Tuesday, September 1, 2020

बाबा आजमी की फिल्म “ मी रक्सम “ का पैगाम है ,” रक्स करना है तो पाँव की जंजीर न देख .”


                                                                       

 

 

शेष नारायण सिंह 

 

 

  बीसवीं सदी की कुछ  बेहतरीन फ़िल्में कैफ़ी आजमी के नाम से पहचानी जाती हैं .हीर रांझा में चेतन आनंद ने सारे संवाद  कविता में पेश करना चाहा और कैफ़ी ने उसे लिखा. राजकुमार हीरो थे ..भारत-चीन युद्ध की फिल्म ‘ हकीकत ‘  भी कैफ़ी की फिल्म है और ‘ गरम हवा ‘  भी . कागज़  के फूल , मंथन, कोहरा, सात हिन्दुस्तानी, बावर्ची  , पाकीज़ा ,हँसते ज़ख्म ,अर्थ ,रज़िया सुलतान जैसी फिल्मों को भी कैफ़ी ने अमर कर दिया .उनकी बड़ी  इच्छा थी कि आज़मगढ़ जिले के उनके गाँव मिजवां को केंद्र में रखकर कोई  फिल्म बनाई जाए  लेकिन किसी ने नहीं बनाया . आज उनके जाने के अट्ठारह साल बाद उनके बेटे बाबा आजमी ने मिजवां में  रहकर एक  फिल्म बनायी  है. फिल्म का नाम है  “ मी  रक्सम  “ .  करीब डेढ़  घंटे की यह फिल्म देखने के बाद लगता  है कि  कैफ़ी आजमी ऐसी ही फिल्म बनवाना चाहते  रहे होंगें .  फिल्म की कहानी का स्थाई भाव है अपनी बेटी के सपने साकार करने में मदद करता एक गरीब आदमी . उसकी बेटी भरतनाट्यम सीखना चाहती है . दरजी का काम करने वाले गरीब बाप ने गाँव में ही नृत्य सिखाने वाली एक महिला के स्कूल में लडकी का दाखिला करवा दिया . कठमुल्ले आ गए और विरोध शुरू हो गया . उनका एतराज इस बात पर था कि  मुसलमान के घर में पैदा हुई बेटी भरतनाट्यम कैसे सीख सकती है . उसमें तो हिन्दू धर्म के बहुत  सारे प्रतीक इस्तेमाल होते हैं .वैसे भी मुस्लिम समाज में नृत्य सीखना सही नहीं माना जाता . मुस्लिम समाज के ठेकेदार मैदान ले  लेते हैं और संगीत सीखने  वाली लडकी , मरियम के परिवार का बहिष्कार शुरू  हो   जाता है . एक संवाद नश्तर की तरह चुभ जाता है . मरियम अपने  अब्बू से पूछती है कि ,’ अब्बू ईद आने वाली है लेकिन आपके पास कोई काम नहीं है .’ ईद के दिन नए कपड़ों का रिवाज़ है. दूसरा संवाद जो इस फिल्म का बैनर बन सकता है उसमें गरीब दरजी  जब चौतरफा घिर जाने के बाद भी अपनी  बिटिया को  भरतनाट्यम   स्कूल भेजना बंद नहीं करता और मौलवी साहब  बाहुबली के साथ उसके घर आकर धमकाते हैं  कि नृत्य करना इस्लाम के खिलाफ है . तो दरजी का  जवाब काबिले गौर है . वह  कहते हैं कि ,”  हमारा इस्लाम इतना कमज़ोर नहीं है कि एक  लडकी के डांस करने से उसका नुक्सान हो जाय “ . दूसरी तरफ   भारतनाट्यम स्कूल का संरक्षक भी है जो दावा करता है कि भारतनाट्यम जैसे “ हिन्दू “ नृत्य को एक मुस्लिम लडकी को सिखाकर इस्लाम पर हिन्दू धर्म की जीत संकेत दे  रहा   है.  वह यह नहीं चाहता कि मरियम  फिल्म के अंत में होने वाले    नृत्य के मुकाबले में  विजयी हो .अडंगा  डालने की कोशिश में संगीत ही चुप्पे से बंद करवा देता है लेकिन उसी की बेटी अपने मोबाइल फोन से एक सूफी गाने के ज़रिये  नृत्य के संगीत का  इंतज़ाम कर देती है और मरियम जीत का सेहरा अपने सर कर लेती है .यही कैफ़ी आज़मी की असली सोच है .  अपने अंदर की ताकत से आगे बढ़ती लडकियां ,उनको समर्थन देते हुए उनके अपने परिवार के लोग , धर्म का बंधन तोड़ते हुए प्रगतिशील  लोगों की एकता  ,कैफ़ी की  ज़िंदगी का मिशन रहा है . अपने गाँव मिजवां में उन्होंने तालीम के रास्ते लड़कियों की  तरक्की का आन्दोलन शुरू  किया था , यह फिल्म उसी मुहिम की एक कड़ी की के रूप में देखा जा सकता  है . कैफ़ी के बच्चों के अलावा फिल्म में नसीरुदीन शाह ने मुफ्त में काम किया है . दरजी के  रोल में दानिश हुसैन ने बहुत ही  अच्छा काम  किया  है .

फिल्म को देखते हुए कैफ़ी आजमी की कालजयी नज़्म “ औरत “ की बार बार याद आती रही . चालीस के  दशक में आजादी के पहले लिखी गयी इस नज़्म में जब वे कहते  हैं कि, “ उठ मिरी  जान ,मेरे साथ ही चलना है  तुझे “ तो लगता है कि नौजवान कैफ़ी आजमी अपनी भावी ज़िन्दगी के एजेंडे का ऐलान कर रहे  हैं ..मेरे  दोस्त  स्व खुर्शीद अनवर ने एक बार लिखा था कि कैफ़ी ने  "उठ मिरी जान  मिरे साथ ही चलना है तुझे " कह कर लगाम अपने  हाथ में ले ली थी.  आज के सन्दर्भ में उनकी बात बिकुल सही है . सवाल उठता है कि भाई आप के साथ क्यों चलना  है . औरत खुद ही चली जायेगी लेकिन जब यह नज़्म चालीस के दशक में लिखी गयी तो उस वक़्त की क्रांतिकारी नज्मों में से एक थी. अगर कोई समाज  औरत को मर्द के बराबर का दर्ज़ा देता  था तो वह भी  बहुत बड़ी बात थी .

कैफ़ी  बहुत ही संवेदनशील इंसान थे , बचपन से ही .. कैफ़ी बहुत बड़े शायर थे . अपने भाई की ग़ज़ल को पूरा करने के लिए उन्होंने शायद १२ साल की उम्र में जो ग़ज़ल कही वह अमर हो गयी. बाद में उसी ग़ज़ल को बेग़म अख्तर ने आवाज़ दी और " इतना तो ज़िंदगी में किसी की ख़लल पड़े , हंसाने से हो सुकून न रोने से कल पड़े ."  अपने  अब्बा के घर में हुए एक मुशायरे में अपने बड़े भाई की सिफारिश से अतहर हुसैन रिज़वी ने यह ग़ज़ल पढी थी. जब इनके भाई ने लोगों को बताया कि ग़ज़ल अतहर  मियाँ की ही है , तो लोगों  ने सोचा कि छोटे भाई का दिल रखने के लिए बड़े भाई ने अपनी ग़ज़ल छोटे भाई से पढ़वा दी है . लेकिन बाद में लोगों को  लगा कि नहीं  बात सच थी क्योंकि यही अतहर मियाँ  आगे चलकर कैफ़ी आज़मी बनने वाले थे .

 

कैफ़ी आजमी इस मामले में बहुत भाग्यशाली रहे कि उन्हें दोस्त हमेशा ही अच्छे  मिले.  मुंबई में इप्टा के दिनों में उनके दोस्तों  में जो लोग शामिल थे वे बाद में बहुत बड़े  और नामी कलाकार के रूप में जाने गए . इप्टा में ही  होमी भाभा, क्रिशन चंदर ,मजरूह सुल्तानपुरी , साहिर लुधियानवी ,बलराज साहनी ,मोहन सहगल, मुल्क राज आनंद, रोमेश थापर, शैलेन्द्र ,प्रेम धवन ,इस्मत चुगताई, .ए के हंगल, हेमंत कुमार , अदी मर्जबान,सलिल चौधरी जैसे कलाकारों के साथ उन्होंने काम किया . प्रोग्रेसिव राइटर्स एसोसिएशन  के संस्थापक , सज्जाद ज़हीर  के ड्राइंग रूम में मुंबई में उनकी शादी हुई थी. उनकी जीवन साथी , शौकत कैफ़ी ने उन्हें इसलिए पसंद किया था कि कैफ़ी आज़मी बहुत बड़े शायर थे . १९४६ में भी शौकत कैफ़ी के तेवर इन्क़लाबी थे और अपनी माँ की मर्जी के खिलाफ अपने प्रगतिशील पिता के साथ औरंगाबाद से मुंबई आकर उन्होंने कैफ़ी से शादी कर ली थी. शादी के बाद  शौकत और कैफ़ी ने बड़े पापड़ बेले . मुंबई में  रोटी का  जुगाड़ भी मुश्किल से हो रहा था . आजमगढ़ के अपने गाँव , मिजवां चले गए जहां एक बेटा पैदा हुआ,शबाना आज़मी का बड़ा भाई . एक साल का भी नहीं  हो पाया था कि उसकी मौत हो गयी . फिर लखनऊ चले गए . शुरुआत में भी लखनऊ रह चुके थे, दीनी तालीम के लिए  गए थे लेकिन इंसाफ़ की लड़ाई शुरू कर दी और मदरसे से निकाल दिए गए थे. लखनऊ में ही कम्युनिस्ट पार्टी के होलटाइमर के रूप में रहने का इरादा था लेकिन 1950 की शुरुआत के दिनों में ही उनकी उनकी पत्नी शौकत कैफ़ी गर्भवती हो  गयीं . पार्टी ने फरमान सुना दिया कि एबार्शन कराओ  , कैफ़ी अंडरग्राउंड थे  और पार्टी को लगता था कि  बच्चे का खर्च कहाँ से आएगा.  शौकत कैफ़ी अपनी माँ के  पास हैदराबाद चली गयीं. वहीं शबाना आज़मी का जन्म हुआ. उस वक़्त की मुफलिसी के दौर में इस्मत चुगताई और उनके पति शाहिद लतीफ़ ने एक हज़ार रूपये भिजवाये थे . यह खैरात नहीं थी , फिल्म निर्माण के काम में लगे शाहिद  लतीफ़ ने अपनी फिल्म में कैफ़ी  के लिखे दो गीत इस्तेमाल किये थे .लेकिन शौकत कैफ़ी अब तक उस बात का ज़िक्र करती रहती हैं . अगर कम्युनिस्ट पार्टी के हुक्म को मान लिया गया होता तो देश को शबाना आज़मी  जैसी अभिनेत्री न मिलती लेकिन  विधाता तो वज्र के हाथों भविष्यत लिखता है ,उसने लिखा और  इसी सितम्बर  में शबाना आज़मी 70 साल की हो रही हैं .शबाना के जन्म के बाद फिर मुंबई की राह ली और वहीं सामूहिक कम्यून में  ज़िंदगी की  नए सिरे से शुरुआत हुई.

 

मुंबई आकर शौकत कैफ़ी ने तो  बाकायदा पृथ्वीराज कपूर के पृथ्वी थियेटर में नौकरी कर ली और इस तरह से परिवार को हर माह एक नियमित आमदनी का ज़रिया बना .कैफ़ी आजमी अपने बच्चों  से बेपनाह प्यार करते थे . जब कभी ऐसा होता था कि शौकत आपा पृथ्वी थियेटर के अपने काम के  सिलसिले में शहर से बाहर चली जाती थीं तो शबाना और बाबा आजमी को लेकर वे मुशायरों में भी जाते थे . मंच पर जहां शायर बैठे  होते थे उसी के  पीछे  दोनों बच्चे बैठे रहते थे ..जीरो आमदनी वाले कम्युनिस्ट पार्टी के होल टाइमर कैफ़ी आजमी को जब पता लगा  कि उनकी बेटी अपने स्कूल से खुश नहीं थी और वह किसी दूसरे स्कूल में जाना चाहती थी जिसकी फीस तीस रूपये माहवार थी , तो कैफ़ी आजमी ने उसे उसी स्कूल में भेज दिया . बाद में अतिरिक्त  काम करके अपनी बेटी के लिए 30 रूपये महीने का इंतज़ाम किया 

एक बार  शबाना आजमी की किसी फिल्म को  प्रतिष्ठित कान फिल्म समारोह ( Cannes Film Festival ) में दिखाया जाना था .शबाना बड़ी एक्ट्रेस थीं . मीडिया का ध्यान उन पर हमेशा रहता था . समारोह के लिए उनको कान जाना था . इस बीच उनको  पता लगा कि मुंबई के एक गरीब  इलाके के लोगों की झोपड़ियां उजाड़ी जा रही हैं तो शबाना आज़मी ने कान जाने का कार्यक्रम रद्द कर दिया और झोपड़ियां बचाने के लिए  भूख हड़ताल पर बैठ गयीं. भयानक गर्मी और ज़मीन पर बैठ कर हड़ताल करती शबाना आज़मी का बी पी बढ़ गया. बीमार हो गयीं .सारे रिश्तेदार परेशान हो गए . कैफ़ी आजमी ,शहर से कहीं बाहर गए हुए थे .लोगों ने सोचा कि उनसे  कहा जाए तो वे शायद इस जिद्दी लड़की को समझा दें. उनके अब्बा , कैफ़ी आजमी बहुत बड़े शायर थे ,अपनी बेटी  शबाना के सबसे अच्छे दोस्त भी  थे. लोगों की अपील पर शबाना के नाम  उनका टेलीग्राम आया . लिखा था," बेस्ट ऑफ़ लक कॉमरेड." शबाना की बुलंदी में उनके प्रगतिशील पिता की सोच का बहुत ज्यादा योगदान है .

बाबा आजमी की फिल्म ,” मी  रक्सम “ के हर फ्रेम में स्त्री के  प्रति  कैफ़ी आजमी की इसी सोच को देखा जा सकता है . हालांकि फिल्म के आखिर में “ दम अली अली ,“  और   ” है आज सफीना बीच भंवर में “ वाले गाने  के साथ भरतनाट्यम करवा के  धार्मिक एकता का सन्देश भी देने की  कोशिश की गयी है लेकिन उसकी कोई ज़रूरत नहीं  थी. फिल्म  कैफ़ी आजमी की मुक़म्मल सोच का आइना  है .

No comments:

Post a Comment