written on 27 August 2018
शेष नारायण सिंह
सत्यपाल मलिक को जम्मू कश्मीर में बतौर राज्यपाल नियुक्त करके केंद्र सरकार ने अपनी मंशा ज़ाहिर कर दी है कि अब कश्मीर समस्या का हाल बातचीत के ज़रिये ही निकाला जाएगा . वहां किसी राजनेता को पहली बार राज्यपाल नियुक्त किया गया है . हालांकि कुछ लोग यह कहते भी पाए जाते हैं कि डॉ करन सिंह राज्य के पहले राजनेता राज्यपाल थे लेकिन यह बात सही नहीं है . जब वे राज्यपाल थे तो वे नेता नहीं थे . वे जम्मू-कश्मीर के राजा के बेटे थे, शुरू में रेजेंट रहे , बाद में सदरे-रियासत बने और जब १९६५ में राज्यपाल के पद का सृजन हुआ तो उनको राज्यपाल बना दिया गया. वे वहां वास्तव में इसलिए थे कि वे जम्मू-कश्मीर के राजा थे. १९६७ में जब उनको केंद्र में मंत्री बनाया गया तो उनकी उम्र कुल ३६ साल की थी . उनके केंद्र में आने के बाद जम्मू-कश्मीर का राज्यपाल एक आई सी एस अफसर ,भगवान सहाय को बनाया गया . उसके बाद रिटायर सरकारी नौकरों को जम्मू-कश्मीर में राज्यपाल बनाने का सिलसिला जारी रहा . एल के झा, बी के नेहरू ,जगमोहन , जनरल के वी कृष्ण राव , गैरी सक्सेना,लेफ्टीनेंट जनरल एस के सिन्हा और एन एन वोहरा राज्य के राज्यपाल बनाए गए . जगमोहन , जनरल राव और सक्सेना से तो एक से अधिक बार भी उस पद पर बैठाए गए.
१९६६ में इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्री बनने के साथ ही केंद्र की सरकारें जम्मू-कश्मीर को एक प्रशासनिक विषय मानती रही हैं, जम्मू- कश्मीर में जब भी समस्या हुयी तो उसको प्रशासनिक समस्या मानने का रिवाज़ रहा है . इंदिरा गांधी की ११९८० में वापसी के बाद तो उनके परिवारी जन ,अरुण नेहरू राज्य की पनप रही अशांति की समस्या को कानून-व्यवस्था की समस्या मानते थे . बताते हैं कि उन्होंने ही इंदिरा गांधी पर दबाव डाल कर जगमोहन को १९८४ में राज्यपाल बनवाया था. वी पी सिंह के प्रधानमंत्री बनने के बाद भी एक बार जगमोहन को राज्यपाल बनाया गया था. जगमोहन की ख्याति एक ऐसे सिविल सर्विस अफसर की रही है जो सरकारी डंडे का इस्तेमाल करके जनता की नाराज़गी का हल निकाल लेता है . यह काम वे दिल्ली में इमरजेंसी के दौरान कर चुके थे. उन्होंने जम्मू-कश्मीर में भी यही प्रयोग किया और शुद्ध रूप से राजनीतिक समस्या का डंडा आधारित हल निकालने की कोशिश की .नतीजा यह हुआ कि हालात बाद से बदतर होते रहे .
उसके बाद कई तरह की सरकारें केंद्र में आयीं और सभी ने राज्य को नौकरशाहों के हवाले ही रखा . कहीं भी राजनीतिक सोच को जगह नहीं दी गयी . मौजूदा सरकार की कश्मीर नीति भी कहीं कुछ साफ़ नहीं रही. बल्कि कई बार तो ऐसा लगा कि कश्मीर के बारे में सरकार की कोई सोच ही नहीं है,कोई नीति ही नहीं है . राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोवाल मोदी सरकार में कश्मीर के मामलों के मुख्य अफसर हैं . बीच में गृहमंत्री राजनाथ सिंह को जब थोडा मौक़ा मिला तो उन्होंने आई बी के एक अवकाश प्राप्त निदेशक ,दिनेश्वर शर्मा को बात चीत करने के लिए भेजने की घोषणा की और लगता है कि उसी बात चीत के सिलसिले को आगे बढ़ाने के लिए केंद्र सरकार ने एक राजनेता को जम्मू-कश्मीर में राज्यपाल बनाकर भेजा है . यहाँ समझ लेना ज़रूरी है कि जम्मू-कश्मीर का राज्यपाल अन्य राज्यों की तरह नहीं होता .जम्मू-कश्मीर के राज्यपाल के पास बहुत ज्यादा अधिकार होते हैं . ख़ास तौर पर जब राज्य में कोई मुख्यमंत्री न हो तो वहां का राज्यपाल एक शासक के रूप में ही काम करता है .
सत्यपाल मलिक के राज्यपाल बनने का अर्थ यह है कि केंद्र सरकार ने तय कर लिया है कि राज्य की समस्या के हल का एक ही रास्ता है और वह रास्ता है कि हर उस व्यक्ति से बात की जाए जो बात करना चाहता हो. दिनेश्वर शर्मा को जब जम्मू-कश्मीर में बात चीत करने का ज़िम्मा दिया गया था तो केंद्र सरकार ने एक तरह से यह ऐलान कर दिया था कि कश्मीर में शान्ति बातचीत के ज़रिये ही आयेगी . अब सत्यपाल मलिक को राज्यपाल बनाकर केंद्र सरकार ने यह साफ़ कर दिया है कि बिना बातचीत के कश्मीर में कुछ भी हाथ आने वाला नहीं है . जम्मू-कश्मीर के नेताओं से बातचीत करने के लिए सबसे सही राजनेता के रूप में सत्यपाल मालिक को माना जा सकता है .
दिनेश्वर शर्मा को नियुक्त तो कर दिया गया था लेकिन उनका काम केंद्र सरकार में जमे हुए लोग फोकस में नहीं आने दे रहे थे. राइजिंग कश्मीर के सम्पादक शुजात बुखारी की हत्या के बाद सरकार की कश्मीर नीति पूरी तरह से सवालों के घेरे में आ गयी थी. शुजात बुखारी शान्ति की बात करते थे, बातचीत के पक्षधर थे और कश्मीरियत को अहमियत देते थे .उनकी हत्या के बाद शांति के प्रयास की बात करने वालों के सामने आतंकी खतरे बहुत बढ़ गए थे .नए राज्यपाल की तैनाती के बाद यह स्पष्ट है कि मोदी सरकार बातचीत पर अब पीछे नहीं हटेगी . दिल्ली में कश्मीर की समझ रखने वाले हर आदमी को मालूम है कि केंद्र सरकार ने राज्यपाल की नियुक्ति इसी सोच के तहत की है। राजभवन के दरवाजे हर उस शख्स के लिए खुले रहेंगे, जो बात करना चाहता है। नरेंद्र मोदी की स्वतंत्रता दिवस के दिन दिए गए भाषण में जो 'इंसानियत' की बात कही गयी थी ,उसका भावार्थ भी अब सबकी समझ में आने लगा है .
राज्यपाल सत्यपाल मलिक २००४ में बीजेपी में शामिल हुए थे .उसके पहले उनका पूरा राजनीतिक जीवन सोशलिस्ट और लोकदल के नेता के रूप में बीता है . चौधरी चरण सिंह के बहुत ही करीबी होने के कारण वे सत्ता की राजनीति के शीर्ष की गतिविधियों से न केवल वाकिफ रहे हैं बल्कि उसमें शामिल भी रहे हैं . कांग्रेस के विरोध में जब इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्रित्व के काल में विपक्षी पार्टियों की एकता का प्रयास चल रहा था तो फारूक अब्दुल्ला और सत्यपाल मलिक उसमें प्रमुख व्यक्ति हुआ करते थे . उनको फारूक अब्दुल्ला के साथ करीब से राजनीतिक काम करने का अनुभव भी हुआ था .उसी विपक्षी एकता के चक्कर में तो इंदिरा गांधी के चहेते ,अरुण नेहरू साहब , फारूक अब्दुल्ला से नाराज़ हो गए थे और उनके बहनोई गुल शाह को मुख्य मंत्री बनवा दिया था. सत्यपाल मालिक बोफोर्स मुद्दे पर शुरू हुए वी पी सिंह के आन्दोलन में उनके साथ थे . कांग्रेस छोड़कर उन लोगों ने जनमोर्चा का गठन किया था. उस मंडली में कश्मीरी नेता ,मुफ्ती मुहम्मद सईद भी थे. वी पी सिंह के नेतृत्व में बनी केंद्र सरकार में उन्हें केंद्रीय गृहमंत्री बनाया गया। वे देश के गृहमंत्री बनने वाले पहले मुसलमान थे . उनके मंत्रिकाल में इनकी बेटी रूबैया सईद का आतंकवादियों ने जम्मू-कश्मीर में अपहरण कर लिया था. .उस संकट के दौर में सत्यपाल मलिक ने मुफ्ती साहब के परिवार और केंद्र सरकार के साथ खूब काम किया था. इस तरह साफ़ देखा जा सकता है कि कश्मीर के दोनों महत्वपूर्ण राजनीतिक परिवारों, अब्दुल्ला परिवार और मुफ्ती परिवार से जम्मे-कश्मीर के नए राज्यपाल का अच्छा सम्बन्ध रहा है .केंद्र सरकार को भरोसा है कि नए राज्यपाल का करीब चार दशक का राजनीतिक अनुभव कश्मीर में शान्ति स्थापित करने की दिशा में अहम भूमिका निभाएगा .
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