शेष नारायण सिंह
नई कृषि नीति लागू करने के लिए बनाए गए
केंद्र सरकार के तीन कानूनों के खिलाफ देश के
किसानों का एक वर्ग दो महीने से अधिक समय से उन कानूनों की वापसी के लिए
आन्दोलन कर रहा है . अब तक यह आन्दोलन गांधी जी के सत्याग्रह के हिसाब से चल रहा था . किसान दिल्ली
की सीमाओं पर धरने पर बैठे हुए थे लेकिन अब आन्दोलन के ऊपर हिंसा के आरोप लग रहे हैं . 26 जनवरी के दिन दिल्ली की सीमा में
घुसकर ट्रैक्टर परेड निकालने का उनका फैसला उल्टा पड़ गया है . किसानों के एक वर्ग
के नेता पन्नू ने जिद पकड़ रखी थी वे ट्रैक्टर
परेड लेकर दिल्ली की रिंग रोड पर ज़रूर जायेंगे . उनकी राग अलग थी . बहुत
सारे किसान संगठनों ने मिलकर एक मोर्चा
बना रखा था ,उसी मोर्चे के नेताओं ने मिलकर सरकार से दस से अधिक दौर की बातचीत की
. उसका नाम संयुक्त किसान मोर्चा नाम दिया गया था . संयुक्त किसान मोर्चा ने दिल्ली पुलिस के साथ बातचीत करके तय किया था कि
दिल्ली की तीन सीमाओं से तीन परेड निकलेगी और तयशुदा मार्ग से होती हुयी अपने
स्थान पर वापस आ जायेगी .संयुक्त किसान मोर्चा से अलाग एक संघर्ष मोर्चा बना था
जिसके नेता कोई पन्नू जी हैं उनका संगठन रिंग रोड पर जाने के लिए आमादा था .वे
रिंग रोड पर गए और आगे बढ़त हुए लाल किले तक पंहुच गए . उनके लोगों ने वहां तोड़फोड़
की और लाल किले पर सिख धर्म का झंडा और
किसान यूनियन का झंडा फहरा दिया . सुरक्षा के काम में लगे पुलिस वालों से
मारपीट भी की और बाद में उनके एक नेता ने अपने कृत्य को सही भी ठहराया .लाल किले
पर जो तोड़फोड़ हुई उसके पीछे पंजाबी फिल्मों के एक अभिनेता , दीप सिद्धू और एक गैंग्स्टर लाखा सिधाना का नाम आ
रहा है . सिधाना पर अपराध के कई मुक़दमे भी चल चुके हैं और सिद्धू के बारे में
बताया जा रहा है कि वह बीजेपी सांसद सनी देयोल का ख़ास आदमी है .आन्दोलन से
सहानुभूति रखने वाले बता रहे हैं कि किसान आन्दोलन को तोड़ने में दीप सिद्धू की वही भूमिका है जो सी ए
ए के धरने को तोड़ने में कपिल मिश्रा की थी . आरोप लग रहे हैं कि दीप सिद्धू ने
बीजेपी के इशारे पर आन्दोलन को कमज़ोर करने
के लिए यह सब कारस्तानी की है . उसके काम
से किसानों के आन्दोलन का भारी नुक्सान हुआ है . किसान आन्दोलन के नेताओं का कहना
है कि आन्दोलन को कमज़ोर करने के लिए ही सरकार ने दीप सिद्धू को आगे करके तोड़फोड़
करवाई है . कांग्रेस और सी पी एम ने तो साफ़ तौर पर आरोप लगा दिया है कि यह सारा
काम सरकार का ही है . किसान आन्दोलन के लगभग सभी बड़े नेताओं के खिलाफ दिल्ली पुलिस
ने एफ़ आई आर दर्ज कर लिया है यानी सरकार
ने बता दिया है कि उनके साथ किसी तरह की सहानुभूति नहीं बरती
जायेगी .
लाल किले पर हुए तोड़फोड़ के बाद किसान
आन्दोलन को बड़ा झटका लगा है . दरअसल गांधी जी के सत्याग्रह वाले वाले फार्मूले के
हिसाब से आंदोलन चाल्ने में शान्ति का बहुत बहुत बड़ा योगदान है . उसमें किसी तरह
की हिंसा के लिए जगह नहीं है .अगर आन्दोलन
गलती से भी हिंसक हो गया तो सरकार उसको कुचलने में समय नहीं लगाती .
इसीलिये जब महात्मा गांधी का 1920 वाला आन्दोलन हिंसक हो गया , कुछ लोगों ने गोरखपुर
जिले के चौरी चौरा में हिंसा कर दी,
ब्रिटिश सत्ता के प्रतिनिधि पुलिस थाने में आग
लगा दी तो महात्मा गांधी ने आन्दोलन को वापस ले लिया . कांग्रेस पार्टी के
सभी बड़े नेता आग्रह करते रहे लेकिन उन्होंने किसी की नहीं सुनी और अगस्त 1920 को शुरू हुआ आन्दोलन फरवरी 1922 मने वापस ले लिया गया . उनका तर्क
था कि अहिंसा और सत्य के प्रति आस्था ही उनका सबसे बड़ा हथियार है. उसके न होने पर तो
सत्ता का मुकाबला कैसे होगा. इसलिए दुनिया भर में जहां भी महात्मा गांधी की
सत्याग्रह की राजनीति पर आधारित आन्दोलन
हुए हैं उनमें हिंसा का कोई स्थान नहीं रहा
है . अमरीका में वर्षों से अश्वेतों के अधिकार की लड़ाई चल रही थी लेकिन उसमें
हिंसा और मारकाट स्थाई भाव था . कोई सफलता नहीं मिल रही थी लेकिन महात्मा गांधी की अहिंसा और सत्याग्रह के आधार पर जब बसों में काले
और सफ़ेद लोगों का भेद मिटाने के लिए , रेस्तराओं में काले और गोरों के अलग लंच
काउंटर खतम करने के ,अश्वेतों के वोट देने
के अधिकार के लिए या लांग मार्च के
आन्दोलन चलाये गए तो सभी सफल हुए. दक्षिण
अफ्रीका में ही सत्याग्रह की अवधारणा का
जन्म हुआ था लेकिन वहां अश्वेतों से आज़ादी की लड़ाई हिंसक तरीके से लड़ी जा रही थी
और लगातार असफलता मिल रही थी लेकिन जैसे ही गांधी जी के हथियार का प्रयोग शुरू हुआ
गौरांग महाप्रभुओं के सामने नेल्सन मंडेला की बात मानने के सिवा कोई और रास्ता नहीं बचा .यानी अगर
सत्याग्रह वाला रास्ता चुना है तो हिंसा
के लिए उसमें कोई स्थान नहीं होता .किसान आन्दोलन के नेता लोग यह कह रहे हैं कि दस
प्रतिशत लोग ही हिंसा के रास्ते पर गए थे
बाकी लोग अभी भी शान्ति के साथ साथ आन्दोलन में लगे रहेंगे लेकिन यह बात चलती नहीं
है . आन्दोलन से जुड़े लोगों की हिंसा कोई
वैदिकी हिंसा नहीं है ,वह अपराध है . दिल्ली के किसान आन्दोलन में
दरार पड़ना शुरू हो गयी है .भारतीय किसान
यूनियन ( भानु गुट ) ने अपना डेरा डंडा उखाड़ दिया है . तराई के किसानों के नेता वी
एम सिंह ने भी आन्दोलन को खतम कर दिया है . जयपुर जाने वाला राजमार्ग हरियाणा सरकार
ने खाली करवा लिया है यानी आन्दोलन अब बहुत कमज़ोर पड़ गया है .लगता है कि केंद्र
सरकार ने भी अब मन बना लिया है कि बहुत
हुआ .अब आन्दोलन को खतम ही किया जाना चाहिए . किसान नेता भी अब बैकफुट पर हैं .
इस बात में दो राय नहीं है खेती के आधुनिकीकरण के लिए नीति के स्तर पर सरकारी
हस्तक्षेप की ज़रूरत थी . आज़ादी के बाद पहली
बार इसकी आवश्यकता महसूस की गयी थी . जवाहरलाल नेहरू ने 1957 में नागपुर कांग्रेस
में सहकारिता आधारित सामुदायिक खेती की
बात की थी. लेकिन चौधरी चरण सिंह की
अगुवाई में बड़े किसानों के न्यस्त स्वार्थ वालों ने उसका ज़बरदस्त विरोध किया
और बात वहीं खतम हो गयी थी . उसके बाद
नेहरू ने कृषि मंत्रालय के ज़रिये 1959 में एक बहस की शुरुआत करवाई और हरित क्रान्ति की अवधारणा की शुरुआत हुयी . भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के तत्वावधान में
खेती में सुधार लाने की दिशा में काम शुरू
हुआ. चकबंदी की गयी और किसानों को अपनी सारी ज़मीन एक जगह पर इकठ्ठा करने का मौक़ा
दिया गया . उसके बाद शास्त्री जी के कार्यकाल में उनके कृषिमंत्री सी सुब्रमण्यम की
अगुवाई में किसानों को प्रति बीघा उपज को
दुगुना करने का लक्ष्य रखा गया . यह काम
1965 में शुरू हुआ .उसके पहले लगातार तीन साल के सूखे के कारण देश में खाद्यान्न की भारी किल्लत हो गयी थी.
शास्त्री जी ने लोगों से आग्रह किया था कि लोग सप्ताह में एक दिन भूखे रहें
,बाकायदा व्रत रखें. उस माहौल में सी सुब्रमण्यम की किताब ए न्यू स्ट्रेटेजी फॉर
एग्रीकल्चर प्रकाशित हुई . सी सुब्रमण्यम ने डॉ स्वामीनाथन को आगे किया , एल के झा लाल
बहादुर शास्त्री के प्रमुख सचिव थे , वे भी शामिल हुए और सबने कोशिश करके मेक्सिको
की कृषि क्रान्ति के जनयिता , डॉ नार्मन बोरलाग को आमंत्रित किया . उन्होंने जल्दी
पैदा होने वाली प्रजातियों के बीज का
इंतजाम किया , रासायनिक खाद और सही समय पर सिंचाई के ज़रिये उत्पादन बढ़ने की रणनीति
बनाई . कोई किसान तैयार ही नहीं हो रहा था . पंजाब कृषि विश्ववद्यालय लुधियाना के सहयोग
से बड़ी मुश्किल से पंजाब के कुछ किसानों को तैयार किया गया और जब फसल पैदा हुई तो
पूरे देश में किसानों में उत्सुकता हुयी और देश अनाज के बारे में आत्मनिर्भर हो गया .
जब डॉ मनमोहन सिंह ने वित्त मंत्री के रूप
में देश की अर्थव्यवस्था को पूंजीवादी रास्ते पर डाला तब से ही बात चल रही थी कि
खेती के औद्योगीकरण के लिए भी केंद्र
सरकार को नीतिगत हस्तक्षेप करना चाहिए .
कई पीढ़ियों के बाद भाइयों में बंटवारे के
चलते किसानों की ज़मीन के रक़बा बहुत ही
छोटा हो चुका है , खेती से परिवार का गुज़र नहीं हो रहा है . ज़रूरत इस बात की है कि
किसानी के काम में लगे लोगों को और अधिक अवसर दिए जाएँ . इसलिए एक नई कृषि नीति की
ज़रूरत थी . वर्तमान सरकार वह नीति लेकर आई . उस नीति में कुछ ऐसी खामियां हैं
जिनके परिणाम अच्छे नहीं होंगे .इसलिए उमें सुधार किये जाने की ज़रूरत है . किसानों ने उन खामियों
का बार बार उल्लेख किया लेकिन उनको ठीक करवाने के बजाय तीनों कानूनों को खारिज करने की जिद पर अड़ गए .
यह गलत था . सरकार की तरफ से जब एक एक क्लाज़ पर बात करने का प्रस्ताव आया तो किसानों को उसे लपक लेना चाहिए था लेकिन वे तो जिद
पर थे . कोई भी सरकार अपनी सोची समझी नीति
को वापस नहीं लेती , उसमें संशोधन की बात की जा सकती थी .लेकिन किसान संगठनों को
मुगालता था . अब आन्दोलन हिंसक हो गया है तो उनको सम्मानजनक तरीके आन्दोलन वापस
लेने के अवसर भी बहुत कम रह गए हैं . हिंसा के बाद सरकार के हाथ में कानून
व्यवस्था का हथियार आ गया है. किसान संगठनों ने कहा है कि आन्दोलन जारी
रहेगा . अब उनको चाहिए कि बातचीत में बीच का रास्ता निकालने की कोशिश करें नहीं तो
सरकार नए कृषि कानूनों को ज्यों का त्यों लागू करेगी और किसान नेताओं को किसानों की नज़र में नीचा दिखना पडेगा . आन्दोलन
हिंसक वारदात के बाद कमज़ोर पड़ गया है लेकिन सरकार को भी चाहिए कि जो सही सुझाव देश
भर के किसानों और खेती के जानकारों से आये हैं उनको सही तरीके से कानूनों में शामिल
करके बात को आगे बढ़ाएं .
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