Friday, May 4, 2018

चर्चिल और जिन्नाह की साज़िश का नतीजा है मुल्क का बंटवारा




शेष नारायण सिंह

भारत का बँटवारा एक  बहुत बड़ा धोखा था  जो कई स्तरों पर खेला गया था. अँगरेज़ भारत को आज़ाद किसी कीमत पर नहीं करना चाहते थे लेकिन उनके प्रधानमंत्री विन्स्टन चर्चिल को सन बयालीस के बाद जब अंदाज़ लग गया कि अब महात्मा  गांधी की आंधी के सामने टिक पाना नामुमकिन है तो उसने देश के टुकड़े करने की योजना पर काम करना शुरू कर दिया .जिन्नाह अंग्रेजों के वफादार थे ही , चर्चिल ने देसी राजाओं को भी हवा देना शुरू कर दिया था . उसको उम्मीद थी कि राजा लोग कांग्रेस के अधीन भारत में शामिल नहीं होंगें . पाकिस्तान तो उसने बनवा लिया लेकिन राजाओं को सरदार पटेल ने भारत में शामिल होने के लिए राजी कर लिया. जो नहीं राजी हो रहे थे उनको नई हुकूमत की ताकत दिखा दी . हैदराबाद का  निजाम और जूनागढ़ का नवाब कुछ पाकिस्तानी मुहब्बत में नज़र आये तो उनको सरदार पटेल की राजनीतिक अधिकारिता के दायरे  में ले लिया  गया और कश्मीर का राजा  शरारत की बात सोच रहा था तो उसको भारत की मदद की ज़रुरत तब पड़ी जब पाकिस्तान की तरफ से कबायली हमला हुआ . हमले के बाद राजा डर गया और सरदार ने  उसकी मदद करने से इनकार कर दिया . जब राजा ने भारत के साथ विलय के दस्तावेज़ पर दस्तखत कर  दिया तो  पाकिस्तानी फौज और कबायली हमले को भारत की सेना ने वापस भगा दिया .लेकिन यह सब देश के बंटवारे के बाद हुआ . १९४५ में  तो चर्चिल ने इसे एक ऐसी योजना के रूप में सोचा रहा होगा जिसके बाद भारत  के टुकड़े होने से कोई रोक नहीं सकता था .  चर्चिल का सपना था कि दूसरे विश्वयुद्ध के बाद  जिस तरह से यूरोप के देशों का विजयी देशों ने यूरोप के देशों में प्रभाव क्षेत्र का बंदरबाँट किया था , उसी तरह से भारत में भी कर लिया जाएगा .
अंग्रेजों ने भारत को कभी भी अपने से अलग करने की बात सोची ही  नहीं थी. उन्होंने तो दिल्ली में एक खूबसूरत राजधानी बना ली थी .  प्रोजेक्ट नई दिल्ली १९११ में शुरू हुआ था और महात्मा गांधी के  असहयोग आन्दोलन और  सिविल नाफ़रमानी आन्दोलन की सफलता के बावजूद भी नयी इंपीरियल कैपिटल में ब्रिटिश हुक्मरान  पूरे  ताम झाम से आकर बस गए थे . 10फरवरी 1931 के दिन नयी दिल्ली को औपचारिक रूप से ब्रिटिश भारत की राजधानी बनाया गया. उस वक़्त के वाइसराय लार्ड इरविन ने नयी दिल्ली शहर का विधिवत उदघाटन किया . १९११ में जार्ज पंचम के राज के दौरान दिल्ली में दरबार हुआ और तय हुआ कि राजधानी दिल्ली में बनायी जायेगी. उसी फैसले को कार्यरूप देने के लिए रायसीना की पहाड़ियों पर नए शहर को बसाने का फैसला हुआ और नयी दिल्ली एक शहर के रूप में विकसित हुआ . इस शहर की डिजाइन में एडविन लुटियन क बहुत योगदान है . १९१२ में एडविन लुटियन की दिल्ली यात्रा के बाद शहर के निर्माण का काम शुरू हो जाना था लेकिन विश्वयुद्ध शुरू हो गया और ब्रिटेन उसमें बुरी तरह उलझ गया इसलिए नयी दिल्ली प्रोजेक्ट पर काम पहले विश्वयुद्ध के बाद शुरू हुआ. यह अजीब इत्तिफाक है कि भारत की आज़ादी की लडाई जब अपने उरूज़ पर थी तो अँगरेज़ भारत की राजधानी के लिए नया शहर बनाने में लगे हुए थे. पहले विश्वयुद्ध के बाद ही महात्मा गाँधी ने कांग्रेस और आज़ादी की लड़ाई का नेतृत्व संभाला और उसी के साथ साथ अंग्रेजों ने राजधानी के शहर का निर्माण शुरू कर दिया . १९३१ में जब नयी दिल्ली का उदघाटन हुआ तो महात्मा गाँधी देश के सर्वोच्च नेता थे और पूरी दुनिया के राजनीतिक चिन्तक बहुत ही उत्सुकता से देख रहे थे कि अहिंसा का इस्तेमाल राजनीतिक संघर्ष के हथियार के रूप में किस तरह से किया जा रहा है .
 १९२० के महात्मा गाँधी के आन्दोलन की सफलता और उसे मिले हिन्दू-मुसलमानों के एकजुट समर्थन के बाद ब्रिटिश साम्राज्य के लोग घबडा गए थे . उन्होंने हिन्दू मुस्लिम एकता को तोड़ने के लिए सारे इंतज़ाम करना शुरू कर दिया था . हिन्दू महासभा के नेता वी डी सावरकर को माफी देकर उन्हें किसी ऐसे संगठन की स्थापना का ज़िम्मा दे दिया था जो हिन्दुओं और मुसलमानों में फ़र्क़ डाल सके . उन्होंने अपना काम बखूबी निभाया .उनकी  नयी किताब  हिंदुत्वइस मिशन में बहुत काम आई . १९२० के आन्दोलन में दरकिनार होने के बाद कांग्रेस की राजनीति में निष्क्रिय हो चुके मुहम्मद अली जिन्ना को अंग्रेजों ने सक्रिय किया और उनसे मुसलमानों के लिए अलग देश माँगने की राजनीति पर काम करने को कहा . देश का राजनीतिक माहौल इतना गर्म हो गया कि १९३१ में नयी दिल्ली के उदघाटन के बाद ही अंग्रेजों की समझ में आ गया था कि उनके चैन से बैठने के दिन लद चुके हैं .

लेकिन अँगरेज़ हार मानने  वाले नहीं थे . उन्होंने जिस डामिनियन स्टेटस की बात को अब तक लगातार नकारा था , उसको लागू करने की बात करने लगे .१९३५ का गवर्नमेंट आफ इण्डिया एक्ट इसी दिशा में एक कदम था लेकिन कांग्रेस ने  लाहौर में १९३० में ही तय कर लिया था कि अब पूर्ण स्वराज चाहिए , उस से कम कुछ नहीं . १९३५ के बाद यह तय हो गया था कि अँगरेज़ को जाना ही पड़ेगा . लेकिन वह तरह तरह के तरीकों से उसे टालने की कोशिश कर रहा था . अपने सबसे बड़े खैरख्वाह जिन्ना को भी नई दिल्ली के क्वीन्स्वे ( अब जनपथ ) पर  अंग्रेजों ने एक घर  दिलवा दिया था . जिन्ना उनके मित्र थे इसलिए उन्हें एडवांस में मालूम पड़ गया था कि बंटवारा होगा और फाइनल होगा . शायद इसीलिये जिन्ना की हर चाल में चालाकी नजर आती थी . बंटवारे के लिए अंग्रेजों ने अपने वफादार मुहम्मद अली जिन्ना से द्विराष्ट्र सिद्धांत का प्रतिपादन करवा दिया. वी डी सावरकार ने भी इस  सिद्धांत को हिन्दू महासभा के अध्यक्ष के रूप में १९३७ में अहमदाबाद के  अधिवेशन में अपने भाषण में कहा लेकिन अँगरेज़ जानता था कि सावरकर के पास कोई राजनीतिक समर्थन नहीं है इसलिए  वे जिन्ना को उकसाकर महात्मा गांधी और कांग्रेस को हिन्दू पार्टी के रूप में ही पेश करने की कोशिश करते रहे.
आज़ादी की लड़ाई सन बयालीस के बाद बहुत तेज़ हो गयी .  ब्रिटेन के युद्ध कालीन प्रधानमंत्री  विन्स्टन चर्चिल को साफ़ अंदाज़ लग गया कि अब भारत से ब्रिटिश  साम्राज्य का दाना पानी उठ चुका है . इसलिए उसने बंटवारे का नक्शा बनाना शुरू कर दिया था . चर्चिल को उम्मीद थी कि वह युद्ध के बाद होने वाले चुनाव में फिर चुने जायेगें और प्रधानमंत्री  वही  रहेंगे इसलिए उन्होंने भारत के तत्कालीन वायसराय लार्ड वाबेल को पंजाब और बंगाल के विभाजन का नक्शा भी दे दिया था. उनको शक था कि आज़ाद भारत सोवियत रूस  की तरफ  जा सकता है और उसको कराची का बेहतरीन बंदरगाह मिल सकता है . उसके बाद पश्चिम एशिया के तेल पर उसका अधिकार ज्यादा हो जाएगा .शायद इसीलिये चर्चिल ने जिन्ना को इस्तेमाल करके कराची को भारत से अलग करने की साज़िश रची थी .उसने  तत्कालीन वायसराय लार्ड वाबेल को निर्देश दिया कि बंटवारे का एक नक्शा बाण लो . लार्ड वाबेल तो चले गए लेकिन वह नक्शा कहीं नहीं गया . जब लार्ड माउंटबेटन भारत के वायसराय तैनात हुए तो  लार्ड हैस्टिंग्ज  इसमे ने जुगाड़ करके अपने आपको वायसराय  की चीफ आफ स्टाफ नियुक्त करवा लिया . उन्होंने युद्ध काल में चर्चिल के साथ काम किया था  इसलिये लार्ड इसमे चर्चिल के बहुत भरोसे के आदमी थे और  चर्चिल ने  अपनी योजना को लागू  करने के लिए इनको सही समझा . प्रधानमंत्री एटली को भरोसे में लेकर  लार्ड हैस्टिंगज लायनेल इसमे , नए वायसराय के साथ ही नई दिल्ली आ गए . चर्चिल की बंटवारे की योजना के वे ही भारत में सूत्रधार बने . वे युद्ध काल में चर्चिल के चीफ मिलिटरी असिस्टेंट रह चुके थे .बाद में वे ही नैटो के गठन के बाद उसके पहले सेक्रेटरी जनरल भी बने.
 जब लार्ड माउंटबेटन  मार्च १९४७ में भारत आये तो उनका काम भारत में एक नई सरकार को अंग्रेजों की सत्ता  को सौंप देने का एजेंडा था . उनको क्या पता था कि चर्चिल ने पहले से ही तय कर रखा था कि देश का बंटवारा करना है .हालांकि माउंटबेटन १९४७ में भारत आए  थे लेकिन उनको क्या करना है यह पहले से ही तय हो चुका था . यह अलग बात है उनको पूरी जानकारी नहीं थी .वे अपने हिसाब से ट्रांसफर आफ पावर के कार्य में  लगे हुए थे . बाद में लार्ड  माउंटबेटन को पता चला कि  उनको चर्चिल ने इस्तेमाल कर लिया है लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी  .

भारत के बंटवारे में अंग्रेजों की साज़िश की जानकारी तो शुरू से थी लेकिन ब्रिटिश लायब्रेरी में एक ऐसा दस्तावेज़ मिला है जो यह बताता है कि चर्चिल ने १९४५ में ही पंजाब और बंगाल को बांटकर नक़्शे की शक्ल दे दी थी .  जब माउंटबेटन को पता चला कि वे  इस्तेमाल हो गए हैं तो उन्होंने बहुत गुस्सा किया और  अपने चीफ आफ स्टाफ हैस्टिंग्ज इसमे से कहा  कि आप लोगों के हाथ खून से  रंगे हैं तो जवाब मिला कि लेकिन तलवार तो आपके हाथ में थी.  उनको याद  दिलाया  गया कि  भारत के बंटवारे की योजना का नाम माउंटबेटन प्लान भी उनके ही नाम पर है . जब पाकिस्तान के उद्घाटन के अवसर पर माउंटबेटन कराची गए तो जिन्नाह ने उनको  धन्यवाद किया . वायसराय ने जवाब दिया कि आप धन्यवाद तो चर्चिल को दीजिये क्योंकि आप के साथ मिलकर उन्होंने ही यह साज़िश रची थी . मैं तो इस्तेमाल हो गया . जिन्नाह ने जवाब दिया कि हम दोनों ही इस्तेमाल हुए हैं, हम दोनों ही  शतरंज की चाल में मोहरे बने हैं . जानकार बताते हैं कि चर्चिल ने जिन्नाह को ऐसा पाकिस्तान देने का सब्ज़बाग़ दिखाया था  जिसमें बंगाल और पंजाब तो होगा ही , बीच का पूरा इलाका होगा जहां से होकर जी टी रोड गुजरती है ,वह पाकिस्तान में ही रहेगा . शायद इसीलिये जब १५०० किलोमीटर के फासले  के दो हिस्सों में फैला पाकिस्तान बना तो जिनाह  की पहली प्रतिक्रिया थी कि उनको माथ ईटेन पाकिस्तान मिला  है. अपनी मौत के पहले मुहम्मद अली जिन्ना ने अपने प्रधानमंत्री लियाक़त अली से स्वीकार किया कि पाकिस्तान बनाना उनकी ज़िंदगी की सबसे बड़ी बेवकूफी थी.


Tuesday, May 1, 2018

२०१९ में तीसरे मोर्चा बना तो बीजेपी को फायदा और कांग्रेस को नुक्सान होगा



शेष नारायण सिंह  


कांग्रेस को अपना अस्तित्व बचाने के लिए तीसरे मोर्चे की राजनीति को आगे बढ़ने से रोकना पडेगा वरना एक पार्टी के रूप में  उनके लिए मुश्किल हो जायेगी . कांग्रेस अध्यक्ष के आस पास  मंडराने वाले वर्ग में  ऐसे लोगों की बड़ी संख्या है जो १९८० और १९८५ का अपनी पार्टी का बहुमत भूल ही नहीं पाते. वह दौर ऐसा था जब इंदिरा गांधी या राजीव गांधी जिसकी तरफ भी इशारा कर देते थे ,वह मुख्यमंत्री हो जाता था. लेकिन अब वह ज़माना नहीं है . राहुल गांधी के करीबी लोग अमरिंदर सिंह को पंजाब का मुख्यमंत्री नहीं बनने देना चाहते थे लेकिन उन्होंने दिल्ली के दरबारी कांग्रेसियों को समझा दिया कि पंजाब में सबसे बड़े कांग्रेसी वही हैं . आजकल कर्नाटक में भी वही पंजाब फार्मूला अपनाया जा रहा है . सिद्दरमैया ने पांच साल में यह स्थापित कर दिया  है कि उनको ही नेता मानना पडेगा . अभी चुनाव प्रचार चल रहा  है लेकिन जो भी कर्नाटक की राजनीति  को देख रहा  है ,उसको मालूम है कि सिद्दरमैया को नेता मानकर चलने की कांग्रेस की नीति विपक्ष पर भारी पड़ रही है . इसी साल के अंत तक राजस्थान और मध्य प्रदेश में भी चुनाव होने  हैं . दोनों ही राज्यों के मुख्यमंत्री बहुत ही अलोकप्रिय हैं और वहां कांग्रेस की जीत की संभावना बताई जा रही है . इन दोनों ही राज्यों में कांग्रेस अध्यक्ष अपने बचपन के दोस्तों को मुख्यमंत्री बनाने की जुगत में लग गए हैं.  दोनों ही राज्यों में कांग्रेस नेतृत्व वही करना चाह रहा है जो  १९८० और १९८९ के बीच किया जाता था . लेकिन उनको ध्यान रखना पड़ेगा कि अब बीजेपी एक बहुत ही बड़ी राजनीतिक पार्टी है और वह अपनी जीत के बाद जीत को पक्का करती जा रही है . जहाँ थोडा कमज़ोर भी पड़ती है ,वहां भी सरकार बना रही है . ऐसी हालत में कांग्रेस को राष्ट्रीय राजनीति और अपनी आन्तरिक राजनीति में मनमानी करने से बाज  आना पडेगा , वरना कांग्रेस मुक्त भारत का प्रधानमंत्री के सपना साकार हो  सकता है और उसमें सबसे बड़ा योगदान मौजूदा  कांग्रेस आलाकमान की बचकानी गलतियों का ही होगा.
आज बीजेपी एक बहुत  बड़ा दल है .  बीजेपी के रणनीतिकार यह मानकर चल रहे हैं कि उनको कांग्रेस को ही पछाड़ना है , बाकी पार्टियां तो   क्षेत्रीय पार्टियां हैं , उनको संभाल लिया जाएगा . अगर  कांग्रेस  हर राज्य में अपने लिए मुख्य भूमिका की तलाश करती रहेगी तो बीजेपी को बहुत  आसानी होगी. बीजेपी की योजना का  हिस्सा  है कि कांग्रेस को अन्य क्षेत्रीय दलों से मिलकर चुनाव न लड़ने दिया जाए. इसीलिये बीजेपी के वफादार क्षेत्रीय दलों के नेता तीसरे मोर्चे की बात करते देखे जा रहे हैं  . अभी कल तक बीजेपी के बड़े सहयोगी रहे , चंदबाबू नायडू  गैर कांग्रेसी ,गैर बीजेपी विकल्प की बात करते पाए जा रहे हैं . कोशिश यह है कि २०१९ में सभी मज़बूत क्षेत्रीय दल कांग्रेस से  दूरी बनाकार चुनाव लड़ें. अगर ऐसा हुआ तो बीजेपी को बहुत फायदा होगा.  क्षेत्रीय दल जहां  भारी पडेगा ,वहां चुनाव जीत लेगा और कांग्रेस के खिलाफ सभी मैदान में होंगें तो कांग्रेस ख़त्म हो जाएगी .  ऐसी स्थिति को बचाने का काम कांग्रेस के राजनीतिक भविष्य से जुड़ा है .कांग्रेस के  पास केवल एक तरीका है कि वह यह स्वीकार कर ले कि देश के एक बहुत बड़े हिस्से में उसकी  भूमिका केवल सहयोगी दल की हो गयी है . एक समय था जब  उत्तर प्रदेश में कांग्रेस का एकछत्र राज हुआ करता था लेकिन आज स्थिति यह है कि अगर समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी उसको मदद न करें तो उनके लिए अमेठी और राय बरेली में चुनाव जीतना भी पहाड़ हो जाएगा .इसलिए उत्तर प्रदेश और बिहार में अगर कांग्रेस को बीजेपी का विरोध  कर रही पार्टियों का सहयोगी बनने का मौक़ा मिलता है तो उनको खुश होना चाहिए .
विपक्ष के क्षेत्रीय नेताओं की मालूम है कि गैर कांग्रेस ,गैर बीजेपी विकल्प की बात बीजेपी  को ही फायदा   देगी इसलिए ऐसे किसी राजनीतिक इंतज़ाम की बात नहीं करनी चाहिए . ममता बनर्जी आजकल  सभी विपक्षी पार्टियों को यह समझाती फिर रही हैं कि बीजेपी के मुकाबले केवल एक मज़बूत  उम्मीदवार उतारा जाए. जिन राज्यों में जो पार्टी मज़बूत है वह  नेतृत्व करे और कांग्रेस  समेत बाकी पार्टियां उसकी अगुवाई स्वीकार करें . द्रविड़ मुन्नेत्र  कजगम के नेता, एम के स्टालिन ने ममता बनर्जी की सोच का समर्थन कर दिया है . उन्होंने एक ट्वीट में  कहा कि , ' डी एम  के हमेशा से ही क्षेत्रीय पार्टियों की एकता की बात करती रही है .मैं ममता बनर्जी की उन कोशिशों को सही मानता हूँ जिसमें वे बीजेपी को चुनौती देनी के लिए सबसे मज़बूत क्षेत्रीय पार्टी को अगुवाई देने की बात करती  हैं . 'लेकिन इसके बाद ही डी एम के के प्रवक्ता एस मनु का बयान आ गया जिससे साफ़ हो गया कि उनकी पार्टी ऐसे किसी भी प्रयास में कांग्रेस  को नज़रंदाज़ नहीं करना चाहती . ममता बनर्जी को कांग्रेस से दिक्क़त है क्योंकि बंगाल में उनकी लड़ाई कांग्रेस और लेफ्ट फ्रंट से है .

विपक्ष के नेताओं को विश्वास है कि देश में बीजेपी के खिलाफ माहौल बन रहा है और उसमें कांग्रेस को अपनी अस्मिता बचाते हुए बीजेपी को  शिकस्त देने की रणनीति पर काम करना पडेगा . अगर काँग्रेस उत्तर प्रदश , बिहार, बंगाल, तमिलनाडु आदि राज्यों में बड़ा भाई बनने की  कोशिश की तो बीजेपी का रास्ता बहुत ही आसान हो  जाएगा . और अगर कांग्रेस ने अपनी मजबूती वाले राज्यों में अपने आपको  संभाल लिया और उन राज्यों में जहाँ वह कमज़ोर है ,सहयोगी भूमिका पकड़ ली तो बीजेपी के लिए २०१९ बहुत मुश्किल भरा  हो जाएगा.लेकिन अगर तीसरे मोर्चे की बात चल निकली तो बीजेपी को रोकना असंभव हो जाएगा .

इस सन्दर्भ में यह साफ़ होना बहुत ज़रूरी है कि कांग्रेस अपने लिए क्या भूमिका  तय  करती है . भारत की राजनीति में कांग्रेस का ऐतिहासिक महत्व है .महात्मा गांधी ने १९२० में कांग्रेस को जन संगठन बनाने में अहम भूमिका निभाई . उसके पहले कांग्रेस का काम अंग्रेजों के उदारवाद के एजेंट के रूप में काम करना भर था .बाद में कांग्रेस ने आज़ादी की लड़ाई में देश का नेतृत्व किया. महात्मा गांधी खुद चाहते थे  कि आजादी मिलने के बाद कांग्रेस को चुनावी राजनीति से अलग करके जनान्दोलन  चलाने वाले संगठन के रूप में ही रखा जाए . चुनाव में शामिल होने के इच्छुक राजनेता अपनी अपनी पार्टियां बनाकर चुनाव  लड़ें लेकिन कांग्रेस के उस वक़्त के बड़े नेताओं ने ऐसा नहीं होने दिया .उन्होंने कांग्रेस को जिंदा रखा और आज़ादी के बाद के कई वर्षों तक राज  किया. बाद में जब डॉ राम मनोहर लोहिया ने गैर कांग्रेस वाद की  राजनीति के प्रयोग शुरू किया तो कांग्रेस को बार बार सत्ता से  बेदखल होना पड़ा. १९८९ में  गैर कांग्रेस वाद की भी पोल खुल गयी जब बाबरी मस्जिद के  विध्वंस के लिए चले आंदोलन में कांग्रेस और बीजेपी साथ  साथ खड़े नज़र आये. १९९२ में अशोक सिंहल,कल्याण सिंह और पी वी  नरसिम्हाराव के संयुक्त प्रयास से बाबरी मस्जिद ढहाई गयी लेकिन उसके पहले ही बीजेपी और कांग्रेस  का वर्गचरित्र सामने आ गया था. पूर्व प्रधान मंत्री चन्द्र शेखर ने लोक सभा के अपने ७ नवंबर १९९० के भाषण में इस बात का विधिवत पर्दाफ़ाश कर दिया था. उस भाषण में चन्द्रशेखर जी ने कहा कि धर्म निरपेक्षता मानव संवेदना की पहली परख है .  जिसमें मानव संवेदना नहीं है उसमें धर्मनिरपेक्षता नहीं हो सकती."
इसी के बाद तीसरे मोर्चे की बात जोर पड़ने लगी .१९९६ में गैर कांग्रेस गैर बीजेपी सरकार की बात चली तो एच डी देवे गौड़ा को प्रधान मंत्री बनाने वाली पार्टियों के गठबंधन को तीसरा मोर्चा नाम दे दिया गया था.लेकिन कोई ऐसी राजनीतिक शक्ति नहीं बनी थी जिसे तीसरे मोर्चे के रूप में पहचाना जा सके.

वास्तव में तीसरा मोर्चा एक राजनीतिक असम्भावना  है.यह सत्ताधारी दलों की उस  कोशिश का नाम है जिसको वे विपक्ष को एक होने  से रोकने के लिए इस्तेमाल करती हैं. कांग्रेसी राज के दौर में कांग्रेस की कोशिश रहती थी कि तीसरा मोर्चा की बात चलती रहेगी तो विपक्ष को एकजुट होने का मौक़ा नहीं लगेगा .अब  बीजेपी की   इच्छा है कि तीसरा मोर्चा बने और उसको  विपक्षी के रूप में कांग्रेस और तीसरा मोर्चा का मुकाबला करना पड़े. यह तय  है कि राहुल गांधी की  कांग्रेस सत्ताधारी बीजेपी को राष्ट्रीय स्तर पर चुनौती नहीं दे सकती .लेकिन बीजेपी को चुनौती मिलेगी ज़रूर उसके लिए कांग्रेस को आज की सच्चाई कोसंझ्ना पडेगा और  जिन राज्यों में वह मज़बूत है ,उसके बाहर एक मुख्य पार्टी नहीं सहयोगी पार्टी की  भूमिका निभानी पड़ेगी.
फूलपुर और गोरखपुर उपचुनावों एक बाद साफ़ हो गया है कि  अगर समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी  एक साथ मिलकर चुनाव लड़ेगें तो उत्तर प्रदेश से बीजेपी के उतने सांसद नहीं जीतेंगें जितने २०१९ में जीते थे. . एक बात और सच है कि इन दोनों ही चुनावों में कांग्रेस की औकात रेखांकित हो गयी है . यह तय है कि उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की चुनावी हैसियत  नगण्य है. जिस फारमूले से यह दोनों उपचुनाव  विपक्ष ने जीता है ,  समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी ने अगर सीटों का तालमेल कर लिया तो उत्तर प्रदेश में बीजेपी को बड़ा घाटा हो सकता है . यही हाल बिहार का भी है . बिहार में भी बीजेपी को कांग्रेस से कोई चुनौती नहीं मिलने वाली है . कांग्रेस की वहां भी स्थिति उत्तर प्रदेश जैसी ही है . लालू यादव की पार्टी वहां बीजेपी की मुख्य मुसीबत बनेगी . ओडीशा में  भी बीजेपी का मुकाबला वहाँ के लोकप्रिय मुख्यमंत्री नवीन पटनायक से होगा . वहां कांग्रेस को मुख्य विपक्षी दल के रूप में चुनाव लड़ना पडेगा. ज़ाहिर है अपनी राजनीतिक हैसियत बनाये रखने के लिए कांग्रेस के सामने और कोई विकल्प नहीं है लेकिन रणनीतिक गठजोड़ तो हो ही सकता है .


कांग्रेस पार्टी को कर्नाटक, मध्य प्रदेशराजस्थान ,पंजाब , महाराष्ट्र ,गुजरात और कश्मीर में अग्रणी भूमिका की बात करनी चाहिए  जबकि उत्तर प्रदेश ,बिहारआंध्र प्रदेश ,तेलंगानातमिलनाडु,में  क्षेत्रीय पार्टियां बीजेपी को दिल्ली की सत्ता तक पंहुचने से रोक सकती हैं . केरल और बंगाल में कांग्रेस को अपनी भूमिका को फिर से परिभाषित करना पडेगा .

जयशंकर गुप्त का जन्मदिन ( ५ मार्च ) बहुत सारी यादों की बारात होता है

आज जयशंकर गुप्त का जन्मदिन है. जयशंकर मेरे बहुत ही प्रिय हैं . इसलिए कि उन्होंने वे सभी काम किये जो जीवन में मैं करना चाहता था . एक प्रखर समाजवादी के रूप में जीवन शुरू किया ,छात्र जीवन में इलाहाबाद विश्वविद्यालय में इमरजेंसी के खिलाफ ज़बरदस्त छात्र नेता रहे. मधु लिमये, जार्ज फर्नांडीज़, राज नारायण ,लाडली मोहन निगम, मधु दंडवते , जनेश्वर मिश्र जैसे समाजवादियों के सत्संग में उनका नाम बहुत ही सम्मान से लिया जाता था. उनके पिता जी डॉ लोहिया के मित्र थे. उत्तर प्रदेश में संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के विधायक रहे. जयशंकर गुप्त और उनके साथ इंदिरा गांधी की तानाशाही को चुनौती देने वाले नौजवानों की हिम्मत का ही जलवा था कि पूरे उत्तर भारत में इंदिरा गांधी और उनकी पार्टी चुनाव हारी और केंद्र में पहली गैर कांग्रेस सरकार की स्थापना हुई. जनता पार्टी की सरकार उसी आन्दोलन की सरकार थी जिसमें देश के नौजवान जेल गए थे. लेकिन अपनी सरकार आने के बाद भी अन्याय के खिलाफ जयशंकर संघर्ष करते रहे. जनता पार्टी के राज में भी जेल गए . इन नौजवानों की समझ में उसी दौर में आ गया था कि केवल सत्ता बदली है शासक की मनोदशा नहीं बदली.
बहरहाल उसके बाद जयशंकर को सद्बुद्धि मिली और उन्होंने गीता जी से शादी कर ली , देश के शीर्ष पत्रकारिता संस्थाओं में काम किया , तीन बहुत ही अच्छे बच्चों के माता-पिता बने और जहां भी जाते हैं , इज्ज़त से पहचाने जाते हैं . मेरा उनसे कुछ ज़्यादा अपनापन इसलिए भी है कि मेरे गुरु ,स्व मधु लिमये उनको बहुत मानते थे, उनका बहुत ही सम्मान से नाम लेते थे.
जन्मदिन मुबारक जयशंकर, बहुत बहुत मुबारक .Rajshekhar Vyas जी ने कहा कि एक फोटो भी लगाओ , मैंने तुरंत उनके सुझाव का सम्मान कर दिया

ऐसा समाज बने जिसमें बलात्कार करने की कोई हिम्मत न कर सके




शेष नारायण सिंह


आजकल चारों तरफ से कम उम्र की लड़कियों के साथ बलात्कार की घटनाएं सामने आ रही हैं. कठुआ में तो इंसानी दरिन्दगी सभी हदें पार कर दी गयी. इंदौर से खबर आई है कि एक आदमी ने छ माह की एक  बच्ची के साथ दरिन्दगी की है . आज के अखबार के एक पूरे पन्ने पर लड़कियों के साथ हुयी हैवानियत की ख़बरें भरी हुई हैं.  कठुआ के मामले में तो पूरी दुनिया में सभ्य समाजों में  लोग हैरान रह गए जब पता चला कि कुछ वकील तिरंगा हाथ में लेकर बलात्कारियों के पक्ष में खड़े हो गए.  बलात्कारी के धर्म की बातें भी सामने आने लगीं . बिहार में एक मौलवी द्वारा की गयी वारदात को बहस के दायरे में लाने की मांग भी एक ख़ास पार्टी के लोग उठाने लगे .उन लोगों को यह बात पक्के तौर पर बता दिए जाने की ज़रूरत है कि दरिन्दगी करने वालों का  एक ही धर्म होता है और वह धर्म है  दरिन्दगी. दरिन्दे को हिन्दू या मुसलमान कहना उचित नहीं है . 

रेप की जो खबरें आ रही  हैं , उनमें एक अजीब बात देखने को मिल रही है . सत्ताधारी जमातें  बलात्कार के खिलाफ हो रहे आन्दोलन को अपने खिलाफ आन्दोलन मान रही हैं . ऐसा नहीं है . सच्ची बात यह है कि आन्दोलन हैवानियत के खिलाफ हैं और जो भी उन हैवानों के साथ खड़ा है उनके खिलाफ हैं . इसलिए बलात्कार जैसे मामलों में राजनीति तलाशने की कोशिश नहीं की जानी चाहिए . सरकारी पार्टी के कुछ लोग इसी मानसिकता के चलते कठुआ जैसी घटना पर अजीबोगरीब बयान दे रहे थे . लेकिन विदेश यात्रा पर गए प्रधानमंत्री ने जब पूरी दुनिया में कठुआ की वारदात पर ग़मो-ओ-गुस्से का इजहार करते लोगों को देखा तो उनको अंदाज़ लगा कि मामला अब पूरी दुनिया में फैल चुका है . विदेश यात्रा से लौटने के दो घंटे के अन्दर कैबिनेट की बैठक बुलवाई और एक अध्यादेश का मसौदा पास कर दिया गया जिसके तहत बारह साल से कम उम्र की बच्ची से बलात्कार करने वाले को सज़ा-ए-मौत दी जायेगी . उसकी ज़मानत नहीं होगी और चार महीने के अन्दर सज़ा  सुना दी जायेगी .

 कानून में ऐसे इंतजामात किये जाने चाहिए जिससे  अपराधी को मिलने वाली सज़ा को देख कर भविष्य में किसी भी पुरुष की हिम्मत न पड़े कि बलात्कार के बारे में कोई सोच भी सके. लेकिन कोई भी नया कानून बनाने के पहले बहुत ही सोच विचार करने की ज़रूरत होती  है . कहीं ऐसा तो नहीं कि आम जनमत के दबाव से घबडाकर सरकार कोई ऐसा क़ानून  बना दे जिस से वह फायदा  न हो जिसके लिए वह कानून बनाया गया है . जब  दिसंबर २०१२ में निर्भया के साथ बलात्कार हुआ था तो इसी तरह के कुछ नियम बनाये गए थे . उस घटना के बाद सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के रिटायर जस्टिस जे एस वर्मा  की अगुवाई में एक कमेटी बनाई थी .उस कमेटी ने बच्चियों के साथ  होने वाले बलात्कार के कानून में ज़रूरी बदलाव के सुझाव दिए थे. जस्टिस वर्मा  कमेटी के  वक़्त भी निर्भया के कसके बाद का गुस्सा पूरे देश में  था और बलात्कारी को मौत की सज़ा देने की बात हर कोने से उठ  रही थी लेल्किन अपनी रिपोर्ट में जस्टिस वर्मा कमेटी ने लिखा था  कि '" कानूनी सुधार और सज़ा के संदर्भ में मृत्युदंड एक  प्रतिगामी क़दम होगा " कमेटी ने बलात्कार के मामलों में सज़ा बढाकर आजीवन कारावास करने  की सिफारिश की थी .उन्होंने उसी रिपोर्ट में लिखा था कि इस बात के बहुत सारे सबूत मौजूद हैं जिससे यह साबित किया जा सके कि बहुत ही गंभीर अपराधों के लिए मौत की सज़ा के प्रावधान से वह नतीजे नहीं निकलते  जिनकी उम्मीद लगाकर कानून में उसकी व्यवस्था की गयी थी .आम तौर पर माना जाता है कि मृत्युदंड की व्यवस्था होने के बाद बलात्कार के अपराधों को दबा देने की प्रवृत्ति जोर पकड़ेगी थी  .


 जब कैबिनेट ने पास कर दिया है  तो अध्यादेश की घोषणा तो हो ही जायेगी लेकिन ज़रूरत  इस बात की है कि बलात्कार करने वालों सुर संभावित बालात्कारियों की मानसिकता को बदला जाए  .  इसके लिए सामाजिक सुधार के आन्दोलन की बात शुरू की जानी चाहिए . उस समाज के खिलाफ सभ्य समाज को लामबंद होने की ज़रूरत है जो लडकी को इस्तेमाल की वस्तु साबित करता है  और उसके साथ होने वाले बलात्कार को भी अपनी शान में गुस्ताखी मान कर सारा काम करता है . वहीं दूसरा पक्ष लडकी के साथ बलात्कार करके अपने विरोधी को सज़ा देने की सोचता है . उन्नाव की रेप और ह्त्या की बात इसी खांचे में  फिट बैठती है .हमें एक ऐसा समाज  चाहिए जिसमें लडकी के साथ बलात्कार करने वालों और उनकी मानसिकता की हिफाज़त करने वालों के खिलाफ लामबंद होने की इच्छा हो और ताक़त हो.
उस मानसिकता के खिलाफ जंग  छेड़ने की ज़रूरत है जिसमें लडकी को वस्तु मानते हैं .. इसी मानसिकता के चलते इस देश में लड़कियों को दूसरे दरजे का इंसान माना जाता है और उनकी इज्ज़त को मर्दानी इज्ज़त से जोड़कर देखा जाता है . लडकी की इज्ज़त की रक्षा करना पुरुष समाज का कर्त्तव्य माना जाता है . यह गलत है . पुरुष कौन होता है लडकी की रक्षा करने वाला . ऐसी शिक्षा और माहौल बनाया जाना चाहिए जिसमें लड़की खुद को अपनी रक्षक माने . लड़की के रक्षक के रूप में पुरुष को पेश करने की  मानसिकता को जब तक खत्म नहीं किया जाएगा तह तक कुछ भी नहीं बदलेगा  जो पुरुष समाज अपने आप को महिला की इज्ज़त का रखवाला मानता है वही पुरुष समाज अपने आपको यह अधिकार भी दे देता है कि वह महिला के  यौन जीवन का संरक्षक  और उसका उपभोक्ता है . जो पुरुष अपने आपको महिला का रक्षक बनाता फिरता है वह उसके साथ ज़बरदस्ती करने में भी संकोच नहीं करेगा. शिक्षा और समाज की बुनियाद में ही यह भर देने की ज़रूरत है कि पुरुष और स्त्री बराबर है और कोई किसी का रक्षक नहीं है. सब अपनी रक्षा खुद कर सकते हैं. बिना बुनियादी बदलाव के बलात्कार को हटाने की कोशिश वैसी  ही है जैसे किसी घाव पर मलहम लगाना . हमें ऐसे एंटी बायोटिक की तलाश करनी है जो शरीर में ऐसी शक्ति पैदा करे कि घाव होने की नौबत ही न आये. कहीं कोई बलात्कार ही न हो . उसके लिए सबसे ज़रूरी बात यह है कि महिला और पुरुष के बीच बराबरी को सामाजिक विकास की आवश्यक शर्त माना जाए.

लडकी और लड़के में बराबरी की भावना  लाने के लिए सरकार को दखल देना चाहिए और समाज की कुरीतियों को ख़त्म करना चाहिए .लड़कियों को खुदमुख्तार बनाने के लिए राजनीतिक कदम उठाये जाने चाहिए . महिलाओं को राजनीतिक आरक्षण देने की बात तो की जा रही है लेकिन सरकारी नौकरियों में इन्हें आरक्षण देने की बात कहीं नहीं कही जा रही है . महिलाओं को समाज में और राजनीति में सम्मान देने का एक ही तरीका है कि उनको देश और समाज के साथ साथ अपने बारे में फैसले लेने के अधिकार दिए जाएँ . अगर ऐसा न हुआ तो महिलायें पिछड़ी ही रहेगीं और जब तक पिछड़ी रहेगीं उनका शोषण हर स्तर पर होता रहेगा. बलात्कार महिलाओं  को कमज़ोर रखने और उनको हमेशा पुरुष के अधीन बनाए रखने की मर्दवादी सोच का नतीजा है . राजनीतिक पार्टियों पर इस बात के  लिए दबाव बनाया जाना चाहिए कि ऐसे क़ानून बनाएँ जिस से महिला और पुरुष  बराबरी के अधिकार के साथ समाज के भविष्य के फैसले लें और भारत को एक बेहतर देश के रूप में सम्मान मिल सके

Tuesday, April 17, 2018

देशबंधु के साठ साल



शेष नारायण सिंह 

मेरी ज़िंदगी में बहुत सारे गलत फैसले हुए हैं , इसकी वजह से मुझे बार बार पछताना पड़ा है लेकिन बहुत सारे ऐसे फैसले हुए हैं जिन्होंने मेरी ज़िंदगी को एक सार्थकता दी है . देशबंधु के स्टाफ का सदस्य बनना मेरे जीवन का एक ऐसा ही फैसला है . यहाँ आकर मुझे लगता है कि मैंने इस अखबार को १९७८ में क्यों नहीं ज्वाइन कर लिया था जब मेरे ऊपर हर तरह के दबाव थे. देर से ही सही लेकिन फैसला सही लिया क्योंकि बहुत देर से मैं देशबंधु का सदस्य बना . आज इतने वर्षों बाद जब पीछे मुड़कर देखता हूँ तो लगता है कि परिवार में आ गया हूँ . छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश में जहां कहीं भी लोगों को पता लगता है कि मैं देशबंधु में काम करता हूँ, मुझे फ़ौरन सम्मान मिलता है . इस अख़बार में काम करने की शर्तें थोड़ी मुश्किल हैं .मुझे इस अखबार से छुट्टी नहीं मिलती , चौबीसों घंटे की नौकरी है . मैं कहीं भी रहूँ ड्यूटी पर ही माना जाता हूँ . मैं यहाँ से इस्तीफा नहीं दे सकता . मेरे सम्पादक ने मुझे चेतावनी दे रखी है कि मेरे पास अखबार छोड़ने का विकल्प नहीं हैं .
पहली बार ऐसा हो रहा है कि किसी संगठन के सदस्य के रूप में लगता है कि जीवन यहीं बिताया जाए. ऐसा शायद इसलिए हो रहा है कि जब भी कुछ अच्छा लिखता हूँ तो संस्था के सबसे बड़े सदस्य ललित सुरजन फोन करके बताते हैं कि शेषजी बहुत अच्छा लिखा है . यह मुझे अच्छा लगता है . लेकिन उससे भी अच्छा तब लगता है जब मैं कोई बेकार आलेख लिखता हूँ तो मुझे किसी भी सम्पादक से यह सन्देश नहीं मिलता कि क्या बकवास लिखी है. ललित सुरजन की तारीफ़ का मतलब क्या होता है यह वही लोग जानते हैं जो ललित जी से वाकिफ हैं . ललित जी की बेटियां विदुषी और विनम्र हैं ,मेरे ग्रुप सम्पादक राजीव रंजन श्रीवास्तव ज़रूरत से ज्यादा भले आदमी हैं. मैं कई बार सोचता हूँ कि बिना सच से समझौता किये , बिना किसी राजनीतिक पार्टी की जयजयकार किये , बिना किसी सेठ साहूकार से मदद लिए यह अखबार कैसे चलता है लेकिन समझ में आ जाता है कि देशबंधु के संस्थापक स्वर्गीय मायाराम सुरजन ने पत्रकारिता के बुलंद मानकों का जो गुम्बद बना दिया है ,उसी की रोशनी में यह आज भी चमक रहा है , आगे भी चमकता रहेगा . मायाराम सुरजन ने कभी भी पत्रकारिता के बुनियादी मूल्यों से समझौता नहीं किया . १९९३ -२००३ के बीच मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे दिग्विजय सिंह ने कहीं लिखा है कि वे एक बार स्व मायाराम सुरजन को राज्य सभा का सदस्य बनाने का प्रस्ताव लेकर गए थे लेकिन उन्होंने साफ़ मना कर दिया और कहा कि मुझे मेरा काम करने दो , राजनीति में जाना पत्रकार को शोभा नहीं देता. जब आज के बड़े पत्रकारों को दिल्ली के राजाधिराजों के दरबारों में सरकारी सुविधाओं के लिए जुगाड़ करते देखता हूँ तो लगता है कि मेरे अखबार के सम्पादक वास्तव में पत्रकारिता के मानदंड थे. आज देशबंधु की स्थापना के साठ साल पूरे हुए और इस पूरे दौर में यह कभी झुका नहीं .
बहुत बहुत बधाई देशबंधु परिवार के हर सदस्य को जो यहाँ कर्मचारी नहीं ,पार्टनर होता है

Sunday, April 8, 2018

नर्मदा परिक्रमा के बाद की राजनीति--दिग्विजय सिंह हिन्दू भी हैं और धर्म निरपेक्ष भी



शेष नारायण सिंह
देश की राजनीति को  हिंदू केन्द्रित  करने की आर एस एस की कोशिश बाबरी मस्स्जिद-रामजन्मभूमि विवाद के साथ शुरू हो गयी थी. धीरे धीरे ही सही उनको सफलता मिल रही थी. दो सीट वाली बीजेपी १९८९ में वी पी सिंह की सरकार बनवाने में सफल हो गयी और आज २२ राज्यों में बीजेपी या उनके साथियों की सरकार है . केंद्र में भी पूर्ण बहुमत वाली  सरकार बन चुकी है .  बीजेपी की इस उन्नति में उनकी हिंदूवादी राजनीति का भारी योगदान है . जब बाबरी मस्जिद- रामजन्मभूमि विवाद शुरू हुआ तो हिन्दू धर्म के सबसे बड़े प्रतीक, भगवान राम को अपना बनाकर कांग्रेस को राम विरोधी पार्टी के रूप में पेश करने में बीजेपी और विश्व हिन्दू परिषद् ने   बड़ी सफलता पाई . उस वक़्त के कांग्रेस के नेताओं में ने बीजेपी/आर एस एस को  उनकी इस मंशा में  कामयाब होने की पूरी छूट दे रखी थी. यह अलग बात है कि तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी की सरकार ने  बाबरी मस्जिद का ताला भी खुलवाया और वहां शिलान्यास भी करवाया  लेकिन इसका श्रेय वी एच पी और आर एस एस ने  झटक लिया . दावा किया गया कि आर एस एस के दबाव में राजीव  गांधी ने काम किया है. इस बीच लगातार कांग्रेस को हिन्दू विरोधी पार्टी के रूप में प्रस्तुत किया जाता रहा. जब से चौबीस घन्टों के टीवी  समाचार शुरू हुआ  तब  से एक नया खेल शुरू हो गया है . हर डिबेट में  दो तीन दाढी वाले मौलाना बैठाकर उनके हवाले से मुसलमानों को ही हिन्दू विरोधी  बताने की साज़िश चल रही है . अब तक कांग्रेस की लीडरशिप ने  इसको रोकने की कोशिश नहीं की . यह सब चलता रहा और कांग्रेस हिन्दू विरोधी पार्टी के रूप में रंगी जाती रही . एक ऐसा मुकाम भी आया जब बीजेपी,आर एस एस और कुछ वफादार पत्रकारों की कोशिश से ऐसा माहौल बना दिया गया कि जो बीजेपी के विरोध में होगा वह देशद्रोही  भी होगा और हिन्दू विरोधी भी . नतीजा सामने  है . हिन्दू पार्टी के रूप में बीजेपी दबादब चुनाव जीतती जा रही है और कांग्रेस के नेताओं ने यह बताने की कोशिश भी नहीं की कि  जो बीजेपी विरोधी है वह हिन्दू  भी हो सकता है और  सेकुलर भी होता है . कांग्रेस में जिस एकाध नेता ने यह बात स्थापित करने की  कोशिश की कि धर्म निरापेक्ष होने के साथ साथ  साम्प्रदायिकता विरोधी और सनातनी  हिन्दू भी हुआ जा सकता है ,आर एस एस का विरोद्ध हिन्दू विरोध   नहीं है ,उसको कांगेस अध्यक्ष और उपाध्यक्ष के आसपास जमे लोगों ने हूट कर लिया और कहा कि यह उस नेता के निजी विचार हैं . बात बदलना तब शुरू  हुई जब  कांग्रेस के बड़े नेता, ए के अंटनी ने एक रिपोर्ट दी जिसमें कहा   गया  कि कांग्रेस के बारे में यह मशहूर हो  चुका  है कि वह अल्पसंख्यकों की पार्टी है और हिन्दू विरोधी है .लेकिन इस रिपोर्ट के आने तक बहुत  नुक्सान हो चुका था. कांगेस के अन्दर मौजूद धर्मनिरपेक्ष नेताओं को २४ अकबर रोड में विराजने वाली चौकड़ी हाशिये पर पंहुचा चुकी थी और यहाँ मौजूद नेता लोग जिन राज्यों  में कांग्रेस की सरकारें बच गयी थीं ,वहां के मुख्यमंत्रियों का आर्थिक शोषण कर रहे थे. धर्म निरपेक्षता की बात करने वालों को उनके निजी विचार वाले खांचे में फिट किया जा चुका था. कांग्रेस के महासचिव् दिग्विजय सिंह को हाशिये पर लाने की कोशिश को इस कसौटी पर कसा जा सकता है . ऐसे  और भी लोग थे .
जब उत्तर प्रदेश के २०१७ के विधानसभा चुनावों में  कांग्रेस पार्टी का सफाया हो गया तो  सोनिया गांधी ने दखल दिया  और कहा कि उनकी पार्टी को मुसलमानों की पार्टी के रूप में चित्रित कर दिया  गया है . उसके बाद की कांग्रेसी रणनीति में बदलाव नज़र आने लगा. गुजरात चुनाव में राहुल गांधी मंदिरों में जाने लगे. बीजेपी/आर एस एस वालों ने खूब हल्ला मचाया कि राहुल  गांधी कभी मंदिरों में नहीं जाते आज वोट के लिए जा रहे हैं . टीवी डिबेट  में मौजूद इन नेताओं  की चिंताओं को करीब से देखने का मौक़ा मिला तो दर्द समझ में आया लेकिन कांग्रेस अपने आपको हिन्दू विरोधी पार्टी के  सांचे ने निकालने की कोशिश करती रही.  कांग्रेस  के नेतृत्व ने एक बार फिर साबित कर दिया हिन्दू होने की साथ साथ सेकुलर भी हुआ जा सकता है . गुजरात चुनाव में बीजेपी के प्रवक्ता और उनके पत्रकार  कांग्रेस को हिन्दू  विरोधी पार्टी नहीं साबित कर सके. नतीजा यह हुआ कि अन्य मुद्दे चुनाव में   बहस में आये और गुजरात  चुनाव में कांग्रेस का प्रदर्शन बेहतर रहा . कर्नाटक के चुनाव में भी राहुल गांधी मंदिरों के फेरे लगा रहे हैं और बीजेपी वाले उनको हिन्दू विरोधी साबित करने में अब तक नाकाम रहे  हैं. कांग्रेस की  किस्मत में अच्छी बात यह है कि  बीजेपी प्रवक्ताओं की तरफ से राहुल गांधी को मुस्लिम विरोधी साबित करने की  कोशिश भी अब तक सफल नहीं हुई . मुसलमानों ने स्वीकार कर लिया है कि उनके धार्मिक मसाइल से नेता दूर ही रहें तो अच्छा है . उनको चैन से रहने दें और धर्म निरपेक्ष राजनीति को  महत्व देते रहें ,यही काफी है . क्योंकि यह सबको मालूम है कि धर्मनिरपेक्ष राजनीति से  देश और समाज की तरक्की होती है और साम्प्रदायिक राजनीति से देश को नुक्सान होता है . महात्मा गांधी और नेहरू की कांग्रेस की यही सीख  है और जब जब कांग्रेस इस सीख से विचलित हुई है ,पार्टी चुनाव हार गयी है.   देश के सत्तर साल के इतिहास में जो भी नेता मुसलमानों का   शुभचिंतक हुआ  है , वह  हिन्दू भी था और  साम्प्रदायिकता विरोधी भी रहा है . इस सन्दर्भ में जवाहार लाल नेहरू,हेमवती नंदन बहुगुणा और मुलायम सिंह का नाम लिया जा सकता है .
देश के मौजूदा नेताओं में इस श्रेणी में  दिग्विजय सिंह का नाम लिया जा सकता  है .उनको  आर एस एस ने हिन्दू विरोधी सिद्ध करने के लिए  कोई कसर नहीं छोडी है लेकिन उन्होंने सारा खेल पलट दिया है . ३३०० किलोमीटर की नर्मदा  परिक्रमा करके उन्होंने सिद्ध कर दिया  है वे आर एस  एस के हर नेता से ज्यादा हिन्दू हैं और धर्मनिरपेक्ष तो हैं ही.  अपनी नर्मदा परिक्रमा के दौरान दिग्विजय सिंह ने किसी भी राजनीतिक विषय पर बात करने से परहेज किया  है लेकिन धर्म के दर्शन पर बेझिझक बात कर रहे थे. उनका कहना है कि हिंदू धर्म भारत का प्राचीन धर्म है जबकि हिंदुत्व एक राजनीतिक विचारधारा है जिसका प्रतिपादन 1924 में वीडी सावरकर ने अपनी किताब 'हिंदुत्व में किया था। सावरकर ने  हिंदुत्व को  राजनीतिक अभियान का मंच बनाने की कोशिश की थी।सावरकर ने हिंदुत्व की परिभाषा भी दी। उनके अनुसार -''हिंदू वह है जो सिंधु नदी से समुद्र तक के भारतवर्ष को अपनी पितृभूमि और पुण्यभूमि माने। इस विचारधारा को ही हिंदुत्व नाम दिया गया है। ज़ाहिर है हिंदुत्व को हिंदू धर्म से कोई लेना देना नहीं है। लेकिन हिंदू धर्म और हिंदुत्व में शाब्दिक समानता के चलते पर्यायवाची होने का बोध होता है। इसी भ्रम के चलते कई बार सांप्रदायिकता के खतरे भी पैदा हो जाते हैं। धर्म को सम्प्रदाय मानने की गलती से ही संघर्ष और दंगे फसाद के हालात पैदा होते हैं और अगर हमारी आजादी की लड़ाई के असली मकसद को हासिल करना है तो उदारवादी राजनीति के नेताओं को चाहिए वे आम आदमी को धर्म के असली अर्थ के बारे में जानकारी देने का अभियान चलाएं और लोगों को जागरूक करें। ऐसा करने से आजादी की लड़ाई का एक अहम लक्ष्य हासिल किया जा सकेगा .
दिग्विजय सिंह की नर्मदा परिक्रमा को जो लोग करीब से देख रहे हैं उनका  दावा  है कि वे राजनीति और धर्म को घालमेल करने की कोशिशों को सफल नहीं होने देंगे . यात्रा आज खतम हो रही है लेकिन मध्यप्रदेश के वर्तमान मुख्यमंत्री दहशत में हैं क्योंकि दिग्विजय सिंह ने कह दिया है कि अब वे राजनीतिक यात्रा शुरू करेंगे.अपनी नर्मदा परिक्रमा यात्रा शुरू करने के पहले सितम्बर २०१७ में दिग्विजय सिंह ने इस रिपोर्टर से एक बातचीत में बताया था कि उनकी यात्रा पूरी तरह से आध्यात्मिक है ,और उन्होंने अपनी पार्टी  को लिखकर दे दिया है कि अप्रैल २०१८ तक उनको कांग्रेस के किसी भी  कार्य की ज़िम्मेदारी से  मुक्त रखा जाए. उन्होंने बताया था कि वर्षों पहले  उनके  आध्यात्मिक गुरु ने उनसे कहा था कि समय निकालकर माँ नर्मदा की परिक्रमा करोइसलिए उन्होने अपनी पत्नी के साथ इस यात्रा पर जाने का निर्णय लिया है.
दिग्विजय सिंह अब अपने आपको एक बड़े हिन्दू के रूप में स्थापित कर   चुके हैं .अगर अपनी राजनीतिक यात्रा के दौरान वे पहले जैसे ही धर्मनिरपेक्ष बने रहते हैं तो उनको हिन्दू विरोधी साबित कार पाना बीजेपी के लिए बहुत मुश्किल होगा. और यह देश की धर्मनिरपेक्ष राजनीति को ताकत देगा 

मध्यप्रदेश की राजनीति में नर्मदा नदी की बदहाली मुद्दा बनने वाली है .



शेष नारायण सिंह


कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह की नर्मदा परिक्रमा की धमक भोपाल में महसूस की जा रही है . हालांकि दिल्ली के मीडिया ने इस यात्रा को आम तौर पर नज़रंदाज़ ही किया है लेकिन भोपाल के वल्लभ भवन के अधिष्ठाता को इस यात्रा का महत्व मालूम है . मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को मालूम है कि उन्होंने नमामि देवि नर्मदे यात्रा करके जो मीडिया में  माहौल बनाया था उसकी सच्चाई सामने आने वाली है क्योंकि दिग्विजय सिंह ने ऐलान कर दिया  है कि जब नौ अप्रैल को उनकी आध्यात्मिक यात्रा का संकल्प पूरा होगा ,उसके बाद वे ओंकारेश्वर महादेव में जलाभिषेक करके राजनीतिक यात्रा पर निकल जायेगें .अपनी नर्मदा परिक्रमा यात्रा शुरू करने के पहले सितम्बर २०१७ में दिग्विजय सिंह ने देशबन्धु से एक बातचीत में बताया था कि उनकी यात्रा पूरी तरह से आध्यात्मिक है ,और उन्होंने अपनी पार्टी  को लिखकर दे दिया है कि अप्रैल २०१८ तक उनको कांग्रेस के किसी भी  कार्य की ज़िम्मेदारी से  मुक्त रखा जाए. उन्होंने कहा था कि इस यात्रा में कोई भी राजनीतिक बयान नहीं दिया जायेगा ,किसी तरह की बाईट नहीं दी जायेगी और किसी भी राजनीतिक घटनाक्रम पर टिप्पणी नहीं की जायेगी . उन्होंने बताया था कि वर्षों पहले  उनके  आध्यात्मिक गुरु ने उनसे कहा था कि समय निकालकर माँ नर्मदा की परिक्रमा करोइसलिए उन्होने अपनी पत्नी के साथ इस यात्रा पर जाने का निर्णय लिया है .
यात्रा अब पूरी होने वाली है . इस यात्रा के बारे में दिल्ली में भी बहुत उत्सुकता है. जब भी किसी पत्रकार साथी ने वरिष्ठ पत्रकार और दिग्विजय सिंह की पत्नी ,अमृता  राय से पूछा कि यात्रा के अब तक के क्या अनुभव हैं तो उन्होंने कहा  कि वर्णन नहीं किया जा सकताअनुभव करके ही देखा जा सकता है. कुछ पत्रकारों ने यह चुनौती स्वीकार की और एकाध दिन उनकी यात्रा में शामिल होकर देखा . कुछ उम्रदराज़ पत्रकारों ने भी इस चुनौती को स्वीकार किया और दो दिन नर्मदा परिक्रमा में  शामिल हुए . तीसरे दिन पाँव में फफोले लेकर वापस  दिल्ली आ गए . लेकिन यह सच है कि उस यात्रा में शामिल होना किसी भी  पत्रकार के लिए अच्छा अनुभव  था.  बिना किसी ताम झाम के सिवनी जिले में परिक्रमा करते दिग्विजय सिंह के साथ राह चलते लोग जुड़ रहे थे. बातें कर रहे थेअपनी समस्याएं बता रहे थे और उनकी पत्रकार पत्नी उसको  याद करती चल रही  थीं. तीन हज़ार किलोमीटर की पैदल यात्रा पूरी हो चुकी थी और इस दौरान बहुत सारी सच्चाई पब्लिक डोमेन में  आ चुकी थी . इसी बात को शिवराज सिंह की सरकार ने महसूस किया और दिग्विजय सिंह की नौ अप्रैल के बाद किसी तारीख को संभावित राजनीतिक यात्रा की धार को कम करने के लिए पेशबंदी शुरू कर दी.

यह जानना दिलचस्प होगा कि मध्यप्रदेश के  मुख्यमंत्री शिवराज सिंह  चौहान ने भी नर्मदा यात्रा किया था . हेलीकाप्टर से जगह जगह गए थे लाखों रूपये खर्च करके बनाए गये पंडालों में सरकारी तामझाम के साथ स्वागत हुआ था और दावा किया गया था कि नर्मदा नदी के किनारे  छः करोड़ पौधे लगा दिए गए हैंबालू की अवैध खुदाई रोक दी गयी है और नर्मदा का पुराना  गौरव बहाल कर दिया गया है . रेत माफिया पर काबू कर लिया गया है .लेकिन दिग्विजय सिंह की यात्रा ने मध्यप्रदेश सरकार के इस दावे की पोल खोल दी . कहीं कोई पेड़ नहीं लगाया गया है . अवैध खनन पूरी तरह से चल रहा है और नर्मदा की रेत के ज़ालिम डाकू पूरी तरह से अपने काम पर लगे हुए  हैं.  नर्मदा को तबाह करने वाले ज़्यादातर लोग माफिया हैं और निर्द्वंद घूम रहे हैं .
यह सच्चाई  हर उस  व्यक्ति को मालूम है जो नर्मदा के बारे में जानने के लिए उत्सुक है . यह जानकारी स्वामी नामदेव त्यागी उर्फ़ कम्यूटर बाबा और योगेन्द्र महंत के पास भी थी. इन दोनों ने नर्मदा घोटाला रथ यात्रा की योजना बनाई थी . इस यात्रा का उद्देश्य था कि नर्मदा  नदी के किनारे पौधे लगाने का जो दावा राज्य सरकार ने किया था ,वह गलत था और उसमे भारी घोटाला हुआ था . यह  दोनों ही संत इसको उजागर करना चाहते थे . नर्मदा जी में बेहिसाब   बालू की खुदाई से  नर्मदा और पर्यावरण को हो रहे नुक्सान के बारे में देश और दुनिया को जानकारी देना भी इन संतों का लक्ष्य था. इसकी बाकायदा योजना बन गयी थी और यात्रा शुरू ही होने वाली थी . लेकिन  सरकार ने ज़बरदस्त हस्तक्षेप किया जिसके कारण प्रस्तावित   घोटाला यात्रा को  इस दोनों ही महात्माओं ने रद्द कर दिया है. यात्रा रद्द इसलिए कर दी गयी है कि यह दोनों ही महात्मा अब मुख्यमंत्री  शिवराज सिंह की सरकार का हिस्सा हैं. नर्मदा के कल्याण के लिए सरकार के काम की तारीफ़ करना इनकी ड्यूटी बन गयी है.  कम्यूटर बाबा ने बताया कि अब यात्रा नहीं निकाली जायेगी क्योंकि शिवराज सिंह ने संत समुदाय को सम्मान दे दिया है . इन स्वामी जी के अलावा और भी साधू हैं जो नर्मदा के घोटालों को उजागर करने वाले थे . लेकिन उन लोगों ने भी सरकार की कमियों को पब्लिक डोमेन में लाने का अपना कार्यक्रम रद्द कर दिया है  क्योंकि उनको भी शिवराज सिंह की सरकार ने सम्मानित कर दिया है .
आखबारों में खबर है कि मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह  चौहान ने पांच बाबाओं को अपनी सरकार के राज्यमंत्री का दर्ज़ा दे दिया  है. सरकार ने दावा किया है कि समाज के हर वर्ग के लोगों को राज्य के हित में काम करने के  अवसर देने के लिए ऐसा किया गया है .जिन  संतों को राज्यमंत्री पद का दर्ज़ा दिया गया है वे सभी किसी न किसी रूप में नर्मदा नदी को उजाड़ने की सरकार की  कोशिश से जुड़े बताये जाते हैं. राज्यमंत्री का दर्ज़ा पाने वालों  में कम्यूटर बाबा,भैय्यूजी महराज,नर्मदानंद जी ,हरिहरानन्द जीऔर पंडित योगेन्द्र महंत शामिल हैं . इन पाँचों संतों को एक कमेटी का सदस्य बनाया गया है जिसका गठन नर्मदा के संरक्षणस्वच्छता और वानिकी के लिए किया गया है . इस कमेटी के सदस्यों को राज्यमंत्री का दर्ज़ा दे दिया गया है.  इसी साल के अंत  में चुनाव होने हैं  और वे चुनाव मध्यप्रदेश की गाँवों और कस्बों में  ही लडे जायेंगे. दिल्ली के मीडिया  संस्थानों का उन गाँवों में कोई नाम भी नहीं जानता लेकिन दावा किया गया है कि इन  बाबाओं को लोग वहां जानते हैं ,इनका आम जन पर थोड़ा बहुत प्रभाव है . शिवराज सिंह चौहान को मालूम है कि दिग्विजय सिंह की नर्मदा परिक्रमा यात्रा ने उनके नामामि देवि नर्मदे यात्रा से संभावित चुनावी लाभ को कम कर दिया है . अब इन पांच संतों को नर्मदा क्षेत्र के एक सौ से  अधिक चुनाव क्षेत्रों में भेजकर दिग्विजय सिंह की प्रस्तावित राजनीतिक यात्रा से शिवराज सिंह की राजनीति को संभावित नुक्सान को कंट्रोल करने की कोशिश की जायेगी .  

इन संतों का प्रभाव समझने के लिए इनके बारे में कुछ जानकारी लेना उपयोगी होगा. स्वामी नामदेव उर्फ़ कम्यूटर बाबा हमेशा एक लैपटाप के साथ देखे जाते हैं. इन्होने अभी कुछ दिन पहले घोषणा की थी कि वे मध्यप्रदेश में नर्मदा के किनारे यात्रा करेंगे और सरकार की नाकामियों और घोटालों को उजागर करेंगे. इनके अभियान से सम्बंधित एक वीडियो आजकल खूब प्रचारित हो रहा है जिसमें यह बाबा जी और योगेन्द्र महंत के बयान भी हैं .दर्ज़ा प्राप्त मंत्री होने के बाद उन्होंने अपनी नर्मदा यात्रा की योजना को रद्द कर दिया  है. दर्ज़ा प्राप्त मंत्रियों में एक अन्य हैं ,भैय्यूजी महराज . इनका असली नाम उदयसिंह देशमुख है .आप एक संपन्न ज़मींदार परिवार से हैंखूबसूरत हैं,   पहले माडलिंग भी कर चुके हैं, . इंदौर के एक आलीशान आश्रम में रहते हैं मर्सिडीज़ कार में चलते हैं  . एक कुशल कम्युनिकेटर हैं  . एक और दर्जाप्राप्त  हैं, स्वामी हरिहरानंद जी . इन्होने  दिसंबर २०१६ में नमामि देवि नर्मदे सेवा यात्रा किया था . अमरकंटक से अलीराजपुर पैदल गए थे .जगह जगह भाषण भी दिया था. इस इलाके में इनका अच्छा प्रभाव बताया जाता है . पंडित योगेन्द्र महंत को भी राज्यमंत्री का दर्ज़ा दे दिया गया है .यह भी कम्यूटर बाबा के साथ शिवराज सरकार के कथित घोटालों का पर्दाफ़ाश करने वाले थे लेकिन अब दर्ज़ा प्राप्त वाले खेल में लपेट लिए गए हैं . इनका आरोप था कि शिवराज सिंह चौहान खनन माफिया को सहयोग देकर मां नर्मदा को तबाह कर  रहे हैं .पांचवें संत हैं नर्मदानंद जी महराज. यह हनुमान जयन्ती और राम नवमी के दिन जूलूस निकालने के  विशेषज्ञ हैं .

राजनीतिक सवाल यह है कि क्या यह लोग दिग्विजय सिंह की नर्मदा परिक्रमा के बाद बनी उनकी राजनीतिक हैसियत को छोटा कर पायेंगें . इसके बारे में पड़ताल की कोशिश बड़े दिलचस्प तथ्य  तक  पंहुचाती है. भोपाल स्थित वरिष्ठ पत्रकार अरुण दीक्षित से इस बारे में जानकारी लेने की कोशिश की . उन्होंने बताया कि इसी विषय पर उनकी लोकसभा के सदस्य और नर्मदा संस्कृति के मर्मज्ञ , प्रहलाद पटेल से बात हुई थी.  उन्होंने कहा कि दर्ज़ा प्राप्त इन बाबाओं को नर्मदा के सन्दर्भ में तो कोई नहीं जानता .उनका कहना है कि अगर दिग्विजय सिंह इस यात्रा के बाद भी राजनीति में सक्रिय होते हैं तो वे बिकुल अलग तरह के राजनेता होंगे . भोपाल के ही वरिष्ठ पत्रकार और टेलीग्राफ के रेज़ीडेंट एडिटर रशीद किदवई का कहना है कि अब मध्य प्रदेश के सभी कांग्रेसी नेता मानते हैं कि नई राजनीतिक परिस्थिति में कांग्रेस की राजनीति का बिलकुल नया सन्दर्भ देखना होगा. हालांकि इस बात के कोई संकेत  नहीं हैं कि दिग्विजय सिंह  मुख्यमंत्री  के उम्मीदवार होंगें लेकिन मुख्यमंत्री कौन होगा यह तय करने में उनकी राय महत्वपूर्ण होगी. पांच नए बाबाओं के माध्यम से उनको रोकने की शिवराज सिंह चौहान की कोशिश  को भोपाल का कोई भी नेता या पत्रकार गंभीरता से लेने को तैयार नहीं है . दिल्ली के कुछ गंभीर पत्रकारों से  भी मध्य प्रदेश की राजनीति को समझने  का प्रयास किया गया . एक बहुत ही आदरणीय पत्रकार ने भरोसे के साथ बताया कि दिग्विजय सिंह को तो कांग्रेस मध्य प्रदेश में चुनाव के प्रचार के काम में भी नहीं लगाने वाली है . जाहिर है राजनीति की नफीस गलियों की सही व्याख्या उपलब्ध सूचना के आधार पर ही की जा  सकती है और दिल्ली में मध्य प्रदेश की ताज़ा राजनीतिक स्थिति के बदलते रंग की सही जानकारी बहुत कम पत्रकारों के पास है .