Friday, January 29, 2021

भारत के गाँवों के लिए महात्मा गांधी का सपना

 

शेष नारायण सिंह

राजनीतिक विचारकों के एक बड़े वर्ग के लोग मानते हैं कि महात्मा गांधी  राजनीतिक आजादी के बाद कांग्रेस को समाप्त कर देना चाहते थे . उनका कहना था कि कांग्रेस एक संघर्ष के वाहक के रूप में तो बिलकुल सही थी लेकिन राजकाज चलाने के लिए एक नए संगठन का विकास किया जाना चाहिए . कांग्रेस को वे सामाजिक परिवर्तन के लिए इस्तेमाल करना चाहते थे . उन्होंने  गावों के विकास को केंद्र में रखकर देश के विकास का सपना देखा था . उन्होंने ने कहा था कि भारत के आज़ाद होने के बाद यहाँ ग्राम स्वराज   आयेगा . देश को विकसित करने के लिए गांव को विकास की इकाई बनाया जाएगा और गाँवों की सम्पन्नता ही देश की सम्पन्नता की यूनिट बनेगी . लेकिन आजादी के बाद ऐसा नहीं हो सका . अपने देश में ब्लाक डेवेलपमेंट के माडल को अपनाया गया  . आज़ादी के बाद देश में आर्थिक और सामाजिक परिवर्तन लाने के लिए शुरू किये गए कार्यक्रमों में यह बहुत ही महत्वपूर्ण कार्यक्रम था . उस वक़्त की सरकार ने कम्युनिटी डेवलपमेंट प्रोग्राम के ज़रिये महात्मा गांधी के सपनों के भारत को एक वास्तविकता में बदलने की कोशिश शुरू कर दी  . महात्मा जी के जन्मदिन के दिन  २ अक्टूबर १९५२ में भारत में कम्युनिटी डेवलपमेंट प्रोग्राम की शुरुआत की गयी थी . इस योजना में खेती,पशुपालन,लघु सिंचाई,सहकारिता,शिक्षा,ग्रामीण उद्योग आदि को शामिल किया गया था . अगर ठीक से लागू किया गया होता तो ग्रामीण जीवन में बड़े बदलाव आ  सकते थे लेकिन गाँव से लेकर देश की राजधानी तक मौजूद नौकरशाही और नेताओं ने भ्रष्टाचार के रास्ते सब कुछ बर्बाद कर दिया .इस तरह महात्मा गांधी के सपनों के भारत के निर्माण के लिए सरकारी तौर पर जो पहली कोशिश की गयी थी सफल नहीं  हुई . ग्रामीण भारत में शहरीकरण के तरह तरह के प्रयोग हुए और जिसके कारण ही आज भारत उजड़े हुए गाँवों का एक देश है .

 

महात्मा गांधी अगर आज़ादी के बाद पांच साल भी जीवित रहे होते तो उनकी किताब ग्राम स्वराज में लिखी हुयी अधिकतर बातें संभव हो गयी होतीं और शायद भारत आज एक अलग तरह का देश होता लेकिन 30 जनवरी 1948 के दिन एक हत्यारे ने उनकी हत्या कर दी . आज उनकी शहादत के 73 साल बाद यह देखना दिलचस्प होगा कि उन्होंने भारत के गाँवों के विकास के लिए कैसा सपना देखा था . बहुत सारी बातें उनके लेखों में दर्ज हैं. उनके लेखों से उनमें से कुछ बातों को संकलित करने का प्रयास मैंने इस  लेख में किया है

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4 अगस्त 1946 के हरिजन में उन्होंने लिखा है कि “  गाँव के अवधारणा  बहुत ही मज़बूत है . मेरी  कल्पना के गाँव  में एक हज़ार  लोग होंगे. यह इकाई आत्मनिर्भर होगी और पूरी तरह संगठित होगी .”  हरिजन ( 10 नवंबर 1946) के लेख में लिखते हैं कि   “ गाँव वालों को  अपने कौशल का इतना अधिक विकास कर लेना चाहिए जिससे उनके द्वारा बनाए हुए सामान के लिए बाज़ार बहुत आसानी से उपलब्ध हो जाय  .जब हमारे गाँवों का पूरा विकास हो जाएगा तो वहां उच्च कौशल की योग्यता और कला के जानकारों की कमी नहीं रहेगी . गाँव में कवि होंगे ,कलाकार होंगे ,ग्रामीण वास्तुविद ,भाषावैज्ञानिक और शोधकार्य करने वाले लोग होंगे  . संक्षेप में  कहा जाय तो गाँव में ऐसी किसी भी चीज़ की कमी नहीं होगी जिसकी ज़रूरत  पड़ सकती  है . आज ( १९४६ में ) तो गाँव गोबर के भीट जैसे हैं लेकिन कल वहां स्वर्ग जैसे बगीचे होंगे . वहां रहने वाले लोग ऐसे होंगे जिनका कोई भी शोषण नहीं कर सकेगा  और उनको कोई धोखा नहीं दे सकेगा .इस तरह के गाँवों के पुनर्निर्माण का काम तुरंत ( नवंबर 1946 )  शुरू हो जाना जाहिए . गाँवों के  पुनर्निर्माण का काम स्थाई तौर पर किया जाना चाहिए .कला ,स्वास्थ्य ,शिल्प और शिक्षा को एक ही स्कीम में मिला देना  चाहिए . नई तालीम इन चारों को समेकित करने का  अच्छा माध्यम है और यह इन सभी बातों को साथ लेकर चलती  है . इसीलिये मैं ग्रामीण विकास को संचाबद्ध तरीके से न करके सभी चारों पक्षों को साथ लेकर चलना चाहूँगा . अगर  गाँवों के  पुनर्निर्माण के काम में स्वच्छता को न शामिल किया गया तो हमारे गाँव वैसे ही गंदे रहेंगे जैसे कि आज हैं . ग्रामीण स्वच्छता को विकास की ज़रूरी अंग के रूप में लेना पडेगा क्योंकि अगर एस अन किया गया तो गाँव रहने लायक नहीं रह जायेंगे . सदियों से चली आ रही गंदगी की प्रवृत्ति से ग्रामीण जीवन को मुक्ति दिलाना बहुत बड़ा काम है . ग्रामीण विकास के काम में लगे हुए लोगों को ग्रामीण स्वच्छता के  विज्ञान की जानकारी होनी ज़रूरी है .अगर उनके पास यह जानकारी नहीं है तो उनको ग्राम विकास के काम में नहीं लगाया  जाना चाहिए .

नई तालीम और बुनियादी शिक्षा को लागू किये बिना करोड़ों बच्चों को शिक्षा दे पाना असंभव होगा इसलिए ग्रामीण विकास के काम में लगाये जाने वाले कर्मचारियों को इस विधा में दक्ष होना पडेगा  और उसको बुनियादी शिक्षा का शिक्षक बनना पड़ेगा. .बुनियादी शिक्षा से ही प्रौढ़ शिक्षा की शुरुआत हो जायेगी .बच्चे खुद ही अपने  मातापिता को पढ़ाने लगेंगे .औरत को पुरुष की अर्धांगिनी कहा जाता है. इसलिए जब तक औरत को भी वही अधिकार नहीं  मिलते जो पुरुषों को हैं , जब तक लड़की पैदा होने पर वैसी ही खुशी नहीं मनाई जाती जैसी लड़के के जन्म के समय मनाई जाती है तब तक हमको मालूम होना चाहिए भारत को आंशिक रूप से लकवा मार गया है.  औरत को  पीड़ा देना  अहिंसा का विरोध करना है इसलिए ग्रामीण विकास में लगा हर कार्यकर्ता हर औरत को अपनी माँ, बहन या बेटी की तरह ही सम्मान देगा .इस तरह का कर्मचारी ग्रामीण लोगों के सम्मान का हक़दार होगा. .
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अस्वस्थ  लोगों के लिए स्वराज हासिल कर पाना असंभव है. इसलिए हमें अपने लोगों के स्वास्थ्य  को नज़रअंदाज़ नहीं करना चाहिए . ग्रामीण  कर्मचारियों को स्वास्थ्य की बुनियादी जानकारी होनी चाहिए ..

एक ऐसी भाषा जो सब के लिए सामान्य हो , बहुत ज़रूरी है . ऐसी सामान्य भाषा के बिना कोई राष्ट्र अस्तित्व में नहीं आ सकता . हिंदी ,हिन्दुस्तानी और उर्दू के विवाद में पड़े बिना ग्रामीण कर्मचारी को राष्ट्रभाषा की जानकारी लेनी चाहिए . राष्ट्रभाषा ऐसी हो जिसको हिन्दू-मुस्लिम सभी समझ सकते हों .अंग्रेज़ी के प्रति हमारे प्रेम ने हमको क्षेत्रीय भाषाओं के प्रति बेवफा कर दिया है . ग्रामीण स्तर पर काम करने वाले कर्मचारी को  चाहिए कि वह गाँव वालों को उनकी अपनी भाषा पर गर्व करने और अन्य राज्यों को भाषाओं का सम्मान करने की भावना  के  लिए प्रेरित कर सके . अन्य क्षेत्रों की भाषाओं को सीखने के लिए उत्साहित भी किया जाना चाहिए .

यह सारा कार्यक्रम  बालू पर बनी दीवाल जैसा होगा अगर यह आर्थिक समानता की मज़बूत बुनियाद पर नहीं बनाया जाएगा . आर्थिक समानता का मतलब यह बिलकुल नहीं है कि  सबके पास एक जैसी ही वस्तुएं हों . हमारी दृष्टि में आर्थिक समानता का  मतलब यह है कि सबके पास रहने के लिए एक उचित मकान हो, संतुलित और पर्याप्त भोजन हो ,ज़रूरत भर को खादी के कपडे हों . अगर ऐसा हुआ तो आज की जो निर्दय गैरबराबरी है उसको अहिंसक तरीके से ख़त्म  किया जा सकेगा .  “

ग्रामीण भारत की जो कल्पना महात्मा गांधी ने की थी उसको यदि हासिल  कर लिया गया होता तो आज देश की हालत बहुत ही अच्छी होती 

वैष्णव जन तो तेने रे कहिए जे पीड़ पराई जाणे रे।’ ‘पर दु:खे उपकार करे तोये, मन अभिमान ना आणे रे "

 


 

शेष नारायण सिंह

 

 

गुजरात के संत कवि नरसी मेहता का लगभग वही समय है जब गंगा सारजू के बीच संत तुलसीदास विचरण कर रहे थे .नरसी मेहता का भजन," वैष्णव जन तो तेने रे कहिए " महात्मा गांधी को बहुत प्रिय था। यह भजन गांधी जी की दैनिक प्रार्थना का अंग बन गया था।

मेरा विश्वास है कि अगर कोई भी व्यक्ति इस भजन में बताये गए किसी भी पद्यांश को अपने जीवन में उतारने की कोशिश कर ले तो उसका जीवन सफल हो जाएगा और उसको मन की शान्ति मिलेगी . कोई भी एक पद उठा लीजिये और उसको जीवन में उतार दीजिये या कोशिश ही करिए तो जीवन बहुत ही अच्छा अनुभव देगा . मैंने एक छात्र के रूप में अपने दर्शन शास्त्र के प्राध्यापक , डॉ अरुण कुमार सिंह को इस भजन के पहले छंद का अभ्यास करते देखा है . बाद में मैंने भी कोशिश शुरू की और आज भरोसे के साथ कह सकता हूँ कि उस कोशिश के  कारण ही जीवन के प्रति एक निश्चित दिशा इस भजन से मिली है . नरसी मेहता जब कहते हैं कि ,

 

" वैष्णव जन तो तेने रे कहिए जे पीड़ पराई जाणे रे।

पर दु:खे उपकार करे तोये, मन अभिमान ना आणे रे "



तो वे मानवीयता का एक बहुत बड़ा सन्देश दे रहे होते हैं . वैष्णव जन को आम तौर पर भले आदमी के रूप में माना जा सकता है . जब वे कहते हैं कि वैष्णव जन तो वही है जो दूसरों की तकलीफ को जानता हो वह तो आधी ही बात होती है . पूरी और असली बात दूसरे वाक्य में है और वह यह है कि दूसरे के दुःख में उपकार करे लेकिन अपने मन में भी अभिमान न आने दे .यानी किसी दुखी व्यक्ति के प्रति उपकार करने के बाद अपने मन में भी यह भावना न आने दे कि मैंने किसी का उपकार किया . अगर यह भावना आ गयी तो नरसी मेहता के अनुसार आप वैष्णव जन नहीं हैं और गांधी जी के अनुसार आप भले आदमी नहीं हैं .

देखा यह गया है कि बहुत सारे लोग दुखी लोगों का उपकार करते हैं , उसको पैसे देते हैं , वस्त्र भोजन आदि देते हैं . किसी की परेशानी में मदद करते हैं ,उसके इलाज के लिए सहायता करते हैं यानी उसके दुःख में उपकार करते हैं लेकिन उसका प्रचार करने लगते हैं . या तो बकरी की तरह मैं मैं मैं करने लगते हैं ,जो भी उनका प्रलाप सुनने को तैयार हो उसको बताते रहते हैं या एक दर्जन केला देते हुए फोटो खिंचवाते हैं, या सबसे सस्ता कम्बल खरीद करकर ठण्ड के मौसम में वितरित करते हुए फोटो अखबार में छपवाते हैं और आत्मप्रचार में लग जाते हैं . यह भलमनसी नहीं है ,महात्मा गांधी या नरसी मेहता के पैमाने वे लोग न तो वैष्णव हैं और नहीं भले आदमी हैं क्योंकि उनके यहाँ तो किसी और को बताने की बात तो दूर अपने मन में भी अभिमान नहीं आने देना है .अगर अपने मन में भी अभिमान आ गया तो फिर आप वैष्णव जन नहीं रहे .

इस साधना का अभ्यास बहुत ही कठिन काम है . आपको ज्यादातर लोग ऐसे मिल जायेंगें जो लोगों की मदद करते हैं ,जिसकी मदद करते हैं उसकी ज़िंदगी में निश्चत बदलाव आता  है लेकिन हर आम-ओ-ख़ास को बताते रहते हैं कि उन्होंने खुद अपने दस्ते-पाक से फलाने की मदद की है . ऐसा करते ही वे महात्मा जी की कसौटी पर खरे उतरने में नाकाम रह जाते हैं .

नरसी मेहता की इसी बात को उर्दू के शायर मुबारक सिद्दीकी ने भी कहने की कोशिश की है .जब वे कहते हैं कि ,

“ किसी की रह से ख़ुदा की ख़ातिर उठा के काँटे, हटा के पत्थर

फिर उस के आगे, निगाह अपनी झुका के रखना ,कमाल ये है .”

तो वे भी लगभग वही बात कह रहे होते  हैं जो  संत तुलसीदास के समकालीन संत नरसी मेहता ने कही थी .महात्मा गांधी के प्रिय भजन की हर  पंक्ति में जीवन को पुरसुकून बनाने के मन्त्र देखे जा सकते हैं .

 

 

 

Wednesday, January 27, 2021

अपनी हर बात मनवा लेने की जिद और लाल किले पर हिंसा ने किसान आन्दोलन को बैकफुट पर ला दिया

 


 

शेष नारायण सिंह

 

नई कृषि नीति लागू करने के लिए बनाए गए केंद्र सरकार के तीन कानूनों के खिलाफ देश के  किसानों का एक वर्ग दो महीने से अधिक समय से उन कानूनों की वापसी के लिए आन्दोलन कर रहा है . अब तक यह आन्दोलन गांधी जी के  सत्याग्रह के हिसाब से चल रहा था . किसान दिल्ली की  सीमाओं पर धरने पर बैठे हुए  थे लेकिन अब आन्दोलन के  ऊपर हिंसा के आरोप लग  रहे हैं . 26 जनवरी के दिन दिल्ली की सीमा में घुसकर ट्रैक्टर परेड निकालने का उनका फैसला उल्टा पड़ गया है . किसानों के एक वर्ग के नेता पन्नू ने जिद पकड़  रखी  थी वे ट्रैक्टर  परेड लेकर दिल्ली की रिंग रोड पर ज़रूर जायेंगे . उनकी राग अलग थी . बहुत सारे किसान संगठनों ने मिलकर एक  मोर्चा बना रखा था ,उसी मोर्चे के नेताओं ने मिलकर सरकार से दस से अधिक दौर की बातचीत की . उसका नाम संयुक्त किसान मोर्चा नाम दिया गया था . संयुक्त किसान मोर्चा ने  दिल्ली पुलिस के साथ बातचीत करके तय किया था कि दिल्ली की तीन सीमाओं से तीन परेड निकलेगी और तयशुदा मार्ग से होती हुयी अपने स्थान पर वापस आ जायेगी .संयुक्त किसान मोर्चा से अलाग एक संघर्ष मोर्चा बना था जिसके नेता कोई पन्नू जी हैं उनका संगठन रिंग रोड पर जाने के लिए आमादा था .वे रिंग रोड पर गए और आगे बढ़त हुए लाल किले तक पंहुच गए . उनके लोगों ने वहां तोड़फोड़ की और लाल किले पर सिख धर्म का झंडा और  किसान यूनियन का झंडा फहरा दिया . सुरक्षा के काम में लगे पुलिस वालों से मारपीट भी की और बाद में उनके एक नेता ने अपने कृत्य को सही भी ठहराया .लाल किले पर जो तोड़फोड़ हुई उसके पीछे पंजाबी फिल्मों के एक अभिनेता , दीप  सिद्धू और एक गैंग्स्टर लाखा सिधाना का नाम आ रहा है . सिधाना पर अपराध के कई मुक़दमे भी चल चुके हैं और सिद्धू के बारे में बताया जा रहा है कि वह बीजेपी सांसद सनी देयोल का ख़ास आदमी है .आन्दोलन से सहानुभूति रखने वाले बता रहे हैं कि किसान आन्दोलन को  तोड़ने में दीप सिद्धू की वही भूमिका है जो सी ए ए के धरने को तोड़ने में कपिल मिश्रा की थी . आरोप लग रहे हैं कि दीप सिद्धू ने बीजेपी के इशारे पर आन्दोलन को  कमज़ोर करने के लिए यह सब  कारस्तानी की है . उसके काम से किसानों के आन्दोलन का भारी नुक्सान हुआ है . किसान आन्दोलन के नेताओं का कहना है कि आन्दोलन को कमज़ोर करने के लिए ही सरकार ने दीप सिद्धू को आगे करके तोड़फोड़ करवाई है . कांग्रेस और सी पी एम ने तो साफ़ तौर पर आरोप लगा दिया है कि यह सारा काम सरकार का ही है . किसान आन्दोलन के लगभग सभी बड़े नेताओं के खिलाफ दिल्ली पुलिस ने एफ़ आई आर दर्ज कर  लिया है यानी सरकार ने बता दिया है कि   उनके साथ किसी तरह की सहानुभूति नहीं बरती जायेगी .

लाल किले पर हुए तोड़फोड़ के बाद किसान आन्दोलन को बड़ा झटका लगा है . दरअसल गांधी जी के सत्याग्रह वाले वाले फार्मूले के हिसाब से आंदोलन चाल्ने में शान्ति का बहुत बहुत बड़ा योगदान है . उसमें किसी तरह की हिंसा के लिए जगह नहीं है .अगर आन्दोलन  गलती से भी हिंसक हो गया तो सरकार उसको कुचलने में समय नहीं लगाती . इसीलिये जब महात्मा गांधी का 1920 वाला आन्दोलन हिंसक हो गया , कुछ लोगों ने गोरखपुर जिले के चौरी चौरा में  हिंसा कर दी, ब्रिटिश सत्ता के प्रतिनिधि पुलिस थाने में आग  लगा दी तो महात्मा गांधी ने आन्दोलन को वापस ले लिया . कांग्रेस पार्टी के सभी बड़े नेता आग्रह करते रहे लेकिन उन्होंने किसी की नहीं सुनी और  अगस्त 1920  को शुरू हुआ आन्दोलन  फरवरी 1922 मने वापस ले लिया गया . उनका तर्क था कि अहिंसा और सत्य के प्रति आस्था ही उनका सबसे बड़ा हथियार है. उसके न होने पर तो सत्ता का मुकाबला कैसे होगा. इसलिए दुनिया भर में जहां भी महात्मा गांधी की सत्याग्रह की  राजनीति पर आधारित आन्दोलन हुए हैं उनमें  हिंसा का कोई स्थान नहीं रहा है . अमरीका में वर्षों से अश्वेतों के अधिकार की लड़ाई चल रही थी लेकिन उसमें हिंसा और मारकाट स्थाई भाव था . कोई सफलता नहीं मिल रही थी लेकिन महात्मा गांधी की   अहिंसा और सत्याग्रह के आधार पर जब बसों में काले और सफ़ेद लोगों का भेद मिटाने के लिए , रेस्तराओं में काले और गोरों के अलग लंच काउंटर  खतम करने के ,अश्वेतों के वोट देने के अधिकार के लिए  या लांग मार्च के आन्दोलन चलाये गए तो सभी सफल हुए.  दक्षिण अफ्रीका में ही   सत्याग्रह की अवधारणा का जन्म हुआ था लेकिन वहां अश्वेतों से आज़ादी की लड़ाई हिंसक तरीके से लड़ी जा रही थी और लगातार असफलता मिल रही थी लेकिन जैसे ही गांधी जी के हथियार का प्रयोग शुरू हुआ गौरांग महाप्रभुओं के सामने नेल्सन मंडेला की बात मानने के  सिवा कोई और रास्ता नहीं बचा .यानी अगर सत्याग्रह वाला रास्ता चुना  है तो हिंसा के लिए उसमें कोई स्थान नहीं होता .किसान आन्दोलन के नेता लोग यह कह रहे हैं कि दस प्रतिशत लोग ही  हिंसा के रास्ते पर गए थे बाकी लोग अभी भी शान्ति के साथ साथ आन्दोलन में लगे रहेंगे लेकिन यह बात चलती नहीं है . आन्दोलन से जुड़े लोगों की हिंसा कोई  वैदिकी हिंसा नहीं है ,वह अपराध है . दिल्ली के किसान आन्दोलन में दरार  पड़ना शुरू हो गयी है .भारतीय किसान यूनियन ( भानु गुट ) ने अपना डेरा डंडा उखाड़ दिया है . तराई के किसानों के नेता वी एम सिंह ने भी आन्दोलन को खतम कर दिया है . जयपुर जाने वाला राजमार्ग हरियाणा सरकार ने खाली करवा लिया है यानी आन्दोलन अब बहुत कमज़ोर पड़ गया है .लगता है कि केंद्र सरकार ने भी अब   मन बना लिया है कि बहुत हुआ .अब आन्दोलन को खतम ही किया जाना चाहिए . किसान नेता भी अब बैकफुट पर हैं .

इस बात में दो राय नहीं है  खेती के आधुनिकीकरण के लिए नीति के स्तर पर सरकारी  हस्तक्षेप की ज़रूरत थी . आज़ादी के बाद पहली बार इसकी आवश्यकता महसूस की गयी थी . जवाहरलाल नेहरू ने 1957 में नागपुर कांग्रेस में  सहकारिता आधारित सामुदायिक खेती की बात  की थी. लेकिन चौधरी चरण सिंह की अगुवाई में बड़े किसानों के न्यस्त स्वार्थ वालों ने उसका ज़बरदस्त विरोध किया और  बात वहीं खतम हो गयी थी . उसके बाद नेहरू ने कृषि मंत्रालय के ज़रिये 1959 में एक बहस की शुरुआत करवाई और   हरित क्रान्ति की अवधारणा की शुरुआत  हुयी .  भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के तत्वावधान में खेती में सुधार लाने की दिशा में  काम शुरू हुआ. चकबंदी की गयी और किसानों को अपनी सारी ज़मीन एक जगह पर इकठ्ठा करने का मौक़ा दिया गया . उसके बाद शास्त्री जी के कार्यकाल में उनके कृषिमंत्री सी सुब्रमण्यम की अगुवाई में किसानों को  प्रति बीघा उपज को दुगुना करने  का लक्ष्य रखा गया . यह काम 1965 में शुरू हुआ .उसके पहले लगातार तीन साल के सूखे के  कारण देश में खाद्यान्न की भारी किल्लत हो   गयी थी. शास्त्री जी ने लोगों से आग्रह किया था कि लोग सप्ताह में एक दिन भूखे रहें ,बाकायदा व्रत रखें. उस माहौल में सी  सुब्रमण्यम की किताब ए न्यू स्ट्रेटेजी फॉर एग्रीकल्चर प्रकाशित हुई . सी सुब्रमण्यम ने  डॉ स्वामीनाथन को आगे किया , एल के झा लाल बहादुर शास्त्री के प्रमुख सचिव थे , वे भी शामिल हुए और सबने कोशिश करके मेक्सिको की कृषि क्रान्ति के जनयिता , डॉ नार्मन बोरलाग को आमंत्रित किया . उन्होंने जल्दी पैदा होने  वाली प्रजातियों के बीज का इंतजाम किया , रासायनिक खाद और सही समय पर सिंचाई के ज़रिये उत्पादन बढ़ने की रणनीति बनाई . कोई किसान तैयार ही नहीं हो रहा था . पंजाब कृषि विश्ववद्यालय लुधियाना के सहयोग से बड़ी मुश्किल से पंजाब के कुछ किसानों को तैयार किया गया और जब फसल पैदा हुई तो पूरे देश में किसानों में उत्सुकता हुयी और देश अनाज के बारे में आत्मनिर्भर हो  गया .

जब डॉ मनमोहन सिंह ने वित्त मंत्री के रूप में देश की अर्थव्यवस्था को पूंजीवादी रास्ते पर डाला तब से ही बात चल रही थी कि खेती के औद्योगीकरण  के लिए भी केंद्र सरकार को नीतिगत हस्तक्षेप  करना चाहिए . कई पीढ़ियों के बाद भाइयों में  बंटवारे के चलते  किसानों की ज़मीन के रक़बा बहुत ही छोटा हो चुका है , खेती से परिवार का गुज़र नहीं हो रहा है . ज़रूरत इस बात की है कि किसानी के काम में लगे लोगों को और अधिक अवसर दिए जाएँ . इसलिए एक नई कृषि नीति की ज़रूरत थी . वर्तमान सरकार वह नीति लेकर आई . उस नीति में कुछ ऐसी खामियां हैं जिनके परिणाम अच्छे नहीं होंगे .इसलिए उमें सुधार  किये जाने की ज़रूरत है . किसानों ने उन खामियों का बार बार उल्लेख किया लेकिन उनको ठीक करवाने के बजाय  तीनों कानूनों को खारिज करने की जिद पर अड़ गए . यह गलत था . सरकार की तरफ से जब एक एक क्लाज़ पर  बात करने का प्रस्ताव आया तो  किसानों को उसे लपक लेना चाहिए था लेकिन वे तो जिद पर थे . कोई भी सरकार  अपनी सोची समझी नीति को वापस नहीं लेती , उसमें संशोधन की बात की जा सकती थी .लेकिन किसान संगठनों को मुगालता था . अब आन्दोलन हिंसक हो गया है तो उनको सम्मानजनक तरीके आन्दोलन वापस लेने के अवसर भी बहुत कम रह गए हैं . हिंसा के बाद सरकार के हाथ में कानून व्यवस्था का  हथियार आ गया  है. किसान संगठनों ने कहा है कि आन्दोलन जारी रहेगा . अब उनको चाहिए कि बातचीत में बीच का रास्ता निकालने की कोशिश करें नहीं तो सरकार नए कृषि कानूनों को ज्यों का त्यों लागू करेगी और किसान नेताओं  को किसानों की नज़र में नीचा दिखना पडेगा . आन्दोलन हिंसक वारदात के बाद कमज़ोर  पड़ गया  है लेकिन सरकार को भी चाहिए कि जो सही सुझाव देश भर के किसानों और खेती के जानकारों से आये हैं उनको सही तरीके से कानूनों में शामिल करके बात को आगे  बढ़ाएं .

 

 

Wednesday, January 13, 2021

आज ( 14 जनवरी ) आर एन द्विवेदी की पुण्यतिथि है

 

लोकतंत्र को पत्रकारिता की ज़रूरत है

शेष नारायण सिंह

अमरीकी इतिहास में डोनाल्ड ट्रंप पहले ऐसे राष्ट्रपति होने का अपमान हासिल करने में कामयाब हो  गए हैं जिन पर दो बार महाभियोग चलाया गया . बुधवार को जब प्रतिनिधि सभा ने उनपर महाभियोग चलाने के पक्ष में मतदान किया तो उनकी रिपब्लिकन पार्टी के भी दस सदस्यों ने भी उनके खिलाफ वोट दिया . उसके तुरंत बाद उन्होंने एक वीडियो जारी करके अपना बचाव करने की कोशिश की लेकिन अमरीकी मीडिया ने उनके बयान में दिए  गए एक एक झूठ का नीर क्षीर विवेचन कर दिया . छः जनवरी को ही उन्होंने अपने समर्थकों को उकसाकर अमरीकी संसद भवन, कैपिटल , पर हमला करने के लिए भेज दिया था.  महाभियोग के बाद जारी बयान में उन्होंने अपने आपको पीड़ित साबित करने की कोशिश की . पिछले एक हफ्ते  में लोकतंत्र के खिलाफ जितना काम अमरीका के निवर्तमान राष्ट्रपति ट्रंप ने किया है  उसकी एक एक बात की जानकारी पूरी दुनिया को मिल चुकी है . ऐसा संभव इसलिए हुआ कि अमरीकी संविधान में पहले संशोधन के बाद से ही यह व्यवस्था है कि अमरीका में  अभिव्यक्ति की पूरी आज़ादी होगी और अमरीकी मीडिया इस प्रावधान का पूरा लाभ उठाता है और अमरीकी  लोकतंत्र के निगहबान के रूप में मौजूद रहता है . अमरीकी मीडिया में सत्य के प्रति प्रतिबद्धता हर मुकाम पर देखी जा सकती है .नतीजा यह  है कि ट्रंप के बावजूद अमरीकी  राष्ट्र जितना सुरक्षित था ,आज भी उतना ही सुरक्षित है .  छः जनवरी के पहले और बाद में अमरीकी पत्रकारिता ने जो बुलंदियां स्थापित की हैं उनपर दुनिया के हर निष्पक्ष पत्रकार को  गर्व होना  चाहिए .

इस बात में दो राय  नहीं हो सकती कि लोकतंत्र के लिए पत्रकारिता एक जीवनदायिनी शक्ति है . जिन देशों में भी  लोकतंत्रीय व्यवस्था कायम है वहां की पत्रकारिता काफी हद तक उस व्यवस्था को जारी रखने के लिए ज़िम्मेदार है . अपने यहाँ भी  प्रेस की ज़िम्मेदारी भरी आजादी की अवधारणा संविधान में हुए पहले संसोधन  से ही आती है .आज़ादी के बाद  हमारे  संस्थापकों ने प्रेस की आज़ादी का प्रावधान  संविधान में ही कर दिया लेकिन जब उसका ट्रंप की तरह दंगे भड़काने के लिए इस्तेमाल होने लगा तो संविधान में पहले संशोधन के ज़रिये उसको  और ज़िम्मेदार बना दिया गया . . संविधान के अनुच्छेद 19(1)(a) में अभिव्यक्ति की स्वत्रंत्रता की जो व्यवस्था दी गयी है,उसपर कुछ पाबंदी लगा दी गयी .और  प्रेस की  आज़ादी को निर्बाध ( अब्सोल्युट ) होने से रोक दिया गया . संविधान के अनुच्छेद 19(2) में उसकी सीमाएं तय कर दी  गयीं .  संविधान में लिख दिया गया  कि  अभिव्यक्ति की आज़ादी के "अधिकार के प्रयोग पर भारत की प्रभुता और अखंडताराज्य की सुरक्षाविदेशी राज्यों के साथ मैत्रीपूर्ण संबंधोंलोक व्यवस्थाशिष्टाचार या सदाचार के हितों में अथवा न्यायालय-अवमानमानहानि या अपराध-उद्दीपन के संबंध में युक्तियुक्त निर्बंधन जहां तक कोई विद्यमान विधि अधिरोपित करती है वहां तक उसके प्रवर्तन पर प्रभाव नहीं डालेगी या वैसे निर्बंधन अधिरोपित करने वाली कोई विधि बनाने से राज्य को निवारित नहीं करेगी"  यह भाषा सरकारी है लेकिन बात समझ में आ जाती है .

संविधान के मौलिक अधिकारों की रक्षा करना सरकार की ज़िम्मेदारी  है . अगर सरकार के खिलाफ मीडिया कोई ज़रूरी बात उजागर करता है तो सरकार का कर्तव्य है कि मीडिया की सुरक्षा करें . हमने देखा है कि कई बार असुविधाजनक लेख लिखने के कारण सत्ताधारी पार्टियों की शह पर पत्रकारों की हत्याएं भी होती हैं .असुविधाजनक लेख लिखने के लिए अगर लोगों की हत्या की जायेगी तो बहुत ही मुश्किल होगी . लोकतंत्र के अस्तित्व पर ही  सवालिया निशान  लग जाएगा.  इस लोकतंत्र को बहुत ही मुश्किल से हासिल किया  गया है और उतनी ही मुश्किल से इसको संवारा गया है . स्वतंत्र मीडिया सरारों की रक्षा करता है ,असत्य आचरण करने वाला चापलूस मीडिया सरकारी पक्ष का ज़्यादा नुक्सान करता है .इसलिए सरकारों को मीडिया को नियंत्रित करने की कोशिश नहीं करनी चाहिए .तत्कालीन प्रधानमंत्री  इंदिरा  गांधी ने यह गलती 1975 में की थी. इमरजेंसी में सेंसरशिप लगा दिया था . सरकार के खिलाफ कोई भी खबर नहीं छप सकती थी. टीवी और रेडियो पूरी तरह से सरकारी नियंत्रण में थे , इंदिरा जी  के पास  तक  सूचना पंहुचा सकने वालों में सभी चापलूस होते थेइसलिए उनको  सही ख़बरों का पता  ही नहीं लगता था . उनको  बता दिया गया कि देश में उनके पक्ष में बहुत भारी माहौल है और वे दुबारा भी बहुत ही आराम से चुनाव जीत जायेंगीं . उन्होंने उसी सूचना के आधार पर  चुनाव करवा दिया और १९७७ में चुनाव हार गयीं . लेकिन यह हार एक दिन में नहीं हुई . उसकी तह में जाने पर समझ में आयेगा कि  इंदिरा गांधी के भक्त और तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष देवकांत बरुआ ने प्रेस सेंसरशिप के दौरान नारा दिया था कि  ' इंदिरा इज इण्डिया ,इण्डिया इज  इंदिरा ,' इसी .तरह से जर्मनी के तानाशाह हिटलर के तानाशाह बनने के पहले उसके एक चापलूस रूडोल्फ हेस ने नारा दिया था कि  ,' जर्मनी इस हिटलर , हिटलर इज जर्मनी '.   रूडोल्फ हेस नाजी पार्टी में बड़े पद पर था .मौजूदा शासकों को इस तरह की प्रवृत्तियों से बच कर रहना चाहिए  क्योंकि मीडिया का चरित्र बहुत ही अजीब होता  है . इमरजेंसी के दौरान पत्रकारों का एक वर्ग किसी को भी आर एस एस का  सदस्य  बताकर गिरफ्तार करवाने की फ़िराक में रहता था . जैसे आजकल किसी को अर्बन नक्सल पह देने  का फैशन हो गया है .उस दौर में भी बहुत सारे पत्रकारों ने आर्थिक लाभ के लिए सत्ता की चापलूसी में चारण शैली में पत्रकारिता की . गौर करने की बात यह है कि इंदिरा गांधी  जवाहरलाल नेहरू की बेटी थीं जिन्होंने अपने खिलाफ लिखने  वालों को खूब उत्साहित किया था . एक बार उन्होंने कहा था कि मुझे पीत पत्रकारिता से नफरत  है लेकिन मैं किसी पत्रकार के पीत पत्रकारिता करने के अधिकार की रक्षा के लिए हर संभव प्रयास करूंगा . नेहरू ने पत्रकारिता और लोकशाही को जिन बुलंदियों तक पंहुचाया था ,सत्तर के दशक में उन मूल्यों में बहुत अधिक क्षरण हो गया था . पत्रकारिता में क्षरण का ख़तरा आज भी बना हुआ है . चारण पत्रकारिता  सत्ताधारी पार्टियों  की सबसे  बड़ी दुश्मन है क्योंकि वह सत्य पर पर्दा डालती है और सरकारें गलत फैसला लेती हैं . ऐसे माहौल में सरकार की ज़िम्मेदारी बनती है कि वह मीडिया को निष्पक्ष और निडर बनाए रखने में योगदान करे  . चापलूस पत्रकारों से पिंड छुडाये .  एक आफ द रिकार्ड बातचीत में बीजेपी के मीडिया से जुड़े एक नेता ने बताया कि जो पत्रकार टीवी पर हमारे पक्ष में नारे लगाते रहते है , वे हमारी पार्टी का बहुत नुक्सान करते हैं . भारतीय जनता पार्टी के बड़े नेताओं में इस तरह की सोच एक  अच्छा संकेत है . सरकार को चाहिए कि पत्रकारों के सवाल पूछने के  अधिकार और आज़ादी को सुनिश्चित करे . साथ ही संविधान के अनुच्छेद १९(२) की सीमा में  रहते हुए कुछ भी लिखने की  आज़ादी और अधिकार को सरकारी तौर पर गारंटी की श्रेणी में ला दे . इससे निष्पक्ष पत्रकारिता का बहुत लाभ होगा.  ऐसी कोई व्यवस्था कर दी जाए जो सरकार की चापलूसी करने को  पत्रकारीय  कर्तव्य पर कलंक माने और इस तरह का काम करें वालों को हतोत्साहित करे.

आज ( 14 जनवरी ) ऐसे ही एक पत्रकार की पुण्यतिथि है .  उस वक़्त की सबसे आदरणीय समाचार एजेंसी , यू एन आई के लखनऊ ब्यूरो चीफ , आर एन द्विवेदी का  1999 में इंतकाल हो गया था . करीब चौथाई शताब्दी तक उन्होंने लखनऊ की राजनीतिक घटनाओं को बहुत करीब से देखा था . उन  दिनों चौबीस घंटे टीवी पर ख़बरें नहीं आती  थी. इसलिए हर सत्ताधीश एजेंसी के ब्यूरो चीफ के करीब होने की कोशिश करता था .  उस दौर में बहुत सारे पत्रकारों ने सत्ताधारी पार्टी की जयजयकार करके बहुत सारी संपत्ति भी बनाई लेकिन लखनऊ में विराजने वाले इस फ़कीर ने केवल सम्मान  अर्जित किया . पक्ष विपक्ष की सभी ख़बरों को जस की तस ,कबीर साहेब की शैली में प्रस्तुत करते रहे और जब इस दुनिया से विदा हुए तो  अपने पेशे के प्रति ईमानदारी का परचम  लहराकर गए . उन्हीं की बुलंदी के एक पत्रकार ललित सुरजन को पिछले महीने हमने खोया है . यह लोग सत्तर के दशक की पत्रकारिता के  गवाह  हैं. मैं मानता हूँ कि भारत के राजनीतिक इतिहास में जितना महत्व 1920 से  1947 का  है , उतना ही महत्व 1970 से   2000 तक कभी है . जितना परिवर्तन उस दौर में हुआ उसने आने वाले दशकों या शताब्दियों की दिशा तय की. आज़ादी की लड़ाई के शुरुआती दिनों से ही उत्तर प्रदेश की राजनीतिक .घटनाएं इतिहास को प्रभावित करती रही हैं . इन तीस  वर्षों में भी उत्तर प्रदेश में जो भी हुआ उसका असर  पूरे देश की राजनीति पर पड़ा. कांग्रेस का  विघटन, इमरजेंसी का लगना , वंशवादी राजनीति की स्थापना , जनता पार्टी का गठन और उसका विघटन  , भारतीय जनता पार्टी की स्थापना , बाबरी मस्जिद के खिलाफ आन्दोलन , उसका विध्वंस , दलित राजनीति का उत्थान,  समाजवादी सोच के साथ राजनीति  में भर्ती हुए लोगों के लालच की घटनाएँ , केंद्र में गठबंधन सरकार की स्थापना , मंडल कमीशन लागू होना , केंद्र में बीजेपी की अगुवाई  में सरकार की स्थापना अदि ऐसे विषय हैं जिन्होंने देश के भावी इतिहास की दिशा तय की है . इन राजनीतिक गतिविधियों में इंदिरा गांधी , संजय  गांधी, राजीव गांधी ,चौ चरण सिंह, चंद्रशेखर, नानाजी देशमुख, अटल बिहारी वाजपेयी ,अशोक सिंघल,विश्वनाथ प्रताप सिंह , मुलायम सिंह यादव , कल्याण सिंह , कांशीराम ,मायावती और राजनाथ सिंह की भूमिका से कोई भी इनकार नहीं कर सकता . इन सबको बहुत करीब से  देखते और रिपोर्ट करते हुए आर एन द्विवेदी ने देश और दुनिया को बाखबर रखा  और पत्रकारिता का सर्वोच्च मानदंडों को  जीवित रखा .इसलिए उनको जानने वाले उनकी तरह की पत्रकारिता को बहुत ही अधिक महत्व देते हैं .

हम जानते हैं कि देश के लोकतंत्र की रक्षा  में राजनीतिक पार्टियों , विधायिका , न्यायपालिका, कार्यपालिका का मुकाम बहुत ऊंचा है लेकिन पत्रकारिता का स्थान भी  लोकतंत्र के पक्षकारों को बाखबर रखने में बहुत ज्यादा  है . इसलिए लोकतंत्र को हमेशा ही निष्पक्ष पत्रकारिता की ज़रूरत बनी  रहेगी .

 

Wednesday, January 6, 2021

अमरीका की संसद पर गुंडों से हमला करवाकर डोनाल्ड ट्रंप ने लोकतंत्र की अवधारणा का भारी नुक्सान किया है


शेष नारायण सिंह

 

अमरीका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने लगातार लोकतन्त्र को शर्मशार  किया है . दुनिया के सबसे मज़बूत लोकतंत्र को उनके समर्थकों ने जो नुकसान पंहुचाया है ,आने वाले बहुत समय तक इतिहास इसको याद रखेगा . अमरीका में छः जनवरी को जो हुआ है उसको अमरीकी लोग बहुत दिनों तक तकलीफ का पर्याय बताते रहेंगे. डोनाल्ड ट्रंप राष्ट्रपति पद का चुनाव हार चुके हैं . लेकिन अपनी हार को वे स्वीकार नहीं कर रहे हैं . अमरीका में अलग अलग राज्यों में अलग तरह के चुनाव क़ानून हैं . उन्हीं कानूनों के आधार पर अब तक अमरीकी लोकतंत्र चल रहा है .  ट्रंप ने उन राज्यों के चुनाव कानूनों को चुनौती दी जहां वे चुनाव हार गए हैं . पहले तो अधिकारियों को ही हड़का कर अपने  पक्ष में फैसला देने के लिए दबाव बनाया . उनमें से बहुत से अधिकारी उनके अपने लोग थे लेकिन  सभी ने नियम क़ानून का हवाला देकर उनकी बात मानने से इनकार कर दिया . उसके बाद कोर्ट में मुक़दमे किये गए. सभी अदालतों ने ट्रंप के दावों को गलत बताया . उसके बाद उन्होंने अपने साथ चुनाव लड़ने वाले उपराष्ट्रपति ,माइकेल पेंस को धमकाया कि वे उनके  पक्ष में फैसला सुना दें लेकिन उन्होंने भी  बहुत ही साफ शब्दों में मना कर दिया . अमरीका में भी हमारी तरह से ही देश के उपराष्ट्रपति ऊपरी सदन के पीठासीन अधिकारी होते हैं .  उसी नियम के तहत माइकेल पेंस अमरीकी सेनेट के पीठासीन अधिकारी हैं लेकिन उन्होंने कुछ भी  गैरकानूनी करने से मना कर दिया . कहीं से भी नियमों के अधीन रहकर हेराफेरी करने में असफल रहने के बाद ट्रंप ने अमरीकी कांग्रेस के दोनों सदनों की संयुक्त बैठक में मतों के की गिनती की प्रक्रिया को ही नुक्सान पंहुचने की कोशिश शुरू कर दी . उनके इस काम से अमरीका सहित पूरी  दुनिया में उनकी थू थू हो  रही है . अमरीकी सेनेट में उनकी  रिपब्लिकन पार्टी के पचास सदस्य हैं जिनमें से 43 ने उनकी इस  कारस्तानी का विरोध किया है . उनकी पत्नी की चीफ आफ स्टाफ ने ट्रंप के कारनामे से नाराज़ होकर इस्तीफा दे दिया  है . व्हाइट हाउस के प्रेस सेक्रेटरी ने भी इस्तीफा दे दिया  है. उनका कहना है कि डोनाल्ड ट्रंप के गैर्ज़िमीदार फैसलों को सही ठहराना उनके लिए असंभव है. हो सकता  है कि अभी और भी इस्तीफे हो जायं .

राष्ट्रपति पद के लिए हुए चुनावों के लिए पड़े मतदान की पहले तो गिनती राज्यों की राजधानियों में होती  है . राज्य की तरह से प्रमाणित वोटों की  गिनती अमरीकी कांग्रेस के संयुक्त सत्र में छः जनवरी को की जाती  है .  उसके बाद ही अमरीकी राष्ट्रपति पद के चुनाव की पुष्टि होती है और 20 जनवरी को नए राष्ट्रपति की पदस्थापना होती है .अमरीका की संसद को  कांग्रेस कहते हैं . जब वोटों को सही ठहराने की प्रक्रिया चल रही थी और कांग्रेस का संयुक्त अधिवेशन चल रहा था ,उसी दौरान  सदन के अंदर सैकड़ों को गुंडे घुस आये . वे सभी डोनाल्ड ट्रंप के समर्थक थे .संयुक्त अधिवेशन में प्रत्येक राज्य की सरकार ने सत्यापित वोटों को सदन की मंजूरी के लिए रखा जाता है .अगर कोई सेनेटर और कुछ प्रतिनिधि एतराज करते हैं तो उसपर बाकायदा  बहस होती  है और वोट पड़ता   है. उस वोट के बाद ही राज्य से आये वोटों को मंजूरी दी जाती है .यही प्रक्रिया चल  रही थी जब सैकड़ों की संख्या में लोग सदन में घुस आये . लाठी डंडों से लैस यह लोग तोड़फोड़ करने लगे. सेनेटर और प्रतिनिधियों को मारने लगे . संसद की सुरक्षा के लिए तैनात कैपिटल हिल की पुलिस को भी मारा  पीटा . राष्ट्रपति ने केंद्रीय सुरक्षा  बल  को तैनात नहीं किया . ऐसा लगता है कि वे अपने बदमाशों को खुली छूट देना चाहते थे . उसके बाद उपराष्ट्रपति माइकेल पेंस ने पड़ोसी राज्य वर्जीनिया से नैशनल गार्ड को बुलाया . सेनेटरों और प्रतिनिधियों को  बचाकर सुरक्षित स्थानों पर ले जाया  गया तब जाकर उनकी  जान बची . इस हमले में सदन के अन्दर चार लोगों की मौत हो गयी . ऐसा अमरीकी सिस्टम में अकल्पनीय है .

अमरीकी सदन की घटनाओं के बाद डोनाल्ड ट्रंप अपनी पार्टी में भी अकेले पड़  गए  हैं . उनकी पत्नी मेलानिया ट्रंप के जो विभिन्न बयान आये हैं उससे लगता है कि वे भी अपने  पति की हरकतों से नाराज़ हैं . पार्टी में उनकी  निंदा करने वालों की संख्या बढ़ रही है . बात को समझने  के लिए सेनेट का उदाहरण ही पर्याप्त है . जब संयुक्त बैठक में अरिजोना के नतीजों को चुनौती दी गयी तो 15  सेनेटरों ने  ट्रंप की बात का समर्थन किया था लेकिन जब संसद पर हमला हो गया और यह साफ हो गया कि सब ट्रंप ने ही करवाया है तो समर्थकों की संख्या घटकर छः रह गयी .पेंसिलवानिया के वोट को चुनौती देने पर पूरे सदन में केवल सात लोग ट्रंप के साथ बचे थे . उनकी पार्टी के ही 43 लोग उनका साथ छोड़ चुके थे .

अमरीकी राजधानी में इस वक़्त जो माहौल है उसको देखकर लगता है कि बहुत  सारे लोग ट्रंप का साथ छोड़ने वाले हैं . वहां इस बात की चर्चा चल चुकी है कि अमरीकी संविधान के 25 वें संशोधन का इस्तेमाल करके  दोनों सदनों में यह प्रस्ताव पास कर दिया जाए कि डोनाल्ड ट्रंप राष्ट्रपति के  रूप में अब काम करने लायक नहीं हैं.और उनके कार्यकाल के जो दो हफ्ते बचे हैं उससे भी उनको हटा दिया जाय. जिस तरह से अमरीकी जनमत उनके खिलाफ हो गया है ,उसके मद्देनज़र इस बात की सम्भावना से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि उनपर महाभियोग भी चला दिया जायेगा  और उनको हमेशा के लिए चुनाव लड़ने से रोक दिया  जाय. महाभियोग को चलाने के लिए दोनों सदनों के दो तिहाई सदस्यों के बहुमत की ज़रूरत होती है . शुरू में तो ट्रंप पर किसी महाभियोग की संभावना  का कोई सवाल ही नहीं था लेकिन जिस तरह से पिछले एक महीने में उन्होंने अपनी ही पार्टी के लोगों के विश्वास के साथ धोखा किया है ,उसके बाद सेनेट में केवल सात लोग बचे हैं जो उनकी हर सनक का साथ देने के लिए तैयार नज़र आ रहे हैं .बाकी उनके अपने ही लोग उनके खिलाफ मैदान ले चुके  हैं .

राष्ट्रपति ट्रंप यह  तर्क दे रहे हैं कि उनको सात करोड़ अमरीकियों ने वोट दिया है . और जोसेफ  बाइडेन की जीत से उन सात करोड़ अमरीकियों के हितों का नुक्सान हुआ है . ट्रंपवादी लोग समझ नहीं पा रहे हैं  कि जिन जो बाइडेन ने ट्रंप को हराया है उनको तो सात करोड़ चालीस लाख से भी ज़्यादा  वोट मिले  हैं . ट्रंप नतीजों के दिन से ही प्रलाप कर रहे हैं कि चुनाव उन्होंने  जीता था  जिसको उनसे चुरा लिया गया है जबकि सच्चाई यह है कि ट्रंप चुनाव हार चुके हैं और वे उस हारे हुए चुनाव को गुंडई के बल पर फिर जीत लेना चाहते हैं . उनके समर्थकों में ऐसे बहुत लोग  हैं जो अमरीका में श्वेत लोगों के आधिपत्य के समर्थक हैं . जब अमरीका में मानवाधिकारों के आन्दोलन ने जोर पकड़ा और ब्राउन का फैसला आने के बाद काले बच्चों को भी स्कूलों में दाखिला देना अनिवार्य कर दिया गया  तो  संयुक्त राज्य अमरीका के दक्षिण के राज्यों में  श्वेत  अधिनायकवादियों के कई गिरोह बन  गए थे . उन हथियारबंद बदमाशों के गिरोह को क्लू क्लैक्स क्लान के नाम से जाना जाता है . बाद में तो महिलाओं और काले लोगों के मताधिकार के क़ानून भी बन  गए . साठ के दशक में  राष्ट्रपति केनेडी और उनके भाई बॉब केनेडी ने मानवाधिकारों के लिए बहुत काम किया . उसके बाद क्लू क्लैक्स क्लान वाले धीरे धीरे तिरोहित हो  रहे थे लेकिन जब रिचर्ड निक्सन राष्ट्रपति चुनाव में  रिपब्लिकन पार्टी की ओर से उम्मीदवार बने तो उन्होंने भी इन क्लू क्लैक्स क्लान वाले चांडालों को आगे किया और काले लोगों  औकात दिखाने के नाम पर चुनाव जीत लिया .  रिचर्ड निक्सन का जो हश्र हुआ वह दुनिया को मालूम है . महाभियोग की चपेट में आये और  अपमानित होकर उनको  गद्दी छोडनी पडी. उसी तरह के श्वेत अधिनायकवाद का सहारा लेकर डोनाल्ड ट्रंप इस बार का चुनाव जीतना चाहते थे . उन्होंने अपने पूरे चुनाव में ओबामा के कार्यकाल की निंदा को अपना प्रमुख एजेंडा बनाया और अश्वेत ,अफ्रीकी-भारतीय-अमरीकी कमला हैरिस के खिलाफ लगातार ज़हर उगलते रहे . चुनाव प्रचार के घटियापन का आलम यह था कि वे लगातार कहते रहे कि जो बाइडेन की उम्र ज़्यादा है और अगर उनको जीत मिली तो  चार साल जिंदा नहीं रहेंगे और कमला हैरिस राष्ट्रपति बन जायेंगी . इतने अमानवीय तरीके से चुनाव प्रचार में ट्रंप लगातार हर इलाके के श्वेत गुंडों को बढ़ावा देते रहे. जब  मतदान के बाद वोटों की  गिनती हो रही थी ,तब भी यह बदमाश लोग वहां भी तोड़फोड़ कर रहे थे. और अब बाकायदा संसद पर ही हमला कर दिया .

डोनाल्ड ट्रंप के लिए शर्म की बात यह  है कि  जो बदमाश आये थे वे वहीं व्हाइट हाउस के पास बने हुए डोनाल्ड  ट्रंप के होटल में ही ठिकाना बनाये हुए थे .इस बात में कोई दो राय नहीं है कि डोनाल्ड  ट्रंप ने अपने आपको अमरीका की बहुत बड़ी आबादी की  नज़र में घटिया इंसान साबित कर लिया है .उनकी इस कारस्तानी का नुक्सान लोकतंत्र को झेलना  पडेगा.  दुनिया के बहुत सारे देशों में कई तानाशाह चुनाव जीतकर सत्ता पर काबिज़ हैं . लेकिन कई बार वे चुनाव हारने के बाद सत्ता छोड़ देते हैं . डोनाल्ड ट्रंप के इस उदाहरण के बाद इस बात के  संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता कि उनमें से बहुत सारे तानाशाह अब ट्रंप के तरीकों से ही सत्ता से चिपके रहना चाहेंगे. यह लोकशाही की अवधारणा का बहुत बड़ा नुक्सान हुआ है .

 

 

 

 

Wednesday, December 30, 2020

कोरोना के बाद तर्जे-हुकूमत में बदलाव की सम्भावना और उसकी दिशा

 

 

 


शेष नारायण सिंह

 

2020 बीत गया . इतना बुरा साल मैंने अपने जीवन में कभी  नहीं देखा था .दुनिया भर में कोरोना वायरस का  आतंक था . भारत में इस महामारी से बचाव की तैयारी थोडा विलम्ब  से शुरू हुई. जब अमरीका में कोरोना बढ़ चुका था तब तक भारत सरकार के स्वास्थ्य मंत्री मानने को तैयार नहीं थे  कि अपने देश में कोई ख़तरा है .  11 मार्च 2020 को स्वास्थ्यमंत्री डॉ हर्षवर्धन ने  बयान दिया कि देश में कोई मेडिकल इमरजेंसी नहीं है . हालांकि उसी हफ्ते प्रधानमंत्री ने जनता कर्फ्यू की घोषणा की थी . बाद में 21 दिन का पूर्ण लॉक डाउन घोषित किया गया .आज जब पीछे मुड़कर देखते हैं तो लगता है कि काश सरकार समय रहते चेत गयी होती तो कोरोना से जो तबाही आई है उसको कम किया जा सकता था . बाद में तो सरकार ने चेतावनी और सावधानी की अपील करना शुरू कर दिया .  स्कूल कालेज बंद किये गए .ट्रेनें रद्द  की गईं . लेकिन सत्ताधारी पार्टी के कुछ लोग तरह तरह की  मूर्खताओं के ज़रिये दुनिया भर में देश के शासक वर्ग की खिल्ली  उड़वाते  रहे . सत्ताधारी  दल के समर्थक एक बाबा ने गौमूत्र की एक पार्टी आयोजित की . उसमें बहुत सारे लोग शामिल हुए और  कैमरों के सामने गौमूत्र पिया लेकिन उसपर कोई कार्रवाई नहीं हुई. अब तो साल बीत चुका है लेकिन कोरोना की चिंता बरकरार है , आर्थिक मोर्चे पर  भारी नुकसान हो  चुका है ,, स्वास्थ्य सेवाओं की कठिन  परीक्षा हो रही है . घर में बंद लोगों और बच्चों को तरह तरह की मानसिक प्रताडनाओं से गुजरना पड़ रहा है . ब्रिटेन से चलकर कोरोना का एक नया स्ट्रेन आ गया है . चौतरफा डर और दहशत का  आलम है .कोरोना के कारण किसी न  किसी प्रियजन की मृत्यु हो चुकी है . मेरे लिए व्यक्तिगत रूप से यह साल बहुत ही बुरा रहा है . मेरे शुभचिंतक ललित सुरजन की मृत्यु मेरे लिए एक निजी आघात है . पिछले सात आठ वर्षों में मैंने जो भी अच्छी किताबें पढी हैं उनका ज़िक्र ललित जी ने ही किया था . मुझसे करीब चार साल  बड़े थे लेकिन सही अर्थों में बड़े भाई की भूमिका थी उनकी.  मैं उनके अखबार में काम करता हूँ लेकिन एक कर्मचारी के रूप में उन्होंने मुझे कभी नहीं देखा . उनकी विचारधारा लिबरल और डेमोक्रेटिक थी . सबको अवसर देने के पक्षधर थे . सामाजिक  पारिवारिक संबंधों को निभाने के जो सबसे बड़े मुकाम हैं ,ललित जी वहां विराजते थे . कोरोना काल में जब उनके कैंसर का पता चला तो विमान सेवाएँ बंद थीं. रायपुर में  कैंसर के इलाज की  वह व्यवस्था नहीं थी जो दिल्ली या मुंबई में उपलब्ध है  . उनके बच्चे उनको चार्टर्ड विमान से दिल्ली लाये. बीमारी की हालत में भी वे लगातार अपना काम करते रहे, लिखते रहे और पोडकास्ट के ज़रिये अपनी कवितायें देश को सुनाते रहे . कैंसर से मुक्त होने की दिशा में चल पड़े थे . उम्मीद हो गयी थी कि फिर सब कुछ पहले जैसा ही हो जाएगा  लेकिन  एकाएक  ब्रेन स्ट्रोक हुआ और बीती दो दिसंबर को चले गए . ललित सुरजन की मृत्यु का घाव 2020 का वह  घाव है  जो अगर भर भी गया तो निशान गहरे छोड़ जाएगा . मेरे मित्रों में राजीव  कटारा, दिनेश तिवारी , मगलेश डबराल कुछ ऐसे लोग इस मनहूस साल में छोड़ गए जिनकी कमी हमेशा खलेगी .

 

ग्रेटर नोयडा की अपनी कॉलोनी  से मैंने हज़ारों  मजदूरों को पैदल अपने  गाँव जाते देखा है . उन लोगों के दर्द को बयान करने की मैंने कई बार कोशिश की  है लेकिन बयान नहीं कर पाया . उन मजदूरों के पलायन के कुछ बिम्ब तो ऐसे हैं  जिनके बारे में अगर रात में याद आ जाये तो नींद नहीं  आती.  जिन तकलीफों से लोग घर गए हैं उसमें सरकारी गैरजिम्मेदारी साफ़ नज़र आती  है. अगर सरकार ने थोडा दिमाग लगाकर योजना बनाई होती तो शायद उतना बुरा न होता ,जितना हुआ . जो लोग  अपने घर नहीं गए , यहीं  रह गए उनके खाने पीने की जो तकलीफें हैं उनकी भी याद शायद ही  भुलाई जा सके . सरकारी राशन का इंतजार करते लोग, एकाध दर्ज़न केला देकर उनके साथ फोटो खिंचवाते असहिष्णु नेता , गरीबों के लिए आये राशन से चोरी करते छुटभैया नेता इस साल के कुछ ऐसे दृश्य हैं जो किसी को भी  विचलित कर  देगें .

 

कुछ बातें सकारात्मक भी हुई हैं .कोरोना के संकट के दौर में डरे हुए लोगों ने कुछ ऐसे काम भी किये हैं जिनको अगर जीवन की पद्धति में ढाल लें तो उनका अपना और समाज का बहुत भला होगा .  खामखाह बाज़ारों में घूमना बंद हुआ  है, शादी ब्याह के नाम पर फालतू के खर्च पर भी नियंत्रण देखा गया है . धार्मिक आयोजनों में जो भीड़  जुटाई जाती थी उसपर भी लगाम लगी  है . और भी बहुत सी सामाजिक आर्थिक बुराइयों से लोगों किनारा किया है .अगर लोग इसी को अपनी जीवन शैली के रूप में अपना लें तो चीजें सुधरेंगी .इस कोरोना काल में  जो सबसे ज़रूरी बात हुई  है वह यह कि स्वस्थ रहने को प्राथमिकता देने की जो तमीज कोरोना ने सिखाई है उसको अगर लोग अपनी आदत में शामिल कर  लें उसको स्थाई करने की ज़रूरत है . कोरोना की दहशत का नतीजा यह था कि लोग संभलकर रहे , ऊलजलूल चीज़ें नहीं खाईं और बहुत  लोगों से मिलना जुलना नहीं रखा . शायद इसी वजह से  इस साल वे  तथाकतित सीज़नल  बीमारियाँ नहीं हुईं.  खाने पीने में भी लोगों ने किफ़ायत बरती , फालतू की खरीदारी नहीं हुई शापिंग के शौक़ पर भी लगाम लगी रही . कोरोना के संकट के दौरान  मजबूरी में  सीखी गयी इन बातों का पालन करने से बहुत फायदा हो सकता है .

  वैश्विक स्तर पर 2020 में लोकतांत्रिक मूल्यों का जो ह्रास हुआ है वह अपना स्थाई प्रभाव छोड़ने वाला है .  दुनिया भर में तानाशाही ताकतें मज़बूत हुई हैं .  आज दुनिया में कम से कम पचास देश  ऐसे हैं जहां सत्ता पर  तानाशाहों का क़ब्ज़ा है. बहुत सारे शासकों के बीच तानाशाही प्रवृत्तियाँ बढ़ रही हैं. साफ़ नज़र आ रहा है कि चुनाव  के वर्तमान तरीके लिबरल डेमोक्रेसी की स्थापना में नाकाम हो रहे  हैं . तुर्की का  उदाहरण दिया जा सकता  है .  वहां का शासक बाकायदा चुनाव जीतकर आया है लेकिन काम तानाशाहों वाला कर रहा है . ब्राजील में भी यही हाल है . असली या काल्पनिक संकट के नाम पर तानाशाही प्रवित्ति वाले सात्ताधीश मनमानी  करने लगते  हैं. कहने का मतलब यह है कि मौजूदा चुनाव पद्धति  सही अर्थों में लोकशाही निज़ाम  कायम करने में असफल साबित हो रही है .

 

राजनीतिक इतिहास पर  डालने पर पता चलता है कि  किसी भी राजनीतिक विचारधारा पर आधारित कोई भी शासन पद्धति  सत्तर साल के आसपास ही चल पाती है .1917 में लेनिन की अगुवाई में रूसी क्रान्ति हुयी थी लेकिन सत्तर साल बीतते बीतते वह सत्ता और राजनीति की एक कारगर विचारधारा के रूप में फेल हो गयी .बोल्शेविक क्रान्ति की विचारधारा पेरेस्त्रोइका और ग्लैसनास्त की बलि चढ़ गयी . जो वामपंथी विचारधारा आधे यूरोप और एशिया के एक हिस्से में राजकाज की विचारधारा थी ,वह खतम हो गयी . आज कहने को तो चीन में वामपंथी विचारधारा है लेकिन वह मार्क्सवाद के बुनियादी   सिद्धांतों से परे है.    शी जिनपिंग अपने को आजीवन तानाशाह पद पर स्थापित कर लिया है . आज जो  भी शासन व्यवस्था चीन में है वह आम आदमी के लिए तानाशाही  व्यवस्था ही है . सर्वहारा का अधिनायकत्व उसमें कहीं नहीं है .रूसी क्रान्ति के बाद लोकतंत्र के ज़रिये  सत्ता पाने का सिलसिला दूसरे विश्वयुद्ध के बाद शुरू  हुआ . दुनिया भर फैले राजशाही , तानाशाही और उपनिवेशवादी सत्ताधीशों के खात्मे का दौर शुरू हो गया . एशिया और अफ्रीका में गुलाम देशों की आजादी की बाढ़ सी आ गयी थी .आज की जो चुनाव पद्धति है वह बहुत  सारे  देशों ने उसी कालखंड में अपनाई और उसी के ज़रिये लोकतंत्र की स्थापना की . लेकिन अब सब कुछ बदल रहा है .लोकप्रिय चुनाव के बाद भी बहुत सारे शासक तानाशाह बन रहे हैं .  इसका मतलब यह हुआ कि वर्तमान चुनाव  पद्धति लोकशाही स्थापित करने में नाकाम साबित हो रही है .  इतिहास को मालूम है कि  फ्रांसीसी क्रान्ति के बाद यूरोप में सामंती व्यवस्था पर कुठाराघात हुआ था  और औद्योगिक क्रान्ति का प्रादुर्भाव हुआ था , लोगों में बराबरी की संस्कृति का विकास हुआ लेकिन शताब्दी बीतने के साथ साथ राजनीतिक परिवर्तन की बातें माहौल में आना  शुरू हो गयी थीं. दूसरे विश्वयुद्ध के बाद भी बड़े बदलाव हुए थे . कोरोना ने भी  दुनिया भर की आर्थिक हालात पर ज़बरदस्त असर डाला है , इसके बाद भी बड़े बदलाव की   आहट साफ़ सुनाई पड़ रही है . शुरुआती दौर में चुनकर आये सत्ताधीशों की प्राथमिकता  जनकल्याण हुआ करती थी . लेकिन कोरोना काल में देखा जा रहा है कि चाहे तुर्की का अर्दोगन हो या चीन का शी  जिनपिंग  , सभी अपने आपको  शासन पद्धति  के केंद्र में रखने की  कोशिश कर रहे हैं .  यहाँ तक कि अमरीका में भी शासक में स्थाई  होने की बीमारी जोर पकड चुकी है .डोनाल्ड ट्रंप चुनाव हार चुके हैं लेकिन सत्ता छोड़ने को तैयार नहीं हैं . ज़ाहिर है बदलाव होगा .  बड़ा बदलाव होगा .  आगामी बदलाव दुनिया को किस दिशा में ले जाएगा उसके बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता . उम्मीद की जानी चाहिए कि निर्वाचित शासकों में जो तानाशाही की प्रवृत्तियां बढ़ रही हैं ,अगला बदलाव उसको नाकाम करेगा और कोई अन्य बेहतर व्यवस्था  लागू होगी जिसका स्थाई भाव  लिबरल डेमोक्रेसी ही होगा  .

 

 

 

  

 

Monday, December 28, 2020

कांग्रेस नेता के रूप में राहुल गांधी अक्सर गैरजिम्मेदार काम करते रहते हैं

 

 


शेष नारायण सिंह

कांग्रेस के  आला नेता   राहुल गांधी फिर विदेश यात्रा पर चले गए . अक्सर जाते रहते हैं लेकिन इस  बार उनकी विदेश यात्रा बहुत बड़ी उत्सुकता का विषय बनी हुयी है . कांग्रेस की  स्थापना के 135 साल पूरे होने पर   कांग्रेस पार्टी ने एक  बड़े आयोजन की योजना बनाई थी लेकिन कार्यक्रम के ठीक एक दिन पहले राहुल गांधी विदेश निकल लिए . कांग्रेस ने इस बार  स्थापना दिवस को बड़े पैमाने पर मनाने का फैसला इसलिए किया था  कि  दिल्ली की सीमा पर आन्दोलन कर रहे किसानों की समस्याओं को बड़ा मुद्दा बनाना चाहती थी लेकिन पार्टी की योजना धरी की धरी रह गयी और कांग्रेस का आला अफसर यूरोप निकल गया .आज स्थिति यह है कि किसानों का मुद्दा तो पीछे चला गया और आज छोटे बड़े सभी कांग्रेसियों के एक ही सवाल पूछा  जा रहा है कि उनका सबसे बड़ा नेता कहाँ है. कुछ  कांग्रेसियों के अलावा साधारण कांग्रेसी चुप रहने  में ही भलाई समझ रहा है . दिल्ली में कांग्रेस मुख्यालय में आज जब झंडा फहराया जा रहा था तो प्रियंका गांधी से जब पत्रकारों ने उनके  भाई और आला नेता , राहुल गांधी के बारे में पूछा तो उनके पास कोई जवाब नहीं था . बेचारी चुपचाप चली गयीं क्योंकि इस सवाल का क्या जवाब देतीं कि  कांग्रेस के कैलेण्डर में सबसे मह्त्वपूर्ण तारीख के ठीक एक दिन पहले उनके भाई साहब कहाँ  चले  गए हैं . राहुल गांधी के क़रीबी और कांग्रेस के मुख्य प्रवक्ता रणदीप सिंह सुरजेवाला अपनी शैली में सवालों के जवाब दे रहे हैं कि राहुल गांधी किसी निजी यात्रा पर विदेश चले  गए हैं .

 कांग्रेस ने नई कृषि नीति के खिलाफ आन्दोलन कर रहे  किसानों के साथ अपने आपको जोड़ने की पूरी कोशिश की है . राहुल खुद राष्ट्रपति के यहाँ गए , दो करोड़ किसानों से दस्तखत करवाकर ट्रक में लादे हुए कागजों को मीडिया के सामने पेश किया . हमेशा ही किसानों के साथ सहानुभूति के बयान दिए लेकिन जब किसानों की एक बार फिर केंद्र सरकार से 29 दिसंबर को बात होने वाली  है तो   कांग्रेस पार्टी फिर से रक्षात्मक मुद्रा में आने के लिए मज़बूत कर दी गयी  है . अब कोई भी कांगेसी नेता कोई भी बात करने की कोशिश करेगा तो उससे राहुल गांधी के बारे में ही सवाल पूछा जाएगा . ज़ाहिर है कांग्रेस के सामने अपने कार्यकर्ताओं को मोबिलाइज करने का एक अवसर था  और उसको राहुल  गांधी के विदेश यात्रा के मोह की बलिबेदी पर कुर्बान करना पडा है .

2004 में राहुल गांधी  कांग्रेस पार्टी में औपचारिक रूप से शामिल हुए थे .2013 में कांगेस के जयपुर चिंतन शिविर में कांग्रेस की दरबारी संस्कृति  के मठाधीशों ने उनको पार्टी का उपाध्यक्ष बनवा लिया था . उसी के साथ ही चुनावों में कांग्रेस  पार्टी के  कमज़ोर पड़ने का सिलसिला शुरू  हो गया था . उसके बाद से पार्टी  में उन नेताओं का वर्चस्व बढना शुरू हो गया  जो लुटियन बंगलो ज़ोन की शोभा बढाते हैं  . इनमें से ज्यादातर ज़मीनी मजबूती के कारण नेता नहीं बने हैं . इन सब पर इंदिरा गांधी परिवार की कृपा बरसती रही है और  उसी के इनाम के रूप में यह लोग राजनीतिक सत्ता का लाभ  उठाते  रहते हैं. उसी के साथ ज़मीनी नेताओं को  दरकिनार किये जाने का सिलसिला भी  शुरू हो गया .राहुल गांधी के  नेतृत्व में  कांग्रेस पार्टी में ऐसे लोग बड़े नेता बने बैठे हैं जिसमें कभी पूरे भारत के गाँवों और शहरों से आये  जनाधार वाले नेता कांग्रेस के नीतिगत फैसले लिया करते  थे. .2013 में  संपन्न हुये  जयपुर की चिन्तन शिविर में जब राहुल गांधी को कांग्रेस का उपाध्यक्ष बनाया गया  उसी दिन से जनाधार वाले नेताओं का  पत्ता कटना शुरू हो गया था .यह अलग बात है कि राहुल गांधी ने उस शिविर में जो बातें कहीं थीं अगर वे लागू हो  गई होतीं तो  कांग्रेस की दिशा  ही बदल गयी  होती. कांग्रेस के उपाध्यक्ष रूप में राहुल गांधी के नाम की घोषणा होने के बाद उन्होंने जयपुर  चिंतन शिविर की समापन सभा में कहा था कि “ हम टिकट की बात करते हैंजमीन पे हमारा कार्यकर्ता काम करता है यहां हमारे डिस्ट्रिक्ट प्रेसिडेंट बैठे हैंब्लॉक प्रेसिडेंट्स हैं ब्लॉक कमेटीज हैं डिस्ट्रिक्ट कमेटीज हैं उनसे पूछा नहीं जाता  हैं .टिकट के समय उनसे नहीं पूछा जातासंगठन से नहीं पूछा जाताऊपर से डिसीजन लिया जाता है .भइया इसको टिकट मिलना चाहिएहोता क्या है दूसरे दलों के लोग आ जाते हैं चुनाव के पहले आ जाते हैं,  चुनाव हार जाते हैं और फिर चले जाते हैं और हमारा कार्यकर्ता कहता है भइयावो ऊपर देखता है चुनाव से पहले ऊपर देखता हैऊपर से पैराशूट गिरता है धड़ाक! नेता आता हैदूसरी पार्टी से आता है चुनाव लड़ता है फिर हवाई जहाज में उड़ के चला जाता है।

यह भावपूर्ण भाषण देने के बाद राहुल गांधी ने वही काम शुरू कर दिया जिसकी उन्होंने भरपूर शिकायत की थी . उनके जयपुर भाषण से कांग्रेसियों में उम्मीद बंधी थी कि कांग्रेस को एक ऐसा नेता मिल गया  है जो अगर  सत्ता में रहा तो कांग्रेस पार्टी के  आम कार्यकर्ता  को पहचान दिलवाएगा .और  अगर  विपक्ष में रहा तो  ज़मीनी सच्चाइयां बाहर आयेंगीं. लेकिन वास्तव में ऐसा नहीं हुआ .राहुल गांधी ने जो फैसले लिए उनसे कांग्रेस को  बहुत नुक्सान ही हुआ . पंजाब में अमरिंदर सिंह की मर्जी के खिलाफ किसी बाजवा जी को अध्यक्ष बनाया , हरियाणा में भूपेन्द्र सिंह हुड्डा के खिलाफ अशोक तंवर को चार्ज दे दिया . वे बाद में बीजेपी उम्मीदवारों के लिए प्रचार करते पाए गए . मध्यप्रदेश में सोनिया गांधी की पसंद दिग्विजय सिंह को दरकिनार करने के  चक्कर में  ज्योतिरादित्य सिंधिया को आगे किया , वही सिंधिया  मध्यप्रदेश में कांग्रेस की  सरकार के पतन के कारण बने . मुंबई कांग्रेस के मुख्य मतदाता  उत्तर भारतीय , दलित और अल्पसंख्यक हुआ करते थे लेकिन वहां पूर्व शिवसैनिक संजय निरुपम को  अध्यक्ष बनाकर पार्टी को बहुत  पीछे धकेल दिया . उत्तर प्रदेश का चार्ज किन्हीं मधुसूदन मिस्त्री को दे दिया जिनके जीवन का  सबसे बड़ा राजनीतिक काम यह था कि वे वडोदरा में एक बार किसी बिजली के खम्बे पर चढ़कर वे नरेंद्र मोदी का कोई पोस्टर सफलता पूर्वक उतार चुके थे .नैशनल हेराल्ड जैसे राष्ट्रीय आन्दोलन के अखबार को ख़त्म करके निजी संपत्ति बनाने की कोशिश की . सबसे बड़ी बात यह कि उनके उपाध्यक्ष बनने के साथ ही  नरेंद्र मोदी गुजरात को छोड़कर  राष्ट्रीय राजनीति में आये . कहा जाता है कि नरेंद्र मोदी के प्रचार में सबसे बड़ा योगदान राहुल गांधी का ही रहता रहा है क्यंकि वे ऐसा कुछ ज़रूर  बोलते या करते रहे हैं जिससे  बीजेपी को  कांग्रेस की धुनाई करने का अवसर  मिल जाता है .

आज कांग्रेस के स्थापना दिवस पर विदेश के लिए उड़नछू हो कर  जो काम राहुल गांधी ने किया है ,वह उनके लिए कोई नई बात नहीं है .जब से वे कांग्रेस के कर्ताधर्ता बने हैं तब से यही कर रहे हैं. लेकिन दिल्ली में उनके परिवार की गणेश परिक्रमा करने वाले नेता उनके काम को सही  ठहराते रहते  हैं . प्रियंका गांधी से लेकर मल्लिकार्जुन खड्गे तक सभी नेता राहुल गांधी के स्थापना दिवस पर गायब रहने की बात से  शर्मिंदा नज़र आये . लेकिन यह सच्चाई है कि राहुल गांधी ऐसे काम करते रहते हैं जिससे उनकी पार्टी के बड़े नताओं से कोई जवाब देते नहीं बनता .