Wednesday, October 10, 2018

मामिला बाबा एक नेकदिल इंसान थे


शेष नारायण सिंह

आज मामिला बाबा की बहुत याद आ रही है , दुबले पतले ,सांवला रंग, मुंह में एक भी दांत नहीं, हमेशा सफ़ेद धोती बनियान पहने मामिला बाबा भलमनसी की  मूर्ति थे. मेरे बाबू उनको मामिला काका कहते थे . वे उन भाग्यशाली लोगों में से थे जिनके पिता सौ साल तक जीते हैं . जब उनके पिता की मृत्यु हुयी तो वे करीब सत्तर साल के थे . उनका असली नाम मामिला नहीं था. उनके पिता जी को भी गाँव में सभी चश्मा बाबा कहते थे .उनका नाम भी चश्मा बाबा नहीं था. चश्मा लगाते थे इसलिए चश्मा बाबा हो गए .मामिला बाबा भी हर समस्या में धीरज से रहते थे और सही सलाह देते थे इसलिए उनका नाम मामिला हो गया .  मामिला बाबा को मैं अपने शुभचिंतक के रूप में ही याद रखता हूँ. बचपन में जब उनके परिवार के दबंग बच्चे मेरी पिटाई कर देते थे तो मैं रोते हुए अपने घर शिकायत करने नहीं आता था . डर रहता था कि कहीं  घर वाले उन लोगों के साथ खेलने से ही मना न कर दें.  पिटने के तुरंत बाद मैं मामिला बाबा के पास पंहुच जाता था और  मुझे पीटने वाले उनके बच्चे डांट खा जाते थे . केस ख़त्म . उन्हों एकाध बार मुझसे कहा कि  तुम भी जवाब में पीट दिया करो. मैंने उनकी सलाह सर आँखों पर ली और उसके अमल के बाद मेरी पिटाई नहीं हुयी. मैं भी दबंग के रूप में स्वीकार कर लिया गया . उनके छोटे भाई का नाम पौदरिहा  था. वैसे उनका नाम भी कुछ और था लेकिन वे भी  नामभ्रंश के शिकार थे . उनके साथ तो यह हुआ था कि एक बार वे गाँव की किसी बारात में गये थे. शादियाँ गर्मियों में ही होती थीं.  वहां जनवासे में वे एक कुएं की पौदर के पास खटिया डालकर दुपहरिया नेवार  रहे थे .  घराती लोग जब कुछ नाश्ता पानी लाते  थे तो  आपस में बात करते थे कि अरे भाई पौदरिहा को भी कुछ खिलाओ पिलाओ . बस उसी बारात से लौट कर उनके हम उम्र और छोटे मर्दों ने उनको इस नाम से संबोधित करना शुरू कर दिया . उनके एक चचेरे भाई थे . वे सन  १९१० में यू पी पुलिस में कांस्टेबिल के रूप में भर्ती हो गए थे . उनका नाम पूरे गाँव और पवस्त में टिबिल सिंह ही हो गया था. नेवता हंकारी सब इसी नाम से आता  था . हालांकि ज़मीन के रिकार्ड में उनका सरकारी नाम लिखा था.
आज पीछे मुडकर देखता हूँ तो लगता है कि बहुत सारे ऐसे लोग थे जिनके नाम उनके जन्म के समय कुछ थे लेकिन लोक व्यवहार में उनके व्यक्तित्व  या उनके काम के हवाले से नया नाम दे दिया जाता था. इसके बहुत सारे कारण रहे होंगें लेकिन एक कारण तो यही था कि गाँव में आने वाली दुलहिनें किसी भी  उम्रदराज़ मर्द का नाम नहीं
ले सकती थीं. किसी बच्चे के बाबा  या काका कहकर काम चलाने का रिवाज़ था . ज़्यादातर लोग खेती के काम में ही रहते थे लेकिन अगर कोई कुछ और काम करने लगता था तो उसके काम से जोड़कर उनका नाम रख दिया जाता था . बहुत  सारे लोगों को तो मालूम ही नहीं होता था कि उनका कोई नया नाम रख दिया गया है. मसलन जिनको मेरी माई पलटनिहां कहती थीं वे  फौज में भर्ती हो  गए थे . एक ठाकुर साहब का नाम दर्जी भी था. मेरी मौसी के गाँव में घोड़हा भी थे तो सैकिलिहा भी . यानी जिनके पास घोडा था वे घोड़हा और साइकिल वाले सैकिलिहा .
बहरहाल मामिला बाबा ने कभी किसी को तकलीफ नहीं  पंहुचाई . उनके पिता चश्मा बाबा के जीवन काल में ही उनके कई लड़के सरकारी नौकरियों में इज्ज़त का मुकाम हासिल कर चुके थे . खेती बारी तो ज्यादा  नहीं थी लेकिन उनके जीवनकाल में उनका परिवार गाँव के संपन्न परिवारों में गिना जाता था .  उनकी मृत्यु के बाद तो उनके सभी बेटे अपनी अपनी राह चल पड़े. उनके दूसरे बेटे ने ही हमारे इलाके में सबसे पहले  केमिस्ट्री में एम एस सी किया , पी एच डी किया और टी डी कालेज जौनपुर में लेक्चरर बने. उन्होंने ही मुझे  अंगेजी वर्णमाला का ज्ञान गर्मी की छुट्टियों में  कराया था. पढ़ाई पूरी करके ,बाद  में जब मैं लेक्चरर पद के लिए उम्मीदवार बना तो मुझे लेकर गोरखपुर विश्वविद्यालय गए और  सहारा दिया .. जब मैं लेक्चरर की नौकरी पा गया तो मामिला बाबा ने मुझे गले से लगाकर आशीर्वाद दिया था . उनकी याद इसलिए भी आती रहती  है कि गाँव की भलमनसी की ज़िंदगी के वे शलाकापुरुष थे , उनके जाने के बाद हमारा गाँव बिखरना शुरू हुआ तो आज तो ज्यादातर लोग पड़ोसी की तरक्की से परसंताप करते हैं और तकलीफ में रहते हैं

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