शेष नारायण सिंह
जब मैं अपने भाई
बहनों की बेटियों और बेटों को दिल्ली,लखनऊ, इलाहबाद,धनबाद ,कोलकता,बंगलोर ,सूरत,मुंबई, लन्दन ,न्यू यॉर्क आदि शहरों में स्वतंत्र रूप से घूमते या काम करते
देखता हूँ, तो मुझे एक ऐसी स्त्री की याद आ जाती है जिसको
ब्याह कर ज़मींदारों के घर में लाया गया था लेकिन संयुक्त सामंती परिवार की तीस और चालीस के दशक की रूढ़िवादी मान्यताओं के चलते अपने सम्मान और
अस्तित्व की रक्षा के लिए हर मोड़ पर संघर्ष करना पड़ा
और समझौते करने पड़े. जिस समाज में वे आई थीं , वहां बच्चों की माँ बन जाना सबसे बड़ी उपलब्धि मानी जाती थी. उस दौर में
जिसके बेटा न हुआ वह फालतू की औरत मानी जाती थी. वह मेरी माँ ,श्याम कुंवरि थीं. मेरे मातापिता के
विवाह के आठ साल बाद मेरी बहन पैदा हुई थी . उस समय
मेरी माँ की आयु केवल इक्कीस साल की थी लेकिन तब तक उस दकियानूसी समाज ने उनको
बाकायदा बाँझ घोषित कर दिया था . बहन के जन्म के छः साल बाद मैं पैदा हुआ . तब
उनको वह सम्मान मिलना शुरू हुआ जिसकी वे हमेशा से
हक़दार थीं. उसी साल ज़मींदारी विनाश का क़ानून पास हो
गया और उनके परिवार की खेती का एक बड़ा
हिस्सा काश्तकारों के नाम चला गया . उत्तर प्रदेश ज़मींदारी विनाश और भूमि व्यवस्था
अधिनियम १९५० के नाम से चर्चित कानून वास्तव में १९५१ में पास हुआ था. यह उत्तर
प्रदेश विधानसभा का १९५१ में पास होने वाला पहला अधिनियम था . लेकिन लागू हुआ १९५२
में जब इसके बारे में नियम बन गए . मेरे पिताजी के बाबा ठाकुर जगेसर सिंह
सुल्तानपुर जिले के एक बहुत ही छोटे इलाके के ज़मींदार थे .
सीर और खुदकाश्त की ज़मीन ही बाख पाई
,बाकी सब शिकमी लग गयी . हालांकि मुआवजा ज़मीन की कीमत से करीब दस गुना मिलना था
लेकिन उसके मिलने में बहुत समय लगा , कोर्ट कचहरी भी हुआ और खेती केती की आमदनी
बिलकुल कम हो गयी . मेरे जन्म के पहले से ही खस्ताहाल आर्थिक स्थिति बाद से बदतर हो गयी . ऐसे अभाव के दौर में मेरा बचपन शुरू हुआ . मेरी माँ जौनपुर सिटी रेलवे स्टेशन के पास के गाँव सैदन पुर
से आई थीं. मेरे नाना भी संपन्न किसान थे लेकिन माई बताती थें कि उनको अपनी परेशानियों
से उन्होंने कभी भी अवगत नहीं कराया . मेरा ननिहाल संपन्न लोगों का गाँव था . वहां
के कायस्थ और सैय्यद साहिबान को उन्होंने शिक्षा के रास्ते अच्छी ज़िंदगी बिताते
देखा था. मेरे गाँव में पढाई लिखाई की परम्परा बिकुल
नहीं थी जबकि बिलकुल पड़ोस के गाँव नरिन्दापुर में १८५७ के कुछ साल बाद ही प्राइमरी स्कूल खुल चुका था. नरिंदा पुर की वे
लडकियां भी स्कूल जाती थीं जो मेरी बड़ी बहन की उम्र की थीं .मेरी माँ की इच्छा थी
कि उनके बच्चे भी शिक्षित हों. लेकिन मेरी बड़ी बहन को स्कूल भेजने में वे असफल रहीं . हालांकि मुझे स्कूल भेजने में कोई दिक्क़त नहीं हुयी क्योंकि माना
जाता था कि बेटा तो अमोला होता है ,उसका पालन पोषण सही होना चाहिए . जहाँ तक मुझे याद आता है , मैंने
पुरुष प्रधान समाज की इस बात को कभी स्वीकार नहीं किया . अपने बाबू और खानदान के
अन्य पुरुषों के प्रति मन में एक अजीब सी दूरी की
अनुभूति हमेशा ही होती रही है. मुझे लगता है कि माई के चारों बच्चों की संतानों की
शिक्षा के लिए हमारे भाई बहनों ने जो प्रयास किया
उसमें सबके मन में माई की उस इच्छा को पूरी करने का संकल्प था जो वे अपनी बेटियों
के सन्दर्भ में कभी नहीं पूरी कर पाई थी. अपनी शिक्षा के प्रयास में आई मुश्किलों
का उल्लेख करके कोई सहानुभूति बटोरने की कोशिश मैं नहीं करना चाहता लेकिन यह मैं
पक्के तौर पर जानता हूँ कि मेरी की हिम्मत और उनके हौसलों की ही बुलंदी थी कि मैं
एम ए तक की पढाई बिना किसी बाधा के पार करने में सफल हो गया .
आज उसी मां को गए १४ साल हो गए .मेरी बड़ी इच्छा है कि उनकी पुण्यतिथि पर अपने सभी
भाई बहनों के बच्चों को उस वीरांगना की कर्मभूमि में हर साल इकठ्ठा करूं जिससे
हमारी तीसरी पीढी के सारे बच्चे अपने चचेरे ,मौसेरे और
फुफेरे,भाई बहनों से मिलें, उनको जानें और अपने पुरखों की ज़मीन से जुड़े रहें लेकिन संयोग नहीं बन रहा है . एक बार विख्यात पत्रकार और गान्धीविद ,अरविन्द
मोहन ने बताया था कि उनके बाबूजी की पुण्यतिथि पर उनके सभी भाई बहनों के बच्चे गाँव में इकट्ठा होते हैं और सभी एक दूसरे से मिलते जुलते
हैं तब से ही मेरे मन में यह इच्छा प्रबल हुई है लेकिन
लगता है कि यह कभी पूरी नहीं होगी. ठीक भी है क्योंकि मैंने बचपन से ही देखा है कि
मेरे गाँव में जो लोग सत्तर साल की उम्र तक पंहुंच
जाते हैं उनकी सुन लेने का रिवाज़ तो है लेकिन उनकी बात
को लागू करने में किसी की रूचि नहीं रहती . बहरहाल मैं तो हमेशा अपनी माँ की याद
करता ही रहूँगा क्योंकि उनके ही प्रयासों से आज मैं समाज में थोडा ही सही , सम्मानित मुकाम हासिल करने में सफल हुआ हूँ . मेरे और भाई बहनों के बच्चों ने भी उसी मां के
संकल्प के कारण शिक्षा के रास्ते अपने
अपने जीवन को संवारने का प्रयास किया है. संतोष की बात
यह है कि उनकी बेटियां
यानी हमारी बहनें भी बच्चों की शिक्षा के प्रति उतनी ही दृढ संकल्प है जितनी
माताजी हुआ करती थीं.
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