Thursday, September 10, 2020

अर्थव्यवस्था की बदहाली की तस्वीर कोरोना के घने संकट से निकलने के बाद साफ़ होगी .

 

शेष नारायण सिंह


आज देश आर्थिक  मंदी के भयानक दलदल में  फंस चुका है . कोरोना वायरस के चलते पूरी दुनिया के संपन्न देशों की जी डी पी  नेगेटिव में जा पंहुची है लेकिन  भारत की हालत बहुत खराब है . करीब 24 प्रतिशत नेगेटिव अर्थव्यवस्था को देश को कैसे संभाल पायेगा .अभी  तीन साल पहले तक  केंद्र सरकार और उसके  चेला अर्थशास्त्री शेखी बघारते रहते थे कि जी डी पी को  दहाई के आंकड़े में लाया जाएगा .कोरोना वायरस के प्रबंधन ने भी हमारी अर्थव्यवस्था को ज़बरदस्त चोट पंहुचाई है  हालांकि हमारी  अर्थव्यवस्था पर ग्रहण तो नोटबंदी और जी एस टी ए समय से ही लगना शुरू हो गया था.  पहले से ही मौजूद बेरोजगारों की फ़ौज में कोरोना के कारण करोड़ों लोग और जुड़ गए हैं . हालांकि कहीं कोई  रिकार्ड नहीं है लेकिन डकैती, छिनैती ,अपहरण, क़त्ल आदि की खबरों पर नज़र डालें तो लग जाएगा कि बेरोजगारों की बढ़ती फ़ौज इस सब के लिए किसी हद तक ज़िम्मेदार मानी जानी चाहिए .1991  में जब  पी वी नरसिम्हाराव  प्रधानमंत्री बने तो उन्होंने एक ऐसी अर्थव्यवस्था की विरासत मिली थी जो कि तबाह हो चुकी थी. देश की आर्थिक विश्वसनीयता ख़त्म थी . देश  का रिज़र्व सोना जहाज में लादकर विदेश ले  जाया  गया था और गिरवी रखा जा चुका था . पी वी नरसिम्हाराव के वित्त मंत्री डॉ मनमोहन सिंह पूंजीवादी आर्थिक चिंतन के खेमे के बड़े नाम थे .उन्होंने देश को आर्थिक विकास की ऐसी डगर पर डाल दिया जहां से हमारी अर्थव्यवस्था पर कोई भी कहीं से  भी हमला बोल सकता था . जब पी वी नरसिम्हाराव की सरकार ने मुक्त बाज़ार की अर्थव्यवस्था की बात शुरू की थी तो सही आर्थिक सोच वाले लोगों ने चेतावनी दी थी कि ऐसा करने से देश दुनिया भर के पैसे वालों के रहमो करम पर निर्भर हो  जाएगा और मध्य वर्ग को हर तरफ से पिसना पडेगा. सच्ची बात यह है कि जब बाज़ार पर आधारित अर्थव्यवस्था के विकास की योजना बना कर देश का आर्थिक विकास किया जा रहा हो तो कीमतों के बढ़ने पर सरकारी दखल की बात असंभव होती है.. एक तरह से पूंजीपति वर्ग की कृपा पर देश की जनता को छोड़ दिया गया है . अब उनकी जो भी इच्छा होगी उसे करने के लिए वे स्वतंत्र हैं .

इसे देश का दुर्भाग्य ही माना जाएगा कि शहरी मध्यवर्ग के लिए हर चीज़ महंगी है लेकिन इसे पैदा करने वाले किसान को उसकी वाजिब कीमत नहीं मिल रही है . आज 24 %  नेगेटिव  जी डी पी की अर्थव्यवस्था में  खेती ही वह क्षेत्र हैं जहां जी डी पी की पाजिटिव ग्रोथ हुयी है . लेकिन सरकार खेती वालों के बारे में कुछ भी करने को तैयार  नहीं है . किसानों के कल्याण के लिए हरित क्रान्ति जैसी किसी क्रांतिकारी राजनीतिक और नीतिगत हस्तक्षेप की ज़रूरत है . सप्लाई चेन को भी सही किया जाना सरकारी  एजेंडा होना चाहिए . आज हालत यह है कि किसान से जो कुछ भी सरकार खरीद रही है उसका लागत मूल्य भी नहीं दे रही है .. किसान को उसकी लागत नहीं मिल रही है और शहर का उपभोक्ता कई गुना ज्यादा कीमत दे रहा है. इसका मतलब यह हुआ कि बिचौलिया मज़े ले रहा है . किसान और शहरी मध्यवर्ग की मेहनत का एक बाद हिस्सा वह हड़प रहा है.और यह बिचौलिया गल्लामंडी में बैठा कोई आढ़ती नहीं है . वह बड़ा पूंजीपति भी हो सकता है और किसी भी बड़े नेता का व्यापारिक पार्टनर भी .


महंगाई की  मुसीबत को समझने के लिए हमें इतिहास में थोडा पीछे जाकर आजादी की लड़ाई के तुरंत  बाद की स्थिति पर नज़र  डालनी चाहिए . क्योंकि इसकी बुनियाद  हमारे राजनेताओं ने उसी वक़्त डाल दी थी जब उन्होंने आज़ादी के बाद महात्मा गाँधी की सलाह को नज़र अंदाज़ कर दिया था. गाँधी जी ने ग्राम स्वराज्य में लिखा है कि  स्वतंत्र भारत में विकास की यूनिट गावों को रखा जाएगा. उसके लिए सैकड़ों वर्षों से चला आ रहा परंपरागत ढांचा उपलब्ध था . आज की तरह ही गावों में उन दिनों भी गरीबी थी .गाँधी जी ने कहा कि आर्थिक विकास की ऐसी तरकीबें ईजाद की जाएँ जिससे ग्रामीण इलाकों में रहने वाले लोगों की आर्थिक दशा सुधारी जा सके और उनकी गरीबी को ख़त्म करके उन्हें संपन्न बनाया जा सके.. अगर ऐसा हो गया तो गाँव आत्म निर्भर भी हो जायेंगें और राष्ट्र की संपत्ति और उसके विकास में बड़े पैमाने पर योगदान भी करेंगें . उनका यह दृढ विश्वास था कि जब तक भारत के लाखों गाँव स्वतंत्र ,शक्तिशाली और स्वावलंबी बनकर राष्ट्र के सम्पूर्ण जीवन में पूरा भाग नहीं लेते ,तब तक भारत का भावी उज्जवल हो ही नहीं सकता ...


लेकिन ऐसा हुआ नहीं. महात्मा गाँधी की सोच को राजकाज की शैली बनाने की सबसे ज्यादा योग्यता सरदार पटेल में थी . देश की बदकिस्मती ही कही जायेगी कि आज़ादी के कुछ महीने बाद ही महात्मा गाँधी की मृत्यु हो गयी और करीब ढाई साल बाद सरदार पटेल चले गए.. उस वक़्त के देश के  प्रधान मंत्री जवाहरलाल नेहरू एक ऐसे नेता थे जो महात्मा गांधी की हर बात मानते थे लेकिन आर्थिक नीति के इस महत्वपूर्ण मुद्दे पर वे चूक  गए . गांधी जी की बात को नज़रंदाज़ कर गए .उन्होंने देश के आर्थिक विकास की नीति ऐसी बनायी जिसमें गावों को भी शहर बना देने का सपना था. उन्होंने ब्लाक को विकास की यूनिट बना दी और महात्मा गाँधी के बुनियादी सिद्धांत को ही छोड़ दिया..यहीं से गलती का सिलसिला शुरू हो गया..ब्लाक को विकास की यूनिट मानने का सबसे बड़ा नुकसान यह हुआ कि गाँव का विकास गाँव वालों की सोच और मर्जी की सीमा से बाहर चला गया और सरकारी अफसर ग्रामीणों का भाग्यविधाता बन गया. फिर शुरू हुआ रिश्वत का खेल और आज ग्रामीण विकास के नाम पर खर्च होने वाली सरकारी रक़म ही राज्यों के अफसरों की रिश्वत का सबसे बड़ा साधन है जब 1991  में पी वी नरसिंह राव की सरकार आई तो आर्थिक और औद्योगिक विकास पूरी तरह से पूंजीवादी अर्थशास्त्र की समझ पर आधारित हो गया . बाद की सरकारें उसी सोच को आगे बढाती रहीं और आज तो हालात यह हैं कि अगर दुनिया के संपन्न देशों में बैंक फेल होते हैं तो अपने देश में भी लोग तबाह होते हैं . तथाकथित खुली अर्थव्यवस्था और वैश्वीकरण के चक्कर में हमने अपने मुल्क को ऐसे मुकाम पर ला कर खड़ा कर दिया है जब हमारी राजनीतिक स्थिरता भी दुनिया के ताक़तवर पूंजीवादी देशों की मर्जी पर हो गयी है .

 देश में आर्थिक मुसीबत की एक दूसरी  समस्या है कि पिछले 40 वर्षों में राजनीति  ऐसे लोगों का ठिकाना हो चुकी है जो आमतौर पर राजनीति को एक व्यवसाय के रूप में अपनाते हैं .पहले  ऐसा नहीं था. आज़ादी की लड़ाई में   बड़े पैमाने पर जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में सफल लोग राजनीति में शामिल हुए थे . १९२० से १९४२ तक भारतीय राजनीति में जो लोग शामिल हुए वे अपने क्षेत्र के बहुत ही सफल लोग थे .राजनीति में वे कुछ लाभ लेने के लिए नहीं आये थे  ,अपना सब कुछ कुर्बान  करके अपने देश की आर्थिकराजनीतिक और सामाजिक व्यवस्था को लोकशाही के हवाले करने का उनका जज्बा  उनको राजनीति में लाया था. बाद के समय में भी राजनीति में वे लोग सक्रिय थे जो आज़ादी की लड़ाई में शामिल रह चुके थे और देश के हित में कुर्बानियां देकर आये थे . लेकिन जवाहरलाल नेहरू के जाने के  बाद जब से राजनीतिक नेताओं का नैतिक अधिकार कमज़ोर पड़ा तो राजनीति में ऐसे लोग आने लगे जिनको चापलूस कहा जा सकता है . इसी दौर में राजनीति में ‘ इंदिरा इज इंडिया और इंडिया इज इंदिरा ‘ का जयकारा लगाने वाले भी राजनीति के शिखर पर पंहुचे . वे राजनीतिक जमातें भी राजनीति में सम्मान की उम्मीद करने लगीं जिनके राजनीतिक पूर्वज या तो अंग्रेजों के साथ थे और या आज़ादी की लड़ाई में तमाशबीन की तरह शामिल हुए थे . उनको मान्यता मिली भी क्योंकि १९४७ के पहले राजनीतिक संघर्ष का जीवन जीने वाले नेता धीरे धीरे समाप्त हो रहे थे . आज दिल्ली में अगर नज़र दौडाई जाए तो साफ़ नज़र आ जाएगा कि राजनीति में ऐसे लोगों का बोलबाला है जो  राजनीति को एक पेशे के रूप में अपनाकर सत्ता के गलियारों में धमाचौकड़ी मचा रहे हैं देश के उज्जवल भविष्य से उनका कोई लेना देना नहीं  है वे वर्तमान में जीने के शौक़ीन हैं और वर्तमान को राजाओं की तरह जी रहे हैं .

.यह लोग राजनीति को व्यापार समझते हैं और उसमें लाभ हानि के लिए किसी से भी समझौता कर लेते हैं . एक और बात समझ लेने की है कि दोनों ही बड़ी पार्टियों की अर्थनीति वही है डॉ मनमोहन सिंह को बेशक बीजेपी वाले दिन रात कोसते रहते  हैं लेकिन आर्थिक नीतियाँ उनकी ही लागू हो  रही है .राजनीति में सत्तर के दशक में ऐसे लोगों का आना बड़े पैमाने पर शुरू हुआ जो राजनीति को व्यापार समझते थे. यही वर्ग १९८० में सत्ता में आ गया और जब मनमोहन सिंह ने अर्थव्यवस्था को विश्वबाजार के सामने पेश किया तो इस वर्ग के बहुत सारे नेता भाग्यविधाता बन  चुके थे. उन्हीं भाग्यविधाताओं ने आज देश  का यह हाल किया है और अपनी तरह के लोगों को ही राजनीति में  शामिल होने के लिए  प्रोत्साहित किया है .पिछले २० वर्षों की भारत की राजनीति ने यह साफ़ कर दिया है कि जब तक देशप्रेमी और आर्थिक भ्रष्टाचार के धुर विरोधी राजनीतिक पदों पर नहीं पंहुचते ,देश का कोई भला नहीं होने वाला है . इसी शून्य को भरने की कोशिश आम आदमी पार्टी के नेता अरविंद केजरीवाल ने की थी और जनता  ने उनको सर आँखों पर बिठाया लेकिन उद्योगपतियों की सभा में उन्होंने भी साफ़ कह दिया है कि वे पूंजीवादी राजनीति के समर्थक हैं . यानी उन्होंने भी ऐलान कर दिया कि अन्य पार्टियों की तरह वे भी चाकर पूंजी के लिए काम करेगें और कर रहे हैं .उसी तरह से देश का भला करेगें  जैसा बाकी सत्ताधारी पार्टियों ने किया है . केवल महात्मा गांधी और जवाहरलाल नेहरू की राजनीतिक प्रमुखता  के दौर में देश के आम आदमी के हित की राजनीति हुई है बाकी तो चाकर पूंजी की सेवा ही चल रही है .

 

आज हमारी अर्थव्यवस्था जिस मुकाम पर पंहुच चुकी है उसको अगर डॉ  धर्मवीर भारती के शब्दों को उधार लेकर कहें तो ‘बंद गली के आख़िरी मकान ‘ पर पंहुच गयी है . यहाँ से कैसे मुक्ति  मिलेगी और आम आदमी की खुशहाली कब अर्थव्यवस्था की बुनियाद बनेगी , मौजूदा हालात में कुछ  नहीं कहा  जा सकता है . कोरोना  के कारण आई अनिश्चितता के बाद जन  मुसीबत के घने बादल छंटेंगे ,तब तस्वीर साफ़ होगी .

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