तो भी शेर की तरह गुर्राते हुए . " ऐसे ही  ठलुवों ने अपनी काशी की पंचक्रोशी यात्रा की और उस यात्रा के अपने अनुभव हम जैसे लोगों के लिए लिख दिया जिनके बचपन का सपना है कि काश हम भी कभी बनारस में रह पाते  . उम्र के चौथेपन में आ गए लेकिन वह सपना अधूरा ही  रह गया .
यह ठलुवे एक  अड़ी के सदस्य हैं .बंगाल में जिस संस्था को अड्डा कहते हैं उसका आदिस्वरूप बनारस शहर की अड़ी से ही लिया गया है.  किताब में पिछले सौ दो सौ साल की प्रमुख अड़ियों का ज़िक्र भी है. यह भी बताया गया है कि बनारस से  निकलकर जिन लोगों पूरे देश में अपनी मौजूदगी की धाक बनाई , वे बनारस की  किसी न किसी अड़ी के सदस्य थे और वहीं उन्होंने अपनी मेधा , ज्ञान और तर्कशक्ति का  विकास  किया था.  शिव  प्रसाद सिंह, केदारनाथ सिंह , नामवर सिंह, धूमिल, चंद्रशेखर मिश्र ,बेधडक बनारसी , भैयाजी बनारसी  सभी किसी न किसी अड़ी के सदस्य रह चुके  हैं. बनारस में एक ठलुवा क्लब भी है जहां अपने क्षेत्र के बड़े बड़े  महारथियों और  साहित्यकारों को आमंत्रित करके उनका मुंडन करने की सांस्कृतिक परम्परा रही है .
" साधो ये उत्सव का गाँव " में सभी यात्रियों ने अपने अपने अनुभव को  कलमबंद किया है . कुछ ऐसे भी लोगों ने इस यात्रा से जुडी अपनी यादों को  लिखा  है जो इस यात्रा में किन्हीं कारणों से शामिल  नहीं हो सके थे . किसी के परिवार में कोई  ग़मी हो गयी और किसी को छुट्टी नहीं मिली . उनके लेख से यह बात समझ में आ जाती  है कि यात्रा में न जाकर क्या क्या मिस किया था  ठलुवों ने .
शरद शर्मा ने  पंचक्रोश के इतिहास और महिमा पर जो लिखा है वह जानकारी के लिहाज से बहुत उपयोगी है .ब्रह्मवैवर्त पुराण और स्कन्द पुराण के हवाले से काशी के प्राचीन भूगोल के बारे में ज़रूरी सूचना उनके लेख में उपलब्ध है .मुनीश मिश्रा ने सत्यं ,शिवं ,सुन्दरम के हवाले से पंचक्रोशी की यात्रा को ऐतिहासिक नज़र को लिपिबद्ध कर दिया है .
अभिषेक उपाध्याय और रत्नाकर चौबे ने यात्रा का वृत्तान्त लिखा है . रास्ते के गाँव, कस्बे ,मंदिर  , तालाबों का अच्छा परिचय है .उन्होंने बनारस से जुडी बहुत सारी ऐतिहासिक जानकारी भी शामिल किया है . मणिकर्णिका से मणिकर्णिका तक की यह यात्रा उन्होंने संभालकर लिखा है .प्रेमचंद की कहानी ' बड़े भाई साहब ' का एकल मंचन जो अभिषेक उपाध्याय ने किया उसकी तारीफ़ लगभग सभी रिपोर्टों में है . ममता शर्मा का गायन और बिरहा का मुकाबला भी ठलुवों के दिल में समाया  हुआ  है .

बहुत ही दिलचस्प किताब . ठलुवा कल्चर के हिसाब से लगभग सभी लेखकों ने अपनी लेख में किसी न किसी की खिंचाई ज़रूर की  है . मसलन वृत्तान्त में ही बब्बू राय पर तंज है कि ' बिना कुछ किये श्रेय लेने की धरतीफाड़ कोशिश " . यह अभिव्यक्ति का तरीका अच्छा लगा . बब्बू  विनय राय की रिपोर्ट मनमोहक  है .' जब बाहुबली ने पहली बार देखी माहिष्मती ' मुझे बहुत अच्छी लगी. उस पर रत्नाकर चौबे की टिप्पणी , " जौ विनायक का दर्शन कर सब लोग 'सशरीर ' मणिकर्णिका घाट जाकर यात्रा पूरी किये  " लाजवाब है.    उस पर सवा सेर है हेमंत शर्मा की टिप्पणी . लिखते हैं ," वाह रे बब्बू ! अभई तक हम तोहके बाहुबलिये जानत रहली. पर तू त विद्वानौ हउआ ."
सभी लेखकों के लेख अंत में उनका परिचय भी है. कुछ परिचय ऐसे हैं जो आनंद की धार से भरपूर हैं. ठलुवों की अड़ी के स्तम्भ नवीन तिवारी के परिचय की एक बानगी  देखिये ," नवीन तिवारी ठलुवों की इस अड़ी के आमरण अध्यक्ष हैं. वे बहुमत के विरोध के बावजूद इस पद पर  ' निर्विरोध ' चुने गये . ऐसी उपलब्धि हासिल करने वाले देश के पहले  अध्यक्ष हैं . "
किताब को  दिल्ली के प्रभात प्रकाशन ने छापा है.