शेष नारायण सिंह
1975 में जब इमरजेंसी लगी तो बहुत लोगों को सहसा विश्वास ही नहीं हुआ कि क्या हो गया .. देश का समझदार तबका भौंचक था . इसी वर्ग में साकिन गंगौली, जिला ग़ाज़ीपुर ,हाल मुकाम बांद्रा ,मुंबई के डॉ राही मासूम रजा भी थे. राही इने उसके पहले कई उपन्यास लिखे थे और भी बहुत कुछ लिखा था लेकिन इमरजेंसी की ज्यादतियों को केंद्र में रखकर लिखा गया उनका उपन्यास ,” कटरा बी आर्ज़ू “ हिंदी साहित्य की समकालीन इतिहास की पृष्ठभूमि पर लिखी गयी अमर कृति है .उसी उपन्यास में डॉ राही मासूम रज़ा लिखते हैं :-
”उजाला दूर - दूर कहीं नहीं था । गंदे बदबूदार कुहरे की एक मोटी तह जैसे हर चीज पर जम गई थी । कोई चीज साफ नहीं दिखाई दे रही थी । विधानसभा, हाईकोर्ट, सुप्रीम कोर्ट । गांधी जी की समाधि, मौलाना आजाद की कब्र , तिलक और गोखले के स्टैच्यू यूनिवर्सिटियां , प्रेस...... गरज कि हर चीज पर अंधेरे की एक मोटी तह जमी हुई थी......... यह अंधेरा अजीब था मगर । आम तौर से किसी को दिखाई ही नहीं दे रहा था । बहुत - से बुद्धजीवी भी इसे न देख पाए । ख़्वाजा अहमद अब्बास , अली सरदार जाफ़री , डा एस ए डांगे, राजेश्वर राव , हिरेन मुखर्जी , डाक्टर नूरुल हसन , कृश्नचंद्र , कमलेश्वर , चित्रकार हुसैन ........... हज़ारों नाम हैं । इन लोगों ने अंधेरे को उजाला कहा और उसका स्वागत किया । यह सिर जो अंग्रेज़ के सामने नहीं झुके थे, रास्ते - भर सज्दा करते हुए नंबर - 1 सफ़दरजंग तक जा पहुंचे और जिन सिरों ने झुकने से और जिन ज़बानों ने क़सीदा पढ़ने से इनकार किया वह............ बहुत बुरी गुज़री उन पर । हमारा देश जिसके बारे में जहाँगीर ने कहा था कि जन्नत यही है, एक खंडहर बन गया, जिस पर कूड़े की तरह कटे हुए सिर और कटी हुई ज़बानों का ढेर लग गया और इस ढेर पर एक कुकुरमुत्ता उगा जिसका नाम संजय गांधी था ।..........यह ज़माना है वी सी शुक्ल ,ओम मेहता, और बंसीलाल जैसे लोगों के उरूज़ का .यह ज़माना है बाबू जगजीवन राम ,बहुगुणा , चौहाण ( वाई बी चह्वाण) जैसे लोगों के चुप रह जाने का .यह ज़माना है चंद्रशेखर,मोहन धारिया जैसे लोगों के सच बोलने की सज़ा भुगतने का .” (कटरा बी आर्जू पृष्ठ - - 153 ).
राही मासूम रज़ा कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य थे इसलिए उन्होंने अपने कामरेडों । ख़्वाजा अहमद अब्बास , अली सरदार जाफ़री , डा एस ए डांगे, राजेश्वर राव , हिरेन मुखर्जी , डाक्टर नूरुल हसन के प्रति नरमी का रवैया अपनाया है . और लिख दिया है कि यह लोग वक़्त को भांप नहीं पाए जबकि सच यह है कि इन लोगों का योगदान इमरजेंसी के लागू होने और चलाने में वी सी शुक्ल, बंसीलाल आदि से कम नहीं था .
बहरहाल इमरजेंसी के आतंक को जिस दर्द के साथ कटरा बी आर्ज़ू में डॉ राही मासूम रज़ा ने रेखांकित किया है वह एक नश्तर की तरह आज भी चुभ जाता है . उन्होंने हिंदी में एक से एक उपन्यास लिखे , आधा गाँव, हिम्मत जौनपुरी,टोपी शुक्ला , कटरा बी आर्ज़ू ,ओस की एक बूँद, दिल एक सादा कागज़ आदि . हिंदी-उर्दू का महाकाव्य , “अठारह सौ सत्तावन “ भी उनके नाम है . उनके अपने जिले गाजीपुर के रत्न, परमवीर अब्दुल हमीद की जीवनी ‘ छोटे आदमी की बड़ी कहानी ‘ भी उनके उल्लेखनीय शाहकार हैं लेकिन देश की एक बहुत बड़ी आबादी उनको आज से करीब बत्तीस साल पहले आये टीवी धारावाहिक महाभारत के संवाद लेखक के रूप में याद करती है . उस सीरियल में जिस तरह से भाषा के कारण चरित्रों को लगभग वास्तविक बना दिया गया है वह राही माजूम रज़ा की कलम से ही संभव था .
उन्हीं डॉ राही मासूम रज़ा का आज ( 1 सितंबर) जन्मदिन है . डॉ राही मासूम रज़ा का साहित्य पढने का अवसर मुझे 1974 में मिला . हुआ यह था कि उसी साल जोधपुर विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में आंचलिक उपन्यास के अध्ययन के कोर्स में डॉ राही मासूम रज़ा का ' आधा गाँव ' लगा दिया गया . बड़ा हो हल्ला हुआ . छात्रों के एक गुट ने आसमान सर पर उठा लिया और किताब को हटवाने के लिए आन्दोलन करने लगे . उपन्यास में कुछ ऐसी बातें लिखी थीं जिनको गाली देने के लिए प्रयोग किया जाता है .कुछ लोगों ने किताब हटवाने के लिए आन्दोलन शुरू कर दिया . डॉ नामवर सिंह वहां हिंदी के विभागाध्यक्ष थे . जोधपुर वालों का आन्दोलन दिल्ली विश्वविद्यालय में भी शुरू हो गया . डॉ नामवर सिंह ने जोधपुर विश्वविद्यालय की नौकरी से इस्तीफा दे दिया.. इसी विवाद के बाद मैंने ‘आधा गाँव खरीद कर पढ़ा . उसके बाद तो लगभग हर वह चीज़ पढ़ी जिसपर लेखक के रूप में डॉ राही मासूम रज़ा का नाम दर्ज है . हर किताब अपने आप में बेजोड़ है . .
उनका उपन्यास दिल एक सादा कागज़ एक ऐसा ग्रन्थ है जो बार बार हार जाने के बाद भी जिंदा रहने की जिद की कहानी है , समझौतों की कहानी है . आज़ादी के पहले और उसके बाद के नकलीपन को रेखांकित करने की कहानी है . सिस्टम का हिस्सा बनकर जिंदा रहने की कोशिश की कहानी है . इसी उपन्यास से पता लगता है कि केवल शिक्षा की पूंजी लेकर ,दिमाग की पूंजी लेकर चल रहे लोगों को समझौते करने पड़ते हैं . इस उपन्यास का मुख्य पात्र ,रफ्फन है . राही लिखते हैं ," रफ्फन उस पल इस नतीजे पर पंहुचा कि जन्नत ( उसकी बीवी ) दुनिया की सबसे ज़्यादा खूबसूरत औरत है और उसी पल वह अपनी जन्नत और जन्नत बाजी को अलग-अलग करके देखने में पहली बार सफल भी हुआ .और उसने अपने आपको बेच देने के जुर्म पर अपने आपको क्षमा कर दिया "
अलीगढ़ से एम ए करने के बाद ही उनको वहां नौकरी मिल गयी थी लेकिन हालात ऐसे बने कि कुछ अरसा बाद उनको वहां से से निकाल दिया गया था . अलीगढ की कठमुल्ला सोच वाली बिरादरी ने उनके ऊपर इश्क करने का संगीन जुर्म साबित कर दिया था .अलीगढ से नौकरी से निकाले जाने के बाद उनके साथ खड़ा होने को कोई भी तैयार नहीं था ,तब राजकमल प्रकाशन की मालकिन और स्वनामधन्य बुद्धिजीवी , स्व.शीला संधू ने उनको मानसिक सहारा दिया था . यह उपन्यास राही ने उनको ही समर्पित किया है. समर्पण करते हुए लिखते हैं ,
" शीला जी ,आपने मुझे एक ख़त में लिखा है : " फिल्मों में ज्यादा मत फंसियेगा.यह भूल भुलैया है .इसमें लोग खो जाते हैं .......आशा है ,आप खैरियत से होंगे."
मैं खैरियत से नहीं हूँ
' दिल एल सादा कागज़ मेरी जीवनी भी हो सकता था .पर यह मेरी जीवनी नहीं है . इसके पन्नों में उदासी-सी जो कोई चीज़ है ,उसे स्वीकार कीजिये . इसलिए स्वीकार कीजिये कि मेरी नई ज़िंदगी की दस्तावेज़ पर पहला दस्तखत आप ही का है .
सात साल के बाद आपको वह दोपहर याद दिलवा रहा हूँ जिसमें मेरा साथ देने वाला कोई नहीं था . मैं नय्यर के साथ बिलकुल अकेला था और तब आपने कहा था : " फ़िक्र क्यों करते हो . मैं तुम लोगों के साथ हूँ ."उसी बेदर्द और बेमुरव्वत दोपहर की याद में यह उपन्यास आपकी नज़र है .
राही मासूम रजा
१५-९-७३”
अपने उपन्यास ‘टोपी शुक्ला ‘ की भूमिका में वे लिखते हैं ,’ मुझे यह उपन्यास लिखकर कोई ख़ास खुशी नहीं हुई क्योंकि आत्महत्या सभ्यता की हार है . परन्तु टोपी के सामने कोई और रास्ता नहीं था. यह टोपी मैं भी हूँ और मेरे जैसे बहुत से लोग भी हैं . हम लोगों में और टोपी में केवल एक अंतर है .हम कहीं न कहीं ,किसी न किसी अवसर पर कम्प्रोमाइज़ करते हैं . और इसीलिये हम लोग जी रहे हैं . टोपी कोई देवता या पैगम्बर नहीं था किंतु उसने कम्प्रोमाइज़ नहीं किया .और इसीलिये आत्महत्या कर ली. .परन्तु आधा गाँव के तरह ही यह किसी एक आदमी या कई कई आदमियों की कहानी नहीं है ..यह कहानी भी समय की है . इस कहानी का हीरो भी समय है . समय के सिवा कोई इस लायक नहीं होता कि उसे किसी कहानी का हीरो बनाया जाय. .
आधा गाँव में बेशुमार गालियाँ थीं . मौलाना ‘टोपी शुक्ला ‘ में एक भी गाली नहीं है .परन्तु शायद यह पूरा एक गंदी गाली है .और यह गाली मैं डंके की चोट बक रहा हूँ . यह उपन्यास अश्लील है जीवन की तरह ‘”
सच को सच कह देने की बेमिसाल क्षमता थी राही की शख्सियत में .अपने उन्पन्यासों मंू जिन नामों का ज़िक्र वे करते थे वे सब वास्तव में होते थे ,. काल्पनिक नामों का प्रयोग उन्होंने बहुत कम किया है . हालांकि वे लगभग हर किताब में कानून के मदेनजर ऐलान करते हैं कि ,’इसके पात्र झूठे हैं, जगहों के नाम गलत हैं . घटनाएँ गढ़ी हुई हैं . पारन्तु यह झूठ बोलने पर मैं शर्मिंदा नहीं हूँ “
डॉ राही मासूम रज़ा ने महाभारत सीरियल को ज़बान दी थी और उसके लिए उनको बहुत लोग याद करते हैं . लेकिन मैं उनको इसलिए याद करता हूँ कि उस आदमी के दिल में मुहब्बत का स्थाई पता था, वे अपने गाँव गंगौली से बहुत मुहब्बत करते थे, वे गाजीपुर के दीवाने थे और वहां बहने वाली नदी गंगा को अपनी मां मानते थे . अलीगढ मुस्लिम यूनिवर्सिटी को भी वे अपनी मां मानते थे . अलीगढ़ को वे शहरे तमन्ना कहते थे .अपने उसी शहरे तमन्ना को उन्होंने इस नज़्म में याद किया है . .
कुछ उस शहरे-तमन्ना की कहो
ओस की बूंद से क्या करती है अब सुबह सुलूक
वह मेरे साथ के सब तश्ना दहां कैसे हैं
उड़ती-पड़ती ये सुनी थी कि परेशान हैं लोग
अपने ख्वाबों से परेशान हैं लोग
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जिस गली ने मुझे सिखलाए थे आदाबे-जुनूं
उस गली में मेरे पैरों के निशां कैसे हैं
शहरे रुसवाई में चलती हैं हवायें कैसी
इन दिनों मश्गलए-जुल्फे परीशां क्या है
साख कैसी है जुनूं वालों की
कीमते चाके गरीबां क्या है
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कौन आया है मियां खां की जगह
चाय में कौन मिलाता है मुहब्बत का नमक
सुबह के बाल में कंघी करने
कौन आता है वहां
सुबह होती है कहां
शाम कहां ढ़लती है
शोबए-उर्दू में अब किसकी ग़ज़ल चलती है
****
चांद तो अब भी निकलता होगा
मार्च की चांदनी अब लेती है किन लोगों के नाम
किनके सर लगता है अब इश्क का संगीन इल्जाम
सुबह है किनके बगल की जीनत
किनके पहलू में है शाम
किन पे जीना है हराम
जो भी हों वह
तो हैं मेरे ही कबीले वाले
उस तरफ हो जो गुजर
उनसे ये कहना
कि मैंने उन्हें भेजा है सलाम
बाद के दिनों में मुसलमानों के प्रति नफ़रत जब एक कारोबार की शक्ल ले चुका तो राही मासूम रज़ा को बहुत तकलीफ हुयी थी . उनको इस बात पर बहुत फख्र होता था कि उनकी रगों में गंगा का पानी भी खून में मिलाकर बहता था . अपनी गंगा के बारे में उनका दर्द देखिए:
मेरा नाम मुसलमानों जैसा है
मुझ को कत्ल करो और मेरे घर में आग लगा दो।
मेरे उस कमरे को लूटो
जिस में मेरी बयाज़ें जाग रही हैं
और मैं जिस में तुलसी की रामायण से सरगोशी कर के
कालिदास के मेघदूत से ये कहता हूँ
मेरा भी एक सन्देशा है
मेरा नाम मुसलमानों जैसा है
मुझ को कत्ल करो और मेरे घर में आग लगा दो।
लेकिन मेरी रग रग में गंगा का पानी दौड़ रहा है,
मेरे लहु से चुल्लु भर कर
महादेव के मूँह पर फ़ैंको,
और उस जोगी से ये कह दो
महादेव! अपनी इस गंगा को वापस ले लो,
ये हम ज़लील तुर्कों के बदन में
गाढा, गर्म लहु बन बन के दौड़ रही है।
राही मासूम रज़ा की हर किताब में उस समय के समकालीन भारत का इतिहास भी है और साहित्य भी . ज़मीन से जुड़े इस आदमी को जब मौक़ा मिला तो उन्होंने इस देश की सच्चाई को बहुत ही साफगोई से पेश कर दिया . महाभारत धारवाहिक के लिए जो काम उन्होंने किया वह फ़िल्मी लेखन की दुनिया में भी उनको दैवी मुकाम कर पंहुचा देता है . महात्मा विदुर के जो संवाद हैं वह कोई भी बड़ा राजनीतिक चिन्तक बोलकर धन्य हो जाएगा .महाभारत के सभी चरित्रों के लिए जो संवाद लिखे वह उस दौर के लेखकों में किसी के बस का नहीं था.
डॉ राही मासूम रज़ा को मेरा सम्मान
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