शेष नारायण सिंह
महाराष्ट्र में उद्धव ठाकरे की सरकार देश की राजनीति में एक बड़ी राजनीतिक सोच का संकेत लेकर आई है। यह एक प्रयोग की तरह लगता है । साफ नजर आ रहा है कि अब कांग्रेस की सेकुलर राजनीति जवाहरलाल नेहरू की धर्म निरपेक्षता से थोड़ा दूर जा रही है। राजनीतिविज्ञान के जानकारों की समझ में आने लगा है कि सोनिया गांधी की कांग्रेस अब महात्मा गांधी की सेकुलर राजनीति को बड़े पैमाने पर अपनाने की तैयारी कर रही है जिसमे हिन्दू होने के साथ साथ धर्मनिरपेक्षता के गांधी जी के मूल्यों को प्रमुखता दी जाएगी ।
महाराष्ट्र में एक नए तरह की राजनीतिक ताक़त के पास सत्ता आयी है . शिवसेना की मुस्लिम विरोधी राजनीति के चलते भारतीय राजनीति में बीजेपी के अलावा कोई भी उनको साथ लेने के लिए तैयार नहीं होता था. शिवसेना के संस्थापक ,बाल ठाकरे भारतीय संविधान के धर्मनिरपेक्ष स्वरुप का विरोध करते थे लेकिन सत्ता में आने के चक्कर में उसी संविधान की शपथ लेकर एम पी , एम एल ए ,निगम पार्षद आदि पदों पर शिव सेना के सदस्य पंहुचते भी रहे जिसका मुख्य फोकस सेकुलर राजनीति ही है .. सबको मालूम है कि यह एक विडम्बना ही थी क्योंकि इस देश में सत्ता पाने के लिए भारत के सेकुलर संविधान की रक्षा करने की शपथ लेनी ज़रूरी होती है . इस सब के बावजूद भी मुसलमानों का विरोध करने से शिवसेना के नेता बाज नहीं आ रहे थे . महाराष्ट्र में बीजेपी से उनका गठबंधन इसलिए टूटा क्योंकि शिवसेना इस बात पर आमादा थी कि मुख्यमंत्री उनका अपना ही कोई नेता बनेगा . बीजेपी के विधायकों की संख्या अधिक थी और बीजेपी इसी बुनियाद पर शिवसेना को मुख्यमंत्री पद देने को राजी नहीं थी . लेकिन शिवसेना ने सत्ता के लिए उन पार्टियों के सामने भी सहयोग की अर्जी लगाई जिनकी राजनीति का हमेशा से शिवसेना विरोध करती रही है. आज उद्धव ठाकरे मुख्यमंत्री बने हैं तो उनको मुसलमानों का दोस्त समझी जाने वाली समाजवादी पार्टी का भी सहयोग मिला हुआ है . कांग्रेस ने सरकार का कामकाज चलाने के लिए बनाए न्यूनतम साझा कार्यक्रम में धर्मनिरपेक्षता की शर्त भी लगवा दी है . यानी कट्टर हिन्दू राजनीति की समर्थक और सार्वजनिक रूप से धर्म निरपेक्षता की निंदा करने वाली पार्टी का मुखिया आज मुंबई में मुख्यमंत्री का काम सेकुलर राजनीति की अलमबरदार पार्टियों की कृपा से कर रहा है . मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे ने सत्ता को सेकुलर बुनियाद पर चलाने की शर्त को भी स्वीकार किया है .उनको मालूम है कि अगर सेकुलर राजनीति से किनारा किया तो महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री की गद्दी से भी अलविदा हो जायेगी .
ऐसा लगता है कि महाराष्ट्र में एक नई किस्म राजनीति जन्म ले रही है. बीजेपी की राजनीति को नकार देने के लिये उनकी ही विचारधारा और उनके तीस साल पुराने साथी को तोड़कर एक नए किस्म की राजनीतिक ताक़त को शक्ल देने की कोशिश शरद पवार और सोनिया गांधी ने किया है . जब भी केंद्र सरकार पर किसी ऐसी सत्ता की स्थापना हो जाती है जिसको विपक्ष की ज़्यादातर पार्टियां सही नहीं मानतीं तो उनके सामने एकजुट होने के अलावा कोई विकल्प नहीं होता. यह बात आज़ादी के बाद भी हुयी थी. आज़ादी के बाद सोशलिस्टों को लगा था कि जवाहरलाल नेहरू की नीतियां आज़ाद भारत के लिए ठीक नहीं हैं . कांग्रेस से अलग पहले ही हो चुके थे . सोशलिस्ट पार्टी ने तय किया कि १९५२ के आम चुनावों में कांग्रेस को चुनौती देनी ज़रूरी है . लेकिन कांग्रेस और उसके नेता जवाहरलाल नेहरू की आंधी के सामने सब बुरी तरह से हार गए . आज जो स्थिति लोकसभा में कांग्रेस की है ,लगभग वही स्थिति सोशलिस्टों की १९५२ के चुनाव में थी . पांच साल बाद १९५७ के चुनाव में नेहरू और उनकी कांग्रेस बहुत ही मजबूती से चुनाव में कामयाब रहे . सोशलिस्ट नेता जयप्रकश नारायण तो पहले चुनाव के बाद ही चुनावी राजनीति से अलग हो चुके थे . १९५६ में आचार्य नरेंद्र देव की भी मृत्यु हो चुकी थी . डॉ राम मनोहर लोहिया और अशोक मेहता बचे थे .जब जवाहरलाल नेहरू ने सोशलिस्टिक पैटर्न ऑफ़ सोसाइटी की बात करना शुरू किया तो बड़ी संख्या में समाजवादियों का झुकाव उनकी तरफ होने लगा और १९६२ के चुनाव में कांग्रेस की भारी जीत के बाद अशोक मेहता के नेतृत्व में बड़ी संख्या में समाजवादियों ने कांग्रेस की सदस्यता ले ली . डॉ राम मनोहर लोहिया को भरोसा हो गया कि कांग्रेस को हराना सोशलिस्टों के बस की बात नहीं है . उन्होंने कांग्रेस पार्टी को हराने के लिए एक वैकल्पिक राजनीतिक ताक़त की तलाश शुरू कर दी .डॉ राम मनोहर लोहिया ने गैर कांग्रेसवाद की अपनी राजनीतिक सोच को बहस के दायरे में डाल दिया और १९६३ में अपनी पार्टी के कलकत्ता सम्मलेन में उन्होंने गैरकांग्रेसवाद की सोच को मंज़ूर करवा लिया . उसी साल लोकसभा की चार सीटों पर उपचुनाव हुए और डॉ लोहिया ने राजाओं की समर्थक स्वतंत्र पार्टी , आर एस एस की सहयोगी भारतीय जनसंघ के साथ चुनाव लड़ने का ऐलान कर दिया . किसी को विश्वास ही नहीं हुआ क्योंकि समाजवादियों ने हमेशा आर एस एस और देसी राजाओं महाराजाओं का विरोध किया था . लेकिन डॉ लोहिया साफ़ देख रहे थे कि गैरकांग्रेसवाद के नाम पर सभी कांग्रेस विरोधी ताकतों को एक किये बिना कांग्रेस को हराना असंभव है . गैरकांग्रेसवाद के इस मंच ने उत्तर प्रदेश के फर्रुखाबाद,अमरोहा ,जौनपुर और बंबई में १९६३ में हुए लोकसभा के उपचुनावों में हिस्सा लिया . संसोपा के डॉ लोहिया फर्रुखाबाद ,प्रसोपा के आचार्य जे बी कृपलानी अमरोहा ,जनसंघ के दीनदयाल उपाध्याय जौनपुर और स्वतंत्र पार्टी के मीनू मसानी मुंबई से गैर कांग्रेसवाद के उम्मीदवार बने . दीन दयाल उपाध्याय तो हार गए लेकिन बाकी तीनों विजयी रहे .इसी प्रयोग के बाद गैरकांग्रेसवाद ने एक शकल हासिल की और १९६७ में हुए आम चुनावों में अमृतसर से कोलकता तक के इलाके में वह कांग्रेस विधानसभा के चुनाव हार गयी जिसे जवाहर लाल नेहरू के जीवनकाल में अजेय माना जाता रहा था . १९६७ में संविद सरकारों का जो प्रयोग हुआ उसे शासन पद्धति का को बहुत बड़ा उदाहरण तो नहीं माना जा सकता लेकिन यह पक्का है कि उसके बाद से ही यह बात आम जहनियत का हिस्सा बन गयी कि कांग्रेस को सत्ता से बेदखल किया जा सकता है .इस समय देश की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी थीं.
ऐसा लगता है कि २०१४ और २०१९ के लोकसभा चुनावों में नरेंद्र मोदी की बीजेपी की ताबड़तोड़ सफलता के बाद विपक्ष की समझ में यह बात आ गयी है कि नरेंद्र मोदी को हराने के लिए कुछ गैर भाजपावाद जैसा प्रयोग करना पडेगा जसमें राजनीतिक विचारधारा के विरोधी भी एक मंच पर आ सकें और बीजेपी को एकमुश्त चुनौती दे सकें . लगता है कि महाराष्ट्र में शिवसेना को अछूत मानने वाली समाजवादी पार्टी और कांग्रेस ने भी इसी सोच के तहत शिव सेना को समर्थन देने का फैसला किया है . कांग्रेस की एक और दुविधा थी . २०१४ के चुनावों में कांग्रेस की हार के बाद कांग्रेस के बड़े नेता , ए के एंटनी ने एक रिपोर्ट तैयार की थी जिसमें कांग्रेस की हार के कारणों का विश्लेषण किया गया था . एक प्रमुख कारण यह बताया गया था कि बीजेपी के पचीस साल से अयोध्या की बाबरी मस्जिद के खिलाफ चल रहे अभियान के चलते कांग्रेस की सेकुलर राजनीति को हिन्दू विरोधी सांचे में फिट कर दिया गया था . उसी लेबल से बचने की कोशिश में २०१४ के बाद हुए कई विधानसभा चुनावों में कांग्रेस अध्यक्ष ,राहुल गांधी कहीं शिव भक्त के रूप में जाते थे तो कहीं जनेऊ धारी हिन्दू बनकर प्रचार करते थे . कांग्रेस के जिन नेताओं पर हिन्दू विरोधी होने का आरोप लगा था उनमें कांग्रेस वर्किंग कमेटी के तत्कालीन सदस्य , दिग्विजय सिंह का नाम सबसे ऊपर था। उसकी काट का पारम्परिक तरीका अपनाया और साढ़े छः महीने में करीब तीन हज़ार किलोमीटर पैदल चल कर नर्मदा यात्रा की . अपनी पत्नी के साथ वे यात्रा पर निकल गए , मीडिया को दूर रखा , दिन में दो बार नर्मदा जी की आरती की और जहां ,जहां गए सब को साफ़ नज़र आता रहा कि वे बीजेपी वालों से बड़े हिन्दू हैं . आज किसी भी टीवी चैनल वाले की हिम्मत नहीं है कि उनको हिन्दू विरोधी कह सके. राजनीति शास्त्र का प्रत्येक छात्र जानता है कि मध्य प्रदेश में कांग्रेस की जीत में दिग्विजय सिंह की नर्मदा यात्रा का भी योगदान है .
नरेद्र मोदी ने २०१४ और २०१९ के लोकसभा चुनावों में साबित कर दिया था कि दिल्ली में सत्ता हासिल करने के लिए मुसलमानों के वोट की कोई ज़रूरत नहीं है . इसलिए अब हिंदुत्व की राजनीति इस देश की सत्ता के लिए ज़रूरी हो गयी थी .महाराष्ट्र के गठबंधन में सोनिया गांधी की कांग्रेस की शिरकत को इसी रोशनी में देखने की जरूरत है . ऐसा लगता है कि अब इस देश में सत्ता की राजनीति करने वाले पार्टियों को दो वर्ग में रखा जायेगा. एक तो कट्टर हिंदुत्व की समर्थक पार्टियां जो मुसलमानों को घेरकर मार डालने की घटनाओं को सही ठहराती हैं और दूसरी वे पार्टियां जो हिन्दू समर्थक तो हैं लेकिन लिबरल भी हैं और महात्मा गांधी की तरह हिन्दू होते हुए सबको बराबर का सम्मान देने की पक्षधर हैं . कांगेस के शिवसेना के साथ जाने की राजनीति में मुझे इसी तरह के संकेत नज़र आ रहे हैं . इस गठबंधन के बाद कांग्रेस ने यह सुनिश्चित किया है कि सत्ता चलाने के लिए शिवसेना को अपनी कट्टर हिंदूवादी राजनीति को छोड़कर कॉमन मिनिमम प्रोग्राम को मानना पड़ेगा जिसका स्थाई भाव सेकुलर राजनीति है. बाकी देश में अब कांग्रेस के नेताओं को हिन्दू विरोधी सांचे से निकलने में महाराष्ट्र के गठबंधन से मदद मिलेगी . मुसलमानों को भी यह तय करना पड़ेगा कि कांग्रेस के विरोध की ओवैसी की राजनीति करेंगें जिसमें बीजेपी को चुनावी फायदा होता है या एन सी पी नेता नवाब मालिक की राजनीति करेंगें जिससे बीजेपी को सत्ता से बाहर रखा जा सकता है .महाराष्ट्र को इस राजनीति की शुरुआत की प्रयोगशाला के रूप में देखा जा सकता है .
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