शेष नारायण सिंह
भारत का बँटवारा एक बहुत बड़ा धोखा था
जो कई स्तरों पर खेला गया था. अँगरेज़ भारत को आज़ाद किसी कीमत पर
नहीं करना चाहते थे लेकिन उनके प्रधानमंत्री विन्स्टन चर्चिल को सन बयालीस के बाद
जब अंदाज़ लग गया कि अब महात्मा गांधी की आंधी के सामने टिक पाना नामुमकिन है
तो उसने देश के टुकड़े करने की योजना पर काम करना शुरू कर दिया .जिन्नाह अंग्रेजों
के वफादार थे ही , चर्चिल ने देसी राजाओं को भी हवा देना
शुरू कर दिया था . उसको उम्मीद थी कि राजा लोग कांग्रेस के अधीन भारत में शामिल
नहीं होंगें . पाकिस्तान तो उसने बनवा लिया लेकिन राजाओं को सरदार पटेल ने भारत
में शामिल होने के लिए राजी कर लिया. जो नहीं राजी हो रहे थे उनको नई हुकूमत की
ताकत दिखा दी . हैदराबाद का निजाम और जूनागढ़ का नवाब
कुछ पाकिस्तानी मुहब्बत में नज़र आये तो उनको सरदार पटेल की राजनीतिक अधिकारिता के
दायरे में ले लिया गया और
कश्मीर का राजा शरारत की बात सोच रहा था तो उसको भारत
की मदद की ज़रुरत तब पड़ी जब पाकिस्तान की तरफ से कबायली हमला हुआ . हमले के बाद
राजा डर गया और सरदार ने उसकी मदद करने से इनकार कर
दिया . जब राजा ने भारत के साथ विलय के दस्तावेज़ पर दस्तखत कर दिया तो
पाकिस्तानी फौज और कबायली हमले को भारत की सेना ने वापस भगा दिया
.लेकिन यह सब देश के बंटवारे के बाद हुआ . १९४५ में तो चर्चिल ने इसे एक ऐसी
योजना के रूप में सोचा रहा होगा जिसके बाद भारत के
टुकड़े होने से कोई रोक नहीं सकता था . चर्चिल का सपना
था कि दूसरे विश्वयुद्ध के बाद जिस तरह से यूरोप के
देशों का विजयी देशों ने यूरोप के देशों में प्रभाव क्षेत्र का बंदरबाँट किया था ,
उसी तरह से भारत में भी कर लिया जाएगा .
अंग्रेजों ने भारत को कभी भी अपने से अलग करने की बात
सोची ही नहीं थी. उन्होंने तो दिल्ली में एक खूबसूरत राजधानी
बना ली थी . प्रोजेक्ट नई दिल्ली १९११ में शुरू हुआ था
और महात्मा गांधी के असहयोग आन्दोलन और सिविल नाफ़रमानी आन्दोलन की सफलता के बावजूद भी नयी इंपीरियल कैपिटल में
ब्रिटिश हुक्मरान पूरे ताम झाम से आकर बस गए थे
. 10फरवरी 1931 के दिन नयी दिल्ली को औपचारिक रूप से ब्रिटिश भारत की राजधानी बनाया गया.
उस वक़्त के वाइसराय लार्ड इरविन ने नयी दिल्ली शहर का विधिवत उदघाटन किया . १९११
में जार्ज पंचम के राज के दौरान दिल्ली में दरबार हुआ और तय हुआ कि राजधानी दिल्ली
में बनायी जायेगी. उसी फैसले को कार्यरूप देने के लिए रायसीना की पहाड़ियों पर नए
शहर को बसाने का फैसला हुआ और नयी दिल्ली एक शहर के रूप में विकसित हुआ . इस शहर
की डिजाइन में एडविन लुटियन क बहुत योगदान है . १९१२ में एडविन लुटियन की दिल्ली
यात्रा के बाद शहर के निर्माण का काम शुरू हो जाना था लेकिन विश्वयुद्ध शुरू हो
गया और ब्रिटेन उसमें बुरी तरह उलझ गया इसलिए नयी दिल्ली प्रोजेक्ट पर काम पहले
विश्वयुद्ध के बाद शुरू हुआ. यह अजीब इत्तिफाक है कि भारत की आज़ादी की लडाई जब
अपने उरूज़ पर थी तो अँगरेज़ भारत की राजधानी के लिए नया शहर बनाने में लगे हुए
थे. पहले विश्वयुद्ध के बाद ही महात्मा गाँधी ने कांग्रेस और आज़ादी की लड़ाई का
नेतृत्व संभाला और उसी के साथ साथ अंग्रेजों ने राजधानी के शहर का निर्माण शुरू कर
दिया . १९३१ में जब नयी दिल्ली का उदघाटन हुआ तो महात्मा गाँधी देश के सर्वोच्च
नेता थे और पूरी दुनिया के राजनीतिक चिन्तक बहुत ही उत्सुकता से देख रहे थे कि
अहिंसा का इस्तेमाल राजनीतिक संघर्ष के हथियार के रूप में किस तरह से किया जा रहा
है .
१९२० के महात्मा गाँधी के आन्दोलन की
सफलता और उसे मिले हिन्दू-मुसलमानों के एकजुट समर्थन के बाद ब्रिटिश साम्राज्य के
लोग घबडा गए थे . उन्होंने हिन्दू मुस्लिम एकता को तोड़ने के लिए सारे इंतज़ाम
करना शुरू कर दिया था . हिन्दू महासभा के नेता वी डी सावरकर को माफी देकर उन्हें
किसी ऐसे संगठन की स्थापना का ज़िम्मा दे दिया था जो हिन्दुओं और मुसलमानों में
फ़र्क़ डाल सके . उन्होंने अपना काम बखूबी निभाया .उनकी नयी किताब ‘ हिंदुत्व’ इस मिशन में बहुत काम आई . १९२० के आन्दोलन में दरकिनार होने के बाद कांग्रेस की राजनीति में निष्क्रिय हो चुके
मुहम्मद अली जिन्ना को अंग्रेजों ने सक्रिय किया और उनसे मुसलमानों के लिए अलग देश
माँगने की राजनीति पर काम करने को कहा . देश का राजनीतिक माहौल इतना गर्म हो गया
कि १९३१ में नयी दिल्ली के उदघाटन के बाद ही अंग्रेजों की समझ में आ गया था कि
उनके चैन से बैठने के दिन लद चुके हैं .
लेकिन अँगरेज़ हार मानने वाले नहीं थे .
उन्होंने जिस डामिनियन स्टेटस की बात को अब तक लगातार नकारा था , उसको
लागू करने की बात करने लगे .१९३५ का गवर्नमेंट आफ
इण्डिया एक्ट इसी दिशा में एक कदम था लेकिन कांग्रेस
ने लाहौर में १९३० में ही तय कर लिया था कि अब पूर्ण
स्वराज चाहिए , उस से कम कुछ नहीं . १९३५ के बाद यह तय हो गया था कि अँगरेज़ को जाना ही पड़ेगा . लेकिन वह तरह तरह के तरीकों से उसे टालने की कोशिश
कर रहा था . अपने सबसे बड़े खैरख्वाह जिन्ना को भी
नई दिल्ली के क्वीन्स्वे ( अब जनपथ ) पर अंग्रेजों ने एक घर दिलवा दिया था . जिन्ना उनके मित्र थे इसलिए उन्हें एडवांस में मालूम पड़ गया था कि बंटवारा होगा और
फाइनल होगा . शायद इसीलिये जिन्ना की हर चाल में
चालाकी नजर आती थी . बंटवारे के लिए अंग्रेजों ने अपने वफादार मुहम्मद अली जिन्ना
से द्विराष्ट्र सिद्धांत का प्रतिपादन करवा दिया. वी डी सावरकार ने भी इस सिद्धांत को हिन्दू महासभा के अध्यक्ष के रूप में १९३७ में अहमदाबाद के
अधिवेशन में अपने भाषण में कहा लेकिन अँगरेज़ जानता था कि सावरकर के
पास कोई राजनीतिक समर्थन नहीं है इसलिए वे जिन्ना को
उकसाकर महात्मा गांधी और कांग्रेस को हिन्दू पार्टी के रूप में ही पेश करने की
कोशिश करते रहे.
आज़ादी की लड़ाई सन बयालीस के बाद बहुत तेज़ हो गयी . ब्रिटेन के युद्ध कालीन प्रधानमंत्री विन्स्टन
चर्चिल को साफ़ अंदाज़ लग गया कि अब भारत से ब्रिटिश साम्राज्य
का दाना पानी उठ चुका है . इसलिए उसने बंटवारे का नक्शा बनाना शुरू कर दिया था .
चर्चिल को उम्मीद थी कि वह युद्ध के बाद होने वाले चुनाव में फिर चुने जायेगें और
प्रधानमंत्री वही रहेंगे
इसलिए उन्होंने भारत के तत्कालीन वायसराय लार्ड वाबेल को पंजाब और बंगाल के विभाजन
का नक्शा भी दे दिया था. उनको शक था कि आज़ाद भारत सोवियत रूस की तरफ जा सकता है और उसको कराची का बेहतरीन
बंदरगाह मिल सकता है . उसके बाद पश्चिम एशिया के तेल पर उसका अधिकार ज्यादा हो
जाएगा .शायद इसीलिये चर्चिल ने जिन्ना को इस्तेमाल करके कराची को भारत से अलग करने
की साज़िश रची थी .उसने तत्कालीन वायसराय
लार्ड वाबेल को निर्देश दिया कि बंटवारे का एक नक्शा बाण लो . लार्ड वाबेल तो चले
गए लेकिन वह नक्शा कहीं नहीं गया . जब लार्ड माउंटबेटन भारत के वायसराय तैनात हुए
तो लार्ड हैस्टिंग्ज इसमे ने जुगाड़ करके अपने
आपको वायसराय की चीफ आफ स्टाफ नियुक्त करवा लिया .
उन्होंने युद्ध काल में चर्चिल के साथ काम किया था इसलिये लार्ड इसमे चर्चिल
के बहुत भरोसे के आदमी थे और चर्चिल ने अपनी
योजना को लागू करने के लिए इनको सही समझा .
प्रधानमंत्री एटली को भरोसे में लेकर लार्ड हैस्टिंगज
लायनेल इसमे , नए वायसराय के साथ ही नई दिल्ली आ गए . चर्चिल
की बंटवारे की योजना के वे ही भारत में सूत्रधार बने . वे युद्ध काल में चर्चिल के
चीफ मिलिटरी असिस्टेंट रह चुके थे .बाद में वे ही नैटो के गठन के बाद उसके पहले
सेक्रेटरी जनरल भी बने.
जब लार्ड माउंटबेटन मार्च
१९४७ में भारत आये तो उनका काम भारत में एक नई सरकार को अंग्रेजों की सत्ता
को सौंप देने का एजेंडा था . उनको क्या पता था कि चर्चिल ने पहले से
ही तय कर रखा था कि देश का बंटवारा करना है .हालांकि माउंटबेटन १९४७ में भारत आए
थे लेकिन उनको क्या करना है यह पहले से ही तय हो चुका था . यह अलग
बात है उनको पूरी जानकारी नहीं थी .वे अपने हिसाब से ट्रांसफर आफ पावर के कार्य
में लगे हुए थे . बाद में लार्ड माउंटबेटन को पता चला कि उनको चर्चिल ने
इस्तेमाल कर लिया है लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी .
भारत के बंटवारे में अंग्रेजों की साज़िश की जानकारी
तो शुरू से थी लेकिन ब्रिटिश लायब्रेरी में एक ऐसा दस्तावेज़ मिला है जो यह बताता
है कि चर्चिल ने १९४५ में ही पंजाब और बंगाल को बांटकर नक़्शे की शक्ल दे दी थी . जब माउंटबेटन को पता चला कि वे इस्तेमाल हो गए
हैं तो उन्होंने बहुत गुस्सा किया और अपने चीफ आफ
स्टाफ हैस्टिंग्ज इसमे से कहा कि आप लोगों के हाथ खून से रंगे हैं तो जवाब मिला कि लेकिन तलवार तो आपके हाथ में थी. उनको याद दिलाया गया कि भारत के बंटवारे की योजना का नाम ‘ माउंटबेटन प्लान ‘
भी उनके ही नाम पर है . जब पाकिस्तान के उद्घाटन के अवसर पर
माउंटबेटन कराची गए तो जिन्नाह ने उनको धन्यवाद किया .
वायसराय ने जवाब दिया कि आप धन्यवाद तो चर्चिल को दीजिये क्योंकि आप के साथ मिलकर
उन्होंने ही यह साज़िश रची थी . मैं तो इस्तेमाल हो गया . जिन्नाह ने जवाब दिया कि
हम दोनों ही इस्तेमाल हुए हैं, हम दोनों ही शतरंज की चाल में मोहरे बने हैं . जानकार बताते हैं कि चर्चिल ने जिन्नाह
को ऐसा पाकिस्तान देने का सब्ज़बाग़ दिखाया था जिसमें बंगाल और पंजाब तो होगा
ही , बीच का पूरा इलाका होगा जहां से होकर जी टी रोड गुजरती
है ,वह पाकिस्तान में ही रहेगा . शायद इसीलिये जब १५००
किलोमीटर के फासले के दो हिस्सों में फैला
पाकिस्तान बना तो जिनाह की पहली प्रतिक्रिया थी कि
उनको ‘ माथ ईटेन पाकिस्तान ‘ मिला
है. अपनी मौत के पहले मुहम्मद अली जिन्ना ने अपने प्रधानमंत्री
लियाक़त अली से स्वीकार किया कि पाकिस्तान बनाना उनकी ज़िंदगी की सबसे बड़ी बेवकूफी
थी.
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