Thursday, October 11, 2018

गुजरात से हिंदी भाषी मजदूरों का पलायन बहुत ही खतरनाक संकेत है




शेष नारायण सिंह






गुजरात से भाग रहे लोग वहां रोजी रोटी की तलाश में गए  थे. अब उनको भागना पड़ रहा है . जो तस्वीरें सामने आ रही हैं , उनसे साफ़ पता चलता है कि वहां मजदूरी की तलाश में गए लोगों पर संकट है . किसी अपराधी मानसिकता के आदमी ने एक दुधमुंही बच्ची को अपनी हवस का शिकार बना दिया . इस जघन्य काम को करने के पीछे उस नीच की मानसिकता की निंदा की जानी चाहिए . उसको सज़ा दी जानी चाहिए लेकिन यह सज़ा उसको कानून के तहत दी जानी चाहिए . इस तरह की देश के अलग अलग राज्यों में घटनाएं हो रही हैंऔर अदालतें सज़ा भी दे रही हैं . फास्ट ट्रैक कोर्ट बना दिए गए  हैं और अपराधी को ऐसी सज़ा दी जा रही है जो अन्य संभावित अपराधियों के मन में दहशत भी पैदा कर रही है . गुजरात में बच्ची के साथ हुयी दरिन्दगी की सज़ा देने का जो काम सरकार और न्याय व्यवस्था को करना चाहिए था , वह  काम गली मोहल्ले के गुंडे कर रहे हैं . एक गैर गुजराती की नीच हरकत की सज़ा हर उस आदमी को दी जा रही है जो गुजरात में उत्तर प्रदेश ,बिहार  और मध्य प्रदेश से आकर  काम कर रहा है . सरकार खामोश है , कुछ नहीं कर रही  है. राजनीति की चाकर बन चुकी गुजरात पुलिस हाथ पर हाथ धरे बैठी है . पुलिस के एक आला अफसर ने तो गलत बयानी भी कर दी है . उन्होंने फरमाया कि लोग डर के मारे नहीं भाग रहे हैं , वे अपने गाँव छठ पूजा के लिए जा रहे हैं . अभी छठ पूजा में एक महीने से ज्यादा का समय बाकी है. जो लोग भाग रहे हैं उनसे जब स्टेशनों पर कुछ रिपोर्टरों ने बात की तो पता  लगा कि उन लोगों ने छठ  पूजा में अपने गाँव वापस जाने के लिए टिकट बुक करवा लिया था लेकिन वह तो अक्टूबर के अंत का  कन्फर्म टिकट है. अभी तो डर के कारण ही भाग रहे हैं .
गुजरात से उत्तर प्रदेश और बिहार के लोगों का पलायन बहुत सारे सवाल खड़े कर रहा है . टीवी की बहसों में सत्ताधारी पार्टी के वफादार पत्रकार तो इस के लिए कांग्रेस को ज़िम्मेदार ठहरा रहे हैं . उनका तर्क है कि कांग्रेस के टिकट पर एम एल ए का चुनाव जीतकर आया , अल्पेश ठाकोर नाम का एक व्यक्ति लोगों को भड़का रहा है  जिसके कारण लोग हिंसक होकर बिहारी मजदूरों को मार पीट रहे  हैं . इस तर्क में कई लोच हैं . सबसे बड़ा लोचा तो यही कि जो अल्पेश ठाकोर एक चुनाव जीतने के लिए कांग्रेस के चरणों में लेट गया था वह इतना ताक़तवर कब हो गया कि उसके भड़काने से गुजरात का नौजवान हथियार लेकर मैदान में आ गया और बिहारियों को डरा धमका कर भगाने लगा . यह तर्क सही नहीं है .  इस तर्क में तार्किक दोष भी हैं .अगर अल्पेश ठाकोर के भड़काने से ऐसी हालात पैदा हो गयी हैं कि गुजरात की सरकार बेचारी लग रही है तो यह शर्म की बात है . सरकार की एजेंसियों को चाहिए कि अल्पेश ठाकोर को गिरफ्तार करेंउस पर मुक़दमा कायम करें और उसको काबू में करके उसकी भड़का सकने की ताकत को नाकाम कर दें . लेकिन सरकार ऐसा कुछ नहीं कर  रही है . यह सरकार राज करने की अपनी वैधनिकता को  गँवा चुकी है क्योंकि गुजरात में  जो हालात है उससे साफ़ पता चलता है कि वहां संवैधानिक मशीनरी  फेल हो गयी है. संविधान और राजनीति का कोई भी जानकार  बता देगा कि संवैधानिक को लागू न करवा पाने की स्थिति में अनुच्छेद ३५५ और और ३५६ लगाकर राज्य सरकार को बर्खास्त करके केंद्र  का शासन लागू कर दिया जाता है . जो गुजरात में हो  रहा है वह तो संविधान के मौलिक अधिकारों की खिल्ली उड़ाने जैसा काम है .
यह बहुत ही गंभीर मामला है . संविधान के मौलिक अधिकारों वाले  खंड में  अनुच्छेद १९ में यह प्रावधान है कि देश के सभी नागरिक भारत के किसी भी  हिस्से में जा सकते हैं ( अनुच्छेद 19 (1) (d) ,भारत के किसी भी हिस्से में निवास कर सकते हैं और वहां बस सकते हैं (19 (1) (e) , कोई भी  रोज़गार कर सकते हैं और कोई भी कामउद्योग या व्यापार कर सकते हैं .(19) (1) (g) .इसके अलावा जिस तरह से गुजरात से लोगों को धमकाया जा रहा  है .उसमें संविधान के अनुच्छेद १५ की भी अनदेखी हो रही है . उसमें साफ़ लिखा है कि किसी भी भारतीय नागरिक के खिलाफ धर्म , जातिसेक्सजन्मस्थान के कारण भेदभाव नहीं किया जा सकता है . गुजरात में जो भी हो रहा है वह सीधे तौर पर बिहार और उत्तर प्रदेश से आये लोगों को घेरने की साजिश का  हिस्सा  है. अनुच्छेद  २१ की भी अवहेलना हो  रही है .इस अनुच्छेद में लिखा है कि किसी भी व्यक्ति को उसके जीवन के अधिकार और उसकी निजी  स्वतन्त्रता से वंचित नहीं किया जा सकता है . बिहारियों से मारपीट कर रही भीड़ इन दोनों ही अधिकारों को छीन रही  है. इस तरह  से संविधान की खुले आम अवहेलना हो रही है और राज्य सरकार  संविधान की रक्षा के लिए कुछ नहीं कर रही है . केंद्र सरकार का कर्तव्य है कि वह इस स्थिति को समझे और राज्य सरकार को उसका कर्तव्य पालन करने के लिए बाध्य करे. संवैधानिक मशीनरी के फेल होने पर केंद्र सरकार की मंत्रिपरिषद  माननीय  राष्ट्रपति जी को राज्य सरकार को बर्खास्त करने की सलाह दे सकती है और संविधान के अनुसार वह सलाह राष्ट्रपति जी को माननी ही पड़ेगी.लेकिन ऐसा कुछ भी होता दिख नहीं रहा है .
एक  हफ्ते से गुजरात में संविधान की धज्जियां उडाई जा रही हैं और सरकार की तरफ से राजनीतिक रूप से असुविधाजनक कुछ लोगों की गिरफ्तारी के अलावा कुछ नहीं हुआ है. . होना यह चाहिए था कि राज्य सरकार हुकूमत के इकबाल को बहाल करती और जो लोग भी बिहारी मजदूरों को मार पीट रहे हैं उनके मन में कानून का डर पैदा होता और स्थिति सामान्य हो जाती . जिस तरह से  स्पष्ट बहुमत वाली राज्य सरकार अकर्मण्य बन कर  बैठी है उससे तो लगता  है कि गुंडों और राज्य सरकार की  मिलीभगत है . अगर यह संभवाना सच है तो बहुत बुरा  है. आरोप लग रहे हैं कि एक  कांग्रेसी एम एल ए को ज़िम्मेदार बताकार उत्तर प्रदेशबिहार और मध्यप्रदेश में कांग्रेस को बदनाम करने की किसी  साज़िश के मद्दे नज़र सरकार कोई कार्रवाई  नहीं कर रही है . अगर यह  सच है तो बहुत बुरा है . सरकार को मालूम होना चाहिए कि अगर आपने सही तरीके से अपना फ़र्ज़ नहीं  निभाया तो आपकी सरकार की वैधता पर तो सवाल उठते ही हैं ,चुनाव में भी गैरजिम्मेदार पार्टी को भारी नुक्सान उठाना पड़ता है .इस सन्दर्भ में उत्तर प्रदेश में २०१३ में हुए मुज़फ्फरनगर दंगे से सबक सीखना किसी भी सरकार और राजनीतिक पार्टी के लिए उपयोगी होगा. सितम्बर २०१३ में उत्तर प्रदेश में बिलकुल ताज़ा सरकार थी . कुल  सवा साल पहले अखिलेश यादव ने शपथ ली थी. उनके पास अनुभव नहीं था . वे अपने पिता और उनके मित्रों पर बहुत भरोसा करते थे . इसी बीच मुज़फ्फरनगर में दंगा हो गया. अब तो खैर सब जानते हैं कि दंगा पूर्व नियोजित था . मुसलमानों का राजनीतिक प्रबंधन उनके पिता जी के एक मित्र कर  रहे. उनको अंदाज़ ही नहीं लगा कि मेरठ और मुज़फ्फर नगर के कुछ गुंडा टाइप समाज विरोधी तत्व सोशल मीडिया पर भड़काऊ तस्वीरें डालकर साम्प्रदायिक माहौल बना रहे थे . उन्होंने सरकार की तरफ से दंगे को रोकने की कोई कोशिश नहीं होने दी  अपने कुछ गुंडों को सक्रिय कर दिया . बताते हैं कि उनको उम्मीद थी कि मुसलमानों में जो थोडा बहुत मायावती की पार्टी की तरफ का झुकाव देखा जा रहा था ,वह दंगे के बाद उनकी पार्टी के साथ एकजुट हो जाएगा . सारे मुस्लिम  वोट उनकी पार्टी को मिल जायेंगें . दंगे  के बाद कई अफसरों से बात हुयी . सब का यही कहना था कि अगर सरकार की तरफ से कोई अड़चन न होती तो सोशल मीडिया पर ज़हर उड़ेल रहे गुंडों को काबू कर लिया गया होता और दंगा किसी कीमत पर न होता. लेकिन दंगा हुआ . सरकार की तरफ से ढिलाई हुयी और नतीजा सबके सामने है . हालांकि उसी दंगे के  बाद अखिलेश यादव ने अपने पिताजी के मित्रों को नज़रंदाज़ करना शुरू कर दिया था और बाद में ठीक शासन चलाया लेकिन सरकार की नाकामी का नुक्सान उनकी पार्टी को २०१४ में भी हुआ और २०१७ में भी . इसलिए सामाजिक अशांति की हालात के बाद राजनीतिक लाभ की उम्मीद लगाए गुजरात के हुक्मरानों को पता होना चाहिए कि जनता अशांति को बर्दाश्त नहीं करती . अगर सरकारें अपना फ़र्ज़ सही  तरीके से नहीं निभातीं  तो उनकी पार्टी को उसकी कीमत देनी पड़ती है .  

 पलायन एक बड़ी समस्या है . उत्तर प्रदेश , बिहार ,राजस्थान और मध्यप्रदेश की सरकारों को इस बात पर भी गौर करना चाहिए कि उनके ही राज्य से लोग गुजरातपंजाब , हरियाणा ,महाराष्ट्र या कर्नाटक  में रोज़गार की तलाश में क्यों जाते हैं . कोई भी गुजराती आदमी उत्तर प्रदेश या बिहार में काम की तलाश में नहीं आता . इसका कारण  यह है कि  इन राज्यों में गैर ज़िम्मेदार सरकारों ने रोज़गार के अवसर ही नहीं पैदा किये . गंगा जी के आसपास का क्षेत्र जितना उपजाऊ है उतना उपजाऊ इलाका  कहीं नहीं है लेकिन चूंकि सरकारों ने उद्योग सृजन या रोज़गार का माहौल नहीं बनाया इसलिए यहाँ का आदमी उन राज्यों में मजदूरी करने के लिए अभिशप्त है जहां के नेताओं ने विकास को प्राथमिकता दी है .इसलिए इन राज्यों में जो भी सरकारें हैं या आने वाली हैं सबका कर्त्तव्य है कि अपनी मानव संपदा को अपने ही राज्य में रोज़गार के अवसर उपलब्ध कराने के लिये नीतियाँ बनाएं और अपने लोगों को अन्य राज्यों के गुंडों से पिटने  से बचाएं .दूसरी तरफ ,किसी अन्य राज्य के लोगों को अपने यहाँ से भागने को मजबूर करने वाले नेताओं को शायद यह भी मालूम नहीं है कि वे इस तरह के काम करके देश की  सांस्कृतिक और राजनीतिक एकता को भरी नुक्सान पंहुचा रहे हैं . इसलिये केंद्र सरकार का ज़िम्मा है कि वह गुजरात की सरकार को आगाह  करे कि बिगड़ते हालात पर फ़ौरन काबू करें वरना देर हो जायेगी और एक राज्य की सरकार अदूरदर्शिता का खामियाजा पूरे देश को उठाना पडेगा .


Wednesday, October 10, 2018

किसानों को सम्मान न दिया तो बात बिगड़ जायेगी

  

शेष नारायण सिंह

१८५७ में ईस्ट इण्डिया कंपनी के सिपाही जिस रास्ते मेरठ से दिल्ली आये थे ,उसी  रास्ते दिल्ली आ रहे  किसानों को दिल्ली की पुलिस ने शहर में नहीं घुसने दिया .आज़ादी की पहली लड़ाई के लिए जो सिपाही दिल्ली आ रहे थे ,वे सभी किसानों के बेटे थे . इस बार भी किसान ही आ रहे थे और उन पर आंसू गैस के  गोलेपानी की तोप और लाठियां बरसाने वाले दिल्ली पुलिस के सभी सिपाही  किसानों के ही बेटे थे . दिल्ली के भद्र जनों  की सुरक्षा में लगे यह सिपाही दिल्ली पुलिस में नौकरी करके गाँव में रहने वाले अपने माता पिता और गाँव की खेती और उस पर आश्रित  परिवार  का पेट पालते हैं. कॉल आफ ड्यूटी के चक्कर  में उन्होंने इस बार अपने परिवार जैसे लोगों के ऊपर पुलिस का कर्त्तव्य किया और किसानों को घायल करने पर मज़बूर हुए . दिल्ली -यूपी सीमा पर जिन  लोगों की  हड्डियां तोडी गयी हैं ,उनको २०१४ और २०१७ के चुनावों के पहले दिल्ली और यूपी की सरकार बनाने की कोशिश कर रहे राजनेताओं ने वायदा किया था कि किसानों की आमदनी दुगुनी कर दी जायेगी स्वामीनाथन कमेटी की रिपोर्ट लागू कर दी जायेगी और उनको बहुत ही खुशहाल कर दिया जाएगा .लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ.
सच्ची बात यह है कि सरकारें जो दिल्ली में जम जाती हैं वे किसानों को लोकतंत्र का कच्चा माल मानने लगती हैं . उनकी नज़र में किसान का काम केवल वोट देना रह जाता है और अन्नदाता बने रहने का कर्तव्य निभाना होता है . अपनी मेहनत की कीमत जब भी किसान  मांगेगा वह स्वार्थी साबित कर दिया जाएगा . अभी तो बीजेपी की सरकार  है. पूंजीवादी अर्थशास्त्र की समर्थक बीजेपी के लिए किसानों की हितैषी होना संभव ही नहीं है क्योंकि पूंजी के बल पर अपनी शक्ति को मज़बूत कर रहे वर्गों के लिए ज़रूरी है कि वे किसान और मजदूर का शोषण करें . उनकी मेहनत का जो सरप्लस होता  है वही तो पूंजीवादी अर्थशास्त्र में उद्यमी का मुनाफ़ा कहलाता है . मुनाफे की पक्षधर जमातें कभी भी गरीब की पक्षधर नहीं हो सकतीं . यह अलग बात है कि मज़बूत  विपक्ष की  गैर मौजूदगी में सत्ताधारी पक्ष के प्रवक्ता लोग हर तीसरे चौथे वाक्य में गरीब शब्द का प्रयोग  करते रहते हैं . इसका मतलब यह नहीं है कि कांग्रेस या सत्ताधारी वर्ग की अन्य पार्टियां किसानों की या गरीबों की भलाई की राजनीति को महत्व देती हैं. अभी कुछ दिन पहले दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल का बयान आया था कि दिल्ली में ठीक से सरकार चलाना इसलिए मुश्किल होता है कि बाहर  के राज्यों के लोग यहाँ आ कर बस जाते हैं. या काम की तलाश में आये उत्तर प्रदेश, बिहार ,मध्य प्रदेश और राजस्थान के लोग दिल्ली की व्यवस्था को गड़बड़ा देते हैं .
जहां तक कांग्रेस की बात है , ग्रीन रिवोल्यूशन के बाद कांग्रेस ने कोई ऐसा काम नहीं किया है जिससे किसानों की इज्ज़त और उनकी कमाई में  वृद्धि हो. बीजेपी की सरकार तो साढ़े चार साल पहले आई  है ,उसके पहले दस साल तक देश में कांग्रेस की अगुवाई वाली सरकार थी . उस सरकार के गृहमंत्री पी चिदम्बरम ने तो कई बार दिल्ली में बाहर से आने वाले और मजदूरी तलाशने वाले लोगों को दिल्ली के बढ़ते अपराध के आंकड़ों के लिए ज़िम्मेदार बता दिया था . दिसम्बर २०१० में एक बार नई दिल्ली नगर परिषद के सिटी सेंटर का उद्घाटन करने आये तत्कालीन गृह मंत्री पी चिदंबरम ने  यह बातें जोर देकर कही थीं और  उसकी विधिवत व्याख्या की थी . उन्होंने दावा किया कि दिल्ली में बहुत बड़ी संख्या में अनधिकृत कालोनियां हैं .बाहर से आकर जो लोग इन कालोनियों में रहते हैं . उनका आचरण एक आधुनिक शहर में रहने वालों को मंज़ूर नहीं है और इसकी वजह सी अपराध में वृद्धि होती है . बाद में राजनीतिक कारणों से चिदंबरम को यह बयान वापस लेना पड़ा था लेकिन उनके बयान ने शासक वर्गों की नकारात्मक सोच की पोल तो खोल ही दी थी .

दिल्ली में सत्ता के गलियारों में विराजने वाले लोग ऐसे ही सोचते हैं . इसी सोच का नतीजा है कि दिल्ली में चौधरी चरण सिंह की समाधि तक आ आ रहे किसानों को रोकने का ज़िम्मा पुलिस को दिया गया क्योंकि दिल्ली के आकाओं को शक था कि जो लोग गाँव से आ रहे हैं और किसान हैं , वे अपराधी भी होंगे.इन लोगों की यह सोच खोटी है .शासकों  को इस बात से कोई मतलब नहीं है कि दिल्ली वास्तव में बाहर से आये हुए लोगों का शहर है . कुछ लोग बाद में आये और कुछ लोग पहले आ चुके थे .अगर वे १९५१ की जनगणना की रिपोर्ट पर नज़र डालें तो उन्हें पता लग जाएगा कि उस साल दिल्ली की आबादी चार लाख पैंसठ हज़ार थी जबकि कानपुर की आबादी चार लाख पचहत्तर हज़ार थी . कांग्रेस की औद्योगिक और आर्थिक नीति में कमियों के कारण आज कानपुर शहर उजड़ गया और दिल्ली शहर की आबादी तब से पच्चीस गुना से भी ज्यादा बढ़ गयी. १९५१ में दिल्ली में तीन मिलें थीं जबकि कानपुर में सैकड़ों मिलें थीं और इतना बड़ा औद्योगिक तंत्र था कि उसे मैनचेस्टर ऑफ़  ईस्ट कहते थे. कानपुर में आ कर अपनी रोजी रोटी कमाने के अवसर सूख गए तो लोग दिल्ली आने लगे. गाँवों के विकास के लिए केंद्र और राज्यों की किसी सरकार ने कुछ नहीं किया . आज गाँव में रहने वाला आदमी भरी पूरी खेती के बावजूद भी गरीब ही बना रहने के लिए अभिशप्त है . हद तो यह है कि जब वह सरकार से अपने अधिकारों की मांग करता है तो उसे लाठी ,आंसू गैस और पानी की तोप से मारा जाता है.
खेती से भाग रहे इन्हीं लोगों के कारण बड़े शहरों में गाँव से आया सस्ता मजदूर ठोकर खाता है बड़े शहर की आबादी बढाता है . इसके  लिए देश के गाँवों में विकास की शून्यता ही ज़िम्मेदार है . भारत गाँवों का है . लेकिन गाँवों के विकास के लिए सरकारी नीतियों में बहुत ही तिरस्कार का भाव रहता है .पहली पंचवर्षीय योजना में जो कुछ गाँवों के लिए तय किया गया था , वह भी नहीं पूरा किया जा सका जबकि शहरों के विकास के लिए नित ही नयी योजनायें बनती रहीं . नतीजा यह हुआ कि गाँवों और शहरों के बीच की खाईं लगातार बढ़ती रही. सत्तर के दशक में तो ग्रामीण विकास का ज़िम्मा पूरी तरह से उन लोगों के आर्थिक योगदान के हवाले कर दिया गया तो शहरों में रहते थे और अपने गाँव में मनी आर्डर भेजते थे . गाँवों के आर्थिक विकास के लिए पहली पंच वर्षीय योजना में ब्लाक की स्थापना की गयी और ब्लाक को ही विकास की यूनिट मान लिया गया . यह महात्मा गांधी की सोच से बिलकुल अलग तरह की सोच का नतीजा था . गाँधी जी ने कहा था कि गाँव को विकास की इकाई बनाया जाय और ग्रामीण स्तर पर उपलब्ध संसाधनों को गाँव के विकास में लगाया जाय . उन्होंने अपनी किताब ग्राम स्वराज के हवाले से भारत की आज़ादी के बाद के भारत के विकास के लिए एक विचार प्रस्तुत किया था . उन्हें उम्मीद थी आज़ादी के बाद गाँवों के विकास को प्राथमिकता दी जायेगी . महात्मा जी की इच्छा थी कि पंचायती राज संस्थाओं को इतना मज़बूत कर दिया जाय कि ग्रामीण स्तर पर ही बहुत सारी समस्याओं का हल निकल आये लेकिन ऐसा नहीं हुआ और ब्लाक डेवलपमेंट के खेल में देश के गाँवों के आर्थिक विकास को फंसा दिया गया  . कांग्रेस ने जो दोषपूर्ण विकास का माडल १९५२  में बनाया था , गाँवों में रहने वाला व्यक्ति उसी का शिकार हो रहा है.उत्तर प्रदेश और बिहार के गाँवों में रोज़गार के अवसर बिलकुल नहीं हैं .नेताओं के साथ जुड़कर कुछ युवक ठेकेदारी वगैरह में एडजस्ट हो जाते हैं . बड़ी संख्या में नौजवान लोग मुकामी नेताओं के आस पास मंडराते रहते हैं और उम्मीद लगाए रहते हैं कि शायद कभी न कभी कोई काम हो जाएगा .उनमें न तो हिम्मत की कमी है और न ही उद्यमिता की . सरकारी नीतियों की गड़बड़ी की वजह से उनके पास अवसर की भारी कमी रहती है.और इस अवसर की कमी के लिए गलत राजनीतिक फैसले जिम्मेवार रहते हैं. एक उदाहरण से बात और साफ़ हो जायेगी . जब से ग्रामीण रोज़गार गारंटी योजना के तहत गाँवों में काम शुरू हुआ है उत्तर प्रदेश और बिहार से पंजाब जा कर खेतिहर मजदूर बनने वालों की संख्या में भारी कमी आई है .इसका मतलब यह हुआ कि अगर गाँवों में रोज़गार के नाम पर मजदूरी के अवसर भी मिलें तो नौजवान दिल्ली जैसे बड़े शहरों में आने के बारे में सोचना बंद कर देगें . तकलीफ की बात यह है कि अपना घर बार और परिवार छोड़कर दिल्ली आने वाला नौजवान यहाँ दिल्ली में उन लोगों की ज़बान से अपराध के लिए ज़िम्मेदार ठहराया जाता है जिनकी पार्टी के गलत नीतियों के कारण उसके गाँवों की दुर्दशा हई है .

ध्यान देने की बात यह है कि किसानों के लिए लाल बहादुर शास्त्री की सरकार के बाद किसी ने कुछ नहीं सोचा . किसान अपने तरकीबों के सहारे छोड़ दिया गया और आज किसानी की हालत ऐसी स्थिति में पंहुच गयी है  कि   ज़्यादातर किसान खेती से भागना चाहते हैं . जो  किसानी के काम में लगा हुआ है उसको सरकारें अपमानित करती हैं , उसको केवल वोट देने की मशीन मानती हैं . इन हालात को जल्द से जल्द सुधारना पडेगा वरना देश की बड़ी आबादी सत्ता तंत्र से अलग थलग पड़ सकती है .

मामिला बाबा एक नेकदिल इंसान थे


शेष नारायण सिंह

आज मामिला बाबा की बहुत याद आ रही है , दुबले पतले ,सांवला रंग, मुंह में एक भी दांत नहीं, हमेशा सफ़ेद धोती बनियान पहने मामिला बाबा भलमनसी की  मूर्ति थे. मेरे बाबू उनको मामिला काका कहते थे . वे उन भाग्यशाली लोगों में से थे जिनके पिता सौ साल तक जीते हैं . जब उनके पिता की मृत्यु हुयी तो वे करीब सत्तर साल के थे . उनका असली नाम मामिला नहीं था. उनके पिता जी को भी गाँव में सभी चश्मा बाबा कहते थे .उनका नाम भी चश्मा बाबा नहीं था. चश्मा लगाते थे इसलिए चश्मा बाबा हो गए .मामिला बाबा भी हर समस्या में धीरज से रहते थे और सही सलाह देते थे इसलिए उनका नाम मामिला हो गया .  मामिला बाबा को मैं अपने शुभचिंतक के रूप में ही याद रखता हूँ. बचपन में जब उनके परिवार के दबंग बच्चे मेरी पिटाई कर देते थे तो मैं रोते हुए अपने घर शिकायत करने नहीं आता था . डर रहता था कि कहीं  घर वाले उन लोगों के साथ खेलने से ही मना न कर दें.  पिटने के तुरंत बाद मैं मामिला बाबा के पास पंहुच जाता था और  मुझे पीटने वाले उनके बच्चे डांट खा जाते थे . केस ख़त्म . उन्हों एकाध बार मुझसे कहा कि  तुम भी जवाब में पीट दिया करो. मैंने उनकी सलाह सर आँखों पर ली और उसके अमल के बाद मेरी पिटाई नहीं हुयी. मैं भी दबंग के रूप में स्वीकार कर लिया गया . उनके छोटे भाई का नाम पौदरिहा  था. वैसे उनका नाम भी कुछ और था लेकिन वे भी  नामभ्रंश के शिकार थे . उनके साथ तो यह हुआ था कि एक बार वे गाँव की किसी बारात में गये थे. शादियाँ गर्मियों में ही होती थीं.  वहां जनवासे में वे एक कुएं की पौदर के पास खटिया डालकर दुपहरिया नेवार  रहे थे .  घराती लोग जब कुछ नाश्ता पानी लाते  थे तो  आपस में बात करते थे कि अरे भाई पौदरिहा को भी कुछ खिलाओ पिलाओ . बस उसी बारात से लौट कर उनके हम उम्र और छोटे मर्दों ने उनको इस नाम से संबोधित करना शुरू कर दिया . उनके एक चचेरे भाई थे . वे सन  १९१० में यू पी पुलिस में कांस्टेबिल के रूप में भर्ती हो गए थे . उनका नाम पूरे गाँव और पवस्त में टिबिल सिंह ही हो गया था. नेवता हंकारी सब इसी नाम से आता  था . हालांकि ज़मीन के रिकार्ड में उनका सरकारी नाम लिखा था.
आज पीछे मुडकर देखता हूँ तो लगता है कि बहुत सारे ऐसे लोग थे जिनके नाम उनके जन्म के समय कुछ थे लेकिन लोक व्यवहार में उनके व्यक्तित्व  या उनके काम के हवाले से नया नाम दे दिया जाता था. इसके बहुत सारे कारण रहे होंगें लेकिन एक कारण तो यही था कि गाँव में आने वाली दुलहिनें किसी भी  उम्रदराज़ मर्द का नाम नहीं
ले सकती थीं. किसी बच्चे के बाबा  या काका कहकर काम चलाने का रिवाज़ था . ज़्यादातर लोग खेती के काम में ही रहते थे लेकिन अगर कोई कुछ और काम करने लगता था तो उसके काम से जोड़कर उनका नाम रख दिया जाता था . बहुत  सारे लोगों को तो मालूम ही नहीं होता था कि उनका कोई नया नाम रख दिया गया है. मसलन जिनको मेरी माई पलटनिहां कहती थीं वे  फौज में भर्ती हो  गए थे . एक ठाकुर साहब का नाम दर्जी भी था. मेरी मौसी के गाँव में घोड़हा भी थे तो सैकिलिहा भी . यानी जिनके पास घोडा था वे घोड़हा और साइकिल वाले सैकिलिहा .
बहरहाल मामिला बाबा ने कभी किसी को तकलीफ नहीं  पंहुचाई . उनके पिता चश्मा बाबा के जीवन काल में ही उनके कई लड़के सरकारी नौकरियों में इज्ज़त का मुकाम हासिल कर चुके थे . खेती बारी तो ज्यादा  नहीं थी लेकिन उनके जीवनकाल में उनका परिवार गाँव के संपन्न परिवारों में गिना जाता था .  उनकी मृत्यु के बाद तो उनके सभी बेटे अपनी अपनी राह चल पड़े. उनके दूसरे बेटे ने ही हमारे इलाके में सबसे पहले  केमिस्ट्री में एम एस सी किया , पी एच डी किया और टी डी कालेज जौनपुर में लेक्चरर बने. उन्होंने ही मुझे  अंगेजी वर्णमाला का ज्ञान गर्मी की छुट्टियों में  कराया था. पढ़ाई पूरी करके ,बाद  में जब मैं लेक्चरर पद के लिए उम्मीदवार बना तो मुझे लेकर गोरखपुर विश्वविद्यालय गए और  सहारा दिया .. जब मैं लेक्चरर की नौकरी पा गया तो मामिला बाबा ने मुझे गले से लगाकर आशीर्वाद दिया था . उनकी याद इसलिए भी आती रहती  है कि गाँव की भलमनसी की ज़िंदगी के वे शलाकापुरुष थे , उनके जाने के बाद हमारा गाँव बिखरना शुरू हुआ तो आज तो ज्यादातर लोग पड़ोसी की तरक्की से परसंताप करते हैं और तकलीफ में रहते हैं

Tuesday, October 2, 2018

काश जवाहरलाल नेहरू ने महात्मा गांधी की वह बात भी मान ली होती.


शेष नारायण सिंह

२ अक्टूबर महात्मा गाँधी का जन्मदिन तो है हीलाल बहादुर शास्त्री का जन्मदिन भी है .  महात्मा गांधी ने कहा था कि भारत के आज़ाद होने के बाद यहाँ ग्राम स्वराज   आयेगा . देश को विकसित करने के लिए गांव को विकास की इकाई बनाया जाएगा और गाँवों की सम्पन्नता ही देश की सम्पन्नता की यूनिट बनेगी . जवाहरलाल नेहरू गांधी जी की हर बात को मानते थे लेकिन पता नहीं क्यों उन्होंने गांधी के विकास के दर्शन की इस बुनियाद बात को लागू नहीं किया . उन्होंने सोवियत रूस में प्रचलित ब्लाक डेवेलपमेंट के माडल को अपनाया . और उसी को बुनियाद बनाकर ग्रामीण विकास के लिए साम्युदायिक विकास की बहुत बड़ी योजना को लागू कर दिया . महात्मा गांधी के जन्मदिन के अवसर पर १९५२ में भारत में कम्युनिटी डेवलपमेंट प्रोग्राम शुरू किया गया . आज़ादी के बाद देश में आर्थिक और सामाजिक परिवर्तन लाने के लिए शुरू किये गए कार्यक्रमों में यह बहुत ही महत्वपूर्ण कार्यक्रम था . लेकिन यह असफल रहा ,अपने लक्ष्य को हासिल नहीं कर सका.इस कार्यक्रम के असफल होने के कारणों की पडताल शायद महात्मा जी के प्रति सच्ची श्रध्हांजलि होगी क्योंकि इस कार्यक्रम को शुरू करते वक़्त लगभग हर मंच से सरकार ने यह दावा किया था कि कम्युनिटी डेवलपमेंट प्रोग्राम के ज़रिये महात्मा गान्धी के सपनों के भारत को एक वाताविकता में बदला जा सकता है. मौजूदा सरकार भी महात्मा  गांधी के नाम पर कई कार्यक्रम चला रही है . उनके जन्म से डेढ़ सौ साल पूरे होने पर तरह तरह के कार्यक्रम होने जा रहे हैं . लेकिन यह देखना दिलचस्प होगा कि भारत के गाँवों को खुशहाल देखने के महात्मा गांधी के सपने को क्या इनका कोई कार्यक्रम लागू कर पायेगा .

सामुदायिक विकास वास्तव में एक ऐसी प्रक्रिया है जिस से एक समुदाय के विकास के लिए लोग अपने आपको औपचारिक या अनौपचारिक रूप से संगठित करते हैं.यह विकास की एक सतत प्रक्रिया है.इसकी पहली शर्त ही यही थी कि अपने यहाँ स्थानीय स्तर पर उपलब्ध संसाधनों का इस्तेमाल करके समुदाय का विकास किया जाना था जहां ज़रूरी होता वहां बाहरी संसाधनों के प्रबंध का प्रावधान भी था. कम्युनिटी डेवलपमेंट की परिभाषा में ही यह लिखा है कि सामुदायिक विकास वह तरीका है जिसके ज़रिये गांव के लोग अपनी आर्थिक और सामाजिक दशा में सुधार लाने के लिए संगठित होते हैं . बाद में यही संगठन राष्ट्र के विकास में भी प्रभावी योगदान करते हैं . सामुदायिक विकास की बुनियादी धारणा ही यह है कि अगर लोगों को अपने भविष्य के बारे में निर्णय लेने के अवसर मुहैया कराये जाएँ तो वे किसी भी कार्यक्रम को सफलतापूर्वक चला सकते हैं .

भारत में २ अक्टूबर १९५२ के दिन जब कम्युनिटी डेवलपमेंट प्रोग्राम की शुरुआत की गयी तो सोचा गया था कि इसके रास्ते ही ग्रामीण भारत का समग्र विकास किया जाएगा.इस योजना में खेती,पशुपालन,लघु सिंचाई,सहकारिता,शिक्षा,ग्रामीण उद्योग अदि शामिल था जिसमें सुधार के बाद भारत में ग्रामीण जीवन की हालात में क्रांतिकारी परिवर्तन आ सकता था.कम्युनिटी डेवलपमेंट प्रोग्राम को लागू करने के लिए बाकायदा एक अमलातंत्र बनाया गया . जिला और ब्लाक स्तर पर सरकारी अधिकारी तैनात किये गए लेकिन कार्यक्रम से वह नहीं हासिल हो सका जो तय किया गया था. इस तरह महात्मा गांधी के सपनों के भारत के निर्माण के लिए सरकारी तौर पर जो पहली कोशिश की गयी थी वह भी बेकार साबित हुई . ठीक उसी तरह जिस तरह गांधीवादी दर्शन की हर कड़ी को अन्धाधुन्ध औद्योगीकरण और पूंजी के केंद्रीकरण के सहारे तबाह किया गया . कांग्रेस ने कभी भी गांधीवाद को इस देश में राजकाज का दर्शनशास्त्र नहीं बनने दिया . ग्रामीण भारत में नगरीकरण के तरह तरह के प्रयोग हुए और आज भारत तबाह गाँवों का एक देश है .देश के कई हिस्सों में तो ऐसे हांव हैं जहाँ जिउ नहीं रहता .  उत्तराखंड में इस तरह के गाँव सबसे ज़्यादा हैं . 

यह देखना दिलचस्प होगा कि इतनी बड़ी और महत्वाकांक्षी परियोजना को इस देश के हर दौर के हुक्मरानों ने कैसे बर्बाद किया .यहाँ यह ध्यान में रखना होगा कि उस योजना को तबाह करने वालों में जवाहरलाल नेहरू भी एक थे. उनके दिमाग में भी यह बात समा गयी थी कि भारत का ऐसा विकास होना चाहिये जिसके बाद भारत के गाँव भी शहर जैसे दिखने लगें . वे गाँवों में शहरों जैसी सुविधाओं को उपलब्ध कराने के चक्कर में थे .उन्होंने उसके लिए सोवियत रूस में चुने गए माडल को विकास का पैमाना बनाया और हम एक राष्ट्र के रूप में बड़े शहरों मलिन बस्तियों और उजड़े गाँवों का देश बन गए . कम्युनिटी डेवलपमेंट प्रोग्राम को शुरू करने वालों ने सोचा था कि इस कार्यक्रम के लागू होने के बाद खेतोंघरों और सामूहिक रूप से गाँव में बदलाव आयेगा . कृषि उत्पादन और रहन सहन के सत्र में बदलाव् आयेगा . गाँव में रहने वाले पुरुष ,स्त्री और नौजवानों की सोच में बदलाव लाना भी कम्युनिटी डेवलपमेंट प्रोग्राम का एक उद्देश्य था लेकिन कहीं कुछ नहीं हुआ. सरकारी स्तर पर ग्रामीण विकास के लिए जो लोग तैनात किये गए उनके मन में सरकारी नौकरी का भाव ज्यादा था इलाके या गांव के विकास को उन्होंने कभी प्राथमिकता नहीं दिया . ब्रिटिश ज़माने की नज़राने और रिश्वत की परम्परा को इन सरकारी कर्मचारियों ने खूब विकसित किया. पंचायत स्तर पर कोई भी ग्रामीण लीडरशिप डेवलप नहीं हो पायी. अगर विकास हुआ तो सिर्फ ऐसे लोगों का जो इन सरकारी कर्मचारियों के दलाल के रूप में काम करते रहे. इसी बुनियादी गलती के कारण ही आज जो भी स्कीमें ग्रामीण रोज़गार गारंटी योजना के अंतर्गत गाँवों में भेजी जाती हैं उनका लगभग सारा पैसा इन्हीं दलालों के रास्ते सरकारी अफसरों और नेताओं के पास पंहुच जाता है .
२ अक्टूबर १९५२ को शुरू किया गया यह कार्यक्रम आज पूरी तरह से नाकाम साबित हो चुका है . इसके कारण बहुत से हैं . सामुदायिक विकास कार्यक्रम के नाम पर पूरे देश में नौकरशाही का एक बहुत बड़ा वर्ग तैयार हो गया है लेकिन उस नौकरशाही ने सरकारी नौकरी को ही विकास का सबसे बड़ा साधन मान लिया .शायद ऐसा इसलिए हुआ कि विकास के काम में लगे हुए लोग रिज़ल्ट दिखाने के चक्कर में ज्यादा रहने लगे. सच्चाई यह है कि ग्रामीण विकास का काम ऐसा है जिसमें नतीजे हासिल करने के लिए किया जाने वाला प्रयास ही सबसे अहम प्रक्रिया है . सरकारी बाबुओं ने उस प्रक्रिया को मार दिया .उसी प्रक्रिया के दौरान तो गाँव के स्तर पर सही अर्थों में लीडरशिप का विकास होता लेकिन सरकारी कर्मचारियों ने ग्रामीण लीडरशिप को मुखबिर या दलाल से ज्यादा रुतबा कभी नहीं हासिल करने दिया .सामुदायिक विकास के बुनियादी सिद्धांत में ही लिखा है कि समुदाय के लोग अपने विकास के लिए खुद ही प्रयास करेगें .उस काम में लगे हुए सरकारी कर्मचारियों का रोल केवल ग्रामीण विकास के लिए माहौल बनाना भर था लेकिन वास्तव में ऐसा कहीं नहीं हुआ . कम्युनिटी डेवलपमेंट प्रोग्राम के बुनियादी कार्यक्रम के लिए बनायी गयी सुविधाओं और नौकरशाही के जिम्मे अब लगभग सभी विकास कार्यक्रम लाद दिए गए गए हैं लेकिन विकास नज़र नहीं आता.सबसे ताज़ा उदाहरण महात्मा गाँधी के नाम पर शुरू किये गए मनरेगा कार्यक्रम की कहानी है . बड़े ऊंचे उद्देश्य के साथ शुरू किया गया यह कार्यक्र आज ग्राम प्रधान से लेकर कलेक्टर तक को रिश्वत की एक गिज़ा उपलब्ध कराने से ज्यादा कुछ नहीं बन पाया है . इसलिए आज महात्मा गाँधी के जन्म दिवस के अवसर पर उनके सपनों का भारत बनाने के लिए शुरू किये गए जवाहर लाल नेहरू के प्रिय कार्यक्रम की दुर्दशा का ज़िक्र कर लेना उचित जान पड़ता है और मौजूदा हुक्मरानों को आगाह कर देने की भी ज़रूरत है कि अंधाधुंध  शहरीकरण के चक्कर में कहीं हम अपने देश के गाँवों को तबाह न कर दें .

Saturday, September 29, 2018

उत्तर प्रदेश पुलिस ने एक बेगुनाह को सरे राह क़त्ल कर दिया .





शेष नारायण सिंह

उत्तर प्रदेश के सुलतानपुर जिले के रहने वाले,विवेक तिवारी को उत्तर प्रदेश पुलिस के एक कांस्टेबल  ने गोली मार दी और उनकी मौत  हो गयी. विवेक २८-२९ की रात में अपने दफ्तर में काम करने वाली एक महिला के साथ लखनऊ के गोमतीनगर में कार से जा रहे थे .पुलिस ने दावा किया है कि कांस्टेबल ने उनको रोकने की कोशिश की ,वे रुके  नहीं और पुलिस ने आत्मरक्षा में गोली मार दी.  जब बहुत ही चर्चा हो गयी तो राज्य के मुख्यमंत्री योगी आदित्य नाथ ने कहा कि यह घटना एनकाउंटर नहीं है। अगर जरुरत पड़ी को तो इस घटना की सीबीआई जांच होगी। उन्होंने कहा कि प्रथम दृष्टया जो दोषी थे वो गिरफ्तार हो चुके हैं। मुख्यमंत्री के इस बयान के पहले उत्तर प्रदेश पुलिस के सभी आला अधिकारी  उस कांस्टेबल के काम को सही ठहरा रहे थे जिसने विवेक तिवारी की ह्त्या की . एक बड़े अखबार को राज्य के पुलिस महानिदेशक ने बताया कि ," लखनऊ में कल रात एक घटना हुई है। उस घटना में विवेक तिवारी नाम के व्यक्ति की मौत हुई है। विवेक तिवारी के साथ उनकी एक महिला अधिकारी भी थी। दोनों एक ही कंपनी में काम करते थे। एक जगह जब गाड़ी खड़ी थी तो यूपी पुलिस के दो सिपाही चेतक पर खड़े थे, उन्होंने गाड़ी को इंटरसेप्ट किया और कहा कि गाड़ी से बाहर आइए उन्होंने गाड़ी से निकलने की मना कर दिया और गाड़ी को चेतक पर चढ़ाने की कोशिश की ।" एक अन्य पुलिस अधिकारी ने विवेक के साथ महिला की मौजूदगी को विवेक तिवारी के चरित्रहनन के लिए भी प्रयोग कर दिया लेकिन जब मुख्यमंत्री का बयान आ गया तो सब बदल गया . जिस एडीजी ने चरित्रहनन की कोशिश की थी उसने साफ़ कह दिया कि ऐसी कोई बात नहीं थी .पुलिस महानिदेशक ने कहा की," पुलिस कांस्टेबल ने जो किया है वह अपराध है. हत्या का मुक़दमा कायम कर लिया गया है और अब तो सिपाहियों को बर्खास्त भी कर दिया गया  है . उनके ऊपर बाकायदा दफा ३०२ के तहत केस चलेगा. " जो पुलिस आलाकमान अब तक पुलिस के सेल्फ डिफेन्स की कहानी बता रही थी अब वही कह रही है कि सेल्फ डिफेन्स में ह्त्या करने का अधिकार पुलिस को नहीं मिल जाता ." लेकिन यह सब तब हुआ जब मुख्यमंत्री ने कडा रुख अपनाया और सी बी आई जाँच की संभावना की बात कर दी .  

पुलिस ने लीपापोती की सारी तैयारी कर ली थी. विवेक तिवारी के साथ कार में जो लडकी थी उसको अपने कब्जे में कर रखा था. बाद में मीडिया को उस लडकी ने बताया कि विवेक को पुलिस ने गोली मारी लेकिन एफ आई आर में जो लिखवा गया वह  अलग है. एफ आई आर में लिखा है कि उसने गोली चलने की आवाज़  सुनी उसके बाद कार  कंट्रोल के बाहर हो गयी और टकरा गयी . विवेक के सर से बहुत खून निकला . लेकिन मीडिया और पूरे सोशल मीडिया में हल्ला मच जाने के बाद अब सब कुछ बदल गया है . लगता  है कि पुलिस की आबरू बचाने के लिए उन दो पुलिस कार्मियों की कुर्बानी पेश कर दी गयी है . दोनों बर्खास्त कर दिए गए हैं और सबसे छोटे पद पर हैं इसलिए उनकी बहाली की परवाह किसी को नहीं  रहेगी लेकिन बुनियादी सवाल पर बहस  टालने की  कोशिश शुरू हो गयी है . जिस पुलिस वाले ने विवेक तिवारी की ह्त्या की उसके साथी पुलिस वाले उसको बहुत ही सम्मान के साथ  मीडिया के सामने लाये और  उसका बयान करवाया . उसने कहा कि उसने  आत्मरक्षा में गोली चलाई जिससे मकतूल की मौत हो गयी .  एफ आई आर तो कमज़ोर कर ही दी गयी है और अब अगर पुलिस का यही  रवैया रहा तो इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि पुलिस के हत्यारे सिपाही को बाइज्ज़त बरी करा लिया दिया जाएगा .
बुनियादी सवाल यह  है कि पुलिस में बन्दूक की संस्कृति क्यों शुरू हुयी और उसका अंत कहाँ होगा. उत्तर प्रदेश पुलिस में मेरे एक एक बालसखा बहुत बड़े अधिकारी पद से रिटायर  हुए . वे कहा करते थे कि  उत्तर प्रदेश पुलिस के थानेदार से वे डर कर रहते थे  क्योंकि बाद में तो उसके खिलाफ सख्त से सख्त एक्शन लिया जा सकता  है लेकिन मौके पर  वह किसी की भी सेवा लाठियों से कर सकता है लेकिन यह बीस साल पहले की बात है . अब तो दरोगा  की बात छोड़िये , पुलिस का कांस्टेबल किसी को भी  लाठी नहीं गोली मार सकता है . उत्तर प्रदेश पुलिस में आई जी पद से रिटायर हुए विजय शंकर सिंह ने  लिखा है  कि इनकाउंटर की जो परिपाटी शुरू हुयी है वह बहुत  ही खतरनाक है .वे कहते  हैं कि पुलिस की शब्दावली में एक नया शब्द, एनकाउंटर स्पेशलिस्ट ,जुड़ गया  है. कुछ मुठभेड़ों की वास्तविकता जानने के बाद, यह शब्द हत्या का अपराध करने की मानसिकता का पर्याय बन गया है। अगर सभी मुठभेड़ों की जांच सीआईडी से हो जाय तो बहुत कम पुलिस मुठभेड़ें कानूनन और सत्य साबित होंगी अन्यथा अधिकतर मुठभेड़ें हत्या में तब्दील हों जाएंगी और जो भी पुलिस कर्मी इनमें लिप्त होंगे वे जेल में हत्या के अपराध में या तो सज़ा काट रहे होंगे या अदालतों में बहैसियत मुल्ज़िम ट्रायल झेल रहे होंगे । जब पुलिस के एसआई, इंस्पेक्टर ऐसी मुठभेड़ों में जेल में होते हैं तो उनकी पीठ थपथपाने वाले अफसर और उनकी विरुदावली गाने वाले चौराहे के अड्डेबाज़ नेता, इनमें से एक भी मदद करने सामने नहीं आता है। पुलिस का काम हत्या रोकना है, हत्यारे को पकड़ना है, सुबूत इकट्ठा कर अदालत में देना है, न कि फ़र्ज़ी कहानी गढ़ कर के किसी को गोली मार देना है। "

देश और समाज का दुर्भाग्य है कि आज  पुलिस का यह  गन कल्चर एक सच्चाई बन चुका है . सरकारों ने अगर फ़ौरन इस पर काबू नहीं पा लिया तो देश की स्थिति बन्दूक की संस्कृति की गुलाम बन जायेगी और कोई भी  सुरक्षित नहीं  बचेगा . उत्तर प्रदेश में मुठभेड़ को स्वीकृति प्रदान करके सरकार ने  बहुत बड़ी गलती की है . उस गलती को अगर फौरान दुरुस्त न किया गया तो बहुत देर हो जायेगी .

Thursday, September 27, 2018

अमरीकी जिद के चलते पेट्रोल और महंगा हो सकता है




शेष नारायण सिंह  


जब इंदिरा गांधी देश की प्रधानमंत्री थीं तो अपनी हर असफलता के लिए विदेशी हाथ को ज़िम्मेदार ठहरा देती थीं और संसद में बहुत  सक्षम  सदस्य उनकी खिल्ली उड़ाया करते थे . उसी तर्ज़ पर अमरीकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने भी दावा किया है कि उनकी राष्ट्रपति का चुनाव दोबारा लड़ने और जीतने की इच्छा है लेकिन चीन नहीं चाहता कि वे दोबारा अमरीका के राष्ट्रपति का चुनाव जीतें . यह प्रलाप श्री ट्रंप ने किसी चंडूखाने में नहीं, संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद् के एक सत्र में कही. यानी डोनाल्ड ट्रंप वास्तव में विश्वास करते हैं कि चीन उनको हराना चाहता है . अपने इस बयान के एक दिन पहले ही डोनाल्ड ट्रंप ने संयुक्त राष्ट्र की महासभा में  भाषण दिया था और कहा था कि इरान एक ऐसा देश है जो अराजकतामौत और तबाही के बीज बोता रहता है . अपने भाषण में उन्होंने पेट्रोलियम निर्यातक देशों के संगठन,OPEC की भी निंदा की थी . उसी भाषण में उन्होंने भारत की बहुत तारीफ़ की थी और कहा था कि भारत एक स्वतंत्र समाज है और वहां की सरकार  लाखों लोगों को  ग़रीबी से बाहर निकालकर मध्यवर्ग में शामिल करने के लिए काम कर रही है .  भारत के प्रति उनकी इस मुहब्बत का कारण शायद यह है कि इरान पर दोबारा पाबंदी लगाने के उनके तुगलकी फरमान को लागू करने में भारत उनको सहयोग करने वाला  है . अमरीकी राष्ट्रपति की योजना है कि अगर ईरान उनकी बात नहीं मानता तो उसकी  अर्थव्यवस्था को तबाह कर देगें . उन्होंने दुनिया भर के देशों को हिदयात दे रखी है कि नवम्बर के महीने ईरान से पेट्रोलियम पदार्थों और कच्चे तेल की खरीदारी दुनिया का कोई देश न करे . अमरीका के करीबी सहयोगी देश जापान और दक्षिण कोरिया तो पहले ही कह चुके हैं कि वे अमरीकी पाबंदी के बाद इरान से कच्चा तेल नहीं लेगें लेकिन भारत के बारे में कहा जा रहा था कि  वह ईरान से कच्चा तेल खरीदता रहेगा क्योंकि भारत में कुछ ऐसी रिफाइनरी हैं जो केवल इरानी तेल के लिए ही उपयुक्त हैं लेकिन लगता है कि भारत भी अमरीका और उसके राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के दबाव में आ गया है . और शायद  इसीलिये  डोनाल्ड ट्रंप ने संयुक्त राष्ट्र के सार्वजनिक मंच से भारत की तारीफ की . भारत में कच्चा तेल आयात करने वाली मुख्य कम्पनियां इन्डियन आयल और  भारत पेट्रोलियम  हैं. खबर है कि इन दोनों ही कंपनियों ने किसी भी मालवाहक कंपनी को नवम्बर में इरान से तेल लाने का ठेका नहीं दिया है .मंगलौर रिफाइनरी ने भी नवम्बर के लिए इरान से  ढुलाई की कोई योजना नहीं बनाई है   . ईरान से नवम्बर की खरीद के लिए आर्डर फाइनल करने के लिए अभी करीब दो हफ्ते का समय  है लेकिन आम तौर पर आख़िरी तारिख का इंतज़ार किये बिना तेल शोधक कम्पनियां अपने आर्डर फाइनल करती रही हैं . अगर भारत ने ट्रंप की बात मान ली तो ईरान के तेल निर्यात पर  बहुत ही उलटा सारा पडेगा क्योंकि इरान की प्रतिदिन की बिक्री दस लाख बैरेल से भी कम हो जायेगी. अगर इरान से आने वाला क्रूड अंतर्राष्ट्रीय  बाज़ार से गायब हो गया तो ब्रेंट क्रूड का दाम बहुत तेज़ी से बढेगा . आशंका है कि वह अस्सी डालर प्रति बैरल के मौजूदा रेट को जल्दी ही पार कर जाएगा .अगर ऐसा हुआ तो दुनिया की तेल कम्पनियां साउदी अरब संयुक्त अरब अमीरात और रूस पर लगभग पूरी तरह से निर्भर हो जायेंगीं .यह भारत की अर्थव्यवस्था के लिए बहुत अच्छा संकेत नहीं है .

ब्लूमबर्ग के टैंकर आंकड़ों के अनुसार भारत इरानी खनिज तेल का दूसरा सबसे महत्वपूर्ण आयातक है . इस साल  भारत का प्रतिदिन का इरानी आयात का औसत 577,000 बैरल का है . अभी तक इरान को उम्मीद थी कि चीन और भारत अमरीकी ब्लैकमेल में नहीं आयेंगें लेकिन भारत के कमज़ोर पड़ने की वजह से इरान पर ज़बरदस्त असर  पड़ने वाला  है . अभी चार महीने पहले भारत की विदेश मंत्री ने भरोसा दिया था कि इरान से तेल की खरीद जारी रहेगी और भारत किसी भी दबाव में नहीं आने वाला  है . लेकिन नए घटनाक्रम को देखकर लगता है कि विदेशमंत्री का बयान  राजनयिक वार्ता की बारीकी का एक नमूना मात्र था .  अमरीकी अखबार न्यू यार्क टाइम्स की खबर है कि जब करीब तीन महीने पहले अमरीकी राष्ट्रपति ने ईरान के खिलाफ पाबंदियों का ऐलान किया था तो  उन्होंने  दावा किया था कि ईरान को  इसलिए सज़ा देने की योजना बनाई गयी है कि उसकी सीरिया उर यमन में  कथित दखलन्दाजी से डोनाल्ड ट्रंप परेशान हैं . लेकिन  उनकी इस जिद का खामियाजा दुनिया की  अर्थव्यवस्था को भोगना पड़ सकता है .अगर वे अपने मंसूबे में सफल हुए तो  पेट्रोल की कीमतें बहुत बढ़ जायेंगी और अमरीकी अर्थव्यवस्था को बहुत नुक्सान पंहुचेगा .  अगर उनकी योजना सफल न हुयी और पेट्रोलियम कम्पनियां  इरान से क्रूड आयल खरीदती रहीं तो इरान  का कुछ नहीं बिगड़ेगा और यह भी संभावना है कि  पूर्व  राष्ट्रपति बराक ओबामा से समझौते के अनुसार जिस  परमाणु कार्यक्रम को ईरान ने रोक दिया था ,उसको फिर से शुरू कर दे. अगर ऐसा हुआ तो   अपनी सख्त   छवि का प्रचार करके चुनाव जीतने की कोशिश कर रहे ट्रंप को लेने के देने पड़ जायेंगें . सही बात यह  है कि अमरीका अब कच्चे तेल का निर्यातक देश है इसलिए अमरीकी  राष्ट्रपति के जिद्दी और अड़ियल रुख के कारण ज़्यादा नुकसान उन देशों का होगा  जिनके अमरीका से अच्छे सम्बन्ध हैं और जो   डोनाल्ड  ट्रंप के दबाव में ईरान से तेल लेना बंद करके अपनी अर्थव्यवस्था को संतुलित   बनाये रखने की कोशिश करेंगें .
अमरीकी पाबंदियों के कारण ईरान को भी भारी नुक्सान होने वाला है . अभी पन्द्रह बीस साल पहले ईरान की हैसियत यह थी कि वह अपने क्रूड आयल की कीमतों में उतार चढ़ाव करके यूरोप और एशिया के देशों की बांह उमेठ सकता था लेकिन अब वह बात नहीं  है . टेक्नालोजी के विकास की दौड़ में ईरान बहुत पीछे रह गया है . अब ईरान का वह स्वर्ण युग ख़त्म हो चुका है .  इस बीच अमरीका तो क्रूड का  निर्यातक हो ही गया है, कनाडा और ब्राजील भी अब कच्चे तेल के निर्यातक देश बन गए हैं. रूस, साउदी अरब और  खाड़ी के उसके सहयोगी अपना अपना उत्पादन बढ़ा कर ईरान के तेल की कमी से होने वाली मूल्यवृद्धि को संतुलित करने का प्रयास करेंगे . साउदी अरब  और उसके मित्र देश तो ईरान पर प्रतिबन्ध  लगने से खुशी मना रहे हैं और अपनी निर्यात क्षमता बढ़ाकर तेल की कमी को पूरा करने की तैयारी में जुट गए हैं . दक्षिण कोरिया ने ईरान से खरीद बंद करने की अपनी योजना को सार्वजनिक कर दिया है. फ्रांस, जापान ,स्पेन, यूनान और इटली ने भी ईरान से कारोबार न करने का मन बना लिया है .   फाउंडेशन फार डिफेंस आफ डेमोक्रेसीज़ नाम के अमरीकी संगठन ने दावा किया है कि  पेट्रोलियम का कारोबार करने वाली ७१ विदेशी कंपनियों ने ईरान से व्यापार बंद करने के फैसला कर लिया है  जबकि १४२ कम्पनियां अभी दुविधा में हैं . अगर यह भी  अलग हो गयीं तो ईरान को भारी नुक्सान होगा .
ऐसा लगता है कि ईरान पर पाबंदी लगने पर अमरीकी अर्थव्यवस्था में पेट्रोलियम पदार्थों की कमी तो नहीं पड़ेगी लेकिन भारत जैसे देशों को बड़ा नुक्सान होगा. जहाँ तक भारत का सवाल है .यहाँ चुनावी साल है और पेट्रोल और डीज़ल की बढ़ती कीमतें चुनावी मुद्दा बन चुकी हैं . ऐसी स्थिति में अगर ईरान से आपूर्ति रुकी तो अमरीका के सहयोगी देशों,साउदी अरब आदि  से तेल की ज़रूरत तो पूरी होगी लेकिन कीमतें निश्चित रूप से बढ़ जायेंगी और उसके  कारण उपभोक्ता परेशान होगा और सरकारी पार्टी के लिए बहुत  ही मुश्किल पेश आयेगी .लेकिन अब यह तय है कि भारत ईरान से तेल लेना बंद करने में संकोच नहीं करेगा . देश की बड़ी तेल शोधक   कंपनी  रिलायंस ने साफ कह दिया है कि जब भी अमरीकी प्रतिबन्ध  लागू  होंगे वह ईरान से क्रूड लेना बंद कर देगा और स्टेट बैंक  का कहना है कि प्रतिबंध लागू होने के बाद ईरान से  आने वाले सामान का भुगतान नहीं किया जाएगा  .  
एक दूसरी संभावना भी है और वह यह कि अमरीकी  पाबंदी से ईरान की अर्थव्यवस्था तबाह नहीं तो नहीं होगी लेकिन  चीन पर उसकी निर्भरता बहुत बढ़ जायेगी .सबको मालूम है कि चीन पर किसी भी अमरीकी धौंस का असर नहीं पडेगा  . यह भी हो सकता है कि अमरीकी दबाव में जो कम्पनियां ईरान से कारोबार करना बंद करें उस काम को  चीन और रूस की कंपनियां पकड़ लें  और डोनाल्ड ट्रंप के चक्कर में ईरान का तो कुछ न बिगड़े लेकिन अमरीका और उसके  सहयोगियों को भारी नुक्सान हो जाए  .ईरान के राष्ट्रपति हसन रूहानी ने दावा किया है कि क्रूड के निर्यात का उनके देश का काम    रोका नहीं जायेगा, वह जारी रहेगा .. चीन ईरान से रोज़ ही पांच लाख बैरल क्रूड का आयात करता है .वह और भी बढ़ सकता है . अमरीकी जिद के चलते फ्रांस की कमपनियों ने कुछ ईरानी तेल क्षेत्रों को छोड़ दिया है नतीजा यह हुआ कि  चीन की कंपनी CNPC ने वह काम ले लिया है .  यह ट्रेंड जारी रह सकता है. चीन और रूस मिलकर अमरीका को मनमानी करने से रोक तो सकते हैं लेकिन अमरीका  के मित्र देशों की अर्थव्यवस्था को नुक्सान होने से कोई नहीं बचा सकता .

Friday, September 21, 2018

उत्तराखंड के वीरान गाँवों को फिर से आबाद करने की अनूठी पहल


शेष नारायण सिंह

राज्य सभा में इस साल पत्रकार अनिल बलूनी सदस्य के रूप में आये हैं . उन्होंने उत्तराखंड की एक बड़ी समस्या को हल करने का बीड़ा उठाया है . उन्होंने उत्तराखंड के एक घोस्ट विलेज को गोद ले लिया है जहां कोई नहीं रहता,  गाँव की पूरी आबादी अपना घर छोड़कर शहरों में बस चुकी है और गाँव वीरान पडा है . अनिल बलूनी ने एक बयान जारी करके कहा है कि," पलायन रोकने के लिए एक सामाजिक पहल प्रारंभ करते हुए मैंने आज पौड़ी जिले के दूगड्डा विकासखंड के बौरगांव को अंगीकृत किया है। मेरा प्रयास होगा कि गांव को मूलभूत सुविधाओं बिजलीपानीस्वास्थ्यसड़क और रोजगार के विकल्प तलाश कर पूरी तरह निर्जन हो चुके इस गांव को पुनर्जीवित किया जाय।यह एक सामाजिक अभियान हैआइये हम सब मिलकर पलायन के खिलाफ एकजुट होंअपने गांव से जुड़ेंस्वयं मेरे परिवार ने भी वर्षों पूर्व अपना गांव छोड़ दिया थामैं इस पीड़ा को निकट से जानता हूँ।गांव छोड़ना, अपनी जड़ों से अलग होना है अगर हमें अपनी महान संस्कृति को बचाना है तो गांव को बचाना होगा।इस अभियान में आप सबके सहयोग से हम उत्तराखंड के उन वीरान निर्जन गांवों को पुनः आबाद करेंगे और 'घोस्ट विलेजके कलंक से उन्हें उबारेंगे।" उन्होंने कहा कि इस गाँव के  जो लोग दिल्ली के आस पास या अन्य शहरों में रहते हैं उनसे  संपर्क किया जाएगा और उनको अपने गाँव वापस जाकर वहां बसने के लिए तैयार किया जाएगा . उनकी जो भी मांगें होंगी सब को पूरा किया जाएगा .  जब से गाँव को गोद लेने की प्रथा शुरू हुई है , यह पहला ऐसा  मौक़ा है जब किसी सांसद ने एक वीरान गाँव को गोद ले लिया हो .
मैं  आम तौर पर नेताओं के बयानों को गंभीरता से नहीं लेता लेकिन अनिल के बयान पर मुझे भरोसा है . पिछले पचीस वर्षों के अपने परिचय के दौरान मैंने देखा है कि वे  वही कहते हैं , जो कर सकते हैं . उम्मीद की जानी चाहिए कि  उत्तराखंड के इन वीरान गाँवों में उनके मूल निवासी वापस आयेंगें और अपनी ज़मीन से  जुड़ेंगे.उत्तराखंड में घोस्ट विलेज की बढ़ती संख्या , एक बड़ी समस्या  हैं . यह ऐसे गाँव हैं ,जहां अब कोई नहीं रहता ,गांव के सारे लोग मैदानी इलाकों में काम की तलाश में जा कर बस चुके  हैं , वहीं रहते हैं , वहीं काम करते हैं और वहीं के हो कर रह गए हैं .सरकारें समय समय पर इसके बारे में बयान आदि देती रहती हैं लेकिन कोई फर्क नहीं पड़ रहा है. इस साल स्वतन्त्रता दिवस के दिन उत्तराखंड के के मुख्यमंत्री ,त्रिवेंद्र सिंह रावत ने भी एक सरकारी घोषणा की थी कि इन वीरान गाँवों को फिर से आबाद किया जाएगा और उन लोगों को वापस बुलाया जाएगा जो गाँव छोड़कर पूरी तरह से जा  चुके हैं . राज्य सरकार ने घोषणा में बताया  कि करीब सात सौ वीरान गाँवों को  फिर से बसाने की योजना पर  काम किया जाएगा .
यह समस्या अभी तो पहाड़ों में  है लेकिन मैदानी इलाकों में भी लोग और दूर नहीं जा सकते  तो अपने जिला मुख्यालय के शहर में ही बसना पसंद कर रहे  हैं . सीधा कारण है . गाँवों में   स्वास्थ्य सुविधाओं का कोई बंदोबस्त नहीं  है . मेरे अपने मित्रों में जो लोग गाँवों में प्राइमरी या मिडिल स्कूलों में शिक्षक   आदि के पदों पर काम कर रहे  हैं वे भी अपने गाँव के घर में न रहकर शहरों में रहते हैं . चाहे  अपनी नौकरी की ड्यूटी करने  के लिए उनको रोज़ वापस वहीं अपने गाँव में ही आना पड़े  .रिटायर होने के बाद तो लगभग सभी पेंशनधारी शहरों में ही बस रहे  हैं.  अगर सरकार ने गाँवों में स्वास्थ्य और बच्चों की शिक्षा की तुरंत व्यवस्था न की तो उत्तर प्रदेश के गाँवों में यह बड़ी समस्या होने वाली है .
उत्तराखंड के मामला बहुत बिगड़ चुका है .  देश के बहुत बड़े अधिकारी उत्तराखंड के पहाड़ों से आते हैं. राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोवाल, सेना प्रमुख बिपिन रावत , रॉ के प्रमुख अनिल धस्माना सब इसी इलाके से हैं . अनिल धस्माना के गाँव टोली में जब कुछ पत्रकारों ने दौरा किया तो पता लगा लगा कि चालीस साल पहले उनके जिस घर  में उनके परिवार के करीब तीस लोग रहते थे अब वहां केवल तीन लोग रहते हैं .
सरकारों का अलगर्ज़ रवैया हिमालयी गाँवों को वीरान करने  के लिए सबसे ज्यादा जिम्मेवार है . संतोष की बात यह  है कि समस्या को समझने की कोशिश शुरू हो गयी है . सरकार ने कुछ घोषणा तो  की है . मुख्यमंत्री ने बड़े बड़े वायदे किये हैं . उन्होंने कहा है कि उन गाँवों में ज़मीन का अधिग्रहण करके उसमें उद्यमियों को कारोबार शुरू करने के लिए उत्साहित किया जाएगा . हिमालय में अगर  जड़ी बूटियों की खेती व्यापारिक तरीके से की जाय तो बड़े पैमाने पर रोज़गार सृजन होगा और लोगों को वापस अपने गाँव में आने के लिए प्रोत्साहित किया जा सकेगा . स्कूलों को को भी बच्चों को आधुनिक और उपयोगी शिक्षा देने के लिए प्रेरित किया जा सकेगा . उत्तराखंड के मूल निवासी दुनिय में कई देशों में उच्च पदों पर हैं उनको भी अपने गाँव के विकास में भागीदार होने के लिए प्रेरित किया जा सकता है . सरकारें तो  घोषणायें करती रहती  हैं और उनमें से ज्यादातर केवल कागजों तक ही सीमित रह जाती हैं . ज़रूरी यह है कि  मीडिया और जन प्रतिनिधि सरकारी अधिकारियों और मंत्रियों  पर दबाव बनाएं कि वे अपने वायदे को पूरा करें. अनिल बलूनी एक प्रभावशाली सांसद हैं ,  उन्होंने खुद ही एक वीरान गाँव को अंगीकृत करके इस दिशा में ज़रूरी पहल कर दी है . उम्मीद की जानी चाहिए कि सभी सम्बद्ध लोग इस दिशा में अपनी  क्षमतानुसार प्रयास करें और पहाड़ों को वीरान होने से बचाएं .
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