शेष नारायण सिंह
सुल्तानपुर जिले के मेरे गाँव में दिसंबर 2005 की 23 तारीख को माई की तबियत खराब हुयी थी और उसी रात उनकी मृत्यु हो गयी . जब 24 दिसंबर की सुबह सूरज निकला तो माई कूच कर चुकी थीं. मेरे छोटे भाई , सूबेदार सिंह की गोद में उनकी मृत्यु हुई थी . माई सूबेदार को बहुत मानती थीं. बाबू भी अपने सबसे छोटे बेटे को महत्व देते थे . जब माई की मृत्यु की खबर आई तो मैं और उनकी बड़की दुलहिन दिल्ली में थे . अगले दिन घर पंहुचे . दिल्ली से लखनऊ तक की ट्रेन यात्रा और वहां से सड़क मार्ग से जब मैं घर पंहुचा तो रात हो चुकी थी. पूरी यात्रा में माई के दृढ़ निश्चय वाले व्यक्तित्व की यादें आती रहीं. उनकी सबसे ताज़ा याद मृत्यु के दस –बारह दिन पहले की है . वे धूप में बैठीं थीं . अगहन की धूप हमारे गाँव में बहुत अच्छी होती है. मेरे छोटे भाई सूबेदार उनकी पीठ में , हाथ पाँव में तेल की मालिश कर रहे थे . पास में हम भी बैठे थे . सूबेदार की बड़ी बेटी बिट्टू की शादी तय हो चुकी थी . हम लोगों को उसी का बरिच्छा करने जाना था. बरिच्छा का मतलब यह होता है कि शादी बिलकुल पक्की हो गयी है. उसके बाद से ही मुख्य आयोजन की तैयारियां शुरू हो जाती हैं . माई ने मुझसे कहा कि बहुत कमज़ोर हो गयी हूँ ,अब चलने फिरने में भी तकलीफ होती है . बस एक ही इच्छा है कि बेटी की शादी का तुम लोगों का यह यज्ञ पूरा हो जाय. उन्होंने मुझसे कहा कि बरिच्छा के बाद अगर उनकी मृत्यु भी हो जाए तो शादी की निश्चित तारीख पर बारात आये ज़रूर और बेटी इज्ज़त के साथ विदा हो. लडकी की शादी हम लोगों के यहाँ काफी खर्चीला काम होता है लेकिन हम पूरी तरह तैयार थे . अगले दिन हम बरिच्छा करने गए . ढेमा बाज़ार के पास के एक गाँव में मेरे भाई ने लड़का देखा था. हम वहां गए . वापस आये तो माई बहुत खुश थीं . लडका लखनऊ में वकालत करता था. उसके पिताजी का स्वर्गवास हो चुका था .बाबा उत्तर प्रदेश के राज्य सचिवालय के विभाग से रिटायर हुए थे . सब कुछ ठीक ठाक था. जब हम वहां से आये तो माई ने परिवार की हैसियत के बारे में पूछा . वे जानना चाहती थीं कि गाँव पवस्त में बाबू साहब की इज्ज़त कैसी है , किस तरह के लोग वहां आये थे . सब कुछ बता दिया गया ,संतुष्ट हो गयीं. मैं दो तीन दिन घर पर रहा . उनके साथ ही बैठा रहा . वे मुझसे अक्सर कहती रहती थीं कि सूबेदार का ख्याल रखना ,अभी बच्चे हैं , नादान हैं . हालांकि सूबेदार 48 साल के हो चुके थे लेकिन माई ने उनको हमेशा एक ऐसे बच्चे के रूप में ही देखा जो अभी अपना ख्याल नहीं रख सकता .अगहन की उसी दोपहर को माई ने मुझसे वचन लिया था कि सूबेदार के चारों बच्चों की शादी उनकी पसंद के परिवारों में करवाना , उनके बच्चों की पढ़ाई की फीस जितनी भी लगे, देना और यह पुराना घर अब खँडहर हो गया है , अपने परिवार के लिए एक नया घर बनवा लेना जिसमें दोनों भाई प्रेम से रहना . अपनी दोनों बहनों को यह कभी अहसास न होने देना कि उनके माई-बाबू नहीं हैं . नैहर में उनकी वही इज्ज़त रखना जो मेरे जिंदा रहते होती है .
उनके जाने के करीब पंद्रह साल बाद अब भी अकसर पीछे मुड़कर देखता हूं कि क्या मैं अपनी मां की बातों को सम्मान दे पा रहा हूं ? सूबेदार के चारों बच्चों की शादी उनकी पसंद के परिवारों में हो चुकी है . सभी बच्चे अपनी शादी से खुश हैं . उनकी दोनों लडकियां और दोनों बहुएं उच्च शिक्षित हैं , दोनों लड़के अपनी मर्जी की शिक्षा लेकर काम कर रहे हैं , नया घर बन गया है . दोनों बहनों की हर बात मानता हूँ और उनको नैहर में वही इज्ज़त मिलती है जो पहले मिलती थी. बहनें भी क्या हैं , बेजोड़ हैं . 63 साल के सूबेदार सिंह को अभी भी बच्चा मानती हैं जैसे माई मानती थीं. उनकी किसी बात में उनको कोई कमी नहीं नज़र आती . आज भी वे जो चाहें हम तीनों भाई बहनों से करवा लेते हैं . हालांकि अभी भी जिद करने से बाज नहीं आते . बहुत सारे लोगों की समझ में नहीं आता कि अभी भी मैं गाँव से इतना क्यों जुड़ा हुआ हूँ, क्यों अपना अंतिम समय उसी गाँव में चुपचाप बिताना चाहता हूँ लेकिन मुझे मालूम है कि हम सभी बच्चों ने अपनी माई को उसी घर में उसके आसपास अपने असंभव सपने देखते देखा है . उसी हवा में उनकी सांसे हैं , उसी गाँव में उन्होंने अपने बच्चों के अच्छे भविष्य के लिए संघर्ष किया है. वे सारे पेड़ जो माई के जीवनकाल में लगाये गए थे , एक एक करके उपनी उम्र पूरी करके सूख रहे हैं. मेरा सपना है कि उस ज़मीन पर इतने पेड़ पौधे लगवा दूं कि दिन में ही लगे कि बादलों ने घेर लिया है .
मेरी माई का नैहर जौनपुर में हैं. जौनपुर सिटी स्टेशन के दक्षिण में उनका गाँव है . सिटी स्टेशन का कुछ हिस्सा उसी गाँव के खेतों में बना है ..उनके गाँव में मियाँ लोगों के ज़ैदी साहेबान का वह परिवार है जिसकी शाखें पूरी दुनिया में फैली हुयी हैं. मियाँ साहेबान बहुत ही शिक्षित लोग हैं . बगल में ही कायस्थों के परिवार हैं . वे लोग भी शिक्षित थे , गाँव में रहते थे , शहर से लगा गाँव था . सभी लोग शहर में काम करते थे. एक अलग तरह की ज़िंदगी थी उन लोगों की . शायद इसीलिये माई की इच्छा थी कि उनके बच्चे अच्छी शिक्षा पायें और लाला लोगों की तरह फैलसूफी की ज़िंदगी जियें .उनकी ससुराल में ज़मीन खूब थी लेकिन शिक्षा दीक्षा का कोई माहौल नहीं था. मेरी बड़ी बहन तो प्राइमरी स्कूल भी नहीं भेजी गयी . छोटी बहन को प्राइमरी पढने का मौक़ा मिल गया क्योंकि तब तक गाँव में ही प्राइमरी स्कूल खुल गया था .मुझे जो भी शिक्षा मिल सकी वह मेरी माँ की जिद का नतीजा है . पांचवें और छठवें दशक में गाँव में पैसे की कोई ख़ास ज़रूरत नहीं पड़ती थी . कपडे ,मसाले,नमक आदि के लिए पैसे चाहिए होते थे ,वह अनाज बेचकर इकठ्ठा कर लिया जाता था.खरीद कर खाना अपमान माना जाता था . खेत में काम करने वालों को मजदूरी भी अनाज की शक्ल में दी जाती थी . जब मैं जौनपुर पढने के लिए गया तो कभी कभी पैसे की ज़रूरत पड़ने लगी. हमारे पुश्तैनी सेठ थे स्व राम नायक बरनवाल . वे मकसूदन में रहते थे कुछ अनाज बेचकर उनसे पैसा ले लिया जाता था . लेकिन वे रोज़ नहीं आते थे . कभी पैसे की ज़रूरत पड़ी तो और अगर राम नायक चाचा उपलब्ध नहीं हैं तो मेरी माई किसी से उधार ले लेती थीं . पैसे उन्हीं लोगों के घरों में होते थे जिनके घर का कोई आदमी कहीं नौकरी करता हो. मेरे गाँव में ज़्यादातर लोग क्लास फोर की ही नौकरी करते थे. कोई रेलवे में सबसे निचले पायदान पर था तो कोई फौज में सिपाही था . कोई मसोधा मिल में मजदूर था तो कोई वहीं चौकीदार था . मेरे गाँव में अपर क्लास नौकरी करने वालों में पहला नाम डॉ श्रीराज सिंह का है . वे तिलकधारी कालेज जौनपुर में लेक्चरर थे लेकिन वे गाँव में नहीं रहते थे . जब तक उनके बच्चे छोटे थे तब तक तो वे गंर्मी की छुट्टियों में गाँव आ जाते थे लेकिन बाद में वह भी नहीं. बेलहरी कालेज के लेक्चरर राम ओंकार सिंह गाँव में ही रहते थे . इन दोनों के परिवार संपन्न परिवार थे . तब तक बाहर का पैसा बहुत लोगों के घर आने लगा था . किसी शहर में दिन रात मजदूरी करके लोग अपने मातापिता के पास पैसे भेजते थे लेकिन हमारे घर में ऐसा नहीं था. खेती थी और उसी का सहारा था . मुझे जब भी अर्जेंट पैसे की ज़रूरत पड़ी , मेरी मां ने बेझिझक उधार लिया और मुझे दिया . अमिलिया तर और बडकी भौजी से उनको अवश्य उधार मिल जाता था. इसीलिये मैं आज भी अपने विकास में इन दो परिवारों का योगदान मानता हूँ और उनके हित के लिए चिंता करता रहता हूँ.
माई को गए पंद्रह साल होने को आये लेकिन आज भी उनकी हर बात हर मुकाम पर याद आती रहती है . किसी शोषित पीड़ित के पक्ष में खड़े होने की उनकी आदत मुझे आज भी प्रेरित करती रहती है . हालांकि मेरे घर में कोई नौकरी नहीं करता था लेकिन परिवार ज़मींदारों का था. लोग आते थे ,मेरे अधूरे घर ( क्योंकि आधा तो काका के हिस्से जा चुका था ) को कोट कहा जाता था. बाबू 1952 के चुनाव में निर्विरोध ग्राम प्रधान चुने गए थे और करीब चालीस साल तक निर्विरोध प्रधान रहे. उन दिनों गाँव पंचायतों में कोई भी सरकारी पैसा नहीं आता था . पैसे तो संविधान के 73 वें और 74वें संशोधन के बाद आने लगे . तब हमारे बाबू प्रधान नहीं थे .उसके बाद गाँव के प्रधान विकास के नाम पर आये पैसे के बल पर रिश्वत के रास्ते संपन्न होने लगे. हमारे बाबू के कार्यकाल में ऐसा नहीं था. ऐसी स्थिति में मेरी माई का जीवन अभावों में ही बीता . यह अलग बात है कि उनके जाने के दस साल बाद से ही सब कुछ बिलकुल अलग दिखता है . उनके चारों बच्चों के कुल तेरह बच्चे हैं . सबकी ज़िंदगी अच्छी है . ठीक उसी तरह की ज़िंदगी जैसा वे देखना चाहतीं .जब कोई अफसर मुझसे बात करते हुए राहुल को वकील साहब कहता है तो अच्छा लगता है. जब वरुण सिंह के पापा या प्रतिमा सिंह, रणंजय सिंह ,रणविजय सिंह ,उदय सिंह और संजय सिंह के मामा के रूप में कोई मुझे संबोधित करता है तो लगता है कि माई की इच्छा पूरी हो रही है. आज दुनिया के कई इलाकों में उनके बच्चों के बच्चे पहचाने जाते हैं , अगर आज जिन्दा होतीं तो बहुत खुश होतीं. उनकी मृत्यु पूस की नवमी कृष्णपक्ष के दिन हुई थी. पितरपख में गाँव के घर में उनकी पसंद का व्यंजन बना होगा लेकिन इस बार मैंने उनकी बड़की दुलहिन से आग्रह किया कि यहाँ भी माई की पसंद का कुछ बनाया जाय. मुझे मालूम है कि जब भी कोई बीमार होता था ,मेरी माई हमारे गाँव की ग्रामदेवी काली माई से प्रार्थना कारती थीं कि कोई विपत्ति न आये. आज उनके बच्चे लखनऊ, सुलतानपुर,प्रतापगढ़ ,बनारस, सूरत, मुम्बई,धनबाद ,बंगलोर, दिल्ली जैसे शहरों में रहते हैं. कोरोना के इस दौर में इन सभी शहरों में खतरे बहुत हैं . मैंने अपनी मां का बार बार आवाहन किया है कि जहां भी हों , इन बच्चों की सुरक्षा के लिए शास्वत दुआ करती रहें .आपकी याद ही अब मेरी सबसे बड़ी थाती है क्योंकि आपके सभी बेटे बेटियों के लिए मैं वह सब कर चुका हूँ जो आप की इच्छा थी .
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