Saturday, September 5, 2020

सुलतानपुर जिले के सबसे पुराने प्राइमरी स्कूल में मैंने पढ़ाई की


शेष नारायण सिंह

सुल्तानपुर जिले के पूर्व में शहर से करीब २० किलोमीटर पर गोमती के किनारे के गाँव नरेन्द्रपुर में मेरा पहला स्कूल है . प्राथमिक पाठशाला है . यह जिले के तीन चार प्राचीनतम प्राइमरी स्कूलों में एक है . ईस्ट इण्डिया कम्पनी के दिनों में भारत के ग्रामीण इलाकों में कहीं कोई सरकारी स्कूल नहीं था .स्कूल आदि तो मुगलों ने भी नहीं खुलवाये थे . जो भी स्कूल थे उस समय के समाज सुधारकों या राजाओं नवाबों ने खुलवाये थे . लेकिन हमारे जिले में कहीं कुछ नहीं था . महाराष्ट्र में पेशवा की राजधानी पुणे में तो महात्मा ज्योतिराव फुले ने 1848 में दलित लड़कियों के लिए स्कूल खुलवा दिया था . वे मनीषी थे , दूरद्रष्टा थे .भविष्य देख सकते थे. ऐसे ही स्कूल देश के अन्य भागों में भी थे . हमारा जिला उस मामले में भाग्यशाली नहीं था. मुग़ल साम्राज्य के अवध सूबे का हिस्सा रहा और यहाँ के जितने भी नवाब थे सभी ऐशोआराम और रियाया से लूट खसोट की ज़िंदगी जीते थे . इसलिए जब 1857 में कम्पनी के राज का विरोध हुआ तो जनता ने नवाबों का साथ नहीं दिया . लकिन कंपनी का साथ भी नहीं दिया .जहां संभव हुआ विरोध ही किया . इसलिए जब 1857 में कंपनी के भारतीय सैनिकों और ज़मींदारों ने अवध की हुकूमत पर क़ब्ज़ा करने के ईस्ट इण्डिया कम्पनी के फैसले के खिलाफ हथियार उठाया तो जनता आम तौर पर ‘ कोऊ नृप होई हमैं का हानी ‘ की मानसिकता में ही थी . बहरहाल 1857 के बाद ब्रिटिश साम्राज्य ने ईस्ट इण्डिया कंपनी को बेदखल करके भारत को अपने डायरेक्ट कब्जे में ले लिया और भारत ब्रिटिश साम्राज्य का हिस्सा बना .उसके साथ ही भारत में कम्पनी का राज खत्म हुआ .अंग्रेजों ने अपना राज स्थापित करने के सिलसिले में ही भारत में स्कूलों की स्थापना शुरू की थी . ध्यान यह रखा गया कि जहां ब्रिटिश हुकूमत के वफादार लोग थे उन स्थानों को प्राथमिकता दी गयी . वे स्थान ख़ास माने गए जहां 1857 की बगावत के दौरान कुछ ऐसे लोग थे जिन्होंने अंगेरजी सेना से वफादारी की थी. जिन ज़मींदारों और ताल्लुकेदारों अंग्रेजों के विरोध में झंडा उठाया था उनको और उनके साथियों को पेड़ों से लटका दिया गया था . अपने वफादार लोगों को बाग़ी ज़मींदारों की रियासतें और ज़मीन्दारियां बख्श दी गईं थीं . बताते हैं कि नरेंद्रपुर गाँव के एक ठाकुर साहब अंग्रेज़ी फौज में मुलाजिम थे . उन्होंने विद्रोह के दौरान अंग्रेजों की बहुत सेवा की थी . उनको कोई ज़मींदारी तो नहीं दी गयी लेकिन उनके गाँव में एक सरकारी स्कूल खुलवा दिया और जिले के कई गांवों में उनको ज़मीन आदि भी दे दी गयी . ब्रिटिश साम्राज्य के उसी फैसले का नतीजा है कि नरेंद्रपुर में एक प्राइमरी स्कूल खुलवा दिया गया . सरकारी रिकार्ड के मुताबिक़ यह स्कूल 1885 में खुला था.उन दिनों इस स्कूल में चहारुम ( चौथी क्लास ) तक की पढ़ाई होती थी.चहारुम के बाद हमारे बाबा सुल्तानपुर के माडल स्कूल में मिडिल की पढ़ाई करने गए थे . उनके चचेरे छोटे भाई ठाकुर टुनकी सिंह भी सुल्तानपुर ही मिडिल पढने गए थे . उनके दो और सहपाठी साथ गए थे. ठाकुर राम अवध सिंह और काली सहाय सिंह .यह लोग घर से सारा राशन ,लकड़ी आदि लेकर जाते थे . वहीं सुल्तानपुर में खाना बनता था . केवल मसाला और नमक वहां शहर में खरीदा जाता था . वहां से आकर महीने के आखिर में खर्च का हिसाब देना होता था . एक बार खर्च का हिसाब सही नहीं बैठ रहा था . तो इन लोगों ने लिख दिया कि दो आने का नमक खरीद लिया था . दो आने का नमक यानी दस सेर नमक . राम अवध सिंह के पिताजी हिसाब देख रहे थे . फिरंट हो गए कि इतना नमक क्यों खा रहे हो हो तुम लोग ? खूब डांट पड़ी . वास्तव में हुआ यह था कि यह लोग घर से हुक्का चिलम तो ले गए थे लेकिन उस बार तमाखू ले जाना भूल गए थे . दो आने का तमाखू खरीद लिया गया था.काफी सख्त चेतवानी मिली और तमाखू न पीने की हिदायत के साथ अगले महीने का खर्च मंज़ूर हुआ विषयांतर हो गया .बहरहाल यह सारी विभूतियाँ नरेन्द्रपुर के इसी स्कूल के पूर्व छात्र के रूप में पहचानी जाती थीं . इसी स्कूल में मेरे बाबू ,बाबा , उनके बाबा यानी सभी लोग पढ़ाई करने जाते थे . इसी स्कूल में हमारे गाँव के चन्द्रमणि तिवारी भी पढ़ने गए थे . वे मेरे बाबू के हम उम्र पं राम नवाज तेवारी के छोटे भाई थे .मेरे बाबू के दोस्त और मेरे गाँव के बहादुर इंसान ठाकुर राम किशोर सिंह भी इसी स्कूल में पढने गए थे . राम किशोर सिंह से करीब आठ साल छोटे पंडित चंद्रमणि ने उनसे एक बार कह दिया कि भइया जब आप चहारुम ( चौथी जमात ) में रहे होंगे तब मैंने नरेन्द्रपुर जाना शुरू किया था .राम किशोर सिंह ने बेसाख्ता जवाब दिया कि ,” अह्या डपोरै, हम ग्यारह साल नरेंदापुर में पढ़े , अव्वल ( दर्जा एक ) पास ही नहीं हुए तो ,चहारुम कब पंहुच गए “ बाद में उन्होंने बताया कि वे मास्टर आद्या सिंह के बहुत प्रिय शिष्य थे . उनकी घोडी को खिलाते थे, उसका खरहरा करते थे , उनका हुक्का भरते थे और इन्हीं कामों में लगे रहते थे . जब ग्यारह साल की पढ़ाई के बाद उनकी शादी हो गयी तब स्कूल छोड़कर घर गिरस्ती में लग गए.आजकल मेरे चचेरे भाई रमेश कुमार सिंह इस स्कूल के प्रधानाध्यापक हैं .

इसी स्कूल में १९५७ में मैं पहली बार पढने गया था . उम्र छः साल की हो गयी थी लेकिन मेरी आजा ( मेरे पिता जी की फुआ ) स्कूल नहीं जाने देना चाहती थीं. उनकी नज़र में मैं बहुत छोटा था और नारा पार कर के नरेन्द्रपुर स्कूल जाने में खतरा बहुत था .( मेरे गाँव और नरेन्द्रपुर के बीच में एक नाला है जो बरसात में उफना जाता है ) . मुझसे उम्र में दो चार महीने बड़े रघुराज और बद्दू सिंह स्कूल नहीं जाते थे . उन दिनों दूसरी जमात में पढने वाले मेरे ही गाँव के नन्हकऊ सिंह मुझे चुप्पे से स्कूल ले गए . गाँव से करीब दो किलोमीटर दूर है यह स्कूल . मैं खेलने के लिए निकला था और नन्हकऊ सिंह मुझे स्कूल लेकर चले गए . बाद में पता चला कि सभी लड़कों को कम से कम एक नया विद्यार्थी लाने का टारगेट दिया गया था . उन्होंने मुझे ही ले जाने का फैसला किया . मेरी मां और बहिन बाद में बताती थीं जब मैं घर के आसपास नहीं मिला तो हेरवा पड़ गया . हर कुआं इनार ढूँढा गया , तारा इनारा झाँका गया . आखिर में परिवार के क़रीबी लोगों को आसपास के गाँवों में भेजा गया .बाकी लोग तो थक हार कर लौट आये . क्योंकि मैं किसी और गाँव में था ही नहीं . मेरी तलाश में मेरे बाबू के दोस्त ठाकुर बब्बन सिंह भी गए थे . उन्होंने मुझे स्कूल में देखा लेकिन पकड़ा नहीं . तब तक मेरा नाम लिखा जा चुका था. मेरे गाँव के स्व. बब्बन सिंह शिक्षा के पक्षधर थे . उन्होंने घर आकर बता दिया कि पढने गए हैं , खेलि कूदि के चले आयेंगें किहू का परेशान होई क ज़रूरत नायं बा.

लेकिन आजा कहाँ मानने वाली थीं . वे घर की बेटी थीं . बुज़ुर्ग थीं . सरुवार में ब्याही गयी थीं लेकिन उनके पति की मृत्यु हो गयी थी . उसके बाद वे अपने घर चली आईं . उनके बाबू काका सब जिंदा थे . उनको वापस नहीं भेजा . नैहर में ही रहीं शान से ज़िंदगी बिताई . 1953 में जब उनके बाबू ( यानी मेरे बाबू के बाबा ) की मृत्यु हो गयीं तो वे ही अपने भतीजे यानी मेरे पिताजी की गार्जियन थीं . जब मेरे नरेन्र्बपुर में पाए जाने की खबर मिली तो घर से दूध, दही , खाने के लिए और कुछ सामान लेकर मेरी आजा और मेरी बहिन स्कूल गए और वहीं पास में एक पेड़ के नीचे बैठे रहे . जब स्कूल में छुट्टी हुई तो वहीं बैठकर खिलाया और साथ लेकर घर आयीं . बाद में तो खैर मैं नन्हकऊ सिंह के साथ रोज़ ही स्कूल जाने लगा. यह सब यादें बहुत धुंधली हैं . इनको मेरे लेक्चरर होने के बाद जब मेरी पहली जमात के शिक्षक पंडित कामता प्रसाद दुबे ने बताया तो बाइस्कोप नज़र के सामने घूम गया था. कभी कभी सोचता हूँ कि अगर नन्हकऊ सिंह हमको स्कूल न ले गए होते तो मैं भी शायद आठ नौ साल की उम्र में बद्दू और रघुराज के साथ ही भेजा गया होता . जब यह लोग स्कूल गए तो मैं तीसरी जमात में था. आज सोचता हूँ कि अगर ठाकुर बब्बन सिंह हमको ढूँढने न गए होते तो शायद मेरी पढ़ाई वहीं रुक जाती . वे प्रगतिशील विचारों के थे. मेरे बाबू के घनिष्ठ मित्र पुदई सिंह , राम कलप सिंह और परमेस्सर पाण्डेय भी मुझे ढूँढने सितम्बर के उस दिन निकले थे .यह लोग अन्य गाँवों में गए थे . इनमें से कोई भी अगर मुझको पकड़ पाते तो लाकर आजा के सामने हाज़िर कर देते .शायद तब पढ़ाई दूसरे तरीके की हुयी होती . अपनी उम्र का अपने गाँव का मैं अपनी क्लास में अकेला विद्यार्थी था. राजमुनि सिंह भी मेरी क्लास में थे लेकिन वे मुझे दो-तीन साल बड़े थे . उनसे दोस्ती कभी नहीं हुयी.इस प्रकार से अपना पहला शिक्षक ठाकुर नन्हकऊ सिंह को ही मानता हूँ . और पहला गार्जियन स्व ठाकुर बब्बन सिंह को मानता हँे और उनको ही प्रणाम करता हूँ .
उसी प्राइमरी स्कूल में स्व पंडित कामता प्रसाद दुबे एक अलावा मेरे शिक्षक थे श्री राज बहदुर गुप्ता, श्री वीरेन्द्र सिंह , श्री राममणि पाण्डेय और श्री अवध नारायाण सिंह भी थे. इन लोगों की ओई ऐसी यादें नहीं हैं जिनका उल्लेख किया जा सके . बाद में लम्भुआ जाने पर मिडिल स्कूल में शिक्षकों स्व केश नारायण सिंह , नन्द किशोर सिंह , राम अवध पाण्डेय ,हाई स्कूल के शिक्षकों , हरिश्चन्द्र शुक्ल ,माताप्रसाद पाण्डेय , क्षमानाथ पाण्डेय , शिव बरन मिश्र , मान बहादुर सिंह ,कमला प्रसाद शुक्ल की यादें हैं.

बाद में तो जौनपुर चला गया . इंटरमीडिएट की पढ़ाई के दौरान सही अर्थों में आज के पब्लिक स्कूलों जैसा माहौल मिला और बाद की ज़िंदगी में काम आने वाले संस्कार मिले.वहीं पर डॉ अरुण कुमार सिंह से मिला जिनके कारण विश्वदृष्टि में नए आयाम जुड़े.
आज शिक्षक दिवस पर अपने सारे शिक्षकों को सादर नमन .

No comments:

Post a Comment