शेष नारायण सिंह
देश में एक सवाल अब आम आदमी पूछने लगा है और कुछ इलाकों में तो बहुत ऊंची आवाज़ में यह सवाल पूछा जा रहा है .देश में नागरिकों का एक बड़ा वर्ग आहिस्ता आहिस्ता तैयार हो रहा है जो पूछ रहा है कि चुनाव के मौसम में ही राम मंदिर ,पाकिस्तान, हिंदुत्व और जिहाद की बातें क्यों मीडिया के रास्ते हवा में उछाल दी जाती हैं . चुनाव ख़त्म होने के बाद इन बातों को दरकिनार क्यों कर दिया जाता है . टीवी की बहसों में राजनीतिक पार्टियों द्वारा किये गए अधूरे वायदों का ज़िक्र क्यों नहीं होता. कर्नाटक विधानसभा के चुनाव को करीब से देखने के चक्कर में वहां के ग्रामीण इलाकों में एक अजीब किस्म की चौपाल देखने को मिली . कन्नड़ और तमिल फिल्मों के अभिनेता, प्रकाश राज वहां गाँव गाँव में घूम रहे थे. किसी भी गाँव में उनकी बैठक लग जाती थी और वहां वे जाति ,धर्म और अस्मिता के सवालों के बाहर जाकर राजनीतिक पार्टियों से सवाल पूछने के लिए प्रेरित कर रहे हैं . उनका कहना है कि रोज़गार की ज़रूरत पर सवाल पूछे जाने चाहिए . धार्मिक विवाद फैलाने के कारणों के बारे में भी सीधे सवाल पूछे जाने चाहिए और ग्रामीण इलाकों की तबाही के कारणों को बहस के दायरे में लाने के लिए भी नेताओं को मजबूर किया जाना चाहिए . उनकी यह मुहिम अब एक आन्दोलन का रूप ले चुकी है . उन्होंने " जस्टआस्किंग फाउंडेशन " नाम का एक संगठन बना दिया है और केंद्र की सत्ताधारी पार्टी को शक है कि उनका यह आन्दोलन बीजेपी को कमज़ोर करने के लिए चलाया जा रहा है . कर्नाटक चुनाव के दौरान बीजेपी के कुछ नेताओं ने चुनाव आयोग से फ़रियाद की कि उनको अपना यह कार्यक्रम चलाने से रोका जाए क्योंकि उनके प्रचार से बीजेपी के साथ अन्याय हो रहा है और उसको चुनावी नुकसान होने का अंदेशा है .
उत्तर प्रदेश में प्रकाश राज जैसा कोई आन्दोलन तो नहीं है लेकिन देखा गया है कि बहुत सारे नौजवान केंद्र और राज्य सरकार से नौकरियों के बारे में सवाल पूछने की बाबत बात करने लगे हैं . अलीगढ में पाकिस्तान और मुसलमान को ध्यान में रख कर चलाए गए अभियान पर भी कई लड़कों ने आपसी बातचीत में सवाल उठाना शुरू कर दिया है . अगर यहाँ भी प्रकाश राज की तरह कोई कार्यक्रम चलाकर मुख्य मुद्दों पर नेताओं को घेरने की बात की जाए तो ऐसा लगता है कि नौजवान सही बातों को उठाने के लिए तैयार है .
अलीगढ मुस्लिम विश्वविद्यालय में माहौल को राजनीतिक हितों के लिए गरमा दिया गया है . वहां छात्र यूनियन के हाल में बहुत सारी तस्वीरें लगी हैं , उसी में मुहम्मद अली जिन्नाह की भी एक तस्वीर है . अलीगढ में रिवाज़ है कि अपने दौर के किसी ख़ास आदमी को अलीगढ बुलाया जाता है और उनको छात्र यूनियन का आजीवन सदस्य बनाकर सम्मानित किया जाता है . उस व्यक्ति की तस्वीर भी यूनियन के हाल में लगा दी जाती है . यह सिलसिला १९२० से शुरू हुआ . सबसे पहले महात्मा गांधी को छात्र यूनियन का आजीवन सदस्य बनाया गया था . महान वैज्ञानिक डॉ सी वी रमन को १९३१ और महान इतिहासकार जदुनाथ सरकार को १९३२ में आजीवन सदस्य बनाया गया .महात्मा गांधी के बहुत ही करीबी आज़ादी की लड़ाई के महत्वपूर्ण योद्धा, खान अब्दुल गफ्फार खां १९३४ में अलीगढ आये और उनको भी यूनियन ने सम्मानित किया और उन्हें आजीवन सदस्य बनाया गया .बहुत लम्बी लिस्ट है और इसी लिस्ट में इक्कीसवें नंबर पर मुहम्मद अली जिन्ना का नाम है जिनको १९३८ में आजीवन सदस्य बनाया गया . उसी साल उनकी तस्वीर भी लगा दी गयी . यह सिलसिला आज तक जारी है .
लोगों की समझ में नहीं आ रहा है कि अस्सी साल से जो तस्वीर वहां लटक रही है उसको कैराना के लिए उप चुनाव की तारीख घोषित होने के बाद किसी टीवी चैनल के ठेकेदार स्ट्रिंगर ने देखा और उसकी फोटो वहां के एम पी साहब के ज़रिये विवाद में ला दिया . देश को हिन्दू-मुस्लिम लाइन पर बांटने की कोशिश कर रही सियासत को एक माहौल बनाना था ,और वह बन गया . यह सब कैसे हुआ इसकी तफसील अब सबको मालूम है लेकिन इसको हासिल करने के पीछे जो उद्देश्य हैं वे बहुत ही डरावने हैं . अलीगढ समेत बाकी शहरों में भी माहौल को गर्म करने की कोशिश की जा रही है . पाकिस्तान के संस्थापक मुहम्मद अली जिन्ना को भारतीय मुसलमानों का अपना आदमी साबित करने की कोशिश की जा रही है . जबकि यह बात बिलकुल गलत है . भारत में जो भी मुसलमान रहते हैं , उन्होंने या उनके पूर्वजों ने १९४७ में ही मुहम्मद अली जिन्ना को साफ़ बता दिया था कि वे उनके पाकिस्तान को कुछ नहीं समझते , भारतीय मुसलमानों ने पाकिस्तान जाने से मना कर दिया था. आज तो खैर पाकिस्तान में रहने वाले मुसलमान भी कहते हैं कि जिन्ना ने बंटवारा करके बहुत बड़ी गलती की थी. अपनी ज़िंदगी के आख़िरी हफ़्तों में जिन्ना ने खुद अपने प्रधानमंत्री लियाक़त अली से बता दिया था कि पाकिस्तान बनवाना उनकी ज़िंदगी की सबसे बड़ी गलती थी . विख्यात इतिहासकार अलेक्स टुंजेलमान ने अपनी किताब, "इंडिया समर- सीक्रेट हिस्ट्री ऑफ द एंड ऑफ ऐन एम्पायर" में यह बात साफ़ साफ़ लिख दिया है .
बहरहाल इस सारी कवायद में मुद्दा न केवल पाकिस्तान के नाम पर आबादी को भड़काना मात्र है. यह सिद्ध हो चुका है कि अलीगढ को हर बार मुसलमानों के देशप्रेम पर सवाल उठाने के लिए इस्तेमाल किया जाता है . इस विषय पर बहुत शोध हुए हैं लेकिन अमरीकी विद्वान पॉल आर ब्रास ने की किताब दुनिया भर में बहुत सम्मान से पढी जाती है . अपनी किताब " द प्रोडक्शन आफ हिन्दू-मुस्लिम वायलेंस इन कन्टेम्परेरी इण्डिया " में उन्होंने अलीगढ को निशाने पर लेने के साम्प्रदायिक जमातों के कारणों का तफसील से ज़िक्र किया है . लिखते हैं कि जवाहरलाल नेहरू के बाद अलीगढ में जो भी हिंसा हुयी है उसका एक राजनीतिक दल को स्पष्ट रूप से फायदा हुआ है .उन्होंने इस हिंसा से राजनीतिक लाभ लेने वालों में आर एस एस के सहयोगी संगठनों को मुख्य रूप से चिन्हित किया है .यह सभी ससंगठन हिंदुत्व की विचारधारा को मानते हैं . इस हिंदुत्व को आम तौर पर हिन्दू धर्म से मिलाकर पेश किया जाता है लेकिन सच्चाई इससे बिलकुल अलग है.हिंदुत्व का हिन्दू धर्म से कोई लेना देना नहीं है . हिंदुत्व एक किताब है जिसको वी डी सावरकर ने लिखा है और यह केवल राजनीतिक मोबिलाइज़ेशन का एक मंच है जबकि हिन्दू धर्म सदियों से चला आ रहा एक धर्म है .
यह अजीब बात है कि अलीगढ जैसे शिक्षा के महान केंद्र को साम्प्रदायिक आधार पर हिन्दुओं को एकजुट करने के लिए इस्तेमाल किया जाता है . सविनय अय्वाग्या आन्दोलन में महात्मा गांधी और कांग्रेस ने अलग होकर मुहम्मद अली जिन्ना ने अलग राग अलापना शुरू कर दिया था . रफ्ता रफ्ता वे अलग मुस्लिम राष्ट्र के पक्षधर बन गए . जब उन्होंने मुस्लिम राष्ट्र की मुहिम चलाई तो अलीगढ उनके एक प्रमुख केंद्र के रूप में उभरा . नतीजा यह हुआ कि बहुत सारे हिन्दुओं के दिमाग में यह बात भर दी गयी कि अलीगढ के कारण ही पाकिस्तान बना था. यह भी बार बार बताया गया कि भारतीय समाज में जो भी गड़बड़ है वह अलीगढ से उपजे आन्दोलन की वजह से ही है . इस तरह से अलीगढ़ के नाम पर एक खास वर्ग को राजनीतिक लाभ के लिए इस्तेमाल करने का फैशन चल पडा. बाबरी मस्जिद के विध्वंस के बाद देश की आबादी का एक बड़ा हिस्सा धार्मिक ध्रुवीकरण की चपेट में आ गया है और उसके बाद से पाकिस्तान, जिन्ना और तुष्टीकरण के नाम पर राजनीतिक भीड़ इकठ्ठा करना सबसे आसान तरीका है .इस भीड़ का इस्तेमाल वोट बटोरने के लिए किया जाता है. देश को धार्मिक रूप से बांटने की कोशिश आज़ादी के तुरंत बाद भी की गयी और बार बार की गयी . लेकिन उस दौर में आज़ादी की लडाई में शामिल रहे लोगों की देश की राजनीति में ज़बरदस्त मौजूदगी थी इसलिए इन जमातों को हिंसक वारदातें करने में सफलता तो मिल जाती थी लेकिन उससे कोई राजनीतिक फायदा नहीं उठा पाते थे. नेहरू के बाद देश के राजनीतिक नेताओं की दृष्टि सीमित हो गयी और उसके बाद हिंसा को राजनीति से जोड़ने का काम बहुत तेज़ हो गया .
देश की राजनीति में राजीव गांधी का आना भी एक महत्वपूर्ण स्थान रखता है . उनके साथ ऐसे लोग आये जो राजनीतिक मूल्यों को कंपनी प्रबंधन की तरह समझते थे . बाबरी मस्जिद से सम्बंधित जो भी गलतियां राजीव गांधी की केंद्र सरकार ने कीं वह ऐसे ही लोगों के कारण हुईं . बाबरी मस्जिद को राम मंदिर बनाकर पेश करने की कोशिश तो नेहरू और पटेल के समय में शुरू हो गयी थी लेकिन उन लोगों ने इस नाजुक मसले पर भावनाओं का हमेशा ख्याल रखा . सरदार पटेल ने उस वक़्त के उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री गोविन्द वल्लभ पन्त को बाबरी मस्जिद के बारे में जो चिट्ठी लिखी थी , वह बहुत ही अहम दस्तावेज़ है लेकिन राजीव गांधी के साथियों ने उसको नज़रंदाज़ करके काम किया .उसी का नतीजा है कि आज देश और समाज के रूप में हम इस मुकाम पर पंहुच गए . उन लोगों को अंदाज़ ही नहीं था कि वे आग से खेल रहे हैं . बाबरी मस्जिद के विवाद में भी अलीगढ को काले रंग में पेंट करने के कोशिश हुई थी.
आज हालात यह हैं कि हर चुनाव के पहले आर एस एस की कोशिश होती है कि किसी तरह से हिन्दू मुस्लिम विवाद को एक रूप दिया जाये . उसके बाद उनकी पार्टी को ध्रुवीकरण के राजनीति लाभ मिलते हैं . अभी चुनावी मौसम है और सत्ताधारी पार्टी कुछ कमज़ोर है . सबको मालूम है कि अलीगढ और जिन्ना को निशाने पर लेकर भावनाएं भड़काई जा सकती हैं और इसीलिये अलीगढ को एक बार फिर केंद्र में ले लिया गया है. सामाजिक राजनीतिक चिन्तक आशीष नंदी के कहना है कि सकारात्मक राजनीति करना बहुत कठिन काम होता है .उसके लिए ठोस राजनीतिक कार्यक्रम चाहिए ,जनता की भागीदारी, चाहिए और उस कार्यक्रम को आबादी के बड़े हिस्से को स्वीकार करना चाहिए लेकिन नकारात्मक राजनीति के लिए ऐसा कुछ नहीं चाहिए . उसके लिए एक दुश्मन चाहिए और उसके खिलाफ जनता को इकठ्ठा करके उनके वोट आसानी से लिए जा सकते हैं . यह देश के दुर्भाग्य है कि अलीगढ जैसे महत्वपूर्ण विश्वविद्यालय को दुश्मन की तरह प्रस्तुत करके राजनीतिक लाभ लेने की कोशिश की जा रही है . देश की समझदार आबादी और जमातों को चाहिए कि साम्प्रदायिक ताक़तों की इन कोशिशों को बेनकाब करें और उसको खारिज करें संतोष की बात यह है कि देश के बहुसंख्यक वर्गों के नौजवान भी अब धार्मिक भावनाओं क भड़काने वालों की नीयत पर सवाल उठाने लगे हैं .
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