Sunday, May 13, 2018

चुनाव के समय धार्मिक भावनाओं को मुद्दा बनाने की राजनीति को बेनकाब करने की ज़रूरत

  

शेष नारायण सिंह

 देश में एक सवाल अब आम आदमी पूछने लगा है और कुछ इलाकों में तो बहुत ऊंची आवाज़ में यह सवाल पूछा जा रहा है .देश में नागरिकों का एक बड़ा वर्ग आहिस्ता आहिस्ता तैयार हो रहा  है जो पूछ रहा है कि चुनाव के मौसम में ही राम मंदिर ,पाकिस्तान, हिंदुत्व और  जिहाद की बातें क्यों  मीडिया के रास्ते हवा में उछाल दी जाती हैं . चुनाव ख़त्म होने के बाद इन बातों को दरकिनार क्यों कर दिया जाता  है . टीवी की बहसों में राजनीतिक पार्टियों द्वारा किये गए अधूरे वायदों  का ज़िक्र क्यों नहीं होता. कर्नाटक विधानसभा के चुनाव को करीब से देखने के चक्कर में वहां के ग्रामीण इलाकों में एक अजीब किस्म की चौपाल  देखने को मिली . कन्नड़ और तमिल फिल्मों के अभिनेता, प्रकाश राज वहां गाँव गाँव  में घूम रहे थे.  किसी भी गाँव में उनकी बैठक लग जाती थी और वहां वे जाति ,धर्म और अस्मिता के सवालों के बाहर जाकर राजनीतिक पार्टियों से सवाल पूछने के  लिए प्रेरित कर रहे हैं . उनका कहना है कि रोज़गार की ज़रूरत पर  सवाल पूछे जाने चाहिए . धार्मिक विवाद फैलाने के कारणों के बारे में भी सीधे सवाल पूछे जाने चाहिए और ग्रामीण इलाकों की तबाही के कारणों  को बहस के दायरे में लाने के लिए भी नेताओं को मजबूर किया जाना चाहिए . उनकी यह मुहिम अब एक आन्दोलन  का रूप ले चुकी है . उन्होंने " जस्टआस्किंग फाउंडेशन " नाम का एक संगठन बना दिया है और केंद्र की सत्ताधारी पार्टी को शक है कि उनका यह आन्दोलन बीजेपी को कमज़ोर करने के लिए चलाया जा रहा है . कर्नाटक चुनाव के दौरान बीजेपी के कुछ नेताओं ने चुनाव आयोग से फ़रियाद की कि उनको अपना यह कार्यक्रम चलाने से रोका जाए क्योंकि उनके प्रचार से बीजेपी के साथ अन्याय हो रहा है और उसको चुनावी नुकसान  होने का अंदेशा है .
उत्तर प्रदेश में प्रकाश राज जैसा कोई आन्दोलन तो नहीं  है लेकिन देखा गया है कि बहुत सारे नौजवान केंद्र और  राज्य सरकार से नौकरियों के बारे में सवाल पूछने की बाबत बात करने लगे हैं . अलीगढ में पाकिस्तान और मुसलमान को ध्यान में रख कर चलाए गए अभियान पर भी कई लड़कों ने आपसी बातचीत में सवाल  उठाना शुरू कर दिया है . अगर यहाँ भी प्रकाश राज की तरह कोई कार्यक्रम चलाकर मुख्य मुद्दों पर नेताओं को  घेरने की बात की जाए तो  ऐसा लगता है कि नौजवान सही बातों को उठाने  के लिए तैयार है .  
अलीगढ मुस्लिम  विश्वविद्यालय में माहौल को राजनीतिक हितों के लिए गरमा दिया गया है . वहां छात्र यूनियन के हाल में बहुत सारी तस्वीरें लगी हैं , उसी में मुहम्मद अली  जिन्नाह की भी एक तस्वीर है . अलीगढ में रिवाज़ है कि अपने दौर के किसी ख़ास आदमी को अलीगढ बुलाया जाता है और उनको छात्र यूनियन का आजीवन सदस्य बनाकर  सम्मानित किया  जाता है . उस व्यक्ति की तस्वीर भी  यूनियन के हाल में  लगा दी जाती है . यह सिलसिला १९२० से शुरू हुआ . सबसे पहले  महात्मा गांधी को छात्र यूनियन का आजीवन सदस्य बनाया   गया था . महान वैज्ञानिक डॉ सी वी रमन को १९३१ और महान इतिहासकार जदुनाथ सरकार को १९३२ में आजीवन सदस्य बनाया गया .महात्मा गांधी के बहुत ही करीबी  आज़ादी की लड़ाई के महत्वपूर्ण  योद्धाखान अब्दुल गफ्फार खां १९३४ में अलीगढ आये और उनको भी यूनियन ने सम्मानित किया और उन्हें आजीवन सदस्य बनाया  गया .बहुत लम्बी लिस्ट है और इसी लिस्ट में इक्कीसवें नंबर पर मुहम्मद अली जिन्ना का नाम है जिनको १९३८ में आजीवन सदस्य बनाया गया . उसी साल उनकी तस्वीर भी लगा दी गयी . यह सिलसिला आज तक जारी है .
लोगों की समझ में नहीं आ रहा है कि अस्सी साल से जो तस्वीर वहां  लटक रही है उसको कैराना के लिए उप चुनाव की तारीख घोषित होने के बाद किसी टीवी चैनल के ठेकेदार स्ट्रिंगर ने देखा और उसकी फोटो वहां के एम पी साहब के ज़रिये विवाद में ला दिया .   देश को हिन्दू-मुस्लिम लाइन पर बांटने की कोशिश कर रही सियासत को एक  माहौल बनाना था ,और वह बन गया . यह सब कैसे हुआ इसकी तफसील अब सबको मालूम है लेकिन इसको हासिल करने के पीछे जो उद्देश्य हैं  वे बहुत ही  डरावने  हैं . अलीगढ समेत बाकी  शहरों में भी माहौल को गर्म करने की कोशिश की जा  रही है .  पाकिस्तान के संस्थापक मुहम्मद अली जिन्ना को  भारतीय मुसलमानों का  अपना आदमी साबित करने की कोशिश की जा रही है . जबकि यह बात बिलकुल गलत है . भारत में  जो भी मुसलमान रहते हैं , उन्होंने या उनके पूर्वजों ने १९४७ में ही मुहम्मद अली जिन्ना को   साफ़ बता दिया था कि वे उनके  पाकिस्तान को कुछ नहीं समझते ,  भारतीय मुसलमानों ने पाकिस्तान जाने से मना कर दिया था. आज तो खैर पाकिस्तान में रहने वाले मुसलमान भी कहते हैं कि जिन्ना ने बंटवारा करके बहुत बड़ी गलती की थी. अपनी ज़िंदगी के आख़िरी  हफ़्तों में जिन्ना ने खुद अपने  प्रधानमंत्री लियाक़त अली से बता दिया था  कि पाकिस्तान बनवाना उनकी   ज़िंदगी की सबसे बड़ी गलती  थी . विख्यात इतिहासकार अलेक्स टुंजेलमान ने अपनी किताब"इंडिया समर- सीक्रेट हिस्ट्री ऑफ द एंड ऑफ ऐन एम्पायर" में यह बात साफ़ साफ़ लिख दिया है .

बहरहाल इस सारी कवायद में मुद्दा न केवल पाकिस्तान के नाम पर आबादी को भड़काना मात्र है. यह सिद्ध हो चुका है कि अलीगढ को हर बार मुसलमानों के देशप्रेम पर सवाल उठाने के लिए इस्तेमाल किया जाता है . इस विषय पर बहुत शोध हुए हैं लेकिन अमरीकी विद्वान पॉल आर ब्रास ने की किताब दुनिया भर में बहुत सम्मान से पढी जाती है . अपनी किताब " द प्रोडक्शन  आफ हिन्दू-मुस्लिम वायलेंस इन कन्टेम्परेरी इण्डिया " में उन्होंने अलीगढ को निशाने पर लेने के साम्प्रदायिक जमातों के कारणों का तफसील से ज़िक्र किया है .  लिखते हैं कि जवाहरलाल नेहरू के बाद अलीगढ में जो भी   हिंसा हुयी है उसका एक राजनीतिक दल को स्पष्ट रूप से फायदा हुआ  है  .उन्होंने इस हिंसा से राजनीतिक लाभ लेने वालों में आर एस एस के सहयोगी  संगठनों को मुख्य रूप से चिन्हित किया है .यह सभी ससंगठन हिंदुत्व की विचारधारा को मानते हैं . इस हिंदुत्व को आम तौर पर हिन्दू धर्म से मिलाकर पेश किया जाता है लेकिन सच्चाई इससे बिलकुल अलग है.हिंदुत्व का हिन्दू धर्म से कोई लेना देना नहीं है . हिंदुत्व एक किताब है जिसको वी डी सावरकर ने लिखा है   और यह केवल राजनीतिक मोबिलाइज़ेशन का एक मंच है जबकि हिन्दू धर्म  सदियों से चला आ रहा एक धर्म है .

यह अजीब बात है कि अलीगढ जैसे शिक्षा के महान केंद्र को  साम्प्रदायिक आधार पर  हिन्दुओं को एकजुट करने के लिए इस्तेमाल किया जाता है .  सविनय अय्वाग्या आन्दोलन में महात्मा गांधी और कांग्रेस ने अलग होकर मुहम्मद अली जिन्ना ने अलग राग अलापना शुरू कर दिया था . रफ्ता रफ्ता वे अलग मुस्लिम राष्ट्र के पक्षधर बन गए . जब उन्होंने मुस्लिम  राष्ट्र की मुहिम चलाई तो अलीगढ उनके एक प्रमुख केंद्र के रूप में उभरा . नतीजा यह हुआ कि बहुत सारे हिन्दुओं के दिमाग में यह बात भर दी गयी कि अलीगढ के कारण ही पाकिस्तान बना था. यह भी बार बार बताया गया कि  भारतीय समाज में जो भी गड़बड़ है वह अलीगढ से उपजे आन्दोलन की वजह से ही है . इस तरह से अलीगढ़ के नाम पर एक खास वर्ग को राजनीतिक लाभ के लिए इस्तेमाल करने का फैशन चल पडा. बाबरी मस्जिद के विध्वंस के बाद देश की आबादी का एक बड़ा हिस्सा धार्मिक ध्रुवीकरण की चपेट में आ गया है और उसके बाद से पाकिस्तानजिन्ना और   तुष्टीकरण के नाम पर राजनीतिक भीड़ इकठ्ठा करना सबसे आसान तरीका है .इस भीड़ का इस्तेमाल वोट बटोरने के लिए  किया जाता  है.  देश को धार्मिक रूप से बांटने की कोशिश आज़ादी के तुरंत बाद भी की गयी और बार बार की गयी . लेकिन उस दौर में आज़ादी की लडाई में शामिल रहे लोगों की देश की राजनीति में ज़बरदस्त मौजूदगी थी इसलिए इन जमातों को हिंसक वारदातें करने में सफलता तो मिल जाती थी लेकिन उससे कोई राजनीतिक फायदा  नहीं उठा पाते थे. नेहरू के बाद देश के राजनीतिक नेताओं की दृष्टि सीमित हो गयी और उसके बाद हिंसा को राजनीति से जोड़ने का काम बहुत तेज़  हो गया .
देश की राजनीति में राजीव गांधी का आना भी एक महत्वपूर्ण स्थान रखता है . उनके साथ  ऐसे लोग आये जो राजनीतिक मूल्यों को कंपनी प्रबंधन की तरह समझते थे . बाबरी मस्जिद  से सम्बंधित जो भी गलतियां राजीव गांधी की केंद्र सरकार ने कीं वह ऐसे ही लोगों के कारण हुईं  . बाबरी मस्जिद को राम मंदिर बनाकर पेश करने की कोशिश तो नेहरू और पटेल के समय में शुरू हो गयी  थी लेकिन उन लोगों ने इस नाजुक मसले पर भावनाओं का हमेशा ख्याल रखा . सरदार पटेल ने उस वक़्त  के उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री गोविन्द वल्लभ पन्त को  बाबरी मस्जिद के बारे में जो चिट्ठी लिखी थी , वह बहुत ही अहम दस्तावेज़ है लेकिन राजीव गांधी के साथियों ने उसको नज़रंदाज़ करके काम किया .उसी का नतीजा है कि आज देश और समाज के रूप में हम इस मुकाम पर पंहुच गए . उन लोगों को अंदाज़ ही नहीं था कि वे आग से खेल रहे हैं . बाबरी मस्जिद के विवाद में भी अलीगढ  को काले रंग में पेंट करने के कोशिश हुई थी.  

आज हालात  यह हैं कि हर  चुनाव के पहले आर एस एस की  कोशिश होती है कि किसी तरह से हिन्दू मुस्लिम विवाद को एक रूप दिया जाये . उसके बाद उनकी पार्टी को ध्रुवीकरण के राजनीति लाभ मिलते हैं . अभी चुनावी मौसम है  और सत्ताधारी पार्टी कुछ कमज़ोर है . सबको मालूम है कि अलीगढ और जिन्ना को निशाने पर लेकर भावनाएं भड़काई जा सकती हैं और इसीलिये  अलीगढ को एक बार फिर केंद्र में ले लिया गया है. सामाजिक राजनीतिक चिन्तक आशीष नंदी के कहना है कि सकारात्मक राजनीति करना बहुत कठिन काम होता है .उसके लिए ठोस राजनीतिक कार्यक्रम चाहिए ,जनता की भागीदारीचाहिए  और उस कार्यक्रम को आबादी के बड़े हिस्से को स्वीकार करना चाहिए लेकिन नकारात्मक राजनीति के लिए ऐसा कुछ नहीं चाहिए . उसके लिए एक दुश्मन चाहिए और उसके खिलाफ जनता को इकठ्ठा करके उनके वोट आसानी से लिए जा सकते हैं . यह देश के दुर्भाग्य है कि अलीगढ जैसे महत्वपूर्ण विश्वविद्यालय को दुश्मन की तरह प्रस्तुत करके राजनीतिक लाभ लेने की  कोशिश की जा  रही है . देश की समझदार आबादी और जमातों को चाहिए कि साम्प्रदायिक ताक़तों की इन कोशिशों को बेनकाब  करें और उसको खारिज  करें  संतोष की बात यह है कि देश के बहुसंख्यक वर्गों के नौजवान भी अब धार्मिक भावनाओं क भड़काने वालों  की नीयत पर सवाल उठाने लगे हैं .

Thursday, May 10, 2018

कर्नाटक विधानसभा चुनाव: बीजेपी और कांग्रेस ,दोनों का भविष्य इस चुनाव पर निर्भर करेगा



शेष नारायण सिंह

 ( An article written on 11 April, at the very initial stge of campaign)
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कर्नाटक विधान सभा चुनाव पर देश की दो बड़ी राजनीतिक पार्टियों का भविष्य दांव पर लगा हुआ है . नई बात यह है कि चुनाव में अब डर्टी ट्रिक्स वाले भी सक्रिय हो गए हैं . आज खबर आई है कि व्हाट्स अप ग्रुपों में  एक लिस्ट जारी की गयी जिसमें विधान सभा के चुनावों के कांग्रेसी उम्मीदवारों की जानकारी थी. बाद में पता चला कि कांग्रेस  के नेताओं को पता ही नहीं था कि ऐसी कोई लिस्ट जारी की गई है . लिस्ट आस्कर फर्नांडीज़ के नाम से जारी की गयी है ,जबकि आस्कर फर्नांडीज़ दिल्ली के एक अस्पताल में भर्ती हैं और कोई भी लिस्ट जारी करने की स्थिति में नहीं हैं. राज्य के मुख्यमंत्री सिद्दरमैया ने तुरंत ट्वीट करके इस लिस्ट को फर्जी बताया . इसके पहले एक अजीबोगरीब चिट्ठी इंटेलिजेंस  विभाग की तरफ से भी आई थी, कुल  मिलाकर चुनाव अब बहुत ही दिलचस्प दौर में पंहुच गया है . कांग्रेस और बीजेपी ,दोनों के लिए यह चुनाव प्रतिष्ठा का विषय है. कांग्रेस को  एक टिकाऊ  राजनीतिक पार्टी के रूप में अपना अस्तित्व बचाने के लिए राज्य की सत्ता बचाना ज़रूरी है जबकि बीजेपी के लिए कर्नाटक जीतना इसलिए ज़रूरी है कि अगर यहाँ हार गए तो २०१९ की उनकी मंजिल खासी मुश्किल हो जायेगी .कांग्रेस के चुनाव प्रचार की कमान लगभग पूरी तरह से राज्य के मुख्यमंत्री सिद्दरमैया के हाथ में है. हालांकि राहुल गांधी भी कर्नाटक चुनाव प्रचार में लगे हुए हैं . राज्य के अन्य कांग्रेसी नेता सिद्दरमैया के सहायक के रूप में ही  नज़र आ रहे  हैं. बीजेपी ने पूर्व मुख्यमंत्री बी एस येदुरप्पा को उनके ऊपर लगे भ्रष्टाचार के आरोपों को नज़रंदाज़ करके दोबारा पार्टी में शामिल किया था. उम्मीद यह थी कि बीजेपी के चुनाव का ज़िम्मा उनको दिया जाएगा लेकिन उनसे शुरुआती गलती हो गयी . बीजेपी से हटने के बाद उन्होंने जिस कर्नाटक जनता पक्ष की स्थापना की थी ,उसमें ज्यादातर उनके बीजेपी वाले साथी ही थे. सब ने बीजेपी के उम्मीदवारों को जमकर  कोसा था . जब अमित शाह ने दुबारा बी एस येदुरप्पा को बीजेपी में भर्ती किया तो वे सारे लोग उनके साथ आये और येदुरप्पा ने उन लोगों को ज्यादा महत्व देने की कोशिश की . बीजेपी के मुकामी नेताओं ने उनको स्वीकार नहीं किया . नतीजा यह हुआ कि कर्नाटक में  बीजेपी में एकता नहीं हो सकी. लिंगायतों को अल्संख्यक का दरजा देने की सिद्दारमैया की राजनीति ने येदुरप्पा की बात और बिगाड़  दी .उनको भारतीय जनता  पार्टी के लिए उतना उपयोगी नहीं रहने दिया  जितना सोचकर आमित शाह उनको  वापस लाये थे . नतीजतन विधान सभा चुनाव के प्रचार की कमान स्वयम अमित शाहको संभालनी पडी. आज कर्नाटक का चुनाव वास्तव में अमित शाह बनाम सिद्दरमैया ही हो गया है .
इस विधान सभा चुनाव को इसी सन्दर्भ में देखना पडेगा . जैसा कि आम तौर पर होता है कर्नाटक विधानसभा का चुनाव भी जातियों के जोड़तोड़ का चुनाव ही  है . दोनों ही दल नए जाति समीकरणों को शक्ल देने में लगे हैं . २००७ के चुनाव में बी एस येदुरप्पा  को लिंगायतों का धुआंधार  समर्थन मिला था जिसके बाद वे मुख्यमंत्री बने थे लेकिन भ्रष्टाचार के आरोप के चलते उनको गद्दी छोडनी पडी. २०१३ में जब पुराने समाजवादी ,सिद्दरमैया कांग्रेस की तरफ से राज्य के मुख्यमंत्री बने तो उन्होंने पहले दिन से ही  २०१८ का चुनाव जीतने की तैयारी शुरू कर दी . दलितों के लाभ के लिए मुख्यमंत्री ने पहले बजट में  ही  बहुत सारी योजनायें लागू कर दी थीं . बाद में उसको और बढ़ा दिया गया . .आज से साल भर पहले दलितों के लिए बड़े पैमाने पर लाभ देने वाली स्कीमों की  घोषणा की गयी  . सरकारी संस्थाओं में उच्च शिक्षा प्राप्त कर रहे दलित छात्रों को मुफ्त में लैपटाप तो पहले से ही था , उस सुविधा को   निजी स्कूल कालेजों में पढने वाले  दलित छात्रों के लिए भी कर दिया गया .दलित छात्रों को चौथाई कीमत पर बस पास मिलते थे अब  बस पास बिलकुल मुफ्त में मिल रहा है  . दलित जाति के लोग ट्रैक्टर या टैक्सी खरीदने पर  दो लाख रूपये की सब्सिडी  पाते थे ,उसे  तीन लाख कर दिया गया. . ठेके  पर काम करने वाले गरीब मजदूरों , पौरकार्मिकों आदि  को रहने लायक घर बनाने के लिए  दो लाख रूपये का अनुदान मिलता था ,उसे चार लाख कर दिया गया दलितों के कल्याण के लिए सिद्दरमैया ने अपने शासन के  चार वर्षों में करीब पचपन हज़ार करोड़ रूपये खर्च करवा दिया था .चुनावी  साल में  करीब अट्ठाईस हज़ार करोड़ रूपये की अतिरिक्त  व्यवस्था कर दी गयी .

यह सारा कार्य योजनाबद्ध तरीके से किया गया . अब तक माना जाता था कि कर्नाटक में वोक्कालिगा और लिंगायत,संख्या के हिसाब से  प्रभावशाली जातियां हैं . . लेकिन चुनाव के नतीजों में  यह नज़र नहीं आता था.  सत्ता में आने के बाद मुख्यमंत्री सिद्दिरमैया  ने २०१५ में जाति के आधार पर जनगणना करवाई . इस जनगणना के नतीजे सार्वजनिक नहीं किये जाने थे लेकिन कुछ पत्रकारों को जानकारी लीक कर  दी गयी . सिद्दिरामैया की जाति के लोगों की संख्या ४३ लाख यानी करीब ७ प्रतिशत बतायी गयी .यह जानकारी अब पब्लिक डोमेन में आ गयी है जिसको सही माना जा रहा है. इस नई जानकारी के  बाद कर्नाटक की चुनावी राजनीति का हिसाब किताब बिलकुल नए सिरे से शुरू हो गया है .नई जानकारी के बाद लिंगायत ९.८ प्रतिशत और वोक्कालिगा ८.१६ प्रतिशत रह गए हैं .  कुरुबा ७.१ प्रतिशत ,मुसलमान १२.५ प्रतिशत ,  दलित २५ प्रतिशत ( अनुसूचित  जाती १८ प्रतिशत और अनुसूचित जन जाति ७ प्रतिशत ) और ब्राह्मण २.१ प्रतिशत की संख्या में राज्य में रहते हैं .
अब तक कर्नाटक में माना जाता था कि लिंगायतों की संख्या १७ प्रतिशत है और वोक्कालिगा १२ प्रतिशत हैं . इन आंकड़ों को कहाँ से निकाला गया ,यह किसी को पता नहीं था. जाति आधारित जनगणना देश में १९३१ में हुई थी .शायद यह जानकारी वहीं से आई हो लेकिन तब से अब  तक हालात बदल गए हैं .यही आंकड़े चल रहे थे और सारा चुनावी विमर्श इसी पर केन्द्रित हुआ करता था  . नए आंकड़ों के आने के बाद सारे समीकरण बदल गए हैं .  इन आंकड़ों की विश्वसनीयता पर भी सवाल उठाये जा रहे हैं लेकिन यह भी सच है कि दलित  नेता इस बाद को बहुत पहले से कहते  रहे हैं . दावा किया जाता रहा है कि अहिन्दा ( अल्पसंख्यक,हिन्दुलिदा यानी ओबीसी  और दलित )  वर्ग एक ज़बरदस्त समूह है . जानकार मानते हैं  कि  समाजवादी सिद्दिरामैया ने चुनावी फायदे के लिए अहिन्दा का गठन गुप्त रूप से करवाया  है . मुसलमान , दलित और  सिद्दिरामैया की अपनी जाति कुरुबा मिलकर करीब ४४ प्रतिशत की आबादी बनते हैं .  जोकि मुख्यमंत्री के लिए बहुत उत्साह का कारण हो सकता है .दलितों के लिए बहुत बड़ी योजनाओं के पीछे यही नए आंकड़े काम कर रहे बताये जा रहे हैं  .

इस सारे घालमेल में  कर्नाटक का सिद्दरमैया बनाम अमित शाह चुनाव परवान चढ़ रहा है. सारा समीकरण जातियों के इर्द-गिर्द मंडरा रहा है. बीजेपी लिंगायत-वोक्कलिगा-ब्राह्मण समीकरण को अपनी बुनियाद मानती रही है लेकिन अब हालत बदल गए हैं . जातियों के अनुपात की नई जानकारी के बाद सिद्दरमैया की कोशिश  है कि बीजेपी के मज़बूत लिंगायत वोट बैंक को तोड़ दिया जाए . इसमें उनको सफलता भी मिल चुकी है .  बीजेपी के नेता भी चुपचाप नहीं  बैठे हैं . उन्होंने भी अपनी रणनीति बदल दी है .अब अमित शाहलिंगायत-दलित -ब्राह्मण समीकरण बैठाने में लगे हैं . उनको मालूम है कि सारे दलित वोट उनको नहीं मिलेंगें लेकिन वे करीब बीस प्रतिशत  दलित वोट अपनी तरफ करने का प्रयास कर रहे हैं. .इसके साथ ही वे वोक्कलिगा वोट भी साथ लेने की कोशिश  कर रहे हैं . एच डी देवेगौडा की पार्टी जनता दल सेकुलर के वोट बैंक को साथ लेना बीजेपी की इस बार की प्रमुख रणनीति का हिस्सा है . इसी सिलसिले में अमित शाह वोक्कलिगा वर्ग के प्रमुख मठ  आदिचुनचुन गिरि  भी  हो आये  हैं ..
बीजेपी की तरफ से प्रयास किया जा रहा है कि  सिद्दरमैया के शासन काल की कमियाँ गिनाकर भी उन मतदाताओं को साथ ले लिया जाय जो मौजूदा सरकार से किसी भी कारण से नाराज़  हैं . प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नाम का भी पूरा इस्तेमाल किया जाने वाला है क्योंकि पूर्वोत्तर भारत और गुजरात के चुनाव में नरेंद्र मोदी के नाम और अमित शाह की मेहनत ने चुनाव के अंतिम नतीजों  को निश्चित रूप से प्रभावित किया था.

कर्नाटक का चुनाव मुख्य रूप से बीजेपी और कांग्रेस के बीच है लेकिन जानत दल एस की भूमिका भी महत्वपूर्ण होगी. यदि किसी कारण से भी त्रिशंकु विधान सभा हुयी तो पूर्व प्रधानमंत्री देवेगौडा की कृपा से ही सरकार बनेगी . जो भी हो ऐसा पहली बार हो रहा है कि कर्नाटक विधानसभा के चुनाव के नतीजों पर देश की भावी राजनीति दिशा तय करने का ज़िम्मा आ गया है. अगर कांग्रेस अपनी सरकार बचाने में  सफल हो जाती है तो उसकी भावी राजनीति के लिए यह संजीवनी  साबित होगा . कांग्रेस की यह संजीवनी बीजेपी और नरेंद्र मोदी के लिए बहुत बुरा समाचार होगा . इसलिए दोनों ही  बड़ी पार्टियों ने अपना सब कुछ  दांव पर लगा दिया है .

कर्नाटक का मुश्किल चुनाव : बीजेपी को केवल मोदी-शाह-योगी का सहारा


शेष नारायण सिंह

 कर्नाटक चुनाव में जीत  बीजेपी के लिए बहुत ज़रूरी है क्योंकि अगर पार्टी वहां चुनाव हार गयी तो २०१९ बहुत मुश्किल हो जाएगा . यह चुनाव कांग्रेस के लिए उससे भी ज़्यादा ज़रूरी है क्योंकि अगर  कांग्रेस ने कर्नाटक की सत्ता गँवा दी तो  राष्ट्रीय राजनीतिक पार्टी के रूप में उसके अस्तित्व पर संकट आ जायगा . राष्ट्रीय पार्टी के रूप में मान्यता तो बनी रहेगी लेकिन पार्टी में बड़े पैमाने पर मुसीबतें आ  खडी होंगी . इसीलिये कांग्रेस ने कर्नाटक में सारी ताकत झोंक दी  है . सिद्दरमैया के पास चुनाव की कमान है और  पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष राहुल गांधी उनकी ही बात मान रहे हैं . मुख्यमंत्री सिद्दरमैया पिछले तीन साल से चुनाव जीतने के लिए कमर कस चुके हैं . अहिन्दा आन्दोलन को बहुत मज़बूत कर दिया है . बीजेपी के सबसे मज़बूत  वोट बैंक लिंगायतों को अपनी तरफ करने की तुरुप चाल चल दी है बीजेपी के  मुख्यमंत्री पद के दावेदार बी एस येदुरप्पा की पोजीशन बहुत कमज़ोर हो गयी है. लिंगायतों के सबसे बड़े राजनीतिक नेता के रूप में उनकी पहचान थी लेकिन लिंगायत मतावलंबियों को अल्पसंख्यक घोषित किये जाने की मांग को सरकार की नीति बनाकर मुख्यमंत्री सिद्दरमैया ने उनको बिलकुल कमज़ोर कर दिया है . अब सिद्दरमैया ,लिंगायत मठों के सम्मानित आचार्यों के प्रिय बने  घूम रहे हैं और बीजेपी आलाकमान के नेतृत्व में येदुरप्पा को बहुत ही हल्का कर दिया है . बात  यहाँ तक बिगड़ गयी है कि उनके बेटे को  पार्टी ने टिकट नहीं दिया और इसकी जानकारी येदुरप्पा को अंतिम क्षणों में मिली. उनके साथ प्रधानमंत्री मंच साझा नहीं कर रहे  हैं . बताया गया है कि उनकी पंद्रह चुनाव सभाओं में येदुरप्पा केवल एक में ही मौजूद रह सकेंगें . येदुरप्पा की सलाह पर बेल्लारी रेड्डी बंधुओं को पार्टी में लिया गया था ,उनके परिवार के लोगों को टिकट दिया गया . वे लोग अपना चुनाव तो जीत सकते हैं लेकिन बीजेपी की राष्ट्रीय छवि को उनके कारण बहुत नुक्सान पंहुच रहा है . ऐसे माहौल में कर्नाटक में घूम रहे  किसी भी  रिपोर्टर को साफ नज़र आ  जायेगा कि बीजेपी बैकफुट पर खेल रही है .बीजेपी को उम्मीद थी कि जे डी ( एस ) के साथ मायावती के समझौते के बाद दलितों के काफी वोट कट जायेंगे लेकिन वह भी होता नहीं दिख  रहा है .दलितों के नए नेताजिग्नेश मेवानी कर्नाटक के  शहरों और गांवों में  घूम रहे हैं  और बीजेपी के खिलाफ प्रचार कर रहे  हैं . मायावती से जे डी (एस ) के सहयोग से होने वाले समीकरण को उन्होंने बिगाड़ दिया है . उनके अलावा फिल्म अभिनेता ,प्रकाश राज भी बीजेपी का भारी नुकसान कर रहे हैं . इन दोनों के प्रचार से बीजेपी के नेताओं में  चिंता है . कर्नाटक के बीजेपी नेतृत्व को पता है कि प्रकाश राज और जिग्नेश मेवानी की जोड़ी उनका बहुत नुक्सान कर रही है . इसलिए पार्टी ने चुनाव आयोग से अपील किया है कि इन दोनों को १२ मई तक राज्य में चुनाव प्रचार करने से रोक दिया जाए . हालांकि इस बात की सम्भावना नहीं है  कि चुनाव आयोग बीजेपी की इस बात को स्वीकार करेगा लेकिन चुनाव आयोग से अपील करके राज्य बीजेपी के नेताओं से यह बात बहुत ही ज़ोरदार तरीके से ऐलान कर दिया है कि वे चुनाव मैदान में कमज़ोर पड़ रहे हैं .
ज़ाहिर है बीजेपी के लिए कर्नाटक का चुनाव बहुत ही मुश्किल चुनाव है. येदुरप्पा के अनुपयोगी होने के बाद राज्य स्तर का कोई नेता नहीं है जिसके सहारे चुनाव जीता जा सके.अनंत कुमार दिल्ली की  बीजेपी सरकार में केंद्र में मंत्री रहते हैं लकिन  राज्य में उनका क़द कोई ख़ास वज़न नहीं रखता . ईश्वरप्पा भी ऐसे नेता नहीं हैं जो खुद चुनावी जीत की गाडी का इंजन बन सकें . ऐसी  हालत में अमित शाह ने खुद ही यह ज़िम्मा अपने ऊपर लिया हुआ है .इतने मुश्किल चुनाव में भी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष ने  जीत की तैयारी शुरू कर दी है. वे स्वयम हर जिले में जा  रहे  हैं . चुनाव क्षेत्रों में खुद प्रचार कर रहे  हैं मुकामी नेताओं से संपर्क में हैं और विरोधियों को अपने साथ  करने की पूरी कोशिश कर रहे  हैं . अमित शाह ने साफ़ कर दिया है कि चुनाव जीतने के लिए जातियों का समीकरण सही होना चाहिए रणनीति  में कोई चूक नहीं होनी चाहिए और कार्यकर्ताओं में उत्साह होना चाहिए . इसी लाइन पर वे  उत्तर प्रदेश के २०१४और २०१७ के चुनाव को जीत कर आए हैं . जिन्होंने उनको इन चुनावों का सञ्चालन करते देखा है वे जानते हैं कि अमित शाह चुनाव की बारीक से बारीक बात को बहुत गंभीरता से लेते हैं . अभी पिछले साल गुजरात विधान सभा के बहुत मुश्किल चुनाव को उन्होंने मेहनत और रणनीति के बल पर जीता है. इस चुनाव की कमान भी अब उनके ही हाथ में है और अब उसका असर दिखने भी लगा  है .
बीजेपी में हर आदमी को मालूम है कि नरेंद्र मोदी के व्यक्तित्व पर चुनाव जीता जा सकता है . शुरू में तो यह चर्चा थी कि कर्नाटक के चुनाव में हार की सम्भावना के मद्दे नज़र प्रधानमंत्री को इस चुनाव में प्रचार से दूर रखा जाएगा लेकिन नई योजना के तहत  प्रधानमंत्री १५ चुनाव सभाओं में  भाषण कर रहे हैं . प्रधानमंत्री अभी भी मतदाता को अपने तरफ आकर्षित करते हैं और पिछले पांच साल में बार बार देखा गया है कि उनकी बातों का विश्वास किया जाता है . शहरी मध्य वर्ग में तो  उनको पसंद करने वालों की  संख्या घटी है लेकिन ग्रामीण  क्षेत्रों में अभी भी उनकी बात मानकर वोट देने वालों की बड़ी संख्या है .इसलिए जानकर बता रहे हैं कि अब चुनावी माहौल बीजेपी के पक्ष में होना शुरू हो जायेगा
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और पार्टी  अध्यक्ष अमित शाह के अलावा बीजेपी में एक और  चुनाव जितवाने वाला नेता  है . पार्टी ने कर्नाटक चुनाव में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्य नाथ को स्टार के तौर पर  लगा दिया है . उनकी ३५ सभाएं लगाई गयी हैं . हासन ,उत्तर कन्नड़दक्षिण कन्नड़ ,चिकमगलूरशिवमोगा ,दावणगेरे ,बेलगावी आदि जिलों में योगी आदित्यनाथ सघन प्रचार करेंगे. इन जिलों में नाथ पंथियों का बहुत प्रभाव है और सारे देश के नाथ पंथी योगी आदित्यनाथ को अपना पूज्य मानते हैं . योगी आदित्य नाथ खुद नाथ सम्प्रदाय के सबसे प्रमुख मठों में से एक , गोरक्षनाथ मंदिर एवं मठ के महंत हैं .कर्नाटक में भी  शैव मतावलम्बियों में  गोरखनाथ मंदिर  का बहुत सम्मान है. यहाँ के शैवों में योगी आदित्यनाथ का  महत्व  ज़्यादा ही है क्योंकि उन्होंने ही कदली श्री योगेश्वर मठ के नए राजा यानी मठाधिपति की नियुक्ति में अहम भूमिका निभाई थी . योगी आदित्यनाथनाथ पंथ की सबसे बड़ी संस्था अखिल भारत वर्षीय अवधूत भेष बारह पंथ योगी महासभा के अध्यक्ष के रूप में  त्र्यम्बकेश्वर के ज्योतिर्लिंग में हुयी उस सभा के प्रमख थे जिसने योगी निर्मल नाथ को बारह बर्षों के लिए राजा नियुक्त किया था.
. ऐसा लगता है कि अगर  प्रकाश राज के जस्टआस्किंग फाउन्डेशन की बात आगे  बढ़ी तो नौजवानों को दंगे आदि के लिए इस्तेमाल नहीं किया जा सकेगा और दंगा करवाकर राजनीति करने वाले नेताओं की कीमत वोट के बाज़ार में घटेगी . ऐसी परिस्थिति में शैव मतावलंबियों के नाथ पंथ के सबसे बड़े महंत की बात मानकर वोट मिलने की संभावना अधिक मानी जायेगी . इसी कोशिश में  योगी को कर्नाटक में लगा दिया गया है .
योगी आदित्यनाथ के धर्म के प्रभाव का इस्तेमाल बीजेपी वाले गुजरात और त्रिपुरा में भी कर चुके हैं . गुजरात चुनाव में सौराष्ट्र में बीजेपी की हालत बहुत ही खराब थी , वहां भी बड़ी संख्या में सीटें उसके  हाथ आई क्योंकि सौराष्ट्र के सभी जिलों की कमज़ोर सीटों पर योगी आदित्यनाथ ने प्रचार किया था .. कर्नाटक में फिलहाल तो हवा बीजेपी के खिलाफ है ऐसी हालत में यह देखना  दिलचस्प होगा  कि क्या मोदी-शाह-योगी की टीम एक हारी  हुयी बाज़ी को अपने पक्ष में कर सकती है.

Friday, May 4, 2018

चर्चिल और जिन्नाह की साज़िश का नतीजा है मुल्क का बंटवारा




शेष नारायण सिंह

भारत का बँटवारा एक  बहुत बड़ा धोखा था  जो कई स्तरों पर खेला गया था. अँगरेज़ भारत को आज़ाद किसी कीमत पर नहीं करना चाहते थे लेकिन उनके प्रधानमंत्री विन्स्टन चर्चिल को सन बयालीस के बाद जब अंदाज़ लग गया कि अब महात्मा  गांधी की आंधी के सामने टिक पाना नामुमकिन है तो उसने देश के टुकड़े करने की योजना पर काम करना शुरू कर दिया .जिन्नाह अंग्रेजों के वफादार थे ही , चर्चिल ने देसी राजाओं को भी हवा देना शुरू कर दिया था . उसको उम्मीद थी कि राजा लोग कांग्रेस के अधीन भारत में शामिल नहीं होंगें . पाकिस्तान तो उसने बनवा लिया लेकिन राजाओं को सरदार पटेल ने भारत में शामिल होने के लिए राजी कर लिया. जो नहीं राजी हो रहे थे उनको नई हुकूमत की ताकत दिखा दी . हैदराबाद का  निजाम और जूनागढ़ का नवाब कुछ पाकिस्तानी मुहब्बत में नज़र आये तो उनको सरदार पटेल की राजनीतिक अधिकारिता के दायरे  में ले लिया  गया और कश्मीर का राजा  शरारत की बात सोच रहा था तो उसको भारत की मदद की ज़रुरत तब पड़ी जब पाकिस्तान की तरफ से कबायली हमला हुआ . हमले के बाद राजा डर गया और सरदार ने  उसकी मदद करने से इनकार कर दिया . जब राजा ने भारत के साथ विलय के दस्तावेज़ पर दस्तखत कर  दिया तो  पाकिस्तानी फौज और कबायली हमले को भारत की सेना ने वापस भगा दिया .लेकिन यह सब देश के बंटवारे के बाद हुआ . १९४५ में  तो चर्चिल ने इसे एक ऐसी योजना के रूप में सोचा रहा होगा जिसके बाद भारत  के टुकड़े होने से कोई रोक नहीं सकता था .  चर्चिल का सपना था कि दूसरे विश्वयुद्ध के बाद  जिस तरह से यूरोप के देशों का विजयी देशों ने यूरोप के देशों में प्रभाव क्षेत्र का बंदरबाँट किया था , उसी तरह से भारत में भी कर लिया जाएगा .
अंग्रेजों ने भारत को कभी भी अपने से अलग करने की बात सोची ही  नहीं थी. उन्होंने तो दिल्ली में एक खूबसूरत राजधानी बना ली थी .  प्रोजेक्ट नई दिल्ली १९११ में शुरू हुआ था और महात्मा गांधी के  असहयोग आन्दोलन और  सिविल नाफ़रमानी आन्दोलन की सफलता के बावजूद भी नयी इंपीरियल कैपिटल में ब्रिटिश हुक्मरान  पूरे  ताम झाम से आकर बस गए थे . 10फरवरी 1931 के दिन नयी दिल्ली को औपचारिक रूप से ब्रिटिश भारत की राजधानी बनाया गया. उस वक़्त के वाइसराय लार्ड इरविन ने नयी दिल्ली शहर का विधिवत उदघाटन किया . १९११ में जार्ज पंचम के राज के दौरान दिल्ली में दरबार हुआ और तय हुआ कि राजधानी दिल्ली में बनायी जायेगी. उसी फैसले को कार्यरूप देने के लिए रायसीना की पहाड़ियों पर नए शहर को बसाने का फैसला हुआ और नयी दिल्ली एक शहर के रूप में विकसित हुआ . इस शहर की डिजाइन में एडविन लुटियन क बहुत योगदान है . १९१२ में एडविन लुटियन की दिल्ली यात्रा के बाद शहर के निर्माण का काम शुरू हो जाना था लेकिन विश्वयुद्ध शुरू हो गया और ब्रिटेन उसमें बुरी तरह उलझ गया इसलिए नयी दिल्ली प्रोजेक्ट पर काम पहले विश्वयुद्ध के बाद शुरू हुआ. यह अजीब इत्तिफाक है कि भारत की आज़ादी की लडाई जब अपने उरूज़ पर थी तो अँगरेज़ भारत की राजधानी के लिए नया शहर बनाने में लगे हुए थे. पहले विश्वयुद्ध के बाद ही महात्मा गाँधी ने कांग्रेस और आज़ादी की लड़ाई का नेतृत्व संभाला और उसी के साथ साथ अंग्रेजों ने राजधानी के शहर का निर्माण शुरू कर दिया . १९३१ में जब नयी दिल्ली का उदघाटन हुआ तो महात्मा गाँधी देश के सर्वोच्च नेता थे और पूरी दुनिया के राजनीतिक चिन्तक बहुत ही उत्सुकता से देख रहे थे कि अहिंसा का इस्तेमाल राजनीतिक संघर्ष के हथियार के रूप में किस तरह से किया जा रहा है .
 १९२० के महात्मा गाँधी के आन्दोलन की सफलता और उसे मिले हिन्दू-मुसलमानों के एकजुट समर्थन के बाद ब्रिटिश साम्राज्य के लोग घबडा गए थे . उन्होंने हिन्दू मुस्लिम एकता को तोड़ने के लिए सारे इंतज़ाम करना शुरू कर दिया था . हिन्दू महासभा के नेता वी डी सावरकर को माफी देकर उन्हें किसी ऐसे संगठन की स्थापना का ज़िम्मा दे दिया था जो हिन्दुओं और मुसलमानों में फ़र्क़ डाल सके . उन्होंने अपना काम बखूबी निभाया .उनकी  नयी किताब  हिंदुत्वइस मिशन में बहुत काम आई . १९२० के आन्दोलन में दरकिनार होने के बाद कांग्रेस की राजनीति में निष्क्रिय हो चुके मुहम्मद अली जिन्ना को अंग्रेजों ने सक्रिय किया और उनसे मुसलमानों के लिए अलग देश माँगने की राजनीति पर काम करने को कहा . देश का राजनीतिक माहौल इतना गर्म हो गया कि १९३१ में नयी दिल्ली के उदघाटन के बाद ही अंग्रेजों की समझ में आ गया था कि उनके चैन से बैठने के दिन लद चुके हैं .

लेकिन अँगरेज़ हार मानने  वाले नहीं थे . उन्होंने जिस डामिनियन स्टेटस की बात को अब तक लगातार नकारा था , उसको लागू करने की बात करने लगे .१९३५ का गवर्नमेंट आफ इण्डिया एक्ट इसी दिशा में एक कदम था लेकिन कांग्रेस ने  लाहौर में १९३० में ही तय कर लिया था कि अब पूर्ण स्वराज चाहिए , उस से कम कुछ नहीं . १९३५ के बाद यह तय हो गया था कि अँगरेज़ को जाना ही पड़ेगा . लेकिन वह तरह तरह के तरीकों से उसे टालने की कोशिश कर रहा था . अपने सबसे बड़े खैरख्वाह जिन्ना को भी नई दिल्ली के क्वीन्स्वे ( अब जनपथ ) पर  अंग्रेजों ने एक घर  दिलवा दिया था . जिन्ना उनके मित्र थे इसलिए उन्हें एडवांस में मालूम पड़ गया था कि बंटवारा होगा और फाइनल होगा . शायद इसीलिये जिन्ना की हर चाल में चालाकी नजर आती थी . बंटवारे के लिए अंग्रेजों ने अपने वफादार मुहम्मद अली जिन्ना से द्विराष्ट्र सिद्धांत का प्रतिपादन करवा दिया. वी डी सावरकार ने भी इस  सिद्धांत को हिन्दू महासभा के अध्यक्ष के रूप में १९३७ में अहमदाबाद के  अधिवेशन में अपने भाषण में कहा लेकिन अँगरेज़ जानता था कि सावरकर के पास कोई राजनीतिक समर्थन नहीं है इसलिए  वे जिन्ना को उकसाकर महात्मा गांधी और कांग्रेस को हिन्दू पार्टी के रूप में ही पेश करने की कोशिश करते रहे.
आज़ादी की लड़ाई सन बयालीस के बाद बहुत तेज़ हो गयी .  ब्रिटेन के युद्ध कालीन प्रधानमंत्री  विन्स्टन चर्चिल को साफ़ अंदाज़ लग गया कि अब भारत से ब्रिटिश  साम्राज्य का दाना पानी उठ चुका है . इसलिए उसने बंटवारे का नक्शा बनाना शुरू कर दिया था . चर्चिल को उम्मीद थी कि वह युद्ध के बाद होने वाले चुनाव में फिर चुने जायेगें और प्रधानमंत्री  वही  रहेंगे इसलिए उन्होंने भारत के तत्कालीन वायसराय लार्ड वाबेल को पंजाब और बंगाल के विभाजन का नक्शा भी दे दिया था. उनको शक था कि आज़ाद भारत सोवियत रूस  की तरफ  जा सकता है और उसको कराची का बेहतरीन बंदरगाह मिल सकता है . उसके बाद पश्चिम एशिया के तेल पर उसका अधिकार ज्यादा हो जाएगा .शायद इसीलिये चर्चिल ने जिन्ना को इस्तेमाल करके कराची को भारत से अलग करने की साज़िश रची थी .उसने  तत्कालीन वायसराय लार्ड वाबेल को निर्देश दिया कि बंटवारे का एक नक्शा बाण लो . लार्ड वाबेल तो चले गए लेकिन वह नक्शा कहीं नहीं गया . जब लार्ड माउंटबेटन भारत के वायसराय तैनात हुए तो  लार्ड हैस्टिंग्ज  इसमे ने जुगाड़ करके अपने आपको वायसराय  की चीफ आफ स्टाफ नियुक्त करवा लिया . उन्होंने युद्ध काल में चर्चिल के साथ काम किया था  इसलिये लार्ड इसमे चर्चिल के बहुत भरोसे के आदमी थे और  चर्चिल ने  अपनी योजना को लागू  करने के लिए इनको सही समझा . प्रधानमंत्री एटली को भरोसे में लेकर  लार्ड हैस्टिंगज लायनेल इसमे , नए वायसराय के साथ ही नई दिल्ली आ गए . चर्चिल की बंटवारे की योजना के वे ही भारत में सूत्रधार बने . वे युद्ध काल में चर्चिल के चीफ मिलिटरी असिस्टेंट रह चुके थे .बाद में वे ही नैटो के गठन के बाद उसके पहले सेक्रेटरी जनरल भी बने.
 जब लार्ड माउंटबेटन  मार्च १९४७ में भारत आये तो उनका काम भारत में एक नई सरकार को अंग्रेजों की सत्ता  को सौंप देने का एजेंडा था . उनको क्या पता था कि चर्चिल ने पहले से ही तय कर रखा था कि देश का बंटवारा करना है .हालांकि माउंटबेटन १९४७ में भारत आए  थे लेकिन उनको क्या करना है यह पहले से ही तय हो चुका था . यह अलग बात है उनको पूरी जानकारी नहीं थी .वे अपने हिसाब से ट्रांसफर आफ पावर के कार्य में  लगे हुए थे . बाद में लार्ड  माउंटबेटन को पता चला कि  उनको चर्चिल ने इस्तेमाल कर लिया है लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी  .

भारत के बंटवारे में अंग्रेजों की साज़िश की जानकारी तो शुरू से थी लेकिन ब्रिटिश लायब्रेरी में एक ऐसा दस्तावेज़ मिला है जो यह बताता है कि चर्चिल ने १९४५ में ही पंजाब और बंगाल को बांटकर नक़्शे की शक्ल दे दी थी .  जब माउंटबेटन को पता चला कि वे  इस्तेमाल हो गए हैं तो उन्होंने बहुत गुस्सा किया और  अपने चीफ आफ स्टाफ हैस्टिंग्ज इसमे से कहा  कि आप लोगों के हाथ खून से  रंगे हैं तो जवाब मिला कि लेकिन तलवार तो आपके हाथ में थी.  उनको याद  दिलाया  गया कि  भारत के बंटवारे की योजना का नाम माउंटबेटन प्लान भी उनके ही नाम पर है . जब पाकिस्तान के उद्घाटन के अवसर पर माउंटबेटन कराची गए तो जिन्नाह ने उनको  धन्यवाद किया . वायसराय ने जवाब दिया कि आप धन्यवाद तो चर्चिल को दीजिये क्योंकि आप के साथ मिलकर उन्होंने ही यह साज़िश रची थी . मैं तो इस्तेमाल हो गया . जिन्नाह ने जवाब दिया कि हम दोनों ही इस्तेमाल हुए हैं, हम दोनों ही  शतरंज की चाल में मोहरे बने हैं . जानकार बताते हैं कि चर्चिल ने जिन्नाह को ऐसा पाकिस्तान देने का सब्ज़बाग़ दिखाया था  जिसमें बंगाल और पंजाब तो होगा ही , बीच का पूरा इलाका होगा जहां से होकर जी टी रोड गुजरती है ,वह पाकिस्तान में ही रहेगा . शायद इसीलिये जब १५०० किलोमीटर के फासले  के दो हिस्सों में फैला पाकिस्तान बना तो जिनाह  की पहली प्रतिक्रिया थी कि उनको माथ ईटेन पाकिस्तान मिला  है. अपनी मौत के पहले मुहम्मद अली जिन्ना ने अपने प्रधानमंत्री लियाक़त अली से स्वीकार किया कि पाकिस्तान बनाना उनकी ज़िंदगी की सबसे बड़ी बेवकूफी थी.


Tuesday, May 1, 2018

२०१९ में तीसरे मोर्चा बना तो बीजेपी को फायदा और कांग्रेस को नुक्सान होगा



शेष नारायण सिंह  


कांग्रेस को अपना अस्तित्व बचाने के लिए तीसरे मोर्चे की राजनीति को आगे बढ़ने से रोकना पडेगा वरना एक पार्टी के रूप में  उनके लिए मुश्किल हो जायेगी . कांग्रेस अध्यक्ष के आस पास  मंडराने वाले वर्ग में  ऐसे लोगों की बड़ी संख्या है जो १९८० और १९८५ का अपनी पार्टी का बहुमत भूल ही नहीं पाते. वह दौर ऐसा था जब इंदिरा गांधी या राजीव गांधी जिसकी तरफ भी इशारा कर देते थे ,वह मुख्यमंत्री हो जाता था. लेकिन अब वह ज़माना नहीं है . राहुल गांधी के करीबी लोग अमरिंदर सिंह को पंजाब का मुख्यमंत्री नहीं बनने देना चाहते थे लेकिन उन्होंने दिल्ली के दरबारी कांग्रेसियों को समझा दिया कि पंजाब में सबसे बड़े कांग्रेसी वही हैं . आजकल कर्नाटक में भी वही पंजाब फार्मूला अपनाया जा रहा है . सिद्दरमैया ने पांच साल में यह स्थापित कर दिया  है कि उनको ही नेता मानना पडेगा . अभी चुनाव प्रचार चल रहा  है लेकिन जो भी कर्नाटक की राजनीति  को देख रहा  है ,उसको मालूम है कि सिद्दरमैया को नेता मानकर चलने की कांग्रेस की नीति विपक्ष पर भारी पड़ रही है . इसी साल के अंत तक राजस्थान और मध्य प्रदेश में भी चुनाव होने  हैं . दोनों ही राज्यों के मुख्यमंत्री बहुत ही अलोकप्रिय हैं और वहां कांग्रेस की जीत की संभावना बताई जा रही है . इन दोनों ही राज्यों में कांग्रेस अध्यक्ष अपने बचपन के दोस्तों को मुख्यमंत्री बनाने की जुगत में लग गए हैं.  दोनों ही राज्यों में कांग्रेस नेतृत्व वही करना चाह रहा है जो  १९८० और १९८९ के बीच किया जाता था . लेकिन उनको ध्यान रखना पड़ेगा कि अब बीजेपी एक बहुत ही बड़ी राजनीतिक पार्टी है और वह अपनी जीत के बाद जीत को पक्का करती जा रही है . जहाँ थोडा कमज़ोर भी पड़ती है ,वहां भी सरकार बना रही है . ऐसी हालत में कांग्रेस को राष्ट्रीय राजनीति और अपनी आन्तरिक राजनीति में मनमानी करने से बाज  आना पडेगा , वरना कांग्रेस मुक्त भारत का प्रधानमंत्री के सपना साकार हो  सकता है और उसमें सबसे बड़ा योगदान मौजूदा  कांग्रेस आलाकमान की बचकानी गलतियों का ही होगा.
आज बीजेपी एक बहुत  बड़ा दल है .  बीजेपी के रणनीतिकार यह मानकर चल रहे हैं कि उनको कांग्रेस को ही पछाड़ना है , बाकी पार्टियां तो   क्षेत्रीय पार्टियां हैं , उनको संभाल लिया जाएगा . अगर  कांग्रेस  हर राज्य में अपने लिए मुख्य भूमिका की तलाश करती रहेगी तो बीजेपी को बहुत  आसानी होगी. बीजेपी की योजना का  हिस्सा  है कि कांग्रेस को अन्य क्षेत्रीय दलों से मिलकर चुनाव न लड़ने दिया जाए. इसीलिये बीजेपी के वफादार क्षेत्रीय दलों के नेता तीसरे मोर्चे की बात करते देखे जा रहे हैं  . अभी कल तक बीजेपी के बड़े सहयोगी रहे , चंदबाबू नायडू  गैर कांग्रेसी ,गैर बीजेपी विकल्प की बात करते पाए जा रहे हैं . कोशिश यह है कि २०१९ में सभी मज़बूत क्षेत्रीय दल कांग्रेस से  दूरी बनाकार चुनाव लड़ें. अगर ऐसा हुआ तो बीजेपी को बहुत फायदा होगा.  क्षेत्रीय दल जहां  भारी पडेगा ,वहां चुनाव जीत लेगा और कांग्रेस के खिलाफ सभी मैदान में होंगें तो कांग्रेस ख़त्म हो जाएगी .  ऐसी स्थिति को बचाने का काम कांग्रेस के राजनीतिक भविष्य से जुड़ा है .कांग्रेस के  पास केवल एक तरीका है कि वह यह स्वीकार कर ले कि देश के एक बहुत बड़े हिस्से में उसकी  भूमिका केवल सहयोगी दल की हो गयी है . एक समय था जब  उत्तर प्रदेश में कांग्रेस का एकछत्र राज हुआ करता था लेकिन आज स्थिति यह है कि अगर समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी उसको मदद न करें तो उनके लिए अमेठी और राय बरेली में चुनाव जीतना भी पहाड़ हो जाएगा .इसलिए उत्तर प्रदेश और बिहार में अगर कांग्रेस को बीजेपी का विरोध  कर रही पार्टियों का सहयोगी बनने का मौक़ा मिलता है तो उनको खुश होना चाहिए .
विपक्ष के क्षेत्रीय नेताओं की मालूम है कि गैर कांग्रेस ,गैर बीजेपी विकल्प की बात बीजेपी  को ही फायदा   देगी इसलिए ऐसे किसी राजनीतिक इंतज़ाम की बात नहीं करनी चाहिए . ममता बनर्जी आजकल  सभी विपक्षी पार्टियों को यह समझाती फिर रही हैं कि बीजेपी के मुकाबले केवल एक मज़बूत  उम्मीदवार उतारा जाए. जिन राज्यों में जो पार्टी मज़बूत है वह  नेतृत्व करे और कांग्रेस  समेत बाकी पार्टियां उसकी अगुवाई स्वीकार करें . द्रविड़ मुन्नेत्र  कजगम के नेता, एम के स्टालिन ने ममता बनर्जी की सोच का समर्थन कर दिया है . उन्होंने एक ट्वीट में  कहा कि , ' डी एम  के हमेशा से ही क्षेत्रीय पार्टियों की एकता की बात करती रही है .मैं ममता बनर्जी की उन कोशिशों को सही मानता हूँ जिसमें वे बीजेपी को चुनौती देनी के लिए सबसे मज़बूत क्षेत्रीय पार्टी को अगुवाई देने की बात करती  हैं . 'लेकिन इसके बाद ही डी एम के के प्रवक्ता एस मनु का बयान आ गया जिससे साफ़ हो गया कि उनकी पार्टी ऐसे किसी भी प्रयास में कांग्रेस  को नज़रंदाज़ नहीं करना चाहती . ममता बनर्जी को कांग्रेस से दिक्क़त है क्योंकि बंगाल में उनकी लड़ाई कांग्रेस और लेफ्ट फ्रंट से है .

विपक्ष के नेताओं को विश्वास है कि देश में बीजेपी के खिलाफ माहौल बन रहा है और उसमें कांग्रेस को अपनी अस्मिता बचाते हुए बीजेपी को  शिकस्त देने की रणनीति पर काम करना पडेगा . अगर काँग्रेस उत्तर प्रदश , बिहार, बंगाल, तमिलनाडु आदि राज्यों में बड़ा भाई बनने की  कोशिश की तो बीजेपी का रास्ता बहुत ही आसान हो  जाएगा . और अगर कांग्रेस ने अपनी मजबूती वाले राज्यों में अपने आपको  संभाल लिया और उन राज्यों में जहाँ वह कमज़ोर है ,सहयोगी भूमिका पकड़ ली तो बीजेपी के लिए २०१९ बहुत मुश्किल भरा  हो जाएगा.लेकिन अगर तीसरे मोर्चे की बात चल निकली तो बीजेपी को रोकना असंभव हो जाएगा .

इस सन्दर्भ में यह साफ़ होना बहुत ज़रूरी है कि कांग्रेस अपने लिए क्या भूमिका  तय  करती है . भारत की राजनीति में कांग्रेस का ऐतिहासिक महत्व है .महात्मा गांधी ने १९२० में कांग्रेस को जन संगठन बनाने में अहम भूमिका निभाई . उसके पहले कांग्रेस का काम अंग्रेजों के उदारवाद के एजेंट के रूप में काम करना भर था .बाद में कांग्रेस ने आज़ादी की लड़ाई में देश का नेतृत्व किया. महात्मा गांधी खुद चाहते थे  कि आजादी मिलने के बाद कांग्रेस को चुनावी राजनीति से अलग करके जनान्दोलन  चलाने वाले संगठन के रूप में ही रखा जाए . चुनाव में शामिल होने के इच्छुक राजनेता अपनी अपनी पार्टियां बनाकर चुनाव  लड़ें लेकिन कांग्रेस के उस वक़्त के बड़े नेताओं ने ऐसा नहीं होने दिया .उन्होंने कांग्रेस को जिंदा रखा और आज़ादी के बाद के कई वर्षों तक राज  किया. बाद में जब डॉ राम मनोहर लोहिया ने गैर कांग्रेस वाद की  राजनीति के प्रयोग शुरू किया तो कांग्रेस को बार बार सत्ता से  बेदखल होना पड़ा. १९८९ में  गैर कांग्रेस वाद की भी पोल खुल गयी जब बाबरी मस्जिद के  विध्वंस के लिए चले आंदोलन में कांग्रेस और बीजेपी साथ  साथ खड़े नज़र आये. १९९२ में अशोक सिंहल,कल्याण सिंह और पी वी  नरसिम्हाराव के संयुक्त प्रयास से बाबरी मस्जिद ढहाई गयी लेकिन उसके पहले ही बीजेपी और कांग्रेस  का वर्गचरित्र सामने आ गया था. पूर्व प्रधान मंत्री चन्द्र शेखर ने लोक सभा के अपने ७ नवंबर १९९० के भाषण में इस बात का विधिवत पर्दाफ़ाश कर दिया था. उस भाषण में चन्द्रशेखर जी ने कहा कि धर्म निरपेक्षता मानव संवेदना की पहली परख है .  जिसमें मानव संवेदना नहीं है उसमें धर्मनिरपेक्षता नहीं हो सकती."
इसी के बाद तीसरे मोर्चे की बात जोर पड़ने लगी .१९९६ में गैर कांग्रेस गैर बीजेपी सरकार की बात चली तो एच डी देवे गौड़ा को प्रधान मंत्री बनाने वाली पार्टियों के गठबंधन को तीसरा मोर्चा नाम दे दिया गया था.लेकिन कोई ऐसी राजनीतिक शक्ति नहीं बनी थी जिसे तीसरे मोर्चे के रूप में पहचाना जा सके.

वास्तव में तीसरा मोर्चा एक राजनीतिक असम्भावना  है.यह सत्ताधारी दलों की उस  कोशिश का नाम है जिसको वे विपक्ष को एक होने  से रोकने के लिए इस्तेमाल करती हैं. कांग्रेसी राज के दौर में कांग्रेस की कोशिश रहती थी कि तीसरा मोर्चा की बात चलती रहेगी तो विपक्ष को एकजुट होने का मौक़ा नहीं लगेगा .अब  बीजेपी की   इच्छा है कि तीसरा मोर्चा बने और उसको  विपक्षी के रूप में कांग्रेस और तीसरा मोर्चा का मुकाबला करना पड़े. यह तय  है कि राहुल गांधी की  कांग्रेस सत्ताधारी बीजेपी को राष्ट्रीय स्तर पर चुनौती नहीं दे सकती .लेकिन बीजेपी को चुनौती मिलेगी ज़रूर उसके लिए कांग्रेस को आज की सच्चाई कोसंझ्ना पडेगा और  जिन राज्यों में वह मज़बूत है ,उसके बाहर एक मुख्य पार्टी नहीं सहयोगी पार्टी की  भूमिका निभानी पड़ेगी.
फूलपुर और गोरखपुर उपचुनावों एक बाद साफ़ हो गया है कि  अगर समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी  एक साथ मिलकर चुनाव लड़ेगें तो उत्तर प्रदेश से बीजेपी के उतने सांसद नहीं जीतेंगें जितने २०१९ में जीते थे. . एक बात और सच है कि इन दोनों ही चुनावों में कांग्रेस की औकात रेखांकित हो गयी है . यह तय है कि उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की चुनावी हैसियत  नगण्य है. जिस फारमूले से यह दोनों उपचुनाव  विपक्ष ने जीता है ,  समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी ने अगर सीटों का तालमेल कर लिया तो उत्तर प्रदेश में बीजेपी को बड़ा घाटा हो सकता है . यही हाल बिहार का भी है . बिहार में भी बीजेपी को कांग्रेस से कोई चुनौती नहीं मिलने वाली है . कांग्रेस की वहां भी स्थिति उत्तर प्रदेश जैसी ही है . लालू यादव की पार्टी वहां बीजेपी की मुख्य मुसीबत बनेगी . ओडीशा में  भी बीजेपी का मुकाबला वहाँ के लोकप्रिय मुख्यमंत्री नवीन पटनायक से होगा . वहां कांग्रेस को मुख्य विपक्षी दल के रूप में चुनाव लड़ना पडेगा. ज़ाहिर है अपनी राजनीतिक हैसियत बनाये रखने के लिए कांग्रेस के सामने और कोई विकल्प नहीं है लेकिन रणनीतिक गठजोड़ तो हो ही सकता है .


कांग्रेस पार्टी को कर्नाटक, मध्य प्रदेशराजस्थान ,पंजाब , महाराष्ट्र ,गुजरात और कश्मीर में अग्रणी भूमिका की बात करनी चाहिए  जबकि उत्तर प्रदेश ,बिहारआंध्र प्रदेश ,तेलंगानातमिलनाडु,में  क्षेत्रीय पार्टियां बीजेपी को दिल्ली की सत्ता तक पंहुचने से रोक सकती हैं . केरल और बंगाल में कांग्रेस को अपनी भूमिका को फिर से परिभाषित करना पडेगा .

जयशंकर गुप्त का जन्मदिन ( ५ मार्च ) बहुत सारी यादों की बारात होता है

आज जयशंकर गुप्त का जन्मदिन है. जयशंकर मेरे बहुत ही प्रिय हैं . इसलिए कि उन्होंने वे सभी काम किये जो जीवन में मैं करना चाहता था . एक प्रखर समाजवादी के रूप में जीवन शुरू किया ,छात्र जीवन में इलाहाबाद विश्वविद्यालय में इमरजेंसी के खिलाफ ज़बरदस्त छात्र नेता रहे. मधु लिमये, जार्ज फर्नांडीज़, राज नारायण ,लाडली मोहन निगम, मधु दंडवते , जनेश्वर मिश्र जैसे समाजवादियों के सत्संग में उनका नाम बहुत ही सम्मान से लिया जाता था. उनके पिता जी डॉ लोहिया के मित्र थे. उत्तर प्रदेश में संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के विधायक रहे. जयशंकर गुप्त और उनके साथ इंदिरा गांधी की तानाशाही को चुनौती देने वाले नौजवानों की हिम्मत का ही जलवा था कि पूरे उत्तर भारत में इंदिरा गांधी और उनकी पार्टी चुनाव हारी और केंद्र में पहली गैर कांग्रेस सरकार की स्थापना हुई. जनता पार्टी की सरकार उसी आन्दोलन की सरकार थी जिसमें देश के नौजवान जेल गए थे. लेकिन अपनी सरकार आने के बाद भी अन्याय के खिलाफ जयशंकर संघर्ष करते रहे. जनता पार्टी के राज में भी जेल गए . इन नौजवानों की समझ में उसी दौर में आ गया था कि केवल सत्ता बदली है शासक की मनोदशा नहीं बदली.
बहरहाल उसके बाद जयशंकर को सद्बुद्धि मिली और उन्होंने गीता जी से शादी कर ली , देश के शीर्ष पत्रकारिता संस्थाओं में काम किया , तीन बहुत ही अच्छे बच्चों के माता-पिता बने और जहां भी जाते हैं , इज्ज़त से पहचाने जाते हैं . मेरा उनसे कुछ ज़्यादा अपनापन इसलिए भी है कि मेरे गुरु ,स्व मधु लिमये उनको बहुत मानते थे, उनका बहुत ही सम्मान से नाम लेते थे.
जन्मदिन मुबारक जयशंकर, बहुत बहुत मुबारक .Rajshekhar Vyas जी ने कहा कि एक फोटो भी लगाओ , मैंने तुरंत उनके सुझाव का सम्मान कर दिया

ऐसा समाज बने जिसमें बलात्कार करने की कोई हिम्मत न कर सके




शेष नारायण सिंह


आजकल चारों तरफ से कम उम्र की लड़कियों के साथ बलात्कार की घटनाएं सामने आ रही हैं. कठुआ में तो इंसानी दरिन्दगी सभी हदें पार कर दी गयी. इंदौर से खबर आई है कि एक आदमी ने छ माह की एक  बच्ची के साथ दरिन्दगी की है . आज के अखबार के एक पूरे पन्ने पर लड़कियों के साथ हुयी हैवानियत की ख़बरें भरी हुई हैं.  कठुआ के मामले में तो पूरी दुनिया में सभ्य समाजों में  लोग हैरान रह गए जब पता चला कि कुछ वकील तिरंगा हाथ में लेकर बलात्कारियों के पक्ष में खड़े हो गए.  बलात्कारी के धर्म की बातें भी सामने आने लगीं . बिहार में एक मौलवी द्वारा की गयी वारदात को बहस के दायरे में लाने की मांग भी एक ख़ास पार्टी के लोग उठाने लगे .उन लोगों को यह बात पक्के तौर पर बता दिए जाने की ज़रूरत है कि दरिन्दगी करने वालों का  एक ही धर्म होता है और वह धर्म है  दरिन्दगी. दरिन्दे को हिन्दू या मुसलमान कहना उचित नहीं है . 

रेप की जो खबरें आ रही  हैं , उनमें एक अजीब बात देखने को मिल रही है . सत्ताधारी जमातें  बलात्कार के खिलाफ हो रहे आन्दोलन को अपने खिलाफ आन्दोलन मान रही हैं . ऐसा नहीं है . सच्ची बात यह है कि आन्दोलन हैवानियत के खिलाफ हैं और जो भी उन हैवानों के साथ खड़ा है उनके खिलाफ हैं . इसलिए बलात्कार जैसे मामलों में राजनीति तलाशने की कोशिश नहीं की जानी चाहिए . सरकारी पार्टी के कुछ लोग इसी मानसिकता के चलते कठुआ जैसी घटना पर अजीबोगरीब बयान दे रहे थे . लेकिन विदेश यात्रा पर गए प्रधानमंत्री ने जब पूरी दुनिया में कठुआ की वारदात पर ग़मो-ओ-गुस्से का इजहार करते लोगों को देखा तो उनको अंदाज़ लगा कि मामला अब पूरी दुनिया में फैल चुका है . विदेश यात्रा से लौटने के दो घंटे के अन्दर कैबिनेट की बैठक बुलवाई और एक अध्यादेश का मसौदा पास कर दिया गया जिसके तहत बारह साल से कम उम्र की बच्ची से बलात्कार करने वाले को सज़ा-ए-मौत दी जायेगी . उसकी ज़मानत नहीं होगी और चार महीने के अन्दर सज़ा  सुना दी जायेगी .

 कानून में ऐसे इंतजामात किये जाने चाहिए जिससे  अपराधी को मिलने वाली सज़ा को देख कर भविष्य में किसी भी पुरुष की हिम्मत न पड़े कि बलात्कार के बारे में कोई सोच भी सके. लेकिन कोई भी नया कानून बनाने के पहले बहुत ही सोच विचार करने की ज़रूरत होती  है . कहीं ऐसा तो नहीं कि आम जनमत के दबाव से घबडाकर सरकार कोई ऐसा क़ानून  बना दे जिस से वह फायदा  न हो जिसके लिए वह कानून बनाया गया है . जब  दिसंबर २०१२ में निर्भया के साथ बलात्कार हुआ था तो इसी तरह के कुछ नियम बनाये गए थे . उस घटना के बाद सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के रिटायर जस्टिस जे एस वर्मा  की अगुवाई में एक कमेटी बनाई थी .उस कमेटी ने बच्चियों के साथ  होने वाले बलात्कार के कानून में ज़रूरी बदलाव के सुझाव दिए थे. जस्टिस वर्मा  कमेटी के  वक़्त भी निर्भया के कसके बाद का गुस्सा पूरे देश में  था और बलात्कारी को मौत की सज़ा देने की बात हर कोने से उठ  रही थी लेल्किन अपनी रिपोर्ट में जस्टिस वर्मा कमेटी ने लिखा था  कि '" कानूनी सुधार और सज़ा के संदर्भ में मृत्युदंड एक  प्रतिगामी क़दम होगा " कमेटी ने बलात्कार के मामलों में सज़ा बढाकर आजीवन कारावास करने  की सिफारिश की थी .उन्होंने उसी रिपोर्ट में लिखा था कि इस बात के बहुत सारे सबूत मौजूद हैं जिससे यह साबित किया जा सके कि बहुत ही गंभीर अपराधों के लिए मौत की सज़ा के प्रावधान से वह नतीजे नहीं निकलते  जिनकी उम्मीद लगाकर कानून में उसकी व्यवस्था की गयी थी .आम तौर पर माना जाता है कि मृत्युदंड की व्यवस्था होने के बाद बलात्कार के अपराधों को दबा देने की प्रवृत्ति जोर पकड़ेगी थी  .


 जब कैबिनेट ने पास कर दिया है  तो अध्यादेश की घोषणा तो हो ही जायेगी लेकिन ज़रूरत  इस बात की है कि बलात्कार करने वालों सुर संभावित बालात्कारियों की मानसिकता को बदला जाए  .  इसके लिए सामाजिक सुधार के आन्दोलन की बात शुरू की जानी चाहिए . उस समाज के खिलाफ सभ्य समाज को लामबंद होने की ज़रूरत है जो लडकी को इस्तेमाल की वस्तु साबित करता है  और उसके साथ होने वाले बलात्कार को भी अपनी शान में गुस्ताखी मान कर सारा काम करता है . वहीं दूसरा पक्ष लडकी के साथ बलात्कार करके अपने विरोधी को सज़ा देने की सोचता है . उन्नाव की रेप और ह्त्या की बात इसी खांचे में  फिट बैठती है .हमें एक ऐसा समाज  चाहिए जिसमें लडकी के साथ बलात्कार करने वालों और उनकी मानसिकता की हिफाज़त करने वालों के खिलाफ लामबंद होने की इच्छा हो और ताक़त हो.
उस मानसिकता के खिलाफ जंग  छेड़ने की ज़रूरत है जिसमें लडकी को वस्तु मानते हैं .. इसी मानसिकता के चलते इस देश में लड़कियों को दूसरे दरजे का इंसान माना जाता है और उनकी इज्ज़त को मर्दानी इज्ज़त से जोड़कर देखा जाता है . लडकी की इज्ज़त की रक्षा करना पुरुष समाज का कर्त्तव्य माना जाता है . यह गलत है . पुरुष कौन होता है लडकी की रक्षा करने वाला . ऐसी शिक्षा और माहौल बनाया जाना चाहिए जिसमें लड़की खुद को अपनी रक्षक माने . लड़की के रक्षक के रूप में पुरुष को पेश करने की  मानसिकता को जब तक खत्म नहीं किया जाएगा तह तक कुछ भी नहीं बदलेगा  जो पुरुष समाज अपने आप को महिला की इज्ज़त का रखवाला मानता है वही पुरुष समाज अपने आपको यह अधिकार भी दे देता है कि वह महिला के  यौन जीवन का संरक्षक  और उसका उपभोक्ता है . जो पुरुष अपने आपको महिला का रक्षक बनाता फिरता है वह उसके साथ ज़बरदस्ती करने में भी संकोच नहीं करेगा. शिक्षा और समाज की बुनियाद में ही यह भर देने की ज़रूरत है कि पुरुष और स्त्री बराबर है और कोई किसी का रक्षक नहीं है. सब अपनी रक्षा खुद कर सकते हैं. बिना बुनियादी बदलाव के बलात्कार को हटाने की कोशिश वैसी  ही है जैसे किसी घाव पर मलहम लगाना . हमें ऐसे एंटी बायोटिक की तलाश करनी है जो शरीर में ऐसी शक्ति पैदा करे कि घाव होने की नौबत ही न आये. कहीं कोई बलात्कार ही न हो . उसके लिए सबसे ज़रूरी बात यह है कि महिला और पुरुष के बीच बराबरी को सामाजिक विकास की आवश्यक शर्त माना जाए.

लडकी और लड़के में बराबरी की भावना  लाने के लिए सरकार को दखल देना चाहिए और समाज की कुरीतियों को ख़त्म करना चाहिए .लड़कियों को खुदमुख्तार बनाने के लिए राजनीतिक कदम उठाये जाने चाहिए . महिलाओं को राजनीतिक आरक्षण देने की बात तो की जा रही है लेकिन सरकारी नौकरियों में इन्हें आरक्षण देने की बात कहीं नहीं कही जा रही है . महिलाओं को समाज में और राजनीति में सम्मान देने का एक ही तरीका है कि उनको देश और समाज के साथ साथ अपने बारे में फैसले लेने के अधिकार दिए जाएँ . अगर ऐसा न हुआ तो महिलायें पिछड़ी ही रहेगीं और जब तक पिछड़ी रहेगीं उनका शोषण हर स्तर पर होता रहेगा. बलात्कार महिलाओं  को कमज़ोर रखने और उनको हमेशा पुरुष के अधीन बनाए रखने की मर्दवादी सोच का नतीजा है . राजनीतिक पार्टियों पर इस बात के  लिए दबाव बनाया जाना चाहिए कि ऐसे क़ानून बनाएँ जिस से महिला और पुरुष  बराबरी के अधिकार के साथ समाज के भविष्य के फैसले लें और भारत को एक बेहतर देश के रूप में सम्मान मिल सके