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Monday, September 15, 2014

अमरीकी विदेशनीति की दुर्दशा और नेहरू की विदेशनीति की विरासत


शेष नारायण सिंह

पश्चिम एशिया ,खासकर इराक और  सीरिया में अमरीकी विदेशनीति को बहुत ही कठिन दौर से गुजरना पड़ रहा है . अभी कुछ अरसा पहले  इराक के युद्ध से अपने देश को अलग कर चुके अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा को फिर इराक में सैनिक कार्रवाई करने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है .  कई साल पहले अमरीकी शहरों पर ११  सितम्बर को आतंकवादी हमले के बाद से सभी अमरीकी राष्ट्रपतियों ने इराक पर हमले किये हैं . बड़े तामझाम के साथ बराक ओबामा ने इराक में युद्ध खत्म करने की घोषणा की थी लेकिन इस्लामिक स्टेट आफ इराक एंड सीरिया की सैनिक कार्रवाई के मद्देनज़र उनको भी वहाँ शामिल होना पड़ गया. जनवरी ९१ में बुश सीनियर ने , दिसंबर ९८ में बिल क्लिंटन ने और मार्च २००३ में बुश जूनियर ने इराक पर सैनिक कार्रवाई शुरू किया था . अब सितम्बर २०१४ में बराक ओबामा ने भी इस्लामिक स्टेट आफ इराक एंड सीरिया के आतंक के राज को सीमित करने की मंसूबाबंदी कर ली है .बराक ओबामा का मामला थोडा अलग है .उन्होने जब इराक में अमरीकी सैनिक कार्रवाई खत्म करने की घोषणा की थी तो कहा था कि अमरीका के राष्ट्रपति के रूप में उनकी जिम्मेदारी है कि वे अमरीकी अवाम के जान-ओ-माल की हिफाज़त करें . अब दोबारा इराक पर सैनिक कार्रवाई करने के पहले वे फिर यही कह रहे हैं कि अमरीकी  जिंदगियों की रक्षा के लिए  वे यह काम कर  रहे हैं . हालांकि दोनों दावों के सन्दर्भ अलग हैं और दोनों के मायने भी बिलकुल अलग हैं .अभी कुछ दिन पहले बराक ओबामा ने कहा  था कि इस्लामिक स्टेट आफ इराक एंड सीरिया से अमरीकी राष्ट्रीय सुरक्षा को कोई ख़तरा नहीं है . लेकिन उन्होने  साथ साथ यह भी कह दिया कि उनके राज में कोई अगर अमरीका को धमकी देगा तो उसे बचने के लिए कहीं कोई जगह नहीं मिलेगी. हर बार जब भी अमरीका ने इराक पर हमला किया है तो सभे एराष्ट्रपति किसी न किसी रूप में अंतर राष्ट्रीय सहयोग की बात करते थे . सीनियर बुध और बिल क्लिंटन ने तो पूरी दुनिया को शामिल करने की  कोशिश की थी और अपने मुवक्किल देशों  को उस लड़ाई में झोंकने में भी कामयाब रहे थे लेकिन बराक ओबमा की बात से यह नहीं लगता कि वे कोई उस तरह की कोशिश भी कर रहे हैं . ओबामा और उनकी मंडली के और लोग यह बताने की कोशिश कर रहे हैं कि यह वाली लड़ाई पुराने अफगानिस्तान या इराक वाली लड़ाइयों जैसी नहीं होगी. इस बार कुछ सोमालिया या यमन जैसी गुपचुप हमलों टाइप ही  बात रखी जायेगी . हालांकि उनको मालूम है कि यह लड़ाई केवल हवाई हमलों से ही नहीं जीती जा सकती, ज़मीनी सेना भी चाहिए और ओबामा की योजना है कि ज़मीनी सेना का जुगाड इराक और सीरिया में मौजूद उन लड़ाकों से किया जाएगा जो इस्लामिक स्टेट आफ इराक एंड सीरिया के खिलाफ लड़ रहे हैं . यह बहुत ही विरोधाभासी सोच है . इस्लामिक स्टेट आफ इराक एंड सीरिया के खिलाफ जो लोग सीरिया में लड़ रहे हैं ,उनमें सबसे महत्वपूर्ण तो सीरिया के राष्ट्रपति बशर अल असद ही हैं और उनको तबाह करने के लिए अमरीका और नैटो के सदस्य देश सुन्नी बागियों को मदद कर रहे हैं . उन सुन्नी बागियों में से एक बड़ी संख्या इस्लामिक स्टेट आफ इराक एंड सीरिया वालों के हमदर्द हैं .

अमरीकी विदेशनीति में एक नई तरह की सोच पैदा हो रही है . इस नई सोच का अमरीकी विदेशनीति पर बहुत ही भारी असर पड़ने वाला है और यह भी तय है  कि यह असर बहुत ही दूर तलक जाएगा .अभी तक माना  जाता रहा है कि पश्चिम  एशिया में अमरीका सउदी अरब और इरान के बीच जारी प्राक्सी लड़ाई को ही बैलेंस करता रहा है . वह कहीं सुन्नी को मदद करता है तो कहीं शिया को . लेकिन अब इस सोच में बुनियादी बदलाव हो रहा है . अब अमरीकी विदेशनीति के नियामक इस बात पर जोर दे रहे हैं कि इस्लामिक स्टेट आफ इराक एंड सीरिया के विरोधाभासी झगड़े के चलते अब इस्लाम वाले सभी राज्यों से दूरी बना ली जाए . अगर ऐसा हुआ तो अमरीकी विदेश नीति एक बार फिर बुरी तरह से असफल होगी और सिर के बल खड़ी  नज़र आयेगी. इस्लामी और गैर इस्लामी के आधार पर अगर अमरीका अपनी भावी नीति तय करता है तो खासी उलटवांसी होगी क्योंकि एक तरफ तो इस्लामिक स्टेट आफ इराक एंड सीरिया और मुस्लिम ब्रदरहुड है और दूसरी तरफ इरान ,सीरिया की सरकारें हैं और शिया मिलिशिया संगठन हेज़बोल्ला और असीब अहल अल हक़ है .इसमें से सभी आतंकवादी नहीं हैं लेकिन इनकी राष्ट्रीय पहचान गौड़ है और इस्लामी पहचान मुख्य है . यानी इन सभी संगठनों के सदस्य अपने आपको मुसलमान पहले मानते हैं और किसी देश या संगठन का सदस्य या शिया और सुन्नी बाद में .पश्चिम एशिया या अन्य इस्लामी देशों में अमरीका के प्रति जो नफरत का भाव है उसके चलते अब अमरीका में नीति निर्धारक हर तरह के इस्लाम को अपना दुश्मन  मानकर चलने की रणनीति पर काम करने की योजना बना  रहे है .और यह आने वाले समय में  बहुत ही  खतरनाक हो सकता है ..
अमरीकी विदेशनीति में अक्सर इस तरह के हिचकोले आते रहते  हैं .इसका कारण यह है कि उनकी विदेशनीति के निर्धारकों ने आम तौर पर फौरी नतीजों को ध्यानमें रख कर सारा काम किया था. दूरदृष्टि का कहीं दूर दूर तक पता नहीं है . अमरीकी की शेखचिल्ली विदेशनीति की तुलना भारत की विदेशनीति से करना दिलचस्प होगा जो अब तक कहीं भी फेल नहीं हुई. उसका कारण यह है कि इस नीति के मुख्य निर्माता जवाहरलाल नेहरू ने बहुत ही सोच विचार के बाद इस नीति को अमली जामा पहनाया था . लेकिन अजीब बात है कि आजकल नेहरू की विदेशनीति के बारे में बहस का सिलसिला शुरू हो गया है और वे लोग जिनकी पार्टियां आज़ादी की लड़ाई के दौरान अंग्रेजों की मददगार थीं, नेहरू को बहुत ही मामूली नेता बताने की दौड़ में शामिल हो गए हैं ..कुछ टेलिविज़न चैनल भी इस लड़ाई में कूद पड़े हैं . दिल्ली के काकटेल सर्किट में होने वाली गपबाज़ी से इतिहास और राजनीति की जानकारी ग्रहण करने वाले कुछ पत्रकार भी १९४७ के पहले और बाद के अंग्रेजों के वफादार बुद्धिजीवियों की जमात की मदद से जवाहरलाल नेहरू को बौना बताने की कोशिश में जुट गए हैं लेकिन सच्चाई यह है कि नेहरू की दूरदर्शिता का ही नतीजा है कि आज भारत एक महान देश माना जाता है और ठीक उसी दिन आज़ादी पाने वाला पाकिस्तान आज एक बहुत ही पिछड़ा मुल्क है. तथाकथित बुद्धिजीवियो का एक ऐसा वर्ग भी देश में मौजूद है जो यह बताना अपना फ़र्ज़ समझता है कि अगर आज़ादी मिलने के बाद भारत ने अमरीका का साथ पकड़ लिया होता तो बहुत अच्छी विदेशनीति बनती . ज़ाहिर है इस तरह के लोगों को गंभीरता से लेने की ज़रुरत नहीं है . लेकिन जवाहरलाल नेहरू की विदेश नीति की बुनियाद को समझना ज़रूरी है ..१९४६ में जब कांग्रेस ने अंतरिम सरकार में शामिल होने का फैसला किया, उसी वक़्त जवाहरलाल ने स्पष्ट कर दिया था कि भारत की विदेशनीति विश्व के मामलों में दखल रखने की कोशिश करेगी , स्वतंत्र विदेशनीति होगी और अपने राष्ट्रहित को सर्वोपरि महत्व देगी .. यह बात भी गौर करने की है कि किसी नवस्वतंत्र देश की विदेशनीति एक दिन में नहीं विकसित होती. जब विदेशनीति के मामले में नेहरू ने काम शुरू किया तो बहुत सारी अडचनें आयीं लेकिन वे जुटे रहे और एक एक करके सारे मानदंड तय कर दिया. भारत की विदेशनीति उन्ही आदर्शों का विस्तार है जिनके आधार पर आज़ादी की लड़ाई लड़ी गयी थी और आज़ादी की लड़ाई को एक महात्मा ने नेतृत्व प्रदान किया था जिनकी सदिच्छा और दूरदर्शिता में उनके दुश्मनों को भी पूरा भरोसा रहता था. आज़ादी के बाद भारत की आर्थिक और राजनयिक क्षमता बहुत ज्यादा थी लेकिन अंतरराष्ट्रीय क्षेत्र में ताक़त कुछ नहीं थी. जब भारत को आज़ादी मिली तो शीतयुद्ध शुरू हो चुका था और ब्रितानी साम्राज्यवाद के भक्तगण नहीं चाहते थे कि भारत एक मज़बूत ताक़त बने और अंतरराष्ट्रीय मंच पर उसकी आवाज़ सुनी जाए . जबकि जवाहरलाल नेहरू की विदेशनीति का यही लक्ष्य था. अमरीका के पास परमाणु हथियार थे लेकिन उसे इस बात से डर लगा रहता था कि कोई नया देश उसके खिलाफ न हो जाए जबकि सोविएत रूस के नेता स्टालिन और उनके साथी हर उस देश को शक की नज़र से देखते थे जो पूरी तरह उनके साथ नहीं था. नेहरू से दोनों ही देश नाराज़ थे क्योंकि वे किसी के साथ जाने को तैयार नहीं थे, भारत को किसी गुट में शामिल करना जवाहरलाल की नीति का हिस्सा कभी नहीं रहा . दोनों ही महाशक्तियों को नेहरू भरोसा दे रहे थे कि भारत उनमें से न किसी के गुट में शामिल होगा और न ही किसी का विरोध करेगा. यह बात दोनों महाशक्तियों को बुरी लगती थी. जवाहरलाल नेहरू ने अमरीकियों को कुछ इन शब्दों में फटकारा था . उन्होंने कहा कि ,'यह हैरतअंगेज़ है कि अपनी विदेशनीति को अमरीकी सरकार किस बचकाने पन से चलाती है .वे अपनी ताक़त और पैसे के बल पर काम चला रहे हैं , उनके पास न तो अक्ल है और न ही कोई और चीज़.' शुरुआती दिनों में सोवियत रूस ने हमेशा नेहरू के गुटनिरपेक्ष विदेशनीति का विरोध किया और आरोप लगाया कि वह ब्रिटिश साम्राज्यवाद को समर्थन देने का एक मंच है ..सोवियत रूस ने कश्मीर के मसले पर भारत की कोई मदद नहीं की और उनकी कोशिश रही कि भारत उनके साथ शामिल हो जाए . जवाहरलाल ने कहा कि  “ भारत रूस से दोस्ती चाहता है लेकिन हम बहुत ही संवेदंशील लोग हैं . हमें यह बर्दाश्त नहीं होगा कि कोई हमें गाली दे या हमारा अपमान करे. रूस को यह मुगालता है कि भारत में कुछ नहीं बदला है और हम अभी भी ब्रिटेन के साथी है . यह बहुत ही अहमकाना सोच है ..और अगर इस सोच की बिना पर कोई नीति बनायेगें तो वह गलत ही होगी जहां तक भारत का सवाल है वह अपने रास्ते पर चलता रहेगा.” जो लोग समकालीन इतिहास की मामूली समझ भी रखते हैं उन्हें मालूम है कि कितनी मुश्किलों से भारत की आज़ादी के बाद की नाव को भंवर से निकाल कर जवाहरलाल लाये थे और आज जो अमरीका परस्त लोग अपने पूर्वाग्रहों के आधार पर टी वी चैनलों पर बैठ कर मूर्खतापूर्ण प्रलाप करते हैं उन पर कोई भी केवल दया ही कर सकता है. उन्हें अपने दिल्ली और वाशिंगटन में बैठे अपने आकाओं को  बता देना चाहिए अगर नेहरू की तरह सोच विचार कर अमरीका ने विदेशनीति को संचालित किया होता तो आज उसे पश्चिम एशिया में यह दुर्दशा न झेलनी पड़ती 

Friday, November 29, 2013

इरान के साथ परमाणु समझौता पश्चिम एशिया की शांति की तरफ एक अहम क़दम है



शेष नारायण सिंह

पश्चिम एशिया के कुछ देशों की तरह इरान को भी काबू में करने की अमरीकी विदेशनीति की योजना को अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने अलविदा कह दिया है और इरान के साथ परमाणु मसले पर जिनेवा में सुरक्षा परिषद के सभी स्थायी सदस्यों और जर्मनी के विदेश मंत्रियों के बीच एक समझौता हो गया है .रविवार आधी रात के बात सभी संबद्ध पक्षों ने समझौते पर हस्ताक्षर कर दिया .अमरीका ,फ्रांस,चीन रूस,ब्रिटेन और जर्मनी के साथ इरान के  इस समझौते ने पश्चिम एशिया की राजनीति को एक नई राह पर डाल दिया है . अमरीका की सरकार और समाज में मौजूद इजरायल के एजेंट और तेल अवीव की इजरायली सरकार इस डील से बहुत नाराज़ हैं .जबकि इरान की सरकार ने इस सौदे का स्वागत किया है .इरान की ओर से बातचीत में शामिल उनके विदेशमंत्री , मुहम्मद जवाद ज़रीफ़ ने कहा कि इस समझौते के बाद एक ऐसी समस्या से जान छुड़ाने का मौक़ा मिलेगा जिसमें पड़ना ही नहीं चाहिए था. समझौते  के बारे में तरह तरह की व्याख्याएं की जा रही हैं लेकिन सच्ची बात यह है कि जहां इरान की नीयत पर अमरीका सहित उसके समर्थक देश वर्षों से शक करते रहे हैं ,आज उनके बीच एक समझौता हो गया है . समझौते के बाद इरान के राष्ट्रपति हसन रूहानी ने कहा कि इस समझौते में इरान के परमाणु संवर्धन कार्यक्रम जारी रखने के अधिकार को मान्यता  दी गयी है .उन्होंने कहा कि जिसको जो जी चाहे मतलब निकालने दीजिए लेकिन समझौते में साफ़ लिखा  है कि इरान का परमाणु संवर्धन कार्यक्रम चलता रहेगा लेकिन अमरीकी विदेशमंत्री जान एफ केरी ने कहा कि कि ऐसा नहीं हैं .इरान के परमाणु कार्यक्रम को बतौर अधिकार मान्यता नहीं दी गयी है .उनको आपसी बातचीत के बाद ही परमाणु कार्यक्रम जारी रखने का अधिकार है . जिनेवा में जिस समझौते पर दस्तखत हुए हैं वह अंतरिम समझौता  है जो जून तक के लिए मान्य है . इस बीच अमरीका और उसके साथियों को इरान के साथ एक स्थायी इंतजाम करना पडेगा .अगर ज़रूरी हुआ तो मौजूदा समझौते  को कुछ और समय दिया जा सकता है .बहरहाल अमरीका और इरान दोनों ही देशों को अपने लोगों के बीच समझौते तो स्वीकार्य बनाना है इसलिए उसकी अपने हिसाब से राजनीतिक व्याख्या की जाएगी. बाकी दुनिया को इसमें केवल यह रूचि है कि अमरीकी जिद के चलते जो तनाव की स्थिति बनी हुई थी फिलहाल उस पर एक विराम लग गया है .और शान्ति की संभावना बढ़ गयी है .अमरीकी राष्ट्रपति  बराक ओबामा का दावा है कि इस समझौते के बाद दुनिया अधिक सुरक्षित हो जायेगी .अब इस बात की जांच की जा सकती है कि इरान का परमाणु कार्यक्रम  शांतिपूर्ण उद्देश्यों के लिए ही जारी रख सकेगा ,उससे हथियार नहीं बनाए जा सकेगें .
इस समझौते से भारत को भी कुछ उम्मीदें हैं . सरकारी तौर पर बताया  गया है कि पाकिस्तानी प्रधानमंत्री के राष्ट्रीय सुरक्षा और विदेशी मामलों के सलाहकार सरताज अज़ीज़ और इरान के विदेश मंत्री मुहम्मद जवाद ज़रीफ़ के बीच तेहरान में हुई बात चीत से पता चला है कि इरान से पाकिस्तान के रास्ते भारत आने वाले पाइपलाइन के प्रोजेक्ट पर फ़ौरन काम शुरू हो जाएगा . अमरीकी अड़चन के कारण इसपर काम नहीं हो रहा था. इस पाइपलाइन से इरान के पेट्रोलियम उत्पाद  भारत पंहुचने में सुविधा होगी और भारत को बहुत बड़ी बचत होगी. पाकिस्तान की चरमराती अर्थव्यवस्था को भी बहुत मदद मिलेगी .हालांकि पाकिस्तान के पास पाइपलाइन बनाने के लिए धन की कमी है और उसने इरान से दो अरब अमरीकी डालर का कर्ज माँगा है लेकिन एक बार राजनीतिक परेशानियों के हट जाने के बाद यह समस्या भी आसान हो जायेगी .
इरान के साथ अमरीका और अन्य देशों के समझौते का जश्न पश्चिमी दुनिया में मनाया जा रहा है लेकिन इस समझौते से एक तरह से परमाणु हथियारों की दुनिया में अपना दबदबा बनाए रखने की सुरक्षा परिषद के स्थायी देशों की मंशा ही सबसे स्थाई कारण नज़र आती है .अब अमरीका और उसके साथी देशों की समझ में आ गया है  कि इरान को दौन्दियाया नहीं जा सकता और शान्ति की तरफ केवल कूटनीतिक बातचीत के सहारे ही  चला जा सकता  है . इजरायल के दबाव में पिछले कई वर्षों से इरान पर पश्चिमी देशों की तरफ से लगाई गयी पाबंदियां भी के देश के हौसले को नहीं रोक पाईं . बहर हाल आखीर में उनकी समझ में आ  गया कि इरान से बातचीत करने का सही तरीका यह है कि उसको रियाया न समझा जाए ,उसके साथ बराबरी के स्तर पर बातचीत की जाए . अब अमरीका और उसके साथी देशों की कोशिश यही होनी चाहिए कि इस अंतरिम समझौते को स्थायी रूप देने के उपाय करें . हालांकि यह बहुत आसान नहीं होगा . सभी देश इस  चक्कर में हैं कि इरान से रास्ता खुलने के बाद ज्यादा से ज्यादा लाभ लिया जाये होगा लेकिन फिलहाल तो अमरीका को उस धन को इरान को वापस देना है जो उसने पाबंदियों के बहाने दुनिया के कई देशों की बैंकों में ज़ब्त करवा रखा है .
मौजूदा समझौते के बाद इरान का परमाणु संवर्धन का कार्यक्रम जारी रहेगा .दस्तावेज़ में लिखा  है कि शान्तिपूर्ण उद्देश्यों के लिए आपसी परिभाषा के आधार पर परमाणु संवर्धन का कार्यक्रम चलाया जाएगा . इरान की इस बात को संपन्न देश नज़रंदाज़ नहीं कर सके कि संपन्न दुनिया में बिजली की बड़ी ज़रूरत परमाणु संयत्रों से ही पूरी की जाती है और  समझौते में शामिल सभी देशो के अलावा अर्जेंटीना,ब्राजील, भारत,जापान ,नीदरलैंड्स ,उत्तरी कोरिया ,इजरायल और पाकिस्तान के पास भी पार्माणु संवर्धन के कार्यक्रम चल रहे  हैं . इरान ने वचन दिया है कि वह समझौते के छः महीनों में यूरेनियम का पांच प्रतिशत से ज्यादा का संवर्धन नहीं करेगा  या ३.५ प्रतिशत संवर्धन वाला जो उसका भण्डार है उसमें कोई वृद्धि नहीं करेगा . ३.५ प्रतिशत के संवर्धन पर ही बिजली पैदा की जा सकती है जबकि हथियार बनाने के लिए ९० प्रतिशत संवर्धन की ज़रूरत पड़ती है .इरान ने समझौते में पूरा सहयोग किया है . उसने अंतर्राष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी को अपने परमाणु ठिकानों की जाँच करने का पूरा अधिकार देने का वचन दिया है .इसके बदले में  अमरीका ,फ्रांस ,चीन, रूस, जर्मनी और ब्रिटेन ने इरान को वादा किया है कि वह उसके तेल पर लगाई गयी पाबंदियों ढील देगें . इरान से पेट्रोल के निर्यात पर जो पाबंदी लगी हुई है वह भी दुरुस्त की जायेगी . सुरक्षा परिषद में भी इरान के खिलाफ कोई पाबंदी  का प्रस्ताव नहीं लाया जाएगा . ओबामा की सरकार भी  इरान पर पाबंदियां लगाने या उसकी धमकी देने से बाज़ आयेगी. यह पाबंदियां इरान के परमाणु कार्यक्रम को रोकने के लिए लगाई  गयी थीं. वह तो कहीं रुका नहीं अलबत्ता इरान की जनता ने सारी तकलीफें झेलीं .अमरीका में कुछ लोग यह दावा कर रहे हैं कि पाबंदियों के चलते ही इरान की हुकूमत बातचीत करने पर राजी हुई है लेकिन उनकी बात बिलकुल गलत है . इरान ने अपनी शर्तों पर बातचीत का रुख अपनाया है . जिस परमाणु कार्यक्रम को रोकने के लिए सारी पाबंदियां लगाई जा  रही थीं वह अब पूरा सफल  कार्यक्रम  है और नए समझौते में उसको बाकायदा मान्यता दी गयी है .

अमरीका में इस समझौते के खिलाफ इजरायली लाबी की तरफ से किलेबंदी  शुरू हो गयी है . लेकिन  राष्ट्रपति बराक ओबामा भी उनको सस्ते नहीं छोड़ रहे हैं . उन्होंने कहा कि बड़ी बड़ी बातें करना राजनीतिक लिहाज़ से तो ठीक लग सकता है लेकिन राष्ट्र की सुरक्षा के मुद्दे पर अमरीकी कांग्रेस और सेनेट के नेताओं को ऐसी बातें नहीं करनी चाहिए .उन्होने कहा कि कूटनीतिक तरीकों से दुनिया की  सुरक्षा का बंदोबस्त करने की कोशिश को खत्म नहीं किया जाना चाहिए . अमरीका में हथियारों और इजरायली लाबी के लोगों की कोशिश है कि पश्चिम एशिया में शान्ति न पैदा हो लेकिन ओबामा की सरकार भी इस बात पर आमादा है कि शान्ति हर कीमत पर लानी है . अमरीकी विदेशमंत्री जान एफ केरी  भी समझौते के लिए जिनेवा में मौजूद थे और अब वे वाशिंगटन में हैं और अमरीकी संसद के सदस्यों से बातचीत का सिलसिला शुरू कर चुके हैं . छुट्टियों के बाद ९ दिसंबर को कांग्रेस का सत्र फिर से शुरू होगा और उसी दिन से ओबामा सरकार के अधिकारी काम पर लग जायेगें .इस समझौते के रास्ते में सबसे बड़ा अडंगा अमेरिकन इजरायल पब्लिक अफेयर्स कमेटी  नाम की इजरायली लाबी, की तरफ से आने वाला है . यह अमरीका में इजरायली हितों की सबसे ताक़तवर लाबी है . अब इनको यह तो मालूम ही है कि बराक ओबामा जब समझौता कर आये हैं तो उसको पलटा तो नहीं  जा सकता लेकिन यह ज़रूर निश्चित किया जा सकता है कि उसमें भारी अडचने पैदा की जाएँ . इस काम पर  यह लाबी लग चुकी है और कोशिश की जा रही है कि संसद की तरफ से ऐसी शर्तें लगवा  दें कि बात गड़बड़ा जाये. लेकिन अमरीकी सरकार इस लाबी को भी औकात  बताने के मूड में है .बराक ओबामा भी कुछ ऐसा कर गुजरना चाहते हैं जिस से  उनको आने वाली सदियों में याद किया जाए . वे अमरीकी लाबी समूहों को बहुत गंभीरता से नहीं ले रहे हैं क्योंकि उनको अब फिर से राष्ट्रपति पद के चुनाव का मैदान में नहीं उतरना है. इसलिए वे इस लाबी की उन कोशिशों को धता बता रहे हैं जिसमें मांग की जा रही है कि अगर इरान की तरफ से समझौते की शर्तों को लागू करने में कोई ढील बरती गयी तो और भी सख्त पाबंदियां लगा दी जाएँ .लेकिन ओबामा की सरकार का मानना है कि अब तक पाबंदियां लगाकर देख लिया है .आने वाले वक़्त में भी पाबंदियों के नतीजे शान्ति और सुरक्षा के हित में  नहीं होंगें .
अब समझौता हो गया है और सब को अपने हिसाब से अपनी जनता को समझाना है . इरान के नेता कह रहे हैं कि इस से तेल के निर्यात का मौक़ा मिलेगा और ज़ब्त धन वापस मिलेगा .जबकि साउदी अरब की सरकार ने उम्मीद जताई है कि अभी तो यह शुरुआत है , बाद में इरान के परमाणु कार्यक्रम को काबू में किया जा  सकेगा .बहरहाल एक अहम समझौता हो गया है और अब सुरक्षा और शान्ति का व्याकरण में एक नई इबारत लिख दी गयी  है .
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Sunday, August 5, 2012

अमरीकी विदेशनीति ने हक्कानी नेटवर्क के सामने घुटने टेके


शेष नारायण सिंह 
पाकिस्तान से अब अमरीकी  हुकूमत को खासी परेशानी होने लगी है .लेकिन अमरीका की मुसीबत यह है  कि वह सिविलियन सरकार से बातचीत जारी रखने के चक्कर में पाकिस्तानी फौज से सीधे संवाद नहीं कायम कर रही है . पाकिस्तान के ६५ साल के इतिहास में अमरीका ने लगभग हमेशा ही फौज  से ही रिश्ता रखा. हालांकि शुरू के कुछ साल तक वह लोकतान्त्रिक सरकार से भी मिलकर काम करते थे  लेकिन पहले प्रधान मंत्री लियाक़त अली के क़त्ल के बाद ऐसा कभी नहीं हुआ. शुरू से ही भारत पर नकेल कसने की गरज  से  अमरीका पाकिस्तान को अपने साथ रखता रहा है लेकिन हमेशा ही उसका संवाद पाकिस्तानी फौज से ही रहा . लेकिन इस बार अमरीका की कोशिश है कि वह सिविलियन हुकूमत से बात करे क्योंकि उसकी लड़ाई अब आतंक से है . ओसामा बिन लादेन को पकड़ने के लिए शुरू किया गया अमरीकी अभियान लगभग पूरी तरह से पाकिस्तान की  मदद से ही चला . यह अलग बात है कि पाकिस्तान ने ओसामा बिन लादेन को अपने यह पनाह दे रखी थी. और अमरीका को लगातार बेवकूफ बना अरह था. ओसामा बिन लादेन के नाम पर रक़म भी एंटी जा रही थी लेकिन सबसे बड़े आतंकी को अपने यहाँ हिफाज़त भी दे रखी थी.   आतंक के मुकाबले के लिए अमरीकी प्रशासन ने पाकिस्तान को अरबों डालर की मदद की. 
अब खबर आ रही है  कि अब अमरीकी कांग्रेस पूरी तरह से 
पाकिस्तान से खीझ चुकी है और पाकिस्तान की सरकार से गुजारिश की है कि वह आतंकवादी संगठनों और पाकिस्तानी फौज की दोस्ती को तोड़ दे. 
    
   अमरीकी प्रशासन में ताज़ा परेशानी हक्कानी नेटवर्क को लेकर है आरोप लगते रहे हैं कि हक्कानी नेटवर्क  बम बनाने का सामान अफगानिस्तान में भेजता रहा है. आरोप यह भी है कि पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी ,आई एस आई ने ही हक्कानी  नेटवर्क का सारा ताम झाम बनवाया है और वही उसकी मदद कर रहा है .आजकल हक्कानी नेटवर्क  अमरीका का ख़ासा सिरदर्द बना हुआ  है.यह अफगानिस्तान में काम कर रही पाकिस्तानी सेना को चैन से काम नहीं करने दे रहा है , पाकिस्तान में नैटो की गतिविधियों पर  हक्कानी ग्रुप वाले हर मुकाम पर अड़चन खडी कर रहे हैं .सच्चाई यह  है कि ओसामा बिन लादेन के अलकायदा और  तालिबान  जैसे आतंकवादी संगठनों के साथ साथ अमरीकी सी आई ए ने पाकिस्तान की आई एस आई की मदद से अस्सी के दशक में हक्कानी नेटवर्क को भी शुरू करवाया था. यह  तालिबान का ही एक अन्य रूप था   . उन दिनों  इसका इस्तेमाल अफगानिस्तान में सोवियत सेना से लड़ने के लिए किया गया . अब  इसी  हक्कानी नेटवर्क ने अफगानिस्तान और पाकिस्तान की सीमा के दोनों तरफ अमरीका की नाक में दम कर रखा है .अमरीकी फौज का कहना है कि इस इलाके  में हक्कानी नेटवर्क उसका  सबसे बड़ा दुश्मन है और नैटो की सेना और उसके साजो सामान को सबसे  बडा ख़तरा इसी  ग्रुप से है . अभी २०११ तक अमरीकी हुकूमत को उम्मीद थी कि हक्कानी ग्रुप के मौलवी जलालुद्दीन और इनके बेटे सिराजुद्दीन की कृपा से चल रहे आतंक के राज को सीधी बात चीत के ज़रिये ख़त्म किया जा सकता है लेकिन अब अमरीका को भरोसा हो गया  है  कि बिना पाकिस्तान की सरकार को शामिल किये हक्कानी नेटवर्क पर हाथ डालना बहुत ही खतरनाक साबित हो सकता है .

 पाकिस्तान सरकार ने ओसामा बिन लादेन को ख़त्म करने में भी अमरीका की कोई मदद नहीं की थी लेकिन कूटनीतिक भाषा का इस्तेमाल करते हुए अमरीकी विदेश विभाग 
   
  ओसामा बिन लादेन के केस में पाकिस्तान की तारीफ़ करता  है . विदेश विभाग के ताज़ा बयान में  कहा गया है कि पाकिस्तान  हक्कानी नेटवर्क और लश्करे तैय्यबा के मामले  में सही काम नहीं कर रहा है .अमरीका की तरफ से पाकिस्तान  में राजदूत बनकर जाने को  तैयार रिचर्ड ओस्लोन ने सेनेट के सामने अपनी  पेशी में बताया  कि  हक्कानी नेटवर्क को काबू में करना उनकी मुख्य प्राथमिकता  होगी.  हालांकि पाकिस्तानी हुकूमत ने अंतर राष्ट्रीय दुनिया में अपने आत्मसम्मान को  बहुत नीचे गिरा  लिया है लेकिन  पाकिस्तान में तैनात होने वाले किसी भी राजदूत के लिए पाकिस्तान के अंदरूनी मामलों में दखलंदाजी निश्चित रूप से गलत बात है . पाकिस्तान का दावा है कि वह हक्कानी नेटवर्क को काबू में करने के लिए पूरी तरह से कोशिश कर रहा है लेकिन अमरीकी विदेश विभाग उनकी बात को सुनने के लिए तैयार नहीं है.




अमरीकी विदेश नीति के कर्ता धरता लोगों  को पाकिस्तानी बयानों पर विश्वास  नहीं है क्योंकि पाकिस्तान ने हर बार अमरीकी हितों के खिलाफ काम किया है . लेकिन अमरीका भी ईमानदारी ने अपनी आतंकवाद  विरोधी नीति का संचालन नहीं करता है .उनकी नीति में बुनियादी खोट है . वह पाकिस्तान की  ज़मीन से अफगानिस्तान में हो  रही आतंकवादी गतिविधियों की तो मुखालफत करते हैं लेकिन  वही आतंकवादी जब पाकिस्तानी ज़मीन से भारत के खिलाफ आतंक फैलाते हैं तो अमरीका आँख बंद कर लेता है . अमरीका के वर्ड ट्रेड सेंटर  पर आतंकवादी हमले के पहले अमरीकी  विदेश नीति के मालिक लोग   दक्षिण एशिया के आंतंकवाद के बारे में बिलकुल बात नहीं करते थे लेकिन जब उनके ऊपर ही  हमला हो गया तो उन्हें अफगानिस्तान और पाकिस्तान में चल रहे आतंक के तालिबानी साम्राज्य को गंभीरता से लेने की ज़रुरत महसूस हुई . पाकिस्तान की ज़मीन से उठ रहे आतंकवाद के तूफ़ान को रोकने का तरीका यह है कि हर  तरह के आतंकवाद पर काबू किया जाए. अमरीका को चाहिए कि वह पाकिस्तानी सरकार ,फौज और आई एस आई को बता दे कि वह हर तरह के आतंक के खिलाफ है . अगर हर तरह के आतंकवाद पर लगाम न लगाई  गयी तो अमरीका से मिलने वाली खैरात बंद कर दी जायेगी. अगर पाकिस्तान यह रुख अपनाता है तो उसे भारत का भी पूरा  सहयोग मिलेगा क्योंकि भारत भी अपनी आतंरिक सुरक्षा के लिए  कोशिश कर रहा है और उसके ऊपर आतंकवादी हमले आई एस आई की कृपा से ही हो रहे हैं .



अमरीकी सरकार की तरफ से इस हीला हवाली के चलते ही सारी गड़बड़  है  क्योंकि अमरीकी  संसद ने तो अभी पिछले हफ्ते सरकार से आग्रह किया था कि हक्कानी नेटवर्क  विदेशी  आतंकवादी संगठन के रूप में नामजद किया जाए . जब सरकार ने ना नुकुर की तो एक प्रस्ताव पास करके अमरीकी विदेशी विदेश विभाग से जवाब तलब किया गया कि  वह हक्कानी नेटवर्क को क्यों नहीं आतंकवादी संगठन घोषित कर रहा है .विदेश विभाग से रिपोर्ट आ जाने के बाद इस प्रस्ताव पर आगे विचार होगा और अमरीकी संसद का दबाव अमरीकी सरकार पर और भारी पड़ना शुरू हो जाएगा 

जो बात समझ में नहीं आती है वह यह  है कि जब अमरीकी सरकार हक्कानी नेटवर्क से परेशान है और आतंक के क्षेत्र में उसे अपना सबसे बड़ा दुश्मन मानता है  तो उसे आतंकवादी संगठन क्यों नहीं घोषित कर देता. अमरीकी  सरकार का कहना है कि उन्होंने हक्कानी  नेटवर्क के सभी बड़े पदाधिकारियों के खिलाफ पाबंदी लगा दी गयी है लेकिन अभी उसे एक संगठन के रूप में प्रतिबंधित करने का प्रस्ताव विचाराधीन है .कांग्रेस के सदस्य जल्द से जल्द कोई कार्रवाई चाहते हैं लेकिन ओबामा प्रशासन को उम्मीद है कि अभी तालिबान से जो बातचीत की जा रही है उसके बाद शायद 
   
  हक्कानी नेटवर्क 
    
    भी अमरीका से अपने रिश्तों को दोबारा जांचना चाहेगा. अमरीकी विदेश नीति के ज़्यादातर विद्वान् यह मानते हैं कि यह दुविधा ही अमरीकी विदेश नीति की सबसे बड़ी कमजोरी है और इसी कमजोरी के कारण उन्हें बार बार परेशानी का सामना करना पड़ता है. पिछले दो साल में आई अमरीकी विदेश विभाग की हर रिपोर्ट में लिखा है कि अफगानिस्तान में आतंक का राज कायम करने की कोशिश कर रहे  संगठनों को पाकिस्तान में शरण मिलती है लेकिन फिर भी उनके खिलाफ किसी तरह की कार्रवाई नहीं कर रहे हैं 

ऐसा लगता है कि अमरीका दुनिया को दिखाने एक लिए तो अमरीकी फौज को लोकतंत्र के लिए ज़हर मानता है  लेकिन अभी वह फौज को ही पाकिस्तान का शासक मानने की अपने पुरानी नीति से बाहर नहीं निकल पा रहे हैं . उन्होंने साफ़ देखा है कि उनका दुश्मन नंबर एक ओसामा बिन लादेन कई साल तक अमरीकी फौज की शरण में रहा और परवेज़ मुशर्रफ समेत सभी  फौज़ी आला हाकिम अमरीका से झूठ बोलते रहे फिर भी फौज पर विश्वास करने की अपनी नीति से अमरीका पता नहीं क्यों बाज़ नहीं आ रहा है . यह देखना  दिलचस्प होगा कि अमरीकी कांग्रेस के दबाव के बाद भी क्या ओबामा प्रशासन सबसे खतरनाक हक्कानी नेटवर्क के अंदर अपने दोस्त तलाशने की कोशिश से बाज़ आता है या अब वह वक़्त करीब आ गया है जब हक्कानियों के तख़्त को उछाल दिया जाए..

Tuesday, February 1, 2011

मिस्र में अमरीकी विदेशनीति की अग्नि परीक्षा की घड़ी

शेष नारायण सिंह

काहिरा के तहरीर चौक पर आज लाखों लोग जमा हैं और हर हाल में सत्ता पर कुण्डली मारकर बैठे तानाशाह से पिंड छुडाना चाहते हैं . जहां तक मिस्र की जनता का सवाल है , वह तो अब होस्नी मुबारक को हटाने के पहले चैन से बैठने वाली नहीं है लेकिन अमरीका का रुख अब तक का सबसे बड़ा अडंगा माना जा रहा है. बहरहाल अब तस्वीर बदलती नज़र आ रही है . शुरुआती हीला हवाली के बाद अब अमरीका की समझ में आने लगा है कि मिस्र में जो जनता उठ खडी हुई है उसको आगे भी बेवक़ूफ़ नहीं बनाया जा सकता . अब लगने लगा है कि अमरीकी विदेशनीति के प्रबन्धक वहां के तानाशाह , होस्नी मुबारक को कंडम करने के बारे में सोचने लगे हैं . यह अलग बात है अभी सोमवार तक विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन इसी चक्कर में थीं कि मिस्र में सत्ता परिवर्तन ही हो . यानी अमरीकी हितों का कोई नया चौकी दार तैनात हो जाए जो होस्नी मुबारक का ही कोई बंदा हो कहीं . मुबारक मिस्र से हटकर कहीं और बस जाएँ और मौज की ज़िंदगी बिताते रहें . अपने प्रिय तानाशाहों के साथ अमरीका ऐसा ही करता रहा है . लेकिन इस बार अवाम का दबाव इतना है कि तिकड़म के कूटनीति के लिए कोई स्पेस नहीं बचा है . होस्नी मुबारक की फौज का लगभग सारा खर्च अमरीकी सैन्य सहायता से पूरा होता है . अमरीका मिस्र के लिए हर साल क़रीब डेढ़ अरब डालर की फौजी मदद का इंतज़ाम करता है .इस साल भी यह मदद की जा रही है . पिछले हफ्ते राष्ट्रपति ओबामा ने ऐलान किया था कि यह मदद बंद कर दी जायेगी लेकिन ऐसा होने वाला नहीं है. मिस्र की मज़बूत फौज मिस्र से ज्यादा इजरायल के काम आती है . उसी फौज़ की वजह से पश्चिम एशिया में इज़रायल की सुरक्षा सुनिश्चित होती है . जहां तक अमरीका का सवाल है वह इजरायल की बदमाशी के कारण ही पश्चिमी एशिया और अरब देशों में अपनी राजनीति को चमकाता है . इसलिए इजरायल किसी भी हालत में मिस्र की सेना को कमज़ोर नहीं होने देगा . लेकिन आज इज़रायल और अमरीका की चिंताएं दूसरी हैं . जो लाखों लोग आज तहरीर चौक पर जमा हैं , उनकी राजनीति के बारे में किसी को पता नहीं हैं . उनका कोई नेता नहीं है . हालांकि अभी तक वह आन्दोलन पूरी तरह से महंगाई, बेरोजगारी और आर्थिक विषमता को केंद्र में रख कर चलाया जा रहा है लेकिन खबर है कि इस्लामी ब्रदरहुड नाम की संस्था ने अगुवाई करने की कोशिश शुरू कर दी है . इस संगठन के प्रभाव वाली सरकार न तो अमरीका को सूट करेगी और न ही उसे इज़रायल स्वीकार करेगा . ज़ाहिर है कि अमरीका की कोशिश है कि होस्नी मुबारक को अगर हटाना ही पड़ता है तो वह उसे हटा तो देगा लेकिन उनकी गह पर वह किसी इस्लामी प्रभाव वाली सरकार को बर्दाश्त नहीं करेगा . इरान में शाह रजा पहलवी की सरकार घोषित रूप से अमरीका परस्त सरकार थी . शाह के खिलाफ जब आन्दोलन ने जोर पकड़ा तो अमरीका गाफिल पड़ गया और वहां इस्लामी सरकार बन गयी . आज तक अमरीकी विदेश नीति के प्रबंधक अमरीका के उस वक़्त के विदेश नीति के प्रबंधकों को कोसते पाए जाते हैं . इसलिए अमरीका किसी कीमत पर मिस्र में इरान वाली गलती नहीं दोहराना चाहता . शायद इसीलिये जांचे परखे अमरीका के दोस्त , अल बरदेई को आगे किया गया है . संयुक्त राष्ट्र के परमाणु इन्स्पेक्टर के रूप में वे अमरीकी हुक्म को पालन करने का तजुर्बा रखते हैं . दुनिया भर में जाने जाते है और उनका अंतर राष्ट्रीय प्रोफाइल भी ठीक है . अब तक की स्थिति से लगता है कि अमरीका उन पर ही अपनी बाज़ी लगा रहा है . जो भी हो आज की तहरीर चौक की स्थिति ऐसी है कि अब अमीका को फ़ौरन से पेशतर मिस्र में सत्ता परिवर्तन के लिए तैयार हो जाना पड़ेगा .

काहिरा की सडकों पर जमे हुए लोगों को इरान की सरकार ने आज पूरा समर्थन कर दिया है . यह एक ऐसा समर्थन है जिसे मिस्र की अगली सरकार से अमरीका हर हाल में दूर रखना चाहेगा . शायद इसी हालत से बचने के लिए अमरीकी विदेश विभाग ने मिस्र में हो रहे बद्लाव पर अपना नियंत्रण बनाए रखने के लिए मिस्र में रह चुके अमरीकी राजदूत फ्रैंक विजनर को काहिरा के लिए रवाना कर दिया है . पश्चिमी एशिया में अमरीका के बहुत सारी दोस्त सरकारें हैं . सभी तानाशाही की सरकारें हैं और सभी उन गुनाहों में लिप्त हैं जिसकी वजह से होस्नी मुबारक को आज जाना पड़ रहा है . सभी सरकारों की नज़र अमरीका पर है . वे देख रहे हैं कि अपने हुक्म के एक गुलाम राष्ट्रपति को अमरीका कितना समर्थन दे पाता है . अमरीका के प्रति उनका रुख भी मिस्र की घटनाओं को ध्यान में रख कर ही तय होगा . लेकिन अमरीका की मजबूरी यह है कि वह अगर आज के बाद भी मुबारक को समर्थन देता है तो मिस्र की नयी सरकार के साथ उसको बहुत मुश्किल पेश आयेगी. ज़ाहिर है अमरीका का रास्ता बहुत मुश्किल हो गया है. उसकी हालत यह है कि उसके सामने आग का दरिया है और तैरना भी ज़रूरी है . मिस्र में सत्ता के बदलाव का असर पश्चिम एशिया की कूटनीति पर तो पडेगा ही बाकी दुनिया में भी अमरीकी विदेश नीति की अग्निपरीक्षा होने वाली है .

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