शेष नारायण सिंह
आज daughters’ day है ,बेटियों का दिन . सितम्बर के चौथे रविवार को मनाया जाता है .इसकी शुरुआत भारत से ही हुयी और अब पूरी दुनिया में मनाया जाता है . मुझे बचपन से ही कुछ ऐसे संस्कार मिले थे कि बेटियों को पराया धन वगैरह कभी नहीं माना. हालांकि मेरे गाँव में बेटियों की शिक्षा को कोई प्राथमिकता नहीं दी जाती थी . गाँव से करीब डेढ़ किलोमीटर दूर पश्चिम में नरेन्द्रपुर का प्राइमरी स्कूल था और गाँव के दक्खिन करीब तीन किलोमीटर दूर लम्भुआ का मिडिल स्कूल था . नरेन्द्रपुर तो जिले के सबसे पुराने स्कूलों में एक है , शायद 1885 के पहले खुला रहा होगा. उस स्कूल में हमारे आसपास के गाँवों के लगभग सभी सवर्ण परिवारों के लड़के पढ़ने गए थे . हमारे गाँव में हमारी पीढ़ी के पहले के ठाकुर साहबान ज्यादातर लम्भुआ तक ही पढ़े थे , पास फेल की बात नहीं करूंगा क्योंकि मिडिल में पास बहुत कम लोग हुए थे. हमारे काका स्व भानु प्रताप सिंह और उनके हमउम्र राम ओंकार सिंह और लालता सिंह ने हाई स्कूल की पढ़ाई की जहमत उठाई थी ,बाकी सब लम्भुआ की पढ़ाई के दौरान ही शादी के बंधन में बांध दिए गए और पढाई छोड़ दी . हमारे गाँव में लड़कियों के स्कूल जाने का रिवाज़ नहीं था. हमारी पीढ़ी की लडकियां प्राइमरी स्कूल में भी नहीं गईं. मेरे बाद की पीढ़ी की कुछ लडकियां नरेन्द्रपुर गईं . उसके बाद ही गाँव में स्कूल खुल गया . फिर लडकियां प्राइमरी में जाने लगीं . यह घटना साठ साल पहले की है . अब तो मेरे गाँव की सडक पर सुबह स्कूल जाने वाली बच्चियों का तांता लगा रहता है सभी लडकियां साइकिलों पर सवार होकर जाती हैं . अब हमारे गाँव की लडकियां उच्च शिक्षा प्राप्त हैं . शादी ब्याह भी अब 12-13 साल की उम्र में नहीं होता . बीस साल की उम्र के बाद ही शादियां होती हैं . गाँव में रहकर पढ़ाई करने वाली एकाध लड़कियों के प्रेमविवाह भी हुए हैं , हालांकि अभी ग्रामीण माहौल में अंतरजातीय विवाह का चलन नहीं शुरू हुआ है . सब बदल रहा है . हमारी अपनी सभी बेटियों ने स्नातकोत्तर शिक्षा पाई है , मेरे भाई बहनों की कुल छः बेटियों में सभी उच्चशिक्षित हैं , दो ने पी एच डी भी कर लिया है .
मेरे बचपन में ऐसा नहीं था. मेरी बड़ी बहन की कोई भी सहेली प्राइमरी में पढने नहीं गयी. मेरी छोटी बहन ने प्राइमरी बहुत ही अच्छे नंबरों से पास किया था लेकिन बाबू ने लम्भुआ नहीं जाने दिया . उस माहौल में मेरी मां ने मुझे यह प्रेरणा दी थी कि सभी बच्चों को उच्च शिक्षा देना ज़रूरी है . माहौल भी बदल रहा था और दृढ़ संकल्प भी था .इसलिए बच्चियों की उच्चशिक्षा के लिए दिनरात कोशिश की . अब सभी लड़कियां अपना जीवन अपने तरीके से जी रही हैं . उनकी कुछ सहेलियां भी मेरी बेटियाँ ही हैं . गोपाल दादा और लल्लन दादा की बेटियाँ भी मेरी अपनी बेटियाँ है. गुड्डी , टीनी चा , बुलबुल , म्याऊँ ,डीबी ,डॉ नीता ,शिखा ,प्रीति, गंगा, मनीषा ,मेघना, मोहिता, मौसमी, गोलू,मुन्नी, नीलू,नेहा, निमिषा , बिट्टू, पिंकी,निशा, प्रतिमा यह सारी तो ऐसी बेटियाँ हैं जिनको मेरी खैरियत की चिंता रहती ही रहती है .इसके अलावा मेरे साथ काम कर चुकी बहुत सारी छोटी बच्चियां भी मुझे पितातुल्य मानती हैं . मेरी कुछ स्टूडेंट्स मुझे पिता जैसा मानती हैं . बच्चियों के इमोशनल संकट के दौरान अगर ज़रा सा भी मदद कर दो तो वे आपको अपने बाप जैसा मानने लगती हैं. इस सभी बेटियों को आज दिल की गहराइयों से आशीर्वाद देता हूं और दुआ करता हूँ कि यह लडकियां ज़िंदगी में हमेशा फतहयाब रहें .
बेटियों के महत्व का पता तब चलता है जब आप के ऊपर कोई संकट आता है . 2016 में मैं बहुत बुरी तरह से बीमार पड़ गया था . करीब डेढ़ महीने अस्पताल में रहा . मेरी सबसे छोटी वाली बिटिया ने चार्ज ले लिया . अस्पताल में सैकड़ों टेस्ट हुए , सभी टेस्ट में उनकी मौजूदगी साफ़ देखी जा सकती थी . मंझली ने सारा लाजिस्टिक्स संभाला .उसके बाद चार साल हो गए लेकिन मेरे स्वास्थ्य की हर घटना पर लड़कियों की नज़र रहती है . उनकी मां के पाँव में दर्द था , घुटने बेकार हो चुके थे . यह तय था कि सर्जरी के अलावा कोई रास्ता नहीं है लेकिन सर्जरी टल रही थी . एक दिन मेरे एक पड़ोसी वरिष्ठ पत्रकार ने बताया कि कोई हड्डियों के डाक्टर हैं जो सुई लगा दें तो दो तीन महीने के लिए दर्द ख़त्म हो जाता है . मैंने सुई लगवा दी . हमारी टीनी चा लंदन में थीं, उनको जैसे ही पता लगा कि सुई लगी है, उन्होंने अपना लंदन का कार्यक्रम रद्द किया और सीधे बंगलौर पंहुचीं , दिल्ली में रहने वाली अपनी बड़ी बहन को अम्मा को लेकर बंगलोर पंहुचने की हिदायत दी और तीन दिन के अन्दर सर्जरी हो गयी. बाद में मुझे बताया कि अम्मा ने अगर अपने दर्द का इजहार कर दिया है इसका मतलब वे बहुत परेशान हैं . वहां उनकी अम्मा की तीमारदारी में आपकी सहेलियां साथ थीं . इस तस्वीर में अम्मा के साथ वे सारी बच्चियां देखी जा सकती हैं . मेरे यहां जो पुत्रवधू भी आई , वह भी मेरी बेटी है , daughters day पर उसी रुतबे से रहती है जैसे बाकी सभी बेटियाँ . वह हमारे सीनियर पत्रकार की बेटी है . कोरोना के इस दौर में मुंबई में रहने वाली यह बेटी खुद भी वायरस की चपेट में आ गयी थी , उसके पति भी कोरोना से बीमार हो गए थे .सब संभाल लिया .मां की भी देखभाल पूरी तरह से किया . अब सब ठीक हैं . सबका ख्याल रखा , मेरे स्वास्थ्य के बारे में रोज़ चिंता रखी.
कोरोना के सिलसिले में मार्च से शुरू होने वाले लॉकडाउन में मेरी पत्नी बंगलोर में छोटी बिटिया के यहां थीं, पूरा लॉकडाउन वहीं बिताया और स्वस्थ रहीं .मेरी मंझली बेटी दिल्ली में रहती है, उसने यहाँ मेरी पूरी चौकीदारी रखी. हमारी सभी बेटियाँ यह मान कर चलती हैं कि अम्मा-पापा को कुछ नहीं मालूम. हमारी सारी ज़रूरतों पर वे हेडमास्टर भाव से निगरानी रखती हैं . उनको यह भी पता रहता है कि मुझे या उनकी अम्मा को कब जाँच के लिए जाना है .मेरे डॉ सरीन ,डॉ सुमन लता , डॉ पी के नायक , डॉ अनुपम भार्गव ,डॉ एस बी सिंह और डॉ वी पी सिंह सबसे उनकी जान पहचान है .एक खुशी की बात यह है कि सारी बेटियाँ यह मानती हैं कि मुझे जब तक काम मिलता है , काम करते रहना चाहिए क्योंकि खाली बैठने पर मैं बीमार हो जाउंगा .
आज अपनी बेटियों के सम्मान में सर झुकाते हुए मैं प्रार्थना करता हूँ कि सभी बेटियाँ शान और इज्ज़त की ज़िंदगी जिएं और अपने मातापिता की दरोगा बनी रहें .
No comments:
Post a Comment