शेष नारायण सिंह
एक हिंदी दिवस और बीत गया। सरकारी विभागों में सरकारी कार्यक्रम हुए , शपथ ली गयी और शाम होते-होते हिंदी का काम पूरा हो गया लेकिन सरकार की कृपा से हिंदी नहीं चलती। वह जनभाषा और महात्मा गांधी की विरासत है। वह उसी पाथेय के साथ बुलंदियों के मुकाम हासिल करती रहेगी। आज से ठीक सौ साल पहले 1918 में हिंदी साहित्य सम्मेलन के अधिवेशन के अध्यक्ष के रूप में महात्मा गांधी ने हिंदी को आजादी की लड़ाई के एजेंडे पर रख दिया था। उन्होंने कहा था कि, भारत की राष्ट्रभाषा हिंदी को ही बनाया जाना चाहिए क्योंकि हिंदी जनमानस की भाषा है। जब देश आजाद हुआ तो संविधानसभा ने 14 सितम्बर 1949 के दिन एक सर्वसम्मत प्रस्ताव पास करके तय किया कि हिंदी ही स्वतंत्र भारत की राजभाषा होगी। संविधान के अनुच्छेद 343 (1 ) में लिखा है- कि , ''संघ की राजभाषा हिन्दी और लिपि देवनागरी होगी।
संघ के राजकीय प्रयोजनों के लिए प्रयोग होने वाले अंकों का रूप अंतरराष्ट्रीय रूप होगा'' महात्मा गांधी के भाषण के बाद स्वत्रंतता की लड़ाई में हिंदी को महत्वपूर्ण स्थान मिलना शुरू हो गया। इस सन्दर्भ में महान पत्रकार, शहीद गणेश शंकर विद्यार्थी का वह भाषण बहुत ही जरूरी दस्तावेज है जो उन्होंने 1930 में हिंदी साहित्य सम्मलेन के गोरखपुर अधिवेशन के अध्यक्ष के रूप में दिया था। गौर करने की बात है कि 1930 में महात्मा गांधी आजादी की लड़ाई के सर्वमान्य नेता बन चुके थे, 1930 में कांग्रेस ने देश की पूर्ण स्वतंत्रता का ऐलान कर दिया था और दांडी मार्च के माध्यम से पूरी दुनिया में महात्मा गांधी की नेतृत्व शक्ति का डंका बज चुका था। वैसे विश्वपटल पर जनमानस के नेता के रूप में तो महात्मा गांधी 1920 के आन्दोलन के बाद ही स्थापित हो चुके थे।
कलकत्ता से छपने वाले महत्वपूर्ण अखबार, ''मतवाला'' के तस्दीक है कि जब भारत के कम्युनिस्ट नेता, एमएन रॉय ने दूसरी कम्युनिस्ट इंटरनेशनल में सिद्धान्त प्रतिपादित करने की कोशिश की कि 1920 का आन्दोलन कोई खास महत्व नहीं रखता और गांधी एक मामूली राजनीतिक नेता हैं तो लेनिन ने उनको डपट दिया था और कहा था कि, ''गांधी राष्ट्रीय मुक्ति के लिए लाखों-लाखों लोगों का विराट जन-आन्दोलन चला रहे हैं; वह साम्राज्यवाद-विरोधी हैं। वह क्रांतिकारी हैं?'' आशय यह है कि 1930 तक महात्मा गांधी दुनिया के बड़े क्रांतिकारी नेताओं में बहुत ही सम्मानित व्यक्ति बन चुके थे और उनके हस्तक्षेप के कारण आजाादी की लड़ाई के शुरुआती दिनों में ही यह तय हो गया था कि हिंदी को स्वतंत्र भारत में सम्मान मिलने वाला है।
1930 के बाद तो कांग्रेस के अधिवेशनों में भी हिंदी को बहुत महत्व मिलने लगा था। इस सन्दर्भ में जब गणेश शंकर विद्यार्थी का भाषण देखते हैं तो बात ज्यादा साफ समझ में आ जाती है। अपने भाषण में स्व. विद्यार्थी जी ने एक तरह से भविष्य का खाका ही खींच दिया है। उन्होंने कहा कि,
''हिन्दी भाषा और हिन्दी साहित्य का भविष्य बहुत बड़ा है। उसके गर्भ में निहित भवितव्यताएं इस देश और उसकी भाषा द्वारा संसारभर के रंगमंच पर एक विशेष अभिनय कराने वाली हैं। मुझे तो ऐसा भासित होता है कि संसार की कोई भी भाषा मनुष्य-जाति को उतना ऊंचा उठाने, मनुष्य को यथार्थ में मनुष्य बनाने और संसार को सुसभ्य और सद्भावनाओं से युक्त बनाने में उतनी सफल नहीं हुई, जितनी कि आगे चलकर हिन्दी भाषा होने वाली है । ...मुझे तो वह दिन दूर नहीं दिखाई देता, जब हिन्दी साहित्य अपने सौष्ठव के कारण जगत-साहित्य में अपना विशेष स्थान प्राप्त करेगा और हिन्दी, भारतवर्ष-ऐसे विशाल देश की राष्ट्रभाषा की हैसियत से न केवल एशिया महाद्वीप के राष्ट्रों की पंचायत में, किन्तु संसारभर के देशों की पंचायत में एक साधारण भाषा के समान न केवल बोली भर जाएगी किन्तु अपने बल से संसार की बड़ी-बड़ी समस्याओं पर भरपूर प्रभाव डालेगी और उसके कारण अनेक अन्तरराष्ट्रीय प्रश्न बिगड़ा और बना करेंगे।''
आज उनके भाषण के करीब नब्बे साल बाद उनकी भविष्यवाणी पर गौर करने से समझ में आ जाता है कि हिंदी भाषा, जिसको महात्मा गांधी ने जनभाषा कहा था, वह वास्तव में मानवता के एक बड़े हिस्से के लोगों के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाली थी। महात्मा गांधी कोई भी विषय अधूरा नहीं छोड़ते थे। उन्होंने राजभाषा के सम्बन्ध में बाकायदा बहस चलवाई और आखिर में सिद्धांत भी प्रतिपादित कर दिया। महात्मा गांधी के अनुसार राष्ट्रभाषा बनने के लिए किसी भाषा में पांच बातें अहम हैं : पहला- उसे सरकारी अधिकारी आसानी से सीख सकें। दूसरा- वह समस्त भारत में धार्मिक, आर्थिक और राजनीतिक संपर्क के माध्यम के रूप में प्रयोग के लिए सक्षम हो, तीसरा- वह अधिकांश भारतवासियों द्वारा बोली जाती हो, चौथा- सारे देश को उसे सीखने में आसानी हो,और पांचवां- ऐसी भाषा को चुनते समय फैसला करने वाले अपने क्षेत्रीय या फौरी हित से ऊपर उठकर फैसला करें।'' गांधी जी को विश्वास था कि हिन्दी इस कसौटी पर सही उतरती है।
देश के आ•ााद होने पर संविधान सभा की जिस बैठक में हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने का हुआ उसमें सभी सदस्य मौजूद थे और एकमत से फैसला लिया गया। महात्मा गांधी तब जीवित नहीं थे लेकिन देश ने उनकी विरासत को सम्मान दिया और संविधान में हिंदी को राजभाषा के रूप में स्थापित कर दिया। हालांकि यह भी सच है कि संविधान सभा की घोषणा और संविधान में स्थान पाने के बाद भी हिंदी उपेक्षित ही रही। सरकारी स्तर पर गति तब आई जब जवाहरलाल नेहरू के कार्यकाल में 1963 में राजभाषा अधिनियम संसद में पास कर लिया गया और राजभाषा के सम्बन्ध में एक नया कानून बन गया। उसके बाद ही शब्दावली आदि के लिए समितियां बनीं। लेकिन समितियां भी सरकारी ही थीं। ऐसे-ऐसे शब्द बना दिए गए जो सीधा संस्कृत से उठा लिए गए थे। उन्हीं सरकारी शब्दों की महिमा है कि कई बार तो हिंदी में आई सरकारी चि_ियों के भी हिंदी अनुवाद की जरूरत पड़ जाती है।
यह बात भी निर्विवाद है कि किसी भी भाषा के विकास के लिए ऐसे उच्च कोटि के साहित्य की जरूरत होती है जो जनमानस की जबान पर चढ़ सके। अपने यहां हिंदी भाषा के विकास में कबीर, सूर और तुलसी का जितना योगदान है उतना किसी का नहीं। बाद में भी जिन महान साहित्यकारों ने हिंदी को जनभाषा बनाने में योगदान किया है उनको भी हिंदी दिवस पर याद करना जरूरी होता है। हमारा सर उनके सम्मान में सदा ही झुका रहेगा। हिंदी को खड़ी बोली मानने वालों को समझ लेना चाहिए कि अगर अंग्रेजों ने भी इसी तरह की शुद्धता के आग्रह रखे होते तो उनकी अंग्रेजी भाषा का विकास भी नहीं हुआ होता। खड़ी बोली हिंदी की विकास यात्रा में एक अहम मुकाम जरूर है लेकिन खड़ी बोली ही हिंदी नहीं है, हिंदी उसके अलावा भी बहुत कुछ है।
आजकल हिंदी के साथ तरह-तरह के प्रयोग किए जा रहे हैं। अभी तीस साल पहले की बात है कि कुछ अखबारों ने हिंदी और अंग्रेजी मिलाकर भाषा चलाने की कोशिश की और उसी को हिंदी मनवाने पर आमादा थे। कहते थे कि अब हिंदी नहीं हिंगलिश का जमाना है। दावा करते थे कि अब यही भाषा चलेगी। लेकिन आज उन संपादकों का भी कहीं पता नहीं है और उस भाषा को भी अपमान की दृष्टि से देखा जाता है। आजकल टेलीवि•ान में नौकरी करने वालों को मुगालता है कि जो उल्टी-सीधी हिंदी वे लोग लिखते बोलते हैं, वही हिंदी है। समय से बड़ा कोई जज नहीं होता। करीब पन्द्रह साल पहले हिंदी के साथ खिलवाड़ करने का यह सिलसिला शुरू हुआ था। इस अभियान के कुछ पुरोधा तो आजकल दिल्ली के टीवी दफ्तरों के आसपास नौकरी की तलाश करते पाए जाते हैं। और कुछ लोगों ने अन्य धंधे कर लिए हैं। टेलीविज़न समाचारों में भी हिंदी जनभाषा के रूप में अपनी स्वीकार्यता सुनिश्चित कर रही है। और भाषा के नाम पर मनमर्जी करने वाले रास्ते से अपने आप हटते जा रहे हैं।
ऐसा पहली बार नहीं हो रहा है। हिंदी सिनेमा में भी सड़क छाप लोगों का एक तरह से कब्जा ही हो गया था। फ़िल्मी कहानी लिखने वालों को मुंशी कहा जाता था। मुंशी वह प्राणी होता था जो हीरो या फिल्म निर्माता की चापलूसी करता रहता था और कुछ भी कहानी के रूप में चला देता था। उन मुंशियों के प्रभाव के दौर में प्रेमचंद और अमृतलाल नगर जैसे महान लेखकों की कहानियों पर बनी फिल्में भी व्यापारिक सफलता नहीं पा सकीं। उन दिनों ज़्यादातर फिल्मों में प्रेम त्रिकोण होता था, खलनायक होता था और लगभग सभी कहानियां एक जैसी ही होती थीं। लेकिन जब सिनेमा का विकास एक स्थिर मुकाम तक आ गया तो ख्वाजा अहमद अब्बास,श्याम बेनेगल जैसे लोग आए और सार्थक सिनेमा का दौर आया। इस दौर में सही तरीके से लिखी गई हिंदी की कहानियां फिल्मों में इज्जत का मुकाम पा सकीं। और अब तो कहानी की गुणवत्ता पर भी चर्चा होती है। सही हिंदी बोली जाती है और भाषा अपनी रवानी पकड़ चुकी है। ऐसा लगता है कि टेलीविजन की खबरों की भाषा में भी ऐसा ही कुछ होना शुरू हो गया है। वेलकम बैक बोलने वाले अब खिसक रहे हैं। हिंदी वाक्यों में अंग्रेजी चपेकने की जिद करने वाले एक न्यूज चैनल के मालिक बुरी तरह से कर्ज में डूब चुके हैं। सही हिंदी बोलने वाले समाचार वाचकों की स्वीकार्यता बढ़ रही है।
ऐसा पहली बार नहीं हो रहा है। इतिहास में भी हिंदी के साथ इस तरह के अन्याय हुए हैं। तुलसी दास के ही समकालीन रामचरित के एक रचयिता कवि केशवदास भी हुए हैं। उनके अलावा और भी बहुत सारे कवियों ने राम के चरित्र को अपने काव्य का विषय बनाया। उनका कहीं पता नहीं। केशवदास को तो बाद के विद्वानों ने ''कठिन काव्य का प्रेत'' कह डाला जबकि रामचरित मानस के रचयिता गोस्वामी तुलसी दास का मुकाम हिंदी साहित्य में अमर है, और रामकथा के गायकों में कोई भी उन जैसा नहीं है। इसका कारण यह है कि तुलसी बाबा ने अपने समय की जनभाषा हिंदी में कविताई की और किसी राजा या सामंत की चापलूसी नहीं की।''हिंदी की विकास यात्रा चालू है और उसमें अपने तरीके से लोग अपनी-अपनी भूमिका भी निभा रहे हैं और योगदान भी कर रहे हैं। बहादुरशाह जफर ने फरमाया
है-
ए चमन यूं ही रहेगा और हजारों बुलबुलें,
ए चमन यूं ही रहेगा और हजारों बुलबुलें,
अपनी-अपनी बोलियां सब बोल कर उड़ जायेंगे।
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